भारत की एक पाती बापू के नाम : 6
-मनोहर चमोली ‘मनु’
मेरे आदरणीय बापू ! सादर अभिवादन।
काश ! आप भी फेसबुक पर होते ! देख पाते कि मेरे लोगों में कई पाखंडी बन चुके हैं। धूर्त हैं। मक्कार हैं। कूढ़मग़ज़ हैं। दो हजार उन्नीस आते-आते ये घास-पात की तरह बढ़ चुके हैं। आप अच्छे पाठक रहे हैं। पर आपकी पाठकीयता भी कुंद हो जाती।
जनवरी से अब तक इन पाखंडियों और कथित भक्तों की आए दिन चस्पा पोस्टों के चार-एक वाक्य ही आप पढ़ते और छोड़ देते। आपकी नज़र भी मन्द पड़ जाती। इनकी पोस्टों को देखते ही आप या तो चश्मा साफ करने लग जाते या आँखें मूँद लेते।
मैं कैसा हूँ ? बताता हूँ। मैं इन अपनों की राजनीतिक, सामाजिक, सामुदायिक, सांस्कृतिक और नितांत व्यक्तिगत स्वार्थपरक पाॅलिटिक्स देख रहा हूँ। इनका कथित जनपक्षधरता का चोला उतरता हुआ देख रहा हूँ। इनकी मूर्खता पर हँसता नहीं हूँ। दुःखी हो जाता हूँ।
क्यों? वह इसलिए कि ये जान-समझ ही नहीं पा रहे हैं कि इनका असली व्यक्तित्व सार्वजनिक हो रहा है।
या तो इन्हें क़तई लाज नहीं है। या यह जान ही नहीं पा रहे हैं कि ये साफ पहचाने जा रहे हैं। या ये चाहते हैं कि इन्हें अच्छे से जान-समझ लिया जाए। कुछ हैं जो तटस्थता का आवरण ओढ़े हुए हैं। लेकिन इनके भीतर भरा जातिवाद जोर मार कर बाहर आ रहा है। इनके क्षुद्र निजी सरोकार उद्घाटित हुए जा रहे हैं।
वे पाखण्ड, दंभ, छद्म लोकहितता छिपाए नहीं छिपा पा रहे हैं। मैं रोज़ कुछ को आपस में लड़ते-भिड़ते देख रहा हूँ। गाली-गलौज का गॅ्राफ तो रोज का पारा है। जो लगातार चढ़ रहा है।
बापू आप सोच रहे होंगे कि ये अचानक हुआ? नहीं। नब्बे के दशक से ये सुलगता हुआ साल 2019 में आग का रूप ले चुका है। मैं अपनों में ही जैसे बेग़ाना हो गया हूँ! सबसे ज़्यादा दुःख मुझे मेरे शिक्षकों और लेखकों के कार्य व्यवहार को देखकर हो रहा है! मुझे सभी शिक्षकों से शिकायत नहीं है। कुछ से है। ये कुछ भले ही ‘थोड़े’ होंगे। पर हैं। इनमें समधर्म-समभाव है ही नहीं। ये दूसरों की गरिमा का सम्मान करना नहीं जानते। दूसरों को क्या सिखाएँगे। मुझे संशय है। ये ‘ट्रोल’ हो गए हैं। जो जिन्दगी भर शिक्षण कार्य करते रहे, उनकी ट्रोल भरी टिप्पणिया पढ़कर सोचता हूँ कि इन्होंने अपने छात्रों को समाज में कहाँ ले जाकर रख दिया होगा? सोचकर ही थर्रा जाता हूँ।
और, बापू लेखकों की तो मत ही पूछिये। लेखकों में ऐसे लेखक भले ही कम होंगे पर हैं। वे शरीर में एक फोड़े की तरह हैं। जिन्हें छेड़ा जाए चाहे-अनचाहे सहलाया जाए, वह बढ़ता ही है। कई बार पूरी देह को सड़ाने के लिए एक फोड़ा ही काफी होता है। ये लेखक, जिनकी मैं बात कर रहा हूँ, आज तलक सामन्ती सोच से बाहर नहीं निकल पाए हैं। ये आज भी तंत्र-मंत्र, पूजा-आरती के उपासक बने हुए हैं। बना करें पर पूरी दरिया को एक रंग में रंगने की तो कोशिश न करें। दकियानूसी सोच से लबरेज इनके संवाद और भाव, मेरे संविधान को चिन्दी-चिन्दी किए जा रहे हैं। अब संविधान की बात आपसे करना शायद ठीक न होगा। काश ! आप मेरे संविधान को लागू होता हुआ देख पाते ! या कि आपने संविधान की उद्देशिका ही पढ़ ली होती। फिलहाल तो इन शिक्षकों-लेखकों को देखकर मन विचलित हो रहा है। वे जो या तो भेड़चाल के मुरीद हैं या भीड़ का हिस्सा होते जा रहे हैं।
क्या करूँ? लिखना।
शेष आपके जवाब मिलने पर,
आपका अपना ही,
भारत।
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पत्र लेखक: मनोहर चमोली ‘मनु’
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