-मनोहर चमोली ‘मनु’
एन॰बी॰टी॰ द्वारा साहित्य और संस्कृति की दुमाही पत्रिका ‘पुस्तक संस्कृति’ का प्रकाशन प्रारंभ हुए तीन वर्ष हो चुके हैं। पत्रिका का बाल साहित्य विशेषांक प्रकाशित हो गया है। चैसंठ पृष्ठों का यह अंक कई मायनों में अतुलनीय बन पड़ा है।
अमूमन बाल साहित्य के नाम पर अधिकतर पत्रिकाएं या तो रस्म अदायगी की भेंट चढ़ जाती हैं या फिर उसमें अधिकतर पृष्ठ कविता-कहानी को समर्पित हो जाते हैं। पुस्तक संस्कृति ने सही अर्थों में समग्रता के साथ साहित्य में बाल-मन की थाह को सम्मान देकर विपुल स्थान दिया है।
संपादकीय के साथ, पाठकों की प्रतिक्रियाएं हैं। क्षमा शर्मा का आलेख आज के परिदृश्य में बच्चे और लेखक शामिल हुआ है। अमृतलाल नागर के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित आलेख ‘अनूठे बाल साहित्यकार और कुशल वाचक: अमृतलाल नागर डाॅ॰नागेश पाण्डेय ‘संजय ने लिखा है। प्रकाश मनु की कहानी एक स्कूल मोरों वाला अंक में प्रकाशित है। डाॅ॰ जसविंदर कौर बिन्द्रा का आलेख बच्चे: साहित्य और कला क्षेत्र पत्रिका में है। पवन चैहान का लेख ‘हिमाचली बच्चों के खेल‘ को पर्याप्त स्थान मिला है। प्रमोद दीक्षित ‘मलय’ का आलेख भाषा की कक्षा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अवसर भी प्रकाशित हुआ है।
विज्ञानपरक लेख ‘विज्ञान, गतिविधि और बाल साहित्य‘ डाॅ॰मनीष मोहन गोरे का है। रेनू सैनी की कहानी ‘जूतों का साथ‘ को भी शामिल किया गया है। डाॅ॰शुकन्तला कालरा ने विमर्शपरक लेख लिखा है। यह विमर्श के कई आयाम खोलता है। ‘भूत-प्रेत और परीकथाओं की प्रासंगिकता‘ लेख का नाम है। देवेंद्र कुमार की कहानी ‘कोई तो मदद करो‘ अंक में सम्मिलित है। पत्रिका में एक और विशेष लेख है। ‘बच्चों की पुस्तकों का अनुवाद-समस्या व चुनौती‘ को सुमन वाजपेयी ने लिखा है। शशि पाधा का लेख ‘वीर स्थली का सिंह नाद‘ भी पत्रिका में उपस्थित है।
दिविक रमेश की कविता ‘नानू को समझाओ’ अंक में शामिल है। परमेंद्र सिंह की कविता ‘स्कूल जाता बच्चा’ और हमारे बच्चे भी हैं। श्याम सुशील की कविता ‘हवा में कविता‘ और बजते-बजते बजी बाँसुरी भी प्रकाशित हुई है। तेरह पेजों में कई विशेष पुस्तकों की शानदार समीक्षाएं प्रकाशित हुई हैं। दो पृष्ठों में उन पुस्तकों की जानकारी हैं जो पुस्तक संस्कृति को लेखकों ने भेजी हैं। साहित्यिक गतिविधियों की ख़बरों को दो पेजों में स्थान मिला है।
आइए, पत्रिका में शामिल विचारों को कुछ बानगी पढ़ते हैं-
प्रधान संपादक के हवाले से संपादकीय में प्रो॰बलदेव भाई शर्मा कहते हैं-
‘हम कितने ही धनाढ्य हों पानी को बरबाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि प्रकृति के संसाधन सबके लिए हैं, उनके लिए भी जो साधनहीन हैं। प्रकृति की परवाह नहीं करोगे,अपने धन के अहंकार में उसे मात्र उपभोग की वस्तु समझोगे तो वह मानवजाति को ही नष्ट कर देगी।‘
क्षमा शर्मा लिखती हैं-
‘काॅरपोरेट तकनीक, पश्चिम और हमारे यहाँ के कुछ अमानवीय मूल्यों ने भी बच्चों के जीवन मंत्र को मात्र मनी,मोबाइल और माॅल्स तक ही सीमित कर दिया है। बच्चे को बहलाना है तो उसे पैसे दे दो, उसके सवालों से दो-चार नहीं होना है तो उसे मोबाइल या टेबलेट पकड़ा दो और घुमाने ले जाना हो तो माॅल्स में ले जाओ। यहीं कारण है कि बच्चे आज तमाम तरह के रिश्तों से ही नहीं, अपने आसपास की प्रकृति से भी कट गए हैं।’
डाॅ॰नागेश पाण्डेय ‘संजय’ अपने लेख में लिखते हैं-
‘अमृतलाल नागर के कथानायक बच्चे किसी परी के आगे लालायित भाव से खड़े नहीं दिखते बल्कि वक्त जरूरत वे परी की भी सहायता करते देखे जाते हैं। यही बाल साहित्य का प्रगतिशील पक्ष है जिसकी धमक उनके साहित्य में उस जमाने में जब परतंत्रता की बेड़ियों ने कहीं न कहीं हमारे मन और हमारी सोच को भी कैद कर रखा था। यह कम बड़ी बात नहीं है कि नागर जी उस जमाने में कितने बड़े स्वप्नों के दृष्टा और सृष्टा थे। जही हाँ, बच्चों में लीक से हटकर कुछ नए सपनों को जगाने के सृष्टा।‘
प्रकाश मनु की कहानी एक स्कूल मोरों वाला का एक अंश आप भी पढ़िएगा-
‘तान्या का बनाया चित्र सबको पसंद आया। उसने एक मोर को गले में बस्ता टाँगकर स्कूल जाते हुए दिखाया। पर इससे भी अच्छा चित्र एक नन्हे बच्चे कर्ण ने बनाया था। उसमें सारे मोर मिलकर एक उदास बच्चे को खुश करने की कोशिश कर रहे थे। बीच में बच्चा था और आसपास गोला बनाकर नाचते हुए ढेर सारे मोर।‘
बच्चे: साहित्य और कला क्षेत्र में डाॅ॰ जसविंदर कौर बिन्द्रा लिखती हैं-
‘वैसे भी बचपन कासमय दिन-ब-दिन घटने लगा है। कभी बच्चे छह या सात वर्ष की आयु में स्कूल में दाखिल किए जाते थे। फिर यह घट कर पाँच या चार तक पहुँची,परंतु अब तो दो-ढाई वर्ष के बच्चों को ही स्कूल भेजा जाने लगा है। उस पर भी सितम यह कि सभी माँ-बाप चाहते हैं कि उनका बच्चा हर विषय और गतिविधि में अव्वल रहे। हम स्वयं अपने बच्चों का बचपन छीनने के कसूरवार हैं।‘
हिमाचली बच्चों के खेल के बहाने पवन चैहान लिखते हैं-
‘इन सारे खेलों का अपना-अपना महत्व है। ये खेल जहाँ मनोरंजन का खजाना हैं, वहीं गणित व विज्ञान आदि के साथ कई सकारात्मक सामाजिक पक्षों से भी बच्चों को रु-ब-रु करवाते हैं। मेरा मानना इतना ही है कि कुछ समय के लिए अभिभावक अपने बच्चों को उपरोक्त खेलों में अवश्य शामिल करवाएँ ताकि बच्चा सही मायने में एक अंदरुनी खुशी के साथ,अपने बचपन की थाह पा सके।‘
भाषा की कक्षा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अवसर में प्रमोद दीक्षित ‘मलय’ लिखते हैं-
‘बच्चों ने गाय पर निबंध लिखा था। उनके लेखन में वर्तनी की बहुत अशुद्धियां थीं लेकिन भाषा उनकी अपनी थी जिसमें उनके परिवेश की बोली के शब्द घुले-मिले थे। भाव और उनका प्रवाह सहज था। मौलिक चिंतन तो था ही कल्पना को व्यक्त होने का भरपूर अवसर मिला था। हर निबंध में उनकी अपनी छाप थी।‘
डाॅ॰मनीष मोहन गोरे अपने लेख विज्ञान,गतिविधि और बाल साहित्य में लिखते हैं-
‘जहाँ तक वैज्ञानिक दृष्टिकोण की बात है, यह सोचने, समझने और निर्णय करने का एक तर्कसंगत नजरिया होता है। कोई भी वैज्ञानिक एक नियत विधि या परिपाटी से होकर प्रमाणित निष्कर्ष पर पहुँचता है। हम अपने दैनिक जीवन में बिना वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रयोग किए अनेक कार्य करते हैं जो असंगत और नुकसानदायक होते हैं।‘ वे इनके कई उदाहरण देते हैं-‘प्लास्टिक के कप में गर्म चाया या कोई अन्य पेय पदार्थ पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है और कमरे की दुर्गंध को दूर करने के लिए प्रयोग किए जाने वाले रूम फ्रेश्नर और माॅस्किटों रिपेलेंट कैंसरकारण्क होते हैं। धूप से आकर हम तुरंत ठंडा पानी पी लेते हैं। इससे शरीर का तापमान का संतुलन बिगड़ जाता है। सब्जी और फल धोकर तुरंत उन्हें प्रयोग कर लेते हैं, जबकि उन्हें पकाने या खाने से पहले घंटा,आधा-घंटा पानी में रख देने से, उनके कीटनाशक रसायन पानी में घुल जाते हैं। ऐसी तमाम मामूली मगर जरूरी बातों की जानकारी और उसमें अपनी सूझ-बूझ लगाने से हमारा जीवन स्वस्थ और पर्यावरण सुरक्षित रहता है।‘
रेनू सैनी की कहानी जूतों का साथ का एक अंश पढ़िएगा-
‘‘माँ मैं इन जूतों को हमेशा अपने साथ रखूँगा, क्योंकि मेरी सफलता में इन जूतों ने प्रमुख भूमिका निभाई है।’’
डाॅ॰ शकुन्तला कालरा का लेख भूत-प्रेत और परीकथाओं की प्रासंगिकता विशेष लेख बन पड़ा है। आप एक अंश पढ़िएगा-
‘इस प्रकार आधुनिक रचनाकारों की दृष्टि में बच्चों के लिए वहीं साहित्य ही श्रेयस्कर है जो बालजीवन से जुड़ा है, जिसमें बच्चों की अपनी दुनिया है। जहाँ उनके रंगीन सपने हैं, उनकी भाव-भंगिमाएँ हैं। उनके आँसू-मुस्कान हैं। सुख-दुख के चित्र हैं। किसी वायवी जीवन को बाल साहित्य का आधार नहीं बनाया जा सकता । परीकथाओं का सुख-दुखात्मक भावजगत् हमारे जीवन से कहीं भी सादृश्य नहीं रखता। यहां यथार्थ जगत नहीं वरन् अतिरंजित कल्पना-जगत होता है जिसका कोई आधार नहीं होता। वह जीवन के प्रति रूमानियत से भरा होता है। इसी करण जब बच्चे का समाना ठोस यथार्थ से होता है तो वह पलायन करने लगता है।‘
बहुत ही महत्वपूर्ण लेख है। पठनीय है और मननीय भी है।
देवेंद्र कुमार की कहानी कोई तो मदद करो का एक अंश आप भी पढ़िएगा-
‘मैं थोड़ी दूर पर एक स्टोर में काम करता था। आज मुझे बुखार था, इसलिए देर से दुकान पहुँचा तो मालिक ने काम से निकाल दिया। मैंने बुखार होने की बात कही पर उसने एक न सुनी। मुझे पगार का बकाया भी नहीं दिया। मैं यहाँ आकर पटरी पर लेट गया। तभी ये बाबा आ गए। मेरे लिए दवा लाए, खाने को दिया। फिर ये अम्मा आकर मेरा सर दबाने लगी।’
बच्चों की पुस्तकों का अनुवााद: समस्या व चुनौती सुमन वाजपेयी ने लिखा है। एक अंश आप भी पढ़िएगा-
‘बच्चों के लिए अनुवाद करते समय उसकी सोच,समझ और विकास के स्तर को नजरअंदाज कर देता है। उसकी दुनिया का हिस्सा न बन पाना ही अनुवाद की सरलता व सरसता के लिए सबसे बड़ी बाधा है। जैसे बच्चों के लिए लिखते समय लेखक के लिए उसके धरातल पर आकर उसकी दुनिया,मन व अपेक्षाओं को महसूस करना अनिवार्य होता है,वैसे ही अनुवाद करते समय भी इन बातों का ध्यान रखना आवश्यक है।‘
यहाँ बानगीस्वरूप कुछ ही रचना-सामग्री के अंश दिए जा रहे हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि बाल साहित्य विशेषांक संग्रहणीय बन पड़ा है।
पत्रिका: पुस्तक संस्कृति,दुमाही
मूल्य: 35 रुपए अंक
वार्षिक सदस्यता: 225 रुपए
प्रधान संपादक: प्रो॰ बलदेव भाई शर्मा
संपादक: पंकज चतुर्वेदी
प्रकाशक: राष्ट्रीय पुस्तक न्यास,भारत, नई दिल्ली
मेल: editorpustaksanskriti@gmail.com
सम्पर्क: 011-26707758,26707876
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प्रस्तुति: मनोहर चमोली ‘मनु’
7579111144
एन॰बी॰टी॰ द्वारा साहित्य और संस्कृति की दुमाही पत्रिका ‘पुस्तक संस्कृति’ का प्रकाशन प्रारंभ हुए तीन वर्ष हो चुके हैं। पत्रिका का बाल साहित्य विशेषांक प्रकाशित हो गया है। चैसंठ पृष्ठों का यह अंक कई मायनों में अतुलनीय बन पड़ा है।
अमूमन बाल साहित्य के नाम पर अधिकतर पत्रिकाएं या तो रस्म अदायगी की भेंट चढ़ जाती हैं या फिर उसमें अधिकतर पृष्ठ कविता-कहानी को समर्पित हो जाते हैं। पुस्तक संस्कृति ने सही अर्थों में समग्रता के साथ साहित्य में बाल-मन की थाह को सम्मान देकर विपुल स्थान दिया है।
संपादकीय के साथ, पाठकों की प्रतिक्रियाएं हैं। क्षमा शर्मा का आलेख आज के परिदृश्य में बच्चे और लेखक शामिल हुआ है। अमृतलाल नागर के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित आलेख ‘अनूठे बाल साहित्यकार और कुशल वाचक: अमृतलाल नागर डाॅ॰नागेश पाण्डेय ‘संजय ने लिखा है। प्रकाश मनु की कहानी एक स्कूल मोरों वाला अंक में प्रकाशित है। डाॅ॰ जसविंदर कौर बिन्द्रा का आलेख बच्चे: साहित्य और कला क्षेत्र पत्रिका में है। पवन चैहान का लेख ‘हिमाचली बच्चों के खेल‘ को पर्याप्त स्थान मिला है। प्रमोद दीक्षित ‘मलय’ का आलेख भाषा की कक्षा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अवसर भी प्रकाशित हुआ है।
विज्ञानपरक लेख ‘विज्ञान, गतिविधि और बाल साहित्य‘ डाॅ॰मनीष मोहन गोरे का है। रेनू सैनी की कहानी ‘जूतों का साथ‘ को भी शामिल किया गया है। डाॅ॰शुकन्तला कालरा ने विमर्शपरक लेख लिखा है। यह विमर्श के कई आयाम खोलता है। ‘भूत-प्रेत और परीकथाओं की प्रासंगिकता‘ लेख का नाम है। देवेंद्र कुमार की कहानी ‘कोई तो मदद करो‘ अंक में सम्मिलित है। पत्रिका में एक और विशेष लेख है। ‘बच्चों की पुस्तकों का अनुवाद-समस्या व चुनौती‘ को सुमन वाजपेयी ने लिखा है। शशि पाधा का लेख ‘वीर स्थली का सिंह नाद‘ भी पत्रिका में उपस्थित है।
दिविक रमेश की कविता ‘नानू को समझाओ’ अंक में शामिल है। परमेंद्र सिंह की कविता ‘स्कूल जाता बच्चा’ और हमारे बच्चे भी हैं। श्याम सुशील की कविता ‘हवा में कविता‘ और बजते-बजते बजी बाँसुरी भी प्रकाशित हुई है। तेरह पेजों में कई विशेष पुस्तकों की शानदार समीक्षाएं प्रकाशित हुई हैं। दो पृष्ठों में उन पुस्तकों की जानकारी हैं जो पुस्तक संस्कृति को लेखकों ने भेजी हैं। साहित्यिक गतिविधियों की ख़बरों को दो पेजों में स्थान मिला है।
आइए, पत्रिका में शामिल विचारों को कुछ बानगी पढ़ते हैं-
प्रधान संपादक के हवाले से संपादकीय में प्रो॰बलदेव भाई शर्मा कहते हैं-
‘हम कितने ही धनाढ्य हों पानी को बरबाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि प्रकृति के संसाधन सबके लिए हैं, उनके लिए भी जो साधनहीन हैं। प्रकृति की परवाह नहीं करोगे,अपने धन के अहंकार में उसे मात्र उपभोग की वस्तु समझोगे तो वह मानवजाति को ही नष्ट कर देगी।‘
क्षमा शर्मा लिखती हैं-
‘काॅरपोरेट तकनीक, पश्चिम और हमारे यहाँ के कुछ अमानवीय मूल्यों ने भी बच्चों के जीवन मंत्र को मात्र मनी,मोबाइल और माॅल्स तक ही सीमित कर दिया है। बच्चे को बहलाना है तो उसे पैसे दे दो, उसके सवालों से दो-चार नहीं होना है तो उसे मोबाइल या टेबलेट पकड़ा दो और घुमाने ले जाना हो तो माॅल्स में ले जाओ। यहीं कारण है कि बच्चे आज तमाम तरह के रिश्तों से ही नहीं, अपने आसपास की प्रकृति से भी कट गए हैं।’
डाॅ॰नागेश पाण्डेय ‘संजय’ अपने लेख में लिखते हैं-
‘अमृतलाल नागर के कथानायक बच्चे किसी परी के आगे लालायित भाव से खड़े नहीं दिखते बल्कि वक्त जरूरत वे परी की भी सहायता करते देखे जाते हैं। यही बाल साहित्य का प्रगतिशील पक्ष है जिसकी धमक उनके साहित्य में उस जमाने में जब परतंत्रता की बेड़ियों ने कहीं न कहीं हमारे मन और हमारी सोच को भी कैद कर रखा था। यह कम बड़ी बात नहीं है कि नागर जी उस जमाने में कितने बड़े स्वप्नों के दृष्टा और सृष्टा थे। जही हाँ, बच्चों में लीक से हटकर कुछ नए सपनों को जगाने के सृष्टा।‘
प्रकाश मनु की कहानी एक स्कूल मोरों वाला का एक अंश आप भी पढ़िएगा-
‘तान्या का बनाया चित्र सबको पसंद आया। उसने एक मोर को गले में बस्ता टाँगकर स्कूल जाते हुए दिखाया। पर इससे भी अच्छा चित्र एक नन्हे बच्चे कर्ण ने बनाया था। उसमें सारे मोर मिलकर एक उदास बच्चे को खुश करने की कोशिश कर रहे थे। बीच में बच्चा था और आसपास गोला बनाकर नाचते हुए ढेर सारे मोर।‘
बच्चे: साहित्य और कला क्षेत्र में डाॅ॰ जसविंदर कौर बिन्द्रा लिखती हैं-
‘वैसे भी बचपन कासमय दिन-ब-दिन घटने लगा है। कभी बच्चे छह या सात वर्ष की आयु में स्कूल में दाखिल किए जाते थे। फिर यह घट कर पाँच या चार तक पहुँची,परंतु अब तो दो-ढाई वर्ष के बच्चों को ही स्कूल भेजा जाने लगा है। उस पर भी सितम यह कि सभी माँ-बाप चाहते हैं कि उनका बच्चा हर विषय और गतिविधि में अव्वल रहे। हम स्वयं अपने बच्चों का बचपन छीनने के कसूरवार हैं।‘
हिमाचली बच्चों के खेल के बहाने पवन चैहान लिखते हैं-
‘इन सारे खेलों का अपना-अपना महत्व है। ये खेल जहाँ मनोरंजन का खजाना हैं, वहीं गणित व विज्ञान आदि के साथ कई सकारात्मक सामाजिक पक्षों से भी बच्चों को रु-ब-रु करवाते हैं। मेरा मानना इतना ही है कि कुछ समय के लिए अभिभावक अपने बच्चों को उपरोक्त खेलों में अवश्य शामिल करवाएँ ताकि बच्चा सही मायने में एक अंदरुनी खुशी के साथ,अपने बचपन की थाह पा सके।‘
भाषा की कक्षा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अवसर में प्रमोद दीक्षित ‘मलय’ लिखते हैं-
‘बच्चों ने गाय पर निबंध लिखा था। उनके लेखन में वर्तनी की बहुत अशुद्धियां थीं लेकिन भाषा उनकी अपनी थी जिसमें उनके परिवेश की बोली के शब्द घुले-मिले थे। भाव और उनका प्रवाह सहज था। मौलिक चिंतन तो था ही कल्पना को व्यक्त होने का भरपूर अवसर मिला था। हर निबंध में उनकी अपनी छाप थी।‘
डाॅ॰मनीष मोहन गोरे अपने लेख विज्ञान,गतिविधि और बाल साहित्य में लिखते हैं-
‘जहाँ तक वैज्ञानिक दृष्टिकोण की बात है, यह सोचने, समझने और निर्णय करने का एक तर्कसंगत नजरिया होता है। कोई भी वैज्ञानिक एक नियत विधि या परिपाटी से होकर प्रमाणित निष्कर्ष पर पहुँचता है। हम अपने दैनिक जीवन में बिना वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रयोग किए अनेक कार्य करते हैं जो असंगत और नुकसानदायक होते हैं।‘ वे इनके कई उदाहरण देते हैं-‘प्लास्टिक के कप में गर्म चाया या कोई अन्य पेय पदार्थ पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है और कमरे की दुर्गंध को दूर करने के लिए प्रयोग किए जाने वाले रूम फ्रेश्नर और माॅस्किटों रिपेलेंट कैंसरकारण्क होते हैं। धूप से आकर हम तुरंत ठंडा पानी पी लेते हैं। इससे शरीर का तापमान का संतुलन बिगड़ जाता है। सब्जी और फल धोकर तुरंत उन्हें प्रयोग कर लेते हैं, जबकि उन्हें पकाने या खाने से पहले घंटा,आधा-घंटा पानी में रख देने से, उनके कीटनाशक रसायन पानी में घुल जाते हैं। ऐसी तमाम मामूली मगर जरूरी बातों की जानकारी और उसमें अपनी सूझ-बूझ लगाने से हमारा जीवन स्वस्थ और पर्यावरण सुरक्षित रहता है।‘
रेनू सैनी की कहानी जूतों का साथ का एक अंश पढ़िएगा-
‘‘माँ मैं इन जूतों को हमेशा अपने साथ रखूँगा, क्योंकि मेरी सफलता में इन जूतों ने प्रमुख भूमिका निभाई है।’’
डाॅ॰ शकुन्तला कालरा का लेख भूत-प्रेत और परीकथाओं की प्रासंगिकता विशेष लेख बन पड़ा है। आप एक अंश पढ़िएगा-
‘इस प्रकार आधुनिक रचनाकारों की दृष्टि में बच्चों के लिए वहीं साहित्य ही श्रेयस्कर है जो बालजीवन से जुड़ा है, जिसमें बच्चों की अपनी दुनिया है। जहाँ उनके रंगीन सपने हैं, उनकी भाव-भंगिमाएँ हैं। उनके आँसू-मुस्कान हैं। सुख-दुख के चित्र हैं। किसी वायवी जीवन को बाल साहित्य का आधार नहीं बनाया जा सकता । परीकथाओं का सुख-दुखात्मक भावजगत् हमारे जीवन से कहीं भी सादृश्य नहीं रखता। यहां यथार्थ जगत नहीं वरन् अतिरंजित कल्पना-जगत होता है जिसका कोई आधार नहीं होता। वह जीवन के प्रति रूमानियत से भरा होता है। इसी करण जब बच्चे का समाना ठोस यथार्थ से होता है तो वह पलायन करने लगता है।‘
बहुत ही महत्वपूर्ण लेख है। पठनीय है और मननीय भी है।
देवेंद्र कुमार की कहानी कोई तो मदद करो का एक अंश आप भी पढ़िएगा-
‘मैं थोड़ी दूर पर एक स्टोर में काम करता था। आज मुझे बुखार था, इसलिए देर से दुकान पहुँचा तो मालिक ने काम से निकाल दिया। मैंने बुखार होने की बात कही पर उसने एक न सुनी। मुझे पगार का बकाया भी नहीं दिया। मैं यहाँ आकर पटरी पर लेट गया। तभी ये बाबा आ गए। मेरे लिए दवा लाए, खाने को दिया। फिर ये अम्मा आकर मेरा सर दबाने लगी।’
बच्चों की पुस्तकों का अनुवााद: समस्या व चुनौती सुमन वाजपेयी ने लिखा है। एक अंश आप भी पढ़िएगा-
‘बच्चों के लिए अनुवाद करते समय उसकी सोच,समझ और विकास के स्तर को नजरअंदाज कर देता है। उसकी दुनिया का हिस्सा न बन पाना ही अनुवाद की सरलता व सरसता के लिए सबसे बड़ी बाधा है। जैसे बच्चों के लिए लिखते समय लेखक के लिए उसके धरातल पर आकर उसकी दुनिया,मन व अपेक्षाओं को महसूस करना अनिवार्य होता है,वैसे ही अनुवाद करते समय भी इन बातों का ध्यान रखना आवश्यक है।‘
यहाँ बानगीस्वरूप कुछ ही रचना-सामग्री के अंश दिए जा रहे हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि बाल साहित्य विशेषांक संग्रहणीय बन पड़ा है।
पत्रिका: पुस्तक संस्कृति,दुमाही
मूल्य: 35 रुपए अंक
वार्षिक सदस्यता: 225 रुपए
प्रधान संपादक: प्रो॰ बलदेव भाई शर्मा
संपादक: पंकज चतुर्वेदी
प्रकाशक: राष्ट्रीय पुस्तक न्यास,भारत, नई दिल्ली
मेल: editorpustaksanskriti@gmail.com
सम्पर्क: 011-26707758,26707876
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प्रस्तुति: मनोहर चमोली ‘मनु’
7579111144
65000
जवाब देंहटाएंबहुत ही प्रेरणादाई रचनाए है इस विशेषांग से शोध कार्य मे महत्वपूर्ण योगदान प्राप्त हुआ ह्रदय की गहराइयों से आभार प्रकट करती हूँ
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