11 अक्तू॰ 2010

फिर एक सुहानी याद आई- मनोहर चमोली ‘मनु’

बात उन दिनों की है, जब आपसे मेरी बात चल रही थी। सगाई की तिथि तय होने वाली थी। परिचित कहते,‘भई वहाँ बात-वात भी होती है कि नहीं।’ तुम्हारे पास मोबाइल नहीं था। न ही तुम्हारे घर में फ़ोन था। मैं सभी से एक ही बात कहता, ‘‘वहाँ मोबाइल नहीं है। मेरे पास है। जब वहीं से फ़ोन नहीं आता तो मैं क्या करूँ।’’ मुझसे ऐसा उत्तर सुनकर कमोबेश सभी यही कहते, ‘‘इतना अंहकार ठीक नहीं। आस-पड़ोस में तो होगा। बुलाकर बात कर लिया करो।’’

मैं सोचता। पर सोचता ही रह जाता। फिर मेरा मन मुझे यह कहकर समझा लेता कि पहल तो तुम्हें करनी चाहिए। तुम कहीं से भी मुझे मेरे नंबर पर कॉल कर सकती हो। जब तुम ही एक कॉल नहीं कर रही हो, तो मैं पहल क्यों करूँ। करूँ भी तो कहाँ करूँ।

मेरी एक परिचित शिक्षिका बार-बार कहती,‘‘सुनो मनु। लड़कियाँ ख़ुद पहल नहीं करती। कुछ भी हो। तुम्हें आस-पड़ोस में ही सही फ़ोन करना चाहिए। शादी से पहले हुई बातों-मुलाक़ातों का अपना महत्व है। तुम बहुत कुछ ऐसा है, जिसे खो रहे हो।’’

मैं उनकी बात से सहमत तो था। पर मैं एक ही बात पर उलझ कर रह जाता। वह बात थी कि तुम एक फ़ोन पहले नहीं कर सकती। जबकि मैं कागज़ पर अपना मोबाइल नंबर लिखकर तुम्हें दे चुका था। कभी-कभी तो मुझे तुम पर बहुत गुस्सा आता। पर मेरी हालत यह थी कि मैं किसी से हम दोनों के मसले पर बात नहीं करना चाहता था। अब कई बार मैं मन ही मन सोचने लगा था कि कैसी लड़की से जीवन की डोर बंध रही है। मैं होता और मेरे पास तुम्हारा नंबर होता तो मैं आए दिन तुम्हें फ़ोन करता। एक तुम हो कि अभी तक एक कॉल तक नहीं की। इस तरह कई दिन नहीं कई सप्ताह यूं ही निकल गए।

तभी एक दिन अचानक आपका फ़ोन आया। एक अजनबी लड़की की कभी न सुनी हुई अजीब सी आवाज़ मेरे कानों पर पहुँची। मुझे लग तो गया था कि तुम ही हो। पर मैं फिर भी ‘हैलो-हैलो’ करता रहा। आपने कहा,‘‘मैं बोल रही हूँ।’’

मैंने जानबूझकर पूछा-‘‘मैं कौन?’’ तुम उधर से चुप ही रही। फिर कुछ देर दोनों चुप ही रहे। फिर मुझे पता नहीं क्या हुआ। मैंने फ़ोन रख दिया था। मगर वह दिन, फिर वह शाम ही नहीं रात भी यूंही गुजर गई। मैं सो ही नहीं पाया। खुद को कोसता रहा। मुझे अपने व्यवहार से ही ऐसी उम्मीद न थी। पर अब हो भी क्या सकता था।

फिर कई दिन यूं ही गुज़र गए। फिर एक दिन आपका फ़ोन आया। अब आपने बताया कि घर पर बेस फ़ोन लग गया है। आपने नंबर भी दिया। मैंने तुम्हें मोबाइल ख़रीद कर देने की बात कही तो आपने कहा,‘ नहीं। घर पर फ़ोन लग तो गया है। जब मुझे बात करनी होगी तो मैं आपसे ख़ुद कर ही लिया करूँगी।’’

फिर क्या था। तुम उधर से मिस कॉल करती। फिर मैं इधर से बात करता। फिर तो बातों का सिलसिला चल पड़ा। उस समय कॉल दर और पल्स दर आज की तरह इतनी सस्ती नहीं थी। तुमने कहा भी था कि बाद में हिसाब हो जाएगा। पता नहीं वो दिन कब आएगा। खैर. . . आज आलम यह है कि अगर बात न हो तो ऐसा लगता है कि वक़्त ठहर गया है। कुछ खो गया है। कितनी भी व्यस्त दिनचर्या हो, बीच-बीच में मन और मस्तिष्क लौट-लौट कर तुम्हारी और जा पहुँचता है।

ऐसे कई अवसर आए जब हम मिल सकते थे। मेरे सभी मुलाक़ात करने के प्रस्ताव तुमने ख़ारिज़ कर दिये। मुझे लगता था कि तुम सोती बहुत हो। ज़रूरत से ज़्यादा व्रत रखती हो। टी.वी. बहुत देखती हो। इधर-उधर गप्पें ख़ूब लड़ाती हो। अक्सर तुम्हें जुकाम और खाँसी की शिकायत रहती है। तुम आइसक्रीम भी ख़ूब खाती होंगी। ऐसा आपसे हुई बातों से मुझे लगा है। जब इस संबंध में बात करना चाहता हूँ तो आप टाल जाती हो। जब ज़िद कर अधिकार से पूछता हूँ तो खिलखिलाकर हँसने लग जाती हो।

आप अक्सर एक ही बात कहती थी,‘‘बस। कुछ समय और इंतज़ार कर लो। मैं तुम्हारी सब ग़लतफ़हमियाँ दूर कर दूँगी।’’ पता नहीं क्यों। मुझे अनजाना-सा डर लगा रहता कि जैसा मैं तुम्हारे बारे में सोचता हूँ, अगर तुम वैसी ही हो, तो मेरा क्या होगा। फिर हमारा विवाह हुआ। आज विवाह को हुए तीन साल हो गए। वाकई तुम्हारी बात ठीक निकली। मेरी सारी ग़लतफ़हमियाँ दूर हो गईं। आज में गर्व के साथ कह सकता हूँ कि तुम मेरी जीवनसंगिनी ही नहीं हो, मेरी मार्गदर्शक भी हो। ये ओर बात है कि शादी के बाद भी हम साथ-साथ नहीं हैं। एक-दूसरे से दूर हैं। मगर इस जीवन का भी अपना आनंद है। अब जब कभी मुझे शादी से पहले के दिन याद आते हैं, तो मैं अनायास ही मुस्करा जाता हूँ। वो दिन भी क्या दिन थे। यह हम-तुम ही जानते हैं। या फिर वो जानते होंगे, जिन्होंने हमारी-सी परिस्थितियों में प्रेम किया हो और फिर विवाह किया हो। खैर.....इस आपा-धापी के युग में कुछ रहे न रहे, मगर बातें और यादें ही रह जाती हैं।

- मनोहर चमोली ‘मनु’

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