इकहत्तर साल बाद भी मैं पूर्ण साक्षर नहीं
भारत की एक पाती बापू के नाम : 2
आदरणीय बापू ! जय हिंद।
आशा है आप सानंद होंगे।
मैं और मेरे लोग आपको अक्सर याद करते हैं। दुनिया के शांतिप्रिय लोग भी आपको अक्सर याद करते हैं। मेरे लोग तो दो अक्तूबर को हर साल गांधी जयंती मनाते हैं। मुझे यह बताते हुए खुशी हो रही है कि दुनिया ने आपको बीसवीं सदी का युग पुरुष माना है। ये ओर बात है कि मेरे ही अपने कुछ सिरफिरे आपके सत्य, अहिंसा और प्रेम के सिद्वान्तों को बीते जमाने की बात कहते हैं। बापू ! मैं शर्मिन्दा हूँ।
पत्र लिखने का खास कारण यह है कि आपकी हत्या के चैवन साल बाद ही सही पर मैं आपका एक सपना पूरा कर सका। आप अक्सर कहा करते थे,‘‘भारत का विकास तभी होगा जब भारत पढ़ेगा। लिखेगा।’’
आपके जाने के दो साल बाद मुझ भारत का अपना एक लिखित संविधान बना। आपके रहते हुए उस पर काम हो रहा था। आपके सुझाव मेरे संविधान का अहम् हिस्सा हैं। लेकिन मैं शर्मिन्दा हूँ कि आपका एक सपना साकार करने के लिए संविधान में संशोधन करना पड़ा। इस संशोधन से पहले पिचासी संशोधन हुए। छियासीवां संशोधन कर अब मेरे वे सभी बच्चे जिनकी उम्र छःह से चौदह साल है वे निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा पा सकेंगे।
प्रिय बापू निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार लागू हुए सोलह साल हो चुके हैं। इसके बावजूद अभी भी मेरे लाखों बच्चे शिक्षा से कोसों दूर हैं। आप अक्सर कहते थे-‘सामाजिक उन्नति के लिए शिक्षा का योगदान महत्वपूर्ण है।‘
इस बात को समझने में मुझे आधी सदी लग गई। मैं शर्मिन्दा हूँ। कारण बताता हूँ। शिक्षा आम आदमी की पहुँच में हो। यह बात जानने और समझने के बावजूद भी सार्वजनिक शिक्षा के लिए स्थापित सार्वजनिक स्कूल तेजी से बंद हो रहे हैं। कुकरमुत्तों की तरह गाँव क्या और शहर ! क्या जो निजी स्कूल खुल गए हैं वह तेजी से बढ़ रहे हैं। सरकारी स्कूल दम तोड़ रहे हैं। मैं इस बात से परेशान हूँ कि चालीस लाख से अधिक भारतीय दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पाते। ऐसे में पाँचवी दर्जा की पढ़ाई से पहले हर महीने कम से कम एक हजार रुपए बतौर स्कूल फीस कैसे जुटाई जाती होगी?
ऐसे कौन-से कारण हैं और क्यों हैं कि हमारे सार्वजनिक स्कूल दम तोड़ रहे हैं? आप कहते रहे,‘‘शिक्षा ऐसी हो जो छात्रों को स्वावलंबी बनाये। शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो।’’ लेकिन बापू . . . मैं शर्मिन्दा हूँ। यहाँ हर दूसरा अभिभावक अंग्रेजी को सब कुछ मान बैठा है। मानवीय गुणों के विकास की बात तो किताबी ही रह गई। मुझे आजाद करने वाले रणबांकुरों ने कहाँ सोचा था कि आजादी के बाद मेरी बागडोर उन लोगों के हाथ में चली जाएगी जो बड़े घरानों की बात करेंगे। मुनाफे की बात करेंगे। वे लोग मेरा भाग्य विधाता बनेंगे जिन्होंने कभी एक वक़्त की भूख तक न सहन की हो। हाशिए पर रहने वाले और हाशिए पर चले जाएँगे! मैंने सपने में भी नहीं सोचा था।
आपके सपनों के इस भारत की हालत दयनीय है। ऐसी ठोस योजनाएं नहीं बन सकीं कि शिक्षा का सार्वभौमिकीकरण हो सके। आजादी के इकहत्तर साल बाद भी मैं पूर्ण साक्षर नहीं हो सका हूँ। अब तो मुझे भी लगने लगा है मुझे अनपढ़ बनाए रखने की एक छिपी कोई साजिश तो नहीं !
मुझे मालूम है कि मेरा यह पत्र पढ़कर आप फिर से चिन्ता करने लगेंगे। आपको चिन्तित होना भी चाहिए। क्या पता ! आपकी चिन्ता इक्कीसवीं सदी के नीति-निर्धारकों की चिन्ता बने।
शेष फिर कभी।
आपका भारत।
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पत्र लेखन: मनोहर चमोली ‘मनु’
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