बच्चों को तिलिस्म से तार्किक दुनिया की ओर ले जाया जाए: देवेन्द्र मेवाड़ी
विज्ञान कथाकार,किस्सागो,प्रकृति विज्ञानी और बाल साहित्यकार देवेन्द्र मेवाड़ी से मनोहर चमोली ‘मनु’ की बातचीत
सुप्रसिद्ध कथाकार और बालसाहित्यकार देवेन्द्र मेवाड़ी मानते हैं कि संवादहीनता के कारण बच्चों का बचपन बूढ़ा हो रहा है। बच्चे मशीनी खिलौनों में तब्दील हो रहे हैं। उनकी दुनिया कमरों और घरों में सिमट गई है। बच्चों में संवेदना की कमी के लिए हम बड़े जिम्मेदार हैं। बड़ों का बच्चों को समय न देना घातक है। परिणामस्वरूप बच्चे एकाकी हो रहे हैं। वह हिसंक हो रहे हैं। क्रोध, चिड़चिड़ापन और स्वार्थ का भाव उनके साथ समय न बिताने के चलते बढ़ता जा रहा है। यह आने वाले घातक युग का आरंभ है। बाल साहित्यकार ही हैं जो इन विषम परिस्थितियों को समझ सकते हैं। वह समझ की लेखनी से रोचक रचनाएं सृजित कर सकते हैं। वही बच्चों को आभासी दुनिया के मोह से असल दुनिया में फिर से प्रवेश दिला सकते हैं। कौसानी में संपन्न हुए राष्ट्रीय बाल साहित्य संगोष्ठी के दौरान मनोहर चमोली ‘मनु’ से की गई बातचीत के संपादित अंश यहां प्रस्तुत किये जा रहे हैं-
बाल साहित्य की कमी की बात को किस रूप में देखते हैं?
बाल साहित्य तो खूब लिखा जा रहा है। पत्र-पत्रिकाओं में भी बाल साहित्य को अच्छा खासा स्थान मिल रहा है। यह ओर बात है कि बच्चों के काम का और बच्चों की दुनिया से जुड़ा साहित्य कितना है।
उत्कृष्ट बाल साहित्य आएगा कहां से? जवाब एक ही हो सकता है। बच्चों के आस-पास से ही। जब हम बच्चों से संवाद करेंगे तभी न। बच्चों की दुनिया में प्रवेश करेंगे। आज बच्चों से संवाद करना ही कम हो गया है। यही कारण है कि हम बड़े अपनी दुनिया अपने अनुभव के चश्में से बाल साहित्य रच रहे हैं। उसे बच्चे जो असली पाठक हैं एक किनारे रख देते हैं। बच्चों से संवाद करेंगे तो उत्कृष्ट साहित्य भी रचा जाएगा।
सूचना तकनीक के युग में बाल साहित्य गैर जरूरी नहीं लगता?
नहीं। बेहद जरूरी हो गया लगता है। हम बड़े अपनी दुनिया में इतने व्यस्त हो गए हैं कि हमने एक घर में कई दुनिया बना ली है। बच्चों को रिमोट,यांत्रिक खिलौने,गैजेट्स पकड़ा भर देने से हमारे दायित्व और कर्तव्य पूरे नहीं हो जाते। इससे यह सुंदर दुनिया यांत्रिक दुनिया में तब्दील होती जा रही है। नई सूचना तकनीक और मनोरंजन के साधन मात्र साधन हैं लेकिन यह अभिभावकों,संगी-साथियों की जगह कभी नहीं ले सकते।
कैसा बाल साहित्य जरूरी लगता है?
आज जरूरी है कि हम वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा दें। हमारा बाल साहित्य बच्चों में तार्किकता के संस्कार दें। अब समय आ गया है कि हम तिलिस्म से तार्किक दुनिया की ओर बच्चों को ले जाएं। अब बच्चों को अति काल्पनिक दुनिया से बचाएं। यह एक सीमा तो ठीक है लेकिन अंततः बच्चों को को यथार्थ की दुनिया में ही रहना है।
विज्ञान और वैज्ञानिक सोच प्रयोगशाला से बाहर कैसे आएगा?
विज्ञान और वैज्ञानिक सोच जटिल नहीं है। आम जन के लिए रिसर्च कठिन हो सकती है। प्रयोगशाला के भीतर काम करना उनके लिए जटिल काम हो सकता है। लेकिन यह सब है तो आम जन की बेहतरी के लिए। आज सूचना तकनीक के बेहतरीन उपकरण आम जन भी इस्तेमाल कर रहा है। विज्ञान को आम जन तक पहुंचाने का काम ही तो साहित्यकारों को करना है। एक जमाना था जब अंधविश्वासों और रूढ़ियों में जकड़ा समाज सूरज को राहू-केतू से मुक्त करने की बात करता था। सूर्यग्रहण के दिन घरों में कैद रहता था। आज वही समाज उत्सव मनाता हुआ सूर्यग्रहण जैसी खगोलीय घटना को देखने के लिए उत्सुक है। यह समझ एक दिन में नहीं बनी। यह समझ समाज को वैज्ञानिकों और रचनाकारों ने ही तो दी है।
विज्ञान लेखन वह भी बाल साहित्य में ! यह कैसे संभव हो सकेगा?
वैज्ञानिविज्ञान की तकनीकी बातें जटिल लग सकती हैं। लेकिन उनका सरलीकरण संभव है। विज्ञान की जानकारी आज भी अंग्रेजी में अधिक है। उसे क्षेत्रीय भाषा में लाना आवश्यक है। बाल साहित्यकार उसे और सरल कर सकते हैं। आम भाषा में आम लोगों के लिए विज्ञान की बातें पहुंचाना जरूरी है। मैं साहित्य की कलम से विज्ञान लिखता हूं। शब्दों के साथ से ही तो साहित्य जुड़ा है। हमारी जड़ों को साहित्य ने ही सींचा है। समरसता,सरलता और सहजता के लिए भी साहित्य महत्वपूर्ण है। यह जरूरी तो नहीं कि केवल वैज्ञानिक और वैज्ञानिक संस्थान ही विज्ञान लेखन कर सकते हैं। आम जन के लिए आम भाषा में विज्ञान लेखन थोड़े से अभ्यास के साथ संभव है। जरूरी है,दृष्टि। पहले हम रूढ़ियों से,अंधविश्वासों से मुक्त हों। फिर हमारा लेखन भी मुक्त हो जाएगा। यह सरलता से थोड़े अभ्यास मात्र से संभव है। मुझे खुशी है कि यह काम आजादी के बाद से तीव्रता से हो रहा है। नये रचनाकार अब आम जीवन में विज्ञान के प्रयोगों को रचनाओं के माध्यम से बखूबी ला रहे हैं। ये ओर बात है कि जिस फीसदी से यह होना चाहिए था,वह नहीं हो रहा है। साहित्य में जो भी विज्ञान लेखन कर रहे हैं। उन्हें कार्यशालाओं,सेमिनारों,गोष्ठियांे के माध्यम से यह करना चाहिए। कई बाल साहित्य संस्थान बरसों से अपने सत्रों में विज्ञान लेखन क्यों और कैसे पर काम कर रहे हैं। पत्र-पत्रिकाएं भी विज्ञान विशेषांक प्रकाशित कर रहे हैं।
बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण जगाने के लाभ को किस तरह से देखते हैं।
इतिहास गवाह है कि परतंत्रता के कारणों में रूढ़िवादिता,अंधविश्वास और निरक्षरता भी मुख्य कारण रहे हैं। बालसाहित्य में असली बदलाव स्वतंत्रता के बाद आया है। समाज में वैज्ञानिक विकास की अवधारणा का प्रसार हुआ। तर्कसंगत कहानियों ने विज्ञान को आगे बढ़ाया। ऐसा नहीं है कि पूर्व में विज्ञान आधारित साहित्य नहीं था। था, लेकिन वैज्ञानिक सोच को फैलाने वाली दृष्टि के हिसाब से अपेक्षाकृत कम मिलता है। आजादी के बाद वैज्ञानिक सोच का प्रसार हुआ और प्रचार भी हुआ। कई पत्र-पत्रिकाओं ने इस काम को आगे बढ़ाया। हिंदी की लोकप्रियता भी बढ़ी। संपादकों और अग्रज साहित्यकारों में सीखाने की ललक थी। वे संपादित करने का पहला अधिकार लेखकों को ही देते थे। आगामी अंकों के लिए रचनाएं लिखवा लिया करते थे। कई लेखकों को लेख मालाएं लिखने के अवसर देते थे। आज ऐसा नहीं है। आज रचनाओं का सरलीकरण रचनाकारों को स्वयं करना होता है। आज के लेखक विज्ञानपरक उपकरणों को खूब इस्तेमाल कर रहे हैं। आज हर कदम पर विज्ञानपरक खोजों,उपकरणों का इस्तेमाल हो रहा है। लेकिन हम इसे और रोचक तरीके से हस्तांतरित नहीं कर पा रहे हैं। बचपन से ही चीज़ें मन-मस्तिष्क में बैठ जाती हैं। यदि वैज्ञानिक सोच पहले हम बड़ों में खुद होगी तभी हम बच्चों में उसे हस्तांतरित कर पाएंगे। परिवार भी रूढ़ियों से मुक्त होंगे। विश्व पटल पर आंकड़े उपलब्ध हैं। वह देश जिसने निरक्षरता पर विजय पाई है। जिसने अंधविश्वासों पर विजय पाई है। वह देश जो प्रगतिशील हैं,वह उन्नति के पथ पर तीव्रता से अग्रसर हैं। ठीक इसके उलट दूसरे देश हैं जो अभी सेहत,शिक्षा और रोजगार के मकड़जाल में उलझे हुए हैं। यदि बच्चे वैज्ञानिक सोच से ओत-प्रोत होंगे तो समाज भी खुशहाल होगा और फिर राष्ट्र भी।
विज्ञानपरक तथ्यों और बातों पर बाल साहित्यकारों को लिखना हैं। लिख भी रहे हैं। बहुत छोटी-छोटी चीज़ों में भी विज्ञान है। जरूरी नहीं है कि हम अंतरिक्ष से आरंभ करें। रसायन विज्ञान से शुरू करें। यदि हम देखें तो हमारे हर कदम पर विज्ञान है। हम वैज्ञानिक दृष्टिकोण से स्वच्छता पर बात कर सकते हैं। हम सेहत पर बात कर सकते हैं। हम आम समाज की जागरुकता को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखते हुए सुंदर रचना रच सकते हैं। हम बदलते और बिगड़ते मौसम को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देख सकते हैं। वैज्ञानिक जागरुकता कैसे जगेगी? समझ का जागरुकता से रिश्ता है। इस रिश्ते को बेहतरीन ढंग से सरल शब्दों के साथ रचनाओं में रचनाकारों को जगाना है। बच्चे पहले परिवार,पड़ोस,आंचलिक,राज्य,देश और दुनिया के साथ खुद को जोड़े,इसके लिए जरूरी है कि हम इस पूरी प्रकृति के साथ उसका भावनात्मक रिश्ता जोड़ने की दिशा में साहित्य लिखें।
बच्चे हिंसक और अराजक हो रहे हैं। आप क्या कहेंगे?
ये आरोप हम बड़ों की ओर से हैं। यह कुछ हद तक सही भी है। लेकिन बच्चों को क्या पता कि वह जो कर रहे हैं,वह हिंसा है,अराजकता है। बच्चे कहां से सीखते हैं? यह सब उन्हें हम ही दे रहे हैं। एक कारण है, बच्चों से संवादहीनता। बातचीत ही से सारे रास्ते खुलते हैं। बच्चों को जानकारी कहां से मिलेगी? केवल टी0वी0 देखने से ? नहीं। केवल किताबी ज्ञान से ? नहीं। संवाद जरूरी है। बच्चों में तार्किकता तभी बढ़ती है, जब वे सवाल करते हैं। आपसी संवाद सबसे शक्तिशाली तरीका है। बच्चों को स्कूल तक, उनके कमरों तक अधिक से अधिक घरों तक सीमित कर दिया गया है। यह गलत है। यह उनकी निजता का मसला नहीं है। बच्चों को निन्यानवे प्रतिशत नंबर ले आने से खुश होने से भी काम नहीं चलेगा। बच्चों को आभासी दुनिया से बाहर लाना होगा। उन्हें पता हो कि मौसम क्यों बदलता है। तितली के लिए फूलों का रहना क्यों जरूरी है। हमारे लिए जंगल क्यों जरूरी है। अंडों से लेकर गंेहूं की बालियों का साक्षात दर्शन कराना जरूरी है। दूध पीने वाले बच्चों को पता होना चाहिए कि पाॅलीथीन में पैक्ड दूध और गाय-भैंस के दूध में क्या अंतर होता है। उन्हें पता हो कि दूध गाय और भैंस के थनों से भी निकलता है। प्रकृति से लगाव कौन जगाएगा? जुड़ाव लगातार टूट रहा है।
बच्चों में व्यक्तिवादी सोच को कैसे रोकेंगे? ये तमाम बातें हैं जिनके परिणामस्वरूप बच्चों को वह स्पेस नहीं मिल रहा है,जो वे चाहते हैं। बच्चों की उर्जा किसी न किसी रूप में फूटेगी ही।
अभिभावक भी तो जिम्मेदार हैं?
बहुत हद तक अभिभावक भी जिम्मेदार हैं। वे बच्चों को भरपूर समय कहां दे रहे हैं? ऐसा लगता है कि वे हम बड़ों की दुनिया में जैसे खलल पैदा कर रहे हों। हम बड़े क्लबों,सोसायटीज में व्यस्त हैं। हमारे कामकाज ने हमारे बच्चों के बचपन को कम कर दिया है। संस्कार का रिश्ता कहां रह गया है। हम बड़े जो बच्चों को किस्से कहानियां सुनाते थे, वह समय बच्चों का था। वह समय आज कहां गया? बच्चों के लिए जो समय था, वह हमने उनसे छीन लिया है। दादा-दादी के रिश्ते एकाकी परिवारों ने छीन लिए हैं। एक घर में कई घर हो गए हैं। सामाजिकता, पारिवारिकता,रिश्ते-नाते और मानवीय मूल्यों का संस्कार कौन देगा? अभिभावक ही तो बच्चों की पहली पाठशाला है। वही पाठशाला यदि कमजोर हो गई तो स्वाभाविक ही है कि बच्चों पर इसका असर होना है। फिर दोहराना होगा कि यांत्रिक उपकरणों के चलते बचपन समय से पहले बूढ़ा हो रहा है। चालीस साल से पहले बहरापन बढ़ रहा है। चालीस साल से पहले आंखों में चश्मा चढ़ रहा है। खान-पान पर ध्यान नहीं है। हर चीज के लिए गूगल सर्च से कैसे काम चलेगा? हवा,बादल,नदियों की कल-कल की आवाज कौन सुनाएगा? प्रकृति का आभास कौन कराएगा? डिस्कवरी चैनल से पूरी दुनिया का सैर-सपाटा हो जाए। यह सब काल्पनिक दुनिया में जीने जैसा है। हम फिर से रटन्त विद्या की ओर जा रहे है। अपने अनुभवों से चीज़ों को जानना-समझना बच्चों को कब आएगा। जब हम बड़े उनके साथ मशक्कत करेंगे। अपने हाथों से स्पर्श करना,अपनी आंखों से सामने साक्षात देखना। अलग बात है। फिल्मों में,मोबाइल पर देखना अलग बात है। इन सबके लिए परिवार ही प्रथम सीढ़ी है। माता-पिता ही पहली इकाई हैं। यह सब जानते हुए भी हम अनजान बने रहेंगे तो आने वाला समय भयावह है।
बच्चों में भी तो व्यक्तिवाद हावी होता जा रहा है!
निसंदेह। बच्चे व्यक्तिवादी हो रहे हैं। लेकिन हम बड़ों की वजह से। हम समय नहीं दे रहे हैं। संवेदनाओं के प्रति हम उन्हें सजग नहीं कर रहे हैं। पेड़-पौधों में भी जीवन होता है। यदि हम महसूस करते हैं तो वह बोलते-से हैं। पशु-पक्षी भी प्यार करते हैं। यह अहसास बच्चों को हमें ही तो कराना है। किस्सा कहानी का युग यदि समाप्त-सा हो रहा है,तो कौन इसके लिए जिम्मेदार है? बड़े या बच्चे? यह बड़ा खतरा है। हम बच्चों को गूंगा रहने और बनने का प्रशिक्षण दे रहे हैं। हालांकि जागरुक माता-पिता आज भी किस्सा-कहानी को पहला सबक मानते हैं। हम बड़े संवेदनशील बनेंगे तभी बच्चे भी संवेदना के स्तर को जानेंगे। सोचिए ऐसे समाज के बारे में जो संवेदनहीन हो। सोचिए,उस समाज के बारे में जो चीखता न हो। भावुक न हो। किसी की पीड़ा में दुखी न होता हो। ऐसा समाज जीते जी मरे हुए के समान तो है। यह व्यक्तिवाद की हवा दुनिया से इंसानियत का निशान मिटा देगी। हम सबको इस ‘मैं’ की भावना को हावी नहीं होने देना है।
आज के बच्चे सुनते ही कहां हैं? यह आम धारणा प्रबल हो रही है।
यह तो हर पीढ़ी आने वाली पीढ़ी के लिए कहती है। हमारे जमाने में तो ऐसा होता था। यह जुमला बहुत पुराना है। यह कहना गलत होगा कि आज के बच्चे सुनते ही नहीं। हर पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से आगे होती है। उसे और आगे जाना होता है। आज के बच्चों की अपनी दुनिया है। यह दुनिया वह कहीं से नहीं लाए हैं। यह हमने उन्हें दी है। हम क्या सुनाते हैं। कैसे सुनाते हैं। सुनाने का समय क्या होत है। यह सब हमें देखना होगा। हमारे सुनाने के ढंग में रोचकता है कि नहीं। बच्चों में निर्जीवता बढ़ रही है। बच्चे मशीनी बन रहे हैं। हम समय नहीं देंगे तो यही होगा। हर चीज के लिए गेजैट्स पर भरोसा करना बेमानी है। सबसे सरल तरीका है कि हम बच्चों को उनके अनुभव के साथ जोड़े। आस-पास के परिवेश से जोड़े।
बच्चे पढ़ने-लिखने से विमुख हो रहे हैं।
बच्चों को पढ़ने-लिखने का संस्कार देना जरूरी है? यह सूचना का युग है। जिसके पास जितनी सूचना है,वह उतना ही ज्ञानी माना जा रहा है। लेकिन हमें सोचना होगा कि केवल सूचना ठूंस देने से कोई ज्ञानी हो जाता है। हम जानते हैं कि शहद मीठा होता है। सब उसे खाते हैं। लेखन भी शहद की तरह मिठास देता है। लेखन मिठास भरा हो तो बच्चे क्यों कर नहीं पढ़ेंगे। अमूमन बच्चे दवाई नहीं खाते। कड़वी होती है। शहद के घोल में देंगे तो कड़वी से कड़वी दवाई खाई जा सकती है। पढ़ने-लिखने की आदत नहीं है। क्यों नहीं है? कारण साफ है। रोचक किताबें ही नहीं हैं। पहले बच्चों के सामने एक से बढ़कर एक रोचक किताबें तो रखिए। किसान भी अपनी फसल के लिए मेहनत करता है। निराई-गुड़ाई करता है। हमारे बच्चे खरपतवार बन रहे हैं। उन्हें अच्छी फसल में बदलने के लिए हमें मेहनत करनी होगी। बेतरतीब से बढ़ रही खरपतवार अन्न नहीं हो सकती। यह हमें सोचना होगा। बच्चों की पाठ्य पुस्तकें और रोचक हों। हमने भी आसान तरीके खोज लिए हैं। बच्चों में टी0वी0 की लत किसने डलवाई। बच्चों को वक्त से पहले मोबाइल कौन पकड़ा रहा है? हम खुद मेहनत-मशक्कत करने से हिचक रहे हैं। फिर सारी तोहमत बच्चों पर डाल रहे हैं।
टी0वी0 से बच्चों का भाषाई विकास भी तो हो रहा है।
बच्चे समय के साथ-साथ अपना अनुभव और भाषाई कौशल बढ़ा लेते हैं। यह गलतफहमी है कि टी0वी0 से बच्चों में भाषाई क्षमता का विकास हो रहा है। बच्चे समूह में ज्यादा सीखते हैं। टी0वी0 में बच्चे क्या देखे क्या न देखे। इस पर चर्चा हो सकती है। लेकिन बच्चों में टीवी की लत बुरी है। हर चीज़ की अति बुरी है। किताबी बच्चे हो जाना भी तो बुरा है। लेकिन जिस तरह से टी0वी0 बच्चों का बाजार की वस्तु मान रहा है,वह सोच घातक है। कार्टूनों के ज़रिए जो दिखाया जा रहा है, उसके परिणाम बच्चों में दिखाई तो दे रहे हैं। आप सूचना-तकनीक से बच्चों को वंचित नहीं रख सकते। लेकिन यह तो आपको तय करना होगा कि जिसे आप जरूरी हवा मान रहे हैं,वह कहीं आंधी तो नहीं। टी0वी0 में आ रहे कार्टून और टी0वी0 के विज्ञापन बच्चों को लक्ष्य क्यों बना रहे हैं? यह सोचना होगा। बच्चों को कार्टून क्यों पसंद हैं? निर्माताओं ने बाल मनोविज्ञान का अध्ययन किया है। विज्ञापन का बाजार बच्चों को लक्ष्य कर विज्ञापन बना रहा है। हम लेखक क्यों नहीं इस नब्ज़ को पकड़ते? हमारा लक्ष्य बच्चों को अच्छा नागरिक बनाना क्यों नहीं हो सकता? हमारा लेखन ऐसा क्यों नहीें हो सकता? हमारी चित्रकथाएं क्यों न कार्टून की तरह हों? हमारे तरीके अब भी परंपरागत हैं। बच्चे नई दुनिया के हैं। उनकी इच्छाओं के अनुसार हमें अपने तौर-तरीके बदलने होंगे।
टी0वी0 बच्चों में बाजार और खरीददारी के विकल्पों का प्रशिक्षण भी तो दे रहा है।
अमूमन बाजार घाटे का कारोबार नहीं करता। टीवी में बढ़ते बच्चों के विज्ञापन अलग से भाव पैदा कर रहे हैं। बच्चों में ईष्र्या भाव बढ़ा रहे हैं। उन्हें आपस में लड़ा रहे हैं। बच्चों में हीन भावना पैदा कर रहे हैं। साबुन से लेकर दंतमंजन क्या और डिटर्जेंट क्या। जिन उत्पादों से बच्चों का सीधे तौर पर कोई लेना-देना नहीं हैं,वहां भी बच्चों को प्रोजेक्ट किया जा रहा है। क्यों? आज कुछ तूफानी हो जाए। मल्टीनेशनल पेय पदार्थ का एक विज्ञापन है। आज दूध हो जाए क्यों नहीं? लस्सी नहीं। दही नहीं। ‘जंक फूड’ के विज्ञापनों से ऐसा जाल परोसा जा रहा है कि स्कूल से लेकर टाॅयलेट तक की वस्तुएं और सेवाएं विज्ञापन से तय हो रहे हैं। समूचा बाजार बच्चों को खिलौनों में तब्दील करता-सा नज़र आ रहा है। क्या सोचने-समझने की शक्ति भी हमें विज्ञापनों से मिलेगी? अधिकतर विज्ञापन झूठ फैला रहे हैं। बरगला रहे हैं। बच्चे प्राकृतिक भोजन से नफरत करने लगे हैं। बच्चे प्रकृति से दूर हो रहे हैं। कमरांे में कैद हो रहे हैं। इससे कम से कम बच्चों का भला नहीं होने वाला है।
बच्चों के लिए कैसा लेखन होना चाहिए?
आदर्शवाद से तो काम नहीं चलेगा। कोरे उपदेश तो कतई नही दिये जाने चाहिए। बच्चों को ऐसी रचना सामग्री दें जो आनंद दे। रोचक हो। ऐसी रचनाएं जिससे वह खुद निर्णय लें सकें। सही और गलत परिस्थितियां दोनों दें। वह खुद निर्णय लें कि क्या सही था और क्यों? क्या गलत था और क्यों? बच्चों में क्या ,क्यों, कैसे की भावना जगाने वाली रचनाएं हों। बाल नाटक लिखें जाएं। खेले भी जाएं।
हमारे अधिकतर रचनाकार बच्चों की दुनिया से जुड़े हुए ही नहीं हैं। अपनी रचनाओं के लिए बच्चों के मन में कैसे जगह बना सकेंगे। कैसे उन नाटकों का मंचन हो सकेगा। यदि जैसे-तैसे हो भी गया तो दर्शक नहीं जुटेंगे। दर्शक जुट भी गए तो नाटक सराहा ही नहीं जाएगा। आदर्शवाद तो कतई नहीं चलेगा। नाटकों में बच्चे भी हों। बच्चों के जीवन से जुड़ा यथार्थ हों। वह बातें हांे, किस्से हों, जिनसे बच्चे रोज सामना कर रहे हैं। वहीं स्थितियां दिखाएं, जो वह रोज देखते हैं। लेकिन रोचकता जरूरी है। उन्हंे चुनौतीपूर्ण स्थिति दिखाई जाए। दरअसल आज हर कुछ नीरस नहीं चाहिए। हर कुछ मनोरंजन मात्र के लिए भी न हो। मनोरंजन के साधन और भी हैं। जीवन का यथार्थ जो हैं वह भी आए। लेकिन उपदेशात्मक तरीके से तो कतई न आए।
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मनोहर चमोली ‘मनु’
सम्पर्क 7579111144
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