बापू काश ! आपने आम चुनाव देखे होते !
भारत की एक पाती बापू के नाम : 4
-मनोहर चमोली ‘मनु’
आदरणीय बापू जी,
सादर प्रणाम। आशा है सानंद होंगे। मैं अपनी क्या कहूँ? आप जब जीवित थे, तब मेरा जनमानस एक ही भाव में सराबोर था। आजादी हासिल करने का भाव ही सर्वोपरि था। आपकी आँखों के सामने गोरे देश छोड़कर चले गए थे।
बापू । अब याद करता हूँ तो पाता हूँ कि आपने आजाद भारत का पहला आम चुनाव कहाँ देखा? अच्छा हुआ कि आपने भारतीय चुनाव नहीं देखे।
हालांकि, ये पाँच साल में एक बार आता है और जमकर दल एक-दूसरे से बेहतर बताते हुए जनता की अदालत में जाते हैं। आपको बताते हुए मुझे हर्ष की अनुभूति तो हो ही रही है कि इन दिनों मेरे मतदाता लोकसभा चुनाव 2019 में सहभागी बन रहे हैं। सत्रहवीं लोकसभा का गठन 23 मई 2019 को मतगणना के बाद ही हो सकेगा।
बापू , पत्र लिखने का खास कारण यह है कि इस बार भी कई दिग्ग़जों के टिकट कटे हैं। कई हैं, जिन्हें दल-बदल का तमगा मिला है। कई हैं, जो फिर से घर वापिस हो आए हैं। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। कई हैं जो दो-दो सीटों पर खड़े हैं। इस बार भी चुनाव आयोग पर पक्षपातपूर्ण रवैया का आरोप लग रहा है।
प्रिय बापू । आपको बताते हुए मन बेहद दुःखी है। इस बार भी कई दलनिष्ठ, आस्थावान और कर्मठ भारी मन से हमेशा के लिए लोकसभा के दरवाजे को अलविदा कह चुके हैं।
वैसे परम्परा रही है कि लोकसभा में चार-पाँच-छःह बार अनवरत् जीत कर आए सांसद स्वयं अपनी बढ़ती उम्र का हवाला देकर स्वयं ही हाथ जोड़कर मतदाताओं से चुनाव न लड़ने की असमर्थता जता देते हैं। लेकिन इस बार तो हद ही हो गई।
एक उदाहरण देता हूँ। तीस साल संसदीय राजनीति में सक्रिय सांसद को खुद ही कहना पड़ा कि शीर्ष नेतृत्व मेरी जगह पर दूसरे नाम पर विचार कर ले। मैं चुनाव नहीं लड़ रही हूँ। ऐसा कहलवाया गया। क्या इसे सम्मानजनक विदाई कहेंगे?
छिहत्तर साल का उदाहरण देना गलत है। आज के दौर में युवा भी आलसी हो सकते हैं। बुजुर्ग भी कार्यशैली के हिसाब से युवा तुर्क माने जा सकते हैं। कितना अच्छा होता कि चुस्त और सक्रियता से बाहर हो चुकों को ही मार्गदर्शक नेता माना जाता।
मैं इस बात से भी दुःखी हूँ कि भारतीय राजनीति में कुछ ऐसे हैं जो सीधे चुनाव जीतकर नहीं आते और मंत्री बन जाते हैं। कुछ ऐसे हैं जिन्होंने अपना पिण्ड दान तक कर दिया है लेकिन कमान संभाले हुए हैं। कुछ ऐसे हैं जो साधु-बाबा-साध्वी-सन्यासी बने हैं और राजनीतिक रसूखी में आकण्ठ डूबे हुए हैं। कुछ ऐसे हैं जिनकी सामाजिक-पारिवारिक मान-मर्यादा संदिग्ध हैं। वे नसीहतें देते फिरते हैं। कुछ ऐसे हैं जिन पर हत्या, आगजनी, बलात्कार जैसे संगीन अपराध आरोपित हैं।
कुछ ऐसे हैं, जो नचैये हैं, गवैये हैं। कथा वाचक हैं। नट हैं, नटनी हैं। (इसका अर्थ यह नहीं है कि ये योग्य नहीं हैं। मेरा मक़सद कला,साहित्य और संस्कृति के मर्मज्ञों को राजनीति से बाहर रखने का कतई नहीं है)
वैसे बापू , हमारा संविधान बेहद लोकतांत्रिक है। बहुत कम अयोग्यताएँ रखी हुई हैं जिसकी वजह से कोई चुनाव न लड़ पाए। अच्छी बात है। लेकिन नए पत्ते आने से कौन रोक सकता है। पर पुराने पत्तों की समयापूर्व छंटाई क्या ठीक है?
आठ-आठ बार लोकसभा का प्रतिनिधित्व कर रहे दिग्गजों को कह दिया गया कि अब आप राजनीति में अयोग्य हो चुके हैं। आपकी जगह दूसरों को दी जा रही है। लगातार छःह,सात और आठ बार सांसद रह चुके नामचीनों को अचानक बोझ मान लेना, कहा तक उचित है? वे एक दिन में ही उम्रदराज़ हो गए? यह मुझे बेहद नागवार गुजर रहा है।
बापू । आप भी तो बुजुर्ग रहे हैं। पैदल चलते रहे हैं। आपकी गतिशीलता और कर्मठता किसी से छिपी नहीं रही। किसी को टिकट की दावेदारी करने से रोकना लोकतांत्रिक है? विवादितों को फिर से टिकट देना न्यायसंगत है?
बापू , मैं जानता हूँ आप इस पत्र को पढ़कर हैरान होंगे। आपके पास मेरे सवालों का जवाब भी कहाँ से होगा? जानता हूँ कि आपने हद दर्जें की गिरी राजनीति का सामना जो नहीं किया है। सत्य,अहिंसा और प्रेम के सि़द्वान्त चुनाव में कहाँ कारगर होते हैं? लेकिन मैं भी क्या करूँ? ऐसे मुश्किल समय में मुझे आप बहुत याद आए। सो आपको पत्र लिख दिया।
सादर, शेष फिर कभी।
आपका अपना
भारत
॰॰॰
पत्र लेखन: मनोहर चमोली ‘मनु’
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