इसे मत पढ़ना।
लीक से हटकर चलना आसान नहीं है।
मुझे लगता है कि हमारी बुनियादी शिक्षा में ही खोट है। वहाँ हमें अक्षर पहचानना और उन्हें लिखना सिखाना पर ही सारा जोर रहता है। शायद सिखाना भी नहीं बल्कि नकल करने पर सारी मशक्कत रहती है। ज़्यादा हुआ तो अक्षरों को पहचानकर शब्द पढ़ना पर जोर रहता है। मुझे नहीं लगता कि वहाँ हमें पढ़े गए अनुच्छेद से अपने अनुभवों के आधार पर समझ बढ़ाने का अभ्यास कराया जाता है। अनुच्छेद तो बड़ी बात है। शायद वाक्य में निहितार्थ पर जोर देना ही समझाया होता !
यदि ऐसा होता तो हम आदर्श वाक्यों से अपना जीवन बेहतर कर रहे होते। मानवीय जीवन बेहतर कर रहे होते। इस धरती का जीवन बेहतर कर रहे होते।
अब देखिए न! वैज्ञानिक यहाँ तक कह चुके हैं कि आगामी चालीस सालों में ही धरती के कई शहर जीवन जीने लायक नहीं रहेंगे।
हम बचपन से वाक्य पहचान रहे हैं। जैसे- ‘पेड़ काटना मना है।’ लेकिन समझते होते तो पेड़ों की संख्या बढ़ाते। पर पेड़ लगातार कट रहे हैं।
जैसे-‘बांए चलो।’ लेकिन समझते होते तो दांए न चलते और सड़क हादसे कम होते।
जैसे-‘जीवों की हत्या मत करो।’ लेकिन समझते होते तो आज सैकड़ों जीव लुप्तप्राय न होते।
जैसे-‘मनुष्य बनो।’ लेकिन समझते होते तो मनुष्य की गरिमा का ख्याल रखते। दानवता न बढ़ाते। भीड़ हिसंक न होती।
हम पढ़ाकू बने। पढ़ाकू बना रहे हैं। लेकिन हमने शायद विलोम पढ़ा होता तो हम उसका उलट करते। यही सही होता। जैसे पेड़ काटो। यह पढ़ते तो शायद पेड़ न काटते। दांए चलो पढ़ते तो फिर शायद बांए चलते। जीवों को मारो। खूब मारो। यह पढ़ते-समझते तो शायद जीव बचते। हम पढ़ते-समझते कि महा दानव बनो तो शायद मनुष्य बनते।
अब देखो न। मैंने लिखा-‘इसे मत पढ़ना।’
और आपने पढ़ा। पूरा पढ़ा। पढ़कर ही दम लिया।
अब पढ़ा तो पर समझा क्या? ये अलग बात है!
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