30 दिस॰ 2020

अलविदा 2020! तय कीजिएगा कि आप किस ओर खड़े थे ! #2020

अलविदा 2020! तय कीजिएगा कि आप किस ओर खड़े थे !

-मनोहर चमोली ‘मनु’

आज साल 2020 का अंतिम दिन है। याद करने का दस्तूर है। मौका भी है। वैसे, 2020 को मात्र दोष देना...! सिवाय कोसना! यह मक़सद क़तई नहीं है।
दिन, महीने, साल तो हम इंसानों ने तथ्यों, आँकड़ों और उपलब्धियों को रेखांकित करने के लिए गढ़े हैं। देखा जाए तो सूरज अपनी जगह है। कायनात के तमाम हिस्से अपने रूप, गुण, धर्म के हिसाब से बदस्तूर काम करते चले आ रहे हैं। करोड़ों साल से इस धरती के बाशिंदे अपनी आदतों के अनुसार व्यवहार कर रहे हैं। सिवाय, हम मनुष्यों के। हम मनुष्य ही यह भूल गए हैं कि यह धरती हमारी नहीं है। हम इस धरती में मात्र मेहमान हैं। लेकिन हमने इस धरती में मेहमान का धर्म छोड़कर भूस्वामी का रूप अखि़्तयार कर लिया है।
बहरहाल, प्राकृतिक घटनाएं पहले भी घटती थीं और आगे भी घटती रहेंगी। उन घटनाओं का असर हम पर ज़्यादा हो रहा है। कारण? हमने अनाधिकार फैलाव किया है। बेहिसाब सुख-सुविधाओं को बटोरा है। मौज़-मस्ती और आनंद के लिए प्राकृतिक नियमों को तोड़ते हुए नायाब तरीके ईज़ाद किए हैं। यही कारण है कि प्रकृति का नियमित व्यवहार हमारी दिनचर्या को उलटता हुआ प्रतीत होता है।
कौन नहीं जानता! समय तो अपनी चाल से चलता है। पिछले साल भी और आने वाले सालों-साल भी। समय यूँ ही चलेगा। हाँ, तो स्थितियां-परिस्थितियां हमें किसी साल को अच्छा और खराब बताने के लिए बाध्य कर देती हैं।
इतिहास के आइने में हर साल कई अच्छी-बुरी घटनाएं जुड़ती हैं। 2020 की शुरुआत से ही पूरी दुनिया चीन में कोरोना वायरस के कहर को देख-सुन-पढ़ रही थी। किसी ने यह जनवरी 2020 में नहीं सोचा था कि पूरा साल हम भी इस कोरोना से खौफ खाते रहेंगे। इस साल अचानक और अकारण हम इंसानों ने अपने परिवार के कई प्रिय सदस्य कोरोना की वजह से हमेशा-हमेशा के लिए खो दिए हैं। इस कारण भी साल 2020 याद रहेगा।
हालांकि, 2020 के आने से डेढ़ माह पूर्व ही पिताजी का जाना सालता रहा। 2020 के 365 दिन के हर पल पिताजी बहुत याद आए। वे होते तो इस महामारी के बरक्स अपने जीवन में आए अकाल,भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं के किस्से बताते। जनता कर्फ्यू के साथ से जो सिलसिला शुरू हुआ, वह कोविड 2019 की याद से अभी तक मन-मस्तिष्क में बर्फ़ की तरह जम-सा गया है। इस लिहाज़ से भी 2020 खूब याद रहेगा।
फिर भी, 2020 को मात्र बुरा कैसे कहा जा सकता है? बल्कि इस साल ने तो हमें नए सिरे से जि़ंदगी को जीने का सलीका समझाया। मानव व्यवहार और मूल्य तक बदल गए! इस साल ने सामाजिक और मानवीय मूल्यों को नए ढंग से परिभाषित किया। याद करें तो, लाखों लोगों ने लगभग सात से आठ महीना घर पर रहकर जीवन जिया। अपनी आजीविका को बचाए और बनाए रखा। लाखों लोग फर्श पर आ गए। लेकिन, उन लाखों लोगों ने जीना नहीं छोड़ा। जीने की आस का पारा लुढ़कने नहीं दिया। अपने बूते पर ही सही, लेकिन दो जून की रोटी जुटाने के लिए खूब संघर्ष किया। लाखों परिवारों ने कम खर्च में गुजारा किया। हजारों कमाऊओं ने अपनों को गुजारा-भत्ता लायक मदद भी की। हजारों मकान मालिक ऐसे हैं, जिन्होंने किरायेदारों से किराया नहीं लिया। कई सम्पन्न लोगों ने अपने अधीनस्थों को गुजारा लायक वेतन देना नहीं त्यागा। हजारों-हजार लोगों ने चंदा इकट्ठा किया और आस-पास रह रहे दूर-दराज़ के मज़दूर परिवारों को एक नहीं, दो नहीं, तीन-चार माह तक का राशन उपलब्ध कराया। कई परिवारों ने पड़ोस में रहने वाले अजनबी-से परिवारों को पका-पकाया भोजन उपलब्ध कराया। इस लिहाज से भी कैसे 2020 को मात्र बुरा कहा जा सकता है?
हम भारत के लोगों के लिए स्थापित सार्वजनिक उपक्रम खूब मददगार साबित हुए। सरकारी कार्मिकों का उत्साह प्रणम्य रहा। पुलिस विभाग, शिक्षा विभाग, राजस्व, स्वास्थ्य, नगरपालिका विभाग आदि के कार्मिकों ने जान पर खेलकर अपने दायित्वों को निभाया। निजी चालकों और वाहन स्वामियों ने बढि़या रुपया कमाया। लेकिन, जब हम और आप घरों में बन्द थे, तब उनकी गाडि़यांे का चक्का थमा नहीं। उन्होंने पूरे देश के लिए चक्का थाम कर रखा। आवश्यक वस्तुओं के निर्माताओं ने दिन-रात काम किया। औद्योगिक संस्थानों में ज़रूरी उत्पादन जारी रखा। फसलें निबार्ध रूप से खेतों में पकी और किसानों ने दिन-रात एक कर ज़रूरी खाद्य पदार्थ बाज़ार को उपलब्ध कराए। क्या इस सकारात्मकता के लिए 2020 को याद नहीं किया जाना चाहिए?
लाखों शिक्षक-शिक्षिकाओं ने अपने बूते पर घर से ही शिक्षण कार्य किया। अभी तक कर रहे हैं। भले ही निजी कंपनियों को अरबों रुपए का मुनाफा शिक्षकों की वजह से हुआ है। लेकिन, शिक्षकों ने किसी के आगे हाथ नहीं फैलाए। हर महीने हजारों रुपए का इंटरनेट प्लान अपने मोबाइल में नियमित संचालित किया। अपने छात्रों के मोबाइल में डेटा तक स्थानांतरित किया। क्या इस रूप में साल 2020 खास न रहा?
2020 में घर-घर में एक अलग दुनिया कायम हो गई। एक-एक घर के ज़रूरी रिश्तों की महक को महसूस किया गया। अपने जिए जा चुके अब तक के जीवन में पहली बार हर रिश्ते को, हर सदस्य ने नजदीक से देखा-भाला और उसकी परवाह की। हर सदस्य ने अपनी भूमिका को नए तरीके से पहचाना। परिवार में अपनी भूमिका को, धर्म को, दायित्व को, महत्व को जिया। क्या यह कम है?
हाँ ! यह भी सही है कि 2020 में हमारे कई अपनों ने अपनों को कोरोना के साथ जीते और मरते हुए देखा। तब उनके अपनों ने कैसे दूर रहकर तमाशा देखा! यह भी कैसे भूला जा सकता है? उम्मीदों में नाउम्मीदें भी मिलीं हैं। लेकिन यह भी सच है कि नाउम्मीदों में उम्मीद के बीज भी खिले हैं! है न? करोड़ों लोगों ने कोरोना की साथ साक्षात् युद्ध किया। उससे खुद को उबारा और स्वस्थ भी हुए। हजारों चिकित्सकों ने अपने मरीजों के स्वस्थ होने पर उत्सव मनाया। पुलिसकर्मियों ने कई मनुष्यों की सांता क्लॉज बनकर परवाह की। क्या इस तौर पर 2020 खास न रहा?
2020 में ऐसे होटेल मालिक भी थे, जो अपनी बेहिसाब पूंजी के लिए जाने जाते हैं। उनकी लगातार पूंजी को बढ़ाने वाले सारथियों को ये होटेल मालिक चाहते तो अपनी भव्यता की छाँव उपलब्ध करा सकते थे। उन्हें मनुष्यार्थ अपनी समृद्धता की कुछ बूंदे उपलब्ध करा सकते थे। तीन वक्त का पचास फीसदी भोजन तो आसानी से उपलब्ध करा सकते थे। लेकिन, उन्होंने अपने ही सारथियों को घर भेज दिया।
हालांकि हमारे ही चुने गए कई नुमाइन्दे भी थे, जो चुनाव लड़ते समय अपनी बेलौस सम्पत्ति का ब्यौरा देते हैं। वे चाहते तो अपनी विधानसभा या संसदीय सीट के हर मतदाताओं को कम से कम प्रतिमाह 2000 रुपया की धनराशि बतौर सहयोगार्थ दे सकते थे। लेकिन, वे कोरोना के खौफ से स्वयं घर में घुस गए। उनकी जेब ढीली होना तो दूर मानवता के पक्ष में मुख से दो बोल भी न फूटे।
हालांकि, ऐसे पूंजीपति, कॉरपोरेट के अरबपति भी थे जिनकी आय 2020 में बीस से तीय गुना बढ़ गई, बताई जा रही है। वे दुनिया के अरबपतियों में शामिल हो गए। वे चाहते तो हर संक्रमित व्यक्ति के इलाज का पूरा खर्च आसानी से उठा सकते थे। लेकिन, उन्होंने ऐसा नहीं किया। ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनकी वजह से भी 2020 याद किया जाएगा। और हाँ ! व्यवस्था के पैरोकारों को भी तो याद किया जाना चाहिए। डंगरों की भांति लगभग चालीस लाख मजदूर कोरोना काल में इधर से उधर कराए गए। उन्होंने सैकड़ों किलोमीटर की पैदल यात्रा की। असंख्य मजदूर चलते-चलते काल के गाल में समा गए। उनके लिए अस्थाई सराय और लंगर लगाया जा सकता था। लेकिन व्यवस्था के पैरोकारों ने लाठियां भंजवाई। शांति से जा रहे मजदूरों को अधिकाधिक परेशान किया।
थाली, ताली और दिया जले। आमदनी हुई। करोड़ों दिए एक रात के लिए जले। तेल और बाती पर लाखों खर्च हुए। लेकिन कई गरीबों के चूल्हे रात को नहीं जले। अरबों रुपए के पटाखे भी खूब छोड़े गए। लेकिन पड़ोस में छाए मातम में शरीक न होने के मामले भी सामने आए। शंख, मोमबत्ती खूब बिकी। लेकिन कुम्हार के घड़े नहीं बिके। जुमलों की खूब बारिश हुई। लेकिन रोगियों को बिस्तर का अकाल रह जगह रहा। यह साल 2020 इन बातों के लिए भी तो याद किया जाएगा। उस पर यह तुर्रा कि हर चीज में खोट देखने का नजरिया कुछ लोगों पर हावी रहा है। 2020 इस रूप में भी याद किया जाएगा कि कैसे हम कई बार जुमलों के मकड़जाल में फंसे। कैसे हमारे खुले दिमाग को साल 2020 में बंद कर दिया गया। कैसे इंसान को धर्म, जाति, मज़हब और क्षेत्र के नाम पर लामबद्ध किया गया। कैसे बुनियादी समस्याओं, मुद्दों और समस्याओं से ध्यान हटाया जाता है। कैसे छद्म राष्ट्रवाद, भक्ति और असुरक्षा के नाम पर उपयोग और उपभोग किया जा सकता है! कैसे वैज्ञानिक नज़रिए को हाशिए पर धकेला जाता है और संस्कृति के नाम पर कुरीतियों को बनाए रखा जाता है।
2020 में प्रकृति ने भी हमें बिना कहे कई संदेश देने की कोशिश की है। इंसान जब घर में रहा तो उसके कई मूल जीव-जन्तु सड़कों में विचरने लगे। प्राकृतिक स्रोत स्वच्छ हो गए। आसमान धुल गया। हिमालय युवा हो गया। इस साल ने हमें यह भी सिखाया कि इस दुनिया में जीवन देने वाले माता-पिता से बढ़कर खुद का जीवन बड़ा है। कोरोना संक्रमित शव का अंतिम दर्शन बीस गज दूरी से ही किया जाना है। अपनी जान सुरक्षित रखने के लिए सालों के रिश्तों और सामाजिक मान्यताओं को ताक पर रखा जा सकता है। 2020 ने हमें यह भी सिखाया।
2020 ने पोंगा-पंडितों-मुल्लाओं-ग्रन्थियों-पादरियों की धार्मिक मान्यताओं को स्थगित भी करवाया। ये वही हैं, जो यह कहते नहीं अघाते थे कि सांस लो न लो, पर पहले ईश्वर, अल्लाह, जीसस और वाहे गुरु बोलो। उनके नाम पर फलां-फलां अनुष्ठान, उपक्रम और प्रयोजन बेहद-बेहद ज़रूरी हैं। तो भला इन कूड़मगजो की कथनी-करनी का अंतर स्पष्ट हो जाने के लिए यह साल क्यों न याद किया जाएगा?
प्रकृति महान है और वही शक्तिशाली है। किसानों को हम कितना कम समझते हैं? हम यह तो याद रख पाए कि अहा! धरती कितना देती है! पर यह भूल गए कि हमारे मुख का निवाला बनाते तक की यात्रा में किसान कमर और पेट एक कर देता है। हम उसके साथ खड़े रहे, यह क्या कम है?
एक बार हम हाथ धोने और साबुन के अधिकाधिक इस्तेमाल की आदत को दैनन्दिनी का हिस्सा बना पाए। भाईचारा, सेवा, दया, करुणा को नजदीक से देखा गया। नई पीढ़ी में यह मानवीय मूल्य जमा रहेंगे। यह उम्मीद तो 2020 से बनती ही है।
सारी दुनिया जैसे थम-सी गई थी। लेकिन मनुष्य की जिजीविषा को सलाम है कि जैसे-तैसे आधी-अधूरी तैयारी ही सही, लेकिन इंसान ने आशा और उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा और पूरा साल बिता दिया। कमोबेश हर परिवार ने कोशिश की कि जीवन के पथ पर इंसान की यात्रा चल पड़े। बनावटी घुलना-मिलना रोक पाए। जब ज़्यादा ज़रूरी हो तभी भीड़ का हिस्सा बना जाए। कैसी भी हो, कितनी भी बड़ी बाधाएं हों, डटे रहो। यह साल 2020 ने ही तो सिखाया। अलविदा 2020 ! प्रणाम 2020 !
॰॰॰
-मनोहर चमोली ‘मनु’,गुरु भवन, निकट डिप्टी धारा,पौड़ी 246001 उत्तराखण्ड
सम्पर्क: 7579111144
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राधा की क्यारी: वर्तमान समय की बाल कहानियाँ

राधा की क्यारी: वर्तमान समय की बाल कहानियाँ

-मनोहर चमोली ‘मनु’


*युवा साहित्यकार सिराज अहमद की बाल कहानियों का पहला संग्रह ‘राधा की क्यारी’ अकादमिक बुक्स इंडिया से प्रकाशित हुआ है। यह किताब साल 2021 के संस्करण हेतु मुद्रित है। प्रत्येक कहानी में एक श्याम-श्वेत रंग का चित्र है। डिमाई आकार की इस पुस्तक में प्रत्येक चित्र पूरे पेज पर आच्छादित है। दिलीप कार्टूनिस्ट से कहानी के आधार पर चित्र बनाने का सफल प्रयास किया है। उन्होंने भरपूर कोशिश की है कि चित्र कहानी के केन्द्रीय भाव को तो प्रदर्शित करे ही साथ में कहानी को विस्तार दे। यह बड़ी बात है। सिराज की इन कहानियों के शीर्षक अनूठी खुशी, अम्मी नाराज़ नहीं हैं, असलम का पठानी सूट, आलसी सक्कू, इत्ते सारे नोट....., क़ासिम का खिलौना, किसने बजाई घंटी?, कौए का बदला, ख़ास दोस्त की चिट्ठी, गमले कहाँ गए?, चिट्ठी गुम, चितकबरा कुत्ता, चिन्नी और नंदू, जै़नब का खत, बन गई बात, बहुत अच्छी कोशिश, महकता हुआ गुलाब, मुझे आपका साथ चाहिए, राधा की क्यारी, रूपल रूठी है, लौट आई खुशी, वह नीला फूल, वह मुस्कुरा उठा, सना बन गई जादूगर, स्केको हैं। कह सकते हैं कि मात्र शीर्षक से कहानियों का अंतस नहीं पता चलता लेकिन हम कहानियों में झांक ज़रूर सकते हैं। ‘अम्मी नाराज़ नहीं है’ कहानी में बालमन का स्वभाव और खोजी प्रवृत्ति सहजता से शामिल हुई है। कहानी से- ‘दादा के प्यार से पूछने पर सबा ने रोते हुए उन्हें बताया कि उसके एक दोस्त ने उसे बताया था कि टेप रिकॉर्डर के अंदर बड़ा-सा चुबंक होता है.....। ‘‘लेकिन बेटा, आपको पूछना तो चाहिए था न?’’ दादा उसके आँसू पोछते हुए फिर बोले। सबा कुछ न बोला बस उनसे लिपट गया।’ कहानी बच्चों के अनुभवों से आगे बढ़ती है और स्वयं गलती का अहसास मानते हुए खुद से संकल्प के साथ खत्म होती है। जबकि सबा को लगता है कि अम्मी को उनके अब्बा द्वारा दिया गया तोहफा उसने उसके भीतर के चुम्बक के लिए तोड़ दिया। कहानी का अंत ऐसा नहीं होता। ये ओर बात है कि अम्मी रोए जा रही थीं कि उनके अब्बा की आखि़री निशानी आज उनके सामने बिखरी पड़ी थी। हम बड़े भी न बच्चों की सादगी और साफ़गोई को बचपना मान लेते हैं। ऐसा हम कई बार करते हैं। बच्चे सही और सच भी बोल रहे हैं तो भी हम बड़ों को लगता है कि वे गलत हैं और झूठ बोल रहे हैं। संग्रह में एक कहानी ऐसी ही है। ‘इत्ते सारे नोट......’ में असग़र ईद की नमाज के लिए अपने अब्बा के साथ जा रहा होता है। सड़क पर बिखरे सौ-सौ के दस-बारह नोट उठाता है तो अब्बू मना करते हैं। असगर बताता है कि वे नोट उसके पतलून से ही गिरे हैं। बाद में सही बात का पता चलता है तो असगर की अम्मी पूछती है,‘‘आपको अपनी और असग़र की पतलून में फकऱ् नहीं लगा। ‘‘अरे अगर पता चल जाता तो रखता ही क्यों?’’ कहकर अब्बा हँसे तो उनके साथ-साथ असग़र भी मुस्कुरा दिया। ‘स्केको’ बालसुलभ कहानी है। बहुत ही छोटे बच्चों की दुनिया की कहानी। यह कहानी बताती है कि हर बच्चे की अपनी समझ होती है। वह अपने अनुभवों से इस संसार को देखता-समझता है। बड़ों से देख-समझ कर वे आगे बढ़ते हैं और अपनी समझदारी विकसित करते रहते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में कई बार हास्यास्पद,चुटीली और गुदगुदाने वाले प्रसंग भी सायास जुड़ जाते हैं। लकी रट लगाए रहता है कि उसे स्केको चाहिए। अब स्केको दिया तब जाए न, जब बड़ों को ये पता चले कि आखिर लकी माँग क्या रहा है! घर के सारे छोटे-बड़े बहलाने-फुसलाने की सारी कोशिश कर चुके होते हैं। कई और मनपसंद चीज़ें आ गईं। लेकिन, लकी की जि़द छूटी नहीं। आखिर में दादा लकी को गोद में लेकर बाहर घुमाने ले जाते हैं। एक गुब्बारे वाले के किसी गुब्बारे को देखकर लकी कहता है,‘‘वो रहा स्केको!मुझे स्केको चाहिए।’’ अंत में शन्नो पूरे मामले को खोलती है। स्केयर क्रो यानि बिजूका से वह लकी का


स्केको जो हो गया था। अधिकतर कहानियाँ आधुनिक समय-परिवेश की हैं। भाषा बेहद सरल और सहज है। कहीं

भी साहित्य की अतिरंजनाओं के दर्शन नहीं होती। लेखक भाषा की विद्वता के मोह से मुक्त हैं। कहानियों के पात्र गंगा-जमुनी संस्कृति का परिचय देते हैं। कॉलोनी, सामान्य परिवार, मुहल्ला संस्कृति, बुजुर्ग, गाँव, पशु जगत कहानियों में शामिल हुआ है। सीख,नसीहतें,संदेश और उपदेशादि से दूर कहानियाँ सोचने-विचारने के लिए पाठक को विचलित करती हैं। यह बड़ी बात है। कई कहानियाँ बड़ों को अपने बालपन में झांकने का अवसर देती हैं। तो अप्रत्यक्ष तौर पर हमें इस बात के लिए भी बाध्य करती हैं कि हम बड़े बड़े तो हो गए हैं लेकिन बच्चों को समझने-जानने के लिए अभी और बाल मनोविज्ञान की आवश्यकता है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि कहानी संग्रह पाठकों को बाँधने में सफल है। बाल खिलंदड़पन और मन को गुदगुदाने वाले बेहद आम प्रसंग भी मजेदार कहानी का भाग होते है। यह बात इस संग्रह को पढ़ते समय पुष्ट होती है। किताब की भूमिका मशहूर साहित्यकार डॉ॰ मोहम्मद अरशद खान ने लिखी है। वे लिखते हैं कि सिराज अहमद बालमन की मासूमियत के रचनाकार हैं। यकीनन। इस बात से पूरी सहमति है। किसी भी पाठक का यह ख़्याल सायास ही इन पच्चीस कहानियों को पढ़ते समय हो जाएगा। ऐसा विश्वास है। अरशद खान लिखते हैं,‘‘सिराज की कहानियों के विषय बिल्कुल आस-पास से उठाए गए होते हैं, किंतु पूरे नएपन और ताजगी के साथ। छोटी-छोटी घटनाएँ, जो एक बच्चे के दैनिक जीवन में घट सकती हैं, उन्हें सिराज बेहद मनोरंजक अंदाज में शब्दबद्ध करते हैं। उनकी अधिकतर कहानियाँ 1500 शब्दों के भीतर हैं, जो बच्चों के लिए बेहद अनुकूल हैं।‘‘ अलबत्ता कवर पेज और बेहतरीन हो सकता था। भीतर का काग़ज़ उम्दा है पर कवर पेज भारी होता तो किताब को कहीं भी रखने पर वह गोलाकार नहीं बनता। रुपए दो सौ पन्द्रह में पच्चीस कहानियाँ पढ़कर पाठक को आनन्द की अनुभूति होगी और वह सहज बाल पाठकों को भी पढ़ने के लिए प्रेरित करेगा। यह संभावना इस संग्रह में दिखाई देती है। पुस्तक : राधा की क्यारी (बाल कहानियाँ) लेखक : सिराज अहमद पेज संख्या : 128 मूल्य : 215 रुपए आकार : डिमाई प्रकाशक : अकादमिक बुक्स इंडिया,दिल्ली उपलब्ध : अमेज़ान और फ्ल्पिकॉर्ट वेबसाइट :
www.academicbooksindia.com ॰॰॰ मनोहर चमोली ‘मनु’ सम्पर्क: 7579111144 गुरु भवन,निकट डिप्टी धारा, पौड़ी 246001 उत्तराखण्ड

17 जुल॰ 2020

लर्नर ही रही


लर्नर ही रही


-मनोहर चमोली ‘मनु’

सड़क को पढ़ना पड़ता है
वह मुड़ रही है
उसी ओर मुड़ना पड़ता है
स्टेयरिंग हाथों में हो
आँख कान खुले हों
पर पहियों पे गौर करना पड़ता है
सड़क हो या चैपहिया
इन्हें अंग समझना पड़ता है

बेजान सड़क
निर्जीव चैपहिया से
ये अपनत्व तुम्हारा 
मुझे बहुत भाया था

तुम्हारे साथ-साथ
ख़ूब सड़कें नापी
रंग-बिरंगे चैपहिया
गहरे दोस्त बने 

ज़िन्दगी की सड़क
साथ के पहियों पर
नज़र दौड़ाती हूँ तो
प्यार का स्टेयरिंग 
पेण्डूलम की मानिंद
डोलता दिखाई देता है

सफर जारी है 
तुम्हें पढ़ना,समझना
गौर से देखना
सीख न पाई
लर्नर का कोर्स 
ही पूरा कर न पाई

-मनोहर चमोली ‘मनु’

17 मई 2020

बच्चों को तिलिस्म से तार्किक दुनिया की ओर ले जाया जाए: देवेन्द्र मेवाड़ी

बच्चों को तिलिस्म से तार्किक दुनिया की ओर ले जाया जाए: देवेन्द्र मेवाड़ी 


विज्ञान कथाकार,किस्सागो,प्रकृति विज्ञानी और बाल साहित्यकार देवेन्द्र मेवाड़ी से मनोहर चमोली ‘मनु’ की बातचीत


सुप्रसिद्ध कथाकार और बालसाहित्यकार देवेन्द्र मेवाड़ी मानते हैं कि संवादहीनता के कारण बच्चों का बचपन बूढ़ा हो रहा है। बच्चे मशीनी खिलौनों में तब्दील हो रहे हैं। उनकी दुनिया कमरों और घरों में सिमट गई है। बच्चों में संवेदना की कमी के लिए हम बड़े जिम्मेदार हैं। बड़ों का बच्चों को समय न देना घातक है। परिणामस्वरूप बच्चे एकाकी हो रहे हैं। वह हिसंक हो रहे हैं। क्रोध, चिड़चिड़ापन और स्वार्थ का भाव उनके साथ समय न बिताने के चलते बढ़ता जा रहा है। यह आने वाले घातक युग का आरंभ है। बाल साहित्यकार ही हैं जो इन विषम परिस्थितियों को समझ सकते हैं। वह समझ की लेखनी से रोचक रचनाएं सृजित कर सकते हैं। वही बच्चों को आभासी दुनिया के मोह से असल दुनिया में फिर से प्रवेश दिला सकते हैं। कौसानी में संपन्न हुए राष्ट्रीय बाल साहित्य संगोष्ठी के दौरान मनोहर चमोली ‘मनु’ से की गई बातचीत के संपादित अंश यहां प्रस्तुत किये जा रहे हैं-
बाल साहित्य की कमी की बात को किस रूप में देखते हैं?
बाल साहित्य तो खूब लिखा जा रहा है। पत्र-पत्रिकाओं में भी बाल साहित्य को अच्छा खासा स्थान मिल रहा है। यह ओर बात है कि बच्चों के काम का और बच्चों की दुनिया से जुड़ा साहित्य कितना है। 

उत्कृष्ट बाल साहित्य की कमी क्यों है?



उत्कृष्ट बाल साहित्य आएगा कहां से? जवाब एक ही हो सकता है। बच्चों के आस-पास से ही। जब हम बच्चों से संवाद करेंगे तभी न। बच्चों की दुनिया में प्रवेश करेंगे। आज बच्चों से संवाद करना ही कम हो गया है। यही कारण है कि हम बड़े अपनी दुनिया अपने अनुभव के चश्में से बाल साहित्य रच रहे हैं। उसे बच्चे जो असली पाठक हैं एक किनारे रख देते हैं। बच्चों से संवाद करेंगे तो उत्कृष्ट साहित्य भी रचा जाएगा। 

सूचना तकनीक के युग में बाल साहित्य गैर जरूरी नहीं लगता?
नहीं। बेहद जरूरी हो गया लगता है। हम बड़े अपनी दुनिया में इतने व्यस्त हो गए हैं कि हमने एक घर में कई दुनिया बना ली है। बच्चों को रिमोट,यांत्रिक खिलौने,गैजेट्स पकड़ा भर देने से हमारे दायित्व और कर्तव्य पूरे नहीं हो जाते। इससे यह सुंदर दुनिया यांत्रिक दुनिया में तब्दील होती जा रही है। नई सूचना तकनीक और मनोरंजन के साधन मात्र साधन हैं लेकिन यह अभिभावकों,संगी-साथियों की जगह कभी नहीं ले सकते। 

कैसा बाल साहित्य जरूरी लगता है?

आज जरूरी है कि हम वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा दें। हमारा बाल साहित्य बच्चों में तार्किकता के संस्कार दें। अब समय आ गया है कि हम तिलिस्म से तार्किक दुनिया की ओर बच्चों को ले जाएं। अब बच्चों को अति काल्पनिक दुनिया से बचाएं। यह एक सीमा तो ठीक है लेकिन अंततः बच्चों को को यथार्थ की दुनिया में ही रहना है। 



विज्ञान और वैज्ञानिक सोच प्रयोगशाला से बाहर कैसे आएगा?
विज्ञान और वैज्ञानिक सोच जटिल नहीं है। आम जन के लिए रिसर्च कठिन हो सकती है। प्रयोगशाला के भीतर काम करना उनके लिए जटिल काम हो सकता है। लेकिन यह सब है तो आम जन की बेहतरी के लिए। आज सूचना तकनीक के बेहतरीन उपकरण आम जन भी इस्तेमाल कर रहा है। विज्ञान को आम जन तक पहुंचाने का काम ही तो साहित्यकारों को करना है। एक जमाना था जब अंधविश्वासों और रूढ़ियों में जकड़ा समाज सूरज को राहू-केतू से मुक्त करने की बात करता था। सूर्यग्रहण के दिन घरों में कैद रहता था। आज वही समाज उत्सव मनाता हुआ सूर्यग्रहण जैसी खगोलीय घटना को देखने के लिए उत्सुक है। यह समझ एक दिन में नहीं बनी। यह समझ समाज को वैज्ञानिकों और रचनाकारों ने  ही तो दी है। 

विज्ञान लेखन वह भी बाल साहित्य में ! यह कैसे संभव हो सकेगा?

वैज्ञानिविज्ञान की तकनीकी बातें जटिल लग सकती हैं। लेकिन उनका सरलीकरण संभव है। विज्ञान की जानकारी आज भी अंग्रेजी में अधिक है। उसे क्षेत्रीय भाषा में लाना आवश्यक है। बाल साहित्यकार उसे और सरल कर सकते हैं। आम भाषा में आम लोगों के लिए विज्ञान की बातें पहुंचाना जरूरी है। मैं साहित्य की कलम से विज्ञान लिखता हूं। शब्दों के साथ से ही तो साहित्य जुड़ा है। हमारी जड़ों को साहित्य ने ही सींचा है। समरसता,सरलता और सहजता के लिए भी साहित्य महत्वपूर्ण है। यह जरूरी तो नहीं कि केवल वैज्ञानिक और वैज्ञानिक संस्थान ही विज्ञान लेखन कर सकते हैं। आम जन के लिए आम भाषा में विज्ञान लेखन थोड़े से अभ्यास के साथ संभव है। जरूरी है,दृष्टि। पहले हम रूढ़ियों से,अंधविश्वासों से मुक्त हों। फिर हमारा लेखन भी मुक्त हो जाएगा। यह सरलता से थोड़े अभ्यास मात्र से संभव है। मुझे खुशी है कि यह काम आजादी के बाद से तीव्रता से हो रहा है। नये रचनाकार अब आम जीवन में विज्ञान के प्रयोगों को रचनाओं के माध्यम से बखूबी ला रहे हैं। ये ओर बात है कि जिस फीसदी से यह होना चाहिए था,वह नहीं हो रहा है। साहित्य में जो भी विज्ञान लेखन कर रहे हैं। उन्हें कार्यशालाओं,सेमिनारों,गोष्ठियांे के माध्यम से यह करना चाहिए। कई बाल साहित्य संस्थान बरसों से अपने सत्रों में विज्ञान लेखन क्यों और कैसे पर काम कर रहे हैं। पत्र-पत्रिकाएं भी विज्ञान विशेषांक प्रकाशित कर रहे हैं।  

बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण जगाने के लाभ को किस तरह से देखते हैं।
इतिहास गवाह है कि परतंत्रता के कारणों में रूढ़िवादिता,अंधविश्वास और निरक्षरता भी मुख्य कारण रहे हैं। बालसाहित्य में असली बदलाव स्वतंत्रता के बाद आया है। समाज में वैज्ञानिक विकास की अवधारणा का प्रसार हुआ। तर्कसंगत कहानियों ने विज्ञान को आगे बढ़ाया। ऐसा नहीं है कि पूर्व में विज्ञान आधारित साहित्य नहीं था। था, लेकिन वैज्ञानिक सोच को फैलाने वाली दृष्टि के हिसाब से अपेक्षाकृत कम मिलता है। आजादी के बाद वैज्ञानिक सोच का प्रसार हुआ और प्रचार भी हुआ। कई पत्र-पत्रिकाओं ने इस काम को आगे बढ़ाया। हिंदी की लोकप्रियता भी बढ़ी। संपादकों और अग्रज साहित्यकारों में सीखाने की ललक थी। वे संपादित करने का पहला अधिकार लेखकों को ही देते थे। आगामी अंकों के लिए रचनाएं लिखवा लिया करते थे। कई लेखकों को लेख मालाएं लिखने के अवसर देते थे। आज ऐसा नहीं है। आज रचनाओं का सरलीकरण रचनाकारों को स्वयं करना होता है। आज के लेखक विज्ञानपरक उपकरणों को खूब इस्तेमाल कर रहे हैं। आज हर कदम पर विज्ञानपरक खोजों,उपकरणों का इस्तेमाल हो रहा है। लेकिन हम इसे और रोचक तरीके से हस्तांतरित नहीं कर पा रहे हैं। बचपन से ही चीज़ें मन-मस्तिष्क में बैठ जाती हैं। यदि वैज्ञानिक सोच पहले हम बड़ों में खुद होगी तभी हम बच्चों में उसे हस्तांतरित कर पाएंगे। परिवार भी रूढ़ियों से मुक्त होंगे। विश्व पटल पर आंकड़े उपलब्ध हैं। वह देश जिसने निरक्षरता पर विजय पाई है। जिसने अंधविश्वासों पर विजय पाई है। वह देश जो प्रगतिशील हैं,वह उन्नति के पथ पर तीव्रता से अग्रसर हैं। ठीक इसके उलट दूसरे देश हैं जो अभी सेहत,शिक्षा और रोजगार के मकड़जाल में उलझे हुए हैं। यदि बच्चे वैज्ञानिक सोच से ओत-प्रोत होंगे तो समाज भी खुशहाल होगा और फिर राष्ट्र भी।   

कुछ विज्ञानपरक विषयों के बारे में चर्चा कर ली जाए। 



विज्ञानपरक तथ्यों और बातों पर बाल साहित्यकारों को लिखना हैं। लिख भी रहे हैं। बहुत छोटी-छोटी चीज़ों में भी विज्ञान है। जरूरी नहीं है कि हम अंतरिक्ष से आरंभ करें। रसायन विज्ञान से शुरू करें। यदि हम देखें तो हमारे हर कदम पर विज्ञान है। हम वैज्ञानिक दृष्टिकोण से स्वच्छता पर बात कर सकते हैं। हम सेहत पर बात कर सकते हैं। हम आम समाज की जागरुकता को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखते हुए सुंदर रचना रच सकते हैं। हम बदलते और बिगड़ते मौसम को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देख सकते हैं। वैज्ञानिक जागरुकता कैसे जगेगी? समझ का जागरुकता से रिश्ता है। इस रिश्ते को बेहतरीन ढंग से सरल शब्दों के साथ रचनाओं में रचनाकारों को जगाना है। बच्चे पहले परिवार,पड़ोस,आंचलिक,राज्य,देश और दुनिया के साथ खुद को जोड़े,इसके लिए जरूरी है कि हम इस पूरी प्रकृति के साथ उसका भावनात्मक रिश्ता जोड़ने की दिशा में साहित्य लिखें।  

बच्चे हिंसक और अराजक हो रहे हैं। आप क्या कहेंगे? 

ये आरोप हम बड़ों की ओर से हैं। यह कुछ हद तक सही भी है। लेकिन बच्चों को क्या पता कि वह जो कर रहे हैं,वह हिंसा है,अराजकता है। बच्चे कहां से सीखते हैं? यह सब उन्हें हम ही दे रहे हैं। एक कारण है, बच्चों से संवादहीनता। बातचीत ही से सारे रास्ते खुलते हैं। बच्चों को जानकारी कहां से मिलेगी? केवल टी0वी0 देखने से ? नहीं। केवल किताबी ज्ञान से ? नहीं। संवाद जरूरी है। बच्चों में तार्किकता तभी बढ़ती है, जब वे सवाल करते हैं। आपसी संवाद सबसे शक्तिशाली तरीका है। बच्चों को स्कूल तक, उनके कमरों तक अधिक से अधिक घरों तक सीमित कर दिया गया है। यह गलत है। यह उनकी निजता का मसला नहीं है। बच्चों को निन्यानवे प्रतिशत नंबर ले आने से खुश होने से भी काम नहीं चलेगा। बच्चों को आभासी दुनिया से बाहर लाना होगा। उन्हें पता हो कि मौसम क्यों बदलता है। तितली के लिए फूलों का रहना क्यों जरूरी है। हमारे लिए जंगल क्यों जरूरी है। अंडों से लेकर गंेहूं की बालियों का साक्षात दर्शन कराना जरूरी है। दूध पीने वाले बच्चों को पता होना चाहिए कि पाॅलीथीन में पैक्ड दूध और गाय-भैंस के दूध में क्या अंतर होता है। उन्हें पता हो कि दूध गाय और भैंस के थनों से भी निकलता है। प्रकृति से लगाव कौन जगाएगा? जुड़ाव लगातार टूट रहा है। 
बच्चों में व्यक्तिवादी सोच को कैसे रोकेंगे? ये तमाम बातें हैं जिनके परिणामस्वरूप बच्चों को वह स्पेस नहीं मिल रहा है,जो वे चाहते हैं। बच्चों की उर्जा किसी न किसी रूप में फूटेगी ही। 

अभिभावक भी तो जिम्मेदार हैं? 



बहुत हद तक अभिभावक भी जिम्मेदार हैं। वे बच्चों को भरपूर समय कहां दे रहे हैं? ऐसा लगता है कि वे हम बड़ों की दुनिया में जैसे खलल पैदा कर रहे हों। हम बड़े क्लबों,सोसायटीज में व्यस्त हैं। हमारे कामकाज ने हमारे बच्चों के बचपन को कम कर दिया है। संस्कार का रिश्ता कहां रह गया है। हम बड़े जो बच्चों को किस्से कहानियां सुनाते थे, वह समय बच्चों का था। वह समय आज कहां गया? बच्चों के लिए जो समय था, वह हमने उनसे छीन लिया है। दादा-दादी के रिश्ते एकाकी परिवारों ने छीन लिए हैं। एक घर में कई घर हो गए हैं। सामाजिकता, पारिवारिकता,रिश्ते-नाते और मानवीय मूल्यों का संस्कार कौन देगा? अभिभावक ही तो बच्चों की पहली पाठशाला है। वही पाठशाला यदि कमजोर हो गई तो स्वाभाविक ही है कि बच्चों पर इसका असर होना है। फिर दोहराना होगा कि यांत्रिक उपकरणों के चलते बचपन समय से पहले बूढ़ा हो रहा है। चालीस साल से पहले बहरापन बढ़ रहा है। चालीस साल से पहले आंखों में चश्मा चढ़ रहा है। खान-पान पर ध्यान नहीं है। हर चीज के लिए गूगल सर्च से कैसे काम चलेगा? हवा,बादल,नदियों की कल-कल की आवाज कौन सुनाएगा? प्रकृति का आभास कौन कराएगा? डिस्कवरी चैनल से पूरी दुनिया का सैर-सपाटा हो जाए। यह सब काल्पनिक दुनिया में जीने जैसा है। हम फिर से रटन्त विद्या की ओर जा रहे है। अपने अनुभवों से चीज़ों को जानना-समझना बच्चों को कब आएगा। जब हम बड़े उनके साथ मशक्कत करेंगे। अपने हाथों से स्पर्श करना,अपनी आंखों से सामने साक्षात देखना। अलग बात है। फिल्मों में,मोबाइल पर देखना अलग बात है। इन सबके लिए परिवार ही प्रथम सीढ़ी है। माता-पिता ही पहली इकाई हैं। यह सब जानते हुए भी हम अनजान बने रहेंगे तो आने वाला समय भयावह है। 

बच्चों में भी तो व्यक्तिवाद हावी होता जा रहा है! 

निसंदेह। बच्चे व्यक्तिवादी हो रहे हैं। लेकिन हम बड़ों की वजह से। हम समय नहीं दे रहे हैं। संवेदनाओं के प्रति हम उन्हें सजग नहीं कर रहे हैं। पेड़-पौधों में भी जीवन होता है। यदि हम महसूस करते हैं तो वह बोलते-से हैं। पशु-पक्षी भी प्यार करते हैं। यह अहसास बच्चों को हमें ही तो कराना है। किस्सा कहानी का युग यदि समाप्त-सा हो रहा है,तो कौन इसके लिए जिम्मेदार है? बड़े या बच्चे? यह बड़ा खतरा है। हम बच्चों को गूंगा रहने और बनने का प्रशिक्षण दे रहे हैं। हालांकि जागरुक माता-पिता आज भी किस्सा-कहानी को पहला सबक मानते हैं। हम बड़े संवेदनशील बनेंगे तभी बच्चे भी संवेदना के स्तर को जानेंगे। सोचिए ऐसे समाज के बारे में जो संवेदनहीन हो। सोचिए,उस समाज के बारे में जो चीखता न हो। भावुक न हो। किसी की पीड़ा में दुखी न होता हो। ऐसा समाज जीते जी मरे हुए के समान तो है। यह व्यक्तिवाद की हवा दुनिया से इंसानियत का निशान मिटा देगी। हम सबको इस ‘मैं’ की भावना को हावी नहीं होने देना है।

आज के बच्चे सुनते ही कहां हैं? यह आम धारणा प्रबल हो रही है। 
   

यह तो हर पीढ़ी आने वाली पीढ़ी के लिए कहती है। हमारे जमाने में तो ऐसा होता था। यह जुमला बहुत पुराना है। यह कहना गलत होगा कि आज के बच्चे सुनते ही नहीं। हर पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से आगे होती है। उसे और आगे जाना होता है। आज के बच्चों की अपनी दुनिया है। यह दुनिया वह कहीं से नहीं लाए हैं। यह हमने उन्हें दी है। हम क्या सुनाते हैं। कैसे सुनाते हैं। सुनाने का समय क्या होत है। यह सब हमें देखना होगा। हमारे सुनाने के ढंग में रोचकता है कि नहीं। बच्चों में निर्जीवता बढ़ रही है। बच्चे मशीनी बन रहे हैं। हम समय नहीं देंगे तो यही होगा। हर चीज के लिए गेजैट्स पर भरोसा करना बेमानी है। सबसे सरल तरीका है कि हम बच्चों को उनके अनुभव के साथ जोड़े। आस-पास के परिवेश से जोड़े।

बच्चे पढ़ने-लिखने से विमुख हो रहे हैं। 

बच्चों को पढ़ने-लिखने का संस्कार देना जरूरी है? यह सूचना का युग है। जिसके पास जितनी सूचना है,वह उतना ही ज्ञानी माना जा रहा है। लेकिन हमें सोचना होगा कि केवल सूचना ठूंस देने से कोई ज्ञानी हो जाता है। हम जानते हैं कि शहद मीठा होता है। सब उसे खाते हैं। लेखन भी शहद की तरह मिठास देता है। लेखन मिठास भरा हो तो बच्चे क्यों कर नहीं पढ़ेंगे। अमूमन बच्चे दवाई नहीं खाते। कड़वी होती है। शहद के घोल में देंगे तो कड़वी से कड़वी दवाई खाई जा सकती है। पढ़ने-लिखने की आदत नहीं है। क्यों नहीं है? कारण साफ है। रोचक किताबें ही नहीं हैं। पहले बच्चों के सामने एक से बढ़कर एक रोचक किताबें तो रखिए। किसान भी अपनी फसल के लिए मेहनत करता है। निराई-गुड़ाई करता है। हमारे बच्चे खरपतवार बन रहे हैं। उन्हें अच्छी फसल में बदलने के लिए हमें मेहनत करनी होगी। बेतरतीब से बढ़ रही खरपतवार अन्न नहीं हो सकती। यह हमें सोचना होगा। बच्चों की पाठ्य पुस्तकें और रोचक हों। हमने भी आसान तरीके खोज लिए हैं। बच्चों में टी0वी0 की लत किसने डलवाई। बच्चों को वक्त से पहले मोबाइल कौन पकड़ा रहा है? हम खुद मेहनत-मशक्कत करने से हिचक रहे हैं। फिर सारी तोहमत बच्चों पर डाल रहे हैं। 

टी0वी0 से बच्चों का भाषाई विकास भी तो हो रहा है।


बच्चे समय के साथ-साथ अपना अनुभव और भाषाई कौशल बढ़ा लेते हैं। यह गलतफहमी है कि टी0वी0 से बच्चों में भाषाई क्षमता का विकास हो रहा है। बच्चे समूह में ज्यादा सीखते हैं। टी0वी0 में बच्चे क्या देखे क्या न देखे। इस पर चर्चा हो सकती है। लेकिन बच्चों में टीवी की लत बुरी है। हर चीज़ की अति बुरी है। किताबी बच्चे हो जाना भी तो बुरा है। लेकिन जिस तरह से टी0वी0 बच्चों का बाजार की वस्तु मान रहा है,वह सोच घातक है। कार्टूनों के ज़रिए जो दिखाया जा रहा है, उसके परिणाम बच्चों में दिखाई तो दे रहे हैं। आप सूचना-तकनीक से बच्चों को वंचित नहीं रख सकते। लेकिन यह तो आपको तय करना होगा कि जिसे आप जरूरी हवा मान रहे हैं,वह कहीं आंधी तो नहीं। टी0वी0 में आ रहे कार्टून और टी0वी0 के विज्ञापन बच्चों को लक्ष्य क्यों बना रहे हैं? यह सोचना होगा। बच्चों को कार्टून क्यों पसंद हैं? निर्माताओं ने बाल मनोविज्ञान का अध्ययन किया है। विज्ञापन का बाजार बच्चों को लक्ष्य कर विज्ञापन बना रहा है। हम लेखक क्यों नहीं इस नब्ज़ को पकड़ते? हमारा लक्ष्य बच्चों को अच्छा नागरिक बनाना क्यों नहीं हो सकता? हमारा लेखन ऐसा क्यों नहीें हो सकता? हमारी चित्रकथाएं क्यों न कार्टून की तरह हों? हमारे तरीके अब भी परंपरागत हैं। बच्चे नई दुनिया के हैं। उनकी इच्छाओं के अनुसार हमें अपने तौर-तरीके बदलने होंगे।

टी0वी0 बच्चों में बाजार और खरीददारी के विकल्पों का प्रशिक्षण भी तो दे रहा है। 
अमूमन बाजार घाटे का कारोबार नहीं करता। टीवी में बढ़ते बच्चों के विज्ञापन अलग से भाव पैदा कर रहे हैं। बच्चों में ईष्र्या भाव बढ़ा रहे हैं। उन्हें आपस में लड़ा रहे हैं। बच्चों में हीन भावना पैदा कर रहे हैं। साबुन से लेकर दंतमंजन क्या और डिटर्जेंट क्या। जिन उत्पादों से बच्चों का सीधे तौर पर कोई लेना-देना नहीं हैं,वहां भी बच्चों को प्रोजेक्ट किया जा रहा है। क्यों? आज कुछ तूफानी हो जाए। मल्टीनेशनल पेय पदार्थ का एक विज्ञापन है। आज दूध हो जाए क्यों नहीं? लस्सी नहीं। दही नहीं। ‘जंक फूड’ के विज्ञापनों से ऐसा जाल परोसा जा रहा है कि स्कूल से लेकर टाॅयलेट तक की वस्तुएं और सेवाएं विज्ञापन से तय हो रहे हैं। समूचा बाजार बच्चों को खिलौनों में तब्दील करता-सा नज़र आ रहा है। क्या सोचने-समझने की शक्ति भी हमें विज्ञापनों से मिलेगी? अधिकतर विज्ञापन झूठ फैला रहे हैं। बरगला रहे हैं। बच्चे प्राकृतिक भोजन से नफरत करने लगे हैं। बच्चे प्रकृति से दूर हो रहे हैं। कमरांे में कैद हो रहे हैं। इससे कम से कम बच्चों का भला नहीं होने वाला है।  


बच्चों के लिए कैसा लेखन होना चाहिए? 
आदर्शवाद से तो काम नहीं चलेगा। कोरे उपदेश तो कतई नही दिये जाने चाहिए। बच्चों को ऐसी रचना सामग्री दें जो आनंद दे। रोचक हो। ऐसी रचनाएं जिससे वह खुद निर्णय लें सकें। सही और गलत परिस्थितियां दोनों दें। वह खुद निर्णय लें कि क्या सही था और क्यों? क्या गलत था और क्यों? बच्चों में क्या ,क्यों, कैसे की भावना जगाने वाली रचनाएं हों। बाल नाटक लिखें जाएं। खेले भी जाएं। 
हमारे अधिकतर रचनाकार बच्चों की दुनिया से जुड़े हुए ही नहीं हैं। अपनी रचनाओं के लिए बच्चों के मन में कैसे जगह बना सकेंगे। कैसे उन नाटकों का मंचन हो सकेगा। यदि जैसे-तैसे हो भी गया तो दर्शक नहीं जुटेंगे। दर्शक जुट भी गए तो नाटक सराहा ही नहीं जाएगा। आदर्शवाद तो कतई नहीं चलेगा। नाटकों में बच्चे भी हों। बच्चों के जीवन से जुड़ा यथार्थ हों। वह बातें हांे, किस्से हों, जिनसे बच्चे रोज सामना कर रहे हैं। वहीं स्थितियां दिखाएं, जो वह रोज देखते हैं। लेकिन रोचकता जरूरी है। उन्हंे चुनौतीपूर्ण स्थिति दिखाई जाए। दरअसल आज हर कुछ नीरस नहीं चाहिए। हर कुछ मनोरंजन मात्र के लिए भी न हो। मनोरंजन के साधन और भी हैं। जीवन का यथार्थ जो हैं वह भी आए। लेकिन उपदेशात्मक तरीके से तो कतई न आए।
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मनोहर चमोली ‘मनु’
सम्पर्क 7579111144
  

5 मई 2020

बेटियां सूरज की

-मनोहर चमोली ‘मनु’


‘‘पौ फटते ही जाते हो और अंधेरा होने पर लौटते हो।’’
‘‘हम अपनी माँ को जानते तक नहीं।’’
‘‘हमारे नाम तक नहीं हैं।’’
‘‘हम बड़ी हो चुकी हैं।’’
‘‘हम लायक हैं। हमें काम चाहिए।’’
‘‘अब हम एक साथ नहीं रह सकतीं।’’

बेटियां बोलती रहीं और सूरज चुपचाप सुनता रहा। जब वह चुप हुई तब सूरज बोला,‘‘सुनो ! तुम्हारी मां धरती है ! वह यहाँ से बहुत दूर है। वह बस, तुम्हारी ही मां नहीं है। उसकी अनगिनत संताने हैं।’’


एक बेटी झट से बोल पड़ी,‘‘हमें कुछ नहीं सुनना। बस, मां के पास जाना है।’’ सूरज ने हामी भरी तो बेटियां आपस में लड़ने लगीं। सब चिल्लाने लगीं। पहले मैं-पहले मैं कहने लगीं। सूरज ने टोका। कहा,‘‘अब समय आ गया है कि तुम सब अपनी जिम्मेदारियां समझो। अपने-अपने काम पर जुटो। अब सभी को मां के पास जाना है। लेकिन, एक साथ नहीं। सबका समय अलग-अलग होगा।’’ यह सुनकर सब चुप हो गईं।

सूरज ने एक बेटी को पास बुलाया। कहा,‘‘आज से तुम्हारा नाम शरद हुआ। मां से मिलोगी तो एक काम करोगी। वहाँ का मौसम सुहावना करोगी। वहां ठंडक लाओगी। पतझड़ लाओगी ताकि पेड़ों से पुराने पत्ते टूट कर अलग हो सकें।’’ दूसरी बेटी सामने आई तो सूरज बोला,‘‘तुम्हारा नाम हेमन्त हुआ। धरती घूमते हुए मेरा चक्कर लगाती है। चक्कर लगाते-लगाते वह जब मुझसे बहुत-बहुत दूर हो जाती है, तब तुम वहां की ठंड को और बढ़ाओगी। सेहत और खान-पान बढ़ाने के लिए तुम्हें याद किया जाएगा।’’


तीसरी बेटी खड़ी हुई। बोली,‘‘मेरा काम क्या होगा?’’ सूरज ने मुस्कराते हुए जवाब दिया,‘‘तुम शीत कहलाओगी। तुम जाड़ा लेकर पहुँचोगी। इतना जाड़ा कि पेड़-पौधे भी खड़े-खड़े सोने लगें। बहुत सारे जीव गहरी नींद के लिए धरती के भीतर छिप जाएं।’’
चैथी बेटी हैरान थी। बोली,‘‘मैं क्या करूंगी?’’ सूरज कुछ पल ठहरा। बोला,‘‘तुम्हें गरमी कहा जाएगा। ठंड तभी जाएगी ,जब तुम मां से मिलोगी। तुम धरती पर ताप लाओगी।’’
पांचवी बेटी अब तक चुप थी। वह बोली,‘‘मेरे लिए तो कोई काम ही नहीं बचा।’’
सूरज ने कहा,‘‘तुम्हारा नाम बारिश है। एक काम बचा है। वह तुम करोगी। तुम वर्षा लाओगी। प्यासी धरती और उनकी संतानों को तुम पानी दोगी। पेड़-पौधों और जीवों की जीवनदायिनी बनोगी।’’
बेटियां नए नाम पाकर खुश थीं। सूरज बोला,‘‘एक बार फिर से तुम्हारे नाम गिन लूं। शरद,हेमन्त,शीत,गरमी और बारिश! अरे ! छठी कहाँ है?’’

गरमी ने गरदन झटकते हुए बताया,‘‘वो? वो तो सो रही होगी। मैं बुलाकर लाती हूँ।’’

थोड़ी देर में गरमी सबसे छोटी बहिन को हाथ पकड़कर ले आई।

‘‘मैंने इसे सब बता दिया है। पर यह तो रो रही है।’’ गरमी ने बताया। वहीं छोटी बेटी आँखें मीच रही थीं। वह सुबकते हुए सूरज से बोली,‘‘मुझे कोई प्यार नहीं करता। आप भी नहीं। तभी तो मेरा नाम तक नहीं रखा गया। और तो और, मेरे लिए कोई काम भी नहीं बचा? ’’
यह कहकर वह जोर-जोर से रोने लगी।

शरद, हेमन्त, शीत, गरमी और बारिश उसे चुप कराने लगे। लेकिन वह थी कि सुबकती ही जा रही थी। तब सूरज ने उसे सहलाया। पुचकारा। कहा,‘‘रोओ मत! तुम वसंत कहलाओगी। सब तुम्हारा इंतजार करेंगे। तुम्हारा स्वागत धूमधाम से होगा। तुम धरती पर हरियाली लाओगी। रंग-बिरंगे फूल खिलाओगी। तब तितलियां फूलों पर मंडराएगी। तुम सभी श्रुतुओं का सिरमौर कहलाओगी।’’ वसंत की हिचकियां कम हुई। उसने सुबकना कम किया तो सभी बहनें एक साथ बोलीं,‘‘जाओ। सबसे पहले तुम जाओ।’’
वसंत ने सूरज को अलविदा कहा। अब वह माँ से मिलने चल पड़ी। धरती ने वसंत का स्वागत किया। वसंत के आते ही धरती हरी-भरी हो गई। सरसों के पीले फूल सोने की तरह चमकने लगे। कहते हैं, तभी से वसंत, शरद, हेमन्त, शीत, गरमी और बारिश धरती पर बारी-बारी से आती हैं। यह छह बहने ही धरती का मौसम बदलती हैं।

॰॰॰
-मनोहर चमोली ‘मनु’ गुरु भवन,निकट डिप्टी धारा,पौड़ी गढ़वाल 246001 उत्तराखण्ड
सम्पर्क: 7579111144
#बाल भारती, अप्रैल 2020
कहानी : बेटियाँ सूरज की

#balbharti








30 अप्रैल 2020

cycle Dec-Jan 2020 child magzine


कहीं सन्तला न आ जाए !

-मनोहर चमोली ‘मनु’

‘‘खट-खट-खट ! दरवाज़ा खोलो।’’ ये संतला की आवाज़ थी। संतला बहुत गुस्से में थी। एक हाथ में लोहे का चिमटा था। दूसरे हाथ में लालटेन थी। दरवाज़ा खुला। संतला रसोई में आ घुसी। ‘‘चूल्हे में क्या पक रहा है? ये देखने आई हूँ। मैं खुशबू से ही अपने मुर्गे को पहचान लूंगी।’’ 
संतला ने चिमटे से कढ़ाही के ऊपर रखी थाली उठाई। कढ़ाही में झांका।‘‘

यह जाड़े की शाम थी। पहाड़ का जागना और सोना सूरज के साथ-साथ होता है। यहाँ सूरज देर में जागता है। तेजी से पश्चिम की ओर दौड़ने लगता है। हर कोई अपने घर की ओर जल्दी से लौटना चाहता है। कड़ाके की ठंड जो पड़ती है। सोनेे से पहले खाना पकाना और खा लेना भी तो जरूरी है। यही कारण है घरों में लगभग एक ही समय के आस-पास भोजन पकने लगता है।


‘‘दड़बे से मुर्गा गायब है। ज़रूर किसी की रसोई में पक रहा है। मैं तलाशी लूंगी।’’ संतला अब पड़ोस के घर का दरवाज़ा थपथपा रही थी। वह जिस घर से बाहर निकलती, कोई बच्चा साथ हो लेता। तनवीर, मुसद्दी, सलमा, थापला, बिट्टू, नीटू, मालती पीछे-पीछे चलने लगे। लालटेन की रोशनी में संतला इंजन और बच्चे रेल के डिब्बे की तरह लग रहे थे। यह रेल गांव की पगडण्डी पर चल रही थी। यह रेलगाड़ी सीटू लुहार, मियां मुरादाबादी, सतनाम कुम्हार और पण्डित रामदयाल के घर के रास्ते पर पहुंची। इनकी रसोईनुमा स्टेशन पर भी ठहरी।


संतला भूल गई कि गांव की अधिकतर रसोई में मांस पकता ही नहीं। वह तो चिमटा लहराते हुए कह रही थी-‘‘मेरा मुर्गा किसी न किसी की रसोई में तो पक ही रहा है।’’ तभी पीछे से गिरबीर ने पुकारा-‘‘माँजी। मुर्गा मिल गया है।’’

‘‘किसकी रसोई में?’’
‘‘रसोई में नहीं मिला। हमारे ही गोट में दुबका था। जंगली बिल्ली के डर से।’’ फिर क्या था। अब संतला ने बच्चों को घूरा ओर कहा-‘‘चलो रे, भागो अपने-अपने घर।’’ इस दिन के बाद संतला फिर किसी के घर नहीं आई। हां, पहाड़ के गांवों में यह किस्सा कई दिनों तक चलता रहा। खाना पकाते समय हंसी-ठिठोली करते हुए सुनने को मिलता-‘‘दरवाजा बंद कर दो, कहीं संतला न आ जाए।’’
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हम बच्चों के चेहरे पढ़ पा रहे हैं? #corona child

क्या इन दिनों हम बच्चों के चेहरे पढ़ पा रहे हैं?


-मनोहर चमोली ‘मनु’

घर में चुप्पियों की जगह बढ़ गई हैं! घर में रहने वाली आम आवाज़ें परेशान हैं। उनका गला चीखों-चिल्लाहटों ने घोंट दिया है? दीवारों में टंगी दिवंगतों की तसवीरों के चेहरे उदास हो गए हैं। उनकी शांति घर में बढ़ गई हँसी-ठिठोलियों ने भंग कर दी है। घर के छोटे-छोटे कमरों में कदमों की आवाजाही बेतहाशा बढ़ गई हैं। घर घर नहीं रह गए हैं। वे स्कूल-से बन गए हैं। बच्चों की बेचैनियों से दीवारों की घुटन बढ़ गई हैं। वे बीमार दिखाई देती हैं। बूढ़े, जवान और महिलाओं के चेहरों पर बदलने वाले भावों की संख्या तेजी से बढ़ रही हैं।




जीवित इंसानों के साथ ऐसा पहली बार हो रहा है। कोरोना काल से दुनिया का दैनिक जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। कामकाजियों ने पहली बार घरों की छतों को हजारों बार घूर लिया है। दुनिया भर के तमाम बच्चे इन दिनों सबसे अधिक तनाव में हैं। वे चिड़चिड़े हो गए हैं। उदास हो गए हैं। परेशान हो गए हैं। उन्हें डरावने सपने पहले से ज़्यादा आ रहे हैं। उन्हें जो नापसंद है, उसे पसंद करना मजबूरी बन गया है। वे भयभीत भी हो गए हैं। सीखों, सन्देशों, उलाहनाओं, डाँट, हिदायतों, झिड़कियों और तानों की बरसात से वे भीग चुके हैं। वे नींद में अधजगे हैं। सामान्य दिनों में चहकते बच्चे इन दिनों बौखला रहे हैं। झल्ला रहे हैं। उनमें यह लक्षण परिजनों को नहीं दिखाई दे रहे हैं। चूँकि घर के सभी लोग स्वयं तनाव में हैं। उलझन में हैं। उनकी चिंताएं अलग हैं। शायद बच्चों से बड़ी हैं। ज़्यादा हैं। घर के बड़ों को लगता है कि बच्चों को दिन भर खेलना ही तो हैं,ज्यादा ही हुआ तो कुछ घण्टे पढ़ना ही तो है। लेकिन ऐसा नहीं है।

बच्चे फरवरी से परेशान हैं। हर साल फरवरी आते ही स्कूली बच्चों को सालाना इम्तिहान की चिंता सताने लगती है। अभिभावकों को भी और उनके शिक्षकों को भी। यह फरवरी भी फरवरी को आई। तनाव,चिंता और भय के बादल तो पहले से ही मंडरा रहे थे। फिर मार्च में परीक्षा आई। परीक्षा कहीं हुईं, कहीं नहीं हुईं। कहीं अभी होनी हैं तो कहीं औसत अंक देकर बच्चों को पास करने जैसी व्यवस्था हो रही है। लेकिन लाखों बच्चे अधर में अटके हुए हैं। वे अभी पास-फेल,डिवीजन के मकड़जाल से उबरे नहीं हैं। लगभग चालीस दिन लाॅकडाउन ने तो रही-सही कसर पूरी कर दी। बच्चे घर पर रहते और बड़े काम पर जा रहे होते, तो बात अलग थी। सब कुछ ऐसा ही होता, जैसा हो रहा है और बच्चे स्कूल जा रहे होते तो भी बात अलग हो जाती। लेकिन इन दिनों तो बच्चे घर पर हैं। हर पल कईं आँखें सीसी कैमरे की तरह उन पर गड़ी हैं। कई निर्देशों के साथ जेलर की भूमिका में घर के बड़े सिर पर सवार हैं।
अपवादों को छोड़ दे ंतो घर में बच्चों के साथ पालन-पोषण के निश्चित और वैज्ञानिक नियम नहीं हैं। अभिभावक आम तौर पर बच्चों के साथ कड़ाई के साथ पेश आते हैं। अधिकतर अभिभावक मानते हैं कि बच्चों को ज़्यादा पूछताछ नहीं करनी चाहिए। उन्हें सवाल पर सवाल नहीं करने चाहिए। बच्चों को घर में कठोर अनुशासन का पालन करना चाहिए। हाँ जी ही उनका स्वर होना चाहिए। आज्ञा पालन करना बच्चों का पहला और सबसे जरूरी धर्म-संस्कार है।
बड़े तो फोन पर कुशल क्षेम पूछ रहे हैं। खैर-ख़बर ले रहे हैं। लेकिन बच्चों की परवाह किसे है? क्या हम बड़े उन्हें उतना समय दे रहे हैं कि वे भी अपनी दुनिया को खगाल लें? क्या हम बच्चों के साथ सकारात्मक हैं? क्या वाकई हम घर में रहते हुए भी बच्चों के साथ हैं? जितना समय हमने उन्हें नसीहतें देने में खपा दिया, उसका बीस फीसदी समय उनके साथ बातचीत में गुजारा है? उनके साथ खेलने के कितने घण्टे हमने निकाले?

ऊपर से किताबी वेबदुनिया से दिया जा रहा गृहकार्य उन्हें और व्यथित कर रहा है। क्या आपको नहीं लगता कि ये लाॅकडाउन बच्चों के लिए जी जा जंजाल बन चुका है।
आइए ! कुछ बातें बच्चों के लिए करने की हैं। उन्हें साझा करते हैं-

माना कि बेहद मुश्किल दौर है। हम सबके लिए यह धैर्य से काम लेने का समय है। सबसे पहली बात हम सकारात्मक रहें। टीवी में आ रही मौत,भयावह ख़बरों से बच्चों को दूर ही रखें। ये ओर बात है कि यह सब समाज का हिस्सा है। इसी समाज में बच्चे रहते हैं। उन्हें कल इन सब समस्याओं का सामना करना है। हाँ कोरोना से संबंधित स्वस्थ समाचार जानकारीपरक सूचनाएं ज़रूर बताएं-दिखाएं। समझाए,चर्चा करें कि कैसे दुनिया इससे निपटने के प्रयास कर रही है।
बच्चों के साथ समय बिताएं। उन्हें अपने बचपन के, दादा-दादी के किस्से सुनाएं। आरीगेमी बना सकते हैं। कबाड़ से जुगाड़ की कुछ गतिविधियां कर सकते हैं। उन्हें इन दिनों भरपूर बोलने का अवसर दें। टेनग्रेम की गतिविधियां कर सकते हैं। चित्रकारी कर सकते हैं। इनडोर गेम खेल सकते हैं। कठिन परिस्थितियों में जीने की कला पर बात कर सकते हैं। घर के और रसोई के काम में उन्हें व्यस्त रख सकते हैं। इन दिनों उनकी नियमित दिनचर्या बना सकते हैं। कब सोना है? कब उठना है? कब टीवी देखना है? कितनी देर देखना है। पढ़ाई-लिखाई से संबंधित चीज़ें कब और कितनी देर कर सकते हैं? डिस्कवरी चैनल उनके साथ बैठकर देख सकते हैं। उनके साथ योगा के कुछ आसन कर सकते हैं। घर की सफाई कर सकते हैं। किताबों को ठीक कर सकते हैं। कुछ किताबों का सस्वर वाचन कर सकते हैं। गीत-संगीत सुन सकते हैं। उन पर चर्चा कर सकते हैं। व्यक्तिगत साफ-सफाई पर बात कर सकते हैं। बच्चों के दोस्तों से बात करा सकते हैं। परिजनों से बात करा सकते हैं। यदि वे सहमत हों तो उनके अध्यापकों से बात करा सकते हैं। बच्चे यदि उदास या गुमसुम दिखाई देते हैं, तो उनके निकट बैठ सकते हैं। एक दोस्त की मानिंद उन्हें सुन सकते हैं। उनकी पसंद-नापसंद चीजों के बारे में बात कर उनका तनाव कम किया जा सकता है।
कुछ सार्थक गृह कार्य दिया जा सकता है-
एक-अंग्रेजी और हिन्दी दोनों में भी या सुविधाजनक तरीके से जिस पर बच्चे सहज हों, रसोई की ची़जों,वस्तुओं की सूची बनवाई जा सकती है। रसोई में बनने वाले भोजन की लिखित में रेसिपी लिखवाई जा सकती है। रसोई के सब खाद्य पदार्थ भारतीय नहीं हैं। कौन-कौन सी ऐसी चीज़ें हैं जो विदेशी हैं और अब हमारी रसोई का अभिन्न हिस्सा हो गई हैं? उनके बारे में बच्चे लिख सकते हैं।
दो-घर,कमरों में उपलब्ध सामान की सूची बनवाई जा सकती है। उन्हें भी बांटा जा सकता है। स्थानीय,भारतीय और विदेशी सामान की सूची अलग-अलग बनवाई जा सकती है।
तीन-दर्पण,रसोई गैस, पंखा,कूलर, फ्रीज, टीवी,कंप्यूटर,लैपटाॅप,मोबाइल,टाॅर्च, तकनीकी और गैर तकनीकी वाले सामान की कार्यप्रणाली पर लिखवाया जा सकता है।
चार-घर के सामान में लकड़ी,लोहा,प्लास्टिक की चीजों,सामान,वस्तुओं की सूची बनवाई जा सकती है। इस पूरी प्रक्रिया में मिट्टी के बरतन से लेकर स्टील,तांबा,लकड़ी लोहा की प्रक्रियाओं पर बच्चे अपने विचार लिख सकते हैं।
पाँच-स्टोर में रखे सामान पर बात हो सकती है। फिल्टर कैसे काम करता है। फिल्टरों के प्रकारों पर बात हो सकती है। पानी पर बात हो सकती है।
छःह-कपड़े धोने के साबुन,नहाने के साबुन,शैम्पू, सौंदर्य प्रसाधनों को गहराई से समझने, उनके रासायनिक तत्वों और उसका हम पर असर आदि पर चर्चा और लेखन करवाया जा सकता है।
सात-हिंदी,संस्कृत,अंग्रेजी के यदि शब्दकोश हैं तो उनकी मदद से बच्चों को खूब व्यस्त रखा जा सकता है। वे प्रतिदिन सिर्फ एक-एक मनचाहा नया शब्द काॅपी पर उतारेंगे। उसका अर्थ लिखेंगे। दस अलग-अलग वर्ण के एक-एक शब्द को उतारने को कहा जा सकता है। उसका उच्चारण भी सुना जा सकता है। लेकिन दूसरे दिन वे दस वर्ण पहले दिन के वर्ण और उनसे लिखे हुए शब्दों से भिन्न होंगे। माना आज बच्चों ने एबीसीडीइएफजीएचआईजे के एक-एक वर्ण लिखे तो कल वे केएलएमनओपी से टी तक के एक एक नए शब्द लिखेंगे। इस तरह फिर लौट कर एबीसीडी वर्ण तो दोहराए जाएंगे लेकिन ठीक अगले दिन नहीं और हर दिन नए शब्द लिखे जाएंगे। एक पैटर्न और नियम के तहत बच्चों को बढ़ा मज़ा आएगा।
आठ-घर में मानचित्र या एटलस है तो इससे कई गतिविधियां कराई जा सकती हैं। यह तो असीमित हैं। न सिर्फ शहरो,राज्यों देशों के नाम मात्र लिखवाएं जा सकते हैं बल्कि बहुत कुछ नया लिखवाया जा सकता है। वह भी समझ के साथ।

नौ- ग्लोब से तो कई गतिविधियाँ हो सकती हैं। ( जीत यायावर जी ने ग्लोब-एटलस की ये गतिविधियाँ - अभ्यास सुझाए हैं -
आम तौर पर इन्हें शिक्षा की अतिरिक्त और गैर जरूरी सामग्री ही समझा जाता है। बच्चों से निम्न बिंदु पर भी चर्चा की जा सकती है, उन्हें सोचने, समझने का मौका दें कि यदि -
1. हमारी पृथ्वी गेंद जैसी गोल न होकर थाली जैसी गोल होती तो क्या होता।

2. अगर पृथ्वी गेंद जैसी गोल है तो फिर ऑस्ट्रेलिया के लोग रूस के लोगो की तुलना में उल्टे चलते है क्या।
3. क्या होता यदि पृथ्वी झुकी न होती।
4. यदि पृथ्वी गोल है तो फिर एटलस के सभी विश्व नक्शों में अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, फ्रांस (विकसित) आदि देश हमेशा ऊपर ही नज़र क्यों आते है। गोले में तो कोई ऊपर - नीचे नहीं होता।

आदि।
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बहरहाल,मुझे लगता है कि रस्म अदायगी के तौर पर किताबी होमवर्क बच्चों पर थोपा जाने वाला काम है। यह उबाऊ होता है और इससे नीरसता बढ़ती है। जबरन लिखवाने वाला गृहकार्य सिर्फ पेज भरने वाला है। यह ऐसा दबाव माना जाएगा जिसमें बच्चे सीख नहीं रहे हैं बस उसकी काॅपी कर रहे हैं।
मैं नहीं मानता कि इन दिनों दिया जा रहा होमवर्क बच्चों की अभिरुचियों का है। बच्चों के अपने अनुभवों के लिए क्या उस होमवर्क में स्थान है? लेकिन ऊपर जो काम सुझाया गया है वह उनकी इच्छा और अनुभव पर केन्द्रित है। भले ही आपने कुछ नियम और पैटर्न बनाए हैं पर कुछ आजादी है जिसकी वजह से वह इसे करने में आनंद लेंगे।

कमाल तो यह हो रहा है कि वेबआधारित जो गृह दिया जा रहा है उसमें भी स्पर्धा का भाव पैदा किया जा रहा है। व्हाट्सएप पर जो बच्चे काम की गवाही दे रहे हैं हम उन्हें शाबासी भेज रहे हैं। दूसरा जो बच्चे नहीं कर पा रहे हैं या धीमें हैं उन्हें उसी लहज़ें में आदेश-निर्देश-समझाइश का एक भी अवसर नहीं चूक रहे हैं।
जिस तरह के गृहकार्य को दिए जाने की यह आलेख सिफारिश कर रहा है उसमें एक बात दीगर है उसकी जांच गलतियां निकालने के लिए न की जाए। दूसरा स्कूल में और परीक्षा में अंक कट जाएंगे वाली बात घर में कदापि न की जाए। स्कूल में वैसे ही तनाव है। अब हम घर में भी बच्चों को तनाव क्यों दें?
अभी कल ही एक प्रतियोगिता पढ़ रहा था। वह कोरोना काल में बच्चों से घर पर रह कर करवाई जा रही है। अच्छी बात है। लेकिन दस सर्वश्रेष्ठों के इनाम देने की घोषणा से आप क्या साबित करना चाहते हैं? श्रेष्ठतम,श्रेष्ठ,समान्य, सामान्य से कम और असफल के ठप्पे लगाने वाले आप कौन होते हैं?
मेरा साफ मानना है कि गृह कार्य यदि दिया भी जा रहा है तो उसमें बच्चे के लिए कितनी आज़ादी है? स्वायत्तता का स्थान है? अध्यापक को भी गृह कार्य कैसा देना है? इसकी आजादी है? कही ऐसा तो नहीं कि बच्चों के लिए ये दिन उन पर मनमाना आदेश थोपने जैसे कट रहे हों? क्या हम ऐसा गृहकार्य दे पा रहे हैं जिसमें बच्चे का चिंतन कौशल बढ़ रहा है? अचरज करने वाली पाठ्य सामग्री दे पा रहे हैं? आनंद प्रदान करने वाला गद्य या पद्य दे पा रहे हैं? जो गृह कार्य हम दे रहे हैं उसमें घर में भले ही एक ही बच्चा है वह अभिभावकों से विचार विमर्श कर उसे लिख रहा होगा। हम कब समझेंगे कि ज्ञान का सृजन केवल विद्यालय में नहीं होता। ज्ञान का स्रोत एक मात्र पाठयपुस्तकें भी नहीं हैं। ज्ञान के वेत्ता मात्र शिक्षक ही नहीं हैं। हाँ। मैं ऐसे काम को दिए जाने का पक्षधर हूं जो बच्चों में घर बैठे खोजबीन करने की आजादी दे। वह काम चुनौतीपूर्ण भी हो चलेगा लेकिन वह सिरदर्द पैदा कर दे, यह उनके साथ अत्याचार से कम नहीं।

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पुनश्च: ऐसी गतिविधियां जो बच्चों को बोझ न लगें और वे उसे स्कूली काम न समझें। आप भी सुझाइएगा। मैं एक अध्यापक हूं और अभिभावक भी। मैं भी कोरोना काल में बच्चों को समझने का प्रयास कर रहा हूँ। कृपया मदद कीजिएगा।

-मनोहर चमोली ‘मनु’
7579111144
***सभी फोटोज़ अलग-अलग दिनों की हैं। कुछ फोटोज़ कोरोनाकाल से पूर्व की हैं।