14 मार्च 2024

उत्तराखण्ड का बाल पर्व : त्योहार एक नाम अनेक


कहीं फ्योंली, प्यूँली, फ्यूँली, फूलदेई, बालपर्व, फूल संगराद, फूल सग्यान ,फूल संग्रात, मीन संक्रांति तो कहीं गोगा के नाम से मशहूर है यह पर्व 

राजा-रजवाड़ों के समय की बात है। तब पहाड़ में गाँव,शहर या कस्बे नहीं हुआ करते थे। जनमानस ठेट हिमालय की तलहटी में, नदी किनारे और घने जंगलों की गोद में रहता था। पेड़, पहाड़, नदी, झरने, फूल और जंगली कंद-मूल ही उनके संगी-साथी थे। 
फ्यूंली एक लड़की थी। जीवन के बारह-तेरह वसंत भी नहीं देखे थे। उसे जंगली फल-फूल बहुत प्यारे थे। वह दिन भर पेड़-पौधों के साथ खेलती-कूदती। उसकी दोस्ती बुराँश,सरसों के फूल, लयया, आड़ू, पैंया, सेमल, गुरयाल, चुल्लू, खुबानी, पूलम के फूलों से खूब थी। उसे पीले फूल बहुत पसंद थे। हाड़ कंपाने वाला जाड़ा जब बीतता तो वह वसंत को धाद लगाती। वसंत आता। पेड़-पौधों के फूल सतरंगी हो जाते। वह झड़ चुके फूलों को यहाँ-वहाँ बिखेरती। सेंटुली, घुघती और घेंडूली, तितलियां, मधुमक्खियाँ और रिंगाल-अंगल्यार तक उसकी मदद करते।
एक दिन की बात है। किसी दूर देश का राजकुमार अपने शिकारी दल से बिछड़ गया। घने जंगल में फ्यूंली की खिलखिलाती हँसी का पीछा करता हुआ वह उसके पास जा पहुँचा। राजकुमार अपनी थकान भूल गया। वह खेलते रहे। शाम होने को आई तो राजकुमार को अपना देश याद आया। फ्यूंली ने कहा कि वह उसे छोड़ आती है। चलते-चलते वह बहुत दूर निकल आए। दोनों एक-दूसरे को चाहने लगे। राजकुमार ने फ्यूंली से विवाह कर लिया। फ्यूंली राजकुमार के संग चली गई। 
फ्यूंली क्या गई। जंगल उदास हो गया। पेड़-पौधों में आई रौनक गायब हो गई। पशु-पक्षी तक अपनी लय खो चुके थे। वहीं फ्यूंली को राजमहल के तौर-तरीके पसंद नहीं आए। कुछ ही दिन बीते थे। उसे अपने पहाड़, नीले आसमान, हरे-भरे जंगल, कल-कल करती नदी की लहरें और पक्षियों की चहचहाटों की खुद लगने लगी। फ्यूंली मैत जाना चाहती है। यह इच्छा किसी को रास नहीं आई। ऐसे अवसर भी आए जब फ्यूंली ने राजमहल लांघा। राजा, रानी और राजकुमार तक को यह बात पसंद नहीं आई। फ्यूंली के चारों ओर कड़ा पहरा लगा दिया गया। मैत की याद में एक दिन फ्यूंली ने दम तोड़ दिया। अल्पायु देह को चिता नहीं दी जाती! फ्यूंली को दफ़ना दिया गया। कुछ दिन बाद उस जगह पर पाँच पंखुड़ी वाला नया पीला फूल उग आया। देखते ही देखते आस-पास पीले फूूलों की पौध उग आई। 
खु़शबूरहित इस नए फूल का नाम फ्यूंली के नाम पर फ्यूंली ही रखा गया। फ्यूंली का फूल की ख़बर जैसे हवा, जल, प्रकाश, मिट्टी और पक्षियों को हो गई। दूसरे वसंत पर यह फ्यूंली का फूल जंगल-जगल जा फैला। जहाँ खाद, पानी और रोशनी नहीं पहुँचती थी, वह वहाँ भी उग आया। 

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एक किस्सा और याद आ रहा है। उसका भी उल्लेख कर लेते हैं- 

स्वर्ग में कोई उत्सव था। विष्णु खास अतिथि थे। उन्हें किसी एक फूल का पौधारोपण करना था। फूलों की कई प्रजातियों के पौधों में किसी एक का चुनाव किया जाना चाहिए था। पीले रंग की प्योंली गर्व से इतरा रही थी। उसने एक-एक कर सभी फूलों की पौध से कह दिया था कि विष्णु उसको ही स्वर्ग का खास पुष्प बनाएँगे। उसे अपने पीले रंग पर, सदाबहार होने पर और सुगन्धित खु़शबू पर घमण्ड हो गया था।
विष्णु आए। उन्होंने एक नज़र सभी पौध पर डाली। प्योंली के अलावा सभी फूल उन्हें कुछ उदास लगे। वहीं प्योंली ख़ूब महक रही थी। विष्णु मन की बात जान लेते थे। पल भर में ही वह सारा मामला समझ गए। बस! फिर क्या था! विष्णु ने कदंब की पौध को उठा लिया। वहीं प्योंली को धरती के लिए उपयुक्त माना। उन्होंने प्योंली की खु़शबू भी छीन ली। इसके साथ-साथ तभी से वह मात्र वसंत के आगमन पर ही खिलती है। कुछ ही दिनों के बाद प्योंली की पौध भी दूब-घास के सामने नेपथ्य में चली जाती है।   

आज मार्च की चौदह तारीख है। चैत्र माह की पंचमी का दिन। आज चैत्र माह का पहला दिन है। इसे चैत्र संक्राति भी कहा जाता है। आज ही से सुबह-सुबह नन्हे-मुन्ने बच्चों की खिलखिलाहटें सुबह होने से पहले घर की दहलीज़ पर सुनाई देती हैं। किवाड़ खुलते ही जंगली फूलों की महक के साथ आँगन भरने लगता है। यह वसंत की आहट है। बच्चों की हँसी, खिगताट और मस्ती के साथ घर-गाँव आज से महकने लगते हैं।

धीरे-धीरे फ्यूंली का कथा और फ्यूंली का फूल समूचे उत्तराखण्ड में कुछ इस तरह फैल गया कि लोक मानस ने इसे वंसत के आगमन से जोड़ दिया। चूँकि फ्यूंली खुद एक छोटी बालिका थी तो इस लोक पर्व की ज़िम्मेदारी नन्हीं बालिकाओं ने ले ली। हालांकि बालक भी फूलदेई त्योहार मनाते हैं। आस-पास के नन्हें बच्चे आज ही के दिन से सुबह-सवेरे उठते हैं। सूरज के उगने से पहले आस-पास के जंगली फूलों को चुनते हैं। बाँस की कण्डी में तरह-तरह के ताज़ा फूल घरों की देहरी-दहलीज पर रखते हैं। कभी ऐसा भी था कि सुबह-सवेरे पौधों-पेड़ों से झर चुके फूल ही चुने जाते थे। फिर पता नहीं परम्परा में यह कैसे जुड़ गया कि झर चुके फूल तो बासी होते हैं। 

अब बच्चे सुबह-सुबह जंगली पौधों से ताज़े फूल चुनते हैं और उन्हें घरों की देहरी में डालते हैं। कहीं पाँच तो कहीं आठ दिन तो कई तेरह दिन और कहीं पूरे महीने यह त्योहार मनाया जाता है। घर-गाँव की देहरी में फूलों को रखने के पीछे यह मंशा रहती है कि यह घर खुशियों से भरपूर रहे। इस घर की कन्या फले-फूले। मैत-सैसर की खुशहाली का कामना भी इस त्योहार से जुड़ी है। वसंत माह के आखिरी दिन हर घर के लोग इन बच्चों को भेंट देते हैं। कहीं उड़द की दाल के पकौड़े बनते हैं। कहीं तस्मै बनती हैं। कहीं गुड़-मिश्री और दाल की भेंट दी जाती है। कहीं इच्छानुसार इन फूल्यारों को परिवार से रुपयों की भेंट भी दी जाती है। ऐसे घरों को भी नहीं भूला जाता जिन घरों में किसी वजह से ताले जड़े हैं। कहीं-कहीं तो घरों के मुख्यद्वार की चौखट पर दूध देने वाली गाय के गोबर के साथ दूब चौखट पर चिपकाया जाता है। यह कामना की जाती है कि इस घर के लोग कहीं भी हों वह सम्पन्न हो। उनके घर में माँ का दुलार और दूध-दही की कमी न हो। 

समय के साथ इस लोक पर्व में हरियाली, खुशहाली, गीत-संगीत, परम्पराएं और किस्से जुड़ते चले गए। यह भी मान लें कि फ्यूंली को मात्र मिथक पात्र मान लिया जाए तो भी सामाजिक समरसता के स्तर पर यह एक सामुदायिक, सांस्कृतिक और लोक निबाह का जानदार पर्व है। आस-पास और पड़ोस-खोला के बच्चे सब तरह के झंझावतों से मुक्त होकर टोलियों में फूल चुनते हैं। हर घर की देहरी पर फूल डालते हैं। मिलकर गीत गाते हैं। जिस घर से प्यार में जो भी भेंट मिलती है उसे स्वीकार करते हैं। यह क्या कम है? 

इस बालपर्व यानी फूलदेई के कई गीत हैं। उनके निहितार्थ भी बेमिसाल है। सबकी कुशलता चाहने की मंशा का फ़लक कितना विशाल है। आप स्वयं पढ़िएगा- 

फूलेदई, छम्मा देई, 
दैंणी द्वार, भरी भकार, 
ये देली स बारम्बार नमस्कार, 
पूजैं द्वार बारंबार, फूले द्वार.... 

सार बहुत ही सहज है कि है फूलदेई इस घर की देहरी फूलों से भरी रहे। सबको क्षमा हो। सबकी रक्षा हो। यह घर सुख-सफल रहे। इसके भण्डार भरे रहें। इस घर की देहरी को बार-बार नमस्कार है। यह घर फले-फूले। 
एक अन्य गीत इस तरह मिलता-जुलता भी गाया जाता है-

फूलदेई छमादेई, 
दैणी द्वार, भर भकार! 
फूलदेई फूल संगरांद, 
सुफल करो नऊ बरस 
तुमकू भगवान, 
तुमारा भकार भर्यान 
अन्न-धन फूल्यान ! 
औंदी रया रितु मास
फूलदा रया फूल! 
बच्यां रौला हम तुम. 
फेर आली फूल संगरांद !
गीत का एक अंश यह भी है-
फूलदेई छम्मा देई ।
फूल देई छम्मा देई ।
दैणी ,द्वार भर भकार।
यो देलि कु नमस्कार ।
जतुके दियाला ,उतुके सई ।।

फूलदेई का पारंपरिक एक गीत यह भी है-

ओ फुलारी घौर।
जै माता का भौंर ।।
क्यौलि दिदी फुलकंडी गौर ।
डंडी बिराली छौ निकोर।।
चला छौरो फुल्लू को।
खांतड़ि मुतड़ी चुल्लू को।।
हम छौरो की द्वार पटेली।
तुम घौरों की जिब कटेली।।
चला फुलारी फूलों को,
चला छौरो फुल्लू को। 

एक और गीत है जिसे पांडवास समूह ने वीडियो के तौर पर शानदार ढंग से पुनर्लेखन किया है। वह कुछ इस तरह से है-


चला फुलारी फूलों को
सौदा-सौदा फूल बिरौला।
हे जी सार्यूं मा फूलीगे ह्वोलि फ्योंली लयड़ी
मैं घौर छोड़यावा ।
हे जी घर बौण बौड़ीगे ह्वोलु बालो बसंत
मैं घौर छोड़यावा।।
हे जी सार्यूं मा फूलीगे ह्वोलि
चला फुलारी फूलों को
सौदा-सौदा फूल बिरौला
भौंरों का जूठा फूल ना तोड़्याँ।
म्वारर्यूं का जूठा फूल ना लायाँ।
ना उनु धरम्यालु आगास
ना उनि मयालू यखै धरती
अजाण औंखा छिन पैंडा
मनखी अणमील चौतरफी
छि ! भै ये निरभै परदेस मां
तुम रौणा त रा
मैं घौर छोड़यावा।।
हे जी सार्यूं मा फूलीगे ह्वोलि
फुल फुलदेई दाल चौंल दे
घोघा देवा फ्योंल्या फूल
घोघा फूलदेई की डोली सजली।।
गुड़ परसाद दै दूध भत्यूल
अयूं होलू फुलार हमारा सैंत्यां आर चोलों मा ।
होला चौती पसरू मांगना औजी खोला खोलो मा ।।
ढक्यां मोर द्वार देखिकी फुलारी खौल्यां होला।

हालांकि मौसम बहुत बदल गया है। पाँच पत्तियों की फ्यूंली इस बार फरवरी के पहले सप्ताह में ही खिल गई थी। बुरांश भी एक फरवरी से पहले ही खिल गया था। फिर भी आज के दिन बच्चों का उत्साह देखने को मिलता है। बीती शाम से ही बच्चे रिंगाल की टोकरी, अब तो बाज़ार में प्लास्टिक की टोकरियाँ मिलने लगी है। कुछ बच्चे तो घर के झोले-थैले लेकर आज की सुबह का इन्तज़ार करते हैं।  लेकर फ्यूंली, गुर्याल, बुरांस, बासिंग, आडू, पुलम, खुबानी के फूलों को इकट्ठा करते हैं। सुबह उठना नहाने के लिए पानी गरम करना, संगी-साथियों को पुकार लगाना। सब कुछ खुशगवार लगता है। कुमाऊँ मे ंतो कई जगहों पर ऐपण बनाने की परम्परा भी है। 

बच्चों के मुख से फूलदेई गीतों के विविध प्रकार और धुन अच्छी लगती है। ‘घोघा माता फुल्यां फूल, दे-दे माई दाल चौंल’ और ‘फूलदेई, छम्मा देई, दैणी द्वार, भरी भकार, ये देली स बारम्बार नमस्कार, पूजैं द्वार बारंबार, फूले द्वार.... गीत गाते हुए बच्चों की टोली लगातार कम होती जा रही है। कहीं-कहीं तो अकेले-दुकेले बच्चे भी इस परम्परा को बचाए हुए है। अब बच्चों को बदले में दाल, चावल, आटा, गुड़, घी और दक्षिणा की जगह चॉकलेट, टॉफी ने ले ली है। कुछ परिवार बच्चों को कॉपी, पेंसिल, रूमाल, स्कूली सामान देने लगे हैं। इस बहाने बच्चों को बताया जाता है कि यह सृष्टि घोघा नाम की देवी ने बनाई है। कई जगह तो टोलियां सारे रुपए इकट्ठा कर लेती हैं और बाद में बाज़ार से मिठाई लाकर घर-घर बांटते हैं। कुछ जगहों पर बच्चों को मीठा भात खिलाने की परम्परा भी है। गुड़ के पानी में बना भात जिसमें सौंप-घी की महक पूरे वातावरण में अलग तरह की भूख बढ़ा देती है। 

कुछ लोगों का मानना है कि बच्चे घरों में जाकर फूल तोड़ते हैं। पारिस्थितिकीय संरचना को क्षति पहुँचाते हैं। वहीं कुछ लोगों का मानना है कि फूलदेई पूरी तरह से जंगली फूलों और खेतों,सड़कों, पगडण्डियों में खड़े पेड़-पौधों के झरे हुए फूलों पर आधारित है। वह कहते हैं कि बच्चे घरों के मुख्य द्वार की चौखट पर दो-चार फूल ही चढ़ाते हैं। वह गिनती के ही फूल चुनते हैं। जानकार बड़े बच्चों को हिदायत देते हुए नहीं भूलते। फ्योंली, पैयया, लयया, बुराँश,  जंगली खुबानी, आड़ू के फूल, बासिंग के पीले, लाल और सफेद फूल

चुनते हैं। बच्चों को सहेजना, सँभाल करना, मिलजुल कर रहना आने लगता है। वह अपनत्व के भाव से भरने लगते हैं। अपने घर के साथ इलाके के दूसरे घरों से लगाव सीखते हैं। सामूहिकता का भाव यही त्योहार तो भरता है। बच्चे शीत-गरम, सावन के साथ चैत्र मास को समझने लगते हैं। वसंत के महत्व को समझने लगते हैं। वह धरती का और धरती में आ रहे मौसमों का आभार प्रकट करना सीखने-समझने लगते हैं। मंगसीर, पूस और माघ की सर्द रातों के बाद फागुन-चैत्र के खुशगवार मौसम का स्वागत करना सीखते हैं। मौसमों के मर्म को समझते हैं। क्या यह बड़ी बात नहीं है? 


मुझे तो लगता है कि इस बहाने बच्चे फूलों की महत्ता को भी तो समझते हैं। आगे चलकर यही नई पीढ़ी घर-आँगन में कई प्रजातियों के फूलों की सँभाल भी तो करती हुई देखी जाती है। एक माह तक बच्चे जंगल के निकट जाते हैं। जंगली ही सही कई वनस्पतियों की पहचान और उन्हें सहेजने का भाव भी तो उनके भीतर स्थाई होता चला जाता है।  

चैत्र का महीना हमारे ढोल-दमाऊ बजाने वाले फ़नकारों का महीना भी है। हालांकि समय के साथ यह परम्परा अब लुप्त ही समझिए। पुरानी पीढ़ी के फ़नकार अभी भी परम्परागत कुछ परिवारों के खलिहान में जाकर ढोल-दमाऊ बजाते हैं। बदले में वह परिवार अपनी रसोई से प्रमुख अनाज भेंट स्वरूप देते हैं। फ़नकार इसे अपना हक समझते रहे हैं और देनदार इसे अपना दायित्व समझते रहे हैं। लेकिन अब नई पीढ़ी के बच्चे इस परम्परा को आगे बढ़ाना नहीं चाहते। समय के साथ-साथ यदि कोई परम्परा किसी भी तरह की हीनता का बोध पनपाती है तो उसे आगे बढ़ाए रखना उचित भी नहीं है। समय तेजी से बदल रहा है।  



बहरहाल, आज 14 मार्च को आरम्भ हुए इस बाल पर्व का खुलकर स्वागत करना हम सभी का दायित्व है। ऐसे कई त्योहार पूरे देश में मनाए जाते हैं। यदि आप इस लेख में कुछ शामिल करना चाहते हैं जो ज़रूर लिखिएगा। कमेंट के साथ मुझे chamoli123456789@gmail.com पर सुझाव भेज सकते हैं।

-मनोहर चमोली ‘मनु’ .
सम्पर्क: 7579111144

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यहाँ तक आएँ हैं तो दो शब्द लिख भी दीजिएगा। क्या पता आपके दो शब्द मेरे लिए प्रकाश पुंज बने। क्या पता आपकी सलाह मुझे सही राह दिखाए. मेरा लिखना और आप से जुड़ना सार्थक हो जाए। आभार! मित्रों धन्यवाद।