नीलम जी का फोन आया। वह पौड़ी आई हुई थीं। रविवार था। लेकिन यह सामान्य रविवार होता तो समस्या नहीं थी। हम नौ बजे से त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव के मतगणना प्रशिक्षण में थे।
सुबह बात हुई तो यह तय हुआ कि शाम को मिल सकते हैं। लेकिन प्रशिक्षण के दो चरणों में क्रमबद्धता न होने के बावजूद भी ज़रूरी निर्देश और प्रशिक्षण की बाध्यता ने बाध्य कर दिया। साढ़े बारह बजे के बाद यह हुआ कि दोपहर के भोजन के बाद अलग-अलग विकासखण्ड के कार्मिक मतदान पेटी के खोलने,बंद करने और उलटने का प्रशिक्षण लेंगे। बस यहीं समय मिल गया।
लगभग एक घण्टे का समय मिल गया। मैंने उन्हें फोन किया तो वह सतपाल धर्मशाला में थीं। मैं संस्कृति विभाग के प्रेक्षागृह में था। मुझे फ्रन्टियर नीलम जी से पहले पहुँच ही जाना था। लेकिन धारा रोड़ से बस अड्डा की ओर आते-आते नरेश उनियाल जी मिल गए। उनके साथ सेल्फी का सिलसिला चल पड़ा। तभी आगे बढ़ा कि शिवदयाल शैलेष जी मिल गए। फिर वीरेन्द्र खंकरियाल जी। सभी आत्मीयजन।
मिलते-मिलाते आगे बढ़ा कि नीलम जी का फोन आया,‘‘मैं पहुँच गई।’’ मैंने जवाब दिया,‘‘बस ! पाँच मिनट से पहले,मैं भी पहुँचता हूँ।’’
सोचते-सोचते आगे बढ़ा,‘‘ये तो अशिष्टता है। कोई हमारे शहर में आए और उसे इन्तज़ार करना पड़े!’’
लेकिन हो भी क्या सकता था अब? जो होना था,वो तो हो गया।
वे बैठी हुई मिलीं। मोबाइल के स्क्रीन पर झुकी हुई थीं। दिलचस्प बात यह रही कि वह फ्रन्टियर में उस जगह बैठी हुई थीं, जिस जगह पर यदा-कदा गणेश खुगशाल ‘गणी’ जी भी बैठते हैं। खैर.....दुआ-सलाम हुई। औसत से ज़रा-सा कद कम वाली नीलम जी तो पहाड़ की ही रहबासी निकली। शहर से परिचित। श्रीनगर से ख़ूब परिचित। जाने-माने इतिहासविद् पुरातत्ववेत्ता डाॅ॰यशवन्त सिंह कठौच की भान्जी। मासौं ननिहाल। मुम्बई में मांजी-पिताजी। भाई इग्लैण्ड में और नीलम जी सुदूर सुलतानपुर में 23 सालों से पढ़ने-पढ़ाने में व्यस्त !
अपने बैग से उन्होंने अविलम्ब सौंधी पत्रिका मेरे सम्मुख रख दी। झट से मोबाइल निकाला। यह कहा कि इसे पढ़िए,देखिए स्कूल में बच्चों को दिखाना है। मैं सकुचाया तो पर इच्छा तो देखने की थी ही। फिर अपन ने भी चाहा कि उनके हाथों से मुझे पत्रिका मिलने का फोटो भी होना चाहिए। एक बालक से अनुरोध किया तो उसने दो फोटो मेरे मोबाइल खींच दी। खाने-पीने की बात हुई तो दो बज चुके थे। वे कुछ भी खाने या पीने से मना कर रही थीं। हमने कहा कि हम तो चाय पियेंगे। वे उठीं और मेरे लिए चाय और अपने लिए नीबू चाय कहकर लौट आईं।
बस फिर तो साहित्य,शिक्षा, बचपन,बच्चे,विद्यालय,घर-परिवार,पहाड़-मैदान,जीवन के संघर्ष,राज्य का भविष्य और भावी योजनाओं पर ख़ूब बातें हुईं। वे अपने बारे में,अपने स्कूल के बारे में और अपने काम के बारे में बोलती रहीं। मैं पूछता रहा वे बताती रहीं। आधा घण्टा बीत गया। मुझे प्रशिक्षण के लिए वापिस प्रेक्षागृह लौटना था। वे भी मेरी मनःस्थिति समझ रही थी। फ्रन्टियर से धारा रोड होते हुए हम प्रेक्षागृह तक पैदल चलते-चलते आए। वे चार साल बाद पौड़ी आई थीं। मैं उन्हें शहर की नई-पुरानी सरकारी इमारतों के बारे में बता रहा था।
नीलम जी ने अपनी ज़िंदगी के 23 साल उस सुलतानपुर को दे दिए, जहाँ उनका कोई न था न है। हाँ उनके साथ है उनकी सादगी,कुछ करने का सकारात्मक, अतिसंवेदनशील नज़रिया और जीवन में अतिमहत्वकांक्षी सपनों-इरादों से हटकर कम खर्च बालानशीं वाली समझ। जीवन,कार्यशैली भले ही जीवट है पर इतनी सरल भी वे नहीं हैं। अपने उसूलों,सिद्धान्तों और समझौता न करने वाली स्वाभिमानी सोच के चलते उन्होंने अपना एक स्थान हासिल किया है। वे आज में भरोसा करती हैं। कल की योजना बनाती हैं लेकिन परसों की चिन्ता में घुलने को वो तैयार नहीं। न ही इसके चक्कर में आज के उत्सव को खोना चाहती हैं।
सोचता हूँ कि हमारे आस-पास इतनी नकारात्मकता कहाँ हैं जितनी हमने पाल ली हैं। आदमी जीवनरूपी भंवर में स्वयं तो फंसता है। उलझता है। यदि कोई भी हो, कैसा भी हो, कहीं भी हो। वह ज़रा-सा उत्साह और कर्मशीलता मुट्ठी में रखे तो नीलम जी जैसा आभामंडल हासिल कर सकता है। एक अपरिचित-सी भूमि पर अपने दम पर अपने लिए,अपने काम के लिए अपने कर्म के लिए क्षेत्र हासिल कर लेना कठिन नही ंतो आसान भी कहाँ हैं। जहाँ धनलोलुपता ने हमारे भीतर की मनुष्यता को लील लिया हो,वहाँ नीलम जी जैसा व्यक्तित्व यह भरोसा दिलाता है कि हमारे भीतर मनुष्यता और सम्मान से जीवन जीने की ललक मरनी नहीं चाहिए। हमारे भीतर दूसरों के सम्मान और उसके मनोभावों को समझने का सलीका भी नहीं मरना चाहिए। हम अपने से इतर दूसरे की गरिमा का भी ख़्याल रखें। यह नीलम जी ने संक्षिप्त ही सहीं छोटी -सी मुलाकात में मुझे अहसास करा दिया।
----------
हाल ही में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में पौड़ी के पे्रक्षागृह में प्रशिक्षण था।
उसी दिन सुलतानपुर के अजय पब्लिक स्कूल की प्रधानाचार्य नीलम सिंह जी निजी यात्रा पर उत्तराखण्ड आईं थीं।सुबह बात हुई तो यह तय हुआ कि शाम को मिल सकते हैं। लेकिन प्रशिक्षण के दो चरणों में क्रमबद्धता न होने के बावजूद भी ज़रूरी निर्देश और प्रशिक्षण की बाध्यता ने बाध्य कर दिया। साढ़े बारह बजे के बाद यह हुआ कि दोपहर के भोजन के बाद अलग-अलग विकासखण्ड के कार्मिक मतदान पेटी के खोलने,बंद करने और उलटने का प्रशिक्षण लेंगे। बस यहीं समय मिल गया।
लगभग एक घण्टे का समय मिल गया। मैंने उन्हें फोन किया तो वह सतपाल धर्मशाला में थीं। मैं संस्कृति विभाग के प्रेक्षागृह में था। मुझे फ्रन्टियर नीलम जी से पहले पहुँच ही जाना था। लेकिन धारा रोड़ से बस अड्डा की ओर आते-आते नरेश उनियाल जी मिल गए। उनके साथ सेल्फी का सिलसिला चल पड़ा। तभी आगे बढ़ा कि शिवदयाल शैलेष जी मिल गए। फिर वीरेन्द्र खंकरियाल जी। सभी आत्मीयजन।
मिलते-मिलाते आगे बढ़ा कि नीलम जी का फोन आया,‘‘मैं पहुँच गई।’’ मैंने जवाब दिया,‘‘बस ! पाँच मिनट से पहले,मैं भी पहुँचता हूँ।’’
सोचते-सोचते आगे बढ़ा,‘‘ये तो अशिष्टता है। कोई हमारे शहर में आए और उसे इन्तज़ार करना पड़े!’’
लेकिन हो भी क्या सकता था अब? जो होना था,वो तो हो गया।
वे बैठी हुई मिलीं। मोबाइल के स्क्रीन पर झुकी हुई थीं। दिलचस्प बात यह रही कि वह फ्रन्टियर में उस जगह बैठी हुई थीं, जिस जगह पर यदा-कदा गणेश खुगशाल ‘गणी’ जी भी बैठते हैं। खैर.....दुआ-सलाम हुई। औसत से ज़रा-सा कद कम वाली नीलम जी तो पहाड़ की ही रहबासी निकली। शहर से परिचित। श्रीनगर से ख़ूब परिचित। जाने-माने इतिहासविद् पुरातत्ववेत्ता डाॅ॰यशवन्त सिंह कठौच की भान्जी। मासौं ननिहाल। मुम्बई में मांजी-पिताजी। भाई इग्लैण्ड में और नीलम जी सुदूर सुलतानपुर में 23 सालों से पढ़ने-पढ़ाने में व्यस्त !
अपने बैग से उन्होंने अविलम्ब सौंधी पत्रिका मेरे सम्मुख रख दी। झट से मोबाइल निकाला। यह कहा कि इसे पढ़िए,देखिए स्कूल में बच्चों को दिखाना है। मैं सकुचाया तो पर इच्छा तो देखने की थी ही। फिर अपन ने भी चाहा कि उनके हाथों से मुझे पत्रिका मिलने का फोटो भी होना चाहिए। एक बालक से अनुरोध किया तो उसने दो फोटो मेरे मोबाइल खींच दी। खाने-पीने की बात हुई तो दो बज चुके थे। वे कुछ भी खाने या पीने से मना कर रही थीं। हमने कहा कि हम तो चाय पियेंगे। वे उठीं और मेरे लिए चाय और अपने लिए नीबू चाय कहकर लौट आईं।
बस फिर तो साहित्य,शिक्षा, बचपन,बच्चे,विद्यालय,घर-परिवार,पहाड़-मैदान,जीवन के संघर्ष,राज्य का भविष्य और भावी योजनाओं पर ख़ूब बातें हुईं। वे अपने बारे में,अपने स्कूल के बारे में और अपने काम के बारे में बोलती रहीं। मैं पूछता रहा वे बताती रहीं। आधा घण्टा बीत गया। मुझे प्रशिक्षण के लिए वापिस प्रेक्षागृह लौटना था। वे भी मेरी मनःस्थिति समझ रही थी। फ्रन्टियर से धारा रोड होते हुए हम प्रेक्षागृह तक पैदल चलते-चलते आए। वे चार साल बाद पौड़ी आई थीं। मैं उन्हें शहर की नई-पुरानी सरकारी इमारतों के बारे में बता रहा था।
नीलम जी ने अपनी ज़िंदगी के 23 साल उस सुलतानपुर को दे दिए, जहाँ उनका कोई न था न है। हाँ उनके साथ है उनकी सादगी,कुछ करने का सकारात्मक, अतिसंवेदनशील नज़रिया और जीवन में अतिमहत्वकांक्षी सपनों-इरादों से हटकर कम खर्च बालानशीं वाली समझ। जीवन,कार्यशैली भले ही जीवट है पर इतनी सरल भी वे नहीं हैं। अपने उसूलों,सिद्धान्तों और समझौता न करने वाली स्वाभिमानी सोच के चलते उन्होंने अपना एक स्थान हासिल किया है। वे आज में भरोसा करती हैं। कल की योजना बनाती हैं लेकिन परसों की चिन्ता में घुलने को वो तैयार नहीं। न ही इसके चक्कर में आज के उत्सव को खोना चाहती हैं।
सोचता हूँ कि हमारे आस-पास इतनी नकारात्मकता कहाँ हैं जितनी हमने पाल ली हैं। आदमी जीवनरूपी भंवर में स्वयं तो फंसता है। उलझता है। यदि कोई भी हो, कैसा भी हो, कहीं भी हो। वह ज़रा-सा उत्साह और कर्मशीलता मुट्ठी में रखे तो नीलम जी जैसा आभामंडल हासिल कर सकता है। एक अपरिचित-सी भूमि पर अपने दम पर अपने लिए,अपने काम के लिए अपने कर्म के लिए क्षेत्र हासिल कर लेना कठिन नही ंतो आसान भी कहाँ हैं। जहाँ धनलोलुपता ने हमारे भीतर की मनुष्यता को लील लिया हो,वहाँ नीलम जी जैसा व्यक्तित्व यह भरोसा दिलाता है कि हमारे भीतर मनुष्यता और सम्मान से जीवन जीने की ललक मरनी नहीं चाहिए। हमारे भीतर दूसरों के सम्मान और उसके मनोभावों को समझने का सलीका भी नहीं मरना चाहिए। हम अपने से इतर दूसरे की गरिमा का भी ख़्याल रखें। यह नीलम जी ने संक्षिप्त ही सहीं छोटी -सी मुलाकात में मुझे अहसास करा दिया।
----------
हाल ही में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में पौड़ी के पे्रक्षागृह में प्रशिक्षण था।
एक संक्षिप्त,पहली लेकिन अविस्मरणीय मुलाकात पौड़ी में हुई। इस अवसर पर उन्होंने विद्यालय की पत्रिका ‘सौंधी’ मुझे भेंट की।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
यहाँ तक आएँ हैं तो दो शब्द लिख भी दीजिएगा। क्या पता आपके दो शब्द मेरे लिए प्रकाश पुंज बने। क्या पता आपकी सलाह मुझे सही राह दिखाए. मेरा लिखना और आप से जुड़ना सार्थक हो जाए। आभार! मित्रों धन्यवाद।