कविताओं में बालमन की दुनिया शामिल करना आसान नहीं है
-मनोहर चमोली ‘मनु’
मन करता है सूरज बनकर
आसमान में दौड़ लगाऊँ
मन करता है चंदा बनकर
सब तारो पर अकड़ दिखाऊँ
मन करता है बाबा बनकर
घर में सब पर धौंस जमाऊँ
मन करता है पापा बनकर
मैं भी अपनी मूँछ बढ़ाऊँ
मन करता है तितली बनकर
दूर-दूर उड़ता जाऊँ
मन करता है कोयल बनकर
मीठे-मीठे बोल सुनाऊँ
जी हाँ मैं इस बेमिसाल,बेजोड़ कविता ‘मन करता है’ के रचनाकार सुरेंद्र विक्रम का आज उल्लेख कर रहा हूँ। उन पर बात करने से पहले इस लोकप्रिय कविता को एक बार फिर से पढ़ने का मन करता है। हालांकि इस कविता पर हज़ार-हज़ार बार बात हो चुकी है। लेकिन इस कविता से पहले मुझे सुरेंद्र विक्रम की कोई कविता सूझी ही नहीं। हाँ ! इसके बाद तो कई कविताएँ हैं, जिन पर खू़ब बात की जा सकती है। साल दो हजार छःह से लाखों बच्चे इस कविता को कक्षा तीन में पढ़ रहे हैं। इन पिछले पन्द्रह सालों में एनसीईआरटी की किताबों ने देश भर के कई राज्यों में विस्तार पाया है। ज़ाहिर सी बात है कि यह कविता और भी विस्तारित हुई है। देश में हज़ारों स्कूल निजी हैं। निजी प्रकाशकों ने भी इस कविता को अपनी पाठ्यपुस्तकों में इसे शामिल किया है। यू-ट्यूब में तो इस कविता के सैकड़ों ऑडियो-वीडियो संकलित हैं। लाखों सब्सक्राइबरों के माध्यम से यह कविता घर-घर में बचपन का प्रतिनिधित्व करती है। बेशक! पता नहीं कैसे सुरेन्द्र विक्रम जी इस सोलह पँक्तियों में बच्चों की दुनिया का एक बड़ा हिस्सा शामिल कर गए।
ऐसी कमाल की कविता प्रायः लिखी ही कम जाती है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो कविता की कारीगरी में तथ्य,सत्य और कथ्य शामिल करना बेहद श्रमसाध्य कार्य है। जब वे कविता के माध्यम से कहते हैं-‘घर में सब पर धौंस जमाऊँ’......तो दुनिया का प्रत्येक बच्चा गर्व से फूला नहीं समाता। ऐसा कौन-सा बच्चा होगा जो प्यार-लाड़-दुलार के प्रभाव में आकर घर ही नहीं आस-पास भी धौंस न जमाता हो। ये जो धौंसपन है न! इसके सामने दुनिया की बेशकीमती दौलत पानी भरने लगती है। मुझे तो इस पँक्ति में फुटपाथ में खप रहा बचपन भी याद आता है। वे जो बचपन को करीब से देखते हैं, वे बेहतर जानते हैं कि धौंस किसी सम्पन्न परिवार में जन्में परिवार के बच्चों की जागीर नहीं है। यह तो दिल में बसती है। अब दिल न जात देखता है न धर्म। न सम्पन्नता और न ही विपन्नता। ‘मन करता है’ शीर्षक के अलावा आठ बार आया है। इस मन की सामर्थ्य किसी भी तरह की सत्ता को सीधे चुनौती नहीं देती? होंगे आप किसी पूंजीपति परिवार के वारिस! मैं हूँगा चाहे चालीस एकड़ ज़मीन का भूपति! बच्चों को इससे क्या! वे तो पल-पल में इस दुनिया को अपनी मुट्ठी में रखने की ताकत रखते हैं। बच्चों के मन की कल्पनाओं की उड़ान इतनी ऊँची हैं कि वे सारी दुनिया घूम आते हैं। मन ही मन में वे देश के प्रधानमंत्री बन जाते हैं तो दूसरे ही पल वे पायलट और तीसरे ही पल सात समन्दर तैर कर आ जाते हैं।
‘‘शब्दों के साथ भावपूर्ण इस कविता में बालमन पूरी तरह से यथार्थ के उस अभिनेता का प्रतिनिधित्व करती है जो बहुआयामी है। सही भी है। हर बच्चा मेधावी है। हर बच्चे में अपनी अलग खासियत है। ये तो हम और हमारी क्रूर दुनिया उसे समझ नहीं पाती। अनुकरण और अनुसरण का प्रभाव इतना तीव्र होता है कि बच्चे हमें देखकर छल-प्रपंच के हुनर सीखते हुए आगे बढ़ते हैं। काश! बच्चों के भीतर की मनुष्यता हम बड़ों में भी आ जाती।
‘मन करता है चंदा बनकर, सब तारों पर अकड़ दिखाऊँ’ ऐसी सकारात्मक अकड़ बच्चे ही दिखा सकते हैं। हमारी अकड़ में तो ठकुरसुहाती की बू आती है लेकिन बच्चों की अकड़ कौन नहीं जानता! डनकी अकड़ में भी खुद को आकार और उम्र के हिसाब से व्यवहार समझने का भाव साफ पकड़ में आता है। बच्चें की बाल सुलभ कल्पनाओं का इतना नायाब उदाहरण खोजने पर भी बहुत कम ही मिलता है। बच्चे चाँद को बड़ा समझते हैं और तारों को छोटा। बच्चे खुद को इस समाज में छोटा समझते हैं और हम बड़ों को बड़ा। समझते हैं या उन्हें बारम्बार अहसास कराया जाता है? तभी तो कविता के माध्यम से कवि सारे बच्चों की ओर से यह कहना चाहते हैं कि मैं भी जब चंदा-सा बड़ा हो जाऊँगा तो तारों जैसे छोटों पर अपनी अकड़ दिखाऊँगा। कितनी शानदार और जानदार बात है कि कवि ने बच्चे के लिए जो प्रतीक लिए हैं वे यथार्थ से नहीं उठाए। जीव-जन्तु या सजीवों से नहीं लिए हैं। सीधे वे तारों और चाँद को शामिल करते हैं।
बच्चों के लिए बड़ों के चेहरे पर दाढ़ी का उगना रहस्यमय बना रहता है। वे अक्सर पूछते हैं कि हमारी मूँछ क्यों नहीं है? हमारी दाढ़ी कब आएगी? महिलाओं के चेहरे पर दाढ़ी क्यों नहीं होती? दादा-दादी या नाना-नानी या बूढ़ों के बाल सफेद क्यों होते हैं? ऐसे तमाम सवाल बच्चों के पास होते हैं। कष्ट की बात यह भी है कि उनको सही जवाब नहीं मिलते। यही कारण है कि जब वे बड़े हो जाते हैं तब वे भी संभवतः बच्चों को जवाब नहीं देते। तभी तो पीढ़ीयों से ये सवाल बने हुए हैं। जवाब हों तो सवाल दूसरे हों। नए हों।
कविता में आया है-‘मन करता है पापा बनकर, मैं भी अपनी मूँछ बढ़ाऊँ’..... यह पँक्तियाँ भी बच्चों की दुनिया का प्रतिनिधित्व करती हैं। यह कविता मुझे बेहद पसंद है। पसंद आने के कई कारण है। कविता बहुत सारे सवालों को खड़ा करने की ताकत रखती है। इस कविता में भरपूर बातचीत के अवसर हैं। इतनी बातचीत की कक्षा-कक्ष में भी और घर में भी बच्चों से कई दिनों तक अनवरत् बातें की जा सकती हैं। यह कहना गलत न होगा कि इस कविता में बच्चों के मन की ध्वनियाँ हैं। उनकी सोच है। उनकी दुनिया है और बालमन स्वभाव चित्रित हुआ है। अपनत्व भरी कविता किसे न अच्छी लगेगी?
प्रखर आलोचक,समीक्षक,भाषाविद् एवं साहित्यकार डॉ॰ सुरेन्द्र विक्रम का गद्य एवं पद्य संसार विविधताओं से भरा है। उनके पूरे रचनाकर्म का अध्ययन करना और महसूसना संभवतः संभव नहीं। कारण? वह इतना समृद्ध और विस्तारित है कि किसी एक अध्येता के वश की बात नहीं है। हाँ ! समग्रता में सहयोगी भावना से मिलकर कुछ संवेदनशील मननशील ऐसा कर सकते हैं। इसके लिए पर्याप्त समय,समर्पण और लक्ष्यआधारित कर्म की आवश्यकता होगी। बहरहाल मैंने कुछ दिन विचार किया। सोचा कि उनका साहित्य का कौन सा क्षेत्र छू लूँ? मन बनाया कि साहित्य में बालमन की कविताएँ सरल रहेंगी। अपने लिए सरल मार्ग कौन नहीं चुनना चाहेगा? मैंने भी यही किया। लेकिन जब रचनाओं पर ध्यान गया तो वे भले ही प्रवाह और सौंदर्य के स्तर पर सरल ज़रूर हैं लेकिन उन पर सरलता से बात कहना उतना ही कठिन है। लेकिन अब हो भी क्या सकता था?
सोचने,संकलन करने और उन्हें पढ़ने के बाद फिर दूसरा सिरा पकड़ने में लगने वाले समय की कल्पना करने से ही मैं व्याकुल हो गया। फिर मन बनाया कि अब सिर्फ कुछ रचनाओं के निहितार्थ ही तो पकड़ने हैं। सोचना,संकलन करना फिर उन्हें पढ़ना जैसा काम तो हो गया। अब समझना है और झट से लिख डालना है। लेकिन ये जो ‘झट से’ लिखने वाला मामला है इसकी चाल घोंघा से भी बेहद सुस्त जान पड़ी। यह सब लिखना इसलिए भी ज़रूरी है कि बतौर पाठक जितना आसान पढ़ना लगता है उससे कठिन पढ़ने लायक सामग्री पर बात करना है। पढ़ने लायक सामग्री को लिपिबद्ध करना तब और कठिन है जब बेहद प्रचलित सामग्री के भाव,बिम्ब और मक़सदों पर बात करनी हो। इस लिहाज़ से सुरेन्द्र विक्रम जी के लिए और उनकी रचना पर लिखना मुझे सरल नहीं लगा।
सुरेन्द्र विक्रम देश भर की हिन्दी पाठ्यपुस्तक निर्माण प्रक्रियाओं से जुड़े रहे हैं। वे पाठ्य पुस्तक निर्माण समितियों में भी रहे हैं। यही कारण है कि वे बाल साहित्य और पाठ्य पुस्तकों की रचना प्रक्रिया को बखूबी समझते हैं। समझते भी हैं और स्वयं करके भी दिखाते हैं। देश भर में हिन्दी भाषा के कौशल और अभिमुखीकरण कार्यशालाओं में वे विषय विशेषज्ञ के तौर पर प्रतिभाग करते रहते हैं। उनकी पहचान मुख्य प्रशिक्षक के तौर पर भी है। बहुआयामी प्रतिभा के धनी सुरेन्द्र विक्रम देश भर की जानी-पहचानी स्वयं सेवी संस्थाओं और प्रतिष्ठानों के राजभाषा कार्यक्रमों में सक्रिय रहते हैं।
सुरेंद्र विक्रम की एक कविता ‘उलझन’ भी बेहद लोकप्रिय कविता है। यह कविता भी हज़ार-हज़ार बार अपने बारे में बात करवा चुकी है। यह कविता भी साल दो हजार छःह से लाखों बच्चे कक्षा चौथी में पढ़ रहे हैं। इसके अलावा भी यह कविता कई सन्दर्भों में बार-बार उद्धरित होती रही है।
कविता है-
पापा कहते बनो डॉक्टर/माँ कहती इंजीनियर!/भैया कहते इससे अच्छा/सीखो तुम कंप्यूटर/चाचा कहते बनो प्रोफ़ेसर/चाची कहतीं अफ़सर/दीदी कहती आगे चलकर/बनना तुम्हें कलेक्टर!/बाबा कहते फ़ौज में जाकर/जग में नाम कमाओ!/दादी कहती घर में रहकर/ही उद्योग लगाओ!/सबकी अलग-अलग अभिलाषा/सबका अपना नाता!/लेकिन मेरे मन की उलझन/कोई समझ न पाता!
यह एक शानदार कविता है। शानदार कई रूपों में है। बालमन की उड़ान इस कविता में है। बाल सुलभ कल्पनाओं से इतर बच्चे के विचार सार्थक और यथार्थ से भरे हुए सामने आए हैं। हम बड़ों की जो अपेक्षाएँ हैं, उस पर करारा व्यंग्य भी दिखाई देता है। समाज की कुंठाएँ जो बच्चों पर प्रकट होती हैं। कहीं न कहीं उस ओर इशारा करती है।
आज़ाद भारत में आए शिक्षा के दस्तावेज़ जो कहते हैं उसका शानदार प्रकटीकरण इस कविता में आया है। वह भी बगैर संदेश के। बगैर निर्देश के। बच्चा समाज का,परिवार का और यहाँ तक कि स्कूल के शिक्षकों का मनोभाव बखूबी समझते हैं। कवि ने बच्चे के मुख से वह सब कहला दिया जो इस दुनिया के तमाम बच्चों की आवाज़ें हैं। हम यदि अपना बचपन देखें तो हमसे भी संभवतः हमारे बड़ों की यही उम्मीदें रही होंगी। विडम्बना इस बात की है कि बच्चों से माता-पिता की वे उम्मीदें होती हैं जो बड़ों की होती हैं। बच्चों की अपनी चाहतें न पूरी की जाती हैं न ही उनसे उनके सपने पूछे जाते हैं। लेकिन मेरे मन की उलझन/कोई समझ न पाता! कविता में शामिल दो पँक्तियों के यह नौ शब्द एक बाल मन के द्वारा इस पूरे समाज को कटघरे में खड़ा करने के लिए काफी नहीं?
पापा,माँ,चाचा,चाची,दीदी,भैया,बाबा के सहारे कविता यह कहने की सफल कोशिश करती है कि बड़ों के आग्रह और इच्छाओं में बच्चे की इच्छा कहीं भी शामिल नहीं है। सब बेहिसाब की इच्छाएँ और सपने बच्चे से पाले बैठे हैं। बच्चे के मन की थाह खोजता कोई नहीं दिखाई देता। यह कविता भी दुनिया के किसी भी घर में पल-बढ़ रहे बच्चे की आवाज़ नहीं? इस कविता में कोई प्रतीक नहीं है। कोई बिंब नहीं है। सीधी,सरल,सहज कविता है। लेकिन सीधे बच्चों की दुनिया में प्रवेश कराती है। गहरे और व्यापक अर्थ देती है। यह कविता कथ्य को संक्षेप में ज़रूर रखती हुई प्रतीत होती है लेकिन समझ के स्तर पर यह सघन कविता है। सरल बात को फलक आसमान से भी अधिक व्यापक और प्रभावित करने वाला है। कहना उचित होगा कि ऐसी कविता भी दशकों में एक जन्म लेती है।
सुरेन्द्र विक्रम जी ने ऐसी कविताएँ भी लिखी हैं जो दृश्य चित्र भी प्रस्तुत करती हैं। ‘जाड़ा आ गया’ कविता में वे कहते हैं-छिटककर फैली है चारों और देखो/धूप की मुसकान, जाड़ा आ गया! उन्होंने बच्चों के लिए, बच्चों की दुनिया को शामिल करते हुए पाठकों के लिए ऐसी कविताएं भी रची हैं जो संसार के पदार्थों-चीज़ों-स्थितियों-परिस्थितियों को प्रतीक बनाकर आती हैं। जाड़ा को वे किसी मुसीबत की तरह नहीं लेते। जाड़ा की सुंदरता को भी चित्रित करते हैं। हालांकि वे अन्य कवियों की तरह कविता को बौद्धिक नहीं बनाते। न ही वे कविताओं को गूढ़ प्रदर्शित करने की कोशिश में दिखाई देते हैं। वह मानवीय संवेदना के कवि हैं। वे किसी तरह के उपदेश और निर्देश देने की होड़ में कहीं नहीं दिखाई देते। वे निराशा भी नहीं परोसते। उनकी कविताएं समस्याओं पर ध्यान तो दिलाती हैं पर वे निराशा नहीं परोसते। वे बच्चों की मनोदशाओं को सरलता के साथ अभिव्यक्त करते हैं। अनायास ही उनकी कविताओं को पढ़ते-पढ़ते पाठक भी चित्रित प्रकरणों को कवि की नज़र से देखने का शानदार प्रयास करने लगते हैं। मैं इसे रचनाकर्म की बड़ी सफलता मानता हूँ।
ऐसा नहीं है कि वे बस ढर्रे पर चल रहे विषयों पर ही रचनाएँ लिखते रहे हैं। नहीं। वे रचनाओं में गांव, शहर, प्रकृति, बादल, नदी आदि को आधार बनाते हैं तो उसे भी अलग दृष्टि से चित्रित करते हैं। शहरों और कॉलोनी के बच्चों की आम समस्या है कि वे खेलें कहाँ। अब तो कॉलोनियों के पॉर्क भी उजड़ गए हैं।
एक कविता में वे कहते हैं-अब तो कोई हमें बताए/कहाँ खेलने जाएँ हम? दो कमरों के छोटे घर में, कैसे मन बहलाएँ हम। सुरेंद्र विक्रम जी की कई कविताएँ ऐसी हैं जिनमे कस्बाई और शहरी बच्चों के जीवन की छोटी-छोटी समस्याएँ भी चित्रित हुई हैं। बाल साहित्य में पिछले सौ-डेढ़ सौ सालों की यात्रा पर दृष्टि डालें तो अमूमन दिन-रात, चांद, तारे, परी, बादल, पेड़, रेल, जहाज, स्कूल, पानी, नदी, जाड़ा, गरमी, सरदी, बरसात पर हजारों-हज़ार कविताएं पढ़ने को निरंतर मिलती हैं। लेकिन ऐसी कविताएं प्रायः कम पढ़ने को मिलती हैं जो मनोदशाओं की अभिव्यक्ति को नई गति या लय प्रदान करती हैं।
वे बाल साहित्य में आए विषयों-उपविषयों और प्रकरणों के रटे-रटाए और स्थापित मापदण्डों से हटकर उन्हें सकारात्मक तरीके से सामने रखते हैं। वे अनावश्यक शब्द जंजाल नहीं गढ़ते। उनकी कविता ‘रात’ है। वे उसे भयावह, डरावनी और काली नहीं बताते। वे इस कविता में कहते हैं-नींद बाँटती फिरती सबको/सचमुच कितनी दानी रात। ।
‘बस्ते का बोझ’ कविता में वे कहते हैं-इक ऐसी तरकीब सुझाओ, तुम कम्प्यूटर भैया/बस्ते का कुछ बोझ घटाओ,तुम कम्प्यूटर भैया। यह कविता इसलिए लीक से हटकर है कि बच्चा किसी जीव-जगत के प्राणी से नहीं यह बात या अनुरोध कम्प्यूटर से करता है। संभव है कि स्कूली बच्चा इतना तो जानता है कि मनुष्य समाज बच्चों की पीड़ा को समझ ही नहीं सकते। यह भी कह सकते हैं कि स्कूली बच्चे हम बड़ों को इस योग्य नहीं समझते होंगे। बस्ते का बोझ भी तो बच्चों के लिए हमने तय किया है।
एक कविता में वे बच्चों के जिज्ञासा से भरे सवालों को उठाते हैं। वे कहते हैं-अब तो हमें बताओ नानी/हवा कहाँ से आती है?/पंखा कैसे चलता है? बिजली कैसे मुसकाती है?/कम्प्यूटर रोबोट एक्स रे/कैसे अपना काम करें/दिन और रात मशीनें चलतीं/तनिक नहीं आराम करें। यह कविता अप्रत्यक्ष तौर पर गंभीर पाठकों को यह बताने के लिए पर्याप्त है कि कवि बालमन के चितेरे हैं। वे अतार्किक और सतही कविताएँ नहीं लिखते।
ऐसा भी नहीं है कि वे कथ्यात्मक कविताओं का लोभ संवरण नहीं कर पाए। कई बार प्रख्यात समर्थ कलमकार भी अभिव्यक्ति को गौण मान लेते हैं। हालांकि ऐसी कविताएँ भले ही शानदार कविताओं की तरह रस और आस्वाद नहीं दे पातीं, लेकिन वे अकविता हैं, मैं ऐसा नहीं कह सकता। एक उदाहरण देखिएगा। वे लिखते हैं-‘कोट,स्वेटर बिक रहे हैं सब जगह/ सज गई दूकान, जाड़ा आ गया। काटने को दौड़ता हर रोज़ पानी/ बंद दोनों कान, जाड़ा आ गया।
ऐसी ही सपाट और भी कविताएं उनकी कलम से निकली हैं। कई बार पाठ्य पुस्तकों, प्रशिक्षणों और भाषाई कौशलों के विकास के लिए स्कूली ढर्रे पर भी कविताएं लिखी जाती हैं। संभवतः वे भी इस क्षेत्र में हैं तो प्रयोजनार्थ ऐसी कविताएं बुनना अनायास भी संभव है।
एक और कविता का अंश पढि़एगा-‘कल हुआ था ‘टेस्ट’ दस में दो मिले/हो रही है जगहँसाई क्या करें?/क्यों मिले हैं अंक इतने कम बताओ/ पूछते हैं ताऊ-ताई, क्या करें?
शिक्षा जगत में यशपाल समिति की सिफारिशों ने देश में हलचल मचा दी थी। समाज के सामने आए कि पढ़ाई बिना बोझ के हो। बच्चे खेल-खेल में सीखें। करके सीखें। विषयों की दीवार टूटे। देश में लाखों स्कूल हैं जो कुकुरमत्तों की तरह गली-गली में खुल गए हैं। उनके लिए शिक्षा उत्पाद है और स्कूल दूकान। अस्सी-नब्बे के दशक में निजी स्कूलों की भारत में बाढ़-सी आ गई। निजी स्कूल मुनाफे के लिए निजी प्रकाशकों से मँहगी किताबों की माँग करने लगे। भाषा की पुस्तक के अलावा पर्यावरण,विज्ञान,सामाजिक विज्ञान में भी कविताएं शामिल होने लगीं। परिवार, खेल भावना, परिवार, यातायात, सेहत आदि उपविषयों पर आधारित रचनाओं की माँग यकायक बढ़ गई।
संभव है कि ऐसी कविताएं इरादतन लिखवाई भी जाती हैं। ‘खेल-खेल में’ ऐसी ही रचना है। आप भी पढि़एगा-‘खेल-भावना से बनता है,/एक भरा-पूरा परिवार/जिसमें कोई बड़ा न छोटा/सपने सब होते साकार/सपनों का एक चित्र बनाकर मढ़ना सीखो जी। खेल-खेल में आगे-आगे बढ़ना सीखो जी।।
और अंत में यह कहना ज़रूरी होगा कि बतौर पाठक सुरेन्द्र विक्रम जी के कृतित्व को रेखांकित करना भी मेरे लिए संभव है। विस्तार से कहना तो दूर की बात है। कहा-अनकहा बहुत कुछ है। वह किसी लेख में तो क्या किसी किताब में शामिल करना भी आंशिक ही होगा। फिर भी बतौर पाठक मुझे यकीन है कि सुरेंद्र विक्रम जी की कलम से बेहतरीन बालमन की विविधिता भरी रचनाएँ आनी शेष हैं। वे सूक्ष्म,संक्षिप्त और सुगठित शब्दों को लेखन में पिरोने के धनी है। छोटी-छोटी सामान्य बातों,वस्तुओं में भी गहरी बात और सौन्दर्य प्रस्तुत करना वे बखूबी जानते हैं। वे कविताओं में बातों,चीज़ों,वस्तुओं और मुद्दों को समेटते नहीं है बल्कि उन्हें फैलाते हैं। यह बड़ी बात है।
॰॰॰
-मनोहर चमोली ‘मनु’
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यहाँ तक आएँ हैं तो दो शब्द लिख भी दीजिएगा। क्या पता आपके दो शब्द मेरे लिए प्रकाश पुंज बने। क्या पता आपकी सलाह मुझे सही राह दिखाए. मेरा लिखना और आप से जुड़ना सार्थक हो जाए। आभार! मित्रों धन्यवाद।