सरकारी सस्ते गल्ले की दुकानें,
सोसायटीज़ की दुकानें,
फिर सरकारी संस्थानों में ही स्ववित्त पोषित पढ़ाई,
फिर सरकारी स्कूलों के साथ निजी स्कूल,
फिर सरकारी अस्पतालों के साथ निजी अस्पताल।
फिर बीएसएनएल के बाद निजी सिम सेवाएं,
फिर परिहन बसों के साथ निजी बसें।
फिर निजी हवाई सेवाएं और
फिर रेल में भी निजी सेवाएं।
यह सब पहले गुणवत्ता के नाम पर आए और फिर उसके बाद रोजगार के सीमित अवसर और उसके बाद मँहगाई। उसके बाद बेरोजगारी और उसके बाद अपराध,आत्महत्याएं और अवसाद।
पर हमारे लिए इन सबका कोई महत्व नहीं है। हम तो मूर्ति,मन्दिर-मस्जिद,भारत-पाकिस्तान,ये सरकार वो सरकार। देश तीसरी महाशक्ति। देश का एक नायक, एक झण्डा,एक भाषा आदि-आदि के लिए हैं न? हम तो इन मुद्दों पर उलझेंगे। वे तो गौण मुद्दें हैं जिनकी पहले चर्चा हुई है। क्यों?
सोसायटीज़ की दुकानें,
फिर सरकारी संस्थानों में ही स्ववित्त पोषित पढ़ाई,
फिर सरकारी स्कूलों के साथ निजी स्कूल,
फिर सरकारी अस्पतालों के साथ निजी अस्पताल।
फिर बीएसएनएल के बाद निजी सिम सेवाएं,
फिर परिहन बसों के साथ निजी बसें।
फिर निजी हवाई सेवाएं और
फिर रेल में भी निजी सेवाएं।
यह सब पहले गुणवत्ता के नाम पर आए और फिर उसके बाद रोजगार के सीमित अवसर और उसके बाद मँहगाई। उसके बाद बेरोजगारी और उसके बाद अपराध,आत्महत्याएं और अवसाद।
पर हमारे लिए इन सबका कोई महत्व नहीं है। हम तो मूर्ति,मन्दिर-मस्जिद,भारत-पाकिस्तान,ये सरकार वो सरकार। देश तीसरी महाशक्ति। देश का एक नायक, एक झण्डा,एक भाषा आदि-आदि के लिए हैं न? हम तो इन मुद्दों पर उलझेंगे। वे तो गौण मुद्दें हैं जिनकी पहले चर्चा हुई है। क्यों?
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