कहीं सन्तला न आ जाए !
-मनोहर चमोली ‘मनु’
‘‘खट-खट-खट ! दरवाज़ा खोलो।’’ ये संतला की आवाज़ थी। संतला बहुत गुस्से में थी। एक हाथ में लोहे का चिमटा था। दूसरे हाथ में लालटेन थी। दरवाज़ा खुला। संतला रसोई में आ घुसी। ‘‘चूल्हे में क्या पक रहा है? ये देखने आई हूँ। मैं खुशबू से ही अपने मुर्गे को पहचान लूंगी।’’संतला ने चिमटे से कढ़ाही के ऊपर रखी थाली उठाई। कढ़ाही में झांका।‘‘
यह जाड़े की शाम थी। पहाड़ का जागना और सोना सूरज के साथ-साथ होता है। यहाँ सूरज देर में जागता है। तेजी से पश्चिम की ओर दौड़ने लगता है। हर कोई अपने घर की ओर जल्दी से लौटना चाहता है। कड़ाके की ठंड जो पड़ती है। सोनेे से पहले खाना पकाना और खा लेना भी तो जरूरी है। यही कारण है घरों में लगभग एक ही समय के आस-पास भोजन पकने लगता है।
‘‘दड़बे से मुर्गा गायब है। ज़रूर किसी की रसोई में पक रहा है। मैं तलाशी लूंगी।’’ संतला अब पड़ोस के घर का दरवाज़ा थपथपा रही थी। वह जिस घर से बाहर निकलती, कोई बच्चा साथ हो लेता। तनवीर, मुसद्दी, सलमा, थापला, बिट्टू, नीटू, मालती पीछे-पीछे चलने लगे। लालटेन की रोशनी में संतला इंजन और बच्चे रेल के डिब्बे की तरह लग रहे थे। यह रेल गांव की पगडण्डी पर चल रही थी। यह रेलगाड़ी सीटू लुहार, मियां मुरादाबादी, सतनाम कुम्हार और पण्डित रामदयाल के घर के रास्ते पर पहुंची। इनकी रसोईनुमा स्टेशन पर भी ठहरी।
संतला भूल गई कि गांव की अधिकतर रसोई में मांस पकता ही नहीं। वह तो चिमटा लहराते हुए कह रही थी-‘‘मेरा मुर्गा किसी न किसी की रसोई में तो पक ही रहा है।’’ तभी पीछे से गिरबीर ने पुकारा-‘‘माँजी। मुर्गा मिल गया है।’’
‘‘किसकी रसोई में?’’
‘‘रसोई में नहीं मिला। हमारे ही गोट में दुबका था। जंगली बिल्ली के डर से।’’ फिर क्या था। अब संतला ने बच्चों को घूरा ओर कहा-‘‘चलो रे, भागो अपने-अपने घर।’’ इस दिन के बाद संतला फिर किसी के घर नहीं आई। हां, पहाड़ के गांवों में यह किस्सा कई दिनों तक चलता रहा। खाना पकाते समय हंसी-ठिठोली करते हुए सुनने को मिलता-‘‘दरवाजा बंद कर दो, कहीं संतला न आ जाए।’’
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