20 मार्च 2019

फुर्रररररररररररर ! #MainBhiChowkidar

फुर्रररररररररररर ! 

-मनोहर चमोली ‘मनु’

ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर, दस पल का मौन सन्नाटा। फिर, फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा।


रात के ग्यारह बजे से सुबह चार बजे तक बदस्तूर एक-सी आवाज़ कानों में पड़ती। ऐसा लगता कि इन आवाज़ों के साथ घड़ी भी साथ देती होगी। जो कहती होगी-‘‘एक दो तीन।’’ और आवाज़ पुकारती-‘‘फुर्रररररररररररर !’’ फिर घड़ी पुकारती होगी,‘‘एक दो तीन।’’ आवाज़ कहती,‘‘ ठक-ठक-ठक-ठक-ठक !’’

फिर घड़ी कहती होगी,‘‘एक दो तीन। दस सेकण्ड तक मौन।’’ दस सेकण्ड तक चुप्पी छा जाती। फिर फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा। फिर, फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा।

दीवाली से होली तक यह आवाज़ जैसे कानों में घुल-सी गई थीं। ऐसा लगता था कि ये आवाज़ें हमारे घर की परिक्रमा कर रही हों। पर ऐसा नहीं था। होली के बाद फिर रातें छोटी होने लगतीं तो आवाज़ कानों में धीमी सुनाई देती। हाँ, यह तो तय था कि आवाज़ें रोज़ जागती रहती थीं। होली के बाद गुड फ्राॅइडे आ जाता। पर आवाज़ की तासीर एक सी रहती। अनवरत्। उसी लय के साथ।

मैं सोचता,‘‘कहीं टेप रिकाॅर्डर तो नहीं बज रहा? बार-बार एक ही कैसेट तो नहीं चल रही?’’ पाँचों वक़्त की नमाज़ अपने समय पर जुटती। रमज़ान के दिनों में शाम की अजान और सुबह की अजान कानों में रस घोलती। हाँ, बरसात के मौसम में ये आवाजे़ं हर रात ठीक से बातचीत नहीं कर पाती थीं। जिस रोज़ बारिश न होती तो ये आवाजें मानों अचानक उग आतीं। फिर कानों में आवाज़ आने लगती- फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा। फिर, फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा।

पन्द्रह अगस्त की सुबह चार बजे से पहले उठना होता था। प्रभात फेरी का इंतजार चार-पाँच दिनों से जो रहता था। दो दिन पहले से रियाज़ करते थे कि ऐन पन्द्रह अगस्त को नींद से न उठे तो गए काम से!

फिर ये आवाज़ें खूब काम आतीं- फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा। फिर, फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा।

रक्षा बन्धन आता और जन्माष्टमी। कृष्ण के रात वाले बारह बजे के बाद जब सोने जाते तो फिर यह आवाज़ थोड़ा और जागने के लिए बाध्य करती-फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा। फिर, फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा।

पूरे साल नहीं। कई सालों तक यह आवाज़ नींद आने से पहले और नींद आने के बाद भी जैसे साथ-साथ सोती हों । बस मुलाकात नहीं होती थी। होती भी कैसे? जब हम जागते तो यह आवाज़ शायद सोने चली जाती। जब हम सोने जाते तो यह आवाज़ें जागतीं। खेलती थीं। कूदती थीं। हम भला चाहकर भी इन आवाज़ों के साथ कैसे खेल पाते? रात को तो क्या शाम के आते ही हम भीतर होते। हम क्या होते हमें भीतर कर दिया जाता था। रात को बाहर जाने की अनुमति नहीं थी, तो नहीं थी।

घर के बड़े कहते,‘‘बाहर नहीं। बाहर बाघ है। रीक है। भूत है! साँप है।’’
हम सोचते कि उन आवाज़ों के लिए बाहर कोई डर क्यों नहीं है? फिर दशहरा आता। दीवाली आती। क्रिसमस आता। मैं सोचता,‘‘सेंटा क्लाॅज से तो ये आवाज़ें ज़रूर मिलती होंगी। काश ! हम सेंटा क्लाॅज होते।’’

हमारा होना हम कहाँ तय करते हैं? यह तो कोई ओर तय करता है। मैं अक्सर सोचता था। जब सोचता था। अब हम सोचते भी कहाँ हैं?

मैं सोचता था-‘‘हवा कब बहेगी? कितना बहेगी? यह कौन तय करता होगा? घर में क्या पकेगा? यह कौन तय करता है? छुट्टियां हमारे लिए पड़ती थीं और होमवर्क कोई ओर तय करता था। परीक्षा हम देते हैं परीक्षाफल कोई ओर तय करता है। क्यो?

सेंटाक्लाॅज का इंतजार मैंने भी किया। ख़ूब किया। कई साल किया। आपने किया? इस सेंटाक्लाॅज का इंतज़ार करते-करते आँखों के रस्ते ये आवाज़ें फिर सुनाई देती-

फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा। फिर, फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा।

फिर एक दिन नया साल आता। हम भी नए साल में कुछ नई योजनाएं बनाते। जो दस-बीस दिन के बाद ग़ायब हो जातीं। लेकिन ये आवाज़ें कभी ग़ायब नहीं हुई। छब्बीस जनवरी का दिन था। हम घर लौट रहे थे। अचानक मुझे आवाज सुनाई दी-फुर्रररररररररररर !

मैं चौका। यह फुर्रररररररररररर की आवाज़ एक आदमी के हाथ में थी। नहीं-नहीं। हाथ में पकड़ी हुई किसी चीज़ की थी। नहीं-नहीं। वो चीज़ नहीं सीटी थी। वह सीटी एक आदमी के होंठो पर थी। सीटी कहाँ थी ?
वो तो किसी फूँक से पैदा हुई आवाज़ थी।


ठिगना-सा आदमी दुबली-पतली काया। लाल मेंहदी में रंगी दाढ़ी। सिर पर हरा कपड़ा बाँधे। आँखों में गोल चश्मा जो किसी चिकट डोर से बँधा है। हाथ में मोटा बाँस का लट्ठ लिए गमबूट पहने हुए लियाकत चचा थे। आज वह बाज़ार से नई सीटी लाए थे। उसी को बजाते हुए जा रहे थे। अलबत्ता लाठी से ठक-ठक-ठक-ठक-ठक की आवाज़ नहीं बना रहे थे।

गुरदीप साथ में था। उसने कहा,‘‘लियाकत चचा की सीटी चोरी हो गई। पता नहीं किसी ने मजाक में छिपा दी हो शायद। देख, नई सीटी कितनी बड़ी है। पीतल की है। चैन भी पीतल की है। गले में टाँग लेंगे तो न गुम होगी न चोरी चली जाएगी।’’

मैं सन्न था। मैं मुड़कर उन्हें एकटक देखता रहा। उनके कांधे झुके हुए थे। पीठ पर कुर्ता चिपका हुआ था। बाँए हाथ पर पकड़ी हुई लाठी को जैसे वह खींच रहे थें। ऐसा लग रहा था कि पैरों को जूते आगे की ओर खींच रहे हों।

तो ये हैं लियाकत चचा? मरियल से। मैं तो सोचता था कि कोई हट्टा-कट्टा विशालकाय पहलवान होगा। जो सालों से काॅलोनी में चौकीदार है। छप्पन नहीं साठ इंच का सीना लिए घूमता होगा ! ये हैं लियाकत चचा ! यह रात पसरते कानों में आवाज़ गूँजाने वाले ! यह वही शरीर है जिसका बाँया हाथ बेजान लाठी से भी आवाज़ निकलवा लेता है !

'ठक-ठक-ठक-ठक-ठक !'


मेरी आँखें फटी की फटी रह गई! रात का अँधेरा याद आ गया। जाड़ों की सर्द रातें सामने छा गईं। हिमालय की ओर से सनसनाती हुई बदन को छूने वाली हवा को महसूस किया तो कँपकँपी छूटने लगी। बरसात के दिनों में अक्सर कपड़ों के साथ बदन भी तर हो जाता था। तर-बतर शरीर के बाल ठंड में तन कर खड़े हो जाते थे। यह याद आते ही शरीर सिहर गया। हाँ , मन और मस्तिष्क लियाकत चचा के लिए आदर और श्रृद्धा से भर ज़रूर गया था।

तभी सोच लिया था। बड़ा होकर कुछ भी बन जाऊँगा पर चौकीदार नहीं बनूँगा। तब मुझे लगा था कि सबसे कठिन है चौकीदार बनना। और आज? आज की कलुषित राजनीति ने जैसे सब कुछ आसान कर दिया हो। सोच रहा हूँ। हम कितना गिर चुके हैं। हमारे लिए कर्म और कर्म की पहचान हँसी-ठट्ठा हो गई है। हम बग़ैर सोचे-समझे किसी का भी मज़ाक उड़ाने लग गए हैं। हम वो बनने का स्वाँग रचने लगे हैं जो हम बन नहीं सकते। जो हम कभी हो नहीं सकते।

आज पीछे मुड़कर देखता हूँ तो लियाकत चचा याद आते हैं। वे रात के अँधेरे में कहाँ नज़र आते थे? लेकिन उनकी लाठी की ठक-ठक-ठक-ठक-ठक और नपी-तुली घड़ी बाद सीटी की आवाज़ तो नज़र आती थी। नज़र क्या आती थी। सुनने वालों की धड़कन में रच-बस गई थीं। उन्होंने सालों सीटी और लाठी को सहेजकर रखा होगा। सीटी की आवाज़ के लिए न जाने लाखों-करोड़ों बार लंबी साँस भीतर की ओर खींची होगी। मुझे तो यह भी इल्म नहीं कि साँस खींचते वक़्त फेफड़े सिकुड़ते हैं या फैलते हैं? चचा ने लाठी की ठक-ठक-ठक-ठक-ठक तो धरती की पीठ पर करोड़ों बार धौल के तौर पर दी होगी।

याद करता हूँ तो पाता हूँ कि उनके रहते चोरी-चकारी की एक भी घटना तो छोड़िए बात तक कानों में नहीं पड़ी। लियाकत चचा की कद-काठी देखकर मुझे चोरों पर भी तरस आ गया था। मैं अक्सर सोचता था कि लियाकत चचा जैसे चोरों का क्या बिगाड़ लेंगे। चोर तो बहुत ही डरपोक होते हैं। फिर मन में बैठ गया था कि चोर डरपोक ही होते हैं तभी तो रात के अँधेरे में चोरी-चकारी करते हैं।

रात, लियाकत चचा, सीटी और लाठी का याराना सालों-साल रहा होगा। मरते दम तक रहा होगा। चचा ख़्याल रखने वाले थे। सीटी का और लाठी का ही नहीं, पूरी काॅलोनी का भी। 

उनके लिए ये चार पँक्तियाँ याद आ रही हैं-

'प्रीत करे तो ऐसी करे 
कि जैसे करे कपास 
जीते जीतो संग रहे 
मरे ना छोड़े साथ.'


मैं चालीस वसंत कब का देख चुका हूँ। मैं जीवन की लगभग सात हजार तीन सौ रातें सौ चुका हूँ। मुझे याद नहीं आ रहा कि इन रातों में एक भी रात मेरे हिस्से आई होगी जिस रात मैं जागा हूँगा। तो मैं कैसे चौकीदार हो सकता हूँ?
॰॰॰

-मनोहर चमोली ‘मनु’

1 टिप्पणी:

यहाँ तक आएँ हैं तो दो शब्द लिख भी दीजिएगा। क्या पता आपके दो शब्द मेरे लिए प्रकाश पुंज बने। क्या पता आपकी सलाह मुझे सही राह दिखाए. मेरा लिखना और आप से जुड़ना सार्थक हो जाए। आभार! मित्रों धन्यवाद।