18 दिस॰ 2010

गुस्सा हरै मौन [kahani]

राजा मनोज कुंवर की परेशानी बढ़ती ही जा रही थी। महारानी आए दिन कोपभवन में चली जातीं। राजा का मन अशांत हो जाता। यही कारण था कि वे दरबार में अधिक समय नहीं दे पा रहे थे। प्रजा की समस्याओं का अंबार लगता जा रहा था।

एक दिन की बात है। उन्हें चिंतित देख उनके सलाहकार राधेराम ने पूछ ही लिया। राजा थोड़ी देर तो शांत रहे। फिर कहने लगे-‘‘राधेराम। महारानी का स्वभाव दिन-प्रतिदिन चिड़चिड़ा होता जा रहा है। बातों ही बातों में झगड़ने लगती हैं।’’

राधेराम ने कहा-‘‘बस ! इतनी सी बात। महाराज। ये लीजिए। ये अचूक औषधि है। जब भी महारानीजी से विवाद होने लगे, आप तत्काल इस औषधि की कुछ बूंदें मुंह में रख लीजिएगा। बूंदों को निगलना नहीं है। महारानीजी चुप हो जाएंगी। अधिक से अधिक समय तक जीभ में रखना है। जब रखना असहनीय हो जाए, तो ही थूकना।’’ महाराज ने राधेराम से औषधि की शीशी ले ली।

कई दिनों बाद महाराज ने दरबार में प्रवेश किया। वे प्रसन्न मुद्रा में थे। महाराज ने अपने सलाहकार से कहा-‘‘भई वाह। राधेराम। तुम्हारी औषधि ने तो वाकई कमाल कर दिया। एक नहीं कई अवसरों पर वो काम कर गई। लेकिन औषधि समाप्त हो गई है। कल और औषधि ले आना।’’

राधेराम हाथ जोड़ते हुए कहने लगा-‘‘महाराज। क्षमा करें। शीशी में स्वच्छ साधारण जल के अलावा कुछ नहीं था। फिर साधारण जल ने कमाल कैसे कर दिखाया होगा?’’

राजा ने हैरानी से पूछा-‘‘ मैं कुछ समझा नहीं। महारानी पर फिर किस चीज का असर हुआ?’’

‘‘महाराज, मौन का। हाँ, आपके मौन रहने का ही असर महारानीजी पर हुआ है। आपके मुँह में जल की बूंदें रहीं। इस कारण आप मौन रहे। आपको शांत पाकर महारानीजी का क्रोध भी जाता रहा। कहा भी तो गया है कि ‘‘बस एक मौन सब दुख हरै, बोलै नहीं तो गुस्सा मरै।’’

महाराज सिंहासन से उठे और राधेराम को गले से लगा लिया। दरबारी महाराज का जयघोष करने लगे।


मनोहर चमोली 'मनु'
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