18 अक्तू॰ 2019

अपनी पूजा करवाने से भी कई गुना ज़्यादा!


हम स्वदेशी-आयातित पर्व पर ख़ूब इतराएँ पर हम हिसाब अवश्य लगाएं कि निजी इच्छाओं को पूरा करने में जो आनंद मिलता है उससे बड़ा कोई क्या व्रत होगा? 
पूरे साल हम तीज-त्योहार-व्रत आदि पर अनुमानतः जो खर्च करते हैं उसका दशमलव एक प्रतिशत ख़र्च से साल में 3 बार 3 भूखों को एक वक़्त का भोजन करा दें तो यकीनन विश्व भूख तालिका में हम ऊपर खिसक जाएँगे।
 इससे बड़ा सच कुछ ओर नहीं हो सकता कि भूखे को भोजन कराने पर एक अलग सी अनुभूति होती है। अपनी पूजा करवाने से भी कई गुना ज़्यादा! 


क्या पिता की लम्बी उम्र के लिए, माँजी की लम्बी उम्र के लिए, ..

क्या पिता की लम्बी उम्र के लिए, माँजी की लम्बी उम्र के लिए, सास-ससुर (पत्नी के माता-पिता भी) की उम्र के लिए, अविवाहित बड़े भाई-बहिन की लम्बी उम्र के लिए भी कोई व्रत-त्योहार रखते हैं हम? उसका इसी तरह से प्रदर्शन क्यों न शुरू हो जाए? 

ठीक करवाचैथ आते ही महिला केन्द्रित ख़ासकर पत्नी आधारित काॅटून,हंसोड़ पर भद्दी भावना से ग्रसित चुटकूलों की बाढ़-सी आ गई है। उस पर आलम यह कि हम उन्हें ख़ूब प्रचारित और प्रसारित कर रहे हैं। सारा समाज दो खेमों में बंट गया है। व्रत को मानने-मनवाने वालों का और व्रत को न मानने और मनवाने वालो का। एक पक्ष इसकी पैरवी कर रहा है तो दूसरा खिल्ली उड़ा रहा है। तर्क से परे तथ्यों को जाने-समझे बिना फ़िकरे कसने में कोई बाज़ नहीं आ रहा है।

व्यक्तिगत तौर पर मैं स्वयं महिलाओं को लक्ष्य बनाकर सुनने-सुनाने जा रहे चुटकूलों के सख़्त खि़लाफ हूँ। अपना एतराज़ संबंधित को जताने में एक पल की देरी भी नहीं करता। लेकिन यह हमारे आचरण में भी होना चाहिए। हम हर उस बात से परे हों जो किसी के आत्मसम्मान को चोट पहुँचाती हो। हाँ, हमें त्योहारों के बाज़ारीकरण को समझना चाहिए। हमें मंशा समझनी चाहिए। उसके महिमामंडन के जाल में नहीं फंसना चाहिए। 

क्या पिता की लम्बी उम्र के लिए, माँजी की लम्बी उम्र के लिए, सास-ससुर (पत्नी के माता-पिता भी) की उम्र के लिए, अविवाहित बड़े भाई-बहिन की लम्बी उम्र के लिए भी कोई व्रत-त्योहार रखते हैं हम? उसका इसी तरह से प्रदर्शन क्यों न शुरू हो जाए?


किसी भी धर्म का कोई भी पर्व-त्योहार है। है तो है। वह आपके-मेरे विरोध करने से बन्द नहीं होने वाला। उस समाज और वर्ग की चेतना जब जगेगी तब कुप्रचलित त्योहार,प्रथा और उत्सव आदि बन्द होंगे। हमारे पास तमाम उदाहरण हैं। जिन्हें तत्कालीन समाज मनाता था, धीरे-धीरे वे काल के गाल में समा गए। फिर भी किसी एक दिन का स्यापा जिसे न करना हो न करे। जो कर रहे हैं, करने दें। आपकी जेब थोड़े न ढीली हो रही है। उधार लेकर घी पीना तो आज की रवायत भी है। 

अब अपनी कहूँ। हम तथ्यविहीन पर्व, त्योहार और भोंडे प्रचलन नहीं करता। जैसे मैं नहीं करता, न करवाता हूँ। प्रदर्शन भी नहीं करता। लेकिन किसी का मजाक उड़ाने का मुझे कोई हक नहीं। हमने अपने दोनों बच्चों को कभी कोई काला टीका नहीं लगाया। गंडा-ताबीज़ भी नहीं पहनाया। लेकिन मेरा साफ मत है कि ऐसे कोई व्रत रखने से दूसरा कोई दीर्घजीवी नहीं हो जाता। लेकिन कोई कूप में पड़ा है तो यह उसका निजी मामला है। आपकी तरह मैं भी किसी भी उत्सव के भौंडे प्रदर्शन पर हंसता हूँ। लेकिन दोनों हाथ हवा में लहराकर दांत फाड़कर ठठाता नहीं। 

अब दीपावली आने वाली है। लाख कहिए, लेकिन हजार दो हजार रुपए (रुपए शायद मैं ज्यादा तो नहीं लिख गया?) के पटाखे हम हवा में स्वाहा कर देंगे। लेकिन अपने आस-पास लाचार-भूखे को तीस रुपए का भोजन नहीं कराएंगे। किसे संस्कृति कहें या परम्परा या रीति रिवाज? परम्पराए तो विधवा के बाल मूंड देने की भी थी। सती हो जाने की थी। देवी के नाम पर बलि देने की थी। पर यह हम सभी को सोचना होगा। आप प्रगतिशील बनिए और पड़ोसी सत्रहवीं सदी में जिए, इससे क्या होने वाला है? गाय के नाम पर आवारा पशुओं का सड़कों पर घूमना क्या हमें रोज-रोज नहीं दिखाई देता? लेकिन दबंगई के लिए हमें दूसरी कमजोर जात ख़ूब दिखाई देती है। 

मुझे नहीं लगता कि ऐसा कोई परिवार होगा, जिस घर में कोई विधवा न हो, अधेड़ पर अविवाहित या अविवाहिता न हो, विधुर न हो,परित्यकता न हो, बुजुर्ग न हो? इनकी लंबी आयु के लिए कोई व्रत-त्योहार रखने की परम्परा हमारी भारतीय संस्कृति में नहीं है!  क्या यह भी हम तब शुरू करेंगे, जब ये भी अन्य की तरह आयातित होंगे? गैजेट्स, बरतन, कमोड, कंडोम, शराब, अधोवस्त्र और खान-पान तो आयातित हैं! अब तीज-त्योहार आयातित हैं भी तो मरोड़ काहे? 

हम नकलची हैं तो हैं ! अरे यार ! हर किसी के पास जीवन जीने के, खराब जीवन जीने के, तथ्यरहित जीवन के, तर्कसहित जीवन जीने के क़ायदे हैं। हर बार हर कोई लाल कपड़े में धूल फाँक रही किताब खोल के थोड़ न देखेगा? जब अपने को अभाव में रखते हुए उसके मरने के बाद सात-सात दिन का अखण्ड पाठ जिसमें पाँच-सात लाख (रुपए ज़्यादा तो नहीं लिख गया ) हवा हो जाते हैं तब आप एक-दो दिन के त्योहारों पर हंगामा काट रहे हो?

शर्म करो। टुच्चे कहीं के? 

गड़े मुर्दे उखाड़ने से कुछ भी हासिल नहीं होगा। बड़ी रेखा खींचने की ज़रूरत है।

क्या आपको याद है अमिताभ बच्चन ने चुनाव में किसे हराया था? भारतीय आम चुनाव में लहर बड़ा काम करती है। काम तो बोलता है ही, पर कई बार नाम भी बोलता है। 

अब देखिए न ! ऐसी सरकार जो हमेशा से विपक्ष को निशाने पर लेती है। हर सत्तारूढ़ दल ऐसा ही करता है। लेकिन, भारतीय चुनाव के परिणाम देखें तो मौजूदा समय में सबसे कमजोर विपक्ष नायाब है। उसकी आवाज़ तूती की आवाज़ भी नहीं है। लेकिन सत्तारूढ़ दल को बार-बार आए दिन ऐसी क्या जरूरत पड़ती है कि उनके झण्डाबरदार विपक्षी दलों की चर्चा अपने बयानों में,भाषणों में और योजनाओं के उद्घाटनों के समय में गाहे-बगाहे नहीं, हर अनुच्छेद के बाद करते हैं? यह समझ से परे है।  

यदि प्रमुख विपक्षी दल की बात करें तो वह मृत्युशैया पर पड़ी है। काहे उसकी चर्चा करते हो? 
खैर......
हमें क्या? 
यदि मौजूदा सभी विपक्षी दल ठीक से काम कर रहे होते तो जनता इतने बड़े अन्तर से उन्हें संसद में अतिअल्पसंख्यक बनाती? 

चलिए, पिछले पाँच साल सिर-आँखों पर बिठाए दल ने सोचने-समझने-बोलने-बताने में लगा दिए। लेकिन अब तो काम करने का समय आ ही गया है। बार-बार सत्तर साल का रोना रोने से अब काम नहीं चलेगा। न ही मतदाता 35 साल तक यानि अन्यों की अपेक्षा 50 फीसदी समय मांगने की बात पर इन्तजार करेगी और झेलती रहेगी। 

यह बात दीगर है कि आजादी के बाद हमारे पास सुईं भी विदेश से आती थी। हम कहाँ खड़े थे और आते-आते कहाँ तक आए हैं। लेकिन यह आना नाकाफी है। भारतीय नागरिक आज भी बेहतर शिक्षा,स्वास्थ्य,आवास और रोजगार के लिए तरस रहे हैं। इन चार मुद्दों पर आज भी काम करने की जरूरत बनी हुई है। 

बहाने बनाने से, पल्ला झाड़ने से , पूर्ववर्तियों को कोसने से और बेवहज की बहसों को जन्म देने से बात नहीं बनेगी। गड़े मुर्दे उखाड़ने से कुछ भी हासिल नहीं होगा। बड़ी रेखा खींचने की ज़रूरत है। 


हम क्या-क्या बेचेंगे? बेचने से अधिक बनाने पर ध्यान देना होगा। चाँद भी ज़रूरी है पर पूर्णिमा के चाँद-सी रोटी बेहद ज़रूरी है। आप क्या कहते हैं?   

17 अक्तू॰ 2019

फिर,फिर,फिर

सरकारी सस्ते गल्ले की दुकानें, 
सोसायटीज़ की दुकानें, 
फिर सरकारी संस्थानों में ही स्ववित्त पोषित पढ़ाई,
फिर सरकारी स्कूलों के साथ निजी स्कूल, 
फिर सरकारी अस्पतालों के साथ निजी अस्पताल।
फिर बीएसएनएल के बाद निजी सिम सेवाएं, 
फिर परिहन बसों के साथ निजी बसें। 
फिर निजी हवाई सेवाएं और 
फिर रेल में भी निजी सेवाएं। 

यह सब पहले गुणवत्ता के नाम पर आए और फिर उसके बाद रोजगार के सीमित अवसर और उसके बाद मँहगाई। उसके बाद बेरोजगारी और उसके बाद अपराध,आत्महत्याएं और अवसाद।

पर हमारे लिए इन सबका कोई महत्व नहीं है। हम तो मूर्ति,मन्दिर-मस्जिद,भारत-पाकिस्तान,ये सरकार वो सरकार। देश तीसरी महाशक्ति। देश का एक नायक, एक झण्डा,एक भाषा आदि-आदि के लिए हैं न? हम तो इन मुद्दों पर उलझेंगे। वे तो गौण मुद्दें हैं जिनकी पहले चर्चा हुई है। क्यों?

इसे मत पढ़ना।

इसे मत पढ़ना।
लीक से हटकर चलना आसान नहीं है। 

मुझे लगता है कि हमारी बुनियादी शिक्षा में ही खोट है। वहाँ हमें अक्षर पहचानना और उन्हें लिखना सिखाना पर ही सारा जोर रहता है। शायद सिखाना भी नहीं बल्कि नकल करने पर सारी मशक्कत रहती है। ज़्यादा हुआ तो अक्षरों को पहचानकर शब्द पढ़ना पर जोर रहता है। मुझे नहीं लगता कि वहाँ हमें पढ़े गए अनुच्छेद से अपने अनुभवों के आधार पर समझ बढ़ाने का अभ्यास कराया जाता है। अनुच्छेद तो बड़ी बात है। शायद वाक्य में निहितार्थ पर जोर देना ही समझाया होता !

यदि ऐसा होता तो हम आदर्श वाक्यों से अपना जीवन बेहतर कर रहे होते। मानवीय जीवन बेहतर कर रहे होते। इस धरती का जीवन बेहतर कर रहे होते।

अब देखिए न! वैज्ञानिक यहाँ तक कह चुके हैं कि आगामी चालीस सालों में ही धरती के कई शहर जीवन जीने लायक नहीं रहेंगे।

हम बचपन से वाक्य पहचान रहे हैं। जैसे- ‘पेड़ काटना मना है।’ लेकिन समझते होते तो पेड़ों की संख्या बढ़ाते। पर पेड़ लगातार कट रहे हैं।

जैसे-‘बांए चलो।’ लेकिन समझते होते तो दांए न चलते और सड़क हादसे कम होते। 

जैसे-‘जीवों की हत्या मत करो।’ लेकिन समझते होते तो आज सैकड़ों जीव लुप्तप्राय न होते।

जैसे-‘मनुष्य बनो।’ लेकिन समझते होते तो मनुष्य की गरिमा का ख्याल रखते। दानवता न बढ़ाते। भीड़ हिसंक न होती। 


हम पढ़ाकू बने। पढ़ाकू बना रहे हैं। लेकिन हमने शायद विलोम पढ़ा होता तो हम उसका उलट करते। यही सही होता। जैसे पेड़ काटो। यह पढ़ते तो शायद पेड़ न काटते। दांए चलो पढ़ते तो फिर शायद बांए चलते। जीवों को मारो। खूब मारो। यह पढ़ते-समझते तो शायद जीव बचते। हम पढ़ते-समझते कि महा दानव बनो तो शायद मनुष्य बनते। 
अब देखो न। मैंने लिखा-‘इसे मत पढ़ना।’ 

और आपने पढ़ा। पूरा पढ़ा। पढ़कर ही दम लिया। 
अब पढ़ा तो पर समझा क्या? ये अलग बात है!

16 अक्तू॰ 2019

पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल से ज़्यादा कुपोषित बच्चे भारत में

ताज़ातरीन आंकड़ों में कहा गया है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल से ज़्यादा कुपोषित बच्चे भारत में हैं। अरे भारत महाशक्ति बनने जा रहा है और आप आंकड़े पेश कर रहे हो। हमें राॅफेल से क्या लेना? आने वाले समय में हम स्वदेशी अस्त्र-शस्त्रों से दुश्मनों के छक्के छुड़ाएँगे। देख लेना। 
मूर्ख हो सब्बे-सब्ब...! इन तीनों देशों की आबादी को जोड़ लो। ये हुई-355 मिलियन। चलो विवरण बताए देते हैं- नेपाल की 27 मिलियन, पाकिस्तान की 177 मिलियन, बांग्लादेश की 151 मिलियन और भारत की आबादी 1211 मिलियन है। समझे के समझाए? नहीं समझे ! अरे खोत्तों 355 मिलियन से ज़्यादा तो हमारे भारतीय फुटपाथों पर सोते हैं। आपके आँकड़ों से हमें विश्व का नंबर वन महाशक्ति देश बनने से कोई नहीं रोक सकता। 


वैसे एक बात और सुन लो ! वह बात यह है कि हमारे यहाँ बच्चे किसी भी राजनीतिक दल के घोषणा-पत्र का हिस्सा कहाँ बनते हैं? अब आप ही बताइए, जो बच्चे कुपोषित हैं भी, उन्हें कौन-सा पौष्टिक आहार चाहिए? हाँ, उन्हें और उनके परिवार को हम प्रतिदिन फोकट का 1.5 जीबी डेटा न दें? 

ठीकरा !

अब तो हर बात पर यह कहा जाने लगा है कि 35 साल दो, तब बोलना कि देश कहाँ पहुँचा ! 


15 अक्तू॰ 2019

बातें-मुलाकातें: आज में यकीन करने वाली नीलम सिंह जी

नीलम जी का फोन आया। वह पौड़ी आई हुई थीं। रविवार था। लेकिन यह सामान्य रविवार होता तो समस्या नहीं थी। हम नौ बजे से त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव के मतगणना प्रशिक्षण में थे। 

सुबह बात हुई तो यह तय हुआ कि शाम को मिल सकते हैं। लेकिन प्रशिक्षण के दो चरणों में क्रमबद्धता न होने के बावजूद भी ज़रूरी निर्देश और प्रशिक्षण की बाध्यता ने बाध्य कर दिया। साढ़े बारह बजे के बाद यह हुआ कि दोपहर के भोजन के बाद अलग-अलग विकासखण्ड के कार्मिक मतदान पेटी के खोलने,बंद करने और उलटने का प्रशिक्षण लेंगे। बस यहीं समय मिल गया। 

लगभग एक घण्टे का समय मिल गया। मैंने उन्हें फोन किया तो वह सतपाल धर्मशाला में थीं। मैं संस्कृति विभाग के प्रेक्षागृह में था। मुझे फ्रन्टियर नीलम जी से पहले पहुँच ही जाना था। लेकिन धारा रोड़ से बस अड्डा की ओर आते-आते नरेश उनियाल जी मिल गए। उनके साथ सेल्फी का सिलसिला चल पड़ा। तभी आगे बढ़ा कि शिवदयाल शैलेष जी मिल गए। फिर वीरेन्द्र खंकरियाल जी। सभी आत्मीयजन। 

मिलते-मिलाते आगे बढ़ा कि नीलम जी का फोन आया,‘‘मैं पहुँच गई।’’ मैंने जवाब दिया,‘‘बस ! पाँच मिनट से पहले,मैं भी पहुँचता हूँ।’’
सोचते-सोचते आगे बढ़ा,‘‘ये तो अशिष्टता है। कोई हमारे शहर में आए और उसे इन्तज़ार करना पड़े!’’
लेकिन हो भी क्या सकता था अब? जो होना था,वो तो हो गया।

वे बैठी हुई मिलीं। मोबाइल के स्क्रीन पर झुकी हुई थीं। दिलचस्प बात यह रही कि वह फ्रन्टियर में उस जगह बैठी हुई थीं, जिस जगह पर यदा-कदा गणेश खुगशाल ‘गणी’ जी भी बैठते हैं। खैर.....दुआ-सलाम हुई। औसत से ज़रा-सा कद कम वाली नीलम जी तो पहाड़ की ही रहबासी निकली। शहर से परिचित। श्रीनगर से ख़ूब परिचित। जाने-माने इतिहासविद् पुरातत्ववेत्ता डाॅ॰यशवन्त सिंह कठौच की भान्जी। मासौं ननिहाल। मुम्बई में मांजी-पिताजी। भाई इग्लैण्ड में और नीलम जी सुदूर सुलतानपुर में 23 सालों से पढ़ने-पढ़ाने में व्यस्त ! 

अपने बैग से उन्होंने अविलम्ब सौंधी पत्रिका मेरे सम्मुख रख दी। झट से मोबाइल निकाला। यह कहा कि इसे पढ़िए,देखिए स्कूल में बच्चों को दिखाना है। मैं सकुचाया तो पर इच्छा तो देखने की थी ही। फिर अपन ने भी चाहा कि उनके हाथों से मुझे पत्रिका मिलने का फोटो भी होना चाहिए। एक बालक से अनुरोध किया तो उसने दो फोटो मेरे मोबाइल खींच दी। खाने-पीने की बात हुई तो दो बज चुके थे। वे कुछ भी खाने या पीने से मना कर रही थीं। हमने कहा कि हम तो चाय पियेंगे। वे उठीं और मेरे लिए चाय और अपने लिए नीबू चाय कहकर लौट आईं। 

बस फिर तो साहित्य,शिक्षा, बचपन,बच्चे,विद्यालय,घर-परिवार,पहाड़-मैदान,जीवन के संघर्ष,राज्य का भविष्य और भावी योजनाओं पर ख़ूब बातें हुईं। वे अपने बारे में,अपने स्कूल के बारे में और अपने काम के बारे में बोलती रहीं। मैं पूछता रहा वे बताती रहीं। आधा घण्टा बीत गया। मुझे प्रशिक्षण के लिए वापिस प्रेक्षागृह लौटना था। वे भी मेरी मनःस्थिति समझ रही थी। फ्रन्टियर से धारा रोड होते हुए हम प्रेक्षागृह तक पैदल चलते-चलते आए। वे चार साल बाद पौड़ी आई थीं। मैं उन्हें शहर की नई-पुरानी सरकारी इमारतों के बारे में बता रहा था। 

नीलम जी ने अपनी ज़िंदगी के 23 साल उस सुलतानपुर को दे दिए, जहाँ उनका कोई न था न है। हाँ उनके साथ है उनकी सादगी,कुछ करने का सकारात्मक, अतिसंवेदनशील नज़रिया और जीवन में अतिमहत्वकांक्षी सपनों-इरादों से हटकर कम खर्च बालानशीं वाली समझ। जीवन,कार्यशैली भले ही जीवट है पर इतनी सरल भी वे नहीं हैं। अपने उसूलों,सिद्धान्तों और समझौता न करने वाली स्वाभिमानी सोच के चलते उन्होंने अपना एक स्थान हासिल किया है। वे आज में भरोसा करती हैं। कल की योजना बनाती हैं लेकिन परसों की चिन्ता में घुलने को वो तैयार नहीं। न ही इसके चक्कर में आज के उत्सव को खोना चाहती हैं। 

सोचता हूँ कि हमारे आस-पास इतनी नकारात्मकता कहाँ हैं जितनी हमने पाल ली हैं। आदमी जीवनरूपी भंवर में स्वयं तो फंसता है। उलझता है। यदि कोई भी हो, कैसा भी हो, कहीं भी हो। वह ज़रा-सा उत्साह और कर्मशीलता मुट्ठी में रखे तो नीलम जी जैसा आभामंडल हासिल कर सकता है। एक अपरिचित-सी भूमि पर अपने दम पर अपने लिए,अपने काम के लिए अपने कर्म के लिए क्षेत्र हासिल कर लेना कठिन नही ंतो आसान भी कहाँ हैं। जहाँ धनलोलुपता ने हमारे भीतर की मनुष्यता को लील लिया हो,वहाँ नीलम जी जैसा व्यक्तित्व यह भरोसा दिलाता है कि हमारे भीतर मनुष्यता और सम्मान से जीवन जीने की ललक मरनी नहीं चाहिए। हमारे भीतर दूसरों के सम्मान और उसके मनोभावों को समझने का सलीका भी नहीं मरना चाहिए। हम अपने से इतर दूसरे की गरिमा का भी ख़्याल रखें। यह नीलम जी ने संक्षिप्त ही सहीं छोटी -सी मुलाकात में मुझे अहसास करा दिया।  
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हाल ही में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में पौड़ी के पे्रक्षागृह में प्रशिक्षण था।
उसी दिन सुलतानपुर के अजय पब्लिक स्कूल की प्रधानाचार्य नीलम सिंह जी निजी यात्रा पर उत्तराखण्ड आईं थीं।
 एक संक्षिप्त,पहली लेकिन अविस्मरणीय मुलाकात पौड़ी में हुई। इस अवसर पर उन्होंने विद्यालय की पत्रिका ‘सौंधी’ मुझे भेंट की। 

महात्मा गांधी जी की जान लेने के पहले भी पाँच पर प्रयास हुए।

महात्मा गांधी जी की जान लेने के पहले भी पाँच पर प्रयास हुए। छठी बार उनकी जान ले ली गई। एक आदमी इन जानलेवा प्रयासों में चार बार उपस्थित रहा। बता सकते हैं वह कौन था?

बतख मियाँ अन्सारी किसी को याद है?

बतख मियाँ अन्सारी किसी को याद है?

सौंधी में अनगिनत खुशबूएँ हैं

सौंधी में अनगिनत खुशबूएँ हैं
-मनोहर चमोली ‘मनु’
कोई स्कूल अपनी स्थापना के पच्चीस वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर विद्यालयी पत्रिका को भव्यता से प्रकाशित करे और यह प्रयास करे कि अध्ययनरत् सभी छात्रों की आभा किसी न किसी तरह शामिल हो तो ऐसे प्रयास को आप क्या कहेंगे? पत्रिका का हर पृष्ठ रंगीन है। पत्रिका  भारी-भरकम है। 234 पेज हैं। लेकिन रचनाएँ ठीक उलट सहज-सरल और मासूम भी हैं।


 पत्रिका का प्रकाशन जितना जटिल है उसके ठीक विपरीत बाल सुलभ रचनाएँ छात्रों ने उत्साह के साथ प्रस्तुत की हैं। बहरहाल बेशकीमती पत्रिका मूल्यरहित है लेकिन इसके अस्तित्व में आने से पहले पच्चीस साल की विद्यालयी यात्रा को एक जगह पर समेटना उतना ही अनमोल है। 

निश्चित तौर पर विद्यालय के पूर्व छात्रों,अध्यापकों और प्रबन्धन तंत्र इस पहले प्रयास को आगे बढ़ाने के लिए भी कृत संकल्प होंगे। अठारह संदेश हैं। राग-अनुराग के तहत विद्यालय से जुड़े शिक्षक-शिक्षिकाओं,कार्मिकों और छात्रों ने भी अपनत्व भरे संदेश भेजे हैं। यह संदेश स्वयं में किसी जानदार-शानदार रचना से कम नहीं हैं। इनकी संख्या सेंतीस हैं। विद्यालय तो छोड़िए जो अब इस दुनिया में नहीं हैं और उनका योगदान विद्यालय में किसी न किसी तरह का था, उन्हें भी पत्रिका में स्थान दिया गया है। 

30 पूर्व छात्रों की बातें,यादें,संस्मरण और रचनाएँ शामिल है। इन्हें पढ़कर पता चलता है कि एक विद्यालय अपने छात्रों को इस समाज के विविध कर्मक्षेत्रों में देखकर कैसे गौरवान्वित होता होगा? इसकी कल्पना करना किसी रोमांचक यात्रा से कम नहीं है। 900 से अधिक जीवंत छाया-चित्र पत्रिका में शामिल हुए हैं। 55 से अधिक रेखांकन छात्रों के भी हैं। लगभग 100 इलस्ट्रेशन पत्रिका में बनाए गए हैं।

 विद्यालय की स्थापना से लेकर आज तक की यात्रा को पूरी गरिमा,संघर्ष और प्रगति के साथ इस पत्रिका में शामिल करने का सफल प्रयास किया गया है। तोतला मुँह,बड़ी बातें स्तम्भ के तहत अभी-अभी स्कूल आ रहे छात्रों की ज़बानी छूटे बोलों,बातों और विचारों को शामिल किया गया है। ऐसे सेंतीस छात्रों ने गुदगुदाने और विचार करने वाली रचनाएँ दी हैं। आपका नाचने का मन कब करता है? इस स्तम्भ के तहत पन्द्रह छात्रों को स्थान मिला है। बाक़यदा उनकी समूह में फोटो खींचकर इस स्तम्भ में प्रकाशित की गई है। 


पत्रिका में घर के बुजुर्गों को ही परियाँ कहा गया है। मज़ेदार बात यह है कि छात्रों ने अपने दादा-दादी के संग बिताए दिनों,क्षणों और अवसरों को अपनी कल्पना और अनुभव के हिसाब से संस्मरण के तौर पर पत्रिका में दिया है। मजेदार बात यह है कि बाक़ायदा वे अपनी इन परियों-फरिश्तों के साथ फोटो के साथ भी हैं। ऐसे छब्बीस रचनाकारों की रचनाएँ यहाँ हैं। मेरे पालतू जानवर मेरे दोस्त स्तम्भ के तहत छात्रों के घर में पल रहे जानवरों के साथ फोटो और विवरण भी पत्रिका में है। इन रचनाओं की संख्या चैबीस है। मेरे पौधे मेरे मित्र स्तम्भ के तहत बाईस छात्रों का उनके पौधों-पेड़ों के समक्ष दर्ज़ चित्र और विचार पत्रिका में शामिल है। सिल्वर जुबली उत्सव को भी शानदार ढंग से प्रस्तुत किया गया है। दादी-नानी स्पेशल डे सेलिब्रेशन को लिखा है संगीता श्रीवास्तव जी ने। यू ंतो ऐसा कार्यक्रम केन्द्रीय विद्यालय के वार्षिक कार्यक्रमों में होता ही है। लेकिन इस विद्यालय का यह कार्यक्रम इसलिए भी बेहतर ढंग से नायाब हो चला क्योंकि विद्यालय के 472 बच्चों ने सीधे भाग लिया था। विद्यालयी गतिविधियों जैसे नन्हे वैज्ञानिक-वैज्ञानिक प्रदर्शनी,रंगोली आदि को शामिल किया गया है। 

छत्तीस से अधिक रचनाएँ विद्यालयी अध्यापक,कार्मिक की हैं। विद्यालय की सेवा में रिक्शा चालक की रचना भी पत्रिका में शामिल है। 75 से अधिक छात्रों की रचनाएँ शामिल हैं। पत्रिका में छात्रों ने सामूहिक यानि चार-पांच की टीम के तौर पर कई साक्षात्कार लिए हैं। यह बेहद महत्वपूर्ण हैं। सवाल भी बेहद अर्थपूर्ण पूछे गए हैं। बारह विविध साक्षात्कार हैं। जिसमे बाल रोग विशेषज्ञ, स्कूल प्रिंसिपल, ऐसा बच्चा जो स्कूल नहीं जाता, बैंक मैनेजर, हाॅकर,न्यूज़ पेपर, सैन्यकर्मी, सफाईकर्मी, सब्जी वाले अस्थाई दुकानदार, गृहिणी,नगर पालिका अध्यक्ष,मालीकाका, भारत-पाक विभाजन की साक्षी श्रीमती लाभ कौर प्रमुख हैं। साक्षात्कार विधा में प्रत्यक्ष तौर पर सीखने-समझने वाले 70 से अधिक छात्रों की मेहनत साफ दिखाई देती है। 

अंग्रेजी के लेख,रचनाएँ और मन की बात की संख्या भी 37 से अधिक है। वहीं विज्ञान,तकनीकी,गणित की टीम ने भी पत्रिका को शानदार बनाने में ख़ूब मेहनत की है। 25 से अधिक अध्यापक-छात्रों की रचनाएं-लेख पत्रिका में शामिल हैं। अठारह कविताओं को अलग स्तम्भ में शामिल किया गया है। काश स्तम्भ के तहत बीस छात्रों के मौलिक विचार शामिल हैं। मेरा सपना में दस छात्रों के विचार शामिल हैं। 25 साल बेमिसाल के तहत बयासी छात्रों की रचनाएं शामिल है। विभिन्न गतिविधियों की फोटोज़ भी भव्यता से शामिल की गई हैं। 

उत्तर प्रदेश के जिला सुलतानपुर का अजय पब्लिक स्कूल लगभग 800 बच्चों की दुनिया है। 35 से अधिक का विद्यालयी स्टाॅफ है। सौंधी पत्रिका में साफ नज़र आता है कि इसे सामूहिक प्रयास देने का सफल प्रयास किया गया है। किसी खास को और किसी को आम बताने-दिखाने की कोशिश नहीं की गई है। सामूहिकता,सहभागिता और समन्वय स्पष्ट दिखाई पड़ता है। यही कारण है कि सीधे तौर पर महासंपादक, संपादक,उपसंपादक, समन्वय संपादक, वरिष्ठ संपादक की भीड़़ जैसी औपचारिकता से मुक्त रखा गया है। वरिष्ठ-कनिष्ठ जैसा भाव भी पत्रिका को छू नहीं सका। 

कहीं न कहीं विद्यालय के पच्चीस साल की मुख्य गतिविधियों को भी समेटने का प्रयास हावी ज़रूर रहा। लेकिन छात्रों की रचनात्मकता को अधिकाधिक शामिल करने की सफल कोशिश साफ दिखाई देती है। अति चटख रंगों से बचा जा सकता था। फोटोज़ सभी महत्वपूर्ण होते हैं। अधिकाधिक संख्या में शामिल करने की वजह से कुछ पेज एलबम-सरीखे बन पड़े हैं। 

‘‘भारत में अमीरी के नहीं,ग़रीबों के हाथ में पैसे देने की ज़रूरत है।’’

अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार की घोषणा के बाद से ही प्रकाश में आए अभिजीत बनर्जी ने कहा है-‘‘भारत में अमीरी के नहीं,ग़रीबों के हाथ में पैसे देने की ज़रूरत है।’’
इसे सुनकर कई राष्ट्रवादियों के चेहरे तमतमा गए हैं! आप इस बयान या कथन या विचार को कैसे देखते हैं?


4 अक्तू॰ 2019

महात्मा गांधी जी को भारत की ओर से कुछ पत्र #ghandhi

महात्मा गांधी जी को भारत की ओर से मैंने कुछ पत्र समय-समय पर लिखे थे। उन पत्रों में कुछ यहाँ साझा कर रहा हूँ। आप भी पढ़िएगा। प्रत्येक पत्र की भावनाएँ अलग हैं। भारत की पीड़ाएँ हैं। गांधी जयंती आ रही है। आशा करता हूँ कि इन पत्रों की भावनाएँ आप तक पहुँचेगी ही। और यह भी कि क्या पता कुछ बुद्धिहीनों को कोई बात समझ में आ जाए ! -मनोहर चमोली ‘मनु’
(एक)
श्रद्धेय बापू ,

सादर अभिवादन स्वीकार कीजिएगा।

मैं यहाँ कुशल से हूँ। आपकी कुशलता चाहता हूँ। पत्र लिखने का ख़ास कारण यह है कि हाल-फ़िलहाल मैं आपके सपनों का भारत तो नहीं बन पाया हूँ। हाँ, यह भी सच है कि राम राज्य की अवधारणा का अंश मात्र भी मेरी देह में नहीं आ सका है। मैं और मेरे लोग कितने स्वार्थी हो गए हैं? कहने की आवश्यकता भी नहीं है। मुझे ही ले लीजिए। आपकी हत्या के 71 साल बाद पत्र लिख रहा हूँ। आपके सत्य, अहिंसा और प्रेम के सिद्धान्त तिल का ताड़ बन चुके हैं। लगातार झांसों (झांसी से इसका कोई लेना-देना नहीं है) और जुमलों के बोझ से मैं दबा जा रहा हूँ।
श्रद्धेय बापू , लिखते हुए भी लाज आ रही है कि इन इकहत्तर सालों में जो विकास हुआ होगा, सो हुआ होगा। मैं उस बहस में नहीं पड़ना चाहता। लेकिन, इतना ज़रूर कहना चाहूंगा कि मेरे लोग मति भ्रमित अधिक होते जा रहे हैं। वे स्वयं के विवेक का इस्तेमाल नहीं करते। आप तो ख़ूब कहा करते थे कि झूठ के पांव नहीं होते। लेकिन आज, जिस झूठ को बार-बार परोसा जाए, दिखाया जाए, बोला जाए, वह ‘झूठ’ सच मान लिया जाता है। सच की आवाज़ झूठ की चिल्लाहटों में दब जाती है। उसका दम घुट जाता है। और झूठ? वह तो बड़ी बेशर्मी से हावी हो जाता है।
वैसे, इन इकहत्तर सालों में मेरे हिस्से भी ख़ूब उपलब्धियाँ आई हैं। आप जब थे, तब भी दुश्वारियाँ कम न थीं। लेकिन, तब आप भी और मेरे लोग भी, कमियों का ठीकरा गोरों के सिर पर फोड़ दिया करते थे। पर गोरों की सरकार तो अगस्त सन् 1947 से पूर्व ही हमेशा के लिए यहाँ से सात समन्दर पार चली गई थी। 72 सालों से तो मुझ पर, मेरे ही लोग राज कर रहे हैं। अब मेरे मतदाताओं पर एक ओर रोग लग गया है। वे अपनी ही चुनी सरकारों को बेदम बताने पर तुले हैं। कोई सरकार कई मुद्दों पर विफल हो सकती है। लेकिन, हर दूसरी सरकार को बड़ी रेखा खींचनी चाहिए। अपने आप छोटी रेखा छोटी हो जाएगी। पहले से खींची रेखा को कुरेदने, खुरचने और मिटाने को उपलब्ध्यिां नहीं माना जा सकता है।
लिखता चलूँ कि मैं दुनिया में आकार के हिसाब से सातवें नंबर पर हूँ। मेरे अपनों में कई हवाबाज़ हैं। गप्पी हैं। कपोल- कल्पनाओं को हवा देते हैं। यह संगति का असर है। दुनिया की सबसे बड़ी फिल्म इंडस्ट्री मेरे खाते में हैं। बापू , इसे बाॅलीवुड कहा जाता है। दुनिया में सबसे ज़्यादा फिल्में मेरे यहाँ बनती हैं। आप तो जानते हैं कि दुनिया को गणित का शून्य मैंने ही दिया था। उसके बाद दुनिया के महान गणितज्ञों में दूसरा मेरे यहाँ पैदा हुआ हो, याद नहीं आ रहा है। आपको याद आए तो लिख भेजना। वैसे बापू आपके बाद दूसरा कोई बापू जैसा नहीं ही हुआ है। ये मुझे याद आएगा तो अगले पत्र में लिखूंगा।
पूज्य बापू , आपको याद होगा, आजादी के समय में मेरे 18 फीसदी लोग ही पढ़े-लिखे थे। आज 75 फीसदी लोग पढ़े-लिखे हैं। आप चिंता न करें बापू। सन् 2085 में मेरा हर युवा ग्रेजुएट हो जाया करेगा। बीते साल तलक मात्र छःह करोड़ बच्चे ही तो स्कूलों तक नहीं पहुँच पाए थे ! वैसे, बापू पढ़ाई-लिखाई अब चिन्ता का विषय नहीं रह गई। आज मेरे सौ में बीस पुरुष ही अनपढ़ रह गए हैं। सौ में पैंतीस महिलाएं ही तो अनपढ़ रह गई हैं। क्या यह विकास नहीं? मात्र 45 साल बाद हमारी साक्षरता दुनिया की औसत साक्षरता के बराबर हो जाएगी।
वैसे बापू गौरव का विषय यह तो है ही कि कुकुरमुत्तों से अधिक हमारे यहाँ निजी स्कूल हैं। एशिया में सबसे अधिक शिक्षण संस्थाएँ भारत में हैं। यह बड़ी बात नहीं? मैं इस बात से अक्सर परेशान हूँ कि दुनिया में सबसे अधिक अनपढ़ मेरे यहाँ हैं। सबसे ज़्यादा मूक-बधिर मेरे यहाँ हैं। सबसे ज़्यादा बच्चों के अपहरण मेरे यहां होते हैं। महिलाएं सबसे ज़्यादा हिंसा की शिकार मेरे यहां होती हैं। सबसे अधिक दिव्यांग मेरे यहाँ हैं। क्या पता विकलांगों को दिव्यांग कह देने भर से यह प्रतिशत कम हो जाए!
बापू , मैं आज भी सबसे ज़्यादा केले दुनिया के देशों को भेजता हूँ। कभी एक रुपए के दर्जन केले मिलते थे। आज साठ रुपए दर्जन बिकता है। मैं दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश हूँ। चुनाव में सबसे अधिक खर्च भी मेरे यहाँ हो रहा है। मैं हैरान हूँ कि एक ओर एक तिहाई लोग भर पेट भोजन नहीं कर पा रहे हैं वहीं दूसरी ओर दुनिया में सबसे ज़्यादा सोना मेरे लोग ही खरीदते हैं। खरीद रहे हैं। गंगा-जमुनी संस्कृति मेरी थाती रही है। यह भी सच है कि सबसे अधिक त्योहार मैं ही मनाता हूँ। सबसे अधिक छुट्टियाँ मेरे यहाँ होती हैं।
वैसे बापू गौरव की बात यह भी है कि मेरे अपने अमेरिका में वैज्ञानिक हैं। नासा में तो छत्तीस फीसदी वैज्ञानिक भारतीय हैं। ये ओर बात है कि उन्होंने मेरे लिए क्या किया? मैं नहीं जानता। आप तो राष्ट्रपिता हैं। आपके नाम पर मेरे यहाँ जितनी सड़कें हैं उससे अधिक सड़कों के नाम विदेशों में हैं। आप दुनिया में भी स्वीकार्य हैं। चरक ने आयुर्वेद को चिकित्सा में हजारों साल पहले पहचान दी थी। लेकिन मेरे ही अपने अंग्रेजी शराब की दुकान पर और अंग्रेजी दवाखाना पर भरोसा करते हैं। मेरे नीति-नियंता विदेशी डाॅक्टरों पर अधिक एतबार करते हैं। अकेले अमेरिका में अड़तीस फीसदी डाॅक्टर भारतीय हैं। यहाँ मेरे लोग सरकारी डाॅक्टर नहीं बनना चाहते। गली-मुहल्लों में डाॅक्टरी की दुकान खोले बैठे हैं। मेरे सीने में दुनिया का सबसे लम्बी रेल पटरी हैं। रेल के कर्मचारी भी मेरे यहाँ सबसे अधिक हैं। बावजूद इसके लगभग दो लाख पद रेलवे विभाग में खाली हैं।
बापू , मेरे लोग पशु प्रेमी भी हैं। गौ हत्या के नाम पर मेरे बेकसूर नागरिकों को विदेशी नहीं मारते। मेरे अपने ही मारते हैं। पर दूसरा सच यह भी है कि पाँच करोड़ से अधिक बंदरों को शरण भी मैंने ही दी हुई है। आदरणीय बापू । मैं कर्ज़ में भी डूबा हुआ हूँ। दिसम्बर 2017 में मुझ पर 495 बिलियन अमेरिकी डाॅलर कर्ज है। यह बढ़ता ही जा रहा है। उधार लेकर घी पीना निन्दनीय माना जाता था। लेकिन आज सारी अर्थव्यवस्था उधार पर टिकी है। भारत से अलग हुआ पाकिस्तान तो चीन के कर्ज़ तले दबा पड़ा है। मेरी सरकार की बात करूँ तो हालात बद से बदतर हुए जा रहे हैं। साल 2014 में सरकार पर कुल कर्ज 54,90,763 करोड़ था। यह कर्ज़ जनवरी 2018 में बढ़कर 82 लाख करोड़ रुपए हो गया। इन पाँच सालों में यह लगभग पचास फीसदी और बढ़ गया है।
बापू फिर भी, मेरे कान यह सुन-सुन कर पक गए हैं कि मैं दुनिया की तीसरी महाशक्ति बनने जा रहा हूँ ! सुनकर अच्छा-सा लगता है। लेकिन भीतर ही भीतर डर भी जाता हूँ कि कहीं कोई मुझे और मेरे लोगों को गुमराह तो नहीं कर रहा है? सच क्या है? आप कुछ समझ-जान पाए हों तो बताइएगा।

आपके प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा में,

आपका अपना,

भारत

॰॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰॰

(2)

राष्ट्रपिता को मेरा प्रणाम। बापू कैसे हो? मैं यहाँ आज दिनांक तक ठीक-ठाक हूँ। उम्मीद करता हूँ कि आप भी ठीक ही होंगे। बापू इन दिनों में बेहद तनाव में हूँ। एक अनजाना-सा डर मन में बैठ गया है। सो आपको पत्र लिख रहा हूँ। खास समाचार यह है कि इन दिनों अचानक मैं खतरे में हूँ। मेरे लोग अलग-अलग मज़हब में आस्था रखते हैं। लेकिन अपने मज़हब को श्रेष्ठ मानने का भाव और दूसरे के मज़हब को कमतर मानने का भाव यदि बढ़ने लगे तो मुझे बेचैनी होने लगती है। हर कोई कह रहा है कि उसका धर्म खतरे में है।
मुझे मेरा वह दौर याद आ रहा है जब मैं अखण्ड भारत था। जब ये खबरे आने लगी थीं कि भारत के दो टुकड़े होंगे एक हिंदुस्तान होगा और एक पाकिस्तान। आज भी उन दिनों को याद करता हूँ तो दिल बैठ जाता है। मुझे याद है कि आपने कहा था कि भारत का विभाजन मेरी लाश पर होगा। यह संदेश भी आग की तरह फैला था। सब ठीक होगा। यह तसल्ली मुझे भी हो गई थी। पर न जाने क्यों और कैसे? दोनों ओर मेरे ही लोग सँभल नहीं पाएं। भारत-पाक विभाजन हुआ और लाशों के ढेर पर हुआ। इस पत्र को लिखने का आशय आपको आहत करना नहीं है बल्कि आज के हालातों का वर्णन करना है।
आदरणीय बापू , आज मैं फिर भयभीत हूँ। एक ओर कोई कह रहा है कि सवाल उठाने वालों को पाकिस्तान भेज दो। कोई सीरिया भेजने की बात कर रहा है। धर्म के नाम पर एक-दूसरे को देश की प्रगति में बाधक बताया जा रहा है। पता नहीं क्या चल रहा है! राष्ट्रवाद और धर्म की परिभाषा नई-नई गढ़ी जा रही है। मित्र देशों और पड़ोसी देशों के साथ रिश्ते सुधारने की कवायदें दूसरी ही दिशा में बढ़ गई हैं। हालांकि मुझे मेरे संविधान पर पूरा भरोसा है। मनुष्यता पर यकीन है।
हाँ, ऐसे में पाक की बहनों ने एक वीडियो गीत बनाया है। ‘तेरा हिंदुस्तान है कि मेरा पाकिस्तान है़।'
ये बहने दोनों मुल्कों में शांति बहाल की गुज़ारिश कर रही हैं। यह रैप सोंग बड़ी बहन बुशरा अंसारी के साथ असमा अब्बास ने गाया है। बुशरा की बहन नीलम अहमद बशीर ने गीत लिखा है। ‘हमसाए मा जाए गीत में बुशरा और असमा पड़ोसी हैं। एक भारत में रहती है और दूसरी पाकिस्तान में रहती है। दोनों के बीच में एक दीवार है। गीत कहता है,‘एक ही धरती है और एक ही आसमान है। सुना है कि दोनों देशों के बीच में तनाव है। कुछ नहीं, यह बस राजनीति का खेल है। प्यारी पड़ोसी, हम लोग एक ही चांद और तारों के नीचे रहते हैं। एक ही सूरज से रोशनी लेते हैं। हमारी एक ही धरती मां है और एक ही आसमान है। तेरा हिंुदस्तान है कि मेरा पाकिस्तान है।’
वहीं बापू ,दोनों ओर ऐसे भी कुछ लोग हैं जो हमेशा झूठ और नफ़रत फैलाने का काम करते हैं। ये कुछ लोग कौन हैं? न पता चल पा रहा है न ही मैं इन्हें देख पा रहा हूँ। क्या पता, आप इन्हें पहचान लो, तो लिखना। बापू दुनिया जानती है कि भारत-पाक के विभाजन की ख़बर पर आप कितना परेशान हो गए थे। आपकी ही तरह ये दोनों बहनें कहती हैं,‘‘दोनों देशों के आम नागरिक आपसी अमन और शांति बहाल करने के पक्ष में हैं, लेकिन राजनीति और युद्ध के नाम पर कुछ लोग देशों के बीच मतभेद पैदा कर रहे हैं।’’
एक ही मिट्टी के बच्चे यानि ‘हमसाए मा जाए’ इस गीत का नाम है। बापू , अंधभक्त और कथित राष्ट्रवादी इसे देखें न देखें, पर आप ज़रूर देखना। मेरी तरह आपको भी तसल्ली होगी कि दुनिया एक है और दुनियावासी आज भी अमन और चैन के हिमायती हैं।

शेष फिर कभी या आपका जवाब आने पर,
आपका अपना,
भारत।॰॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰॰
(3)


परम पूज्य बापू को मेरा सलाम पहुँचे। उम्मीद करता हूँ कि आप जहाँ भी होंगे, मेरी तरह व्यथित न होंगे। बापू पत्र लिखने का ख़ास कारण कुछ नहीं है। बस ! पिछले दिनों कुछ घटनाएं घटी हैं, जिनकी वजह से मन आहत है। बापू वैसे तो आपके सामने ही मुझे अंग्रेजी दासता से मुक्ति मिल गई थी। पर, आप मेरा लिखित संविधान नहीं पढ़ सके। यूँ तो भारतीय संविधान में स्वास्थ्य के लिए अनुच्छेद 21 में उल्लेख मिलता है। इस जीने के अधिकार में ही स्वास्थ्य का अधिकार निहित है। बावजूद इसके, बावन साल बाद साल दो हजार दो में भारतीय चिकित्सा परिषद् को अपनी नीति और नियमावली में कुछ खास उल्लेख करने पड़े।
बापू आप होते तो इस मुद्दे पर ‘यंग इंडिया‘ या ‘हरिजन‘ में लेख लिखते। आप हैरान होते कि भारतीय अस्पतालों में धर्म, जाति, लिंग या आर्थिक आधार पर भेदभाव न करते हुए स्वास्थ्य सेवाएँ दी जानी चाहिए। हर भारतीय मरीज़ को सभी अस्पताल में आपातकालीन चिकित्सा लेने का हक़ है। कोई भी डाॅक्टर और अस्तपताल प्रशासन इमरजेंसी सेवा देने से मना नहीं कर सकता। हर मरीज़ को अपनी बीमारी जानने का हक़ है। मरीज़ के तीमारदारों को भी इलाज़ का ख़र्च, चिकित्सा अभिलेख, दवाईयाँ ,डाॅक्टर आदि के बारे में पूरी जानकारी पाने का अधिकार है। यह सब भारतीय चिकित्सा परिषद् को अपनी नीति और नियमावली में क्यों जोड़ना पड़ा?
सीधी-सी बात है कि यह सब नहीं है, सो हो, इसीलिए लिखना पड़ा।

बापू । मैं आबादी से दुनिया में चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा देश हूँ। लेकिन मैं लज्जा से झुका जा रहा हूँ। अपने नागरिकों को बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं देने में कई छोटे देश मेरे से बहुत आगे हैं। मेरे कामचीन और नामचीन कहते रहते हैं कि देश झूकने नहीं देंगे। देश मिटने नहीं देंगे। लेकिन बापू । जब भी मैं बांग्लादेश, भूटान, चीन, श्रीलंका जैसे पड़ोसी देशों की ओर देखता हूँ तो ग्लानि से भर जाता हूँ। वे अपने नागरिकों को मुझसे बेहतर स्वास्थ्य सेवाएँ दे रहे हैं। छब्बीस जनवरी और पन्द्रह अगस्त को मेरे नामदार और कामदार भी जब यह कहते हैं कि उन्होंने मेरी छवि और साख दुनिया में शक्तिशाली देश के रूप में स्थापित कर दी है तो मैं भावुक हो उठता हूँ।

बापू। आप भी मेरी तरह दुःखी होंगे। मैं सेहत के मामले में दुनिया के 195 मुल्क़ों में 145 वें स्थान पर हूँ। आप चाहें भारत को सोने की चिड़िया कहते रहे। लेकिन आजादी के सत्तर सालों के बाद भी हमारे अधिकांश दल अपने घोषणा-पत्रों में वादे कर रहे हैं कि हर जिले में एक मेडिकल काॅलेज होगा। मतलब बापू । अभी तक मेरे 719 जिलों में यह नहीं है। क्या एक साल में 10 मेडिकल काॅलेज बहुत बड़ा लक्ष्य था? हास्यास्पद स्थिति तो यह है कि इसे भी 2022 तक खिसकाया जा रहा है।
बापू , जिस घटना से मन खिन्न था, उसका ज़िक्र करने का मन भी नहीं है। लेकिन आपको बताना ज़रूरी है। मलेरिया, चेचक, हैजा आदि बीमारी के बारे में तो आपको पता है। डेंगू बुख़ार एक संक्रमण है। डेंगू एक मच्छर है। डेंगू वायरस के कारण होता है और इसे हड्डी तोड़ बुख़ार भी कहते हैं। हम गंदगी पर काबू नहीं कर सके हैं। हर साल डेंगू से मेरे सैकड़ों नागरिक मर रहे हैं। सरकारी अस्पतालों की हालत इतनी खराब है कि मरीज प्राइवेट अस्पतालों में मजबूरी में जाते हैं। कुछ महीनों पहले एक अस्पताल में डेंगू पीड़ित सात साल की बच्ची का पन्द्रह दिन इलाज चला। बिल आया सोलह लाख रुपए। बच्ची बची भी नहीं। आज उस बच्ची के परिवार पर क्या बीत रही होगी। आप महसूस कर सकते हैं?
बापू आप ही बताइए। आपके सपनों का भारत यही था? क्या इस दिन के लिए आपने धोती-लाठी धारण की थी? एक दूसरा पहलू भी है। अभी पिछले साल की ही तो बात है। पहली बार एक साल में प्रसव के दौरान मरने वाले बच्चों की संख्या दस लाख से कम हुई है। आज भी दुनिया के 18 फीसदी बच्चे भारत में मरते हैं। पर क्या एक साल में दस लाख नवजातों का मरना दुःखदायी नहीं?
बापू , काश ! मैं मूर्त होता। बोल सकता। तो ज़रूर बोलता। ये जो मेरे नीति-नियंता बनते हैं न, उनसे पूछता कि सकल घरेलू उत्पाद का केवल 1.3 फ़ीसदी खर्च कर रहे हो? क्यों? क्या जीवन रक्षा से बड़ा कुछ ओर है? ऊँट के मुँह में जीरा ! ब्राजील जैसा देश 8.3 खर्च करता है। रूस 7.1 खर्च कर रहा है। अफ़गानिस्तान 8.3 खर्च कर रहा है। मालदीव 13.7 खर्च कर रहा है। नेपाल 5.8 खर्च कर रहा है। पड़ोसी पाकिस्तान का सेहत पर बजट हमसे अधिक है।
बापू ! देश में लगभग 15 लाख डाॅक्टरों की कमी है। एक हजार की आबादी पर एक डाॅक्टर होना चाहिए। मेरे सात हजार नागरिकों के लिए भी एक डाॅक्टर नहीं है। आप हमेशा से सेहत को सबसे बड़ी पूंजी मानते थे। बापू आपको याद है न। आजादी के समय में सौ में आठ अस्पताल निजी थे। आज स्थिति बेहद भयावह है। आज सौ में तिरानवे अस्पताल निजी हैं।

बापू ! आप सोच सकते हैं कि जहाँ मुझे हर नागरिक को निःशुल्क इलाज दिलाना था, वहाँ उलट रोगी लाखों रुपए देकर भी अपनी जान नहीं बचा पा रहा है। क्या अस्पताल भी मुनाफा बटोरने वाली जगह बन गए हैं? हर साल मेरे चार करोड़ से अधिक नागरिक आम बीमारी की चपेट में आते हैं और बीमारी में इतना रुपया खर्च करते हैं कि अचानक गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं। पूरी जिंदगी उबर नहीं पाते हैं।

बापू । मेरे नागरिक अपना जीवन स्तर कैसे ऊपर उठाएँगे ! अस्सी फीसदी परिवार की सालाना कमाई का आधा हिस्सा तो तीमारदारी में खप जाता है। हम बुलेट ट्रैन की वकालत करेंगे। पड़ोसी को उसके घर में घुसकर मारेंगे। पर अपने यहाँ साफ पानी के अभाव में होने वाली मौतों का ग्राफ कम नहीं कर पाएँगे। हम डेंगू से हार जाएँगे। हम प्रसव पीड़ा के दौरान जच्चा-बच्चा का जीवन बचाने में नाकम हो जाएंगे। हम युद्ध के हथियार खरीदने वाले सबसे बड़ा मुल्क बन जाएंगे। लेकिन प्रसवपूर्व आवश्यक तैयारी का सामान खरीदने के लिए बजट मुहैया नहीं करा पाएँगे। बापू ये विसंगति है या कोई साजिश?
आप तो गाहे-बगाहे जंत्री दिया करते थे। कुछ जंत्री मुझे भी सुझाएँ। कैसे मेरे नागरिकों को साफ पीने का पानी मुहैया हो सके? कैसे सस्ती चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध हों? क्या यह इतना मुश्किल है? क्या यह राज्य की ज़िम्मेदारी नहीं होनी चाहिए? बापू चेचक, पोलियो, कुष्ठ रोग जैसी बीमारिया लगभग समाप्त हो गई हैं। लेकिन कुपोषण, मलेरिया और तपेदिक से सौ मैं तीस मौतें आज भी हो रही हैं। कई संक्रामक रोग आज भी मुझे जकड़े हुए हैं।
भारतीय बैंकों में बचत खातों की संख्या चालीस करोड़ बताई जाती है। पर इससे क्या? अभी भी प्रति माह हर व्यक्ति को 10,000 रुपए की आय भी नहीं जुट सकी है। मेरे पास कुल 35416 सरकारी अस्तपताल हैं। इस तरह एक जिले में मात्र पचास अस्पताल भी नहीं हैं। औसतन एक जिले की आबादी सत्रह लाख के आस-पास है। अब आप ही बताइए कि सत्रह लाख नागरिकों के लिए पचास अस्पताल बहुत हैं? आप ही अंदाजा लगा लीजिए कि एक जिले के सत्रह लाख नागरिकों के लिए कितने डाॅक्टरों की ज़रूरत होगी? यह सब कैसे होगा? क्यों नहीं हो सकता?
बापू पत्र समाप्त करते-करते आपको यह भी बताना चाहूंगा कि मैं अपनी उन सभी माताओं को वे ज़रूरी टीके नहीं लगवा पा रहा हूँ जिनके लगने से जच्चा-बच्चा सुरक्षित रह सकें। सन् 2022 तक ऐसा हो सके, इसके लिए आपके पास कोई जंत्री हो तो बताना।

आपके जवाब की प्रतीक्षा में,
आपका अपना
भारत
॰॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰॰

(4)
पूजनीय बापू को मेरा प्रणाम स्वीकार हो। मैं कुशल ही हूँ और आपकी कुशलता चाहता हूँ। पत्र लिखने का खास कारण यह है कि मैं भीतर ही भीतर जर्जर होता जा रहा हूँ। लगातार आबादी बढ़ने से मुझमें मैले का अंबार समाता जा रहा है। मैं इस बात से इतना परेशान नहीं हूँ। मैले के निपटारे और उससे जुड़ी समस्याओं की लुंज-पुंज व्यवस्था देखकर मन आहत है।
आदरणीय बापू। सात दशक पहले जंगल-पानी कोई समस्या ही नहीं थी। तब जंगल भी थे और पानी भी था। मैले का निस्तारण उस समय इतनी बड़ी समस्या नहीं थी। इसे लेकर तौर-तरीके भी सहज थे। हम जैसे-जैसे आधुनिक होते गए, वैसे-वैसे ये जंगल-पानी से निपटारा एक बड़ी समस्या बन गई है।
बापू अब तो सीवर लाइनें हैं। मेरे लोग घर में शौच कर लेते हैं। शौच के नाम पर जंगल की सैर बीते कल की बात हो गई है। अब योग का ही सहारा है। मेरे भीतर मल-मूत्र के लाखों गड्ढे हैं। हजारों सीवर की नालियाँ हैं। इन सीवर लाईनों की सफाई करते वक़्त मेरे ही दो से तीन मजदूर सीवर की सफाई करते वक़्त काल के गाल में समा जाते हैं। हर साल मेरे लगभग बाईस हजार मजदूर सीवर में सफाई के दौरान मर जाते हैं।
बढ़ती मौतों को ध्यान में रखते हुए मेरी सबसे बड़ी अदालत ने इन मजदूरों के काम की पड़ताल समझीं। पाँच साल पहले आदेश दिया था,‘‘सीवर में सफाई के दौरान हुई मजूदर की मौत पर परिवार को एक लाख रुपए दिए जाएँ।’’ इस आदेश के बाद तो हालात और बदतर हो गए हैं। मेरे राज्यों ने स्थाई मजदूरों की व्यवस्था ही बंद कर दी। न रहेगा बांस,न बजेगी बांसुरी।

कहने को तो बापू मेरे पास राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग है। लेकिन मेरे इस आयोग के पास आम आँकड़े तक नहीं है। यदि आप मुझसे पूछें कि मेरे कितने मजदूर सीवर की सफाई का काम करते हैं? मेरे कितने मजदूर कहाँ-कहाँ,कब-कब और कितने-कितने मौत के शिकार हुए हैं? बापू मैं नहीं बता सकूँगा।

आप तो स्वच्छता अभियान के अगुवा रहे हैं। अपने मल की स्वयं सफाई के पक्षधर रहे हैं। और अब आपके इस भारत में क्या हो रहा है? जानना नहीं चाहेंगे? मनुष्य ही मनुष्य के मल-मूत्र में डूबता-उतरता है। गहरे सीवर में जाता है। सुरक्षा के इंतजाम के अभाव में दम घुटता है और कई बार ये मनुष्य नहीं मानवता को काल निगल लेता है। ये है सबको जीने का हक़? एक ओर एक सासंद प्रत्याशी चुनाव मैदान में लड़ने के लिए पिचहत्तर लाख रुपए खर्च कर सकता है वहीं दूसरी ओर मल-मूत्र की सफाई को जुटे मजदूरों की मौत पर एक लाख रुपए मुआवजा भी नहीं मिलता?

इसका हल क्या है बापू? क्या सफाई कर्मचारियों की जान बचाना आतंकवाद के नाम पर अरबों रुपए के लड़ाकू विमान खरीदने से महँगा है?
उम्मीद है कि आप कोई समाधान निकालेंगे।
आपका अपना,
भारत
॰॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰॰

(5)
मेरे आदरणीय बापू ! सादर अभिवादन।

काश ! आप भी फेसबुक पर होते ! देख पाते कि मेरे लोगों में कई पाखंडी बन चुके हैं। धूर्त हैं। मक्कार हैं। कूढ़मग़ज़ हैं। दो हजार उन्नीस आते-आते ये घास-पात की तरह बढ़ चुके हैं। आप अच्छे पाठक रहे हैं। पर आपकी पाठकीयता भी कुंद हो जाती। जनवरी से अब तक इन पाखंडियों और कथित भक्तों की आए दिन चस्पा पोस्टों के चार-एक वाक्य ही आप पढ़ते और छोड़ देते। आपकी नज़र भी मन्द पड़ जाती। इनकी पोस्टों को देखते ही आप या तो चश्मा साफ करने लग जाते या आँखें मूँद लेते।

मैं कैसा हूँ? बताता हूँ। मैं इन अपनों की राजनीतिक, सामाजिक, सामुदायिक, सांस्कृतिक और नितांत व्यक्तिगत स्वार्थपरक पाॅलिटिक्स देख रहा हूँ। इनका कथित जनपक्षधरता का चोला उतरता हुआ देख रहा हूँ। इनकी मूर्खता पर हँसता नहीं हूँ। दुःखी हो जाता हूँ। क्यों? वह इसलिए कि ये जान-समझ ही नहीं पा रहे हैं कि इनका असली व्यक्तित्व सार्वजनिक हो रहा है।
या तो इन्हें क़तई लाज नहीं है। या यह जान ही नहीं पा रहे हैं कि ये साफ पहचाने जा रहे हैं। या ये चाहते हैं कि इन्हें अच्छे से जान-समझ लिया जाए। कुछ हैं जो तटस्थता का आवरण ओढ़े हुए हैं। लेकिन इनके भीतर भरा जातिवाद जोर मार कर बाहर आ रहा है। इनके क्षुद्र निजी सरोकार उद्घाटित हुए जा रहे हैं। वे पाखण्ड, दंभ, छद्म लोकहितता छिपाए नहीं छिपा पा रहे हैं। मैं रोज़ कुछ को आपस में लड़ते-भिड़ते देख रहा हूँ। गाली-गलौज का गॅ्राफ तो रोज का पारा है। जो लगातार चढ़ रहा है।
बापू आप सोच रहे होंगे कि ये अचानक हुआ? नहीं। नब्बे के दशक से ये सुलगता हुआ साल 2019 में आग का रूप ले चुका है। मैं अपनों में ही जैसे बेग़ाना हो गया हूँ! सबसे ज़्यादा दुःख मुझे मेरे शिक्षकों और लेखकों के कार्य व्यवहार को देखकर हो रहा है! मुझे सभी शिक्षकों से शिकायत नहीं है। कुछ से है। ये कुछ भले ही ‘थोड़े’ होंगे। पर हैं। इनमें समधर्म-समभाव है ही नहीं। ये दूसरों की गरिमा का सम्मान करना नहीं जानते। दूसरों को क्या सिखाएँगे। मुझे संशय है। ये ‘ट्रोल’ हो गए हैं। जो जिन्दगी भर शिक्षण कार्य करते रहे, उनकी ट्रोल भरी टिप्पणिया पढ़कर सोचता हूँ कि इन्होंने अपने छात्रों को समाज में कहाँ ले जाकर रख दिया होगा? सोचकर ही थर्रा जाता हूँ।
और, बापू लेखकों की तो मत ही पूछिये। लेखकों में ऐसे लेखक भले ही कम होंगे पर हैं। वे शरीर में एक फोड़े की तरह हैं। जिन्हें छेड़ा जाए चाहे-अनचाहे सहलाया जाए, वह बढ़ता ही है। कई बार पूरी देह को सड़ाने के लिए एक फोड़ा ही काफी होता है। ये लेखक, जिनकी मैं बात कर रहा हूँ, आज तलक सामन्ती सोच से बाहर नहीं निकल पाए हैं। ये आज भी तंत्र-मंत्र, पूजा-आरती के उपासक बने हुए हैं। बना करें पर पूरी दरिया को एक रंग में रंगने की तो कोशिश न करें। दकियानूसी सोच से लबरेज इनके संवाद और भाव, मेरे संविधान को चिन्दी-चिन्दी किए जा रहे हैं। अब संविधान की बात आपसे करना शायद ठीक न होगा। काश ! आप मेरे संविधान को लागू होता हुआ देख पाते ! या कि आपने संविधान की उद्देशिका ही पढ़ ली होती। फिलहाल तो इन शिक्षकों-लेखकों को देखकर मन विचलित हो रहा है। वे जो या तो भेड़चाल के मुरीद हैं या भीड़ का हिस्सा होते जा रहे हैं। क्या करूँ? लिखना।
शेष आपके जवाब मिलने पर,

आपका अपना ही,
भारत।
॰॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰॰
(6)

परम श्रद्धेय बापू को मेरा प्रणाम ! आशा है आप स्वस्थ होंगे। पत्र लिखने का खास कारण यह है कि मैं ज़रा चिंतित भी हूँ तो प्रसन्न भी हूँ। प्रसन्न इसलिए हूँ कि मुझे अक्सर अपनी अदालतों पर भरोसा होने लगता है। मेरे लोग भी गाहे-बगाहे कहते फिरते हैं-‘‘देर है पर अंधेर नहीं।’’ चिंतित इसलिए हूँ कि अदालत को यह क्यों कहना पड़ा,‘‘भारत का या भारत में लागू कोई भी कानून मीडिया को गोपनीय काग़ज़ात प्रकाशित करने से नहीं रोक सकता।’’
मैं आपसे पूछना चाहता हूँ ,‘‘लोकतांत्रिक देश में गोपनीयता किस चिड़िया का नाम है?’’
वह भी ऐसे लोकतांत्रिक देश में जिसमें जनता ही जनार्दन है। एक-एक मतदाता अपने मत से सरकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
बापू , आप अक्सर कहते थे,‘‘जनता से बड़ा कोई नहीं। जनता का हित सर्वोपरि है।’’ अब यदि जनता जानना चाहती है तो उसे जानने का हक़ तो है ही न? बापू , सरकार क्या है? जनता ने ही तो चुना है। फिर अचानक सरकार चलाने वाले लोग ख़ुद के वी॰आई॰पी॰ क्यों समझने लगते हैं? समझते हैं तो समझा करें! लेकिन आम आदमी तक जानकारी और सूचनाएँ पहुँचाने की आज़ादी तो प्रेस को होनी ही चाहिए? आप क्या कहते हैं?
बापू ! हाल ही में मेरी सबसे बड़ी अदालत ने कहा है-‘‘न तो भारतीय संसद का बनाया कोई क़ानून और न अंग्रेजों का बनाया ‘आफिशियल सीक्रेट ऐक्ट’ मीडिया को कोई दस्तावेज़ या जानकारी प्रकाशित करने से रोक सकता है और न ही अदालत इन दस्तावेज़ों को ‘गोपनीय’ मान सकती है।’’
बापू , आप तो मानते थे कि शासन को हमेशा जन हित में काम करते रहना चाहिए और पारदर्शिता निभानी चाहिए। जनता के लिए और जनता द्वारा किये जा रहे शासन में गोपनीयता कहाँ से घुस आई? क्या आप समझ पाए कि मेरी अदालत ने ऐसा क्यो कहा? क्या कहा? लिख रहा हूँ। ये कहा,‘‘केंद्र सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देकर सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी देने से इनकार नहीं कर सकती।’’
अब आप सोच रहे होंगे कि ये सूचना का अधिकार क्या बला है? बापू , देश आजाद हुआ। मेरे लोगों ने मेरे ही लोगों को चुना। उन्होंने सरकारें बनाईं। नौकरशाह बनाए। धीरे-धीरे मेरे लोग शिक्षित होने लगे। वे सवाल उठाने लगे। मेरी सरकार और सरकार चलाने वालों के कामों की आलोचना करने लगे। कोई काम, नीति, फैसले क्यों लिए गए? कैसे लिए गए? इस पर बहस करने लगे। ऐसे में मेरे ही कुछ शासन की-प्रशासन की, लोक हित से जुड़े निर्णयों को, जानकारियों को और सूचनाओं को छिपाने लगे। मांगने और जानने की इच्छा पर देने से, बताने से गुरेज करने लगे। असंतोष बढ़ने लगा। बढ़ता ही चला गया।
तब बापू , तब। अब जाकर, वह भी आजादी के 58 साल बाद ही सही, सूचना का अधिकार जनता को मिला। बापू , अब मेरे लोग लिखित में सूचना पाने के अधिकारी हैं। बाक़ायदा कानूनन। अब मैं, कार्य और राज-काज प्रणाली को सार्वजनिक करने के लिए बाध्य हूँ। अब मुझ पर राज-काज करने वाले मेरे लोगों को लिखित में जानकारी चाहने पर जानकारी देंगे।
आप होते तो इस कानून की तारीफ़ ज़रूर करते। आप भी तो यही चाहते थे कि जनता की सरकारों को चाहिए कि वह पूरी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा से अपना धर्म निभाए। अब जब कोई सरकार अपना धर्म नहीं निभाएगी तो जनता तो मालिक है। मालिक होने के नाते जनता पूछेगी,‘‘हे मेरी सेवक सरकार। क्या हो रहा है? क्या कर रही हो?’’
क्यों न पूछे? जनता सुई से लेकर सरकार बनाने तक की प्रक्रिया में टैक्स देती है। भिखारी क्या और बच्चा क्या? हर कोई हर सेवा या सामान के उपभोग करने पर टैक्स देता है। देता है कि नहीं? मेरे पास शासकीय गोपनीयता अधिनियम 1923 है। सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 भी हैं। तो कौन-सा महत्वपूर्ण है? तात्कालिक ज़रूरत के हिसाब से तो नए अधिनियम बनते हैं।
बापू क्या मैं अपनी ही जनता से किसी पुराने कानून का हवाला देकर सूचना छिपा सकता हूँ? क्या मुझे सूचनाओं और जानकारियों को छिपाना चाहिए? वह तब, जब मेरे ही नागरिक पूछ रहे हों? जानना चाहते हों? यह बहस का विषय हो सकता है कि राज-काज की गुप्त यदि कुछ गुप्त रखना होता है तो उसके आधार क्या हैं? जिन्हें बता दिया तो मेरी अस्मिता ही खतरे में पड़ जाएगी?
बापू , सूचना का अधिकार मुझे अकेले ने लागू नहीं किया। मैं तो उन 80 देशों में शामिल हो गया हूँ जो लोकतांत्रिक मूल्यों के पक्षधर हैं। लेकिन, मेरे उन जड़बुद्धियों को समझना चाहिए कि स्वीडन ने सूचना का अधिकार 1766 में लागू कर दिया था। मैं ऐसे कानून को 239 साल बाद लागू करवा पाया। फ्रांस ने 1978 में और कनाडा ने ऐसे कानून को 1982 में लागू कर दिया था।
मेरे उन कूढ़मग़जों को यह याद रखना होगा कि इस कानून को लागू हुए मात्र 14 साल के भीतर ही मेरी अदालत को कहना पड़ा कि सूचना और जानकारी देने, उसे प्रसारित करने और प्रकाशित करने पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता।
सो, बापू मैंने अपनी चिंता और प्रसन्नता आपके समक्ष जाहिर कर दी। अब आप ही बताइए कि क्या मेरी चिंता और प्रसन्नता उचित नहीं?
पत्र की प्रतीक्षा में,

आपका अपना,
भारत।
॰॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰॰

(7)
आदरणीय बापू । मेरा प्रणाम आप तलक पहुँचे। आशा है सानंद होंगे। मैं यहाँ पर कुशल पूर्वक हूँ। यह लिखने का मन नहीं है। आप अक्सर कहते थे,‘‘शराब पाप और अत्याचार की जननी है।’’ लेकिन बापू मेरे कई जिलों में आपके नाम से प्रेक्षागृह बने हुए हैं। उन्हीं प्रेक्षागृहों में शराब के ठेकों के टेण्डर हर साल होते हैं। आपके चित्र पीछे लगा रहता है और आगे कुर्सियों पर आला अफ़सर बैठकर शराब के ठेकों के ठेकेदार तय कर रहे होते हैं।

प्रिय बापू ! कहते हैं कि शराब बेचकर राज्यों को राजस्व मिलता है। वह राजस्व विकास के कामों पर खर्च होता है। पर बापू मैं आपकी नैतिकता को याद करता हूँ। आप तो कहते थे,‘‘पाप से घृणा करो, पापी से नहीं।’’ यहाँ तो ठीक उलट स्थिति है। शराब पर प्रेम बरसाया जा रहा है और शराबियों पर लाठी भांज दी जाती है। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।

बापू। जैसे-जैसे दिन ढलता है मेरा दिल बैठता चला जाता है। अब तो दिन-रात का अन्तर भी कहाँ रह गया है? ऐसे कई महानगर हैं जो कभी सोते ही नहीं। ऐसी हजारों शराब की दुकानें हैं जिनके किवाड़ के पट कभी बंद नहीं होते। हैरानी तो इस बात की है कि इन शराब की दुकानों में आने वाले किसी मन्दिर,मस्जिद,गुरुद्वारे और चर्च के अनुयायियों से कम नहीं हैं। कुछ तो ऐसे हैं कि जिनकी सुबह शराबखाने से ही शुरू होती है। ऐसे भी हैं जिनकी रात की सुबह कभी होती ही नहीं।
बापू जब आप जीवित थे तो नशा मुक्ति की ख़ूब बात किया करते थे। तब मेरे लोगों में एक ही जुनून था-दासता से मुक्ति। वह मिल गई। लेकिन शराब की गुलामी में मेरे लोग जकड़ते जा रहे हैं। शराब के प्रचलन को जैसे सामाजिक स्वीकृति मिल गई हो।
बापू आप तो कहते थे कि आदर्श रामराज्य की तरह आपके सपनों के भारत में जनता को पोषक भोजन मिले। सम्मानजनक जीवन निर्वाह के अवसर मिले। सेहत में सुधार हो।
बापू आपके नशा मुक्ति अभियान को ध्यान में रखते हुए मेरे संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद सेंतालीस में साफ उल्लेख किया है। वह यह है-राज्य अपने लोगों के पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊँचा करने और लोक स्वास्थ्य के सुधार को अपने प्राथमिक कत्र्तव्यों में मानेगा और राज्य,विशिष्टतया मादक पेयों और स्वास्थ्य के लिए हानिकर औषधियों के, औषधिय प्रयोजनों से भिन्न, उपभोग का प्रतिषेध करने का प्रयास करेगा।’

मुझे दुःख के साथ लिखना पड़ रहा है कि बापू ऐसा कोई प्रयास धरातल पर नहीं दिखाई देता। आपने कहा था,‘‘जो राष्ट्र शराब की आदत का शिकार है, उसके सामने विनाश मुँह बायें खड़ा है। इतिहास में इसके कितने ही प्रमाण हैं कि इस बुराई के कारण कितने ही राष्ट्र मिट्टी में मिल गए।’’ लेकिन बापू मुझे दुःख है कि हम इतिहास से भी सबक नहीं लेना चाहते।

आजादी के इकहत्तर साल बाद भी मैं मलेरिया से मुक़्त नहीं हो पाया हूँ। आपने एक बार कहा था,‘‘मद्यपान एवं अन्य नशीले पेयों का व्यसन अनेक दृष्टियों से मलेरिया एवं ऐसे ही अन्य रोगों से उत्पन्न व्याधि से भी बुरा है। क्योंकि जहाँ मलेरिया आदि से केवल शरीर को ही क्षति पहुंचती है वहां मद्यपान से शरीर एवं आत्मा दोनों ही क्षतिग्रसत होते हैं।’’
बापू ,जब आप ज़िन्दा थे तब मेरे नागरिक छत्तीस करोड़ थे। आज ये एक सौ पचास करोड़ होने वाले हैं। यदि सौ के सिर पर चोट लगी है तो बीस से अधिक चोटें शराब की वजह से लगती हैं। सौ में पैंतीस आत्महत्या का कारण शराब होती है। चालीस फीसदी दुर्घटनाएं शराब के नशे की वजह से होती हैं। हर साल मेरे तेंतीस लाख नागरिक शराब की वजह से दम तोड़ देते हैं। सड़क हादसों में शराब की वजह से हर साल एक लाख अड़तीस हजार नागरिक मारे जाते हैं। पति द्वारा घरेलू हिंसा के मामलों में सत्तासी फीसदी मामलों में शराब प्रमुख वजह है।
बापू , काश ! मैं भी इंसानों की तरह शराब चख सकता। मैं भी देखता कि इस शराब में ऐसा क्या है कि मेरे अधिकतर राज्यों का राजस्व इस पर निर्भर होता जा रहा है। मैं अभी तक समझ नहीं पाया हूँ कि आज अरबों रुपए का राजस्व यदि शराब से इकट्ठा हो रहा है तो उस रुपयों से किया गया विकास मुझे क्यों नहीं दिखाई दे रहा? आपको दिखाई दिया तो मुझे भी बताना।

आपका प्रिय
भारत
॰॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰॰
(8)
आदरणीय बापू जी,
सादर प्रणाम। आशा है सानंद होंगे। मैं अपनी क्या कहूँ? आप जब जीवित थे, तब मेरा जनमानस एक ही भाव में सराबोर था। आजादी हासिल करने का भाव ही सर्वोपरि था। आपकी आँखों के सामने गोरे देश छोड़कर चले गए थे।

बापू । अब याद करता हूँ तो पाता हूँ कि आपने आजाद भारत का पहला आम चुनाव कहाँ देखा? अच्छा हुआ कि आपने भारतीय चुनाव नहीं देखे।

हालांकि, ये पाँच साल में एक बार आता है और जमकर दल एक-दूसरे से बेहतर बताते हुए जनता की अदालत में जाते हैं। आपको बताते हुए मुझे हर्ष की अनुभूति तो हो ही रही है कि इन दिनों मेरे मतदाता लोकसभा चुनाव 2019 में सहभागी बन रहे हैं। सत्रहवीं लोकसभा का गठन 23 मई 2019 को मतगणना के बाद ही हो सकेगा।

बापू , पत्र लिखने का खास कारण यह है कि इस बार भी कई दिग्ग़जों के टिकट कटे हैं। कई हैं, जिन्हें दल-बदल का तमगा मिला है। कई हैं, जो फिर से घर वापिस हो आए हैं। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। कई हैं जो दो-दो सीटों पर खड़े हैं। इस बार भी चुनाव आयोग पर पक्षपातपूर्ण रवैया का आरोप लग रहा है।
प्रिय बापू । आपको बताते हुए मन बेहद दुःखी है। इस बार भी कई दलनिष्ठ, आस्थावान और कर्मठ भारी मन से हमेशा के लिए लोकसभा के दरवाजे को अलविदा कह चुके हैं।
वैसे परम्परा रही है कि लोकसभा में चार-पाँच-छःह बार अनवरत् जीत कर आए सांसद स्वयं अपनी बढ़ती उम्र का हवाला देकर स्वयं ही हाथ जोड़कर मतदाताओं से चुनाव न लड़ने की असमर्थता जता देते हैं। लेकिन इस बार तो हद ही हो गई।
एक उदाहरण देता हूँ। तीस साल संसदीय राजनीति में सक्रिय सांसद को खुद ही कहना पड़ा कि शीर्ष नेतृत्व मेरी जगह पर दूसरे नाम पर विचार कर ले। मैं चुनाव नहीं लड़ रही हूँ। ऐसा कहलवाया गया। क्या इसे सम्मानजनक विदाई कहेंगे?
छिहत्तर साल का उदाहरण देना गलत है। आज के दौर में युवा भी आलसी हो सकते हैं। बुजुर्ग भी कार्यशैली के हिसाब से युवा तुर्क माने जा सकते हैं। कितना अच्छा होता कि चुस्त और सक्रियता से बाहर हो चुकों को ही मार्गदर्शक नेता माना जाता।
मैं इस बात से भी दुःखी हूँ कि भारतीय राजनीति में कुछ ऐसे हैं जो सीधे चुनाव जीतकर नहीं आते और मंत्री बन जाते हैं। कुछ ऐसे हैं जिन्होंने अपना पिण्ड दान तक कर दिया है लेकिन कमान संभाले हुए हैं। कुछ ऐसे हैं जो साधु-बाबा-साध्वी-सन्यासी बने हैं और राजनीतिक रसूखी में आकण्ठ डूबे हुए हैं। कुछ ऐसे हैं जिनकी सामाजिक-पारिवारिक मान-मर्यादा संदिग्ध हैं। वे नसीहतें देते फिरते हैं। कुछ ऐसे हैं जिन पर हत्या, आगजनी, बलात्कार जैसे संगीन अपराध आरोपित हैं।
कुछ ऐसे हैं, जो नचैये हैं, गवैये हैं। कथा वाचक हैं। नट हैं, नटनी हैं। (इसका अर्थ यह नहीं है कि ये योग्य नहीं हैं। मेरा मक़सद कला,साहित्य और संस्कृति के मर्मज्ञों को राजनीति से बाहर रखने का कतई नहीं है)

वैसे बापू , हमारा संविधान बेहद लोकतांत्रिक है। बहुत कम अयोग्यताएँ रखी हुई हैं जिसकी वजह से कोई चुनाव न लड़ पाए। अच्छी बात है। लेकिन नए पत्ते आने से कौन रोक सकता है। पर पुराने पत्तों की समयापूर्व छंटाई क्या ठीक है? आठ-आठ बार लोकसभा का प्रतिनिधित्व कर रहे दिग्गजों को कह दिया गया कि अब आप राजनीति में अयोग्य हो चुके हैं। आपकी जगह दूसरों को दी जा रही है। लगातार छःह,सात और आठ बार सांसद रह चुके नामचीनों को अचानक बोझ मान लेना, कहा तक उचित है? वे एक दिन में ही उम्रदराज़ हो गए? यह मुझे बेहद नागवार गुजर रहा है।

बापू । आप भी तो बुजुर्ग रहे हैं। पैदल चलते रहे हैं। आपकी गतिशीलता और कर्मठता किसी से छिपी नहीं रही। किसी को टिकट की दावेदारी करने से रोकना लोकतांत्रिक है? विवादितों को फिर से टिकट देना न्यायसंगत है?

बापू , मैं जानता हूँ आप इस पत्र को पढ़कर हैरान होंगे। आपके पास मेरे सवालों का जवाब भी कहाँ से होगा? जानता हूँ कि आपने हद दर्जें की गिरी राजनीति का सामना जो नहीं किया है। सत्य,अहिंसा और प्रेम के सि़द्वान्त चुनाव में कहाँ कारगर होते हैं? लेकिन मैं भी क्या करूँ? ऐसे मुश्किल समय में मुझे आप बहुत याद आए। सो आपको पत्र लिख दिया।
सादर, शेष फिर कभी।
आपका अपना
भारत
॰॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰॰

(9)

आदरणीय बापू ! जय हिंद। आशा है आप सानंद होंगे। मैं और मेरे लोग आपको अक्सर याद करते हैं। दुनिया के शांतिप्रिय लोग भी आपको अक्सर याद करते हैं। मेरे लोग तो दो अक्तूबर को हर साल गांधी जयंती मनाते हैं। मुझे यह बताते हुए खुशी हो रही है कि दुनिया ने आपको बीसवीं सदी का युग पुरुष माना है। ये ओर बात है कि मेरे ही अपने कुछ सिरफिरे आपके सत्य, अहिंसा और प्रेम के सिद्वान्तों को बीते जमाने की बात कहते हैं। बापू ! मैं शर्मिन्दा हूँ।

पत्र लिखने का खास कारण यह है कि आपकी हत्या के चैवन साल बाद ही सही पर मैं आपका एक सपना पूरा कर सका। आप अक्सर कहा करते थे,‘‘भारत का विकास तभी होगा जब भारत पढ़ेगा। लिखेगा।’’

आपके जाने के दो साल बाद मुझ भारत का अपना एक लिखित संविधान बना। आपके रहते हुए उस पर काम हो रहा था। आपके सुझाव मेरे संविधान का अहम् हिस्सा हैं। लेकिन मैं शर्मिन्दा हूँ कि आपका एक सपना साकार करने के लिए संविधान में संशोधन करना पड़ा। इस संशोधन से पहले पिचासी संशोधन हुए। छियासीवां संशोधन कर अब मेरे वे सभी बच्चे जिनकी उम्र छःह से चैदह साल है वे निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा पा सकेंगे।

प्रिय बापू निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार लागू हुए सोलह साल हो चुके हैं। इसके बावजूद अभी भी मेरे लाखों बच्चे शिक्षा से कोसों दूर हैं। आप अक्सर कहते थे-‘सामाजिक उन्नति के लिए शिक्षा का योगदान महत्वपूर्ण है।‘
इस बात को समझने में मुझे आधी सदी लग गई। मैं शर्मिन्दा हूँ। कारण बताता हूँ। शिक्षा आम आदमी की पहुँच में हो। यह बात जानने और समझने के बावजूद भी सार्वजनिक शिक्षा के लिए स्थापित सार्वजनिक स्कूल तेजी से बंद हो रहे हैं। कुकरमुत्तों की तरह गाँव क्या और शहर ! क्या जो निजी स्कूल खुल गए हैं वह तेजी से बढ़ रहे हैं। सरकारी स्कूल दम तोड़ रहे हैं। मैं इस बात से परेशान हूँ कि चालीस लाख से अधिक भारतीय दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पाते। ऐसे में पाँचवी दर्जा की पढ़ाई से पहले हर महीने कम से कम एक हजार रुपए बतौर स्कूल फीस कैसे जुटाई जाती होगी?

ऐसे कौन-से कारण हैं और क्यों हैं कि हमारे सार्वजनिक स्कूल दम तोड़ रहे हैं? आप कहते रहे,‘‘शिक्षा ऐसी हो जो छात्रों को स्वावलंबी बनाये। शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो।’’

लेकिन बापू . . . मैं शर्मिन्दा हूँ। यहाँ हर दूसरा अभिभावक अंग्रेजी को सब कुछ मान बैठा है। मानवीय गुणों के विकास की बात तो किताबी ही रह गई। मुझे आजाद करने वाले रणबांकुरों ने कहाँ सोचा था कि आजादी के बाद मेरी बागडोर उन लोगों के हाथ में चली जाएगी जो बड़े घरानों की बात करेंगे। मुनाफे की बात करेंगे। वे लोग मेरा भाग्य विधाता बनेंगे जिन्होंने कभी एक वक़्त की भूख तक न सहन की हो। हाशिए पर रहने वाले और हाशिए पर चले जाएँगे! मैंने सपने में भी नहीं सोचा था।
आपके सपनों के इस भारत की हालत दयनीय है। ऐसी ठोस योजनाएं नहीं बन सकीं कि शिक्षा का सार्वभौमिकीकरण हो सके। आजादी के इकहत्तर साल बाद भी मैं पूर्ण साक्षर नहीं हो सका हूँ। अब तो मुझे भी लगने लगा है मुझे अनपढ़ बनाए रखने की एक छिपी कोई साजिश तो नहीं !
मुझे मालूम है कि मेरा यह पत्र पढ़कर आप फिर से चिन्ता करने लगेंगे। आपको चिन्तित होना भी चाहिए। क्या पता ! आपकी चिन्ता इक्कीसवीं सदी के नीति-निर्धारकों की चिन्ता बने।

शेष फिर कभी।
आपका भारत।
॰॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰॰

-पत्र लेखन: मनोहर चमोली ‘मनु’

23 जून 2019

‘शैक्षिक दख़ल’

शिक्षकों के साथ कदम मिलाती शैक्षिक दख़ल
-मनोहर चमोली ‘मनु’
शैक्षिक सरोकारों को समर्पित शिक्षकों तथा नागरिकों का साझा मंच ‘शैक्षिक दख़ल’ का नवीनतम अंक प्रकाशित हो चुका है। ही डाक से मिला। आवरण का रंग संयोजन बेहतरीन है। आवरण के साथ ही पत्रिका के सभी रेखांकन छत्तीसगढ़ के बिलासपुर स्थित केन्द्रीय विद्यालय की कक्षा आठ में पढ़ रही छात्रा अनुष्का दत्ता ने तैयार किए हैं। आवरण (भीतर) में ‘बच्चे खेल रहे हैं’ अर्थपूर्ण कविता है। यह कविता भले ही शहरी और कस्बाई बस्ती के जीवन की झांकी का प्रतिनिधित्व करती है। 
लेकिन इस दुनिया में बच्चों की ध्वनि है। बच्चों की आवाज़ें हैं। 

कविता की कुछ पँक्तियाँ-
‘अपेक्षाओं के बोझ से हो फुरसत
मिले थोड़े समय में 
मानवता के खिलाफ साजिशों के विरुद्ध
कूदते,फांदते,नाचते,गाते
कभी बारिश से गले मिलते
कभी फूलों संग मुस्काते
कभी देख नवीन सपने
स्वयं से बतियाते
ये नन्हें गात
सभ्यता के अंतस्तल में 
आशा के बीज बो रहे हैं!
कि बच्चे खेल रहे हैं!‘
आवरण अन्तिम के भीतरी पेज पर वसंत सकरगाए की कविता ‘बचा हुआ होमवर्क’ ने स्थान पाया है। कुछ पँक्तियाँ-
‘सोचो, इसलिए सोचो
कि तपिश की इन तमाम लकीरों के पार
तुम्हें नया सूरज लोचना है
और यह तुम जो देख रहे हो ना!
चंद के चेहरे पर
ज़िन्दगी न होने का दाग
इसे भी तुम्हें ही पों़छना है़’

बर्तोल्त ब्रेख्त की कविता ‘सीखों अपना इतिहास’ अन्तिम आवरण (बाहर) प्रकाशित हुई है। कविता का एक अंश-
‘मेरा बेटा मुझसे पूछता है
क्या मुझे इतिहास सीखना चाहिए?
इससे क्या होगा,मैं कहना चाहता हूँ
अपना सिर धरती से सटाए रखना सीखो
शायद तुम जिंदा बच जाओ।
हां गणित सीखो, मैं कहता हूँ
अपनी फ्रेंच सीखो
सीखो अपना इतिहास!’

तीनों कविताओं में बच्चों की ध्वनि है। सीखने-सीखाने और समझने-समझाने का भाव भी है। अपने अनुभव और अपनी सोच को हासिल करने की छटपटाहट है। नीतिपरक सीख-सन्देश जैसा कुछ नहीं है। कविताओं में बच्चों की दुनिया है। बच्चों के स्कूली जीवन की ध्वनियाँ हैं।
पच्चीस से अधिक महत्वपूर्ण रचना सामग्री इस अंक में हैं। अभी चित्रों का संयोजन आकार और सामग्री के साथ भरा-पूरा पाने की गुंजाइश रखता है।यह अच्छी बात है कि कहीं भी कोई भी रचना-सामग्री ठूंसी हुई प्रतीत नहीं होती। पढ़ने की ललक में रुकावट नहीं बनती। इस बार अभिमत में सात महत्वपूर्ण पाठकों का दृष्टिकोण प्रकाशित हुआ है। मीनाक्षी रयाल,इन्द्र लाल वर्मा, गिरीश चंद्र पांडेय सीधे छात्रों से जुड़े हुए पाठक हैं। राजाराम भादू, सीमा संगसार, रंजीत रविदास, भास्कर चैधुरी भी अनुभव से उपजे भाव प्रकट करते हैं। अभिमत में पाठकों के बयान और टिप्पणियां बताती हैं कि पत्रिका का असर धीरे-धीरे अपना रंग जमा रहा है।
संपादक महेश पुनेठा जी का संपादकीय हर बार की तरह इस बार भी केन्द्रीय विषय के कई आयामों को खोलता है। वे इस बार भी सकारात्मकता और सामूहिकता को सीखने-सीखाने की कुंजी मानते हैं।
वह एन॰सी॰ई॰आर॰टी॰ की पाठ्य पुस्तकों के संबंध में शिक्षकों के हवाले से कहते हैं-‘अधिकतर शिक्षकों की शिकायत रहती है कि नई किताबें बेकार हैं। इन किताबों में बहुत कम विषयवस्तु है। जितनी सूचनाएं व तथ्य पुरानी किताबों में होती थीं,उतनी इनमें नहीं है। अभ्यास प्रश्न भी बहुत कम हैं। साथ ही प्रश्नावली में दिए गए प्रश्नों के उत्तर पाठ में नहीं मिलते हैं। गतिविधियां बहुत अधिक दी गई हैं। क्रमबद्धता का अभाव है। भाषा क्लिष्ट है। ...’
वे इसके कारण भी सुझाते हैं। 
वे लिखते हैं-
‘दरअसल अब तक शिकायत करने वाले अधिकांश शिक्षकों ने न नई पाठ्यपुस्तकों के शुरुआत में शिक्षकों के लिए लिखे गए पन्ने को पढ़ा है, न एन॰सी॰एफ॰ 2005 के मूल दस्तावेज व एनसीईआरटी द्वारा तैयार किए गए आधारा पत्रों को समझा है न ही उन्हें इनके इस्तेमाल के लिए कोई ठोस प्रशिक्षण दिया है।’

प्रारम्भ के तहत महेश पुनेठा जी एक बार पुन शिक्षा के दस्तावेजों के मर्म का अनुभवों के साथ जोड़त्े हुए हम सबके लिए उपलब्ध कराया है। यह कहना गलत न होगा कि संपादकीय में एनसीएफ 2005 के मार्गदर्शक सिद्वान्तों का और शैक्षिक आधार पत्रों का शानदार चित्रण है।
’और अंत में’ नियमित द्वय संपादकीय ‘कैसा हो, अगर पाठ्यपुस्तकें ही न हों?’ के बहाने दिनेश कर्नाटक ने उन शिक्षकों को नई दृष्टि देने की कोशिश की है जो पाठ्य पुस्तक को ही सीखने-सीखाने का एकमात्र औजार मानते हैं। वे लिखते हैं-
‘पाठ्यपुस्तक की समस्या यह है कि शिक्षक और विद्यार्थी दोनों उसे ‘पवित्र पुस्तक’ मानकर साधने में लगे रहते हैं। इस प्रक्रिया में न प्रश्न उठते हैं और न ही खोज होती है। वे उसकी सहायता से आजाद नहीं होते, बल्कि उसके दायरे में कैद हो जाते हैं।’
दिनेश कर्नाटक शैक्षणिक संदर्भ,नवम्बर-दिसम्बर 2017, के साथ-साथ उदयन वाजपेयी, हाइडेगर के हवाले से कई महत्वपूर्ण बातें पाठ्यपुस्तक,शिक्षक,शिक्षार्थी और कक्षा-कक्ष के संबंध में रेखांकित करते हैं। 
वे आगे लिखते हैं-

‘पाठयपुस्तक केन्द्रीयता शिक्षक,विद्यार्थी,शिक्षा के सरोकारों तथा देश-समाज के लिए काफी नुकासनदायक है। वर्षों तक एक जैसी पाठ्यपुस्तक को पढ़ाने से शिक्षक धीरे-धीरे ऊबने लगते हैं। उनके शिक्षण में एकरसता आने लगती है। उन्हें लगने लगता है कि ज्ञान इतना ही होता है तथा उन्हें अपने विषय के बारे में और पढ़ने की आवश्यकता नहीं है।’
वे इस संपादकीय शीर्षक पर केन्द्रित महत्वपूर्ण बातें भी साझा करते हैं। वे लिखते हैं-
‘यदि प्रत्येक कक्षा के लिए पाठ्यक्रम तो हो मगर पाठ्यपुस्तकें न हों तो कैसी स्थित बनेगी? शिक्षक तथा विद्यार्थी पुस्तकालय,प्रयोगशाला तथा आस-पास मौजूद संसाधनों के द्वारा पाठ्य सामग्री तैयार करेंगे। उदाहरण के कलिए कक्षा सात का हिन्दी पाठ्यक्रम करुणा के मूल्य से बच्चों को परिचित कराना चाहता है ता शिक्षक और छात्र करुणा विषयक कहानी को पुस्तकालय में खोजेंगे। सामाजिक विज्ञान में बच्चों को न्यायपालिका से परिचित कराना है तो वे पुस्तकालय से संविधान तथा न्याय संबंधी किताब निकालकर उससे नोट्स लेंगे। विज्ञान में गुरुत्वाकर्षण समझना है तो प्रयोगशाला में सहायक सामग्रियों से समझने की कोशिश करेंगे।’
इस अंक में फेसबुक परिचर्चा ‘क्या पाठ्यपुस्तक तथ्यों तथा सूचनाओं से भरी होनी चाहिए? पर शामिल की गई। चैंतीस टिप्पणियां शामिल की गई हैं। एक समय में इस पूरी परिचर्चा को पढ़ते हैं तो कई सारे मत सामने आते हैं और एक शिक्षक को शिक्षण और समझ के साथ अपने नियोजन को नए सिरे से समझने का अवसर मिलता है। पूरी परिचर्चा मननीय है।
इस अंक में प्रख्यात शिक्षाविद और कथाकार प्रेमपाल के साथ विस्तारित बातचीत को जगह मिली है। शिक्षक और पत्रिका के संपादक महेश पुनेठा ने बीस बिन्दुओं सहित कई गूढ़,ज़रूरी और समसामयिक शैक्षिक सवालों के जवाब जुटाए हैं। पूरी बातचीत प्रभावी है। रोचक है और अंतस में छटपटाहट पैदा करती है। पाठ्यपुस्तक के काम, पाठयपुस्तक की सार्थकता, समझ के विस्तार में उसकी भूमिका, पाठ्यपुस्तकों की समीक्षा, पाठ्यपुस्तक के ढांचे में बदलाव, सूचना,तथ्य और सीखने की ओर उन्मुख कराती पुस्तकों में भेद,पाठ्यपुस्तकों की संरचना, भाषा की पुस्तकों की स्थिति, पाठ्यपुस्तक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण जैसे मुद्दों पर सार्थक बातचीत इस अंक में है।
इस अंक में दिनेश भट्ट की कहानी सीलू मवासी का सपना प्रकाशित हुई है। मध्य प्रदेश के भोपाल के जनजातियों के आस-पास की यह कहानी शिक्षक,शिक्षा और छात्रों के आपसी रिश्तों के इर्द-गिर्द घूमती है। ऐसे बच्चों के लिए ऐसी किताब जो मुख्यधारा की भाषा से इतर उनकी अपनी भाषा में हो। मवासी भाषा में किताब लिखने की आवश्यकता से लेकर उपजी बातें कहां तक पहुँचती हैं? इसके लिए कहानी की यात्रा में सहभागी बनना लाज़िमी है। हाँ, बीच-बीच से कुछ एक संवाद ये हैं-
बच्चे ने खट जवाब दिया-‘‘काकू गोगोय डोय सेन ऊ।’’
वह केवल दो शब्दों का अर्थ निकाल पाया। काकू याने मछली और डोय याने तालाब।

॰॰॰
‘‘सर, मैं यह चाहता हूं कि अनुभवहीन तथ्यों को प्रदेश के शिक्षकों पर न थोपा जाए। मैं बहु-कक्षा शिक्षण वाले स्कूलों और शिक्षकों की वस्तुस्थिति बताना चाहता हूं ताकि बनाया गया मसैदा यथार्थपरक हो।’’

॰॰॰
जैसे ही उसने कार स्टार्ट की,हैडमासाब दौड़े आए थे-‘‘सर,ये सीलू सर के दो हजार रुपये के यात्रा-भत्ता बिल लेते जाइए,किताब लिखते समय के हैं। कोई अधिकारी निकालने को तैयार नहीं है। संभव हो तो निकलवा दीजिएगा।‘‘

गौरतलब में सीएन सुब्रह्मण्यम का लेख ‘इतिहास शिक्षण यानि ऐतिहासिक नजरिया विकसित करना’ पठनीय है। आरंभ में ही असरदार बात वे लिखते हैं-पाठ्यपुस्तक निर्माण के दो सिरे हैं। एक सिरे पर वे लोग हैं जो कि इतिहास के पेशे में अंग्रणी लोग हैं तो दूसरे सिरे पर वे लोग हैं जो बच्चों को इतिहास पढ़ाते हैं।’’
वे रेखांकित करते हैं कि अच्छी पुस्तक का बनना और अच्छी शिक्षण सामग्री बनना में अन्तर होता है। लेख में वे लिखते हैं-इतिहास शिक्षण का ज़्यादा बेहतर तरीका यह होगा कि आप बच्चे को तर्क करने का मौका देते हैं, उनके सामने सिर्फ एक सवाल ही उठाकर छोड़ देते हैं कि आपको क्या लगता है-ऐसा क्यों हुआ होगा?
लेख में आगे पढ़ते हैं-कुछ लोग आरंभिक स्तर पर इतिहास शिक्षण में जटिलता की बात करते हैं, इस बारे में कहना चाहूंगा कि बच्चे इससे भी जटिल विचारों को पकड़ लेते हैं और अपना लेते हैं।
नंद किशोर आचार्य का लेख ‘इतिहास: मनुष्य जाति की प्रयोगशाला’ भी शानदार लेख है। यह सीधे कक्षा-कक्ष में लाभदायक है। वे शुरुआत भी शानदार तरीके से करते हैं-मैं यह समझता हूं कि अभी हम इतिहास नहीं पढ़ा रहे हैं। अभी हम केवल कुछ विवरण बता रहे हैं और उन विवरणों के पीछे एक चयन-दृष्टि भी काम करती है। क्योंकि सारे विवरण आप नहीं बता सकते हैं, इसलिए एक खास दृष्टि से खास तरह के समाज या व्यवस्था के लिए शिक्षार्थी को तैयार करना चाहते हैं। उस दृष्टि से इतिहास के तथ्यों का चयन होता है और उसी दृष्टि से तथ्यात्मक विवरण उनको बता दिए जाते हैं। 
आगे लेख में पढ़ते हैं-अभी हम इतिहास की अतीतजीविता की तरह पढ़ाते हैं-जबकि इतिहास भविष्य दृष्टा है। उसे भविष्य दृष्टा की दृष्टि से पढ़ाया जाना चाहिए, न कि अतीतजीविता की दृष्टि से।

आगे लेख में पढ़ते हैं-इतिहास,दरअसल, मनुष्य जाति की प्रयोगशाला है, उस प्रयोगशाला में वह कुछ प्रयोग करता है। जिनमें से कुछ सफल होते हैं, कुछ असफल होते हैं।
प्रसिद्ध शिक्षाविद् कृष्ण कुमार का लेख ‘पाठ और पुस्तकें’की एक-एक पंक्ति पठनीय ही नहीं मननीय भी है। वे लिखते हैं-पाठ्यपुस्तकें सामान्य पुस्तकों से भिन्न होती हैं,क्योंकि उसके भीतर जानकारी या साहित्य नहीं पाठ होते हैं। स्कूल के संदर्भ में पाठ का एक ही अर्थ होता है-सीख,जो कभी-कभी शिखा के पर्यायवाची की तरह इस्तेमाल की जाती है। 
एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक कृष्ण कुमार लिखते हैं-

‘स्कूल के दायरों में सीखों का स्रोत पाठ्यपुस्तकें होती हैं,क्योंकि प्रत्यक्ष अनुभवों की गुंजाइश बहुत कम होती है। वर्णमाला से लेकर विाान तक सबकुछ पाठ की इकाइयों में बंटा और बंधा होता है।’
वे बताते हैं-‘अनुभव की गतिमा तभी स्वीकारी जा सकती है, जब व्यक्ति को गरिमा दी जाए। जिस समाज में व्यक्ति के लिए गरिमा क्या,करुणा की भी गुंजाइश न हो,वहाँ अनुभव की स्वतंत्र सत्ता नहीं हो सकती।’ मात्र चार अनुच्छेदों का अतुलनीय आलेख, सभी के लिए पठनीय।
‘पाठ्यपुस्तक की प्रासंगिकता’ के जरिए डाॅ॰ इसपाक अली तर्कपूर्ण नज़रिया सामने लाते हैं। 
आरंभ ही चिंतनीय है-

‘जिस समाज में छपे हुए अक्षर शब्द वेद वाक्य की तरह स्थापित हो उस समाज में पाठ्यपुस्तक की भूमिका काफी बढ़ जाती है। बच्चों का पाठ्यपुस्तकों में इतना अटूट विश्वास होता है कि उससे अलग कोई भी सत्य-असत्य उनके लिए असत्य ही होता है।’
यानि छात्र पाठ्यपुस्तक को ही अंतिम सत्य मान लेते हैं। वे यशपाल समिति के हवाले से कहते हैं कि बच्चे के दिन प्रतिदिन के जीवन और पाठ्यपुस्तकों की विषयवस्तु के बीच की दूरी भी ज्ञान को बोझ में बदल देती है। इतिहास,पंथ और भाषा के नज़रिए को रेखांकित करते हुए आलेख कई सवाल भी उठाता है।
कालू राम शर्मा का नजरिया ‘मात्र पाठ्यपुस्तक पर सवार होकर पढ़ना-लिखना संभव नहीं’ अनुभव और बातचीत के आधार पर तैयार हुआ लगता है। एक ज़रूरी और शिक्षकों के शिक्षण में सुधार के सुझाव देता लेख एनसीएफ 2005 के नजरिए को भी सामने रखता है।
वे लिखते हैं- यों पाठ्यपुस्तकों को लेकर बच्चों और शिक्षकों में जो दृष्टिकोण पैदा हो चुका है वह यह कि इनका कक्षा में इस्तेमाल प्रश्न-उत्तर लिखवाने व परीक्षा पास करने भर के लिए है। दरअसल, यह नियति बनाई जा चुकी है। 
वे लिखते हैं- पाठ्यपुस्तकों में बच्चों के अलगाव काप्रमुख कारण है, बच्चों के मनोविज्ञान का ख्याल करके इनकी रचना नहीं की जाती। दरअसल, पाठ्यपुस्तकों का पूरा जोर इस बात पर होता है िकवे बच्चों को खुद से ज्ञान रचने के बजाय ज्ञान की घुट्अी पिताली हैं। पाठ्यपुस्तकों की भाषा बच्चों के संदर्भ व उनके स्तर से परे की होती है। किताबें बच्चों पर भरोसा नहीं जताती कि वे एक सीखने वाले, सोचने वाले, तर्कशील व खोजने वाले के रूप में जन्म लेते हैं।’

वे सुझाते हैं-‘यहां शिक्षक की भूमिका अहम है। शिक्षक की भूमिका सीखने में सहयोगी की है न कि हर चीज़ वह बच्चों में थोपे। बेशक, शिक्षक से अपेक्षा है कि बच्चे चित्र को देखें व उन्हें बातचीत के मौके उपलब्ध कराए। बच्चे जो भी कुछ कह पाएं अपनी भाषा में उसे स्वीकार किया जाए।’ वे रिमझिम 1 के आलोक में पाठ्यपुस्तक की खूबियों पर भी चर्चा करते हैं। 
सविता प्रथमेश के नजरिए में ‘पाठ्य पुस्तकों की भाषा और ग्राह्यता’ के बहाने शिक्षक, शिक्षा और अधिगम पर महत्वपूर्ण बातें शामिल हो सकी हैं। लेख छत्तीसगढ़ के राज्य शिक्षा बोर्ड के अनुभवों से समृद्ध हुआ है। प्रो॰कृष्ण कुमार के हवाले से भी लेख आगे बढ़ता है। आलेख की अलग-अलग अनुच्छेदों से कुछ बातें ये हैं-

‘ पाठ्यपुस्तकें आम पुस्तकों से सामग्री की दृष्टि से ही अलग नहीं होती हैं, बल्कि इसका पाठक वर्ग भी निश्चित होता है और उसका मानसिक स्तर भी एक हद तक निश्चित ही होता है। इस दृष्टिकोण से पाठ्यपुस्तकों की महत्ता और भी बढ़ जाती है।’
पाठ्यपुस्तकों की भाषा पर जीवंत अनुभव के सिलसिले में लेख में आता है-‘ग्यारहवीं के जीवविज्ञान के छात्रों का कहना था कि राज्य द्वारा विकसित पुस्तक उनकी समझ से परे है। कारण क्लिष्ट,कठिन और हिंदी के निहायत ही अप्रचलित शब्दों का प्रयोग। एक सिरे से पुस्तक पढ़ने पर नज़र आता है कि ये अंग्रेजी वर्जन का महज अनुवाद ही है। वह भी एक कठिन अनुवाद।’
‘भाषा,विकास और अवरधारणा विकास एक दूजे से गहराई से जुड़े हुए हैं। विचार और भाषा एक-दूसरे के पूरक हैं। भाषा जब ग्रहणीय होती है, तब विचार उत्पन्न होते हैं। जब तक विद्यार्थी भाषा नहीं समझेगा वह उससे तादात्म्य स्थापति नहीं कर सकेगा। विचार उत्पन्न होना तो दूर की बात है। एक उत्तम पाठ्यपुस्तक की विशेषता ही होती है कि वह भाषिक आवश्यकताओं के अनुरूप होती हैं।’ कक्षा-कक्ष में नवाचार के प्रतिबद्ध शिक्षक के लेख अलग से पहचाने जाते हैं। विज्ञान विषय की किताब और उनके प्रकरण के साथ-साथ भाषा की सरलता और सहजता पर भी यह आलेख केन्द्रित है। इसे जरूर पढ़ा जाना चाहिए।
बच्चों के साथ शिक्षा और उनकी समझ से आगे बढ़कर काम करते रहना हर किसी के वश की बात नहीं। लेकिन कमलेश जोशी हर समय वैज्ञानिक जागरुकता जगाने के साथ-साथ बच्चों के मध्य निरन्तर उपस्थित रहते हैं। ‘बच्चों के करने के लिए बहुत कुछ’ आलेख में उन्होंने अपने अनुभवों के साथ बच्चों की दुनिया को भी शामिल किया है। वह लिखते हैं-अगर हम हिंदी की किताब देखते हैं तो उसमें अभ्यास के लिए इतनी गतिविधियां दी गई हैं कि बच्चे को खुद से वे सारी चीज़ें करवाई जाए तो उसको अलग से हिंदी का व्याकरण पढ़ाने की जरूरत ही नहीं है। लेकिन इसके लिए हमें यह भाव छोड़ना पड़ैगा कि हमें सब कुछ आता है और बच्चे कुछ नहीं जानते।’
एनसीईआरटी की किताबों के आलोक में वे आगे लिखते हैं-‘ये किताबें बच्चों को अपने आस-पास के समाज से जुड़ने के अवसर उपलब्ध कराती हैं। उनकों इस चीज़ का बोध भी कराती है कि जिस प्रकृति और समाज में वे रह रहे हैं, उसके प्रति भी उनके कुछ कत्र्तव्य होते हैं, जिन्हें उनको जाने-अनजाने निभाना ही होता है।’
शिक्षा के सरोकारों में निरन्तर अपनी आवाज बुलंद करते डाॅ॰ केवलानंद काण्डपाल ने कक्षा छःह के लिए सामाजिक विज्ञान की पाठ्यपुस्तक पर केन्द्रित लेख ‘कक्षा में पाठ्यपुस्तक का उपयोग कैसे हो?‘ में लिखा है-‘अब हम शिक्षकों पर निर्भर है कि पाठ्यपुस्तक की केन्द्रयीता की अनैच्छिक स्थिति में कम से कम पाठ्यपुस्तकों को कक्षा-कक्ष में इस प्रकार से बरतें,उपयोग में लायें जिससे बच्चे के ज्ञान,कौशल एवं मूल्यों-अभिवृत्ति में अधिकतम संभव बदलाव लाया जा सके।’
उन्होंने सामाजिक विज्ञान के सन्दर्भ में पड़ताल को आगे बढ़ाया। उन्होंने कक्षा छह की पाठ्यपुस्तक ‘सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन-1’ के सन्दर्भ में विस्तार से व्यावहारिक बातों की ओर इशारा किया है। काण्डपाल जी लिखते हैं-पुस्तक में चार थीम को ध्यान रखकर निर्मित किया गया है। विविधता, सरकार, स्थानीय सरकार एवं प्रशासन और आजीविकाएं।
वे आगे बताते हैं कि पुस्तक को बरतने के बारे में भी विस्तार से बताते हैं। पाठ की शुरुआत, पाठ के बीच में प्रश्न और अभ्यास, अभ्यास, कथानकों का उपयोग, छवियों का उपयोग,भाषा में जेंडर संवेदनशीलता और अन्य साधनों का उपयोग के आधार पर पुस्तक को खगालते हुए मिलते हैं। मुझे यह लगता है कि किसी भी विषय की पाठ्यपुस्तक को हमें इस आधार पर देखना ही चाहिए। अभिभावकों को भी।

उनका तीव्र आग्रह बेहद असरदार है-
‘अध्यापक पाठ्यपुस्तक से हटकर भी सोच सकें, इसके लिए दो बातें महत्वपूर्ण हैं। पहला-इस बात की स्पष्ट समझ कि पाठ्यपुस्तक केवल एक सुविधाजनक साधन है,जिसमें बच्चों से क्या-क्या सीखने की अपेक्षाएं हैं, उन बातों से सम्बंिन्धत विषय सामग्री का व्यवस्थित तरीके से किया गया एकत्रीकरण है और यह अन्तिम भी नहीं है। बहुत बार इससे बाहर भी जाकर अध्यापक को सामग्री एकत्रित करनी पड़ेगी, जुटानी पड़ेगी,विकसित करनी पड़ेगी। दूसरा-अध्यापक को इस बारे में निरंतर सचेत रहना होगा कि विषय की पाठ्यचर्या के लक्ष्य क्या हैं? पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तक में संकल्पनात्क अंतर है? शिक्षक की इस बारे में समझ से बच्चों के अनुभवों को कक्षा-कक्षा प्रक्रिया में शामिल होने की संभावनाएं बलवती होती हैं।’
एनसीईआरटी की विज्ञान की कक्षा छह से आठ की पाठ्यपुस्तकों पर केन्द्रित एक और महत्वपूर्ण लेख डाॅ॰निर्मल कुमार न्योलिया का है। ‘कसौटी पर एनसीईआरटी की विज्ञान पाठ्यपुस्तकें’ वैज्ञानिक नज़रिये और संकल्पनाओं पर गहरी बात करता नज़र आता है। जैसा पहले भी कहा गया है कि कक्षा-कक्ष में छात्रों के साथ सीखने-सीखाने की प्रक्रिया में रत अध्यापक का दृष्टिकोण शिक्षाविदों और नीति-नियंताओं से नायाब लगता है। इस आलेख को पढ़कर भी इस बात की पुष्टि होती है। वे एनसीएफ 2005 के हवाले से बहुत सारी ज़रूरी बातें-मान्यताओं को हमारे सामने रखते हैं। वे लिखते हैं-‘एनसीएफ ने ऐसी विज्ञान शिक्षा जो बच्चों के प्रति,जीवन के प्रति और विज्ञान के प्रति ईमानदार हो,को सही माना है।’
न्योलिया जी सवाल उठाते हैं-‘जो भी इस लेख को पढ़ें, कभी फुर्सत में जरूर यह जानने काप्रयास करें कि उनके आस-पास के विद्यालयों में विज्ञान पढ़ रहे बच्चे किसी भी स्थानीय समस्या का वैज्ञानिक हल ढूंढने में सक्षम रहे हैं?’
और अंत में वे लिखते हैं-विज्ञान विषय की सीमाएं यह भी हैं कि प्रत्येक संकल्पना में 6 वैधताओं को सम्मिलित किया जा सके। विषयवस्तु की प्रकृति में बदलाव से यह सम्भव हो सकता है।’ वे 6 वैधताओं का भी उल्लेख लेख में हो जाता तो बेहतर होता।
अनुपमा तिवाड़ी का लेख ‘पाठ्यपुस्तक की समस्याओं को खोजने की कुंजी’ मौजूदा शिक्षा की स्थिति पर सोचने को बाध्य करता है। वह लिखती हैं कि शिक्षा में ये शार्टकट रास्ता, जो हम अपनाते हैं, वह हमारे सीखने में बाधक बन जाता है। इसमें सीखने की जिज्ञासा नहीं है, चुनौती नहीं है,खोजने की तड़प नहीं है। इसमें स्वयं को समृद्ध करना नहीं है।’
स्वयं की निजी अनुभवों से सराबोर यह आलेख पठनीय है। वे साल्व्ड औरअनसाल्वड परिपाटी की भी बात करती हैं। एक्सीलेंट, पासबुक वाले प्रचलन पर भी इस लेख में विचारणीय बिन्दु शामिल हैं। निजी स्कूलों की अव्यावहारिकता भी इस लेख में पढ़ने को मिलती है। कुंजी के प्रचलन पर चर्चा भी असरदार है। अनुपमा लिखती हैं-‘अब लिखने का मापदंड अंक प्रणाली पर आधारित है तो इस बौद्धिक युग में बच्चे, ज्यादा से ज्यादा अंक प्राप्त करने की जुगत करते दिखाई देते हैं।’
प्रतिभा कटियार का आलेख ‘एक पाठ्यपुस्तक जिससे दिल लग जाए’ एनसीईआरटी की कक्षा 3 की हिंदी की पाठ्यपुस्तक का अध्ययन कर बना है। वैसे भी प्रतिभा साहित्यसेवी है और सार्वजनिक शिक्षा और शिक्षकों से गहरे से जुड़ी हुई हैं। रिमझिक भाग तीन पाठ्यपुस्तक की आवरण से लेकर पाठों की चर्चा, पाठों के आधार पर आई विधाओं पर भी उन्होंने विस्तार से चर्चा की है। वे लिखती भी हैं-‘आमतौर पर पाठ्यपुस्तकों को देखने,उठाने और पढ़ने का मन और मौसम अलग ही होता है। कोर्स की किताब यानि कोई काम,समय की पाबंदी के साथ कोर्स को पूरा करने की जिम्मेदारी जैसा कुछ। लेकिन एनसीईआरटी ने पाठ्यपुस्तकों को पाठ्यपुस्तकों वाली बोरियत से बचाने का प्रयास किया है। किताब की साज-सज्जा बाल मन को आकर्षित करती है। ऐसी कि टीचार जो पढ़ने को कहें या न हें बच्चे किताबों से लिपते रहें।’
लेख में पाठ्यपुस्तकों के चित्र और पाठ में निहित कथावस्तु पर पैनी नज़र से पड़ताल की गई है। प्रतिभा लिखती हैं-इनत माम पाठों को पढ़ते हुए कतई महसूस नहीं होता कि कोई पाठ पढ़ रहे हैं। हर पाठ का रचना संसार शरारतों,कल्पनाओं,आसपास की दुनिया की बातों से जोड़ते हुए हैं। पाठ के बाद पाठ का मजा और बढ़ना शुरू होता है। सवाल, सवाल की तरह नहीं शरारत की तरह हैं या बातचीत करते हुए मजे लेते हुए एक-दूसरे की बातें सुनने-जानने को लेकर हैं। हर पाठ के बाद की रोचक गतिविधियां बच्चों को उनके परिवेश , उनके जीवन, उनके लोक की भाषा और मजेदारी से जोड़ने वाली हैं। कक्षा के सभी बच्चो को जोड़ने वाली हैं। बच्चों के भीतर की हिचक,संकोच को तोड़ने वाली और बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी के लिए उकसाने वाली है।
अंत में वे बहुत ही गहरी बात लिखती हैं-‘वैसे रिमझिम है तो कक्षा-3 के बच्चों की पाठ्यपुस्तक लेकिन बड़ों को भी इसमें खूब मजा आता है। यात्राओं में भी इसे साथ रखने की सलाह मैंने दोस्तों को दी है। इसकी कहानियों और कविताओं ने मुझे कई और कहानियों तक भी पहुंचाया है।’
डाॅ॰दिनेश जोशी ने पाठ्यपुस्तकों को शिक्षक की जिम्मेदारी की ओर से देखने का प्रयास किया है। उनका लेख ‘शिक्षक की भूमिका तथा पाठ्यपुस्तकें’ हर तरह के शिक्षक को पढ़ना ही चाहिए।

डाॅ॰ दिनेश जोशी 5 आधारभूत बातों को रेखांकित करते हैं, जिसमें वे मानते हैं कि किसी भी अध्यापक को यह काम तो करने ही चाहिए। वह लेख में हिंदी शिक्षण को दो भागों में बांटकर देखते हैं। एक-हिन्दी को सीखना,समझना,अभिव्यक्त करना और व्यक्तित्व तथा जीवन के विकास में इसका योगदान। दो-परम्परागत परीक्षाओं को पास करना और अंक प्राप्त करना। नौकरी के लिए आवश्यक बना दिए गये बच्चों के परीक्षा-परिणाम के अंतर्गत।
इस लेख में वे हिन्दी पढ़ाने के लिए कक्षा अनुसार और विद्यार्थी अनुसार योजना बनाने पर जोर देते हैं। स्वयं के अनुभवों को साझा भी करते हैं। इस लेख में दिनेश एनसीईआरटी की हिंदी की पाठ्यपुस्तकों में हासिल अवसरों पर भी बात करते हैं।
वे लिखते हैं-हिंदी की पुस्तकों में उपलब्ध अवसर तो अपार हैं, उन्हें तलाश कर यथाशक्ति उपयोग करने की ज़रूरत है। समयानुसार बदलाव और सुधार की आवश्यकता तो हर क्षेत्र में रहती है। दिनेश अपनी कक्षा-कक्षों में जो गतिविधियां कराते हैं उनका भी उल्लेख करते हैं। उनकी अपनी विकसित की गई गतिविधियों में हमें भी पूछना है एक रजिस्टर है। जिसमें छात्र उन सवालों को दर्ज़ करते हैं जो वे पूछना चाहते हैं। दूसरा रजिस्टर है मन की बात। बच्चे इसमें मन की बात लिखते हैं। तीसरी पेटिका है जिज्ञासा समाधान। इस में बच्चे हिंदी विषयक प्रश्न पर्चियां डालकर पूछते हैं। इस तरह दस गतिविधियों का उल्लेख इस लेख में है। यह भी सभी शिक्षकों को पढ़ना ही चाहिए।
इस अंक में एक संक्षिप्त सर्वे भी है। आपको कौन सी पाठ्यपुस्तक पसंद है? दस छात्रों ने अपनी पसंदीदा पाठ्यपुस्तक के बारे में लिखा है। इस सर्वे में नैनीताल के राजकीय इंटर काॅलेज गहना के छात्रों ने भाग लिया। यह भी एक शानदार गतिविधि है। क्या हमने भी अपने छात्रों से पूछा है कि उन्हें कौन-सी पाठ्यपुस्तकें अच्छी लगती है? और क्यों?
सीमा भाटिया की लघुकथा सत्यमेव जयते भी इस अंक में है। हिंदी की पाठ्यपुस्तकों,सामाजिक विज्ञान,विज्ञान के साथ-साथ गणित,संस्कृत,अंग्रेजी की पाठ्यपुस्तकों पर भी चर्चा आती तो बेहतर होता। लेकिन रचना-सामग्री और लेख जुटाना और उससे पहले प्रतिबद्धता के साथ ससमय भेजना इन दिनों स्वंय एक चुनौती बन गया है। भीतर के आवरण में सुभाष चंद्र सिंह की कविता ‘बच्चे खेल रहे है’ के साथ चित्र का संयोजन किसी लम्बवत् चित्र के साथ और बेहतर हो बन पड़ता। मसलन भीतर झूला झूलती बालिका वाला चित्र इस कविता में फैलाव ले सकता था। अनुष्का ने इस अंक के लिए चैदह (एक चित्र दो बार प्रकाशित हुआ है) चित्र बनाए है।। इस अंक का काग़ज़ आवरण के काग़ज़ सहित बेहतरीन है। पत्रिका को दीर्घायु बनाने के लिए यह अच्छी सोच का परिचायक है।
मुझ तक यह शनिवार को बज़रिए डाकघर पहुँच गया था। लेकिन मैं उसे आज सुबह ही हासिल कर सका। रविवार का समय मुफ़ीद रहा। पत्रिका को समय दे सका और तात्कालिक टिप्पणी आपकी नज़र कर रहा हूँ। वहीं बात कि यह महज़ चैंसठ पेज की छमाही पत्रिका ही नहीं है। शामिल रचना सामग्री और लेख प्रायः ऐसे जुटते हैं कि जब भी मन करे पत्रिका के अंकों को टटोला जा सकता है। दूसरे शब्दों में कहूं तो यह एक तरह से संदर्भ सामग्री का डाइजेस्ट बनती जा रही है। मुझे लगता है कि शैक्षिक दख़ल समिति को अपने सभी अंकों को दस अंक क्रमवार एक साथ एकाकार डाइजेस्ट के तौर पर संकलित भी करना चाहिए। यह साल की कालिकचक्र रस्मअदायगी मात्र नहीं है। पत्रिका में पाठक के लिए बौद्धिक खुराक के साथ चेतना के स्तर पर कुछ औजार और हथियार शामिल हैं। यह कहना ठीक ही होगा कि वे शिक्षक जो पत्रिका से जुड़े हैं आद्योपांत इसे पढ़ते हैं। समझते हैं। गुनते हैं और अपने अनुभवों में अन्य साथी शिक्षकों के अनुभवों को जोड़कर कक्षा-कक्ष में बदलाव लाते हैं तो यकीनन वे नवाचार के मामलें में उन शिक्षकों से एक कदम आगे हो जाते हैं जिनके पास इस पत्रिका का मंच मुहैया नहीं है। तो आइए, इस बहाने हम और आप भी शैक्षिक दखल के साथ शैक्षिक हस्तक्षेप में सहभागी बनें।
पत्रिका: शैक्षिक दख़ल
संपादक: महेश पुनेठा-दिनेश कर्नाटक
मूल्य: 50
पेज: 64
वर्ष: 7
अंक: 14,जुलाई 2019
संपादकीय पता: शैक्षिक दख़ल समिति,
द्वारा महेश पुनेठा, शिव कालोनी, न्यू पियाना, पोस्ट आॅफिस डिग्री काॅलेज, पिथौरागढ़ 262502 उत्तराखण्ड 
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-मनोहर चमोली ‘मनु’

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