21 अप्रैल 2020

बाल-साहित्य: पढ़ना फिर समझना कुछ कविताओं के बहाने

बाल-साहित्य: पढ़ना फिर समझना कुछ कविताओं के बहाने 

-मनोहर चमोली ‘मनु’

इन दिनों हिंदी बाल कविताओं को पढ़ने का अवसर मिला। कविताओं में सीख, संदेश, उपदेश, आदर्श से इतर ऐसी रचनाओं का आनंद लेना था, जो वाकई बाल मन का प्रतिनिधित्व करती हों। उन कविताओं में बच्चों के स्वर हों। सीमित पुस्तकों और अपनी क्षमताओं के अनुसार मैं पिछले सौ से एक सौ तीस सालों के मध्य की कविताएं पढ़ सका। वे कविताएँ जिन तक मैं पहुँच सका। लगभग 1700 कविताएँ पढ़ने का समय मिला। मुझे हैरानी हुई कि मात्र छह फीसदी कविताएं ही मुझे आनन्द दे सकीं। मैं यह मानता और जानता हूँ कि आनंद की अपनी सीमा है। हर किसी की अपनी मनोवृत्ति भी है। 
यह क़तई ज़रूरी नहीं है कि मुझे पसंद आने वाली कविताएँ आपको भी पसंद आएँ। यह भी हुआ कि पढ़ते-पढ़ते मैं कई बार अपना बालमन छोड़कर बड़ापन में आ गया। कभी मुझे लगा कि ये कविता तो बड़ों की कविता है! कभी लगा कि ये कविता बच्चों के लिए हो ही नहीं सकती ! कभी-कभी लगा कि यह कविता तो सभी को अच्छी लगेगी। कभी-कभी ऐसी कविताएं भी आँखों के सामने से गुजरीं जिन्हें पढ़कर मन प्रसन्न हुआ। ऐसी कई कविताएं भी पढ़ने को मिलीं जो बोझिल लगीं। गैर-ज़रूरी लगी। 
किसी रचना को बोझिल बताने के मेरे अपने कारण हैं। अपनी कमजोरियाँ। कई बार बेहद कठिन शब्दावली ने उचाट पैदा की। कई बार लंबी-लंबी कविताओं ने नीरसता फैला दी। कई बार ऐसा हुआ कि कविता बेहद छोटी थीं पर उसका विस्तार बहुत बड़ा था। कई बार एक ही भाव-बोध की कविताएं सामने आती गईं। लगा कि यह तो वैसी ही है जैसी अभी-अभी पढ़ी थी। बस किसी में दूध ज़्यादा है तो किसी में चीनी कम। थीं वे चाय हीं। ऐसी कविताएँ जिन्हें मैंने बार-बार पढ़ा है और वे बेहद लोकप्रिय हैं, उन्हें छोड़ना ठीक समझा। छूटी तो वे भी हैं जो मेरी पसंद की श्रेणी में नहीं आई। लेकिन वे संभव है कि आपकी पसंदीदा कविता हो। समय-समय पर मैंने कई अन्य कविताओं की चर्चा की हैं। उन्हें भी यहाँ छोड़ दिया गया है। बाल-साहित्य प्रकाशित करने वाली पत्रिकाओं नंदन,बालवाणी, बाल भारती,बच्चों का देश, नन्ही दुनिया के कई अंकों की कविताएं पढ़ीं। अंतरजाल पर तो साहित्यिक पत्रिकाओं की बाढ़ आई हुई हैं। उन्हें भी खगाला। कृष्ण शलभ के संपादकत्व में प्रकाशित बचपन एक समंदर की 666 कविताएं भी पढ़ीं। दिविक रमेश के संपादकत्व में प्रकाशित प्रतिनिधि बाल कविता-संचयन की 518 कविताएं भी पढ़ीं। 
यह पढ़ने का जो सिलसिला बना, उससे बाल-साहित्य के सन्दर्भ में कुछ आलोचनात्मक या कहूँ समीक्षात्मक लेख बन पड़ेंगे। निकट भविष्य में जिनका मक़सद संभवतः पढ़ने-लिखने की संस्कृति में बाल कविताओं का योगदान, भाषाई कौशलों के विकास में बाल साहित्य की भूमिका, हम, हमारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण और बाल-साहित्य आदि की पड़ताल करना होगा। पढ़ते-पढ़ते कई सारी बातों का बोध हुआ। उन बातों को साझा अवश्य करूंगा। फिलहाल मुझे पढ़ते-पढ़ते पूरी कविता न भी पसंद आई हो पर कविता का कोई अंश मानस पटल पर क्लिक कर गया, तो मैं ठहर गया। उसे फिर पढ़ा। मुस्कराया और आगे बढ़ गया। हाँ। आगे बढ़ने से पहले मैंने उसे रेखांकित अवश्य किया। बस। यहाँ वही अंश दर्ज़ कर रहा हूँ। पूरी कविता तो आप स्वयं तलाशें। रचनाकार का नाम दिया गया है ताकि सजग पाठक उसकी पूरी कविता खोज सकें और पढ़ सकें। यहाँ साझा करने का मात्र मक़सद यह है कि हम इन रचनाकारों को अपने पास मौजूद संग्रहों में तलाशें। उनकी रचनाएं पढ़ंे। स्वयं को समृद्ध करें। अंतरजाल में तो अकूत खजाना सार्वजनिक ही है। 
मेरा यह प्रयास कैसा लगा? ज़रूर बताइएगा। किसी को ज़्यादा तरज़ीह देना और किसी को नज़रअंदाज़ करना उद्देश्य नहीं था। मक़सद था कि पढ़ते-पढ़ते ऐसी कौन-सी बात मुझे रोकती है! हैरान करती है! ऐसा क्या मिला कि कविता या कविता की कुछ पँक्तियों को रेखांकित करना बाध्यकारी हो गया? और यह मैंने किया। यह निम्नवत है-
बालस्वरूप राही बाल-साहित्य में लोकप्रिय नाम है। उनकी कविताएं बच्चों का प्रतिनिधित्व करती हैं। वे बच्चों का मनोरंजन तो करते ही हैं और कहीं न कहीं हौले से समझ पिरोने वाली कविताएं भी उन्होंने बाल-साहित्य को दी हैं। एक अंश-
एक रोज़ मुर्गे जी जा कर
कहीं चढ़ा आए कुछ भाँग,
सोचा-चाहे कुछ हो जाए,
आज नहीं देंगे हम बाँग।
भवानीप्रसाद मिश्र ने निरर्थक शब्दों में भी जान फूंकने का प्रयास किया। उनकी कविताओं में तुलनात्मक चरित्र भी खूब अच्छे लगते हैं। पढ़ते-पढ़ते पूरा रेखाचित्र खींच जाता है। एक अंश-
अक्कड़-मक्कड़ धूल में धक्कड़,
दोनों मूरख, दोनों अक्खड़
हाट से लौटे,ठाट से लौटे,
एक साथ एक बाट से लौटे।
भवानीप्रसाद मिश्र की अन्य कविता का दूसरा अंश विचारों की बात को सुंदर ढग से कहता है-
चाहता हूँ देश की जमीन को
इंग्लैंड को रूस को चीन को
पूरी दुनिया को चाहता हूँ
पूरे मन से चाहता हूँ



भवानीप्रसाद मिश्र की एक अन्य कविता है जो बालमन के गहरे विमर्श की पड़ताल करती है। एक अंश-
एक रात होती है
जो रात-भर रोती है
आज हम दोनों को मिला दें
एक बोतल में भरकर
दोनों को हिला दें!
द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी की कविता ‘सुनहरी धूप’ अलहदा अंदाज़ की कविता है। बीस पँक्तियों की यह कविता कहीं भी गर्मी या धूप को औरों की तरह आफत के तौर पर प्रस्तुत नहीं करती। एक अंश-
एक रात भी रह जाए गर वह घर मेरे
कर लूँ अपने मन की उससे दो-दो बातें
कहूँ-गर्मियों में मत गुस्सा किया करो तुम
छोड़ा करो न साथ जब कि जाड़े की रातें।
निरंकारदेव सेवक का बालमन सभी को भाता है। ‘रोटी का पेड़’ एक बालमन की चिंता में पिता का श्रम भी शामिल है। इस तरह की मासूम और संवेदनायुक्त अभिव्यक्ति बालमन की ही हो सकती है-
रोटी अगर पेड़ पर लगती
तोड़-तोड़कर खाते,
तो पापा क्यों गेहूँ लाते
और उन्हें पिसवाते?
श्रीप्रसाद ने कमाल की रचनाएँ बाल-साहित्य को दी हैं। अधिकतर कविताएँ अलग-अलग भाव-बोध की हैं। अलग चित्र प्रस्तुत करती हैं। बालमन की उड़ान भरती कविताएँ नए तरीके का कहन कहती हैं। एक कविता का अंश-
छोटी-छोटी कविताओं में
छोटी-छोटी बातें हैं
छोटा चंदा, छोटे तारे
छोटी-छोटी रातें हैं
श्रीप्रसाद की दूसरी कविता का एक अंश सीधे बालमन की कल्पना को बयां करती है-
कान बड़े होते दोनों ही 
दो केले के पत्ते से
तो मैं सुन लेता मामा की
बातें सब कलकत्ते से

सुशील शुक्ल बाल-साहित्य में नयापन तलाशते हैं। वे मानवीकरण के सशक्त हस्ताक्षर हैं। संवेदनाओं,भावनाओं,मानवीय संवेगों की सूक्ष्मता के लिए वे जाने जाते हैं। वह इस पूरी कायनात के हर कण की अस्मिता और अस्तित्व को जगह देने का सफल प्रयास करते हैं। वह इंसानों का इंसानों से और इंसानों को पक्षियों से रिश्ता ऐसे व्यक्त करते हैं जैसे वे एक ही पिता की संतानें हों। एक अंश- 
मेरे घर की छत के कांधे
सर रखकर एक आम
चिड़ियों से बातें करता है
रोज़ सुबह से शाम।
सुशील शुक्ल जहाँ चींटियों की परछाई को भी सुकून देने वाली जगह मानते हैं, वहीं वे छोटी-छोटी बेजान चीज़ों की आवश्यकता और मनोभावों को अलग पहचान देते हैं। वे निर्जीव चीजों,वस्तुओं,सेवाओं और उपेक्षित चीज़ों को भी अनमोल बताते हैं। एक अंश-
एक पत्ते पर धूप रखी थी
एक पत्ते पर पानी
धूप ने सारा पानी सोखा
हो गई खतम कहानी।

दामोदर अग्रवाल के पास बच्चों की भाषा है। उनकी दुनिया है। उनकी कविताएँ पढ़कर लगता है कि किसी बड़े ने नहीं बच्चे ने अपने लिए लिखी है। यह बड़ी बात है। अन्यथा कहने को तो कई बाल कविताएँ होती हैं, पर उसमें बालपन नहीं होता। पूरी कविता में बड़ापन ही दिखाई देता है। ऐसा भाव बोध आम तौर पर पढ़ने को कम ही मिलता है। एक अंश-
छुट्टी जी, ओ छुट्टी जी
लो यह टाॅफी खाओ जी
बस,  इतनी सी विनती है
जल्दी-जल्दी आओ जी।
जयप्रकाश भारती की रचनाओं में पारम्परिक भाव-बोध अधिक पढ़ने को मिलते हैं। लेकिन उनकी ध्वन्यात्मक कविताओं का अंदाज़ अलग ही है। ऐसी कविताएँ बच्चों की दुनिया की ही हैं और बच्चों को ख़ूब पसंद आती है। ‘सड़क पर भीड़’ कविता पूरा चित्र उकेरती है-
पीं पीं पीं पीं
भों भों भों भोें
हों हों हों हों
खों खों खों खों

बच्चे जिस तरह से घर की,संबंधों की, चीज़ों की,रिश्तों की पड़ताल कर लेते हैं। पूछ-पूछ कर अपनी जानकारी को समृद्ध कर लेते हैं। यह बच्चे ही कर सकते हैं। इस मायने में दामोदर अग्रवाल बच्चों के मन को पढ़ने में सफल रहे हैं। 
एक छोटी-सी कविता है।  यह शेरजंग गर्ग की है। एक अंश-
गुड़िया है आफ़त की पुड़िया
बोले हिंदी,कन्नड़, उड़िया
नानी के संग भी खेली थी
किंतु अभी तक हुई न बुढ़िया।
‘कहते हमसे’ रमेश कौशिक की एक कविता है। यह कविता इस बात का पुख़्ता प्रमाण देती है कि बच्चों को बच्चा समझना भारी भूल है। बाल मनोविज्ञानी मानते भी हैं कि बच्चे दो साल की आयु से ही घर-बाहर श्रम की महत्ता तक को समझने लगते हैं। वह उससे स्वयं को जोड़ने का प्रयास भी करने लगते हैं। फिर वे बड़ों के मनोभावों को क्यों नहीं समझते होंगे? समझते हैं-
मम्मी-पापा कहते हमसे
हिलमिल रहो सभी के साथ
लेकिन वे आपस में दोनों
लड़ते रहते हैं दिन-रात।

शंकर सुल्तानपुरी की कविताएँ बच्चों के लिए एक तरह से बौद्धिक खुराक मानी जाती है। सूचना के साथ वह जानकारी देने वाली कविताएं लिखते रहे हैं। बालमन की आवाज उनकी कविताओं में भी दिखाई देती है। एक कविता के अंश-
आसमान में कहीं नदी है
उसमें कितना कितना पानी
सारी दुनिया पर बरसाता
कौन भला है ऐसा दानी?
बाल-साहित्य के लिए राष्ट्रबंधु ने अथक प्रयास किए। समागमों की पहल करने वालों में वे भी थे। उनकी एक कविता बच्चों के जीव-जन्तु प्रेम का दर्शाती है। एक अंश-
पप्पू बुला रहा चिड़िया को
मीठा गाना गाओ।
चिड़िया बोली बिना पेड़ के
कहाँ रहूँ बतलाओ।
प्रयाग शुक्ल ने बाल-साहित्य को बेहतरीन रचनाएँ दी हैं। धम्मक धम्मक जाता हाथी, ऊँट चला भई ऊँट चला और टूटी पेंसिल उनकी बेहतरीन कविताएं हैं। ‘कहाँ नाव के पाँव’ भी एक शानदार कविता है। एक अंश-
बहती जाती नाव
कहाँ नाव के पाँव !
कोई जान सके ना।
देखो उसका बहना।
रोहिताश्व अस्थाना बच्चों के समक्ष आदर्शवादी स्थितियां नहीं गड़ते। वे बताना चाहते हैं कि बच्चे भी वैज्ञानिक विचारधारा के पक्षधर हैं। एक अंश-
परी कथाएँ हमें न भातीं
भूत-प्रेत बाधा भरमातीं
हम वैज्ञानिक युग के बच्चे
है विज्ञान हमारी थाती

मधु पंत बच्चों की काल्पनिकता,जिज्ञासा को बेहतर समझती हैं। उनकी कविता में बच्चों का बचपना शामिल होता है। वह बडों की कलम से नहीं बच्चों के हाथ में पकड़ाई कलम के आधार पर कविताएँ लिखने में सफल रही हैं। एक अंश-
यदि पेड़ों के होते पैर?
सारा दिन वे करते सैर।
आम तोड़ने बिट्टू आता,
पेड़ भाग जाता,छिप जाता।
सरोजिनी कुलश्रेष्ठ की कविताओं में सामाजिक सरोकारों की महक मिलती हैं। वे बच्चों की नज़र से भी रचनाओं को अलग अंदाज़ में प्रस्तुत करती हैं। एक अंश-
माँ मैं भैया बन जाऊँ तो,
मज़ा बहुत ही आएगा।
बस्ता लेकर बड़े ठाठ से 
जब मैं पढ़ने जाऊँगी
भैया देगा टिफिन लगाकर
बड़े चाव से खाऊँगी
खेलूँगी, कूदूँगी जी-भर
डटकर मौज मनाऊँगी। 
सरोजिनी कुलश्रेष्ठ की कविताओं में बच्चों के सवाल भी शामिल रहते हैं। एक अंश-
जिनके पास नहीं हैं पैसे
तेल कहाँ से लाएँ बोलो
प्यारे तारो, तुम्हीं बताओ
कैसे दीप जलाएँ बोलो।
इसलिए इनकी ख़ातिर तुम
आज राज धरती पर आओ।,
प्रभुदयाल श्रीवास्तव लम्बे समय से बाल कविताएँ लिख रहे हैं। बेहद सक्रिय वरिष्ठ कवि नए भाव-बोध के लिए भी जाने जाते हैं। पिज्जा के पेड़ उनकी मशहूर कविता है। एक अंश-
पर मम्मी-पापा के कारण,
जो सोचा वह कर ना पाऊँ,
नहीं मानते बात हमारी,
उनको अब कैसे समझाऊँ?
रोहिताश्व अस्थाना बच्चों की ओर से ये बताने में सफल होते हैं कि बच्चे कोई वर्ग-धर्म विशेष अन्तर नहीं करते। बच्चों के लिए सब उनका है। उनके लिए है। एक अंश-
कभी न कम हों,
जिसकी खुशियाँ
ऐसा है भंडार ईद का।

अश्वघोष साहित्य जगत में पुराना नाम है। वे ग़ज़लकार भी हैं। कवि तो हैं ही। शिक्षक रहे हैं। बच्चों के मनोविज्ञान को भली-भांति समझते हैं। बच्चों के गीत-कविता ख़ूब लिखी हैं। एक अंश-
मम्मी,पापा,नानी,भैया,
दिन भर करते तात-ता-थैया।
मेरी समझ नहीं आता है,
इनका समय कहाँ जाता है!
अश्वघोष  की एक और कविता का अंश आप भी पढ़िएगा-
जिन्हें नहीं है ख़बर आज भी
प्यार किसे कहते हैं,
भाग्य-भरोसे ही रहकर जो,
भूख-प्यास सहते हैं
उन पर प्यार लुटाएँ हम।
योगेंद्रकुमार लल्ला बाल-साहित्य के प्रचार-प्रसार में कार्य करने वालों में एक हैं। उन्होंने बाल-साहित्य को सराहनीय रचनाएँ दी हैं। बच्चे हड़ताल,कोरोना,परमाणु बम,मौत,लाश,शादी-बारात आदि पर भी सोचते हैं। एक अंश-
कर दो जी,कद दो हड़ताल,
पढ़ने-लिखने की हो टाल।
बच्चे घर पर मौज उड़ाएँ,
पापा-मम्मी पढ़ने जाएँै
श्यामसिंह शशि बौद्धिक एवं सामाजिक लेखन के लिए जाने जाते हैं। वे सामाजिक विषमताओं पर भी खूब लिखते रहे हैं। बाल कविता में यही भाव दिखाई भी देता है। एक अंश-
जब तक भीख माँगता बच्चा
कैसे बाल-वर्ष तब अच्छा
पापा-मम्मी, नाना नानी
इन बच्चों की यही कहानी।
भगवती प्रसाद द्विवेदी ने भी बाल मन को छूने का प्रयास किया है। हालांकि बच्चों को ही शामिल करके कोई रचना बाल-साहित्य में शामिल नहीं हो सकती। मुझे लगता है कि किसी रचना का सरलीकरण कर देना भी बाल-साहित्य नहीं है। बाल-साहित्य यह भी नहीं कि वह सिर्फ बच्चों के लिए ही होती है। सरल,सपाट,तुकबन्दी और सीखप्रद। बाल-साहित्य में बालजगत की आवाज़ें हों। उनकी दुनिया हो। उनके मसअले भी हों। उनका सरल,निष्कपट स्वभाव भी दिखाई दे। एक अंश-
छुटकी नहीं रहेगी चुप
रोना नहीं उसे छुप छुप
धरती बेलेगी छुटकी
नभ से खेलेगी छुटकी!
दिविक रमेश नए भाव-बोध के साथ बच्चों के मन की बात बेहद सरलता से कह देते हैं। वे बच्चों की नज़र से दुनिया को देखते हुए हमें भी यह अहसास कराते हैं कि बच्चे भी बड़ों की तरह गंभीर होते हैं। एक अंश-
जब लहलहाती हैं फसलें तो
खेत मनाते हैं त्यौहार
जब लद जाते फूल फलों से
पेड़ मनाते हैं त्यौहार
रमेश तैलंग बाल-साहित्य के वरिष्ठ कवि हैं। वे अपनी कविताओं में बच्चों की आवाज़ बन जाते हैं। बच्चों को हम बड़ों से कई जायज़ शिकायतें हैं। उन शिकायतों की पैरवी कौन करेगा? रमेश तैलंग स्वयं भी बेहद संवेदनशील हैं। यह संवेदनशीलता उनकी कविताओं में भी दिखाई देती है। एक अंश-
हँसी-खुशी के कुछ पल ही तो
मिल पाते हैं दिनभर में
उछल-कूद करने को लेकिन
जगह नहीं दिखती घर में
अपने इस छोटे-से घर का
नक्शा बदलो पापाजी !
रमेश तैलंग की झोंपड़ियों के बच्चों पर एक मार्मिक कविता है। वे उनकी दिनचर्या की चर्चा तो करते हैं लेकिन एक बालमन की ओर से इन बच्चों के लिए भाव का एक अंश-
ये भी भारत के बच्चे हैं
ये भारत की शान हैं,
झोंपड़ियों के हैं तो क्या है,
मन इन पर कुर्बान है।
हरीश निगम की कविताओं में परम्परागत भाव-बोध हैं। उनकी कई कविताएं पुराने विषयों पर नए तरीके से लिखी गई पढ़ने को मिलती हैं। वे प्रकृति का मानवीकरण भी करते हैं। उन्हें नए तरीके से सामने लाते हैं। एक अंश-
स्वेटर, कंबल,कोट हवा
नहीं किसी से टली हवा।
गर्मी में सबको भाई
अब ठंडी में खली हवा।
अजय जनमेजय पशु-पक्षियों के माध्यम से बच्चों की प्रिय बातें कविताओं में कह जाते हैं। मूर्त-अमूर्त चीज़ों से भी वे बच्चों के लिए जानकारीपरक और चिन्तनपूर्ण रचना सामग्री ले आते हैं। अंगों के माध्यम से वह हर किसी की सार्थकता पर विचार करने के लिए बाध्य कर देते हैं। एक अंश-
छोड़े दुम को,भगे छिपकली
दुश्मन को चैंकाए
लेकिन कुछ दिन बाद उस जगह
वहीं पूँछ नई उग आए
अगर नहीं तुमने देखा तो
बात लगे अंजानी ........
ओमप्रकाश कश्यम चिंतन को बाध्य करते हैं। उनकी लंबी कहानियाँ बाल साहित्य के विमर्श को नया मोड़ देती हैं। बच्चों की समस्याओं और स्कूल न जाने वाले बच्चों की दुनिया पर गंभीरता से विचार करने वाली रचनाएँ ओमप्रकाश कश्यप की भी हैं। उन्होंने बहुत छोटे बच्चों की दुनिया में भी झांका है। एक अंश-
लोज छबेले छदा अकेले
पेपल वाले छे भी पहले
इन गलियों में आ जाती है
माँ यह ललकी क्या कलती है
बाल-साहित्य में बच्चों को जिद्दी,शैतान,बदमाश,दुष्ट आदि से संबोधित करना उचित प्रतीत नहीं होता। बच्चों से आदर्श की अतिरंजनाएँ भी उचित नहीं। नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाली कविताओं की भी कमी नहीं हैं। वे बदस्तूर लिखी जा रही हैं। ऐसी बहुत कम रचनाएँ प्रकाश में आती हैं जो बच्चों की मासूम कल्पनाएँ और सवालों को उठाती हों। बच्चों का मखौल बनाती और उन्हें बेवकूफ घोषित करने वाली कविताएं भी ख़ूब हैं। बच्चों के मुख से मनोविनोद कराने वाली कविताएं कम हैं। आर.पी.सारस्वत इस मनोविनोद को रेखांकित करते हैं। एक अंश-
मैं बोला बाबा से मुझको
एक गधा दिलवाना
मेरे जन्म-दिवस को अबके
हटकर ज़रा मनाना
बाबा के संग पूरे घर में
गूँजा एक ठहक्का
सुनकर इतना शोर हो गया
मैं तो हक्का-बक्का
रमेशचंद्र पंत की कविताएँ संवाद करती नज़र आती हैं। बच्चों को भाने वाले प्रकरणों में पंत जी की कविताएं न हों। ऐसा नहीं हो सकता। वे प्रकृति के साथ, बच्चों के जीवन से जुड़ी छोटी-छोटी बातों को शामिल करने में सिद्धहस्त हैं। घर-परिवार,मम्मी,पापा,भाई-बहन के अंतर्संबंधों पर उनकी कई रचनाएं प्रसिद्ध हैं। बड़ों की सीखों,संदेशों और उपदेशों को बच्चे किस नज़र से देखते हैं? वे बखूबी समझते हैं। एक अंश-
जब भी खेल खेलने जाते
या मित्रों संग गप्प लगाते
मम्मी हमें रोकती क्यों है?
पापा कुछ समझाना जी तो।
अश्वनी कुमार पाठक मेल-बेमेल शब्दों से बाल कविताएं रचते हैं। उनके पास भी बच्चों की दुनिया के सवाल हैं। वे बालमन में जानने की जो इच्छाएँ हैं उन्हें रेखांकित करते हैं। वे बच्चों की समझ को भी एक नया विस्तार देते हैं।  एक अंश-
भूखी रहकर तूने राँधी,
स्बके लिए रसोई माँ!
तूने सब कुछ लुटा दिया, पर
तेरे साथ न कोई माँ!
राजा चैरसिया बच्चों के बीच में हमेशा लोकप्रिय रहे हैं। वे अलग तरह की कविताओं के लिए जाने जाते रहे हैं। सड़क और पगडण्डी की बहस में मानवीकरण वे ही कर सकते हैं। सड़क के बड़बोलेपन का जवाब पगडण्डी किस तरह से देती है-
पगडण्डी बोली, तुम बातें,
करो न ऐसी घटिया
जनम लिया है, तुमने मुझसे,
तुम हो मेरी बिटिया।
राजा चैरसिया की कविताएं सीधे बच्चों के मन की बातें प्रस्तुत करती नज़र आती है। बच्चे जानते हैं कि बड़े कब नाराज़ हैं। कब प्रसन्न हैं। बड़ों से किस मौके पर कैसी बात करनी चाहिए। लेकिन राजा चैरसिया गुस्से वाले पिता से बच्चे की सीधी बातचीत तक करा देते हैं। एक अंश-
गुस्से की ऐसी आदत से
हम भयभीत रहा करते हैं
हँसने गाने के ये दिन हैं
लेकिन कष्ट सहा करते हैं
दादी कहती गुस्सैलों को
ही जल्दी से आए बुढ़ापा।
माधव कौशिक बच्चों की उलझनों को सामने लाते हैं। वह उनकी कथा-व्यथा को रचनाओं में शामिल करते हैं।
एक अंश-
काश! कोई जादू कर जाए
बस्ता खुद चलकर घर आए।
माधव कौशिक बच्चों को अस्तित्ववाद से आगे देखते हैं। वे भी नकारते हैं। उनके भी अपने तर्क हैं। एक अंश-
घिसे-पिटे परियों के किससे नहीं सुनूँगा?
खुली आँख से झूठे सपने नहीं बुनूँगा।
मुझे पता चंदा की धरती पथरीली है,
इसीलिए धब्बों की छायाएँ नीली हैं।
लक्ष्मीशंकर वाजपेयी भी जीव-जगत की जानकारियों को अपनी कविताओं में पिरोते हैं। समस्याओं और सुविधाओं से उपजे सवालों को उनकी कविताएं अलग अंदाज़ में प्रस्तुत करती हैं। एक अंश-
मम्मी,बिजली कहाँ गई है,
उसको ज़रा बुलाओ ना
इस गर्मी में जाती क्यों है,
उसको डाँट लगाओ ना।
जाने-माने कवि और भाषाविद् सुरेंद्र विक्रम की कई कविताएं स्कूली किताबों में बच्चे पढ़ रहे हैं। उनकी रचनाएं समाज और भविष्य का पता देती हैं। एक अंश-
हिंदी,इंग्लिश,जीके का ही, 
बोझ हो गया काफी
बाहर पड़ी मैथ की काॅपी,
कहाँ रखे ज्योग्राफी? 
रोज़-रोज़ यह फूल-फूलकर
बनता जाता हाथी
कैसे इससे मुक्ति मिलेगी
परेशान सब साथी
अखिलेश श्रीवास्तव चमन बाल-साहित्य के सक्रिय रचनाकार है। वे बच्चों के करीब खू़ब दिखाई पड़ते हैं। एक अंश-
पापा तुमने कभी न जाना
क्यों हम गुमसुम होते हैं।
मम्मी तुमने कभी न समझा
आखिर क्यों हम रोते हैं।
अहद प्रकाश की रचनाएं भी बच्चों को भा जाने वाली हैं। वे निरर्थक और ध्वन्यात्मक शब्दों को पिरोना जानते हैं। एक अंश-
अंबक टंबक
टंबक टुल्ला
अपना बचपन 
है रसगुल्ला
हूंदराम बलवाणी की रचनाओं में हास्य भी है। वे शब्दचित्र बनाने में सफल होते हैं। एक अंश-
लोभीराम है लोभ से खाना
भोंदूराम कुछ समझ न पाना
पेटूराम के पेट में चूहे
लगे दौड़ने सब हड़पाया
जैसे नाम हैं, वैसे काम
जाने कितने,कैसे राम!
श्याम सुशील वरिष्ठ कवि है। बच्चों के लिए उन्होंने कई नायाब रचनाएँ लिखी हैं। वे बच्चों की नज़र से उन वस्तुओं,चीज़ों,प्रतीकों और ख़्यालों को कविता का विषय बनाते हैं, जिनमें अमूमन बड़ों की नज़र नहीं पड़ती। एक अंश-
हवा धूल को छेड़ के भागी
सोती धूल अचानक जागी
उड़ी हवा के पीछे पीछे
हवा हो गई धूल के नीचे
कई रचनाकर धूप को आफत बताते हैं जब गर्मी आती है। वहीं कई रचनाकार सर्दी को दुश्मन घोषित कर देते हैं। वहीं श्याम सुशील जाड़े की धूप की बात कहते हैं। एक अंश-
गरमाहट देती है
दोस्त के हाथ सी
जाड़े की धूप!
नागेश पांडेय ‘संजय’ बाल साहित्य के मर्मज्ञ कवि हैं। गद्यकार भी हैं। समग्र बाल साहित्य के अध्येता भी है। वह संवेदना के स्तर पर आम जीवन में भी बेहद गंभीर हैं। बच्चों में गंभीरता का परिचय वे अपनी रचनाओं के माध्यम से कराते हैं। एक अंश-
घोड़े के भारी-भरकम शरीर और काम पर एक बच्चा कैसी प्रतिक्रिया करता है। एक अंश-
कैसे चल पाते हो इतना?
दुखते होंगे पैर।
खूब पीठ पर चाबुक पड़ते,
लगती होगी चोट।
सूरजपाल चैहान की नज़र में बच्चे भी सूक्ष्म अवलोकन करते हैं। एक अंश-
एक रुपए की अब न पूछ
दो के नोट की नीचे मूँछ
नोट पाँच का है शरमाता,
दस का भी तो कुछ नहीं आता।
प्रदीप शुक्ल नए समय को रचनाओं में रेखांकित करते हैं। आज के बच्चों की ध्वनि और चाहतें उनकी कविता में शामिल हैं। अब गूगल में सर्च कर सब खोज लोगे। लेकिन खोई हुई भैंस को कैसे खोजेंगे? एक अंश-
जिसे खोजना हो अब तुमको।
गूगल में डालो तुम सबको।
कक्का कहें चबाकर लईय्या
मेरी भैंस खोज दो भैय्या।
घमण्डीलाला अग्रवाल वरिष्ठ कवि हैं। कई विधाओं में सिद्धहस्त हैं। वे अलग तरह के प्रयोग भी कविताओं में करते हैं। एक अंश-
चलती-फिरती शालाएँ हैं
प्यारी दादी-नानी।
रावेन्द्रकुमार रवि बालसाहित्य के विशेष अध्येता हैं। पूरी ऊर्जा के साथ बाल-साहित्य के उन्नयन में प्रयासरत् हैं। गद्य के साथ पद्य में भी महारत हासिल है। वे बहुत-बहुत सूक्ष्म चीज़ों,वस्तुओं,सेवाओं और बातों को अपनी कविताओं में शामिल करते हैं। एक अंश-
एक मटर की फली हरी,
डसमें रहती एक परी!
प्री अभी यह नन्ही-सी है,
पंख नहीं हैं इसके आए!
दीनदयाल शर्मा लम्बे समय से बाल-साहित्य की साधना में लगे हुए हैं। वे बच्चों के मासूम सवालों को सम्मान देते हैं। एक अंश-
 फिर मैं किससे पूछूँ पापा,
मुझको बतलाएगा कौन।
डाँट-डपट के कर देते हैं,
मुझको पापा सारे मौन।
शादाब आलम नई पीढ़ी के पाठकों की नब्ज़ टटोलकर लिखने वाले कवि हैं। उनके पास भले ही प्रकरण पुराने भी हों पर कहन नया है। उनके पास प्रकृति की कविताएं भी है तो घर के भीतर के रिश्तों में गुड़ की मिठास भरी बातें भी हैं। बच्चों की आवाज़ें भी हैं। उनमें तर्क है। समझदारी है। एक अंश-
झगड़े की आवाज़ें मेरा
ध्यान बँटाती हैं।
जो भी पाठ याद करता हूँ
उसे भुलाती हैं।
आप करें गुस्से को काबू,
तो कुछ करूँ पढाई। 
मोहम्मद अरशद खान कई विधाओं में लिखते हैं। उनकी रचनाओं में भावनाएं हैं। संवेदनाएं है। पूरा समाज है। बच्चों की अनकही बातें भी हैं। बच्चों की बातों को अलग तरीके से उठाना उनकी खासियत है। जिन बच्चों को अबोध,बेचारा और मासूम समझा जाता है, उनकी सोच में बड़ी समझदार बातों को कविताओं में देखा जा सकता है। एक अंश-
गरम रेत पर चलते-चलते,
तेरे पाँव न कैसे जलते?
ज़रा पहन ले बूट रे!
ऊँट रे, ओ ऊँट रे !
मोहम्मद साजिद खान भी विविध विधाओं में सिद्धहस्त हैं। वे छोटी-बड़ी रचनाओं के लिए जाने -जाते हैं। उनकी रचनाओं में मानवीय संवेगों की प्रमुखता रहती है। उनकी रचनाएँ सरल,सहज भाषा के साथ कई गूढ़ अर्थों को समझने की सामथ्र्य रखती है। उनकी रचनाओं में बच्चों के सार्थक तर्क देखे जा सकते हैं। एक अंश-
मम्मी-पापा का है कहना,
मेरा सपना पूरा करना
अपने जैसा सबको गढ़ना
क्या अच्छा लगता है?
मोहम्मद साजिद खान बच्चों की समझ को भी बड़े करीने से प्रस्तुत करते हैं। एक ओर बाल स्वभाव को बाल-साहित्य पेटू बताता है। बच्चों में झगड़ा करने की आदत को,पशु-पक्षियों को चोटिल करने की बात करता है। पढ़ने से जी चुराने वाला चरित्र बारम्बार दिखाता है वहीं वे बच्चों की सकारात्मक सोच को भी तरीके से प्रस्तुत करते हैं-
घर पर सबके आज बने हैं
ढेर-ढेर पकवान
दम-दम दमक रहा घर सबका
आएँगे मेहमान।
देशबंधु शाहजहाँपुरी लम्बे समय से बाल-साहित्य लिख रहे हैं। वे मानवीय संबंधों को अक्सर रचनाओं में शामिल करते हैं। रिश्तों की पड़ताल वह भी बच्चों की नज़र से करना आसान काम नहीं है। एक अंश-
जब भी नई फसल आती तब,
तुम मेरे कपड़े सिलवाते।
साल महीने मगर तुम्हारे,
धोती, कुर्ते में कट जाते।
बल-साहित्य में जीवन्त कविताएं प्रायः कम मिलती हैं। अधिकतर कविताओं में बच्चों के लिए संदेश हैं। उपदेश हैं। उन्हें मर्यादाओं की नसीहतें देने वाली रचनाओं का भण्डार है। लेकिन संजीव ठाकुर जैसे रचनाकार भी हैं जिनकी समर्थ रचनाएं बच्चों में इस दुनिया के प्रति पे्रम करने के लिए सरस अनुरोध करते हैं। ऐसा अनुरोध जो सायास है। ठूंसा हुआ नहीं है। यह कहना सही होगा कि बच्चे भी अपनों के दर्द को महसूसते हैं और उन्हें भी भावों से भरा हुआ देखा जा सकता है। 
 एक अंश-
जाड़े के मौसम ने देखो
अपनी टाँग अड़ा दी
दादी की हड्डी में जैसे
ठंडी बर्फ गड़ा दी।
राजकुमार जैन ‘राजन’ बाल-साहित्य साधकों के लिए प्रेरणा का काम करते हैं। वे समूह की ताकत को पहचानते हैं। आधुनिक समय की मांग को समझते हैं। यही आधुनिकता उनकी रचनाओं में देखी जाती है। एक अंश-
रोबोट किया करेगा अब से
मेरे घर का सारा काम 
मम्मी को भी मिल जाएगा
कुछ पल को थोड़ा आराम।
युवा कवि निश्चल की रचनाएं भी ताज़ा हैं। वे तेजी से बदल रही बच्चों की दुनिया में झांक लेते हैं। सही भी है। आज के बच्चे चाँद को मामा न कहें लेकिन वे अपनी मम्मी को गूगल समझ सकते हैं। ये नए प्रतीक नए भाव तभी रचनाओं में शामिल हो सकते हैं जब नया सोचा जाए। एक अंश-
मुझको गूगल जैसी अम्मा
सब कुछ मुझे बताती हैं
मेरी सारी दुविधाओं को
पल भर में सुलझाती हैं
फहीम अहमद बाल साहित्य में अत्यधिक सक्रिय हैं। वे बच्चों की दुनिया के लिए लिखते हैं तो उनकी दुनिया जीते भी हैं। इस दुनिया का कौन-सा विषय है जो बच्चों के लिए नहीं है! क्यों बाल-साहित्य में कोई यह तय करे कि यह बच्चों के लिए ठीक न होगा, वह लिखा जाए। वह न लिखा जाए। फहीम अहमद हर उस कोने को अपनी कविताओं में इस्तेमाल करते हैं जिसे बाल साहित्य में कम स्थान मिला हो। परम्परागत विषय में भी वह नया स्वाद जगाते हैं। एक अंश-
खा ली मैंने मिर्च, उई माँ
टाॅफी केक जलेबी छोड़ी
डलिया में थीं मिर्च निगोड़ी
सोचा लाओ चख लूँ थोड़ी।
फहीम अहमद अलग तरीके से सोचते हैं। किसी भी चीज़ के फायदे हैं तो नुक्सान भी हैं। लेकिन कहन यदि अलग हो तो आनन्द बढ़ जाता है। एक अंश-
बूझो मेरी दुश्मन कौन?
पापा का मोबाइल,फोन
जबसे इसको लाएँ हैं
संग सदा लटकाएँ हैं।
हेमंत कुमार वरिष्ठ रचनाकार हैं। घर-गांव-शहर और पशु-पक्षियों को आधार बनाकर बालमन की कविताएं भी लिखते हैं। पारम्परिक ची़जों,परिवारों,रिश्तों और गांवों का सुन्दर चित्रण उनकी कविताओं में मिलता है। एक अंश-
सूनी घाट सूने पर्वत 
पूछ रहे पेड़ों के ठूँठ
क्या गलती कर दी थी हमने
कहाँ खो गए सबके गीत।
हेमंत कुमार बच्चों के मन से उनकी कल्पनाओं की उड़ान को बखूबी देख-समझ लेते हैं। रंग-बिरंगी मछली को देख बालमन का सवाल एक कविता में आया है। एक अंश-
ज़रा बताओं तो ये कपड़े
किस दजीऱ् से सिलवाए
किस कारीगर से ये अपने 
प्यारे से पर लगवाए?  
सुषमा सिंह की कविता में कस्बाई-शहरी जीवन की विषमताएं भी मिलती हैं। शहरों में पढ़ रहे बच्चे और उनके खेलों को वह रेखांकित करती हैं। एक कामकाजी माँ के बच्चे क्या-क्या सोच लेते हैं? एक अंश-
पापा को आॅफिस की जल्दी
माँ तुम भी तो जाती छोड़
दादी नानी कोई न संग
बोलो मुझे सँभाले कौन?
निशांत जैन परम्परागत प्रकरणों के साथ नई जीवन शैली दोनों में कलम चलाते हैं। ई-मेल को रेखांकित करती कविता का एक अंश-
चुटकी भर में दौड़ी जाए
एक पल में जवाब पहुँचाए
कुरियर या स्पीड पोस्ट हो
इसके आगे हैं सब फेल।
गोपाल माहेश्वरी की व्यापक दृष्टि उनके विचारों में दिखाई देती है। उन्होंने भी बच्चों के लिए बालसुलभ और परम्पराओं की पड़ताल कविताएं लिखी हैं। अब आज के बच्चे चिट्ठी-पत्री को क्या महसूस करेंगे? बैलगाड़ी की सवारी की कल्पना को कैसे महसूस करेंगे? यह सवाल तो उठेगा ही। लेकिन कोई कविता बढ़ते प्रदूषण को इस तरह भी समझाती है। एक अंश-
ढूँढों ढूँढों कहाँ गए?
सारे-सारे कहाँ गए!
पूरी रात गगन पर थे,
सुबह सकारे कहाँ गए !
वीणा भाटिया नल की हड़ताल को इस तरह प्रस्तुत करती हैं। एक अंश-
कान ऐंठता जो भी आता
टाँग बाल्टी मुझे सताता।
अवधेश सिंह बच्चों के मुख से पैसे की कहानी का सवाल उठाते हैं। पैसे पर बात करता हुआ बाल मन अपना अनुभव कुछ इस तरह सुनाता है-
क्यों पैसे ही देकर मिलता
मुझको छोटा-बड़ा सामान
जहाँ भी देखें पैसे पर ही
रहता सदा ही सबका ध्यान।
हरीश कुमार ‘अमित’ बच्चों का उल्लास पहचानते हैं। वे छुट्टियों को अपना अलग ही अंदाज़ देते हैं। एक अंश-
करो मौज और हल्ला-गुल्ला
खाओ पिज्जा या रसगुल्ला
अब हम पर नहीं बंदिश कोई
पास हमारे वक़्त है खुल्ला।
शिवचरण सरोहा के पास भी बच्चों के कई अनसुलझे सवाल हैं। बच्चों के लिए चाँद हमेशा से रहस्य और जिज्ञासा की वस्तु है। तालाब में चाँद की परछाई देख कोई बालमन ऐसी भी कल्पना कर सकता है। एक अंश-
चाँद गिरा
ताल में
चाँदनी डूबी
ख़्याल में
पूँछ हमेशा बच्चों में जिज्ञासा जगाती है। उन्हें अपने आस-पास जीवों की पूँछ दिखाई देती है। बच्चे भी सोचते ही है कि काश ! उनकी भी पूँछ होती! राजीव नामदेव ‘रानालिधौरी’ की एक कविता का अंश-
कोई पास हमारे आता,
आदर से हम पूँछ हिलाते
नमस्कार करने की खातिर
हाथ नहीं हम पूँछ मिलाते।
विकि आर्य इस संसार में छोटे-बड़े का अस्तित्व स्वीकारते हैं। तुच्छ और बेजान चीज़ों को भी महत्व देते हैं। धागा बच्चों से कुछ इस तरह से कह रहा है-
धागा हूँ
कुछ भी बन सकता हूँ
ऊँचे उड़ती डोर पतंग की
या गुब्बारा नन्ही अंगुली में लिपटा
विकि आर्य बेहद सूक्ष्म बातों-अवधारणाओं को नए शिल्प पर ढालते हैं। एक अंश-
आँगन में बैठी माँ 
घर डाल रही है!
धूप नर्म गिलहरी-सी
डसके साथ-साथ
आगे-पीछे फुदकती है
माँ घर बुन रही हैं . ....
राम करन घर-गाँव,शहर और प्रकृति को बच्चों की नजर से देखने और उसका सफल चित्रण करने वाले कवि हैं। वे बच्चों की जिज्ञासाओं को भी जानते हैं। बच्चों के अनगिनत सवालों से दो-चार होती उनकी कई कविताएँ हैं। मम्मी से सवाल का एक अंश-
जो भी बढ़िाया काम करूँ मैं,
उसमे खोट दिखाती है।
मेरी रुचियाँ, मेरे शौक,
सबसे ‘टाँग’ अढ़ाती है।
उपेंद्रनाथ शुक्ल भी बच्चों के मन को पढ़ लेते हैं। चांद का गोरापन बच्चों में कई सवाल पैदा करता है। एक अंश-
उस साबुन का नाम बताओ
जिससे आप नहाते
क्रीम कौन सी वह है जिसको
नित ही आप लगाते

रामनरेश उज्ज्वल का गद्य जितना गूढ़ है, मारक है उतना ही पद्य बेहद भावपूर्ण। बच्चों के मन जैसा। बच्चों के मुख से लिखा हो। धारदार और शानदार भी। हमको लगी रजाई धूप का एक अंश-
जाड़े में जब आई धूप,
हमको लगी रज़ाई धूप।
बच्चे न सिर्फ अपने दोस्तों का मन पढ़ लेते हैं वह घर और स्कूल में एक-एक का रेखाचित्र खींच लेते हैं। रामनरेश उज्ज्वल की नज़र वहां भी चली गईं। एक अंश-
मम्मी मेरी अक्सर करतीं
कान खि़चाई तौबा-तौबा
होमवर्क में मैडम जी की
बहुत कड़ाई तौबा-तौबा। 
वशीला पांडे छोटे बच्चों के मन को पढ़ लेती हैं। भाई-बहिन की उलझनों पर उनकी नज़र रहती है। इसी तरह की एक कविता में दो भाईयों की बातों का चित्रण है। एक अंश- 
उसके कई राज मैं जानूँ
सबको उन्हें बताऊँगा
सभी पसंदीदा चीजों को
कल से कहीं छुपाऊँगा।
पुष्प लता शर्मा बालमन की कविताएं लिखती हैं। मासूम अभिव्यक्तियों में बाल स्वभाव साफ झलकता है। एक कबूतर सर्दी में ठिठुर रहा है। एक अंश-
बड़ी देर से हाँफ रहा है
सर्दी से वह काँप रहा है
पहना दो तुम उसको स्वेटर
उड़ जाएगा ऊँचे अम्बर
पुष्प लता शर्मा बच्चों की चाहतें समझती हैं। उनके कोने में घर-परिवार के सदस्यों के संग खेलने की इच्छाएं भी हैं। कामकाजी महिला के बच्चे क्या सोचते हैं? एक अंश-
आज न दफ्तर जाओ मम्मी
कुछ पल साथ बिताओ मम्मी
खेलो कूदो साथ ज़रा तुम
मेरे संग मुस्काओ मम्मी।
संदेश त्यागी बच्चों से किसी बड़े जैसा बनने का आग्रह नहीं करते। वे चाहते हैं कि बच्चे अपनी पहचान बनें। बच्चे भी चाहते हैं कि उनकी तुलना किसी ओर से न की जाए। एक अंश-
लेकिन मेरी सोच है अपनी,
खुद अपनी पहचान बनूँगा।
अनुपमा गुप्ता चिकित्सक है। इस लिहाज़ से उनकी कविताओं में बच्चों की कल्पनाओं के साथ क्लीनिक का बोध आना स्वाभाविक है। यही कारण है कि उनकी कविताओं में भले ही पात्र,विषय परम्परागत हो लेकिन शिल्प और कहन नया होता है। एक अंश-
छत से फिसली बिल्ली रानी
हड्डी टूटी चार
पहुँच गई चूहे की क्लीनिक
होकर के लाचार।
कौशल पांडेय कल्पना और यथार्थ में एक जोड़ बिठाते हैं। ऐसी कविताएं प्रायः कम ही पढ़ने को मिलती हैं। बच्चों की कल्पनाओं में जहाँ परियाँ भी हैं तो उन्हें यथार्थ में किताबों से दोस्ती भी करनी पड़ती हैं। सपने में परी का आना और उसका एक किताब देना। जिसे पढ़-पढ़कर बालमन आनंद ले रहा है। कविता का एक अंश- 
अगला पन्ना खुलता जब तक
टूट गए सपने मेरे।
जितने पन्ने पढ़ पाए थे
काम बहुत आए मेरे।
युवा कवि सुनील भट्ट ने भी इधर कुछ बेहतरीन कविताएँ लिखी हैं। वे बच्चों के मनोविज्ञान को समझते हैं। बच्चों के बीच काम करते हैं। बच्चों की मस्ती को कविताओं में उकेरते हैं। एक अंश-
मम्मी बोली-बस कर बैठा
क्यूँ करती है इतनी मस्ती
थक जाती हूँ दिन भर में मैं
काम बढ़ाती तेरी मस्ती



मंजु महिमा जानती हैं कि अक्सर बच्चों के सवालों का जवाब बड़े नहीं देते। बच्चे सोचते ही रह जाते हैं। मौका मिलते ही पूछ बैठते हैं। एक अंश-
 रोज होंठ अपने रंगती
दादी खाकर पान
पर मैं खाती तो झट कहतीं
बच्चों को करता नुकसान।
वीणा शर्मा वशिष्ठ पद्य में लिखती हैं। बच्चों के लिए भी लिखती हैं। वे सूचनात्मक और जानकारी देने वाली कविताएं भी लिखती हैं। बच्चों में कल्पना को विस्तार देने के लिए वे सवाल भी उठाती हैं। एक अंश-
सोचो गर ये वृक्ष न होते
श्वाँस हमें दिलवाता कौन
सदा सिलेंडर लिए आॅक्सीजन
उसका बोझ उठाता कौन।
ऐसे हजारों बच्चे हैं जो जानते ही नहीं कि गाँव क्या होता है! आशा पांडेय गाँव और शहर की परिभाषा नहीं बतातीं। वह शहरी बच्चों के मन को कुछ इस तरह से व्यक्त करती हैं। एक अंश-
मम्मी जी तुम मुझे बताओ कैसा होता गाँव?
कैसा पनघट कैसा पोखर
कैसी तालतैया?
कैसा होता है चरवाहा
कैसी होती गइया?
रेनू सिरोया भी बच्चों के सवालों को उठाती हैं। बच्चे भी धरती और आकाश को देखकर कई सवाल करते हैं। एक अंश-
चाँद संग तारों का मेला
सूरज फिर क्यों उगे अकेला
मेराज रजा भी जिज्ञासा जगाने वाली रचनाएँ लिख रहे हैं। पेड़ से बतियाते हुए वह कहते हैं-
खड़े-खड़े हरदम रहते हो
कुछ न कहते, चुप रहते हो
नीम, आम जामुन बहेड़ जी
सुनो पेड़ जी सुनो पेड़ जी।
सतीशचंद्र शर्मा ‘सुधांशु’ बच्चों के हवाले से पूछते हैं-
सौ बेटे थे धृतराष्ट्र के 
क्या थे उनके नाम?
बाल-साहित्य में कई कविताएँ सर्दियों को कोसती हैं। ऐसी कविताओं की भी कमी नहीं हैं जो गर्मी को आफत बताती हैं। मौसमों की महिमा और उनकी ज़रूरत पर कम कविताएं हैं। संध्या गोयल सुगम्या छुट्टियों से सवाल करती हैं। एक अंश-
खूब सारी छुट्टियाँ आती
सर्दी मुझको खूब भाती
क्यों आती साल में एक बार
आओ न सर्दी बारंबार
विश्वनाथ गुप्त बच्चों की मनोदशा समझते हैं। नए युग के बच्चों के लिए होमवर्क वाकई सरदर्द है। स्कूल-ट्यूशन आदि। लेकिन इनका रोना तो कई कविताओं में दिखाई देता है। लेकिन वे बच्चों की ओर से इस चुनौती को स्वीकार करते हैं। एक अंश-
होमवर्क भी कर लूँगा मैं,
मुझको नहीं डराओ
भूत बनाकर इसका मेरे
सर पर नहीं चढ़ाओ।

गोपाल राजगोपाल आज के सन्दर्भों को कविताओं का विषय बनाते हैं। बच्चे अब अपने बिजी शिड्यूल को जानते हैं। वे जानते हैं कि उनका मस्ती और खेल का बचपन पढ़ाई-ट्यूशन खा रहा है। एक अंश-
शाम को ट्यूशन सुबह स्कूल
थ्कतना बिजी मेरा शिड्यूल
काॅपी किताबें बस्ता थैला
दिन भर रहता यही झमेला
क्लास वर्क ओर होमवर्क में
खेल-कूद सब हुआ फिज़ूंल
रेखा लोढ़ा ‘स्मित’ बालमन की कोमल भावनाओं को अलग अंदाज में व्यक्त करती हैं। एक अंश-
कंधे अब तो थके हमारे
स्वेटर का वजन उठाते
दिवस क्यों नहीं गर्मी वाले
अब जल्दी से आ जाते।
रेखा लोढ़ा ‘स्मित’ की एक ओर कविता का अंश-
सर्दी आई ओढ़ दुशाला
सूरज ने भी मफलर डाला
कुसुम अग्रवाल वरिष्ठ रचनाकार हैं। गद्य के साथ पद्य में भी साधिकार लिखती हैं। प्रकृति के साथ-साथ बच्चों के आस-पास की चीज़ों पर कविताएं बुनती हैं। बच्चे भी जानना चाहते हैं कि बड़ों का बचपन कैसे बीता होगा? यहाँ दादी के बचपन को जानने की इच्छा है। एक अंश-
कैसी थी तुम पढ़ने में?
लड़ने और झगड़ने में?
काम सभी के करने में?
बातों से मन हरने में? 
पुष्पलता बच्चों के नजरिए से हम सभी को अहसास कराना चाहती हैं कि बच्चे पशुओं को-पेड़ पौधों को स्नेह करते हैं। वे पंछियों को भी अपने परिवार की तरह देखते हैं। एक अंश-
इनकी भी माँ होताी है
बिछुड़ गई तो रोती है
पिल्ला भी तो रोता है
खुश मत होना पाल के।
सुभद्रा कुमारी चैहान की कई कविताएं आदर्श का अनुकरण कराती हैं। लेकिन कुछ कविताओं में बच्चों की जिज्ञासा भी साफ दिखाई देती हैं। एक अंश- 
अभी अभी भी धूप,बरसने
लगा कहाँ से यह पानी
किसने फोड़ घड़े बादल के
की है इतनी शैतानी

अरविंद कुमार साहू गद्य और पद्य की विधाओं में समानांतर लिखते हैं। उनकी रचनाएं परम्पराओं की जोरदार वकालत करती हैं। लेकिन वह समय के साथ आ रहे बदलावों को भी रचनाओं में शामिल करते हैं। एक अंश-
अगर पंख अपने होते तो
नभ में ऊँचे तक उड़ जाते
पासपोर्ट न वीजा होता
सारी दुनिया घूम के आते।
चांद,तारो,अंतरिक्ष आसमान पर हजारों कविताएं हैं। सूचना और ज्ञान से ठूंसी हुईं। लेकिन भावना शर्मा अंतरिक्ष पर बात करती हैं। बच्चों का नज़रिया एक कविता में उसी तरह से आया है जैसा आना चाहिए। एक अंश-
लटके हैं ग्रह इसके सारे,
बिना सहारे,धागों के
बादलों के भी कई आकार
लगते हैं गुब्बारों से।
रेनू चैहान बच्चों के साथ खड़े होकर बच्चों की कल्पनाओं को अपनी कविताओं में पँख देती हैं। बादल के गाँव का एक चित्रण-
बूँदों के ही पेड़ लगे हैं
बूँदों से आँचल भरे हैं
चहुँओर फैली हैं बूँदें
बूँदों से बने हैं ठाँव।
 मिठाई वे भी भारत की! किसे नहीं भातीं? आभा कुलश्रेष्ठ बच्चों के सवालों का जवाब भी शानदार तरीके से देना जानती हैं। चूहे बिल्ली की बात का मिठाई से क्या संबंध? एक अंश-
मीठी-मीठी प्यारी मिठाई
जैसे तुम को भाती है
चूहे को समझ रसगुल्ला
बिल्ली चट कर जाती है।
विनोद भृंग बदलते समय की नब्ज़ पकड़ लेते हैं। बच्चों को तकनीकी पक्ष भी ख़ूब भाते हैं। समाज में आ रही मुश्किलें भी तो बच्चे समझते हैं। देखते हैं। अखबार को वे कैसे देखते हैं? एक अंश-
जाने क्या हो गया आजकल
भैया इन अखबारों को,
रोक दिया क्यूँ जान-बूझकर
बचपन-भरी बहारों को।
रोबोट अब नई चीज़ नहीं रह गई। आने वाले दस-एक सालों में बच्चों के साथी रोबोट होंगे। शिवचरण ऐसे ही रोबोट की बात कर रहे हैं। एक अंश-
बस्ते से काॅपियाँ निकालो।
प्रश्न गणित के हल कर डालो।
आज के अभिभावकों की शिकायत हैं कि बच्चे खाना नहीं खाते। जंक फूड पर नज़र है। वहीं लेकिन इस समाज में ऐसे भी बच्चे हैं जिन्हें भूख लगती है। लेकिन भूख को शांत करने का जरिया उनके पास नहीं है। लायक राम मानव की कविता का एक अंश-
मम्मी भूख सताती क्यों है?
बार-बार फिर आती क्यों है?
लायक राम मानव संवेदनाओं के कवि हैं। वे कई विधाओं में लिखते हैं। बच्चों की दुनिया से भली-भाँति वाकिफ हैं। कोई बच्चा पहली बार गोलगप्पा खा रहा हो तो कुछ भी संभव है। एक अंश-
चूक गए थोड़ा-सा भी यदि,
बिगड़ गया जो ढंग।
खाँस-खाँस कर हाल बुरा हो,
कपड़े हों बदरंग।
कवि बलवंत भी बच्चों के बस्ते का बोझ समझते हैं। भारी बस्ता,भारी पढ़ाई पर हजारों कविताओं में एक कविता उनकी भी है। एक अंश-
बहुत सताए भारी बस्ता
मुझे न भाए भारी बस्ता
पापा,थोड़ा कम करवा दो
नींद में आए भारी बस्ता।
विनोद भृंग भी अन्य कवियों की तरह मानते हैं कि सूरज और चाँद वाकई में बच्चों के लिए अबूझ पहेली जैसे हैं। यह सही भी है। लेकिन बच्चा सूरज को जिस नज़र से देखता है उसकी बानगी का एक अंश-
अपने रंग कहाँ पर रखता,
पास नहीं इसके झोला।
चटोरापन केवल बड़ों का ही क्षेत्र नहीं है। बच्चे भी खाने में भिन्नता चाहते हैं। कृष्णा कुमारी बच्चों की ओर से स्कूल ले जाने वाला टिफीन बदलवाना चाहती हैं। एक अंश-
मम्मी अब तो दया करो
रूप लंच का नया करो।
रोहिताश्व अस्थाना की कई कविताएँ बालस्वभाव का प्रतिनिधित्व करती हैं।
बालमन की कल्पनाओं को उनकी कविताओं में बखूबी देखा जा सकता है। एक अंश-
चंदा मामा की धरती पर
बस्ती नई बसाने !
किसे-किसे चलना है बोलो
मिलकर मौज मनाने।
कृष्ण शलभ बालसाहित्य के लिए हमेशा याद किए जाते रहेंगे। 666 बालकविताओं का प्रतिनिधि संकलन ‘बचपन एक समन्दर’ सदा याद किया जाता रहेगा। वे मौन साधकों में रहे हैं। बाल साहित्य में प्रकृति का मानवीकरण करती बेजोड़ कविताओं में उनकी रचनाएँ भी शामिल हैं। चरित्रों का भावपूर्ण चित्रण भी उन्होंने बखूबी किया है। धूप पर उनकी एक कविता का अंश-
कहो कहाँ पर रहती बाबा
कैसे आती जाती है
इतनी बड़ी धूप का कैसा
घर है,कहाँ समाती है
बिना कहे ही चल देती है
क्यों इतनी शरमीली धूप?
करने में वह बेजोड़ हैं। 
कृष्ण शलभ बालमन की जिज्ञासाओं को भी बखूबी समझते रहे। उन्होंने उन्हें सम्मान दिया। उनके सवालों को,जिज्ञासाओं को,अनसुलझी बातों को आवाज़ दी। एक अंश-
बोल समंदर सच्ची-सच्ची,तेरे अंदर क्या
जैसा पानी बाहर,वैसा ही है अंदर क्या
बाबा जो कहते क्या सच है
तुझमें होते मोती
मोती वाली खेती तुझमें
बोलो कैसे होती?
शकुंतला कालरा भी बच्चों की इच्छाओं को बखूबी समझती हैं। उनके सपनों को वे भरपूर स्थान देती हैं। एक अंश-
अगर बनूँ मैं टीचर मम्मी
सब बच्चों को पास करूँगा। 
खुले हाथ से नंबर दूँगा
उनको नहीं निराश करूँगा।
दामोदर अग्रवाल की एक दूसरी कविता है। कहने को तो यह चूहे की गप्प है। लेकिन इसमें बच्चों की गप्प या दूसरे शब्दों में उनकी काल्पनिकता साफ दिखाई देती है। एक अंश-
लाल किले में रहूँ, नहाऊँ
जमुना जी के जल में,
महरौली में रोटी खाऊँ
सोऊँ ताजमहल में।
सुबह-सुबह उठ लंदन भागूँ
हड़बड़-हड़बड़ हप्प,
सुन चूहे की गप्प !
॰॰॰
-मनोहर चमोली ‘मनु’
सम्पर्क: 7579111144
मेल: chamoli123456789@gmail.com

1 टिप्पणी:

यहाँ तक आएँ हैं तो दो शब्द लिख भी दीजिएगा। क्या पता आपके दो शब्द मेरे लिए प्रकाश पुंज बने। क्या पता आपकी सलाह मुझे सही राह दिखाए. मेरा लिखना और आप से जुड़ना सार्थक हो जाए। आभार! मित्रों धन्यवाद।