24 अग॰ 2024

राजस्थान के राजसमंद में संपन्न हुआ तीन दिवसीय बाल साहित्य समागम

साहित्यकारों ने माना कि लेखन में नया हो बाल साहित्य 

बाल साहित्य समागम में शिरकत कर रहे साहित्यकारों ने माना कि बच्चों के लिए लिखते समय अतिरिक्त श्रम, एकाग्रता, सतर्कता की महती आवश्यकता होती है। बाल साहित्य का अर्थ यह कदापि नहीं है कि जो मन में आए, कल्पना के नाम पर परोस दिया जाए। राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में हिन्दी बाल साहित्य की दशा और दिशा, बाल साहित्य यात्रा में बाल पत्रिकाओं की भूमिका, बाल साहित्य रचनाधर्मिता: चुनौतियाँ और समाधान, बाल साहित्य: भावी स्वरूप, चुनौतियाँ और समाधान, बाल साहित्य का पठन-पाठन: समाज व परिवार का दायित्व, आदर्श व्यक्तित्व निर्माण में बाल साहित्य की भूमिका और एक सफल बाल साहित्य रचनाकार होने के मायने सहित कहानी, उपन्यास, कविता, बालगीत, नाटिका एवं एकांकी, संस्मरण व प्रेरक प्रसंग, पहेलियाँ और सामान्य ज्ञान, पारस्परिक भाषा अनुवाद, बाल साहित्य में चित्रांकन जैसे विषयों पर बोलते-सुनते-समझते हुए साहित्यकारों ने स्वीकारा कि साहित्य लेखन कर्म मात्र स्वान्तः सुखाय के ध्येय तक सीमित नहीं है। साहित्य आनन्द की प्राप्ति के साथ-साथ एक जीव से सार्थक मनुष्य बनाने की भूमिका का भी निर्वहन करता है।

मासिक पत्रिका ‘बच्चों का देश’ की रजत जयंती के अवसर पर तीन दिवसीय बाल साहित्य समागम राजस्थान के राजसमन्द पर आयोजित हुआ। अणुव्रत विश्व भारती सोसायटी ने इस आयोजन में बच्चों का देश में अनवरत् लिखने वाले लगभग 400 रचनाकारों में से देश भर के एक सौ तीस साहित्यकारों को निमंत्रण भेजा था। भारत के ग्यारह राज्यों से पिच्चासी रचनाकारों ने समागम में शिरकत की। उत्तर प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, बिहार, पंजाब, मध्य प्रदेश, हिमाचल, गुजरात, हरियाणा, महाराष्ट्र और उत्तराखण्ड से अधिक रचनाकारों की उपस्थिति रही।

इससे पूर्व बाल साहित्य समागम का उद्घाटन सत्र भी सार्थक रहा। अणुविभा के अध्यक्ष अविनाश नाहर ने अणुव्रत आचार संहिता का वाचन करते हुए दोहराया कि बतौर मनुष्य हमें सबसे पहले संवेदनशील होने की आवश्यकता है। अणुव्रत विश्व भारती सोसायटी के प्रमुख कार्यो की भी उन्होंने जानकारी दी। उन्होंने सोसायटी के जीवन विज्ञान, एक्सपीरियंस द रियल हाई, डिजिटल डिटॉक्स, अणुव्रत क्रिएटिव कॉन्टेस्ट, पर्यावरण जागरुकता अभियान सहित अणुविभा द्वारा संचालित कार्यक्रमों की जानकारी दी। उन्होंने साहित्यकारों से कहा कि समाज के लिए विविधतापूर्ण लेखन के लिए भी समाज के नवनिर्माण कार्यों में जुड़ना चाहिए। अविनाश नाहर ने सुझाया कि अणुविभा पर्यावरण, नशा उन्मूलन कार्यक्रमों के प्रति कृत संकल्प है। रचनाओं के माध्यम से भी समाज में पसरती जा रही बुराईयों के बारे में लिखने के लिए भी साहित्यकार अणुविभा से जुड़ सकते हैं। ‘बच्चों का देश’ पत्रिका के संपादक संचय जैन ने सभी उपस्थितों का स्वागत किया। उन्होंने विस्तार से बाल साहित्य समागम के उद्देश्यों और तीन दिनों के समारोह की रूपरेखा साझा की। इस अवसर पर उन्होंने बच्चों का देश के पच्चीस सालों का सफर भी साझा किया। इस अवसर पर पत्रिका के संस्थापक मोहनलाल जैन, प्रथम सम्पादक कल्पना जैन, प्रसिद्ध बाल साहित्यकार बाल शौरि रेड्डी सहित वरिष्ठ साहित्यकारों के योगादान को भी याद किया। प्रबंध संपादक पंचशील जैन ने कहा कि आज बच्चों का देश से लगभग चार सौ साहित्यकार जुड़े हुए हैं। अणुव्रत की पत्रिका और बच्चों का देश से इन पच्चीस सालों में हरिशंकर भाभड़ा, चंदनमल बैद, हीरालाल देवपुरा, गोविंदाचार्य जैसे राजनेता भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर जुड़े रहे। कई बच्चों-लेखकों को पहली बार प्रकाशन का अवसर बच्चों का देश ने दिया।

सोसायटी के डॉ. महेंद्र कर्णावट ने बाल मनोविज्ञान के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है। जीवन शैली बदल रही है। ऐसे में सामाजिक जीवन और साहित्यिक कर्म भी खास हो चला हैं। साहित्कार पथ-पदर्शक का कार्य करते रहे हैं। वह अपनी दूरदर्शिता से सही मार्ग सुझाते रहते हैं। पूर्व न्यायाधीश डॉ. बसंतीलाल बाबेल ने भारतीय न्याय संहिता और अणुव्रत आचार संहिता में पर्याप्त समानता का उल्लेख किया। उन्होने कहा कि समाज में भाईचारा,बन्धुत्व बनाए रखने के लिए संयम बहुत जरूरी है। अणुव्रत स्वयं में एक उत्कृष्ट जीवनशैली है। अणुव्रत लेखक पुरस्कार से सम्मानित लेखक फारुख अफरीदी ने अणुव्रत के माध्यम से बच्चों मे संस्कारों का बीजारोपण करने की आवश्यकता जतायी। उन्होंने कहा कि सकारात्मकता के जरिए ही समाज आगे बढ़ सकता है। अणुविभा के प्रबंध न्यासी तेजकरण सुराणा ने बच्चों के भविष्य-निर्माण में बाल साहित्यकारों की भूमिका पर विचार व्यक्त किये। उन्होंने कहा कि आज के दौर में पढ़ना वैसे ही कम हो रहा है। लेकिन पढ़ना क्रिया की मांग हमेशा बनी रहेगी। उद्घाटन सत्र में राजसमंद के विद्यालय गांधी सेवा सदन के विद्यार्थियों ने अणुव्रत गीत भी प्रस्तुत किया।

अणुव्रत विश्व भारती सोसायटी की बाल केंद्रित प्रवृत्तियों पर आधारित सत्र का संयोजन प्रकाश तातेड़ ने किया। अणुविभा के उपाध्यक्ष डॉ. विमल कावड़िया ने जीवन विज्ञान, डॉ. नीलम जैन ने पर्यावरण जागरुकता अभियान, डॉ. राकेश तैलंग ने स्कूल विद ए डिफरेंस, डॉ. सीमा कावड़िया ने बालोदय शिविर, अभिषेक कोठारी ने बालोदय एजुटूर, प्रकाश तातेड़ ने ‘बच्चों का देश’ पत्रिका तथा मोहन मंगलम ने ‘अणुव्रत’ पत्रिका के बारे में दर्शक दीर्घा में उपस्थितों को जानकारी दी। बच्चों का देश’ पत्रिका के सह संपादक प्रकाश तातेड़ ने भी साहित्यकारों को संबोधित किया। पहले ही दिन साहित्यकारों ने चिल्ड्रन’स पीस पैलेस में बाल मनोविज्ञान पर आधारित विभिन्न दीर्घाओं का अवलोकन किया।

राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में हिन्दी बाल साहित्य की दशा और दिशा विषय पर आयोजित संगोष्ठी की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार दिविक रमेश ने की। उन्होंने कहा कि बच्चों का साहित्य सिर्फ बच्चों के लिए नहीं लिखा होता। वह हर वय वर्ग का पाठक पढ़ सकता है। अलबत्ता वह इतना सरल हो कि बच्चे भी पढ़ सकें। ऐसा नहीं है कि उसे बेहद सरल ही लिखा जाए। नए शब्दों को भी बच्चे सन्दर्भ के साथ आसानी से ग्रहण कर लेते हैं। आज ज़रूरत इस बात की है कि उपदेशात्मक, और संदेशात्मक बातें पाठक पसंद नहीं करते। साहित्य की विधाओं में इतना रस हो कि उसमें छिपे भाव, अर्थ ग्रहण और संदेश पाठक स्वयं आत्मसात् करें। इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है जैसी प्रवृत्ति से बचने की नितांत आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि आज के युग में सार्थक, यथार्थ से भरा साहित्य भी लिखा जा रहा है। आज बाल साहित्य को अलग से रेखांकित किया जाने लगा है। यह हमारे लिए प्रसन्नता का विषय है।
एक घण्टा पन्द्रह मिनट संचालित इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ साहित्यकार दिविक रमेश ने कहा कि हम हर दिन अद्यतन होते हैं। बाल साहित्य में पहला पाठक अब बेहद सजग है। युवा रचनाकार भी अब सजग हैं। आज के दौर में खूब लिखा जा रहा है। यह बात अलग है कि कैसा लिखा जा रहा है, इस पर भी चिन्तन होना चाहिए। बाल साहित्य के क्षेत्र में ख्यातिलब्ध रचनाकारों ने भी अपनी कलम चलाई है। अब बाल साहित्य को अलग से रेखांकित किया जा रहा है। अब नए भाव-बोध पर बहुत अधिक लिखने की आवश्यकता भी है। आज के दौर में बच्चों के पास पढ़ने-लिखने के कई अवसर हैं। माध्यम भी है। ऐसे में आज के बाल साहित्य को भी स्वयं में नवीन होना चाहिए। बाल साहित्य कई मायनों मंे पाठक के समग्र विकास में बहुत बड़ी भूमिका निभाता है। दिविक रमेश ने कहा कि बाल साहित्य को खासकर हिन्दी पढ़ने-लिखने वाले परिवारों में अब गंभीरता के साथ स्वीकार किया जा रहा है। हाँ ! यह बात भी उचित है कि पाठकों की संख्या के हिसाब से इसे अधिकाधिक तौर पर प्रकाशित होना चाहिए। उन्होंने कहा कि बच्चों की दुनिया को बेहद संकीर्ण, क्षेत्रीयता के आधार पर सीमित नहीं किया जाना चाहिए। भाषाई तौर पर भी विस्तार से लिखने की जरूरत है। हमें कई क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्य को विभिन्न भाषाओं में अनुवाद करना चाहिए। स्थानीयता से राष्ट्रीयता और फिर वैश्विक स्तर का नजरिया भी बाल साहित्य का हिस्सा होना चाहिए।

इस सत्र में सीताराम गुप्त, दीनदयाल शर्मा, रेखा लोढ़ा स्मित, डॉ. शुभदा पांडेय, इंजीनियर आशा शर्मा, योगीराज योगी, नीना सिंह सोलंकी ने भी अपने विचार व्यक्त किए। वक्ताओं ने बाल साहित्य की दिशा पर भी गंभीरता से विचार व्यक्त किये। उन्होंने कहा कि बाल पाठकों को कुछ भी परोसने की आदत से बचना होगा। हमें तथ्यात्मक, तार्किकता और वैज्ञानिकता के साथ बाल साहित्य लिखना चाहिए। यदि हम भारत के सन्दर्भ में लिख रहे हैं तो उन वन्य जीवों का भारत की भूमि में दिखाया जाना उचित नहीं है जो यहाँ पाए ही नहीं जाते। उन्होंने कहा कि आज सूचना तकनीक का युग है। बच्चे जानते हैं कि चन्दा कोई मामा नहीं है। वह मात्र एक आकाशीय पिण्ड है। पाठकों को सही जानकारी देने वाला साहित्य लिखा जाए।

वक्ताओं ने यह भी कहा कि बाल साहित्य को कई तरह की विधाओं से सराबोर होना चाहिए। केवल कविता कहानी से काम नहीं चलने वाला है। पाठकों को विविधता से भरी विधाओं से युक्त रोचक साहित्य उपलब्ध कराना चाहिए। वर्तमान में कैसा बाल साहित्य लिखा जा रहा है?
वक्ताओं ने बाल साहित्य के कमजोर पक्षों को भी रेखांकित किया। जीवनी, संस्मरण, यात्रा वृतान्त, आत्मकथ्य, पत्र लेखन, नाटक, एकांकी जैसी विधाओं पर बाल साहित्य लिखने पर वक्ताओं ने जोर दिया। भविष्य के बाल साहित्य पर भी वक्ताओं ने अपनी बात रखी। इस सत्र में निम्नांकित बिन्दुओं पर सभी वक्ता सहमत रहे।

एक-बाल साहित्य सरल हो, वह सभी के पढ़ने के लिए सुलभ हो।
दो-बाल साहित्य अधिकाधिक विधाओं में समान रूप से लिखा जाना चाहिए।
तीन-बचकानी, बेसिर-पैर की कल्पना की अतिरंजना से बाल साहित्य को मुक्त होना चाहिए।
चार-बाल साहित्य को अत्याधुनिक माध्यमों में भी अपनी पैठ बनानी चाहिए।
पाँच-बाल साहित्य को सभी तरह के विषयों को शामिल करना चाहिए।
छःह-साहित्यकारों को चाहिए कि लोकतांत्रिक मूल्यों को, संवेदनशीलता को प्रमुखता से रचनाओं में शामिल करना चाहिए।
सात-वैज्ञानिक दृष्टिकोण से युक्त साहित्य पाठकों के लिए लिखा जाना चाहिए।

पहले ही दिन सायंकालीन सत्र बाल साहित्य में बाल पत्रिकाओं की भूमिका पर केन्द्रित रहा। लेखक, समीक्षक एवं आलोचक डॉ. सुरेंद्र विक्रम ने कहा कि पत्रिकाओं की भूमिका मनुष्यता की यात्रा में बच्चों के लिए टॉनिक का काम करती है। उन्होंने पढ़ने-लिखने की संस्कृति को बढ़ावा देने पर बल दिया। उन्होंने कहा कि हिन्दी में अब तक ज्ञात पत्रिकाओं की संख्या लगभग 230 के आस-पास है। कुछ पत्रिकाएं समय के साथ बहुत जल्दी बंद हो गई। कुछ पत्रिकाओं ने कई सालों तक नई पौध के व्यक्तित्व के निर्माण में महती योगदान दिया। उन्होंने कहा कि आजाद भारत के बाद साहित्यकारों के समक्ष दूसरी स्थितियां-परिस्थितयां थीं। दासता से मुक्त होकर आजादी मिली थी तो जाहिर है कि रचनाओं में भी वह सब शामिल होना था। साहित्य ने अपने समय के वातावरण को रचनाओं में शामिल किया। आज इक्कीसवीं सदी है। आज लगातार पत्र-पत्रिकाओं से बाल साहित्य बढ़ने की बजाय लुप्त होता जा रहा है। आज का बच्चा सूचनाएं, ज्ञान, जानकारी को भी अल्प समय के लिए चाहता है। आज उसके पास मनोरंजन के कई साधन हैं। पहले ऐसा नहीं था। यही कारण है कि उस दौर में कोई पत्रिका स्वयं में बहुत बड़ा साधन होती थीं। उन्होंने कहा कि बाल पत्रिकाओं ने हमें पाठक बनाया है। संवेदनशील बनाया है। हमारे भीतर बहुत सारे गुणों में वृद्धि पत्रिकाओं की रचनाएं पढ़ने से हुई हैं। आज हमें बालमन के अनुरूप पत्रिकाएं प्रकाशित करनी होंगी।

इस सत्र में अनिल जायसवाल, गोपाल माहेश्वरी, डॉ. इंदु गुप्ता, डॉ. सत्यनारायण सत्य, चक्रधर शुक्ल, हरदेव सिंह धीमान, निमला नगला, यशपाल सिंह यशस्वी, राधा पालीवाल ने भी अपने विचार व्यक्त किए। डॉ॰ इन्दु गुप्ता ने कहा कि बाल-साहित्य का एकमात्र उद्देश्य मात्र बच्चों का मनोरंजन करना और बिना उपदेशात्मक हुए उन्हें सीख दे जाना है। उन्हें दुनिया से रू-ब-रू करवाना है। अच्छे-बुरे में अंतर करना बताना है। प्रकृति से, दुनिया से और सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील बनाता है। नैतिक मूल्यों को स्थापित करने हेतु बढ़ावा देना है। सकारात्मक सोच को विकसित करना भी मकसद है। पत्रिकाएं अब तक यह काम बखूबी करती रही हैं। चित्रात्मक कहानियां, नाटक, एकांकी, संस्मरण आदि रोचक होने के कारण मनोरंजन के साथ बौद्धिक विकास, मौलिकता, बच्चों में सृजनशीलता आदि संज्ञानात्मक कौशलों का विकास करता है। चित्रों को देखकर बालमन उनसे समाज को सम्बद्ध कर भावनात्मक संबंध को बढ़ाने की कोशिश करता है। साहित्य भावों, विचारों, घटनाओं, अनुभवों की भाव सहित प्रस्तुति है। विधा कोई भी हो, लेकिन यह बच्चों को कल्पनाशील और रचनात्मक बनाता है। इसमें मनोरंजन, रोचकता व नवीनता तीनों तत्वों का समावेश हो। भाषा सरल और समझने में आसान तथा स्पष्ट होनी चाहिए। बाल-साहित्य में मौलिकता नष्ट न हो। वह क्षेत्रीय जातीय भाषायी कुशलताओं का विकास करे।

सत्र का संयोजन रजनीकांत शुक्ल ने किया। रजनीकांत शुक्ल ने कहा कि यह तय है कि जैसे-जैसे विज्ञान और तकनीक की रफ्तार बढेगी लोगों की एक-दूसरे से दिलों की दूरी बढती जाएगी। हम सभी जानते हैं मन में मानवीय संवेदनाओं की जडें जमने में बचपन की एक महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। बचपन को संस्कारित करने, उनकी रुचियों को परिष्कृत करने और उनके भविष्य को सही दिशा देने में बाल साहित्य के महत्व को नकारा नहीं जा सकता है। उन्होंने जोर देकर कहा कि इक्कीसवीं सदी में बाल साहित्य बहुत ही आवश्यक है। वक्ताओं ने स्वीकार किया कि पत्र-पत्रिकाओं के बंद होने से पाठकों-लेखकों के बीच जो संवाद था वह टूट गया है। संपादक के काम, पत्रों की जिम्मेदारी, पत्रिकाओं की जिम्मेदारी और पुस्तकों के महत्त्व पर भी बातचीत हुई। वक्ताओं ने माना कि देश कोई भी हो, युग कोई भी हो, बाल मन के लिए सैकड़ों पत्रिकाएं चाहिए। दुख इस बात का है कि बाल पाठकों की संख्या के हिसाब से अभी हिन्दी में पत्रिकाएं बहुत कम हैं। इनकी संख्या बढ़नी चाहिए।
रात्रिकालीन सत्र डॉ॰परशुराम शुक्ल की अध्यक्षता में संचालित हुआ। सत्र का संचालन डॉ॰चेतना उपाध्याय ने किया। सत्र से पूर्व साहित्यकारों को सात अलग उप विषयों के साथ आधा घण्टा विमर्श के लिए दिया गया। साहित्यकारों ने अपने-अपने समूह में चर्चा की। डॉ॰दर्शन सिंह आशट के संयोजन में कहानी और उपन्यास पर चर्चा हुई। संतोषकुमार सिंह के संयोजन में कविता और बालगीत पर चर्चा हुई। गुडविन मसीह के संयोजन में नाटिका और एंकाकी पर चर्चा हुई। उन्होंने कहा कि भविष्य का बाल साहित्य न सिर्फ सरल, सुलभ और सुगम होना चाहिए बल्कि रोचक, रोमांचक और मनोरंजक होने के साथ साथ पठनीय व सही दिशा देने वाला होना चाहिए। बाल साहित्य लिखते समय बच्चों की आयु वर्ग का विशेष ध्यान रखना चाहिए। भाषा, शिल्प और शैली का भी ध्यान रखना चाहिए। कोरी कल्पना और असार्थकता, तंत्र मंत्र, जादू टोना, अपराध और मारधाड़ से अधिकांशतः बचना चाहिए। विषयवस्तु बालपयोगी, बाल्यावस्था अनुरूप होनी चाहिए। बाल मनोविज्ञान की कसौटी पर खरा होना चाहिए।

डॉ॰ लता अग्रवाल ‘तुलजा’ के संयोजन में संस्मरण और प्रेरक प्रसंग विधा पर चर्चा हुई। चाँद मोहम्मद घोसी के संयोजन में पहेलियाँ और सामान्य ज्ञान पर चर्चा हुई। पदमा चौंगांवकर के संयोजन में पारस्परिक भाषा अनुवाद पर चर्चा हुई। दिलीप शर्मा के संयोजन में बाल साहित्य में चित्रांकन पर चर्चा हुई। तत्पश्चात बड़े समूह में उप सत्रों के संयोजकों ने चर्चा के निष्कर्ष बिन्दु साझा किए। समेकन करते हुए डॉ॰ परशुराम शुक्ला ने कहा कि यह बड़े हर्ष का विषय है कि हर समूह में कई साहित्यकारों ने मिल-बैठकर विधावार कल, आज और कल को ध्यान में रखते हुए चर्चा की। उन्होंने कहा कि लेखन एक कौशल है। यह अभ्यास से और सधता जाता है। लेकिन पाठकों की संख्या के हिसाब से हर विधाओं में हजारों रचनाएँ लिखे जाने की जरूरत है। प्रकाशन की भी आवश्यकता है। पाठकों को ध्यान में रखते हुए भी लिखा जाना और छपने से पूर्व उसकी तटस्थ समीक्षा की जानी जरूरी है। अन्यथा बहुत अनुपयोगी और पाठकों में अरुचि पैदा करने वाली सामग्री भी बहुतायत में प्रकाश में आ रही है। इसे समझने की आवश्यकता है। पहेलियाँ और सामान्य ज्ञान को रोचक तथा नए भाव-बोध के साथ लिखे जाने की आवश्कयता पर बल दिया गया। प्रेरक प्रसंगों और चित्रांकन पर भी अत्यधिक परिश्रम किए जाने, अधिकाधिक नए कहन पर भी जोर दिया गया।

बाल साहित्य के भावी स्वरूप, चुनौतियाँ और समाधान पर भी व्यापक चर्चा हुई। इस सत्र की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार समीर गांगुली ने की। उन्होंने कहा कि साहित्य से अधिक फिल्म इंडस्ट्री समृद्ध है। प्रयोगवादी है और नित नए साधनों-तरीकों को इस्तेमाल करती है। साहित्य को भी अब नए कलेवर में आना होगा। अनुवाद का काम भी बड़े स्तर पर होना चाहिए। उन्होंने कहा कि हिन्दी का लेखन और सिनेमा भी बहुत पीछे है। हालांकि हिन्दी सिनेमा अन्य भाषाओं, विदेशी सिनेमाओं से प्रेरित होता है और वहाँ से सीखता है लेकिन हिन्दी साहित्य को अभी खुद को इस दिशा में अपडेट करना होगा। इस सत्र का संयोजन कर रहे साहित्यकार अखिलेश श्रीवास्तव ‘चमन’ ने कहा कि साहित्य हमें एक जीव से मनुष्य बनाने में सहायता करता है। एक सामाजिक जीव के भीतर मनुष्यता के बीज बोने का काम साहित्य करता है। उन्होंने कहा कि तकनीकी विकास कल कहाँ तक जाएगी? कोई नहीं जानता। यह स्क्रीन युग है। आज समय से पूर्व सब कुछ सार्वजनिक हो रहा है। ऐसे में साहित्य की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। उन्होंने कहा कि परिपक्व बाँस को मोड़ा नहीं जा सकता। यही बात बच्चों के संदर्भ में है। आज हिंसा, अपराध, कुण्ठा, हताशा, निराशा, आत्मघाती निर्णय तक बच्चे ले रहे हैं। ऐसे में साहित्य एक सखा की भूमिका निभा सकता है। आज के बच्चे तथ्यात्मक तौर पर और सूचनात्मक तौर पर बहुत कुछ जानते हैं। परम्परागत साहित्य से काम नहीं चलने वाला है। चुप रहने और संवादहीनता से भी काम नहीं चलने वाला है। हमें नई पीढ़ी से संवाद करने होंगे। उनके मन की थाह लेनी होगी।

मुंबई क सुप्रसिद्ध साहित्यकार ताराचंद मकसाने ने कहा कि आज ज़रूरत है कि साहित्य पाठक के समक्ष सत्य को लाए। आज भी दशकों पूर्व लेखकों के उद्धरण-कथन हम बार-बार पढ़ते हैं। सुनते हैं और सुनाते हैं। लेखन आने वाले कल के पार देखता है। साहित्य में यथार्थवाद आज पहली जरूरत है। जीवन की समस्याएं भी शामिल हों और समाधान भी साहित्य में हो। उन्होंने कहा कि नई तकनीक आज की जरूरत हैं। उन्हें कोसने से कुछ नहीं होने वाला है।

साहित्यकार कविता मुकेश ने कहा कि यह बात सही है कि साहित्य मनोरंजन और आनंद की प्राप्ति के लिए है। लेकिन यह पाठक की जिज्ञासा बढ़ाए भी और शांत भी करे। आज डिजिटल माध्यमों के प्रभाव से हम बच नहीं सकते। पाठक का उस जाना स्वाभाविक है लेकिन लेखन भी उन माध्यमों में खुद को परिवर्तित करे। लेखकों को चाहिए कि आज के बच्चों की रुचियों के अनुसार लेखन करे। आज वैज्ञानिक दृष्टिकोण से युक्त साहित्य समय की मांग है। एक ओर बच्चों पर पढ़ाई का दबाव है वहीं रोजगार का संकट का भय भी है। बच्चे बहुत जल्दी वयस्क हो रहे हैं। उसी तीव्रता के साथ हमारा साहित्य भी परम्परागत साहित्य से आगे बढ़े। बाल साहित्य रचते समय कुछ प्रश्न एक साहित्यकार के समक्ष हमेशा होने चाहिए। यह जानना जरूरी है कि बच्चों की उम्र और रुचि क्या है। वे क्या पढ़ना चाहते हैं? उन्हें भविष्य में किस प्रकार की चुनौतियों से दो-चार होना पड़ सकता है। इसके लिए बाल- साहित्य में शिक्षा और मनोरंजन के साथ विविध विषय भी समाहित होने चाहिए। पर्यावरण के प्रति जागरूकता, साहित्य और कला का संयोजन, कल्पना शक्ति को विकसित करना,अनुवाद कार्य द्वारा विश्व भर का बाल-साहित्य बच्चों को उचित दर पर उपलब्ध करवाना। इसके अलावा विभिन्न संस्कृतियों और भाषायों का भी उनके साहित्य में समावेश होना चाहिए। इस तरह आकर्षक, ज्ञानवर्धक, सुरुचिपूर्ण और उद्वेश्यपूर्ण बाल साहित्य द्वारा बच्चों का समग्र विकास संभव है।

डॉ॰ राजवन्त कौर ने पूर्वी पंजाब और पश्चिमी पंजाब के बाल साहित्य पर चर्चा की। उन्होंने गुरुमुखी और शाहमुखी भाषाओं में बाल साहित्य को अभी आरंम्भिक दौर माना। उन्होंने कहा कि भारत की कई भाषाओं का अनुवाद पंजाबी में हो। यह आज की जरूरत है। स्थानीय भाषाओं का और स्थानीय भाषाओं में बाल साहित्य कम ही मिलता है। पाकिस्तान और पूर्वी पंजाब में अभी बच्चों के लिए लेखन आरम्भिक दौर में है।

डॉ॰ उमेशचन्द्र सिरसवारी ने कहा कि अब बच्चों को सीख, नसीहतों और उपदेशों से अटे पड़े साहित्य से कुछ नहीं होने वाला है। साहित्य के नाम पर सूचना, ज्ञान और सामान्य ज्ञान ठूंसने से भी काम नहीं चलने वाला है। बच्चों की पसंद को समझने की आवश्यकता है। सुनील कुमार माथुर ने कहा कि बच्चों के लिए समाचार पत्रों में अब कोई जगह नहीं रही। पत्रिकाएं नाम मात्र की हैं। जो हैं वह डाक से पहुँचती नहीं। दुकानों में अब पत्रिकाएं नहीं मिलतीं। यदि है तो अंग्रेज़ी का बोलबाला है। हिन्दी की स्थिति बेहद खराब है।

कुसुमरानी नैथानी ने कहा कि पुस्तकालय खोले जाने चाहिए। किताबों की महत्ता पर स्कूलों को भी जिम्मेदार बनाना चाहिए। किताबें पढ़ना और कोर्स की किताब पढ़ना में जो बड़ा अंतर है उसे अभियान के तहत सामने लाने की आवश्यकता है।
मंगलकुमार जैन ने कहा कि किताबों का पत्रिकाओं का महत्व कभी कम नहीं हो सकता। लेकिन आज पढ़ने के माध्यम बदल गए है। स्क्रीन पर भी बाल साहित्य लाया जा सके। इस दिशा में भी काम होना चाहिए। उषा सोमानी ने कहा कि खरीदकर पढ़ने की आदत घर से और स्कूल से आ सकती है। यह आज बड़ी चुनौती है।
विकास खन्ना ने कहा कि विविधता से भरी सामग्री आज भी चुनौती है। बच्चों का साहित्य अभी परम्परा से बाहर नहीं निकल पा रहा है। चीज़ों को सिंपल रखना और रोचक बनाना भी बड़ी चुनौती है। फिल्मों की ओर झुकाव ज्यादा है। बच्चों के लिए प्रिंट मीडिया कुछ खास नहीं कर रहा है। भारतीय भाषाओं का साहित्य तो दूर अपनी-अपनी भाषाओं में भी सार्थक लेखन बच्चों के लिए नहीं हो रहा है।

बाल साहित्य का पठन-पाठन: समाज व परिवार का दायित्व विषयक सत्र की अध्यक्षता कर रहीं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ॰ विमला भण्डारी ने कहा कि परिवार समाज की इकाई है। परिवारों से ही समाज बनता है। आज तीन मंजिला मकान हैं लेकिन उन मकानों में किताबों का एक कोना तक नहीं है। घर के बजट में सब कुछ है लेकिन पुस्तकों की खरीद का कोई बजट नहीं है। उन्होंने कहा कि हिन्दी समृद्ध है। हिन्दी में देखा और सुना जा रहा है लेकिन हिन्दी में बस पढ़ा नहीं जा रहा है। उन्होंने कहा कि आज के दौर में क्लब हैं। किटी पार्टी हैं। उत्सवों का माहौल है बस बच्चों के क्लब नहीं हैं। बच्चों की दुनिया आज मशीनीकृत हो चुकी हैं आज बच्चों को साहित्य से और सामाजिक गतिविधियों में इनवॉल्व करना होगा। संयोजन कर रहे बाल प्रहरी के संपादक उदय किरौला ने कहा कि हम सभी सूचना तकनीक को, बच्चों को कसूरवार ठहरा रहे हैं लेकिन हमें विचार करना होगा कि हम बच्चों के लिए क्या प्रयास कर रहे हैं। क्या हमने उन्हें पढ़ने के मौके दिए? क्या हमने बच्चों के साथ बैठकर उनकी इच्छाएं पूछीं? उन्होंने कहा कि आज भी बच्चे पढ़ना चाहते हैं। उन्हें मौके देने होंगे। उन्हें पढ़ने के विकल्प देने होंगे।
साहित्यकार संगीता सेठी ने कहा कि समाज का दायित्व है कि वह नई पीढ़ी को देखे। उन्हें अपने कार्यों से प्रोत्साहित करे। वैसे देखें तो हम साहित्यकारों को हमारे परिवार में और हमारे मुहल्ले में कितना जानते हैं? क्या हमने बतौर साहित्यकार आस-पास पढ़ने के मौके जुटाए? हमने बच्चों के साथ समय बिताने के कितने अवसर जुटाए? हमें बच्चों से संवाद करना ही होगा। घर में बैठकर हवा में बाल साहित्य लिखने से बात नहीं बनने वाली है। किशोर श्रीवास्तव ने कहा कि अब अतीत को बार-बार कोसने से कुछ नहीं होगा। परिवारों में बच्चों को चुप कराने के तरीकों को देखिए। माँ अपनी बेटी की बेटी को लोरी सुनाएगी। बात करेगी। संवाद अभिनय करेगी। वहीं बेटी अपनी बेटी को मोबाइल पकड़ा देगी। यह अन्तर भी साहित्य से मोह भंग का बड़ा कारण है। साहित्य का प्रचार-प्रसार बढ़ना चाहिए। समाज में कई गतिविधियां जोर-शोर से होती हैं। लेकिन बाल साहित्य के इवेंट क्या होते हैं? गुणवत्ता भी एक बड़ा कारण है। बाल साहित्य बच्चों में ललक जगाए। हर काल अपने समय में उस दौर की पीढ़ी के लिए बेहतर होता है। समय बदलता है तो रंग-ढंग भी बदलता है। यह कहना कि आज के बच्चे पढ़ नहीं रहे हैं, उचित नहीं होगा। समाज में पढ़ने की कितनी गतिविधियां हो रही हैं? कई अभिभावक स्कूली किताब से इतर पढ़ना को वाहियात काम समझते हैं। साहित्य को समाज से जोड़ा जाना जरूरी है।
डॉ॰ सतीशचन्द्र भगत ने कहा कि पढ़ने की आदत समाज में बड़ों से ही आती है। आज पढ़ना कम हो गया है और दृश्य माध्यम बढ़ गए है। लेकिन यह तो तय है कि परिवार-परिवार से जुड़कर पढ़ने की संस्कृति का विकास होना चाहिए। गौरीशंकर वैश्य ‘विनम्र’ ने कहा कि समय के साथ-साथ हमें अपने लेखन में ध्यान देना होगा। घर-परिवार में बच्चों के साथ समय बिताना होगा। उन्हें श्रृव्य,दृश्य के साथ छपी सामग्री भी देनी होगी। खुद भी पढ़ना होगा और पढ़ते-पढ़ते सुनाने की परंपरा भी बढ़ानी होगी। किताब से पढ़ना और स्क्रीन पर पढ़ना में काफी अंतर है। असर में भी अंतर है।
सुशीला शर्मा ने कहा कि घर-परिवार में लोक कथाओं को सुनाने की परंपरा लुप्त होती जा रही है। पहले हर घर में ग्रन्थ थे। पारम्परिक कवियों-लेखकों की रचनाएं कंठस्थ थी। आज ऐसा नहीं है। टीवी ने बहुत सारा समय ले लिया है।
प्रभा पारीक ने समाज की भूमिका को बालकेन्द्रित न होने पर अफसोस जताया। भागमभाग जीवन शैली को बड़ा कारण बताया। उन्होंने कहा कि बालकों को स्कूली शिक्षा से इतर व्यावहारिक ज्ञान देने में बाल साहित्य सदा उपयोगी रहा है। पारिवारिक ढांचे में बदलाव, बदलती परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए यह जिम्मेदारी दादा-दादी, नाना-नानी से अब माता-पिता पर आ गई है। समयाभाव के कारण वह इसे नहीं निभा पा रहें हैं। यह चिन्ता का विषय है और बाल साहित्य इस भूमिका को बेहतर ढंग से निभा रहा है। उन्होंने कहा कि बाल साहित्य बालकों को मनोरंजन के साथ जानकारी, व्यावहारिक, नैतिक समझ देने के लिए आवश्यक है। भविष्य का बाल साहित्य ऐसा हो जो बालकों के मन को गुदगुदाने में सक्षम हो, समय और आयु वर्ग के अनुरूप हो। आज के बदलते परिवेश में बालकों के मस्तिष्क पर भौतिकतावादी सोच हावी हो रही है। वे सुविधा-संपन्नता के अभ्यस्त हो रहे हैं। अतिमहत्वकांक्षी होते जा रहे हैं। कुंठा, आक्रोश, क्रोध और समाज में बाल हिंसा के उदाहरण बढ़ रहे हैं। आज का बाल साहित्य ऐसा हो जो उन्हें लक्ष्य प्राप्ति के प्रयास के लिए प्रेरित करे। सादगी का महत्व समझाए। मनोरंजन करके उनकी मानसिक सोच को सही दिशा देने में मददगार साबित हो।
शिल्पी पाण्डे ने कहा कि बच्चों से ही कैसे उम्मीद करें जब घर में किताबों के लिए कोई जगह नहीं है। किताब पढ़ने की आदत बड़ों में ही नहीं हैं बच्चे भी पढ़ें ऐसा दायित्व निभाने में परिवारों को आगे आना होगा। समशेर कोसलिया ने कहा कि बाल साहित्य अब बच्चों के लिए अभिभावक लगाना चाहते हैं। लेकिन पत्रिकाओं की नियमितता और डाक व्यवस्था बड़ी लचर है। किताबें बांटने और उपहार में देने की बात होनी चाहिए। एक से बढ़कर एक उपहार दिए जा रहे हैं किताबें क्यों नहीं? समाज परिवारों से बनता है। परिवारों में पढ़ना-लिखना केवल कोर्स तक सीमित है।
पाखी जैन ने कहा कि स्कूल में बच्चों को पढ़ने के लिए किताबें मिलनी चाहिए। लक्ष्य मिलना चाहिए। टीचर बच्चों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करें।
आदर्श व्यक्तित्व निर्माण में बाल साहित्य की भूमिका विषयक सत्र की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार गोविन्द शर्मा ने की। उन्होंने कहा कि इसमें कोई दो राय हो ही नहीं सकती कि बाल साहित्य हमारे व्यक्तित्व के निर्माण में सहायतन नहीं करता। करता है। बहुत हद तक हमारा बोलना, सुनना, देखना, अवलोकन करना और संवेदनशीलता साहित्य से बहुत गुणा बढ़ जाती है। हमारी पीढ़ी के साथ-साथ नब्बे के दशक तक भी साहित्य ने हमें गढ़ा। यह सत्य है। पत्रिकाओं को पढ़ने की ललक किस हद तक थी। यह किसी से छिपा नहीं है। वह दौर बहुत सारी पत्र-पत्रिकाओं का था। अखबार दो-तीन दिन बाद मिलता था तब भी पढ़ने की ललक थी। जिज्ञासा थी। आज तौर-तरीके बदल गए हैं। लेकिन छपी हुई सामग्री का पढ़ना आज भी जारी है। इसे बढ़ाने की आवश्यकता है। समाज के साथ-साथ संपादक, अखबार-पत्र-पत्रिकाएं और लेखक के साथ-साथ पाठकों में एक समन्वय था। आज यह सम्बन्ध क्षीण हो गया है। अब बाल साहित्यकार मेला लगने चाहिए। बाल साहित्य पाठक भी बनाता है और धीरे-धीरे मनुष्यता की ओर ले जाता है। समझदारी बढ़ाता है।
वरिष्ठ साहित्यकार राकेश चक्र ने कहा कि जमीन पर जाने की जरूरत है। समय का दान करने की जरूरत है। बच्चों को समय नहीं दे रहे हैं तो कैसे चलेगा? समय होने पर भी बच्चों के लिए माता-पिता के पास समय नहीं है। समय है तो वह टीवी-मोबाइल पर जा रहा है। सारे शौक में पढ़ने के लिए समय निकालना ही होगा। रोचक साहित्य भी रचना होगा।
प्रमोद दीक्षित ‘मलय’ ने कहा कि अवसर और चुनौतियां बाल साहित्य इन दोनों के लिए पाठकों को गढ़त है। आत्मबल बढ़ाता है। बालपाठक ही आगे चलकर साहित्य के पाठक बनते हैं। फिर कमोबेश उन्हीं में से वह लेखक बनते हैं। राजकीय पुस्तकालयों की संख्या बढ़नी चाहिए। पढ़ने की संस्कृति आधारित गतिविधियां बढ़नी चाहिए। उन्होंने कहा कि लेखन में सीख, प्रवचन एवं उपदेश से बचना जरूरी है। संदेश दूध में मक्खन और गन्ने में मिठास की तरह घुला हो, पाठक स्वविवेक से उचित संदेश ग्रहण कर लेंगे। नकारात्मकता, निराशा, पलायन, कुंठा से बचते हुए सकारात्मक, आशा एवं विश्वास, चुनौतियों से जूझने एवं स्वयं की क्षमताओं से पहचान कराने वाला लेखन हो। वैश्विक चुनौतियों के समाधान, नित नये अनुसंधान एवं मानवजाति पर इसके अच्छे-बुरे प्रभाव पर लेखन हो।
वरिष्ठ साहित्यकार डॉ॰ आर॰पी॰ सारस्वत ने कहा कि आज जरूरत इस बात की है कि बच्चों की जरूरतों को ध्यान में रखकर नया साहित्य रचने की जरूरत है। उनकी जिज्ञासाओं को समझना भी जरूरी हैं विषयों की विविधता भी हो। सरलता, बोधगम्यता के साथ नवीनता आज के साहित्य में चाहिए। आज की चुनौतियों और उनसे पार पाने संबंधी रचनाएं ही नई पीढ़ी का आत्मबल बढ़ाएगी। गोविन्द भारद्वाज ने कहा कि कहानियों में ही निर्माण हैं सकारात्मकता है। साहित्य में श्रृवण, कहन और लेखन होता है। यह हमारे समग्र विकास में सहायक है। कभी व्यावसायिक-मिशनरी पत्रिकाएं थीं। अब धीरे-धीरे सब बन्द हो रही हैं। बुक स्टॉल ही खत्म हो रहे हैं। हमें भी अपने तरीके बदलने होंगे। पढ़ना चाहते हैं बच्चे लेकिन बच्चों तक पत्रिकाओं की पहुँच नहीं है।
देशबन्धु शाहजहाँपुरी ने कहा कि यकीनन साहित्य हमें समृद्ध करता है। साहित्य पढ़कर कई पाठकों का मन बदल जाता है। हाँ ! बच्चों तक साहित्य कैसे पहुँचे? वह कैसे साहित्य पढ़ने के लिए समय निकालें? इनके जवाब खोजने होंगे। किताबें जन्मदिन पर उपहार के तौर पर दी जा सकती है। साहित्य हमें उदार बनाता है।
डॉ॰ विभा शुक्ला ने कहा कि पत्रिकाएं अनवरत् चलनी चाहिए। नई पत्रिकाओं का उदय होना चाहिए। सकरात्मकता के साथ आगे बढ़ना चाहिए। बाल विमर्श होना चाहिए। बच्चों के लिए विविधता से भरा नायाब लेखन लगातार होना चाहिए। छपी हुई बातें मन-मस्तिष्क में अमिट छाप छोड़ती है। बच्चों तक बाल साहित्य पहुँचे इसके लिए साहित्यकारों, प्रकाशकों, शिक्षकों को भी प्रयास करने होंगे। डॉ॰विभा शुक्ला ने कहा कि कई तरह के विमर्श समाज में चलते रहते हैं। बाल विमर्श को भी निरन्तर किए जाने की आवश्यकता है।
साहित्यकार आशा पांडे ओझा ने कहा कि चरित्र निर्माण कोरे आदेशों से नहीं आता। मानव व्यवहार, परिवार और समाज से आता है। मानव व्यवहार को गढ़ने में साहित्य की बड़ी भूमिका है। माँ को बच्चों से संवाद जारी रखने होंगे। अभिभावक बच्चों की जरूरतों को पूरा करते हैं लेकिन किताब एक जरूरत बने। शिक्षकों को पढ़ने के लिए अवसर मुहैया कराने होंगें डॉँ राज गोपाल ने कहा कि बच्चों की संख्या लगातार कम हो रही है। ऐसा कहा जा रहा है। अच्छा रचनाकर्म हो और पहुँच हो तो बच्चे पढ़ना चाहते हैं। मोबाइल-टीवी अपनी जगह है। हमें रोचकता के साथ आगे बढ़ना होगा।
नमिता वैश्य ने कहा कि अभिभावक, शिक्षक, विशेषकर माँ साहित्य को फिर से समाज में लोकप्रिय बना सकती हैं। बच्चों को किताबें दें। उनकी रिकॉर्डिंग की जाए। नए माध्यमों की ओर जाना होगा।
एक सफल बाल साहित्य रचनाकार होने के मायने विषयक सत्र की अध्यक्षता करते हुए मराठी साहित्यकार राजीव ताम्बे ने कहा कि सिर्फ पुरस्कार-सम्मान और पुस्तकों की संख्या के मायने नहीं हैं। यह सफलताएं हो सकती हैं लेकिन सफलताओं की कोई सीमा नहीं है। कुछ नया करूँ। यह रचनाकार का चिन्तन होना चाहिए। सोचना-समझना और बच्चों के लिए नया क्या लिखा लिखूँ? यह चलते रहना चाहिए। बतौर रचनाकार हमारा तो दायरा है। हमारा जो शिल्प है उसे तोड़ने की ज़रूरत है। स्वयं नया सीखने की ललक होनी चाहिए। टैगोर ने बांग्ला में लिखा। टैगोर का लिखा कई भाषाओं में कैसे पहुँचा। रचनाकार को अपनी भाषा, राज्यों की भाषाएं, भारत की भाषाओं में क्या नया लिखा जा रहा है? इस सवाल का जवाब खोजना चाहिए। बच्चों के बारे में लगातार सोचना चाहिए। सरस पाठ कैसे लिखा जाए? इस पर लगातार काम करना होगा। बतौर रचनाकार मैं स्वस्थ हूँ। प्रसन्न हूँ। अच्छी बात है। लेकिन यह काफी नहीं। हमारे आस-पास का समाज भी स्वस्थ और प्रसन्न रहे। उन्हें ऐसा साहित्य दें जो सकारात्मक हो। मनोरंजन से परिपूर्ण हो। सीखने के अवसर लें और दें। हमारे साहित्य से तात्पर्य निकले। तात्पर्य के लिए साहित्य नहीं लिखें। हम बच्चों पर अन्याय न होने दें। अनजान बच्चों से बात करें। उनके नजदीक जाएं। बच्चों के लिए लिखता हूँ लेकिन बच्चों के बीच नहीं जाता। इससे काम नहीं चलने वाला है। बाल केन्द्रित साहित्य भी हो और हम भी हों।
इन्द्रजीत कौशिक ने कहा कि हम जीवन में भी सारगर्भित हों। हम भी उपयोगी हों। हमारी रचना उपयोगी हो। सारगर्भित हो और हमारी जीवन शैली जोड़ने वाली न हो तो कैसे चलेगा। हम रचनाकर्म करते समय पाठकों की छवि को भी ध्यान में रखें। मोबाइल को कोसने से काम नहीं चलेगा। साहित्य मोबाइल के जरिए पढ़ा जाए तो कैसा हो? हमारे रचने की सार्थकता तभी है जब समाज सकारात्मक हो। सब खुशहाल हों। उन्होंने कहा कि इक्कीसवीं सदी में इसकी आवश्यकता और अधिक हो चली है। सोशल मीडिया और डिजिटल मीडिया के युग में नई पीढ़ी के दिग्भ्रमित होने का खतरा बढ़ गया है। बच्चों का मार्गदर्शन भी चुनौतीपूर्ण हो गया है। ऐसे में अच्छा बाल साहित्य बच्चों को उपलब्ध करवाना अत्यंत आवश्यक है। बचपन में उचित मार्गदर्शन एवं मूल्यों से परिचित करवाने की भूमिका को अच्छा बाल साहित्य बखूबी निभा पाने में सक्षम हो सकता है।
बाल साहित्यकारों को भी समस्त पूर्वाग्रहों से दूर रहकर बच्चों को तार्किक और मनोरंजन से भरपूर नई सदी के अनुरूप रचनाओं का निर्माण करना चाहिए।
रावेन्द्र रवि ने आंचलिकता और स्थानीय संवादों को प्रमुख माना। उन्होंने कहा कि भाषा बनावटी न हो। प्रचलन की भाषा को शामिल करना होगा। बच्चों की भाषा में लिखना होगा। छपास रोगी से इतर हम बालमन के निकट हों। जीवन से संबंधित अनुभव दर्ज करें। सूक्ष्म अवलोकन करें। हम स्वयं भी संवेदनशील हों और साहित्य भी संवेदना से भरने वाला हो।
डॉ॰शील कौशिक ने कहा कि हमारी अभिव्यक्ति भी मायने रखती है। परिवेश, वातावरण और जुड़ाव हमारे साहित्य को रोचक बनाता है। हम बेसिर-पैर की न लिखे। सूफियाना फितरत, विचित्र, बच्चों को भा जाने वाला साहित्य, विविध विधाओं में लिखा जाए। नए, अलबेले, अलमस्त, विचित्र और नई दृष्टि देने वाले पात्र गढ़ें। उन्होंने कहा कि आज के तकनीक और वैज्ञानिक युग में बालक मोबाइल और सोशल मीडिया के सुपुर्द होकर समय से पहले परिपक्व और जागरूक हो रहा है। हम नए गैजैट्स पर रोक नहीं लगा सकते। लेकिन उनका सदुपयोग करना तो हमारे वश में है। आज गला काट प्रतिस्पर्धा की दौड़ में अभिभावक बच्चों की ओर समुचित ध्यान नहीं दे पा रहे हैं। संयुक्त परिवार वाली दादी-दादी, नाना- नानी, बुआ- फूफा, मौसी- मौसा वाली संस्कारशाला खत्म हो चली है। ऐसे में बाल साहित्यकारों की जिम्मेदारी अधिक बढ़ गई है। हमें बदलते परिवेश के साथ बच्चों की रुचि, भावना, भाषा और मनोवृतियों को समझ कर बाल साहित्य लिखना चाहिए। इसके लिए बच्चों के क्रियाकलापों में रुचि रखनी होगी, क्योंकि बालकों की औत्सुक्य और जादुई दुनिया से कटकर हम बाल साहित्य की रचना नहीं कर सकते। हमें नए जमाने के साथ कदमताल करते हुए उनसे आगे की सोच रखनी होगी और विषय संबंधी सार्वभौमिक ज्ञान रखना होगा। हमारी रचनाओं का स्वर उपदेशात्मक न होकर रोचकता से भरपूर और सहज परिचयात्मक होना चाहिए। अपनी रचनाओं में हम अलबेले, अनूठे पात्र लेकर आएँ जो अलमस्त हो और बालकों के मन पर जादू जैसा कुछ कर दें। उनमें नई दृष्टि नई कल्पना की उड़ान हो।
ओमप्रकाश क्षत्रिय ने कहा कि बाल साहित्य एक खिड़की है। पाठक इससे बाहर झांकता है। सोचने-समझने और सवाल करने की आदत बाल साहित्य से बनती है। कहानी विधा को ही लें तो पात्रों के जरिए पाठक गुण-दोष, अच्छा-खराब की परख करता है। अपने अनुभव के आधार पर किसी निष्कर्ष पर पहुँचता है। कल्पना शक्ति बढ़ती है। बच्चों को जानने में रचनाकार समय दें। उनके बात करे। उन्हें बोलने का अवसर दें।
अर्चना त्यागी ने कहा कि बचपन से ही यदि पढ़ने की आदत विकसित हो जाए तो वह आगे चलकर गंभीर अध्येता भी बनते हैं। सोचने-समझने का नजरिया अलग हो जाता है। सामाजिक सरोकार में अलग तरह की पहचान-भागीदारी बनती है। मिट्टी तो लगभग एक ही है लेकिन खाद-पानी-हवा और प्रकाश जैसा वातावरण हष्ट-पुष्ट वृक्ष बनाता है। साहित्य भी एक खुराक है। बाल मनोविज्ञान के साथ-साथ बदलते वातावरण की परख भी जरूरी है।
कैलाश त्रिपाठी ने कहा कि बालमनोविज्ञान और मनोविज्ञान की समझ का होना आवश्यक है। बालकों का क्या हमारा भी तो साहित्य सर्वांगीण विकास करता है। हमारे मनोविकारों को दूर करता है। सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामुदायिक स्तर पर साहित्य हमें चिन्तनशील प्राणी बनाता है। इसके लिए बतौर रचनाकार हमें और भी जागृत होना पड़ता है।
नयन कुमार राठी ने कहा कि बच्चों की भाषा, स्वभाव, गुण, आदतें पकड़ना जरूरी है। अपने समय को ध्यान में रखने की बजाय वर्तमान समय को ध्यान में रखकर सृजन किया जाना चाहिए। बच्चों को सुनना जरूरी है। उन्हें स्पेस देना जरूरी है। मौके देना जरूरी है। उनकी चिंता करना जरूरी है।
इस सत्र का संचालन कर रही बाल साहित्य की अध्येता एवं रचनाकार नीलम राकेश ने कहा कि मेरी दृष्टि में सच्चा बाल साहित्यकार वही है जो अनुग्रहीत महसूस करे कि देश, समाज, दुनिया की भावी पीढ़ी के चरित्र निर्माण में, उनके जीवन में कुछ योगदान देने का यह महत्वपूर्ण अवसर उसे मिला है या इसके लिए वह चुना गया है! साथ ही साथ उसके अंदर एक लेखक के रूप में यह पाँच गुण भी होने चाहिए। निरंतरता, विषय की नवीनता, बालमन की समझ, बच्चों से सीधा संपर्क और सरल, संप्रेषणीय भाषा। नीलम राकेश ने सुझाया कि एक अच्छा बाल साहित्यकार बनने के लिए एक अच्छा पाठक होना, परकाया प्रवेश, ज्ञान बघारने से बचना, बालक की उम्र के दायरे में रहना और नए-अनछूए विषयों पर लिखना कार्य करते रहना चाहिए।
तीन दिवसीय संगोष्ठी में सत्रों के मध्य रोचका गतिविधियाँ भी रहीं। साहित्यकारों ने चिल्ड्रन’स पीस पैलेस में बाल मनोविज्ञान पर आधारित विभिन्न दीर्घाओं का अवलोकन किया। इस परिसर में शानदार संग्रहालय भी है। मानव समाज को समझने की कई दीर्घाएं हैं। स्वस्थ समाज की परिकल्पना के साथ बाल संसद का नमूना भी है। जहां अभिनय के साथ संसद का अनुभव लिया जा सकता है।
संगोष्ठी के दूसरे दिन सभी साहित्यकारों को टीम के तौर पर राजसमन्द के इकतीस विद्यालयों में भेजा गया। इसे बाल साहित्य संवाद नाम दिया गया। साहित्यकारों ने कक्षा पाँच से लेकर कक्षा 10 तक के विद्यार्थियों के समक्ष अपनी लोकप्रिय विधा में प्रस्तुति दी। इसके साथ-साथ साहित्य में विधाओं की रचना प्रक्रिया साझा की। विद्यार्थियों से संवाद भी किया। विद्यालयों में एक से डेढ़ घण्टा बिताना यादगार रहा। विद्यार्थियों के साथ विद्यालयी शिक्षक-संस्थाध्यक्ष भी आनन्दमयी हो गए। एक साथ एक क्षेत्र में लगभग एक हज़ार विद्यार्थियों के साथ बाल साहित्य संवाद अभिनव प्रयोग रहा। बाल साहित्य संवाद में आदर्श विद्या मन्दिर, हाउसिंग बॉर्ड, कांकरोली, अपेक्स सीनियर सेकण्डरी स्कूल, धोइन्दा सिविलाइजेशन सीनियर सेकेंडरी स्कूल, पीपरड़ा, क्रियेटिव ब्रेन अकेडमी, गुंजोल, गांधी सेवा सदन, राजसमन्द, इन्द्रप्रस्थ पब्लिक स्कूल, एमड़ी, गायत्री पब्लिक स्कूल, धोइन्दा, जवाहर नवोदय विद्यालय, राजसमन्द, जीवन ज्योति पब्लिक स्कूल, पीपरड़ा, लक्ष्मीपत सिंघानिया स्कूल, राजसमन्द, मातेश्वरी विद्या मन्दिर, हाउसिंग बोर्ड, कांकरोली, नवप्रभात उच्च माध्यमिक विद्यालय, एमड़ी, नोबल पब्लिक स्कूल, भावा, आरेन्ज काउण्टी स्कूल, राजसमन्द, प्रगति पब्लिक स्कूल, एमड़ी, राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, एमड़ी, राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, धोइन्दा, राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय, लवाणा, राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, पीपरड़ा, राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, बोरज, राजकीय बालिका उ. मा. विद्यालय, कांकरोली, राजकीय बालिका उ. मा. विद्यालय, राजनगर, राजकीय विवेकानन्द उ.प्रा. विद्यालय, सूरजपोल, राजकीय बाल कृष्ण उ. मा. विद्यालय, कांकरोली, राजकीय महात्मा गांधी स्कूल, राजनगर, सविता इन्टरनेशनल सेकेंडरी स्कूल, नान्दोली, सविता इन्टरनेशनल स्कूल, राज्यावास, स्मार्ट स्टडी इंटरनेशनल स्कूल, गुंजोल तथा सोफिया पब्लिक स्कूल, भावा, सुभाष पब्लिक स्कूल तथा कांकरोली सनराइज पब्लिक स्कूल, राजनगर शामिल रहे।
तीसरी सुबह साहित्यकारों को राजसमन्द से लगभग चार किलोमीटर की दूर पर स्थित नौ चौकी पाल पर ले जाया गया। यहाँ झील किनारे अणुविभा के साथियों डॉ॰नीलम जैन और देवेन्द्र के नेतृत्व में ध्यान और योग शिविर लगाया गया। बाद में स्थल पर ही लौकी-जीरा-कालीमिर्च युक्त पेय पदार्थ ने समां बाँध दिया।
समापन सत्र भी बालकेन्द्रित रहा। साध्वीश्री डॉ. परमप्रभा जी ने तीनों दिन की समूची प्रक्रिया को विस्तार से जाना। उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि धर्मगुरुओं और साहित्यकारों का प्रयास होता है कि बालकों में भारतीयता के संस्कारों का बीजारोपण हों एक स्वस्थ समाज, शांति का समाज बने। इंटरनेट की वजह से आज बच्चों का बचपन खत्म होता जा रहा है। ऐसे में साहित्यकारों का दायित्व बनता है कि वे बच्चों के लिए स्वस्थ, सुसंस्कारित और बहुपयोगी साहित्य रचे। साध्वीश्री लब्धियशा जी ने कहा कि संत, साहित्यकार और सैनिक की त्रिवेणी देश के योगदान में महती भूमिका निभाते हैं। उन्होंने कहा कि राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने कहा था कि यदि आपके पास दो डॉलर हैं तो आप एक डॉलर से रोटी खरीदें और दूसरे डॉलर से पुस्तक खरीदें। रोटी आपका जीवन बचाएगी और किताब आपको जीने की कला सिखाएगी। उन्होंने कहा कि ‘बच्चों का देश’ पत्रिका में बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक के लिए महत्वपूर्ण सामग्री होती है।
अणुविभा के अध्यक्ष अविनाश नाहर ने कहा कि अणुव्रत आंदोलन के तहत अणुविभा की ओर से चौवन प्रकल्प संचालित हैं। उन्होंने साहित्यकारों से साहित्य सृजन के साथ ही अणुविभा के किसी प्रकल्प से जुड़कर अणुव्रत आंदोलन के प्रसार में सहभागी बनने का भी आह्वान किया। तेरापंथ विकास परिषद् के सदस्य पदम् चंद पटावरी ने अणुविभा के संस्थापक व बच्चों का देश के जनक मोहनभाई को याद किया। पच्च्ीस वर्षों पूर्व जिस बीज को बोया गया था वह आज वृक्ष बन गया है। इस पत्रिका के आगे बढ़ने की प्रचुर सम्भावना है। अणुविभा के प्रबंध न्यासी तेजकरण सुराणा ने अपने तीन दिन के अनुभव भी साझा किये। कार्यक्रम का संयोजन बच्चों का देश के संपादक संचय जैन ने किया और आभार ज्ञापन सह संपादक प्रकाश तातेड़ एवं अणुव्रत समिति राजसमंद के अध्यक्ष अचल धर्मावत ने किया। इस अवसर पर साहित्यकार आर॰ पी॰ सारस्वत सहित संभागियों के दल ने अणुव्रत गीत प्रस्तुत किया। कार्यक्रम में अणुव्रत लेखक पुरस्कार से सम्मानित फारुख अफरीदी, बच्चों का देश के प्रबंध संपादक पंचशील जैन, भिक्षु बोधि स्थल के अध्यक्ष हर्ष नवलखा, कांकरोली सभ के अध्यक्ष लाभ जी बोहरा, आर के मार्बल के आर बी मेहता, अणुविभा के उपाध्यक्ष डॉ विमल कावड़िया. सहमंत्री जगजीवन चोरडिया, डॉ सीमा कावड़िया सहित बड़ी संख्या में राजसमंद के गणमान्यजन उपस्थित रहे। इस अवसर पर ‘बच्चों का देश’ पत्रिका के संपादक संचय जैन और सह संपादक प्रकाश तातेड़ ने अणुविभा अध्यक्ष अविनाश नाहर को पत्रिका के रजत जयन्ती विशेषांक की प्रति भेंट की। समारोह में अणुविभा अध्यक्ष अविनाश नाहर ने मुख्यालय से जुड़े कार्यकर्ताओं को स्मृति चिह्न देकर सम्मानित किया। समापन अवसर पर भी प्रतिनिधित्व के तौर पर दिल्ली के दिविक रमेश, भोपाल के परशुराम शुक्ल और लखनऊ के सुरेंद्र विक्रम ने तीन दिवसीय आयोजन को बेहतरीन बताया। सभी ने माना कि जिस सकारात्मक माहौल में यह आयोजन हुआ है। गंभीर और जनोपयोगी चर्चाएं हुई हैं। सार रूप में बीकानेर की संगीता सेठी, भोपाल की लता अग्रवाल, गाजियाबाद के रजनीकांत शुक्ल, उदयपुर की आशा पांडेय और उत्तराखण्ड के मनोहर चमोली ‘मनु’ ने अपने अनुभव साझा किए। समापन सत्र के प्रारम्भ में गायत्री पब्लिक स्कूल धोइंदा के बच्चों ने ‘मैं हूँ बच्चों का देश’ लघु नाटिका का मंचन किया। सब रंगों का समावेश, भारत देश हमारा देश को चरितार्थ करता यह बाल साहित्य समागम हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई। सब धर्म समभाव की झलक भी दिखा गया। कुछ साहित्यकार 15 अगस्त की अल्ल-सुबह आ गए तो आयोजन स्थल पर ही भारतीय ध्वज फहराया भी फहराया गया।

प्रस्तुति: मनोहर चमोली ‘मनु’
सम्पर्क: 7579111144
मेल: chamoli123456789@gmail.com

14 अप्रैल 2024

बाल साहित्य पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है: लोकेश नवानी

बाल साहित्य पर गंभीर चिंतन प्राय होते ही नहीं 


बाल साहित्य मनुष्यता के बीज बोने में अहम भूमिका निभाता है


बाल साहित्य को बचकाना साहित्य या बवाल साहित्य कहने वालों की समझ स्पष्ट करने के लिए कई प्रयास देश भर में हो रहे हैं। दरअसल बाल साहित्य की महत्ता और उसकी प्रासंगिकता को समझने में हिन्दी पट्टी के शिक्षक, अभिभावक और स्वयं पाठक भी अभी गंभीर नहीं हैं। धाद सामाजिक संस्था के साहित्य एकांश लम्बे समय से बाल साहित्य पर केन्द्रित गोष्ठियों का आयोजन करता रहा है। इसी कड़ी में मार्च 2024 के अंत में एक आयोजन स्वयं में यादगार बन पड़ा है।  

उत्तराखण्ड का लोकपर्व फूलदेई के अवसर पर आयोजित बाल साहित्य विमर्श पर सभी ने माना कि आज बाल साहित्य को आधुनिक, वैज्ञानिक और यथार्थवाद का पक्षधर होना चाहिए। धाद के संस्थापक लोकेश नवानी ने सभी का आभार जताते हुए अपने अध्यक्षीय संबोधन में कहा कि चेतना से समृद्ध होते हुए बाल चेतना से भी समृद्ध होना अच्छा रहा। उन्होंने कहा कि गोष्ठी की सार्थकता यहां दिए गए वक्तव्यों से सफल प्रतीत होती है। 

लोकेश नवानी ट्रांजिस्ट हॉस्टल में धाद की इकाई साहित्य एकांश द्वारा आयोजित फूलदेई कार्यक्रम में बतौर अध्यक्ष बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि सामाजिक पहल बहुत ज़रूरी है। हमें समझना होगा कि गोष्ठी में गंभीर विमर्श बेहद आवश्यक है। आज की गोष्ठी दिशा देती है। हमें समझना होगा कि बच्चों में मनुष्य होने की जिज्ञासा बढ़े। इसकी आवश्यकता है। धाद के विविध कार्यक्रमों में साहित्य एकांश की गतिविधियाँ अलग से रेखांकित होती हैं। कक्षा कोना का गतिविधि भी सफल रही हैं। हमारे आयोजनों में एकाग्रता बढ़नी चाहिए। गंभीर विमर्श के लिए चिन्तन-मनन के साथ सुना जाना भी खास है। आज मनुष्य होने की जिज्ञासा बाल मन में जगे और बनी रहे। इसके प्रयास जरूरी हैं। 

धाद के अध्यक्ष एवं संस्थापक लोकेश नवानी ने कहा कि बाल साहित्य के साथ-साथ बाल साहित्य सुनाना आज आवश्यक हो गया है। चेतना का जो स्तर है वह बढ़ना चाहिए। साहित्यकार वैचारिक दूत होते हैं। वह सच और यथार्थ को आगे बढ़ाते हैं। साहित्य एकांश को चाहिए कि विद्यालयों के प्रधानाचार्यों के साथ भी इस तरह की गोष्ठी हो। सही बात तो यह है कि किताबें पढ़ी जानी चाहिए। देहरादून के जाने-माने साहित्यकार यहाँ हैं। उन्हें बच्चों को कहानियाँ सुनानी चाहिए। लोकेश नवानी ने अपने बचपन के किस्से भी याद किए और कहा कि बाल मन के विस्तार के लिए देहरादून के कम से कम पचास प्रधानाचार्यों के साथ भी किताबों के पढ़ने के लिए आयोजन की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि बाल साहित्य कैसा हो? यह विमर्श बहुत जरूरी है। समाज में कई तरह के प्रतिबन्ध बच्चों पर लगाए जाते रहे हैं। जैसे मैं अपनी बात कहूँ कि मनुष्यता के बीज बालमन में बाल साहित्य ही जगा सकता है। बचपन में जंगल में जाने से मना किया जाता था। जब बड़े हुए और जंगल देखा तो नवीन जानकारियाँ मिलीं। आज बच्चों में मौलिक विचार और वैज्ञानिकता का विकास होना चाहिए। बाल साहित्य में यथार्थवाद, मानवता और विकासवाद की बात होनी चाहिए। 

लोकेश नवानी ने कहा कि मेरी अपनी समझ में कोई भी राजा अच्छा नहीं हो सकता। अवाम का शोषण करने वाला राजा भला कैसे हो सकता है! लेकिन राजाओं के भले होने और न्यायप्रियता की कहानियां बहुत हैं। सच की कहानियाँ भी लिखी जानी चाहिए। बाल साहित्य मनुष्यता के बीज बोता है। उन्होंने सुझाया कि साहित्य विचार का विकास करे। वैज्ञानिकता का विकास करे। बाल साहित्य यथार्थ, विज्ञान और मानवता की बात करे। उन्होंने दोहराया कि राजा किसी भी रूप में व्यावहारिक तौर से देखें तो अच्छे नहीं माने जा सकते। किसी भी राजा ने गरीबों का भला नहीं किया। उन्होंने शोषण ही किया। 

विज्ञान ही हमें आगे बढ़ाएगा। बच्चे धर्म और जाति को अपनाते हुए बड़े होते हैं। यदि उन्हें साहित्य नहीं दिया गया तो वह कई तरह की जकड़न के साथ बड़े होते हैं। वहीं साहित्य मनुष्य बनने के लिए प्रेरित करता है। आधी दुनिया की महिलाओं को भी समाज की कहानियाँ लिखनी चाहिए। आज भी लड़कियों के लिए लिखा गया साहित्य कम है। दुनिया की लड़कियों के लिए भी साहित्य लिखा जाना चाहिए। आधी दुनिया भी इस काम को करे। बच्चे की बेहतर मनुष्य की आस्था की बुनियाद बाल साहित्य से ही पड़ सकती है। इतिहास है कि धार्मिक व्यवस्था और धर्म आधारित साहित्य हमें पीछे ले जाता है। 


यही कारण है कि बचपन में ही सब तरह के जाति, धर्म, सामाजिक विद्वेष के बीज बो दिए जाते हैं। बच्चों को जिस तरह के गीत सिखाएंगे वह उन्हें गाएगा। बचपन में जो भर दिया जाता है जीवन भर के साथ चलता है। कितना अच्छा हो कि मानवता के और संवेदनशीलता के गीत बच्चों को सुनवाएँ जाएं। वे उन्हें गाएँ। सुन्दर दुनिया बनाने के लिए बच्चे अहम हैं। वन्य जीवन के शिकार की कहानियों से इतर पशुओं के साथ प्रेम की और उनके साथ संवेदनशीलता की कहानियां लिखी जानी चाहिए। आधुनिक समय की कहानियों को लिखा जाना चाहिए। आज भय भरने की जरूरत नहीं है। चेतना के स्तर को, सामाजिकता और सहभागिता को बढ़ाने की जरूरत है। आज धर्म और जाति-सम्प्रदाय से इतर मनुष्यता की बात होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि बच्चे की आस्था में मनुष्यता प्राथमिक हो। यह कैसे होगा? बाल साहित्य से ही यह संभव है। उन्होंने कहा कि हम सब जानते हैं कि बच्चा जो देखेगा, सुनेगा आस-पास जिएगा वह वैसा ही हो जाएगा। सिर्फ मनुष्य बने रहने की कहानियां कौन लिखेगा? लोकेश नवानी ने कहा कि चेतना का प्रगतिवादी स्तर साहित्यकारों में निहित होता है। उन्हें ही आगे आकर सकारात्मक, यथार्थ से भरा साहित्य लिखना होगा। दुनिया को सुन्दर, समृद्ध और खुशहाल बनाने के लिए आगे आना होगा। बच्चों में भय, भूत,जातिवाद और धर्म के बीज बचपन में ग्रहण करवाएं जाते हैं। मनुष्य होने के बीज ग्रहण कराए जाने की आज ज़्यादा आवश्यकता है। मानवीय दृष्टि की आज नितांत आवश्यकता है। 

फूलदेई को समर्पित इस शाम की केन्द्रीय बिन्दु यह रहा कि बच्चों को आधुनिक समय की कहानियाँ सुनवाई जाएं। भय भरने से इतर संवेदनाएँ जगाने का काम हो। इस अवसर पर सुप्रसिद्ध बाल साहित्यकार डॉ॰ कुसुम नैथानी ने बाल साहित्य के इतिहास और उसकी आवश्यकता-सार्थकता पर विस्तार से चर्चा की। उन्होंने बच्चों के वय वर्ग पर भी विस्तार से चर्चा की। डॉ॰ कुसुम नैथानी ने कहा कि समय के साथ-साथ बाल साहित्य भी बदला है। पहले सीख-सन्देश, परी-राजा आदि का साहित्य लिखा जाता रहा है। आज यथार्थ से भरा, आधुनिक समय का साहित्य बच्चों के लिए लिखा जा रहा है। बाल साहित्य की दिशा और दशा पर भी कुसुम नैथानी ने विस्तार से चर्चा की। उन्होंने चंदामामा के आधुनिक भाव-बोध को भी अपने वक्तव्य में रखा। उन्होंने बाल साहित्य की अवधारणा प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिकता की श्रेणी में रखते हुए अपनी बात की। डॉ० कुसुम रानी नैथानी ने कहा की वह साहित्य ही बाल साहित्य जिसे बच्चों के मानसिक स्तर को ध्यान में रखते हुए लिखा गया हो। इसमें रोचक कहानी और कविता प्रमुख हैं। बाल साहित्य बच्चों का मनोरंजन ही नहीं करता अपितु उन्हें जीवन की सच्चाइयों से भी परिचित कराता है। आज का बच्चा कल का भावी नागरिक है। वे जैसा साहित्य पढ़ेंगे, उसी के अनुरूप उनके चरित्र का निर्माण होगा। उन्होंने कहा कि साहित्यकारों की नजर में बाल साहित्य ऐसा होना चाहिए जो बच्चों की जिज्ञासाओं को शांत करे। उनकी रुचियों को परिष्कृत करे। उन्हें सामाजिक तौर पर संस्कारित भी करे। बाल साहित्य का उद्देश्य विश्व कल्याण, विश्व बंधुत्व और मानव को एक अच्छा इंसान बनाने का भी होना चाहिए। इसके अलावा सबको आपस में जोड़ना और एक आदर्श समाज की स्थापना करना भी बाल साहित्य का प्रमुख उद्देश्य है। अच्छा साहित्य बच्चों की दशा और दिशा दोनों को ही बदलने में सक्षम होता है।

गौरतलब हो कि धाद ने दस हजार बच्चों तक पहुँचने का फूलदेई अभियान संचालित किया है। कोना कक्षा के संयोजक गणेश उनियाल ने कहा हमारा प्रयास है कि हम हर बच्चे और हर स्कूल तक पहुंचें। आज के इस विमर्श का उद्देश्य है कि आप सभी के सहयोग से हमें उच्च कोटि का साहित्य बच्चों तक पहुंचाने में मार्गदर्शन मिले। हमारी साहित्यिक जानकारी वह भी बाल साहित्य में कम हो सकती है। हम सामूहिक प्रयासों से आगे बढ़ते रहे। धाद का यही मंतव्य है। उन्होंने कहा कि अपने विस्तार कार्यक्रम के अंतर्गत हमने 2019 में ‘मेरे गांव का स्कूल’ अभियान शुरू किया था। जिसका बहुत अच्छा परिणाम मिला। समाज अपने गांव के स्कूल से जुड़ने के लिए आगे आया। वर्तमान में शहरी और ग्रामीण शिक्षा में बहुत अंतर है। ग्रामीण विद्यालयों में बहुत कुछ किया जाना बाकी है। अभी हाल ही में विद्यालयों की बेहतरी के लिए मेरे गांव का स्कूल मवाधार के नाम से एक नया अध्याय शुरु किया गया है। जिसमें वहां के पूर्व छात्रों व समाज के सहयोग से विद्यालय में आवश्यक संशाधन जुटाने के लिए प्रयास किये जा रहे हैं। हम चाहते हैं कि सरकार के प्रयासों के साथ ही समाज भी स्कूलों की बेहतरी के लिए आगे आये। एक कोना कक्षा का कार्यक्रम के निरंतर विस्तार के मूल में हमारे सहयोगी एवं विद्यालयों के शिक्षक हैं जिनके सहयोग से हम इसका संचालन कर पा रहे हैं। अभी हमारे पास 47 विद्यालय प्रतीक्षा सूची में हैं। विद्यालयों का यह उत्साह हमारे लिए प्रेरणा दायक है।

इस अवसर पर बाल साहित्य की अवधारणा, उद्देश्य, विचार एवं चुनौतियाँ विषय वक्ताओं के केन्द्रीय विषय रहे। धाद साहित्य एकांश की सचिव कल्पना बहुगुणा ने बताया कि एक कोना कक्षा मे किताबों के चयन की प्रक्रिया निरंतर बेहतर बनाने का प्रयास किया जाता है। हमारा प्रयास बच्चों तक दुनिया की सबसे बेहतरीन पुस्तकें पहुँचाना है। उन्होंने साहित्य एकांश के विविध आयोजनों पर विस्तार से चर्चा की। उन्होंने बताया कि आने वाले समय में साहित्य एकांश साहित्यकारों, बच्चों, अभिभावकों को जोड़ने का कार्य करेगा। कार्यशालाएं संचालित करेगा। कार्यक्रम का संचालन धाद साहित्य एकांश की संयोजक डॉ. विद्या सिंह ने किया। कार्यक्रम मे तन्मय ममगाई, मोनिका खण्डूरी, सुनीता चौहान, सीमा कटारिया, रुचि सेमवाल, डॉली डबराल, मुकेश नौटियाल, कल्पना बहुगुणा, राजीव पंतरी, डॉ॰ उषा रेणु, विष्णु तिवारी, नीलम प्रभा वर्मा, सुधा जुगराण, सत्यानंद बडूनी, उषा चौधरी, सलोनी चौहान, रितिक कुमार, वीरेंद्र डगवाल, डॉ॰ राजेश पाल, इंदु भूषण सकलानी, विजय भट्ट, प्रज्ञा खण्डूरी, आशा डोभाल,इंदुभूषण सकलानी, कांता घिल्डियाल, डॉ॰ रामविनय सिंह, असीम शुक्ल, शिवमोहन सिंह, मनोज पंजनी, उषा झा, अनीता सब्बरवाल, दिनेश सब्बरवाल, राजेश्वरी सेमवाल,शांति प्रकाश जिज्ञासु, सतेन्द्र बडोनी, डॉली डबराल आदि मौजूद थे। 

प्रस्तुति: मनोहर चमोली ‘मनु’
आयोजक: धाद साहित्य एकाँश

26 मार्च 2024

इंटरनेट में हिन्दी साहित्य का भविष्य

ब्लॉग्स की दुनिया ने संपादक और लेखकों की ताकत बढ़ाई है

-मनोहर चमोली ‘मनु’

यह इक्कीसवीं सदी है। सही है। सूचना तकनीक का युग है। सहमत ! मनोरंजन के कई साधन आ गए हैं। यह भी सही है। गैजेट्सों की भरमार है। सही बात है। पढ़ना-लिखना कम हो गया है। यह बात सही नहीं है। समाज साहित्य से विमुख होता जा रहा है। यह घोषणा भी गलत है। यह बात ज़रूर है कि पढ़ने-लिखने के तौर-तरीके बदल गए हैं। परम्परागत तरीके भले ही कम हुए हैं। लेकिन नए तरीके तेजी से बढ़े हैं।


भारत में हिन्दी साहित्य को लेकर कई भ्रम बदस्तूर जारी हैं। मसलन, हिन्दी साहित्य लचर है। गुणवत्तापरक नहीं है। हिन्दी साहित्य के पाठक कम हैं। हिन्दी साहित्य में किताबें अब बहुत कम छप रही हैं। हिन्दी साहित्य की पत्र-पत्रिकाओं की संख्या लगातार कम होती जा रही हैं। ऐसा प्रचार खू़ब किया जा रहा है। लेकिन यह सब सच नहीं है। दरअसल, हमारे आस-पास सुविधाएं बढ़ती जा रही हैं। हम सुविधाभोगी होते जा रहे हैं। हमारी स्मृति स्थाई की बजाय अस्थाई होती जा रही है। मेल-जोल और पहुँच का दायरा विस्तार पाने की जगह संकुचित होता चला जा रहा है।

नामचीन पत्रिकाएँ बंद होती जा रही हैं। यह बात सही है। लेकिन छपने वाली कई पत्रिकाएँ लगातार बढ़ रही हैं।
आज जब एक फोन या क्लिक करने पर चीज़ें उपलब्ध हो जाती हैं। वहीं अब तीन या चार मोबाइल नंबर तक याद रखना गैर-ज़रूरी मान लिया गया है। कह सकते हैं कि शायद, इसकी ज़रूरत भी नहीं है। क्यों दिमाग को इस तरह के अभ्यास में व्यस्त किया जाए! समय के साथ-साथ मनोरंजन के साधन भी बदलते हैं। मन-मस्तिष्क को सुकून देने वाले माध्यम भी बदलने ही हैं। यही बात हिन्दी साहित्य के साथ भी हुई है। हिंदी साहित्य ने पत्र-पत्रिकाओं से इतर भी अपना दायरा बढ़ाया है। काग़ज़ पर छपना ही प्रकाशन नहीं है। यह कहना तो निराधार ही है कि हिन्दी साहित्य प्रकाशित ही नहीं हो रहा है। यह भी कि प्रमुख पत्रिकाएं बंद हो गई हैं तो वर्तमान में जो प्रकाशित हो रही हैं वह प्रमुख नहीं हैं !


हिन्दी साहित्य प्रचुर मात्रा में आज भी प्रकाशित हो रहा है। इंटरनेट पर प्रकाशित हिन्दी साहित्य ने आनन्द के नए द्वार खोल दिए हैं। ‘हिन्दवी’ की बात करें तो अकार पत्रिका के पचास अंक यहाँ उपलब्ध हैं। 3391 पुस्तकें यहाँ उपलब्ध हैं। कविताओं की पुस्तकें, कहानियों की, उपन्यास के साथ-साथ जीवनी विधा में प्रचुर सामग्री यहाँ उपलब्ध हैं। बाल साहित्य की बात करें तो सत्तासी कविताएँ, दस पद, एक लघुकथा सहित चार अन्य रचनाएँ भी यहाँ उपलब्ध हैं।


‘हिन्दीनेस्ट’ ऐसी ही एक नायाब ई-पत्रिका है। यह भी विविधता से भरी हुई है। कहानी, कविता, कार्टून, निबन्ध, डायरी, व्यंग्य, संस्मरण, साक्षात्कार सहित साहित्य के विविध रूप यहाँ हैं। बच्चों की दुनिया भी यहाँ ख़ूब है। हिन्दीनेस्ट में अ से ज्ञ वर्ण के क्रम में देखे तो लगभग तीन हज़ार कहानियाँ आपको यहाँ पढ़ने को मिल जाएंगी। ‘समालोचन’ इस वक़्त सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली वेब पत्रिका मानी जाती है। यह साहित्य के साथ-साथ कला, वैचारिकी, आलोचना और सम-सामयिक मुद्दों पर अपनी प्रखरता के लिए प्रसिद्ध है। यह चौदह सालों से प्रकाशित हो रही है। साहित्य की सैकड़ों रचनाएं यहाँ प्रकाशित हैं।


‘हिंदी समय’ महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय का अभिक्रम है। उपन्यास, कहानी, व्यंग्य, बाल साहित्य, विविध विधाएं, अनुवाद, नाटक, निबंध, आलोचना और विमर्श इसकी खासियत है। हालांकि लम्बे समय से पत्रिका में नई रचनाएं शामिल नहीं हो रही हैं। लेकिन, जो उपलब्ध है वह बहुत ही पठनीय, मानीखेज और उपयोगी है। सैकड़ों नई-पुरानी रचनाएं इस मंच पर उपलब्ध हैं। ‘गद्य कोश’ भी विपुल साहित्य के लिए जाना जाता है। इसका फलक बहुत बड़ा है। यह इसलिए भी लोकप्रिय है कि इसको समृद्ध करने वाले साहित्यिक मानस स्वयंसेवी भावना से जुड़े हुए हैं। इसे साहित्य का विश्वकोश भी कहा जाता है। इसकी पठनीयता और व्यापकता का अंदाज़ा महज़ इस बात से लगाया जा सकता है कि अकेले गद्य कोश में बीस हजार से अधिक पन्ने उपलब्ध हैं। कुछ पन्ने तो एक लाख से अधिक बार पढ़े जा चुके हैं। प्रेमचंद की कहानियों को पढ़ते हुए उनके विवरण मात्र को छह लाख से अधिक बार पढ़ा जा चुका है। हर रोज़ लाखों पाठक यहाँ विचरण करते हैं।


‘कविता कोश’ में काव्य साहित्य है। यह भी बेजोड़ है। 2006 से आरम्भ की गई कविता कोश की यात्रा अनवरत् जारी है। यहाँ डेढ़ लाख से अधिक पन्ने हैं। लगातार स्वयंसेवी भावना से कई लोग इसे समृद्ध करते हैं। कई भारतीय भाषाओं सहित विदेशी भाषाओं का पद्य साहित्य अनुवाद होकर यहां संकलित किया जा रहा है। कविता कोश में शामिल कवियों की रचनाओं को उनके परिचय के साथ दिया गया है। कबीर का परिचय ही नौ लाख से अधिक पाठकों ने पढ़ लिया है! कमाल है! ‘सदानीरा’ भी इंटरनेट पर शानदार ई-पत्रिका है। यह दसवें साल में है। यह विश्वस्तरीय कविताओं का मंच है। हालांकि यह कलाओं को भी प्रमुखता देती है। लेकिन काव्य का आस्वाद यहाँ अलहदा है। यह दो हजार तेरह से संचालित है। अब यह हिंदी गद्य को भी शामिल करने पर विचार कर रही है। हालांकि सदानीरा के केंद्र में कविताएं ही हैं। इसकी पठनीयता भी बेहद समृद्ध है।


‘अनुनाद’ भी इंटरनेट पर एक बेहतरीन मंच है। आलोचना, समीक्षा, कथेतर गद्य, कविता, कहानी के साथ समाज और संस्कृति के विचारोत्तेजक आलेख यहां पाठकों की खुराक हैं। सन् दो हजार सात से कविता अनुभाग में ही देखें तो नामचीन कवियों की लगभग चार सौ से अधिक कविताएँ यहाँ उपलब्ध हैं। पीडीएफ के तौर पर पांच अंक भी यहां शामिल हैं। साहित्य और समाज का दस्तावेजीकरण को समर्पित ‘अपनी माटी’ अपने रंग-तेवर के लिए अलग स्थान रखती है। इसका प्रकाशन तिमाही है। कला, साहित्य, रंगकर्म, सिनेमा, समाज, संगीत, पर्यावरण और समाज विज्ञान पर विपुल सामग्री यहाँ उपलब्ध है। साल दो हजार नौ से इस मंच पर एक हजार तीन सौ से अधिक लेख मौजूद हैं। लाखों क्लिक इस पत्रिका के लिए हो चुके हैं।


‘फारवर्ड प्रेस’ लाखों भारतीयों की आकांक्षाओं का प्रतीक है। सम-सामयिकी, समाज और संस्कृति, हमारे नायक के साथ यहाँ नियमित किताबों पर बातें होती हैं। साहित्य यहाँ अलग कोना है। हालांकि रचनाएं कम रचनाओं पर अधिक बातें यहाँ होती हैं। साहित्य और साहित्यकारों पर सारगर्भित लेख, विचार और चिन्तन इसका केन्द्रीय भाव लगता है। कबीर, सूर से लेकर आधुनिक रचनाकारों के रचनाकर्म पर बेजोड़ चिन्तन यहाँ तर्क के साथ दिखाई देता है। ‘हिन्दवी’ तेजी से लोकप्रिय हो रही है। कविता, कवि, गद्य के साथ शब्दकोश इसके प्राण हैं। सैकड़ों कवियों की हजारों कविताएँ यहाँ शामिल हैं। आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल, आधुनिक काल विभाजन यहाँ किया गया है। पाठक अपने पसंदीदा कवियों तक आसानी से पहुँच सकते हैं। नाम के पहले अक्षर से भी पाठक अपने पसंदीदा कवि तक पहुँच सकते हैं। पाठक यहाँ गद्य खण्ड में उद्धरण, कहानी, निबंध, आलोचनात्मक लेखन, यात्रा-वृत्तांत, कहावत, संस्मरण, आत्मकथ्य, व्यंग्य, रेखाचित्र, पत्र, सिने लेखन, लेख, डायरी, एकांकी, साक्षात्कार, लघुकथा और नाटक पढ़ सकते हैं। रचनानिधि की बात करें तो यहाँ अब तक 3520 कवि दर्ज हैं। 16820 कविताएं अंकित हैं। 1390 पद हैं। 3843 से अधिक दोहे हैं। लगभग 400 लोकगीत शामिल हो गए हैं। इसे रेख़्ता फ़ाउण्डेशन संचालित करता है।


‘रचनाकार’ भी एक अच्छा मंच है। यहाँ पाठक बालकथा, लघुकथा, हास्य-व्यंग्य, कविता, आलेख, ग़ज़लें, व्यंग्य, नाटक, संस्मरण, उपन्यास, लोककथा, समीक्षा, कहानी, चुटकुला, विज्ञान कथा, ई-बुक स्तम्भ में विचरण कर सकते हैं। अकेले कहानी स्तम्भ में पाठकों को 300 से अधिक पन्ने पढ़ने को मिल जाएँगे। 3000 से अधिक पन्ने कविताओं के हैं। 2360 से अधिक कहानियों के पन्ने यहाँ हैं। 80 से अधिक बाल साहित्य के लिए पन्ने हैं। ‘हिन्दीकुंज’ भी एक मंच है। पाठकों को यहाँ विविध सामग्री पढ़ने को मिलती है। 6600 से अधिक पन्ने यहाँ हैं। हिन्दी व्याकरण, साहित्यिक लेख, हिंदी निबंध के तहत यहाँ रचनाओं को पढ़ा जा सकता है। हिंदी निबंध के तहत यहाँ 341 से अधिक पन्ने हैं।


बहुचर्चित पत्रिका ‘सरिता’ अब डिजिटल संस्करण पर भी उपलब्ध है। सरिता पत्रिका पाक्षिक है। 2019 से यह इंटरनेट पर उपलब्ध है। 120 से अधिक अंक यहाँ उपलब्ध हैं। पाठक जानते हैं कि सरिता में साहित्यिक सामग्री भी होती है। यह फिलहाल 399 रुपए की सदस्यता पर उपलब्ध है। यह सदस्यता सालाना है। सदस्यता पाते ही पाठकों को 50 से ज़्यादा ऑडियो कहानियां मिलती हैं। 7000 से अधिक कहानियाँ मिलती हैं। हर माह 50 से अधिक कहानियाँ पढ़ने को उपलब्ध हो जाती है। ‘वेब दुनिया’ कई भाषाओं का दैनिक मंच है। पाठक हिन्दी में क्लिक करते हुए समाचार सम-सामयिक मुद्दों, बॉलीवुड जैसे कॉनर्रों पर जा सकते हैं। लाइफ स्टाइल में एक उप कोना साहित्य का भी है। लाइफ स्टाइल में वीमेन कॉर्नर, सेहत, योग, एनआरआई, रेसिपी, नन्ही दुनिया, साहित्य और रोमांस भी है। लाइफ स्टाइल में साहित्य को क्लिक करने पर काव्य-संसार, कथा-सागर में पहुँचा जा सकता है। हालांकि इसे यह विशुद्ध साहित्यिक मंच नहीं कहा जा सकता। लेकिन सब तरह की जानकारियों-सूचनाओं और ख़बरों का जमावड़ा होने के साथ साहित्य भी यहाँ हैं। वेब दुनिया के पाठक बहुत हैं।


‘जानकीपुल’ के नियमित पाठकों की संख्या 7000 से अधिक है। इसे यू ट्यूब में भी देखा जाता है। कथा-कहानी इसका बहुचर्चित कोना है। पिछले पन्द्रह बरसों से जानकीपुल साहित्यिक पाठकों का खास मंच बना हुआ है। 250 से अधिक कहानियाँ यहाँ हैं। नामचीन के साथ नवोदितों की कहानियाँ भी आपको यहाँ पढ़ने के लिए मिल जाएँगी। हिन्दी में अनुदित कविताओं के लिए भी इस मंच पर सैकड़ों पाठक विचरण करते रहते हैं। जानकीपुल की लोकप्रियता का अंदाज़ा इसी बात पर लगा सकते हैं कि किसी एक पोस्ट पर कमेंट्स की संख्या 7000 हजार से भी अधिक हो जाती हैं। ‘अभिव्यक्ति’ मंच भी पाठकों के लिए इंटरनेट पर उपलब्ध है। 500 से अधिक कहानियाँ मंच पर उपलबध हैं। पत्रिका प्रत्येक सोमवार को प्रकाशित होती है। यहाँ भी विपुल सामग्री है। कविताएँ, नाटक, निबंध, संस्मरण, के साथ विविध विधाओं पर सामग्री है। यह 2003 से पाठकों के लिए उपलब्ध है।


‘लघुकथा डाट काम’ भी एक मंच है। यह पूरी तरह लघु कथा पर केन्द्रित है। यह बड़ी बात है कि लघु कथा और लघु कथाकारों के लेखन की मीमांसा भी यहाँ होती रहती है। यह दो हजार पन्द्रह से मासिक प्रकाशित हो रही है। लघुकथाओं पर केन्द्रित ऐसा प्रकाशन प्रायः देखने को कम ही मिलता है। अध्ययन कक्ष, चर्चा में, दस्तावेज़, देश, देशान्तर, पुस्तक, भाषान्तर, मेरी पसन्द, संचयन, वीडियो और ऑडियो के तौर पर स्तम्भ हैं।


भारत खासतौर पर हिन्दी पट्टी का साहित्य धीरे ही सही लेकिन इंटरनेट पर अपना प्रभाव जमाने लगा है। यदि साहित्य में निजी ब्लॉग भी जोड़ लें तो यह हजारों में हैं। छपने वाली पत्रिकाओं के कुछ गुण-अवगुण हैं। इसी तरह इंटरनेट पर उपलब्ध ई-पत्रिकाओं के भी गुण-दोष हैं। संपादन विशिष्टता का गुण माना जाता रहा है। पिछले आठ-नौ दशकों में उनका अपना स्थान था। इंटरनेट ने वह प्रभुत्व तोड़ा है। कह सकते हैं कि संपादन कला को त्वरित गति से बढ़ाया है। इंटरनेट पर प्रकाशन का कार्य छपने वाली पत्रिका से दस गुना अधिक है। पठनीयता, पठनीयता का प्रभाव और पश्चपोषण भी लेखक और पाठक को साथ-साथ तुरंत दिखाई दे जाता है। काग़ज़ पर छपने वाली पत्रिका के मामले में यह ज़्यादा समृद्ध है।


जंगल में मोर नाचा किसने देखा की तुलना साहित्य से तो नहीं की जा सकती है। लेकिन यह भी सच है कि किसी लेखक की रचना कागज़ पर छपने के बाद एक समय में नपे-तुले पाठकों तक ही पहुँचती थी। अब ऐसा नहीं है। सोशल मीडिया ने प्रचार-प्रसार को बढ़ाया है और उसकी पड़ताल पुख्ता की है। साहित्य में रचना का ट्रैण्ड करना साहित्य में नया है। अब साहित्य में लेखक, पाठक, प्रकाशक, संपादक सब किसी भी रचना के पढ़े जाने की संख्या और उसकी लोकप्रियता से वाकिफ हो जाते हैं। यह इंटरनेट की ताकत है। यह बात भी रेखांकित करने योग्य है कि इंटरनेट पर गुणवत्ता और क्लासिकता का कोई सेंसर नहीं है। आप और मैं भी किसी पत्रिका का संपादक हो सकते हैं। आप और मैं एक दिन में कुछ भी, कहीं भी और कितना भी रचना के नाम पर छाप सकते हैं।

जानकार इसे साहित्य के लिए घातक मानते हैं। लेकिन यह बात भी सही है कि अप्रभावी रचना को पाठक स्वयं ही इंटरनेट पर ख़ारिज कर सकते हैं। तत्काल टिप्पणी कर सकते हैं। पढ़ने में लगने वाले समय और किसी रचना की अनदेखी भी गिनी जा सकती है। कह सकते हैं कि प्रभावी रचना इंटरनेट के युग में अपनी पहुँच कई गुना तीव्र गति से बढ़ा सकती है। बतौर पाठक मुझे हिन्दी साहित्य का भविष्य कहीं भी खतरे में नज़र नहीं आता। इंटरनेट लिखने-पढ़ने में बाधक से अधिक सहायक नज़र आता है।


लेख में जिन पत्रिकाओं, ब्लॉग्स, वेब लिंक की चर्चा है वह सांकेतिक है। अंतरजाल पर पाठकों की अपनी पसंद के संदर्भ में दर्जनों अन्य लिंक्स भी मिलते हैं। प्रस्तुत ब्लॉग्स का उल्लेख किसी को सर्वोत्तम या कमतर बताना कदापि नहीं है।
॰॰॰
सन्दर्भ एवं स्रोत:

  1. Hindinest .com: Best Hindi web magzine in hindi on internet
  2.  समालोचन | साहित्य, विचार और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका (samalochan.com)
  3. Hindisamay.com हिंदी साहित्य सबके लिए
  4. http://gadyakosh.org
  5. kavitakosh.org
  6. विश्व कविता और अन्य कलाओं की पत्रिका | सदानीरा (sadaneera.com)
  7. अनुनाद (anunad.com)
  8. अपनी माटी (apnimaati.com)
  9. Hindi Home - Forward Press
  10. Hindi Kavita, Hindi Poems of famous poets | Hindwi
  11. https://www.rachanakar.org
  12. https://www.hindikunj.com/
  13. https://www.sarita.in/ 
  14. https://hindi.webdunia.com/
  15. Jankipul - A Bridge of World's Literature
  16. https://www.abhivyakti/
  17. लघुकथा | मार्च 2024 (laghukatha.com)    
    ॰॰॰
-मनोहर चमोली ‘मनु’ 
सम्प्रति: राजकीय इण्टर कॉलेज,केवर्स,पौड़ी गढ़वाल 246001 उत्तराखण्ड
सम्पर्क: गुरु भवन,निकट डिप्टी धारा, पौड़ी। मोबाइल-7579111144
मेल: chamoli123456789@gmail.com

14 मार्च 2024

उत्तराखण्ड का बाल पर्व : त्योहार एक नाम अनेक


कहीं फ्योंली, प्यूँली, फ्यूँली, फूलदेई, बालपर्व, फूल संगराद, फूल सग्यान ,फूल संग्रात, मीन संक्रांति तो कहीं गोगा के नाम से मशहूर है यह पर्व 

राजा-रजवाड़ों के समय की बात है। तब पहाड़ में गाँव,शहर या कस्बे नहीं हुआ करते थे। जनमानस ठेट हिमालय की तलहटी में, नदी किनारे और घने जंगलों की गोद में रहता था। पेड़, पहाड़, नदी, झरने, फूल और जंगली कंद-मूल ही उनके संगी-साथी थे। 
फ्यूंली एक लड़की थी। जीवन के बारह-तेरह वसंत भी नहीं देखे थे। उसे जंगली फल-फूल बहुत प्यारे थे। वह दिन भर पेड़-पौधों के साथ खेलती-कूदती। उसकी दोस्ती बुराँश,सरसों के फूल, लयया, आड़ू, पैंया, सेमल, गुरयाल, चुल्लू, खुबानी, पूलम के फूलों से खूब थी। उसे पीले फूल बहुत पसंद थे। हाड़ कंपाने वाला जाड़ा जब बीतता तो वह वसंत को धाद लगाती। वसंत आता। पेड़-पौधों के फूल सतरंगी हो जाते। वह झड़ चुके फूलों को यहाँ-वहाँ बिखेरती। सेंटुली, घुघती और घेंडूली, तितलियां, मधुमक्खियाँ और रिंगाल-अंगल्यार तक उसकी मदद करते।
एक दिन की बात है। किसी दूर देश का राजकुमार अपने शिकारी दल से बिछड़ गया। घने जंगल में फ्यूंली की खिलखिलाती हँसी का पीछा करता हुआ वह उसके पास जा पहुँचा। राजकुमार अपनी थकान भूल गया। वह खेलते रहे। शाम होने को आई तो राजकुमार को अपना देश याद आया। फ्यूंली ने कहा कि वह उसे छोड़ आती है। चलते-चलते वह बहुत दूर निकल आए। दोनों एक-दूसरे को चाहने लगे। राजकुमार ने फ्यूंली से विवाह कर लिया। फ्यूंली राजकुमार के संग चली गई। 
फ्यूंली क्या गई। जंगल उदास हो गया। पेड़-पौधों में आई रौनक गायब हो गई। पशु-पक्षी तक अपनी लय खो चुके थे। वहीं फ्यूंली को राजमहल के तौर-तरीके पसंद नहीं आए। कुछ ही दिन बीते थे। उसे अपने पहाड़, नीले आसमान, हरे-भरे जंगल, कल-कल करती नदी की लहरें और पक्षियों की चहचहाटों की खुद लगने लगी। फ्यूंली मैत जाना चाहती है। यह इच्छा किसी को रास नहीं आई। ऐसे अवसर भी आए जब फ्यूंली ने राजमहल लांघा। राजा, रानी और राजकुमार तक को यह बात पसंद नहीं आई। फ्यूंली के चारों ओर कड़ा पहरा लगा दिया गया। मैत की याद में एक दिन फ्यूंली ने दम तोड़ दिया। अल्पायु देह को चिता नहीं दी जाती! फ्यूंली को दफ़ना दिया गया। कुछ दिन बाद उस जगह पर पाँच पंखुड़ी वाला नया पीला फूल उग आया। देखते ही देखते आस-पास पीले फूूलों की पौध उग आई। 
खु़शबूरहित इस नए फूल का नाम फ्यूंली के नाम पर फ्यूंली ही रखा गया। फ्यूंली का फूल की ख़बर जैसे हवा, जल, प्रकाश, मिट्टी और पक्षियों को हो गई। दूसरे वसंत पर यह फ्यूंली का फूल जंगल-जगल जा फैला। जहाँ खाद, पानी और रोशनी नहीं पहुँचती थी, वह वहाँ भी उग आया। 

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एक किस्सा और याद आ रहा है। उसका भी उल्लेख कर लेते हैं- 

स्वर्ग में कोई उत्सव था। विष्णु खास अतिथि थे। उन्हें किसी एक फूल का पौधारोपण करना था। फूलों की कई प्रजातियों के पौधों में किसी एक का चुनाव किया जाना चाहिए था। पीले रंग की प्योंली गर्व से इतरा रही थी। उसने एक-एक कर सभी फूलों की पौध से कह दिया था कि विष्णु उसको ही स्वर्ग का खास पुष्प बनाएँगे। उसे अपने पीले रंग पर, सदाबहार होने पर और सुगन्धित खु़शबू पर घमण्ड हो गया था।
विष्णु आए। उन्होंने एक नज़र सभी पौध पर डाली। प्योंली के अलावा सभी फूल उन्हें कुछ उदास लगे। वहीं प्योंली ख़ूब महक रही थी। विष्णु मन की बात जान लेते थे। पल भर में ही वह सारा मामला समझ गए। बस! फिर क्या था! विष्णु ने कदंब की पौध को उठा लिया। वहीं प्योंली को धरती के लिए उपयुक्त माना। उन्होंने प्योंली की खु़शबू भी छीन ली। इसके साथ-साथ तभी से वह मात्र वसंत के आगमन पर ही खिलती है। कुछ ही दिनों के बाद प्योंली की पौध भी दूब-घास के सामने नेपथ्य में चली जाती है।   

आज मार्च की चौदह तारीख है। चैत्र माह की पंचमी का दिन। आज चैत्र माह का पहला दिन है। इसे चैत्र संक्राति भी कहा जाता है। आज ही से सुबह-सुबह नन्हे-मुन्ने बच्चों की खिलखिलाहटें सुबह होने से पहले घर की दहलीज़ पर सुनाई देती हैं। किवाड़ खुलते ही जंगली फूलों की महक के साथ आँगन भरने लगता है। यह वसंत की आहट है। बच्चों की हँसी, खिगताट और मस्ती के साथ घर-गाँव आज से महकने लगते हैं।

धीरे-धीरे फ्यूंली का कथा और फ्यूंली का फूल समूचे उत्तराखण्ड में कुछ इस तरह फैल गया कि लोक मानस ने इसे वंसत के आगमन से जोड़ दिया। चूँकि फ्यूंली खुद एक छोटी बालिका थी तो इस लोक पर्व की ज़िम्मेदारी नन्हीं बालिकाओं ने ले ली। हालांकि बालक भी फूलदेई त्योहार मनाते हैं। आस-पास के नन्हें बच्चे आज ही के दिन से सुबह-सवेरे उठते हैं। सूरज के उगने से पहले आस-पास के जंगली फूलों को चुनते हैं। बाँस की कण्डी में तरह-तरह के ताज़ा फूल घरों की देहरी-दहलीज पर रखते हैं। कभी ऐसा भी था कि सुबह-सवेरे पौधों-पेड़ों से झर चुके फूल ही चुने जाते थे। फिर पता नहीं परम्परा में यह कैसे जुड़ गया कि झर चुके फूल तो बासी होते हैं। 

अब बच्चे सुबह-सुबह जंगली पौधों से ताज़े फूल चुनते हैं और उन्हें घरों की देहरी में डालते हैं। कहीं पाँच तो कहीं आठ दिन तो कई तेरह दिन और कहीं पूरे महीने यह त्योहार मनाया जाता है। घर-गाँव की देहरी में फूलों को रखने के पीछे यह मंशा रहती है कि यह घर खुशियों से भरपूर रहे। इस घर की कन्या फले-फूले। मैत-सैसर की खुशहाली का कामना भी इस त्योहार से जुड़ी है। वसंत माह के आखिरी दिन हर घर के लोग इन बच्चों को भेंट देते हैं। कहीं उड़द की दाल के पकौड़े बनते हैं। कहीं तस्मै बनती हैं। कहीं गुड़-मिश्री और दाल की भेंट दी जाती है। कहीं इच्छानुसार इन फूल्यारों को परिवार से रुपयों की भेंट भी दी जाती है। ऐसे घरों को भी नहीं भूला जाता जिन घरों में किसी वजह से ताले जड़े हैं। कहीं-कहीं तो घरों के मुख्यद्वार की चौखट पर दूध देने वाली गाय के गोबर के साथ दूब चौखट पर चिपकाया जाता है। यह कामना की जाती है कि इस घर के लोग कहीं भी हों वह सम्पन्न हो। उनके घर में माँ का दुलार और दूध-दही की कमी न हो। 

समय के साथ इस लोक पर्व में हरियाली, खुशहाली, गीत-संगीत, परम्पराएं और किस्से जुड़ते चले गए। यह भी मान लें कि फ्यूंली को मात्र मिथक पात्र मान लिया जाए तो भी सामाजिक समरसता के स्तर पर यह एक सामुदायिक, सांस्कृतिक और लोक निबाह का जानदार पर्व है। आस-पास और पड़ोस-खोला के बच्चे सब तरह के झंझावतों से मुक्त होकर टोलियों में फूल चुनते हैं। हर घर की देहरी पर फूल डालते हैं। मिलकर गीत गाते हैं। जिस घर से प्यार में जो भी भेंट मिलती है उसे स्वीकार करते हैं। यह क्या कम है? 

इस बालपर्व यानी फूलदेई के कई गीत हैं। उनके निहितार्थ भी बेमिसाल है। सबकी कुशलता चाहने की मंशा का फ़लक कितना विशाल है। आप स्वयं पढ़िएगा- 

फूलेदई, छम्मा देई, 
दैंणी द्वार, भरी भकार, 
ये देली स बारम्बार नमस्कार, 
पूजैं द्वार बारंबार, फूले द्वार.... 

सार बहुत ही सहज है कि है फूलदेई इस घर की देहरी फूलों से भरी रहे। सबको क्षमा हो। सबकी रक्षा हो। यह घर सुख-सफल रहे। इसके भण्डार भरे रहें। इस घर की देहरी को बार-बार नमस्कार है। यह घर फले-फूले। 
एक अन्य गीत इस तरह मिलता-जुलता भी गाया जाता है-

फूलदेई छमादेई, 
दैणी द्वार, भर भकार! 
फूलदेई फूल संगरांद, 
सुफल करो नऊ बरस 
तुमकू भगवान, 
तुमारा भकार भर्यान 
अन्न-धन फूल्यान ! 
औंदी रया रितु मास
फूलदा रया फूल! 
बच्यां रौला हम तुम. 
फेर आली फूल संगरांद !
गीत का एक अंश यह भी है-
फूलदेई छम्मा देई ।
फूल देई छम्मा देई ।
दैणी ,द्वार भर भकार।
यो देलि कु नमस्कार ।
जतुके दियाला ,उतुके सई ।।

फूलदेई का पारंपरिक एक गीत यह भी है-

ओ फुलारी घौर।
जै माता का भौंर ।।
क्यौलि दिदी फुलकंडी गौर ।
डंडी बिराली छौ निकोर।।
चला छौरो फुल्लू को।
खांतड़ि मुतड़ी चुल्लू को।।
हम छौरो की द्वार पटेली।
तुम घौरों की जिब कटेली।।
चला फुलारी फूलों को,
चला छौरो फुल्लू को। 

एक और गीत है जिसे पांडवास समूह ने वीडियो के तौर पर शानदार ढंग से पुनर्लेखन किया है। वह कुछ इस तरह से है-


चला फुलारी फूलों को
सौदा-सौदा फूल बिरौला।
हे जी सार्यूं मा फूलीगे ह्वोलि फ्योंली लयड़ी
मैं घौर छोड़यावा ।
हे जी घर बौण बौड़ीगे ह्वोलु बालो बसंत
मैं घौर छोड़यावा।।
हे जी सार्यूं मा फूलीगे ह्वोलि
चला फुलारी फूलों को
सौदा-सौदा फूल बिरौला
भौंरों का जूठा फूल ना तोड़्याँ।
म्वारर्यूं का जूठा फूल ना लायाँ।
ना उनु धरम्यालु आगास
ना उनि मयालू यखै धरती
अजाण औंखा छिन पैंडा
मनखी अणमील चौतरफी
छि ! भै ये निरभै परदेस मां
तुम रौणा त रा
मैं घौर छोड़यावा।।
हे जी सार्यूं मा फूलीगे ह्वोलि
फुल फुलदेई दाल चौंल दे
घोघा देवा फ्योंल्या फूल
घोघा फूलदेई की डोली सजली।।
गुड़ परसाद दै दूध भत्यूल
अयूं होलू फुलार हमारा सैंत्यां आर चोलों मा ।
होला चौती पसरू मांगना औजी खोला खोलो मा ।।
ढक्यां मोर द्वार देखिकी फुलारी खौल्यां होला।

हालांकि मौसम बहुत बदल गया है। पाँच पत्तियों की फ्यूंली इस बार फरवरी के पहले सप्ताह में ही खिल गई थी। बुरांश भी एक फरवरी से पहले ही खिल गया था। फिर भी आज के दिन बच्चों का उत्साह देखने को मिलता है। बीती शाम से ही बच्चे रिंगाल की टोकरी, अब तो बाज़ार में प्लास्टिक की टोकरियाँ मिलने लगी है। कुछ बच्चे तो घर के झोले-थैले लेकर आज की सुबह का इन्तज़ार करते हैं।  लेकर फ्यूंली, गुर्याल, बुरांस, बासिंग, आडू, पुलम, खुबानी के फूलों को इकट्ठा करते हैं। सुबह उठना नहाने के लिए पानी गरम करना, संगी-साथियों को पुकार लगाना। सब कुछ खुशगवार लगता है। कुमाऊँ मे ंतो कई जगहों पर ऐपण बनाने की परम्परा भी है। 

बच्चों के मुख से फूलदेई गीतों के विविध प्रकार और धुन अच्छी लगती है। ‘घोघा माता फुल्यां फूल, दे-दे माई दाल चौंल’ और ‘फूलदेई, छम्मा देई, दैणी द्वार, भरी भकार, ये देली स बारम्बार नमस्कार, पूजैं द्वार बारंबार, फूले द्वार.... गीत गाते हुए बच्चों की टोली लगातार कम होती जा रही है। कहीं-कहीं तो अकेले-दुकेले बच्चे भी इस परम्परा को बचाए हुए है। अब बच्चों को बदले में दाल, चावल, आटा, गुड़, घी और दक्षिणा की जगह चॉकलेट, टॉफी ने ले ली है। कुछ परिवार बच्चों को कॉपी, पेंसिल, रूमाल, स्कूली सामान देने लगे हैं। इस बहाने बच्चों को बताया जाता है कि यह सृष्टि घोघा नाम की देवी ने बनाई है। कई जगह तो टोलियां सारे रुपए इकट्ठा कर लेती हैं और बाद में बाज़ार से मिठाई लाकर घर-घर बांटते हैं। कुछ जगहों पर बच्चों को मीठा भात खिलाने की परम्परा भी है। गुड़ के पानी में बना भात जिसमें सौंप-घी की महक पूरे वातावरण में अलग तरह की भूख बढ़ा देती है। 

कुछ लोगों का मानना है कि बच्चे घरों में जाकर फूल तोड़ते हैं। पारिस्थितिकीय संरचना को क्षति पहुँचाते हैं। वहीं कुछ लोगों का मानना है कि फूलदेई पूरी तरह से जंगली फूलों और खेतों,सड़कों, पगडण्डियों में खड़े पेड़-पौधों के झरे हुए फूलों पर आधारित है। वह कहते हैं कि बच्चे घरों के मुख्य द्वार की चौखट पर दो-चार फूल ही चढ़ाते हैं। वह गिनती के ही फूल चुनते हैं। जानकार बड़े बच्चों को हिदायत देते हुए नहीं भूलते। फ्योंली, पैयया, लयया, बुराँश,  जंगली खुबानी, आड़ू के फूल, बासिंग के पीले, लाल और सफेद फूल

चुनते हैं। बच्चों को सहेजना, सँभाल करना, मिलजुल कर रहना आने लगता है। वह अपनत्व के भाव से भरने लगते हैं। अपने घर के साथ इलाके के दूसरे घरों से लगाव सीखते हैं। सामूहिकता का भाव यही त्योहार तो भरता है। बच्चे शीत-गरम, सावन के साथ चैत्र मास को समझने लगते हैं। वसंत के महत्व को समझने लगते हैं। वह धरती का और धरती में आ रहे मौसमों का आभार प्रकट करना सीखने-समझने लगते हैं। मंगसीर, पूस और माघ की सर्द रातों के बाद फागुन-चैत्र के खुशगवार मौसम का स्वागत करना सीखते हैं। मौसमों के मर्म को समझते हैं। क्या यह बड़ी बात नहीं है? 


मुझे तो लगता है कि इस बहाने बच्चे फूलों की महत्ता को भी तो समझते हैं। आगे चलकर यही नई पीढ़ी घर-आँगन में कई प्रजातियों के फूलों की सँभाल भी तो करती हुई देखी जाती है। एक माह तक बच्चे जंगल के निकट जाते हैं। जंगली ही सही कई वनस्पतियों की पहचान और उन्हें सहेजने का भाव भी तो उनके भीतर स्थाई होता चला जाता है।  

चैत्र का महीना हमारे ढोल-दमाऊ बजाने वाले फ़नकारों का महीना भी है। हालांकि समय के साथ यह परम्परा अब लुप्त ही समझिए। पुरानी पीढ़ी के फ़नकार अभी भी परम्परागत कुछ परिवारों के खलिहान में जाकर ढोल-दमाऊ बजाते हैं। बदले में वह परिवार अपनी रसोई से प्रमुख अनाज भेंट स्वरूप देते हैं। फ़नकार इसे अपना हक समझते रहे हैं और देनदार इसे अपना दायित्व समझते रहे हैं। लेकिन अब नई पीढ़ी के बच्चे इस परम्परा को आगे बढ़ाना नहीं चाहते। समय के साथ-साथ यदि कोई परम्परा किसी भी तरह की हीनता का बोध पनपाती है तो उसे आगे बढ़ाए रखना उचित भी नहीं है। समय तेजी से बदल रहा है।  



बहरहाल, आज 14 मार्च को आरम्भ हुए इस बाल पर्व का खुलकर स्वागत करना हम सभी का दायित्व है। ऐसे कई त्योहार पूरे देश में मनाए जाते हैं। यदि आप इस लेख में कुछ शामिल करना चाहते हैं जो ज़रूर लिखिएगा। कमेंट के साथ मुझे chamoli123456789@gmail.com पर सुझाव भेज सकते हैं।

-मनोहर चमोली ‘मनु’ .
सम्पर्क: 7579111144

17 जन॰ 2024

तीस साल बाद: एक मुलाक़ात: संस्मरण

-मनोहर चमोली ‘मनु’



धर्मवीर ! कद लगभग छह फुट ! सांवला रंग। दुबला-पतला शरीर। धूप-मिट्टी और रंग बदलते मौसम के साथ घुली-मिली गठी हुई देह।



भाल और भौंहे आँखों को सामान्य से अधिक भीतर ले जा चुकी हैं। नाक उभरी हुई है। इतनी कि उसकी ही आँखें अपने होंठों को नहीं देख सकती हैं। धर्मवीर के सिर पर बालों का गुच्छा है। वे एक तरह से चेहरे की छतरी है। चेहरे पर पतली सी मूँछें हैं। मूँछों की सरहद होंठ के दोनों किनारों से आगे तक फैली हुई हैं। माथे से टपकता पसीना लुढ़ककर होंठों तक नहीं जाएगा। गालों से लुढ़ककर ठुड्डी से बहता हुआ ज़मींदोज़ हो जाएगा। अपनी ही देह के पसीने में नमक ज़्यादा होता है। मेहनत-मजूरी करते समय तो मीठा खाने का मन करता है। काश ! पसीने का स्वाद मीठा होता।

मैं धर्मवीर को पहचान नहीं पाया। कैसे पहचानता? तीस-इकतीस साल बाद मुलाकात हुई है। नाम तक भूल गया था। समय हमारी स्मृति की चादर में धूल की परतें पोत देता है। यदि समय-समय पर यादों के उजाले में नहीं गए तो वही परतें खुरचने पर भी नहीं हटतीं। माँजी ने बताया,‘‘बेटा। धर्मवीर मिलने आया है। खेत में भाई के साथ खड़ा है।’’ मैं मिलने गया। वह खेत में खड़ा हुआ था। दोनों हाथ जोड़कर आँखें झुका ली। मैंने हाथ बढ़ाया। लेकिन उसका हाथ नहीं बढ़ा। उसकी कोहनियों ने हथेलियों को ऊपर उठाया। वह नमस्ते की मुद्रा में एक-दूसरे के साथ चिपक गईं।

मैंने धीरे से पूछा,‘‘कैसे हो?’’ धर्मवीर ने मेरी आँखों में झांकते हुए जवाब दिया,‘‘बहुत अच्छा।’’ मैं चुप था तो वह बोल पड़ा,‘‘मैं तो कई दिन आपके यहाँ आ गया हूँ। आपके घर का खाना खा लिया है। यहाँ कई बार चाय पी ली है। धनिया, मूली, हरी सब्जियाँ ले गया हूँ। बस ! आपसे मिलना चाहता था। भाई साहब ने बताया कि आप आने वाले हो। तो मिलने आ गया।’’ वह चाय पी चुका था। बड़े भाई से बात कर रहा था।

दरअसल। बीती बरसता में खेत के किनारे का पुश्ता गिर गया था। वह लगाया गया तो बहुत-सी मिट्टी बगल के स्वामी के खेत में बिखरी हुई थी। दोनों भाईयों के साथ धर्मवीर ने उसे उठाने का काम किया। खेतों में कई बड़े पेड़ों की डालें छांटने के सिलसिले में उसका हमारे घर आना हुआ था। काम तो खत्म हो गया था लेकिन धर्मवीर की तरफ से कुछ छूटा हुआ था। वह उसे सहेजने आया था।

‘‘तीन दिन तो पेड़ों की कटाई-छंटाई में लग गए। मैंने भाई जी से कह दिया था। मेरे साथ खड़ा रहना। रस्सी है। पाठल है। डाल है। भारी पेड़ थे। कई बातें होती हैं। दोनों भाई साहब भी पूरा-पूरा दिन साथ में लगे रहे। माताजी से भी मुलाकात हो गई थी। बस ! आपसे मुलाकात नहीं हुई थी।’’ उसने अपने आने का कारण बताया।
‘‘आगे भी पढ़ाई की थी?’’
‘‘नहीं गुरुजी। बस ! आपने पांचवी तक पढ़ाया। उसके बाद मैं ही नहीं पढ़ पाया। आपको खूब याद करता हूँ। अबकी जमाने में न वो पढ़ाई है, न वैसे गुरुजी रहे। जाखतों में भी वो बात नहीं रही दिक्खे।’’
‘‘बाल बच्चे कितने हैं?’’
‘‘बस गुरुजी। ऐसा ही कुछ हो गया। गरीबी बहुत थी न। शादी नहीं की। बस, किसी तरह गुजारा हो रहा था। आज भी वैसे ही चल रहा है। हबड़-तबड़ नहीं है। चैन से दिन बीत रहे हैं।’’ यह कहते हुए वह शरमा-सा गया। कुछ झेंप से माथे पर बल पड़ गए।
मैंने बात बदलनी चाही। पूछ लिया,‘‘गाँव का वह सौर ऊर्जा का प्लाण्ट अभी भी है?’’
‘‘अजी नहीं। सब खुर्द-बुर्द हो गया। मेरे साथ के कई तो कब के चले गए। उन्हें शराब और एब खा गए। दुख होता है। आपने तो म्हारे गाँव में आकर साक्षरता चलाई। वे बड़े-बूढ़े तो मर-खप गए जिन्हें आप अक्ल देना चाहते थे। लेकिन मेरे जैसे कई हैं जो आपको याद करते हैं। बार-बार याद करते हैं। आप हम बच्चों को एक दिन चिड़ियाघर ले गए थे।’’

मैं तीन दशक पहले के समय में पहुँच गया। गाँव के बुनियादी स्कूल में पढ़ाने के बाद तीन से चार बजे साक्षरता केन्द्र चलाता था। महिलाएँ तो खू़ब आती थीं। पुरुषों को जोड़ने में बहुत मेहनत करनी पड़ी थी। वह कहता जा रहा था। आगे बोला,‘‘यहाँ आता हूँ तो अपनापन-सा लगता है। आपके परिवार के लोग बहुत अच्छे हैं। वैसे, समाज से ऐसा माहौल तो गया वैसे। आपके दोनों बड़े भाई, भाभियाँ भी बहुत अच्छी हैं।’’

‘‘और मैं?’’ उसने फिर से हाथ जोड़ लिए। वह मुस्कराया तो उसकी मूँछे गालों की तरफ फैल गई। करीने से बनाई गई मूँछों के बाल किसी भरी-पूरी फसल की तरह लहरा रहे थे। वह गरदन को नहीं-नहीं में हिलाते हुए बोला,‘‘जी बुरे की तो बात ही नहीं है। हमारे भली के लिए आप पिटाई भी करते थे। आपकी हर बात सच्ची थी। हमी बचपने में थे। क्या करते! गरीबी भी बहुत थी। सुबह का खाना खाते थे। खाते-खाते सोचते थे कि क्या रात को भी खाना मिलेगा? अब तो स्कूल में भात भी मिल रहा है। तब भी सौरे बच्चे पढ़ते ना हैं।’’

साँझ ढल चुकी थी। मेरे ठीक दायीं ओर सूरज ज़रूरत से ज़्यादा बड़ा और लाल दिखाई दे रहा था। वह साल के जंगल के पीछे छिपने जा रहा था।

मैंने पूछा तो वह बोला,‘‘न जी न। गुटखा, बीड़ी, तम्बाकू या शराब को हाथ नहीं लगाता हूँ। जिन्होंने इनकी गैल की वो दूसरी दुनिया में चले गए। मैंने सरोपा के बारे में पूछा ! वह जीवित है। यह जानकर अच्छा लगा। बारह महीने कुरता पहनने वाला सरोपा। आँखें धंसी हुई। चेहरे में पक चुके बालों की बेतरतीब दाढ़ी वाला सरोपा। कमर के नीचे मात्र जांघिया पहनता है। उसे किसी ने जूतों में कभी नहीं देखा। उसके हुलिए से छोटे बच्चे डर जाते थे।

धर्मवीर बहुत धीरे से किस्से सुना रहा था। उसने बताया,‘‘ इक्यावन बीघा वाले बधी की याद है? वो जिसका बाप हुक्का पहनता था। उसने बाप के मरने के बाद सारी जमीन शराब में बेच खाई! हमने उनके खेत्तों में मजदूरी की है। आज उसकी नवी पीढ़ी फटेहाल है। हम तो इज़्ज़त की खा रहे हैं। आजेश जो फफियाता था। वो भी नहीं रहा।’’ धर्मवीर बीते तीस-बत्तीस सालों का एक-एक पन्ना पलटना चाहता था। मैंने पूछा,‘‘यहाँ के काम की मजूरी मिल गई?’’

‘‘हाँ। वो तो भाई साहब ने आज सुबह ही दुकान पे दे दी थी। मैं तो आपसे मिलने आया था।’’
‘‘कितनी दी?’’
‘‘बस जी दे दी। पूरा हिसाब हो गया। ऐसी कोई बात ना है।’’
धर्मवीर ने बताया नहीं। शायद सात-एक दिनों का हिसाब था। उसने लेन-देन की निजता का मान रखा। मुझे क्यों नहीं बताया? मैं नहीं समझ पाया। मैंने भी कहा,‘‘यहाँ अलग कुछ नहीं है। एक ही बात है।’’ उसने माँजी की तरफ देखते हुए कहा,‘‘हाँ जी। जानू हूँ।’’ वह दाँए पैर के जूते से मिट्टी कुरेदने में व्यस्त हो गया। मेरे और अपने समय के किसी दिन को याद करने लगा।
फिर कहने लगा,‘‘मुन्ना मास्टर जी के जाने के बाद आप आए थे। लेकिन किरन बैनजी मुझे क़तई अच्छी नहीं लगती थी। बहुत ही ऊँट-पटांग बोलती थी। आपसे डरते थे सारे बच्चे। लेकिन आपकी बातें ध्यान से सुनते थे। मन लगा रहता था।’’
मैंने उसके हाथ पर सौ रुपए के दो नोट रखने चाहे। उसने मुट्ठी भींच ली। मैं मुट्ठी खोलकर वह दो नोट रखना चाहता था। लेकिन पत्थर-सी हो गई मुट्ठी खोल न सका। मैंने उसके जैकेट की जेब में वह रुपए रख दिए। उसने भी दोनों हाथ अब जैकेट की जेब में रख दिए।
मैंने कहा,‘‘कुछ मीठा खरीदना या अपने लिए सब्जी-दाल। अब पीते-खाते तो उसका इन्तजाम करता।’’
‘‘कैसी ठिठोली कर रहे हो! इस घर से शराब नहीं मिल सकती।’’

मैं उसे छोड़ने रास्ते तक गया। मेरे हाथ में उसके हाथ का स्पर्श मुझे अलग-सी अनुभूति दे गया। यह कुछ वैसी नहीं थी, जैसी किसी दूध पीते बच्चे की देह से आती है! लेकिन कुछ ऐसी थी जिससे छिटकना नहीं चाहता हूँ।
हाँ! लिखते समय कुछ विलक्षण-सा महसूस कर रहा हूँ। वह शान से सीना चौड़ा किए हुए लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ चला गया। जैसे, कोई जागीर मिल गई हो।
‘‘आते रहना। मेरे भाई-भाभियाँ तो इसी घर में ही हैं।’’

‘‘जी। अपना घर है। यहाँ आने के लिए पूछना थोड़े पड़ेगा। अच्छा गुरुजी नमस्ते।’’ धर्मवीर चला गया।
बहुत जोर डालने पर भी धर्मवीर का चौथी-पाँचवी कक्षा में पढ़ते समय का हुलिया उभर नहीं रहा है। वहीं मैं धर्मवीर की ज़िन्दगी में अब तक शामिल हूँ। वह चाहता तो तीस-बत्तीस साल के अन्तराल को बनाए रख सकता था। उसने अपनी कहानी में मेरे किरदार को क्यों रखा? हम तो तनिक-सी बात पर रिश्तों को छिटक देते हैं! मैं यही सोच रहा हूँ। (वाकया, साझा करने का मकसद यही है कि कितनी बातें-मुलाकातें-यादें होती हैं जो याद आती हैं। तीस-बत्तीस साल पहले मैं संघर्षरत था। तब शिक्षण के तौर-तरीके भी पता नहीं थे। फिर भी बच्चे याद रखते हैं। संभव है हमारी बचकानी बातों पर हँसते भी होंगे।)
फोटो: बिटिया विदुषी ने ली है।