28 मई 2017

स्कूली शिक्षा के बदलते परिदृश्य में अध्यापन-कर्म की भूमिका

स्कूली शिक्षा के बदलते परिदृश्य में अध्यापन-कर्म की भूमिका

-मनोहर चमोली ‘मनु’

अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय,बेंगलूरु के साथ सहयोगी संस्था अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली के तत्वाधान में तीन दिवसीय वार्षिक संगोष्ठी कश्मीरी गेट,दिल्ली के निकट स्थित अम्बेडकर विश्वविद्यालय के सभागार में सम्पन्न हुई।

23 मई से आरंभ हुई शैक्षिक मुद्दों पर हिन्दी में संभवतः ऐसी विहंगम वार्षिक संगोष्ठी पहली बार आयोजित हुई। इसे शिक्षा के सरोकार-1 नाम दिया गया। स्कूली शिक्षा के बदलते परिदृश्य में अध्यापन कर्म की रूपरेखा केन्द्रीय विषय रहा।
उद्घाटन अवसर पर अम्बेडकर विश्वविद्यालय के उप कुलपति श्याम मेनन ने कहा कि आज मनुष्य की सफलता उसके वेतन से तय हो रही है। आज हालात ऐसे हैं कि बहुत कुछ अकल्पनीय और अप्रत्याशित घटता है तो ऐसे वर्ग के बारे में सोचना पड़ता है कि ये वर्ग कहां पढ़ा होगा। क्या आज स्कूल यह सीखा रहे हैं कि बस अपनी परवाह करें। दूसरों के बारे में मत सोचें। परीक्षाओं को भी देखिए तो ऐसा लगता है कि सोचना मना है। जो सवाल सोचने पर बाध्य करता है उसे छोड़कर आगे बढ़ना मुनासिब समझा जाने लगा है। समय ऐसा आ गया है कि निर्देशों का अनुपालन करना ही नियति बन गया है। अपना विवेक लगाने की आवश्यकता नहीं है। सवाल करना या सन्देह करने का भाव नहीं रखना है। तेरह मिनट के अपने संबोधन में श्री मेनन ने सभागार में उपस्थितों को सोचने के लिए बाध्य कर दिया। उन्होंने कहा कि यह सोचने का वक्त आ गया है कि हम किस ओर जा रहे हैं। हमारा पढ़ा हुआ मनन करने के लिए नहीं है। भूलने के लिए है। क्या यह सही है?
प्रख्यात शिक्षावद् रोहित धनकर ने अपने बीस मिनट के संबोधन में कई रेखांकित की जाने वाली बातों की ओर इशारा किया। उन्होंने अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के उद्देश्यों पर विस्तार से प्रकाश भी डाला। उन्होंने कहा कि समानता का भाव स्थापित करना और न्यायपूर्ण समाज के लिए अपना योगदान करना ही विश्वविद्यालय का प्रमुख उद्देश्य है। उन्होंने सरोकारों पर विस्तार से चर्चा की। उन्होंने कहा कि सोचना, सीखाना-सीखना, दुनिया को समझना, गैर बराबरी का विरोध करना आज की जरूरत है। उन्होंने कहा कि हर संवेदनशील को शिक्षा की गुणवत्ता में विकास की बात करनी होगी। हमारा स्पष्ट मानना है कि हमें भारतीय भाषाओं में काम करने की आवश्यकता है। उन्होंने इस संगोष्ठी के उद्देश्यों पर भी विस्तार से बात की।
प्राध्यापक मनोज कुमार ने कहा कि हम अधिकतर मामलों में पूर्व धारणाओं के आधार पर ही बातें करते हैं। हमें चीज़ें जैसी दिखती हैं हमें लगता है कि यह ऐसी ही हैं। जबकि ऐसा अक्सर होता भी नहीं। हमें यह पता होना चाहिए कि हमें क्या पता नहीं है। हमें अपने अनुभवों पर आश्वस्त नहीं होना चाहिए। हमें तैयार रहना चाहिए कि हमें हमारे अनुभवों को भी चुनौती मिल सकती है। हमें व्यवस्थित चिंतन भी करना चाहिए। शिक्षक की पहचान के साथ-साथ मुक्ति का भाव, जन्म आधारित पहचान, लिंगाधारित पहचान, पेशेवर पहचान, अर्जित पहचान के साथ भी हमारी पहचान के कई कारक और कारण हो सकते हैं। हमें उन विशेष बातों पर जो शेष में नहीं हैं, उन पर सोचना चाहिए। अम्बेडकर विश्वविद्यालय के प्राध्यापक मनीष जैन ने सबका आभार जताया। उन्होंने कहा कि यह एक यात्रा है जो आरंभ हुई है। दूर-दराज से आए शोधकर्ताओं के पेपर जताते हैं कि शिक्षा की दिशा और दशा पर कई हैं जो सोचते हैं। इस सत्र का संचालन सहायक प्राध्यापक, अम्बेडकर विश्वविद्यालय,दिल्ली ने किया।
ज्ञान के सृजन हेतु शिक्षण पेपर एस॰सी॰ई॰आर॰टी॰उत्तराखण्ड के शिक्षक प्रशिक्षक एस॰के॰गौड़ ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि मिल.जुलकर ज्ञान के निर्माण की कला विद्यालयों में उनका प्रयोग तथा अध्यापन.कर्म में बदलाव पेपर प्रतिभा कटियार अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेाशन देहरादून ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि शिक्षक अपने कामों से नई छवि गढ़ रहे हैं जो कि सिर्फ कक्षा या स्कूल तक सीमित नहीं है। भले ही शिक्षण का पेशा उन्होंने किन्हीं अन्य वजहों से चुना हो लेकिन इस पेशे में आने के बाद इस काम की गरिमा और सन्तुष्टि का अनुभव हुआ है। उनके लिए किताबेंए पाठ्यक्रम सीमा नहीं है। वो पुरानी तमाम मान्यताओंए धारणाओं को तोड़ रहे हैं और नई गढ़ रहे हैं। ये शिक्षक कक्षा में जाकर अपनी तमाम चिन्तानओंए उलझनों को भूल जाते हैं। वो बच्चों से संवाद करके तय करते हैं कि आज बच्चों के मन का मौसम कैसा है यानी आज पढ़ाने की कौन सी तरकीबए कौन सी जुगत लगाई जानी चाहिए। कक्षा का माहौल आनंद लेने वाला बनानाए सीखने की उत्सुकता बच्चों के मन जगाने का काम शिक्षक करते हैं।
बाल केन्द्रित प्रक्रियाओं में शिक्षक की भूमिका पेपर देहरादून की प्राथमिक शिक्षिका ताहिरा खान ने प्रस्तुत किया। साथी सहयोगी अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन,देहरादून के वर्तुल ढौडियाल रहे। उन्होंने कहा कि स्वयं की मान्यताओं पर बारण्बार प्रश्न करना सबसे बड़ी चुनौती थी क्यूँकि मेरी नज़र में शिक्षक की पूरी परिभाषा ही बदल रही थी। उपयुक्त पठन सामग्री की कमी एक चुनौती थी। सभी समूहों को एक साथ कार्य करवाने में चुनौती आई। मैंने बच्चों को एक दूसरे की मदद करनेए समूह में कार्य करने और एक दूसरे के काम को जांचने के लिए प्रेरित किया जिसके कारण मैं सभी समूहों का एक साथ संचालन कर पाती हूँ ।
पाठ-योजनाः दार्शनिक व वास्तविक समझ पेपर विद्याभवन शिक्षा सन्दर्भ केन्द्र, उदयपुर की नेहा यादव ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि कोठारी आयोग से अभी तक शिक्षक प्रशिक्षण के क्षेत्र में शिक्षक की स्कूल के लिए तैयारी को शिक्षा में गुणवत्ता के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना गया है। अलग.अलग समय पर शिक्षक शिक्षा कार्यक्रम से सम्बंधित चिन्तारओं व उन्हें सुधारने के तरीकों पर काम किया गया है। उदाहरण के लिएए पाठ योजनाए यह शिक्षक शिक्षा कार्यक्रम का एक अभिन्न व महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। पूरे प्रशिक्षण के दौरान यह दैनिक दिनचर्या रहती है जो शिक्षक प्रशिक्षक को एक भावी शिक्षक के रूप में तैयार करती है। पाठ्यचर्या नवीनीकरण के लिए शिक्षक.शिक्षाए राष्ट्रीय फोकस समूह का आधार पत्र यह समझने में मदद करता है कि किस प्रकार पाठ योजना ज्ञान और पाठ्यचर्या सम्बन्धी पूर्व अवधारणाओं को बिना बदले मात्र एक औपचारिक दिनचर्या भी बन कर रह सकती है या यह शिक्षा के नवाचार की समझ के साथ समझ के विकास की और भी ले जा सकती है।
तकनीकी कक्षा से आई॰एस॰ओ॰प्रमाणित पाठशाला तक-सुपर टीचर का विलाप पेपर किशोर दरक ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि श्राज्य सरकार के शैक्षिक प्रशिक्षण एवं अनुसंधान परिषद्श् ;ैब्म्त्ज्द्ध और श्जिला शिक्षा और प्रशिक्षण संस्थानश् ;क्प्म्ज्द्ध फिलहाल रचनात्मक बदलाव के दौर से गुजर रहे हैं। शिक्षकों से यह अपेक्षा है कि वह अपने स्कूलोंको श्बवदेजतनबजपअपेजश् स्कूलों में बदल दें और अपने छात्रोंको विशिष्ट तारीख से पूर्व श्प्रगतश् करवाएँ। सारे स्कूलों और अध्ययन कक्षाओंको श्डिजिटलश् बनाना भी अब अनिवार्य हैं। ज्‍यादातर उद्योगों में एवं कॉर्पोरेट कम्पनियों में गुणवत्ता का निर्देशक माना जाने वाला श्आईण्एसण्ओण्श् प्रमाणपत्र प्राप्त करने के लिए अब स्कूल भी भारी संख्या में और गंभीर प्रयत्न कर रहे है।
शिक्षक की अहर्ता और अनर्हता पर कुछ सवाल पेपर एकलव्य,होशंगाबाद के अमित ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि जिनके पास शिक्षा की पेशेवर डिग्री और अधिकांशतया स्नातक की डिग्री भी नहीं होती। इसके बावजूद वे नवाचारी शिक्षा का एक उल्लेखनीय नमूना पेश करते हैं। लेकिन साथ ही अकादमिक समझ को लेकर उनकी सीमाएँ हैं। व्यवहार और प्रयोग अच्छी तरह से करने के बावजूद वे इसके सैद्धान्तिक पक्षों की समझ कम रखते हैं।
एक मसला इस पद्धति के नीति में आ जाने का भी है। अगर हम ये मान लें कि पेशेवर डिग्री को अहमियत देने के बदले उच्च गुणवत्ता के सघन प्रशिक्षण के जरिए अच्छे शिक्षक बनाएँ जा सकते हैं जो कम समय देंगेए कम पैसा लेंगेण्ण्ण् तो फिर हम संविदा शिक्षकों के बने रहने और पूर्णकालिक नियमित शिक्षक के गैर.ज़रूरी होने को सैद्धान्तिक स्वीकृति प्रदान करते हैं।
शिक्षकों के पेशवर विकास के लिए संचालित मंचों के माध्यम से क्षमता विकास पेपर अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन,उत्तराखण्ड के सदस्य शोध समूह विपिन,प्रतीक व अनानास ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि वर्तमान में ऐसी बहुत सी नीतियाँ एवं क्रियान्वयन सम्‍बधी कठिनाइयाँ है जिनके चलते इन मासिक बैठकों को अकादमिक बैठकों के रूप में स्थापित करना एक चुनौतीभरा कार्य है. जिसमें संकुल समन्वयकों का नियमित अकादमिक क्षमतावर्धनए संकुल को लाइब्रेरी तथा लैब से सुसज्जित करनाए राष्ट्रीयध्राज्य स्तर पर संकुल समन्वयकों के कार्यदायित्व पर पुनःविचार करना आदि कारक शामिल हैं।
नव उदारवाद काल में विद्यार्थी शिक्षकों से अपेक्षाएं पेपर दिल्ली विश्वविद्यालय की छाया साहनी ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि शिक्षक प्रशिक्षण का एक अहम अंग स्कूेली पद्धित क्रम होता हैद्य इसके अर्न्तकगत बीण्एलण्एडण् छात्राएँ तीन महीने के लिएम्युवनिसिपल प्राइमरी स्कूाल में जाती हैंऔर एक महीने के लिए मिडिल स्कूहल में जाती हैं। मैं एक शिक्षक.प्रशिक्षिका होने के कारएा पिछले 20 सालों से बीण्एलण्एडण् की छात्राओं का अवलोकन करनेके लिएइन स्कूेलों में जाती रही हूँद्य छात्राएँ अपनीपठन योजना और पठन चिन्त न मेंकई मुद्दोंपर चर्चा परकरती हैंद्य इसके अलावा वेस्कू ल संस्कृूतिए अध्याापन कार्य और स्कू ली व्यिवस्थान पर अक्सरर परस्पतर बातचीत करती हैंद्य इन चर्चाओं में छात्राएँ इन मुद्दों का वर्णन करती हैंजिसमें स्कूएल के अध्याूपक उनसेपढ़ानेके अतिरिक्त अन्य् कार्यों मेंहाथ बटानेकी अपेक्षा रखतेहैंद्य उदाहरण के तौर पर अकस्माँत उन्हें 9 वीं और 10 वीं कक्षा में प्रस्थानपित अध्याकपक की भूमिका में भेज दिया जाता है। छात्राएँ न तो इस कार्य को करने के लिए सक्षम होती हैं और ही उन्हेंं पठन योजना बनाने का समय मिल पाता है।
शिक्षा व्यवस्था एक महाभारत पेपर अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन,अल्मोड़ा, उत्तराखण्ड के लोकेश ठाकुर ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि छात्रों के अधिगम के आकलन और मूल्यांकन हेतु प्रभावी नीतियों का प्रयोग कर बच्चों के सीखने.सिखाने की प्रक्रिया को बेहतर बनाना। हमारे देश में जहाँ शिक्षा को पेपर पास करने के लिए ही देखा जाता है आकलन एक बेहद गंभीर चीज देखती है। कई बच्चे तो एग्जाम के डर से ही स्कूल छोड़ देते हैं और कई लोग पूरी जिंदगी अपना मूल्य उस डिग्री के आधार पर करते हैं जिसके लिए उन्होंने जी तोड़ मेहनत की थी। एक शिक्षक का काम होता है वह आकलन और मूल्यांकन को प्रभावी बनाए ताकि बच्चे सिर्फ नम्बर गेम में ना फंस कर अपनी क्रिटिकल थिंकिंग का विकास भी कर सकें।
अध्यापक बनने की प्रक्रिया पेपर अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन,टोंक, राजस्थान की अनुपमा तिवाड़ी ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि यदि शिक्षक को प्राथमिक स्तर की कक्षाएँ पढ़ानी हैं तो वह बच्चों को बेहतर तरीके से कैसे समझे घ् बच्चों को कहानीए कविताएँ सुनने और खेल खेलना पसन्‍द होता है और ये करवाने से बच्चे क्यादृक्या सीख रहे होते हैं इसके पीछे के सिद्धान्तों को समझना एक शिक्षक के लिए जरूरी है। प्रशिक्षण के दौरान भावी शिक्षकों को कुछ तरीकेए टिप्स नहीं पकड़ाए जाने चाहिए नहीं तो वे उन्हें ही अन्तिम बाइबिल मान बैठ जाते हैं जबकि ज्ञान में संशोधन की हमेशा गुंजाईश रहती है। इसलिए शिक्षकों के साथ इस प्रकार का काम होना चाहिए कि वे स्वयं करके सीखने वाले शिक्षक बन सकेंए वे अपने सिद्धान्‍त गढ़ सकें और फिर उन्हें लगातार परिष्कृत करने के लिए भी तैयार हो सकें। प्रशिक्षण शिक्षक में एक आत्मविश्वास भरेए उसे कर दृ कर के सीखने के मौके दें। प्रशिक्षण का उद्देश्य सिखाने वाले से ज्यादा लगातार सीखने वाला व्यक्ति तैयार करने वाला होना चाहिए। जब सीखने वाला व्यक्ति होगा तो वह स्वयं सिखाने के न जाने कितने तरीके स्वयं ईजाद कर लेगा।
शिक्षा वृत्ति और अस्मिता पेपर शरद चन्द्र बेहार ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि शिक्षा विमर्श और शिक्षा व्यवस्था दोनों में बुनियादी मान्यता है कि हर शिक्षकए प्रत्येक विद्यार्थी की निपुणताए अलग पहचानए अलग अस्मिता को ध्यान में रखने की जरूरत नहींए उन्हें विद्यार्थी और शिक्षक के समूह या श्रेणी में मानकर एकरूप विचार और व्यवस्था का शिकार उन्हें बना सकते हैं। सभी शिक्षकों और विद्यार्थियों को एक ही लाठी से हांका जा सकता है। क्या यह उसकी विशिष्टता को मारकर एक साँचे में ढालने की कोशिश नहीं हैघ्
जवाब में इसे सरासर गलत ठहराकर बताया जा सकता है कि शिक्षकों के उप.समूहों को माना जाता हैए विद्यार्थियों के वंचित होनेए समाज के हाशिये में होने के तथ्यों को भी तवज्जो देकर विचार भी होता हैए व्यवस्था में जगह देने की कोशिश भी होती है।
पर मुख्य आरोप और शिकायतें तो यह हैं कि हर इंसान की अस्मिता को ध्यान में नहीं रखा जाता। इस पर निरुत्तरता हैए निःसहायता है। फिर भी बचाव है कि जब करोड़ों की शिक्षा पर विमर्श हैए उनके लिए व्यवस्था चलानी है तो हर व्यक्ति की विशिष्टता का कैसे ध्यान रखा जा सकता है। अपराध तो स्वीकार हैए पर क्षम्य है क्योंकि कोई और व्यावहारिक विकल्प नहीं है। एकरूपता व्यावहारिकता के लिए अनिवार्य है।
अध्यापक शिक्षा में ज्ञान का संयोजन पेपर अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय,बेंगलूरु के रोहित धनकर ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि सायास शिक्षा अनिवार्यतः सौद्द्येश्य भी होती है इस लिए उसके आयोजन में जो सिखाना है और जिस तरह से सिखाना है इसकी योजना भी अनिवार्यतः शामिल होती है। कोई सचेत कर्म निरुउद्देश्‍य नहीं हो सकताए और उद्देश्‍य होने भर से ही उन्हें प्राप्त करने के साधान और तरीकों की धारणा अपने आप बनाने लगाती है। शिक्षा के साथ भी यही होता है।उद्देश्‍य प्राप्ति के लिए साधनों और तरीकों की जो योजना बनाई जाती है उसे ही हम शिक्षाक्रम कहते हैं।
शिक्षा के उद्देश्‍यों की व्यापकताए वैविध्य और दूरगामिता को देखते हुए उन उद्देश्‍यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक ज्ञानए मूल्य और दक्षताओं का चुनाव और उनका संयोजन ;क्रम और विषयों में बंटवाराद्ध एक अनिवार्य और जटिल शैक्षिक उपक्रम बन जाता है। इसकी जटिलता में और इजाफा हो जाता है जब मानवीय.ज्ञानए मूल्यों और दक्षताओं के परासए वैविध्यए और गहराई पर भी सोचना पड़े। इसी के चलते हर स्तर का शिक्षाक्रम एक बेहद जटिल संरचना होती है। इतनी जटिल की कई बार शिक्षा में सोचने.लिखने वाले लोग इस नतीजे पर पहुँचते हैं की इस काम में दिशा दे सकने वाले कोई समय.सिद्ध और सर्वमान्य सिद्धान्‍त हो ही नहीं सकते। ;कृष्ण कुमाररूॅींज पे ूवतजी जमंबीपदहघ्द्ध। दूसरी तरफ ऐसा लेखन भी बहुतायत में मिलता है जो इसी तरह के सिद्धान्‍तों के निरूपण की गंभीर और श्रम.साध्य कोशिश करता है। ;ज्लसमतरू ज्ीम ठंेपब च्तपदबपचसमे व िब्नततपबनसनउ ंदक प्देजतनबजपवदए च्मजमते - भ्पतेजरू ज्ीम स्वहपब व िम्कनबंजपवदए ठवनतकपमनरू च्तपदबपचसमे वित तमसिमबजपदह वद जीम बनततपबनसनउद्ध कुछ हद तककृपूर्णतः नहींकृयह भेद शायद सिद्धान्‍त क्या चीज है इस की समझ के भेद के कारण हैं। चाहे जो होए किसी भी शिक्षाक्रम के निर्माण में कुछ मूल सिद्धान्‍तों और मान्यताओं का उपयोग तो होता ही है। नहीं तो शिक्षाक्रम पर न बात हो सकती है न वहस। सब कुछ मनमाना ;ंतइपजतंतलद्ध हो जाएगा और मनमाना होने पर बात उसकी चलती है जिसके पास ताकत हो। लाठी जिसकी भैंस के नियम पर कुछ हद तक बंदिश लगाने का तरीका किन्ही सिद्धान्‍तों पर पहुँचाना ही है।
शिक्षक,शिक्षण और समाज पेपर आनन्द निकेतन डेमोक्रेटिक स्कूल,भोपाल की वर्षा श्री ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि अध्यापक और छात्र दोनों ही अपने.अपने समाज के हिस्से होते हैं और जब वे कक्षा में आते हैं तो दोनों ही अपने साथ अपने समाज ;विचारधाराए धारणाए पूर्वाग्रहए मूल्य व मान्यताएँ आदिद्ध को लेकर आते हैं। शिक्षक.छात्र के बीच संवाद में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इस समस्या को सम्बोधित किए बगैर हम अध्यापक की सामाजिक भूमिका को नहीं समझ सकते। आधुनिक समाज में हर जगह शिक्षा एवं अध्यापक दोनों को भारी नियम.कानूनों से नियन्त्रित किया जाता है। जिसके कारण शैक्षिक प्रक्रिया और उसमें अध्यापक की भूमिका और इन नियम.कानूनों के बीच हमेशा एक तनाव रहता है। इस तनाव की प्रकृति को समझे बिना हम अध्यापक और अध्यापन की प्रक्रिया को नहीं समझ सकते।
स्कूली शिक्षा में विज्ञान शिक्षक को शैक्षिक समर्थन पेपर होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण से जुड़े उमेश चैहान ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि मेरे स्कूल के पास एक माली अपनी बाड़ी में सब्जियाँ उगाता था। मैंने पौधों में प्रजनन अध्याय के प्रयोग के लिए इस माली से अनुमति ले ली थी। मालिक का बेटा मेरा विद्यार्थी भी था।एक दिन बड़े सबेरे छात्रों के साथ हम गिलकी के फूलों में परागण प्रयोग करने हेतु गए तो माली ने सहज ही पूछ लिया गुरुजी ये कद्दू की बेल में फल क्यों गिर रहे हैंघ् क्या उंगली बताने से कद्दू में फल गिर जाते हैं घ्मैंने अपना फैसला बदला गिलकी की जगह कद्दू के फूलों में परागण क्रिया करने की तैयारी कर ली। परागण क्रिया के बाद सभी बच्चों ने परागित मादा फूलों साथ ;परागित हैं पर्ची डालकरद्ध पालिथीन की थैली से ढँककर बाँध दिया।इस प्रयोग के बाद सबने परागित फूलों को खूब उंगली बताई। अगले सप्ताह जब हमारी टीम अपने प्रयोगों का परिणाम देखने के लिए बाड़ी में पहुँची तो सभी परागित फूलों में बड़े.बड़े कद्दू बन गए थे। छात्र अपने प्रयोगों की सफलता पर प्रसन्न थे। इस प्रयोग से हमने उंगली बताने से कद्दू का फल गिर जाता है इस अंधविश्वास को दूर किया। दरअसल कद्दू के फूल घण्टीत नुमा होते हैंएजिन में बरसात का पानी भर जाने से परागण क्रिया सफल नहीं होती और अपरागित मादा फूल बेल से गिर जाते हैं।
ये प्रयोग तो कुछ उदाहरण हैं।इनके जैसे अनेक अंधविश्वासों को बढ़ावा देने वाली घटनाओं को संगम केन्द्रल की मासिक बैठकों में चर्चा करके उनकी वास्तविकताओं को जानने का प्रयास किया जाता रहा है।
अध्यापक बनने की प्रक्रिया और मेरे अनुभवों में बनता अध्यापक पेपर दिल्ली विश्वविद्यालय के शचीन्द्र आर्य ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि अपने भीतर शिक्षक बनने की इच्छा का निर्माण होने से पहले मैं हिन्‍दी भाषा के साहित्य का छात्र थाए जिसके पास इस दुनिया को देखने समझने के कुछ औजार उन्हीं जगहों से निर्मित हो रहे हैं। हम ष्विखंडनष् से दुनिया को समझने की कोशिश शुरू कर चुके हैं। मतलब समाज को उसके सम्पूर्ण में समझने से पहले उसके कई हिस्से करना सीखना सीख रहे हैं। हमें इस बात को भी रेखांकित करना होगा के सिर्फ इतना ही नहींएयह निर्मितियों परिवारए हमारा परिवेशए के बीच लगातार आकार ले रही होंगी।
इसी मध्य वह क्षण आता हैए जब इसी पृष्ठभूमि के साथ हम ष्अध्यापकष् के रूप में खुद को देखना शुरू करते हैं। यहीं कहीं हम ष्शिक्षणष् को एक पेशे के रूप में देखते हैं और ष्शिक्षकष् बनने के लिए किसी औपचारिक संस्थान में दाखिल होते हैं। यहाँ निर्धारित पाठ्यक्रम हमें औपचारिक रूप से शिक्षक के रूप में हमें बुनना शुरू करता है। यह औपचारिक प्रशिक्षण क्यों जरूरी हैए इसकी एक औपनिवेशिक पृष्ठभूमि के अलावे सवाल के रूप में पूछे जाने लायक सवाल है कि जो ऐसे निर्धारित पाठ्यक्रम से नहीं गुजरतेए वह अध्यापक के रूप में खुद को किस तरह देखते हैंघ् क्या हममें किसी तरह के अंतर्द्वंद नहीं पैदा नहीं हुए होंगेघ् हम जिन समाजों से निकल कर उन शैक्षिक विचारों को किस तरह जज्‍ब कर रहे होंगेघ् क्यों उन विचारकों को हमारे अध्यापक बनने के लिए अपरिहार्य माना गया होगाघ्
प्रशिक्षण, शिक्षण एवं चिन्तन का अभ्यास पेपर दिल्ली विश्वविद्यालय की शोधार्थी स्नेहलता गुप्ता एवं पूजा बहुगुणा ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि वास्तव में बच्चों के साथ गुजरा समय और उस पर अध्यापकका आत्मचिंतन;त्मसिमबजपअम ज्ीपदापदहद्धउसेएक अपेक्षित अध्यापक बनने में महत्वपूर्ण भूमिका निभातानजर आता है। साथ ही बच्चों के साथ काम में आने वाले चुनौतियों के वक्त अध्यापक को मिलने वाला सहयोग और आसपास का सपोर्ट सिस्टम भी इसमें अहम भूमिका तो निभाता ही है।
वर्तमान समय में शिक्षण पर अध्यापकों का दलित शिक्षार्थियों के प्रति रवैया पेपर अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय, बेंगलूरु की प्रज्ञा ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि शिक्षक सैद्धान्तिक रूप से शिक्षार्थी के पारिवेशिक अनुभवों को कक्षा में सीखने.सिखाने और कक्षा के बाहर भी स्कूल के व्यवस्था में उनके अनुभवों को शामिल करने की बात करते हैं लेकिन उन्हें व्यावहारिक कक्षागत प्रक्रियाओं और स्कूल की व्यवस्था में लाने में असमर्थ दिखाई देते हैं। और अन्य स्कूल के क्रियाकलापों जैसे.समान जाति के बच्चों का कक्षा में साथ बैठनाए साथ खाना और साथ खेलना और उच्च कक्षा के बच्चों का स्कूल में दोपहर का भोजन इसलिए नहीं करना कि बर्तन में सभी जाति के बच्चे खाते हैं। इस अवलोकन के विश्लेषण से पता चलता है कि स्कूल यथास्थिति को चुनौती देने में भी असमर्थ दिखाई देता है।
शिक्षा, शिक्षण संस्थान और शिक्षक के संकेतों का विश्लेषण पेपर जेएनयू के शोधार्थी दलजीत अमी ने प्रस्तुत किया।
शिक्षक शिक्षा के सन्दर्भ में एक नई सोच पेपर टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान, मुम्बई की शोधार्थी तनीषा ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि शिक्षक हर एक दिन अपने बच्चों के साथ कुछ.न.कुछ सीखता है। परन्तु शिक्षक शिक्षा के औपचारिक ढाँचे में शिक्षक दो तरीके से शिक्षा ग्रहण करता है। एक. सेवा पूर्व ;प्रोफेशनल डिग्री लेते समय़द्धए दूसरेए जब शिक्षकीय पेशे आ जाता है यानी इन सर्विस। हम इन दोनों को अलग.अलग नहीं देख सकते हैं पर अक्सर ऐसा देखा जाता है कि शिक्षक की पूर्व सेवा और सेवा में शिक्षा में अन्तनर पाया जाता है जैसे कि एक शिक्षक बीण्एडण्एबीण्एलण्एडण् या डीण्एडण् करके विद्यालय में प्रवेश करता हैप् एक सवाल तो यही उठता है कि क्या हम एक ही शिक्षक उपाधि पर केंद्रित हों या फिर इन सभी उपलब्धियों के पाठ्यक्रम पर ध्यान देंप् इस बात से हम केवल अपना ध्यान शिक्षक शिक्षा के पाठ्यक्रम पर केन्द्रित कर सकते हैं क्योंकि इन्हीं से शिक्षण के सिद्धान्तों की स्थापना कैसे होती है उस बात का अन्दाशजा लगाया जा सकता हैप्हमारा एकमात्र लक्ष बच्चों की शिक्षा और शिक्षक के स्वयं की पेशेवर छवि की ओर केन्द्रित है तो शिक्षक जो शिक्षा ग्रहण करता है वे बच्चे की और साथ ही स्वयं के समग्र विकास की ओर खास तौर पर केन्द्रित हो जो कि बीण्एडण्एबीण्एलण्एडण् आदि उपलब्धि बहुत ही खुशी से सम्मलित कर रहे हैं।
कक्षा में बच्चों की भाषाओं को शामिल करने का महत्व और उसकी उपयुक्त प्रक्रिया पेपर अम्बेडकर विश्वविद्यालय की शिवानी नाग ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि शैक्षिक अवधारणाओंकी नींव बच्चों को रटा कर नहीं बल्कि उन्हें उनके अनुभवों से जोड़कर ही स्थापित की जा सकती हैंए तब हम यह भी समझ पाएँगे कि इस पूरी प्रक्रिया में भाषा की भूमिका कितनी महत्वपूर्णहै। अपने अनुभवों के बारे में सोचने या उन्हें व्यक्त करने के लिए भाषा की ही जरूरत पड़ती हैए और अगर वह भाषा जिसमें एक 4.5 साल का बच्चा अपने अनुभवों को जीता हैए कक्षा से बाहर कर दी जाएए तो शैक्षिक अवधारणाओं को उनसे जोड़कर उनकी नींव रख पाना लगभग नामुमकिन सा हो जाएगा। पर बच्चों की भाषा का महत्व समझना इस बात को सुनिश्चित नहीं करता कि यह समझने वाले शिक्षक यह भी जानते होंगे की बच्चों की भाषा का प्रयोग किस तरह किया जाए। यह लेख एक प्रयास है शिक्षकों का ध्यान. बच्चों की बोल चाल की भाषा की शैक्षिक उपयोगिता और उसके उपयुक्त इस्तेमाल की ओर केन्द्रित करने का।
सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों का उद्यम के प्रति दृष्टिकोण पेपर हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय,कांगड़ा की प्रकृति भार्गव ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि शिक्षण.प्रक्रियाए शिक्षक तथा विद्यार्थी के पारस्परिक संबंधों से निर्धारित होती है। कक्षा की शैक्षिक प्रक्रियाएं तब और आधिक प्रासंगिक हो जाती हैं जब उन कक्षाओ में समाज के वंचित वर्गो के विद्यार्थी बड़ी संख्या में सम्मिलित होते हैं। सम्प्रतिए सरकारी शिक्षण संस्थाओं का महत्त्व और आधिक प्रासंगिक ही गया है जो हाशिये पर खड़े व्यक्ति के लिए एक मात्र अवलंबन है। कक्षा का वातावरण शिक्षक के व्यवहारए विद्यार्थियों की सामाजिक.आर्थिक पृष्ठभूमि तथा अथ्यापन प्रक्रिया द्वारा निर्मित होता है। शिक्षकों की सामाजिक पृष्ठभूमि तथा उनका उद्यम के प्रति दृष्टिकोणए शिक्षकों के शैक्षिक व्यवहार को निर्धारित करने में योगदान करते हैं। आधुनिक समय में जटिल सामाजिकए राजनैतिक एवं आर्थिक संबंधों के कारण शैक्षिक उद्यम की प्रतिष्ठा में अत्यधिक ह्रास हुआ है तथा शिक्षक को एक कामचलाऊ उपकरण के रूप में देखा जा रहा है। शिक्षकों के व्यव्हार को निर्धारित करने वाले अन्य महत्वपूर्ण कारक प्रचलित सामाजिक मान्यताएँ यथा जातिगत एवं साम्प्रदायिक भेदभावए स्त्रियों के प्रति समाज का दृष्टिकोण तथा आर्थिक असमानता है।
अध्यापक की पहचान पेपर शोधार्थी अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन,जयपुर राजस्थान की अनुराधा जैन ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि कक्षा तीन में शुभम् के पिताजी की स्टेशनरी की दुकान हैए उसकी दुकान के सामानों की सूची बनबानाए आसपास कौन.कौन सी दुकानें हैं। इसी प्रकार सानिया के पापा की मिठाईयों की दुकान हैए दिव्यांषी की मम्मी एवं पापा छपाई का काम करते हैं। कुछ इसी तरह की बातों और संवादों ने मुझे मदद की बच्चोंं को हिन्दी भाषा सिखाने में। शिक्षक की छवि के लिए बच्चोंम एवंशिक्षक के बीच की दूरी का कम होना आवश्यदक हैए बच्चे निःसंकोच अपनी बात बिना भय के कह सके।
अध्यापक की पहचान पेपर अध्यापिका सोहगपुर,मध्यप्रदेश की सुनीला मसीह ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि अध्यापक की पहचान कैसेए कब कहाँ या कौन करेगाए यह गंभीर प्रश्न है। अध्यापक होने का क्या अर्थ हैघ् अध्यापक की योग्यता का मापदण्डह कौन तय करेगाघ् पाठ्यक्रम से जुड़ी डिग्रीए प्रशिक्षण प्राप्त शिक्षक ही एक योग्य अध्यापक होगाए यह कहना उचित होगा या नहींघ् आज यह प्रश्न है कि एक अध्यापक की पहचान कौन सुनिश्च्तिकरेगाघ् विद्यार्थीए पालकए समाज या शिक्षा विभाग से जुड़े अधिकारीगण।
एक अध्यापक ही स्व.मूल्यांकन करेए आत्म.चिंतन व आत्म.विश्लेदषण करके अपनी पहचान बना सकता है। ऐसे कठिन विषय को अपने अनुभवों के आधार पर प्रस्तुत करके मैं एक अध्यापक की स्वयं की पहचान को प्रस्तुत करने का प्रयास करती हूँ।
शिक्षक की आत्मछवि एवं जनछवि का द्वंद पेपर जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान बागेश्वर उत्तराखण्ड के केवलानन्द काण्डपाल ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि विद्यालयोंए विशेषकर सरकारी विद्यालयों में अधिकांश बच्चे सामाजिक एवं आर्थिक रूप से अपवंचित वर्गों से आते हैं और इनमें से बहुत बड़ा हिस्सा ऐसे बच्चों का है जो प्रथम पीढ़ी ;थ्पतेज ळमदमतंजपवदद्ध के अधिगमकर्ता हैं। यदि इन बच्चों की शैक्षिक जरूरतों को संवेदनशीलता के साथ संबोधित नहीं किया गया तो इनके बहिष्क;रण का जोखिम अभी भी बना हुआ है। इस संवेदनशीलता के विविध आयाम हैंए इसमें लैंगिक मुद्देए सांस्कृतिक एवं भाषायी मुद्दे सहित वे सभी मुद्दे आ जाते हैं जो बच्चे को शिक्षा की मुख्य धारा में समावेशन में एक बड़ी बाधा सृजित करते हैं। शिक्षक से सन्दिर्भित एक महत्वपूर्ण मुद्दा मनोबल ;डवतंसमद्ध से सम्बमन्धित है। मनोबल वह मनःस्थिति है जिसमें एक शिक्षक तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद अपने प्रयासों को सतत् रूप से जारी रखने की आन्तरिक प्रेरणा प्राप्त कर सके।
विगत कुछ दशकों से समाज शिक्षकों को एक विशेष नजरिये से देखने लगा हैए उसके मन में अन्य वेतन भोगी सरकारी नौकर के समान शिक्षकों की छवि बनती जा रही है। शिक्षक अपने सेवाकाल में आत्मछवियों के विभिन्न पड़ावों से होकर गुजरता है। साथ ही साथ शिक्षक की आत्मछवि एवं जन छवि का द्वन्द चलता रहता है। कार्य करने की परिस्थितियाँ एवं कार्य करने का प्रेरक वातावरण से एक विशेष मैट्रिक्स की निर्मिति होती है।
विद्यालयी शिक्षक का चयन: मानकता एक मिथक पेपर दिल्ली विश्वविद्यालय के विनोद कुमार कंवरिया ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि शिक्षकों के चयन पर यदि प्रकाश डाला जाए तो आम तौर पर इन्हें राज्य सरकार के निदेशालयोंए स्वायतशासी निकायों या फिर विशेष अधिकार प्राप्त बोर्डए परिषदों या समितियों द्वारा चयनित किया जाता है। सतही तौर पर सरल.सा दिखने वाला शिक्षकों के चयन का मुद्दा वास्तव में बड़ा ही क्लिष्टए पेचीदा एवं गहरा है। ये तब और अधिक विशिष्ट हो जाता है जब बाद में इन शिक्षकों का मूल्यांकन इनके द्वारा पढ़ाये गए शिक्षार्थियों का किसी मानक निकाय द्वारा एक समान मानक पर मूल्यांकन के आधार पर किया जाता है एवं इस आधार पर उनकी तुलना की जाती है। क्या सम्पूर्ण देश में एक जैसे शिक्षक चयनित किए जा सकते हैं घ् क्या इतने सारे संस्थान विभिन्न श्रेणियों में एक जैसे शिक्षकों का चयन करते हैं घ् क्या एक ही संस्थान एक जैसे शिक्षकों का चयन करता है घ् क्या एक ही संस्थान एक श्रेणी में भी एक जैसे शिक्षकों का चयन करता है घ् मानकीकरण के इस दौर में इन प्रश्नों का गहन विश्लेषण एवं इन पर ठोस अध्ययन करने की आवश्यकता है।
शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों का सच: अनुभवात्मक विश्लेषण पेपर नीरज प्रिया ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि शिक्षा व शिक्षकए दोनों की गुणवत्ता शिक्षाविद्ए अभिभावकोंए मनोविज्ञानिकों एवं नीति निर्माताओं में विशेष चिन्ताक व मनन का विषय रहा है। शिक्षा की गुणवत्ता शिक्षकों की गुणवत्ता पर निर्भर करती है जबकि शिक्षकों की गुणवत्ता में शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन शिक्षण संस्थानों का अकादमिक व गैर.अकादमिक दोनों ही वातावरण भावी शिक्षकों की गुणवत्ता को तय करने में अपना.अपना योगदान देते हैं। शिक्षक शिक्षा एक आसान विषय नहीं है और सभी शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान इस विषय के साथ न्याय नहीं कर पाते हैं। इस प्रशिक्षण कार्य में तरह.तरह की समस्याओं व चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
शिक्षकों का नवाचारी प्रशिक्षण और विद्यालयों में परिणामी बदलाव पेपर दूरस्थ शिक्षा राज्य शिक्षा शोध एवं प्रशिक्षण परिषद बिहार के निदेशक एस ए मुईन ने प्रस्तुत किया। साथ ही शिक्षण कर्म की आम धारणा और शिक्षक -शिक्षा में दशकों में व्याप्त तदर्थवाद पेपर अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन रायगढ़, छत्तीसगढ़ के गुरुप्रसाद शर्मा ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि समाज में गिरती शिक्षक की साख के पीछे शिक्षक और शिक्षण के बारे में कई तरह की प्रचलित धारणाएँ हैं। इन धारणाओं में से शिक्षक के बारे में यह धारणा कि कोई भी पढ़ा.लिखा इंसान पढ़ाने का काम कर सकता हैए अधिक प्रबल दिखता है। यह धारणा समाज के आम जन में ही नहीं बल्कि सरकारी दृष्टियोंए निर्णयों और पहल.कदमियों में भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होती रही है। इसने न केवल शिक्षण कर्म के महत्व को घटाया हैए बल्कि अपवादों को छोड़ दें तो इस कर्म को चुनने वालोंके लिए भी कम मेहनत वाला काम बना दिया है। कुछ लोगों के लिए यह अतिरिक्त आमदनी का स्रोतहोसकता है तोकुछ के लिए ष्हारे को हरि नामष्। सरकार द्वारा शिक्षक की नियुक्ति हो या किसी के द्वारा अपने जीवन में शिक्षण पेशे का चुनावयइन दोनों ही मामलों में यह धारणा जड़ के रूप में काम करती है।
इस धारणा को तोड़ने या बदलने का काम शिक्षक शिक्षा भी नहीं कर पाती है। क्योंकि इस कार्य से जुड़े लोगोंके पास भी संभवतः वांछित दृष्टिए समझ और दायरे से बाहर सोच पाने की क्षमता और प्रेरणा नहीं होती है। क्योंकि आज भी शिक्षक शिक्षा संस्थानों में न तो पर्याप्त शिक्षक प्रशिक्षक है और न ही उन्हें स्कूली कक्षा में अध्यापन का अनुभव। इन शिक्षक प्रशिक्षकों का भी कई पदों पर तबादला होता रहता है। वे शिक्षक शिक्षा संस्थानों में खुद को दरकिनार.सा महसूस करते हैं। कहीं.कहीं तो बिल्कुल अस्थायी तौर पर समय.समय पर आस.पास के शिक्षकों को बुलाकर प्रशिक्षक का काम लिया जाता है। यदि छत्तीसगढ़ का उदाहरण लें तो पूरे राज्य में मात्र दो ऐसे सरकारी संस्थान है जहाँ बी॰ एड॰ की पढ़ाई होती हैय बाकी निजी संस्थानों पर निर्भरता बरकरार है।
हिन्दी साहित्य में शिक्षक किरदारों की जनछवियों व आत्मछवियां पेपर अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन उत्तरकाशी, उत्तराखण्ड के खजान सिंह ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि शिक्षक व शिक्षकीय प्रोफेशन के प्रति हिन्‍दी साहित्य की अनेक साहित्यक विधाओंए लोक आख्यानोंए लोक साहित्यए दृष्टान्तोंए व्यक्तिगत संस्मरणोंए में किस तरह से शिक्षक किरदारों व शिक्षकीय प्रोफेशन का मान सम्मानए रवैयेए जनछवियाँ व आत्मछवियाँ निरुपित की गई हैं या उभरकर आती हैं।
इसकी सामाजिक राजनैतिकए आर्थिकए सांस्कृतिक सन्दर्भ में गहरी विवेचना व व्याख्या होगी। इस व्याख्या का स्वरूप समझने हेतु यह उद्धरण समीचीन होगा मसलन ष्कामायनी एक पुनर्विचारष् पुस्तक की प्रस्तावना में गजानन माधव ष्मुक्तिबोधष् लिखते हैं कि ष्ष्हमारा जीवन त्रिकोणात्मक है। उसकी एक भुजा हमारे बाह्यजगत यानि मानव सम्बन्धों के विशिष्ट क्षेत्र और जगत के विभिन्न जीवन मूल्यों और आदर्शों के बीच से होती हुईए उस छोर तक पहुँच जाती है। जिसे हम देश व जाति की राजनीतिकए सामाजिक स्थिति कह सकते हैं। जो स्थिति मानव इतिहास के विकास के एक विशेष स्तरए विशेष अवस्था का नाम हैं। इस त्रिकोण की दूसरी भुजा हमारा व अन्तरंग जीवन है जो अन्तर जीवन बाल्यकाल से ही वाह्य क्रियाओं और रूपों को आत्मसात करता हुआ उस बाह्य के विरूद्ध या अनुकूल प्रतिक्रियाएँ करता हुआए उन प्रतिक्रियाओं के विभिन्न संवेदनात्मक पुंज बनाता हुआए उन पुंजों के सहारे जीवन का विकास करता हुआएउस जीवन ज्ञान के सहारे स्वयं को बाह्य से मिलाने और बाह्य कोअपने से मिलाने अर्थात उस बाह्य के साथ स्वयं को द्वन्द्व रूप में या सामंजस्य रूप मेंए इन दो स्थितियों के संगत.असंगत सम्मिलित रूप में स्थापित करनेए बाह्यों की काट.छाँटकर उसे अपने अनुरूप बनाने का प्रयत्न करता रहता है।
अन्तर्निहित इच्छाएँ जो मूलतः आत्मरक्षा और आत्मविकास की बुनियादी वृतियों से संचालित परिचालित होती रहती हैए उनकी तृप्ति के तथा बाह्य से सामजस्य की स्थापना की दुविधा किन्तु एकीभूत प्रयत्न मानवीय स्वभाव का ही धर्म है। मनुष्य के अन्तर जीवन का इतिहास बाह्य द्वारा दिएगए तत्वों से बना होता है।मनुष्य द्वारा संचालित जो अनुभव होते हैं उनका एक पक्ष अभ्यांतर और एक पक्ष बाह्यगत होता है। अनुभव में जो प्रवृतियाँ परिलक्षित होती है वहा अनुभवों का आत्मपक्ष है। अनुभव के अन्तर्गत जो बिम्बए भावए विचारए प्रस्तुत होते हैं वे बाह्य के सम्पादित संशोधित रूप हैं। हमारे जीवन के इस त्रिभुज की आधार रेखा हमारी अपनी चेतना है। वह चेतना उपर्युक्त दो भुजाओं के बिना अपना स्वरूप और आकार ही स्थापित नहीं कर सकती। इन दोनों में से यदि एक भी लुप्त हो तो चेतना का कोई अर्थ ही नहीं रहता। हमारा अन्तरजीवन और उसका क्रम अपने बाह्य परिवेशऔर परिस्थिति से आववयविक सम्बंध रखता है। और दोनों अन्तर एवं बाह्य से एकीभूत होकर हमारा जीवन बनाते हैं।
शिक्षण को कैसे समझें? यह पेपर अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन,जयपुर,राजस्थान के जीतेन्द्र ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि इस देश में औपचारिक शिक्षा की जो स्थिति है और जिस तरह की तैयारी से शिक्षक बनते हैं उसमें शिक्षण कार्य को समझने और उस अपेक्षा को पूरा करने का जरूरी प्रयत्न नहीं होता। अधिकांश लोग दृ शिक्षा से जुड़े भी और आम जन भीए शिक्षण को एक ऐसा कार्य मानते हैं जिसे कोई भी कर सकता है जिसे किसी विषय पर कुछ पकड़ है। पूर्व प्राथमिक कक्षाओं में तो विषय की समझ होना भी कोई आधार नहीं माना जाता। इस कारण बड़ी संख्या में लोग इसे पार्ट.टाइम काम के रूप में भी करते दीखते हैं।
मानक भाषा और संस्कृति का मुहाफिज़ अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय,बेंगलूरु के प्राध्यापक हिमांशु एवं मनोज कुमार का रहा। इसे प्रस्तुत किया मनोज कुमार ने। उन्होंने कहा कि भारतीय भाषा के शिक्षकों की स्थिति कुछ विशिष्ट है। स्कूल या विश्विद्यालय की जरूरी डिग्रियाँ उसके पास भी हैंए लेकिन उसका किस प्रकार के ज्ञान पर दावा हैघ् क्या भाषा का उसका जो ज्ञान है वह उस भाषा को बोलने वाले अन्य लोगों के ज्ञान से कुछ विशिष्ट हैघ् क्या उस ज्ञान की नए समाज के लिए कोई उपादेयता हैघ् इन प्रश्नों के बने बनाए उत्तर नहीं हैंए लेकिन आमतौर पर भाषा शिक्षक का दावा होता है कि उसे मानक भाषा का ज्ञान है और उसे उस भाषा के साहित्य का भी ज्ञान है। उसके अनुसार साहित्य के इस ज्ञान का सांस्कृतिक मूल्य है और यह उसका दायित्व है कि वह विद्यार्थियों के भाषिक.सांस्कृतिक व्यवहार को मानक व्यवहार से विचलित नहीं होने दे। भाषा शिक्षक के प्राधिकार का मुद्दा एक ओर भाषा के मानकीकरण से जुड़ा हुआ है तो दूसरी ओर उस भाषा के साहित्य के कैनन निर्माण से। स्वीकृत साहित्यिक कैनन के मुहाफ़िज के रूप में भी वह अपनी भूमिका तलाशता है।
भारत में भाषाओं के मानकीकरण की प्रक्रिया उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध और बीसवीं सदी की शुरुआती दशकों तक चलीए जबकि बीसवीं सदी के आख़िरी दशक तक आते.आते शिक्षा के सार्वभौमिकीकरण की प्रक्रिया तीव्र हुई। शिक्षा के सार्वभौमिकीकरण के कारण अलग.अलग सामाजिक समूहों के स्कूल में आने से स्कूल का परिवेश और ज्यादा बहुभाषिक और बहुसांस्कृतिक हुआ है। साथ ही पाठ्यचर्या में इस बात पर बल दिया जाने लगा है कि बहुभाषिकता परेशानी नहीं हैए बल्कि सीखने.सिखाने के लिए एक प्रकार का संसाधन है। ऐसा लगता है कि भारतीय भाषा के शिक्षक बहुभाषिकता को. खासकर अगर वह बहुभाषिकता आसपास की अमानक भाषाओं के स्कूल में ष्घुसपैठष् से बनी है दृ को सिर्फ अध्यापन की दृष्टि से ही चुनौती नहीं मानते हैंए बल्कि उससे उनका प्राधिकार भी संकटग्रस्त होने लगता है।
औपनिवेशिक भारत में व्यवस्थिकरण का शिक्षाशास्त्र, शिक्षक और चुनौतियां पेपर दिल्ली विश्वविद्यालय के विकास गुप्ता ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि गिजुभाई के कार्यों व विचारों में और भी बहुत कुछ है जिसपर ध्यान दिए जाने की जरूरत है। मिसाल के लिएए बच्चों के लिए सबसे बेहतर शिक्षा पद्धति की उनकी खोज ने उन्हें बाल.केन्द्रित शिक्षण की उनकी परिकल्पना के अनुरूप सबसे उपयुक्त शिक्षक के निर्माण के तौर.तरीकों के बारे में सोचने और कार्यवाही करने के लिए प्रेरित किया। गिजुभाई के सरोकार सिर्फ शिक्षण पद्धतियों से नहीं जुड़े थे बल्कि उनका दायरा शिक्षकोंए उनकी पेशेवर स्थिति व विकासए सामाजिक हैसियत और प्रशिक्षण तक फैला हुआ था। जैसा कि हम देखेंगे स्कूली शिक्षकों की निम्न सामाजिक हैसियत और पेशेवर पिछड़ेपन के प्रति गिजुभाई बेहद चिंतित थे।
भाषा शिक्षण: शिक्षकों की तैयारी पेपर रजनी द्विवेदी ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि सीखने.सिखाने की प्रक्रिया का एक अहम मुद्दा है भाषाध्एँ और उनका शिक्षण।भाषा और उसके शिक्षण के बारें में उपलब्ध शोधोंए उनके निष्कर्षोंए इस सन्दर्भ में होने वाली चर्चाओं व विमर्शों तथा दस्तावेजों तथानीतियों में भी इससे सम्बंधित मुद्दों को रेखांकित करने तथा इस सम्बन्ध में सेवापूर्व व सेवारत प्रशिक्षणों के अन्तर्गत कदम उठाने की बहुत बातें होती हैं। लेकिन इन सबके बावजूद भाषा शिक्षण की स्थिति में सुधार ना के बराबर है।वैसे तो भाषायी क्षमता के आकलन के लिए बहुत अच्छे साधन भी उपलब्ध नहीं हैंए किन्तु जिनकी चर्चा है और जो व्यापक स्तर पर किए जाते हैं उनमें एक असर की रिपोर्ट है। असर का अध्ययन यद्यपि बहुत सीमित है फिर भी उसके अवलोकनों पर दृष्टि डालने से चिन्ताजनक परिस्थिति सामने आती है। असर 2014 के अनुसार कक्षा दो में एक तिहाई बच्चे ऐसे हैं जो वर्ण भी नहीं पहचान पाते और यह संख्या पिछले कुछ सालों मेंबढ़ी ही है घटी नहीं इसी तरह कक्षा पाँच में लगभग 50ः बच्चे ऐसे हैं जो कक्षा दो के स्तर का टेक्स्ट भी नहीं पढ़ पाते।बात अपनी भाषा की हो अथवा द्वितीय भाषा की दोनों ही मामलों में यह सत्य है कि लगभग 10.12 वर्ष स्कूल में गुजारने के पश्चात भी बच्चे भाषा नहीं सीख पाते।
अध्यापक और अलग दौर पेपर जामिया मिलिया इस्लामिया के फराह फारूक़ी तथा अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के अनिल सेठी ने प्रस्तुत किया।
पेशेवर शिक्षक का बनान: अर्थ और एक संभावित प्रक्रिया पेपर मधुलिका झा ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि वर्तमान में शिक्षा की बदहाली और तकनीक के विकास को देखकर हम शिक्षक विहीन कक्षा की कल्पना चाहे करने लगे होंए पर सच तो यह है कि स्कूली शिक्षा में बेहतरी का कोई भी प्रयास शिक्षक को साथ लिए बिना संभव नहीं है। शिक्षक सीखने.सिखाने की प्रक्रिया में निर्जीव पाठ्यक्रम और जीवंत शिक्षार्थी के बीच की वो मानवीय कड़ी हैए जो किसी माली की तरह हर शिक्षार्थी को उसके अनुरूप सीखने और पल्लवित होने के लिए आवश्यक वातावरण मुहैया कराकर उनके सीखने में योगदान दे रहा होता है। इसीलिए आवश्यक हो जाता है कि यह कड़ी अपने आप में इतनी सक्षम हो कि पाठ्यक्रमए शिक्षार्थी और ज्ञानार्जन की प्रकिया में उभरने वाले तनावों और चुनौतियों को न सिर्फ स्वयं झेल सकेए बल्कि बच्चों को सीखने.सिखाने की इस यात्रा में सहयात्री मानते हुए उन्हें भी चुनौतियों का सामना करनेए निर्णय लेने और उन निर्णयों की जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार होने में वांछित मदद कर सके। शिक्षक की ऐसी भूमिका पाठ्यवस्तुए बच्चे के संज्ञानात्मक स्तर और सिखाने की प्रक्रिया के ज्ञान की मांग करती है। यह ज्ञान किसी के पास स्वतरू ही नहीं आ जाता है। इसके लिए एक खास तरह की समझ का निर्माण और लगातार तैयारी से गुजरने की जरूरत होती है।इसी सन्दर्भ में शिक्षक को एक पेशेवर के तौर पर देखे जाने और उसका दर्जा देने की मांग उभरती हैए जिसमें यह निहित है कि शायद एक पेशेवर शिक्षक अपने कार्यक्षेत्र में आने वाली चुनौतियों का बेहतर ढंग से सामना कर सकता है और शिक्षा में बेहतरी के प्रयासों में सक्रिय योगदान दे सकता है।
शिक्षण-शास्त्रीय जड़त्व और शिक्षक प्रशिक्षण मुम्बई सीईआईएआर टाटा इंस्टिटयूट आॅफ सोशल साइंस के अजय कुमार सिंह ने प्रस्तुत किया।
अध्यापक बनने की प्रक्रिया एकलव्य ,शाहपुर,मध्यप्रदेश के घनश्याम तिवारी ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि पिछले एक दशक के दौरान शिक्षक शिक्षा पर काफी काम किया गया खासकर छत्‍तीसगढ़ मेंए इसके अलावा मध्‍यप्रदेशए राजस्‍थानए दिल्‍ली आदि राज्‍यों में कुछ.कुछ प्रयास किए गए। इन प्रयासों में मुख्‍यतरू डीण्एडण् में इस्‍तेमाल होने वाली शिक्षण सामग्री व शिक्षक प्रशिक्षण ;सेवा कालीन व सेवा पूर्वए दोनों तरह केद्ध प्रमुख हैं। शिक्षा का अधिकार लागू होने के चलते राज्‍य सरकार ने भी स्‍कूलों में प्रशिक्षित शिक्षक की कमी को पूरा करने में डीण्एडण् को अनिवार्य किया।
शिक्षकों के पेशवर विकास की प्रक्रिया में सेवापूर्व एवं सेवाकालीन शिक्षक शिक्षा पाठ्यक्रमों एवं उनके क्रियान्वयन पर एक नज़र पेपर अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, देहरादून की प्रिया जायसवाल ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि किसी भी राष्ट्रके लिए सुयोग्य नागरिक तैयार करने में शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।और शिक्षा के नीति निर्माण और नियोजन के लिए पहली जिम्मेदारी नीति निर्माणकर्ताएशिक्षाविद एवं प्रशासक की है औरइनके द्वारा निर्मित शिक्षायोजना को स्कूलों में ले जाने वाली सबसे सबल कड़ी है सुयोग्य शिक्षक।
इस बात की नितान्‍त आवश्यकता है कि शिक्षक अपनी पेशेवर पहचान को मजबूत करेए अपनी अस्मिता को पहचाने। एक शिक्षक के शिक्षक बनने कि तैयारी और उसका व्यवसायिक विकास बहुत ही महत्वपूर्ण हैप् शिक्षक उन सभी शैक्षिक संसाधनों से सुसज्जित है जो उसे अपनी भूमिका का निर्वहन करने में सक्षम बनाते हैं जिसमें उनकी शैक्षिक एवं व्यावसायिक योग्यताए सेवापूर्व परीक्षण और विभिन्न स्तरों पर किए जाने वाले सेवाकालीन प्रशिक्षण के प्रावधान शामिल हैं। लेकिन विभिन्न प्रयासों के बावजूद भी धरातल पर अपेक्षित परिणाम स्कूलों में नहीं दिखाई दे रहे हैं जिसकी जवाबदेहीशिक्षकों की मानी जातीहै। क्या इसके लिए मात्र शिक्षक को ही जिम्मेदार ठहराया जाए या उन कारणों को भी टटोला जाए जो इस हेतु जिम्मेदार हैं। इस सम्‍पूर्ण चक में जो महत्वपूर्ण पक्ष है वह है शिक्षकों की तैयारी जिसमे हमारे सेवापूर्व शिक्षक प्रशिक्षण भी शामिल हैंए और जिस तरह यह प्रक्रिया चल रही है वह स्वयं में प्रश्न चिह्न है। विभिन्न आयोगों व नीतियों में शिक्षक शिक्षा पर चिन्‍ताएँ जाहिर की जाती रही हैं जिसमें शिक्षकों के व्यवसायीकरण पर जोरए शिक्षक.शिक्षा पाठ्यचर्या में सुधारए समेकितपाठ्यक्रमए शोध एवं नवाचार आदि शामिल हैं। परन्‍तु इन सभी अनुशंसाओ पर हम कितना बढ़ पाए हैं उसे भी विश्लेषित किए जाने की आवश्यकता है
प्रारम्भिक अध्यापक शिक्षा में प्रभावी शिक्षण अभ्यास अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन,दिल्ली के निमरत खंदपुर ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि किसी भी व्यवसाय में प्रवेश से पहले एक लंबे समय की तैयारी अनिवार्य है। एक शिक्षक के विकास के लिए भी सीमित समय की प्रारम्भिक शिक्षा और उसके बाद समय.समय पर सेवारत अध्यापक शिक्षा का प्रावधान किया गया है। शिक्षण अभ्यास प्रारम्भिक अध्यापक शिक्षा का एक अहम हिस्सा है। शिक्षण अभ्यास छात्र अध्यापक के लिए व्यावसायिक जीवन की पहली झलक नहीं है। उसके पहले भी एक छात्र के रूप में उन्होंने अपने शिक्षकों का कई सालों तक अवलोकन किया होता है। साथ ही मेंए वह अपने अध्यापक शिक्षा कार्यक्रम की कक्षाओं में भी कई मुद्दों पर विचार करते हैं। इस के आधार पर उनके मन में शिक्षा और शिक्षण को ले कर कुछ अवधारणाएँहैं। परन्तुष जब वह एक शिक्षक के रूप में विद्यालय का हिस्सा बनते हैंए इन अवधारणाओंमें बदलाव आता है।
साथ ही में एक द्वंद उठता है.जो कुछ उन्होंने अध्यापक शिक्षा के कार्यक्रम की कक्षाओं में अब तक जाना है और जो विद्यालया की हकीकत है दृ इन दोनों के बीच का एक द्वंद। शिक्षण अभ्यास का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य कक्षा के सैद्धान्तिक ज्ञान और विद्यालय में अभ्यास के बीच जुड़ाव स्थापित करना। साथ हीए शिक्षण अभ्यास छात्र अध्यापक में एक समेकित दृष्टिकोण विकसित करने का प्रयास है। परन्तु ए शिक्षण अभ्यास को केवल एक औपचारिकता के नज़रिये से ष्पूराष् किया जाता है। अध्यापक शिक्षा के कार्यक्रमों की अवधि तो बढ़ा दी गई हैए पर पूरे विश्वास से यह नहीं कहा जा सकता है कि इस अधिक समय में शिक्षण अभ्यास में कुछ सुधार आ सकेगा। अगर शिक्षण अभ्यास की प्रक्रिया के लिए ध्यान से योजना नहीं बनाई जाएए तो छात्र अध्यापकों के लिए शिक्षण एक उद्देश्यविहीन अनुष्ठान की तरह होगा दृ उनका ध्यान बच्चों और शिक्षण.अधिगम की बारीकियों पर ना जाकरए ष्आज के कार्यष् से जुड़ी विधि तक सीमित होगा।
विज्ञान शिक्षक बनने की प्रक्रिया: एक विचारात्मक लेखा जोखा पेपर दिल्ली विश्वविद्यालय की युक्ति शर्मा एवं नेहा मलिक ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि शिक्षण का हरेक पहलूए जिसमें अनुदेशात्मक विधिए विषय सामग्री और मूल्यांकन ये सभी शिक्षक के विश्वासए मान्यताओंए अनूभूतियों और अपेक्षाओं प्रभावित करती है। इन सभी विश्वासोंए स्व.धरणाओंए अनूभूतियों और अपेक्षाओं के बनने में शिक्षण प्रशिक्षण संस्थान महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। शिक्षक प्रशिक्षुओं के विज्ञान शिक्षक बनने की प्रक्रिया में उनके स्वयं का विकासए उनके पहले से बने विचारों और अनुभूतियों से प्रभावित होता है। यह पर्चा लेखकों के स्वयं के शिक्षण संस्थान में एक शिक्षक होते हुए भावी शिक्षकों के साथ लगातार जुड़े रहने के दौरान उपजे अवलोकन और चिंतन पर आधरित है। उन शिक्षक प्रशिक्षुओं से बातचीत के दौरान यह पाया गया कि ष्विज्ञान शिक्षकष् के बारे में उनके पास पहले से कुछ निश्चित मापदण्डश बने हुए हैं।
जैसेए अधिकतर का यह मानना है कि विज्ञान में ज्यादातर अवधारणाओं की समझ का विकास उसे ष्सरलष् करके किया जा सकता है। जो यह दर्शाता है कि वे विज्ञान की अवधारणाओं की प्रकृति को ही जटिल मानते हैं तथा उनके अनुसार विज्ञान शिक्षक की भूमिका इसके सरलीकरण की है। शिक्षक प्रशिक्षु यह साफ मानते हैं कि विज्ञान एक जटिल और अमूर्त अवधरणाओं से मुख्यतया भरा पुंज है जिसे प्रमाण व साक्ष्य की अपेक्षाए व्याख्या द्वारा समझाया जाता है। शिक्षक प्रशिक्षुओं के अमूर्त सिद्धान्तोंु के विकास को ध्यान देनाए ये इंगित करता हैए कि वे विज्ञान की गतिमान प्रकृति को आत्मसात नहीं कर पाए हैं। उनका यह विचार कि विज्ञान शिक्षक की भूमिका. विज्ञान के सिद्धान्तोंि और प्रदत्तों को छात्रों के लिए बोधगम्य बनाना.हमें उनकी विद्यार्थियों और विज्ञान शिक्षण को लेकर कुछ मान्यताओं की ओर इशारा करती है। शिक्षक प्रशिक्षु किसी भी सिद्धान्तं को स्पष्ट और सरल बनाने हेतु ष्डायग्रामष् को काफी महत्त्वपूर्ण मानते हैं। वे विद्यार्थियों द्वारा प्रतिरूपण के निर्माण को नजरअंदाज कर देते हैं। माध्यमिक स्तर पर विद्यार्थियों में जिज्ञासा विकास को महत्व दिया जाता है परन्तुह इसका निपटारा भी वहीं कक्षा में ही कर दिया जाता है। पाठ्य पुस्तकों से अवधरणाओं को पढ़ना स्वीकार्य नहीं माना जाता है और वे इसे व्यर्थ मानते हैं। शिक्षक प्रशिक्षुओं से ज्यादा पड़ताल करने पर यह पता चला कि वे विज्ञान सीखने की प्रक्रिया में पढ़ने और लिखने को विज्ञान सीखने के लिए ज्यादा आवश्यक नहीं मानते हैं।
अध्यापक जीवन की दुरभिसंधियां पेपर मंडल शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान दिल्ली की शारदा कुमारी ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि हमें विश्वा स करना होगा कि सभी बच्चोंन में सीखने.सिखाने की अपार संभावनाएँ हैं। पढ़ना.लिखना सीखना किसी वर्ग विशेष के बच्चों की बपौती नहीं है। प्रथम पीढ़ी के माता.पिता वाले बच्चेम या झुग्गीा.झोपड़ी में बसर करने वाले बच्चेर सभी पढ़ना सीख लेते हैं। बेशर्ते हम सीखने के परिवेश का सृजन करने में संकोच न करें।
हमें स्वीीकार करना होगा कि सभी बच्चेव मानवीय गरिमा के अधिकारी हैं।
ष्अरे बच्चे् ही तो हैं इनका क्या घ्ष् कहकर हम बच्चोंक की मानवीय गरिमा को ठेस नहीं पहुँचा सकते।
गुणवत्ता हेतु प्रयासरत अध्यापक शिक्षा संस्थाओं के प्रति भविष्य के अध्यापकों का अभिमत पेपर रतनलाल कंवरलाल पाटनी गल्र्स काॅलेज,किशनगढ़ राजस्थान के मितेश जुनेजा ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि अध्यापक शिक्षा के माध्यम से भविष्य के अध्यापकों की प्रभावी तैयारी के साथ.साथ सेवारत अध्यापकों के पेशेवर विकास को उचित दिशा प्रदान की जाती है। इसी द्विमुखी आयाम के माध्यम से शिक्षा और शैक्षिक वातावरण को प्रभावी बनाया जाता है। जब यह कहा जाता है कि भारत का भविष्य उसके कक्षा कक्षा में बन रहा है तो यह भी सरलता से समझ में आता है कि शिक्षक ही भारत के निर्माण की सशक्त धुरी है और शिक्षकों के प्रयासों से शिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ और सार्थक बनाया जा सकता है। इससे यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि शिक्षाए समाज और राष्ट्र के मध्य गहरा सम्बन्ध है। अध्यापक शिक्षा को इसी आधार पर शिक्षा के दो प्रमुख स्तरों उच्च और विद्यालय शिक्षा दोनों के मध्य धुरी के रूप में विद्यमान कहा जा सकता है।
एक शिक्षक कौन है? सामाजिक रूपरेखा में बदलाव का एक निरीक्षण अम्बेडकर विश्वविद्यालय की आरुषि कथूरिया ने प्रस्तुत किया।
आदर्श और हकीकत के द्वंद में उलझा हुआ शिक्षक का पेशा ,कालाढूंगी,नैनीताल,उत्तराखण्ड के अध्यापक दिनेश कर्नाटक ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि अगर शिक्षक का पेशा परिवारए राज्य तथा समाज के लिए इतना अधिक महत्वपूर्णहै तो इतने महत्वपूकार्य के लिए समाज के सबसे योग्य लोगों को इसमें आनाचाहिए। यह राज्यए परिवार और समाज की नजरों में सबसे प्रतिष्ठित पेशा होनाचाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं है। ऐसा क्यों है कि इतने महान और महत्वपूर्णपेशे में प्रथम वरीयता के रूप में कोई नहीं जाना चाहता।99 फीसदी लोगइंजीनियरए मैनेजरए डॉक्टर या कोई अफसर न बन पाने के बाद मजबूरी में शिक्षकबनते हैं। मजबूर और असफल लोग क्या सफल लोगों का पथप्रदर्शन कर सकते हैं।
यथार्थ और यथार्थ की दूरियां हरियाणा के ज्ञान विज्ञानकर्मी शीशपाल ने प्रस्तुत किया। शिक्षक प्रशिक्षण कार्यशालाओं में पाठ्यचर्या,पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों की समीक्षा का महत्व पेपर हिमांशु श्रीवास्तव ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि भाषा शिक्षक का काम अन्य शिक्षकों से कुछ अधिक ही बनता है। भाषा का काम एक विषय से कुछ अधिक इसलिए है क्योंकि हम भाषा के माध्यम से चिन्त्न.मनन भी करते है। यानी हमारी अधिकतर अवधारणाएँ शायद भाषा में ही बनती हैं। इसके अतिरिक्त भाषा का सम्बसन्ध‍ साहित्य से भी है। अतः साहित्य का परिचय शिक्षक को हो ऐसी भी अपेक्षा रहती है। पहले ही एन सी एफ में प्राथमिक शिक्षक से वार्तालाप करनेए वर्णन करने एवं कथावाचन की बात लिखी गई है। यह भी कहा गया है कि मौखिक संवाद पहला कदम हैए पढ़ने.लिखने की बात उसके बाद होनी चाहिए। मिडल स्तर के शिक्षक से इसी एन सी एफ में यह अपेक्षा की गई है कि वह बच्चों में मौलिकता एवं सर्जनात्मकता का विकास करे। नवीं एवं दसवीं में तो साहित्यिक रचनाओं का आस्वादन करने की योग्यता विकसित करने की बात लिखी गई है। आगे लिखा गया है कि भाषा शिक्षण इस तरह से हो कि बच्चों में गहरे विश्ले्षण की क्षमता विकसित हो। यहाँ स्कूली पत्रिका के प्रकाशन तक की बात की गई है।
शिक्षक प्रशिक्षण कार्यशालाओं में पाठ्यचर्याए पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों की समीक्षा का महत्वरू हमारे औजार असल में कितने दुरूस्त हैंघ् रू हिमांशु श्रीवास्तव विज्ञान शिक्षकों की मौजूदा प्रशिक्षण प्रक्रिया पर अगर एक नजर डालें तो पता चलता है कि ज्यादातर प्रशिक्षणों में सब ज्‍यादा जोर रहता है विषयवस्तु की समझ को पुख्ता करने पर। कुछ प्रशिक्षणों में विज्ञान करने की प्रक्रिया का एक अनुभव देने पर भी जोर दिया जाता है और कोशिश की जाती है कि शिक्षक विज्ञान विषय की प्रकृति के बारे में भी कुछ समझ बना पाएँ। मसलन विज्ञान को एक ऐतिहासिकए सामाजिकए सांस्कृतिक उद्यम के तौर पर समझ पानाए विज्ञान में किसी भी बात को परम सत्य ना माननाए वगैरह। बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने की जरूरत पर भी थोड़ी.बहुत बातचीत होती ही है।
शिक्षक प्रशिक्षण व अवधारणात्मक समझ पेपर रमा कान्त अग्निहोत्री ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि इसमें कोई शक नहीं कि पूरी शिक्षा व्यवस्था में ही पूरी तरह से बदलाव आना चाहिए। स्कूल बेहतर होने चाहिए। हर बच्चे को एक ही तरह के स्कूल में जाने का अवसर मिलना चाहिए चाहे वह बच्चा गरीब परिवार का हो या अमीर काय चाहे ऊँची जाति का हो या सामान्य जाति काय चाहे सामाजिक दृष्टिकोण से वह शरिरिक या मानसिक रूप से एक आदर्श सामाजिक छवि में खरा उतरता हो या नहीं। एक समावेशी स्कूल का निर्माण करना सबसे बड़ी प्राथमिकता है। इसी तरह यह भी आवश्यक है कि अध्यापक को मिलने वाली सुविधाओं में सुधार हो। उन्हें बेहतर वेतन मिले और उन्हें अपना काम करने की पूरी आजादी हो। बच्चों को मिलनेवाली पठन सामग्री इस बात पर आधारित हो कि बच्चे कैसे सीखते हैं और कैसे नए ज्ञान का निर्माण करते हैं और किस प्रकार वे संसार के एक जिम्मेदार नागरिक बन सकते हैं न कि इस बात पर कि उन्हें एक परीक्षा पास करनी है।
यदि आप यह सब सुनिशित भी कर दें तो भी शायदयह सम्भव न हो कि बच्चों को ऎसी शिक्षा मिल पाए जिससे वह किसी भी विषय पर तर्कसंगत वहस कर पायें और उससे से कुछ अधिक सीख पायें जो उन्हें स्कूल में पढ़ाया गया है। इस बात पर भी प्रश्नचिंह है कि क्या जो उन्हें स्कूल में पढाया गया वह वे समझ सके और क्या उनके अध्यापक उन बातों के बारे में स्पष्ट अवधारणात्मक समझ रखते हैं। शायद ये विद्यार्थी कभी जिम्मेदार नागरिक न बन पायें और न ही किसी दूसरे व्यक्ति या समाज के प्रति संवेदनशील हो सकें। हमारी आज की शिक्षा का जोर तो केवल इस बात पर है कि कैसे अच्छे नंबर लिए जाएँ और कैसे अच्छी नौकरी मिले।
शिक्षण कर्म का स्वरूप: व्यापक परिप्रेक्ष्य असकला जिला सरगुजा की पुष्पा सिंह ने प्रस्तुत किया।
फर्ज़,हर्ज़ और मर्ज़ शिक्षक मुकेश मालवीय ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि सरकारी शालाओं के शिक्षकों में अपने मुख्य काम के प्रति भारी उदासीनता है।बच्चों और उनके पालकों तथा प्रशासन का वजूद इतना कमजोर है कि शिक्षकों में न पढ़ाने की निरंकुश स्वछन्दता पनपने लगती है।
फिर भी कुछएक शिक्षक पढ़ाते हैं . तीन तरह की वजह से रू फर्जएहर्ज और मर्ज
1ण् फर्ज रूकुछ थोड़े से शिक्षक हैं जो शिक्षण कर्म को फर्ज समझते हैं। नैतिकता और मूल्यों का अनुसरण करने वाले ये शिक्षक अफसरों और युवा साथियों के उपहास और कोप को सहते हुए अपने कर्म मे लगे रहते हैं। इनके सिखाने पढ़ाने के अपने नियम कायदे हैंए जैसे भय और कंठस्थीकरण आदि।
2ण् हर्ज रूदूसरे समूह में वे शिक्षक हैं जो हर्ज या डर की वजह से गैरशिक्षकीय काम करते हुए भी अपना शिक्षकीय काम अच्छे से करते हैं। सरकारी शिक्षा विभाग में डर की व्यवस्था पहले कई स्तरों पर थी जिससे जबाबदेही तय होती थी। परअब आसपास डर और जिम्मेदारी की प्रेरणा का नितांत अभाव है।
3ण् मर्ज रूतीसरे समूह में वे शिक्षक हैं जिन्हें सीखने.सिखाने का मर्ज होता है।ये शिक्षक अपने शिक्षण में प्रयोगधर्मी दृष्टिकोणए विविधताए शिक्षा की नयी बातों को अपनाते हैं इनके पास दो तरह की योग्यता है ;1द्ध व्यंक्तिगत योग्यणता ;2द्ध शिक्षकीय योग्य ता।
तीसरे समूह के शिक्षक अपने निर्णय खुद लेने का विवेकरखते हैं। इनमें वैचारिकसंपन्नयता और संवेदनशीलता होती है।
शिक्षक होने की दुविधा दिल्ली के शिक्षक मुरारी झा ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि मैंने कुछ जटिल सवालों को समझने की कोशिश जरूर की है। ये सवाल हैं किएबदलते आर्थिक एवं सामाजिक परिवेश में जहाँ कोई माता.पिता अपने बच्चे को शिक्षक नहीं बनाना चाहता हैए एक शिक्षक किस प्रकार अपने लिए एक पहचान बनाता हैघ् एक शिक्षकए शिक्षक है या नौकरशाही के ढाँचे का अंतिम पायदान घ् और ऐसे कई सवालए लेखए उत्तर कम और सवाल ज़्यादा उत्पन्न करते हैं। हमारे छात्र हमसे उत्तरों की अपेक्षा किए बैठे रहते हैं और हम हैं कि उन्हें सवाल पे सवाल दिए जाते हैं ।
शिक्षक होने के मायने पेपर अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय,बेंगलूरु के हृदयकान्त दीवान ने प्रस्तुत किया।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में शिक्षक की भूमिका पेपर दिल्ली नगर निगम की अध्यापिका एवं एमफिल छात्रा रंजना ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि शिक्षा का उद्देश्य एक सजगए सचेत व सशक्त नागरिक तैयार करना है। ऐसा नागरिक जो विवेकशील होए जो विभिन्न मुद्दों व विषयों की समझ रखता हो और सीखने व पढने में रूचि रखता होए जो विवेकपूर्ण निर्णय लेने में परिपक्व हो आदि। शिक्षा व्यवस्था की संरचना के अंतर्गत बच्चों के साथ सीधे तौर पर शिक्षक ही जुड़ता हैए उनसे अंतरूक्रिया करता है। वह न सिर्फ विभिन्न विषयों से बच्चों को अवगत कराता है अपितु उसके सर्वांगीण विकास के लिएभी कार्यरत रहता है। इसी के साथ शिक्षा व्यवस्था में अन्य कुछ प्रशासनिक ढाँचे स्थापित किए गए हैं जिनकी भूमिका शिक्षक के कार्यों में मदद करने की है जिसे सपोर्ट सिस्टम का नाम दिया जाता है जिसके सुचारू रूप से कार्य करने से शिक्षक और भी अधिक प्रभावी रूप से कार्य करने में सक्षम होता है। इस सपोर्ट सिस्टम का सही प्रकार से कार्य न करने पर शिक्षक के प्रमुख कार्य यानी कक्षा में शिक्षण.अधिगम प्रक्रिया बाधित होती है जिसका सीधा असर बच्चों की सीखने की प्रक्रिया व उनके अकादमिक प्रदर्शन पर पड़ता है।
समकालीन शैक्षिक परिदृश्य में अध्यापक की भूमिका पेपर सोनिका चैहान ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि व्यावसायिक कौशल को बढ़ाने के छलावे के तहतअध्यापन की जटिल धारणा को एक सरल और अमानवीय प्रक्रिया से कम कर दिया गया है। शिक्षकों को उनकी स्वतंत्रता और अधिकार को सीमित करने के बजाय सशक्तएपरावर्तक और महत्वपूर्ण पेशावरों के रूप में देखा जाना चाहिए। इसके लिए शिक्षकों के लिए अपनी आवाज उठाने और पेशेवरों के रूप में एक सामूहिक एजेंसी बनाना आवश्यक हो जाता है।
आदर्श बालक की छवियां पेपर निधि गुलाटी ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि जिसतरह बच्चों को एक समाज में देखा जाता हैए समझाजाता हैए और व्याखित कियाजाता हैए यह समाज के बारे में भी हमें काफी कुछ समझ देता है। यह परचा इसीराजनीतिक चेतना को संबोधित करता है।इसमें शामिल है इन अन्योक्तियों औरअभिप्रयायों को सुलझानाए और कुरेदना जिससे बचपनए शिक्षा और लोक.सम्मितसंस्कृति का सम्बन्ध समक्ष रखता है।
शिक्षक विकास: शिक्षकों के साथ मिलकर काम करना पेपर अज़ीम प्रेमजी फाउण्उेशन ऊधमसिंह नगर उत्तराखण्ड के कमलेश चंद्र जोशी ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि शैक्षिक व्यवस्था में शिक्षकों के सतत विकास के लिए मुख्य मंच सर्व शिक्षा अभियान या डायट द्वरा आयोजित शिक्षक प्रशिक्षण ही होते हैं। शिक्षकों के येप्रशिक्षणएकढर्रे के आधार पर ही संचालित होते हैं।शैक्षिक व्यवस्था के द्वरासेवारतशिक्षक प्रशिक्षण के अंतर्गत शिक्षक विकास काजो मानक प्रतिरूप अपनाया जाता है। वह कैसकेड मॉडलपर आधारित ही होता है जिसमें शिक्षकों के प्रशिक्षणों ष्ऊपर से नीचेष् पहुँचाया जाता है जिसकी गुणवत्ता सवालों के घेरे में रहती है। इसकी नकोईठोस पूर्व तैयारी होती है न ही कोई प्रशिक्षण के उपरांत की। इस प्रकार यह साल में एक की जाने वाली गतिविधि का रूप ही ग्रहण कर पाती हैं और शिक्षकों में कोई सीखने की उत्सुकता नहीं जगा पाती।इनप्रशिक्षणों के अंतर्गतएक व्यवहारवादी नजरिया ही दिखलाई पड़ता है जिसमेंशिक्षकोंतक ज्ञान पहुँचाने का ही नजरिया रहता है ।इन कारणों सेसेवारत शिक्षक प्रशिक्षण एकष्पूरी कर दी जाने वाली गतिविधिष् के रूप में हीरह जाता है और शिक्षकों के लिए कक्षा की प्रक्रियाओं के स्तर पर कोईअर्थपैदा नहींकर पाता। एनसीएफटीई.2009 के अनुसारइन प्रशिक्षणों की गुणवत्ता बनाने के लिए जरूरी है कि इन प्रशिक्षणों मेंउनके स्कूल के अनुभव शामिल हों। इसके साथ प्रशिक्षण प्रक्रिया ऐसी होनी चाहिए जहाँ वे अपने विश्वासोंए मान्यताओंए कक्षागत व्यवहारों पर खुद से गहन विचार कर पाएँ।
शिक्षण में लचीलापन और बच्चों की मुखर होती आकांक्षाएँ रू प्रमोद दीक्षित ष्मलयष् सह.समन्वयक ;हिन्दी भाषाद्धएब्लॉक संसाधन केन्द्र नरैनीए जिला बांदाएउप्र ने कहा कि तैयारी करके कक्षा में जाना शुरू हुआ और तब मैंने पाया किसी पाठ को मैं कितने तरीकों से बच्चों के सामने रख सकता हूँ। यह सब करते हुए मैं बच्चों को समझते हुए अनायास उनके समीप चला जा रहा था और बच्चे भी मुझमें अपना अक्स देखने लगे थे। भाषाई भ्रम तोड़ने में ष्बच्चे की भाषा और अध्यापकष् ने सार्थक भूमिका निभाई। तब समझ पाया कि शिक्षक को बच्चे द्वारा उसके परिवेश से सीखे गए भाषा ज्ञान को स्कूल से जोड़ना होगा। उसके कोमल मन में सूचनाएँ ठूसने से बचना होगा। ष्ष्स्कूल में दाखिल होने तक बच्चे अपनी मातृभाषा की बुनियादी संरचनाओं पर अच्छा खासा अधिकार पा चुके होते हैं। पाँच वर्ष का बच्चा संदेशों को कार्य में बदलना जानता है। बच्चे के आसपास जो कुछ हो रहा होता हैए वह उसे अपनी सोच.विचार की छलनी से छान कर अपने भाषा.संयत्र का हिस्सा बना लेता है।
अब और चुनौतीपूर्ण हो गया है अध्यापन कर्म पेपर राजकीय हाईस्कूल भितांई,पौड़ी गढ़वाल,उत्तराखण्ड के शिक्षक मनोहर चमोली मनु ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि बदलाव समय की माँग है। लेकिन हर बदलाव पिछले बदलाव को सिर के बल उलटने के लिए होने लगें तो उससे नवाचारी अध्यापन कर्म छूटने लगता है। अध्यापन केवल कक्षा कक्ष तक सीमित रहने वाला कर्म नहीं है। वह स्कूल में प्रातःकालीन स्थल से लेकर छुट्टी का घण्टात बजने तक सीमित नहीं है। वह एक.दो साल में परिणाम देने वाला प्रगति.पत्र नहीं है। वह मात्र साल की परीक्षा लेने वाले मूल्यांकन पर केन्द्रित नहीं है। वह हर उस बच्चे की भाषा और उसकी समझ के विस्तार के साथ.साथ विद्यार्थियों के सामाजिक क्षेत्र में सकारात्मक व्यवहार पर भी केन्द्रित है। वह बच्चे के घरए पड़ोस और वय वर्ग में किए जा रहे व्यवहार पर भी केन्द्रित है।
गणित अध्यापक के रिफ्लेक्शन पेपर दिल्ली विश्वविद्यालय की हनीत गांधी व रुचि गर्ग ने प्रस्तुत किया।
राजनीति और समतावादी शिक्षा व्यवस्था: एक तुलनात्मक नजरिया पेपर अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के अमन मदान ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि शिक्षक अपना काम एक व्यापक शैक्षणिक एवं सामाजिक व्यवस्था के बीच खड़ा हो कर करता है। यह परिवेश है जो कुछ हद तक तय करता है कि क्या शिक्षक अपने काम के बोझ के नीचे दबा जा रहा है या उसे कुछ नया करने और सोचने का मौका मिलता है। क्या शिक्षक को अच्छी चतम.ेमतअपबम ट्रेनिंग मिलती है कि नहीं। क्या शिक्षक को समाज में सम्मान मिलता है या उसे एक कम पैसे और कम इज्ज्त वाले पेशे का मुलाजिम माना जाता है। शैक्षणिक और सामाजिक व्यवस्था काफ़ी हद तक इस पर प्रभाव डालती है कि क्या शिक्षकों सिर्फ उच्च सामाजिक समूहों के बच्चों को ही योग्य बना पाते हैं या क्या वे दबाये गए सामाजिक समूहों के बच्चों को भी उन के बराबर लाकर खड़ा कर पाते हैं।
अध्यापक की तैयारी पेपर भोपाल अज़ीम पे्रमजी फाउण्डेशन की भारती पंडित ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि अध्यापक की तैयारी बहुत मायने रखती हैक्योंकि इन सारी अपेक्षाओं के बरअक्स हमारे देश में शिक्षक शिक्षा विशेषतः सेवा पूर्व शिक्षक शिक्षा के प्रारूप को देखें तो स्थिति बड़ी ही जटिल दिखाई देती है। शिक्षक शिक्षा डीएडऔर बीएड इन दो उपाधियों के अंतर्गत संचालित की जाती है। इनके पाठ्यक्रम और अंतरण के तरीकों पर नजर डाली जाए तो ये अध्यापकों के वास्तविक जगत की तैयारी से पूरी तरह से असंबंधित दिखाई देते हैं जो कि जमीनी वास्तविकताओं से उनका परिचय नहीं कराते। यही स्थिति सेवाकालीन शिक्षक शिक्षा की भी है। ऐसे में इस क्षेत्र में कुछ ठोस प्रयास किए जाने अत्यंत आवश्यक हैं।
दूसरा दशक में आवासीय शिक्षण शिविर के अनुभव पेपर फलौदी, जोधपुर के मुरारी थानवी ने प्रस्तुत किया।
शिक्षक अधिगम केन्द्रों की स्थापना हेतु पहल पेपर छत्तीसगढ़ अजीम प्रेमजी फाउण्डेशन के सुरेश कुमार साहू, जयकिशन और नीरज राणा ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि शिक्षकों की तैयारी को शिक्षा प्रणाली से संबन्धित विभिन्न नीति दस्तावेज व अध्ययन रेखांकित करते रहें हैं। शिक्षक समुदाय स्वयं भी वर्तमान में प्रचलित प्रणालियों की खामियों को इंगित करते हुये बेहतर व्यवस्था की जरूरत महसूस करते रहे हैं। इनमें मुख्यतरू श्प्रशिक्षणश् केन्द्रित पद्धति में एकतरफा संवादए कक्षाओं की परिस्थितियों से सामंजस्य न होनाए तदर्थ प्रकृतिए ऐसे मंच की कमी जहाँ शिक्षक आपस में मिलकर अकादमिक मुद्दों पर चर्चा कर सकें व संसाधनों की कमी है। इनको ध्यान में रखकर अज़ीम प्रेमजी फाउण्‍डेशन ने शिक्षण अधिगम केन्‍द्र के स्थापना की कल्पना की। इसका आधार शिक्षकों का स्वैच्छिक भागीदारीए शिक्षकों के आसानी से पहुँच वाले स्थानएवं समय परए जहाँ शिक्षक विद्यालय समय उपरांत आ सकते हैं।
शिक्षा के उद्देश्य: अध्यापक का नज़रिया पारुल कालरा ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि अध्यापकों के अनुसार चरित्र निर्माणए सामाजिक जिम्मेवारीए स्थानीय ज्ञानए स्वायत्तताए बुनियादी क्षमताओं को महत्वपूर्ण शिक्षा के उद्देश्य है। अध्यापकों की अभिव्यक्ति में गौर करने वाली बातें सामने आई। उनका अर्थात शिक्षा का उद्देश्यों से वयस्क बनाने की तैयारी में था। अध्यापकों ने शैक्षिक उद्देश्यों को सिर्फ तकनीकी कौशल तक ही सीमित नहीं माना था अपितु उसमें नैतिक मूल्योंए सामाजिक योगदानए जिम्मेवार एवं स्वायत जीव बनने की परिकल्पना भी शामिल थी। अध्यापक के अनुसार यह जीवन भर चलने वाली प्रक्रिया है क्योंकि यह दीर्घकालिक तथा आवर्ती उद्देश्य हैं। अध्यापकों ने मनन एवं चिंतन कर पाना एक अहम गुण बताया और इस बात पर जोर दिया कि बच्चा सहीए गलत की पहचान कर पाए। दूसरा एक महत्वपूर्ण अवलोकन अध्यापकों की बातों में नजर आया कि उनके उद्देश्या सांस्कृतिक रूप से सन्निहित हैं। शैक्षिक उद्देश्यों के बारे में चर्चा करते समय उन्होंने ऐसी विशेषताओं और गुणों की बात की जो भारतीय संस्कृति में निहित हैं। अध्यापकों ने सकारात्मक सोचए सामाजिक जिम्मेवारीए कल्याणए मेहनती होनाए सच बोलना को बहुत जोर दियाए जिसके तहत उन्होंने पंचतंत्र की कहानियों के उदाहरण लिए। अध्यापकों ने शैक्षिक व्यवस्था पर उपनिवेशवाद का और पश्चिमी सभ्येता का असर होने के कारण आत्मविश्वास एवं प्रतिष्ठा एक महत्वपूर्ण उद्देश्य कहा। तीसरा अवलोकन अध्यापकों की बातों में यह नजर आया कि उनके लिए बुनियादी क्षमताओं के साथ साथ उच्च क्रम के उद्देश्य भी अर्थपूर्ण हैं। शैक्षिक उद्देश्य उनके लिए बहु आयामी हैं नाकि एकल आयामी हैं।
प्राथमिक कक्षाओं में शिक्षक छात्र संबंध पेपर टाटा इंस्टीटयूट आॅफ सोशल साइंसेस, हैदराबाद की निशा राजकुमार बुटोलिया ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि फ़िलहाल मै अपने पाँच वर्षीय बच्चे के लिए एक ऐसा स्कूल ढूँढ रही हूँ जहाँ वह सुरक्षित महसूस कर सके। वैसेही सहजता से रहेए बोलेए खेलेए सीखेए पूछेए विवाद करे जैसा वह घर पर करता है। उसे एक अच्छी शिक्षक मिल जाए जो उसके बाल मन को समझेए उसको समझाए और उसे प्रोत्साहन दे।
अक्सर मैंने लोगोसे सुना है कि स्कूल एक अलग ही तरह की जगह होती हैए वह घरजैसीतो होही नहीं सकती। उन लोगों का मानना है किस्कूल का दायित्व है कि वे आगेआने वाले जीवन की तैयारी करवाएँ। पन्द्रह . बीस साल बाद बच्चे जब बड़े हो जाएँगे तब उनसे क्या अपेक्षित होगा इसके आकलन पर तय होता है कि आज इन बच्चों के साथ क्या.क्या कराया जाए। आज इस बच्चे के लिए क्या जरूरी हैए इसका बचपन कैसा हैघ् यह क्या सोचता हैघ् इसके क्या सवाल हैं घ् इसको किसमें रुचि है घ् इसको किन.किन बातों में मजा आता हैघ् क्या इन सब के लिए पाठशालाओं में कोई जगह हैघ्
अभिभावक की नजर में अच्छे शिक्षक की परिकल्पना पेपर टाटा इंस्टीटयूट सोशल साइंसेस की ऋचा गोस्वामी ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि बच्चों की शिक्षा में अभिभावकों की भूमिका प्रमुख है। वे तय करते हैं कि बच्चे कौन से स्कूल में जाएँगेए स्कूल के अलावा किस तरह के और निवेश जैसे ट्यूशनए उन पर किए जाएँ और वे कहाँ तक शिक्षा प्राप्तक करें। इस कारण से अभिभावकों की शिक्षकों के प्रति धारणा और उनसे अपेक्षाएँ समझना रुचिकर और ज्ञानवर्धक होगा। अभिभावकों के हिसाब से एक अच्छे शिक्षक का क्या अभिप्राय हैघ् शिक्षकों के बारे में बातचीत करते वक्त वे किस तरह की उपमाओं का प्रयोग करते हैं और यह उनके प्रति अपेक्षाओं को कैसे प्रभावित करती हैंघ् एक अच्छे स्कूल की संकल्पना में शिक्षक को वे कितना अहम मानते हैंघ्
भारत में अध्यापन कर्म व उसमें बदलाव पेपर गणेशपुर प्राथमिक शाला उत्तरकाशी, उत्तराखण्ड की रेखा चमोली ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि विद्यालयों में अध्यापक बच्चों को अधिकाँश समय नियंत्रित करते हुए समय गुजारते हैं। ज्ञान को एक स्थाई उत्पाद मानते हुए बच्चों से अपेक्षा करते हैं कि वे किताबों में लिखे संदर्भों को बिना सवाल किए याद करलें। अधिकाँश विद्यालयों कि प्राथमिक कक्षाओं में स्वर और व्यंजनों को याद करने और लिखने में बच्चे घण्टोंो बिताते हैं और कोई भी व्यक्ति जो विद्यालय के बाहर से गुजर रहा हो वह पहाड़ों कि आवाज सुन सकता है। विडम्बना यह है कि अधिकाँश लोग भी इसी को शिक्षा मानते हैं। मैंने अपने अनुभव में शिक्षा अधिकारियों को बच्चों से पहाड़े पूछते और सामान्य ज्ञान के सवाल पूछते और बच्चों के द्वारा अपेक्षित उत्तर न देने पर शिक्षिका की ओर संदेह कि नजरों से देखते पाया है। स्कूली अध्यापकों को शिक्षित करने वाले अध्यापक भी कुछ इसी तरह का आचरण करते हैं। हालांकि कुछ शिक्षिकाएँ ऐसी भी हैं जो बच्चों से अथाह प्रेम के चलते उन्हें विविध प्रकार कि पठन सामग्री उपलब्ध करवाती हैं ताकि बच्चों में किताब पढ़ने की रुचि का विकास हो। साथ ही बच्चों के साथ उनके सामाजिक एवं भौतिक परिवेश के बारे में बातचीत करते हुए उनका ध्यान विभिन्न सामाजिक एवं भौतिक घटनाओं के पीछे के कार्य कारण संबंधों को समझने कि और भी ले जाती हैं।
पढ़ना सीखने की प्रक्रिया में अध्यापक की बदलती भूमिकाएं दिल्ली के शिक्षक अक्षय दीक्षित ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि आज भी शिक्षक के काम को एक पंक्ति में बताना हो तो यही बताया जाता है कि टीचर का काम है पढ़ाना। ष्पढ़ानाष् ही शिक्षक की पहचान बन गया है और पढ़ाने की शुरुआत ष्पढ़नाष् सिखाने से होती है।प्राथमिक स्तर के शिक्षक का तो पहला काम ही माना जाता है ष्पढ़नाष् सिखाना।सैकड़ों सालों से शिक्षक बच्चों और कभी.कभी बड़ों को भी ष्पढ़नाष् सिखाने की कोशिश किए जा रहे हैं और बच्चे ष्पढ़नाष् सीखते चले जा रहे हैं।इसके बावजूदए हैरानी की बात है कि अधिकतर शिक्षण कला सिखाने वाले संस्थानों में भावी शिक्षकों को यह बताया ही नहीं जाता कि बच्चों को पढ़ना कैसे सिखाया जा सकता है।ऐसे में वे पढ़ना कैसे सिखाते हैंघ्
भारत में अध्यापन कर्म व उसमें बदलाव पिपरिया,मध्य प्रदेश के शिक्षक मनोहर लाल पटेल ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि एक अध्यापक शाला में लगभग 6 घण्टे अपने विद्यार्थियों के साथ बिताता है। वह स्वयं भी सीखता और सिखाता भी है। अध्यापक की सीखने व सिखाने की क्रिया निरन्त र चलती है। शाला के बाहर भी स्वयं के परिवारए मोहल्ला समाज व नगर में उसके पास सीखने व सिखाने के विशाल भण्डािर हैं। योजनाबद्ध तरीके से अपने अन्द र संचित ज्ञान के भण्डा र को निःस्वार्थ होकर बाँटने का गुण उसे दूसरे लोगों से अलग करता है। शिक्षा वह धन हैए जो कभी खत्म नहीं होता बल्कि जितना बाँटों उतना ही बढ़ता है। उन्होंने कहा कि एनसीएफ 2005 में ष्ष्बस्ते का बोझष्ष् कम करने का प्रयास किया गयाए किन्तु क्या बस्ते का बोझ कम हुआघ् अध्यापक के उपर पाठ्यक्रम को समय सीमा में पूरा करने का बहुत दवाब होता है। इस दवाब के कारण अध्यापक एक दिन में एक अध्याय को पूरा करने का प्रयास करते हैं।
शिक्षण में अपनानी होगी मल्टी सेन्सरी अप्रोच पेपर विद्या भवन,उदयपुर के गिरीश शर्मा ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि बच्चों को नहीं पढ़ाने के पीछे शिक्षकों की मानसिकता हो सकती है। आठवीं तक न रोकने की नीति को गलत समझा गया और बच्चे को उसके भाग्य भरोसे छोड़ दिया। जबकि दूसरी ओर पढ़ाने में खामी की बात करें तो कक्षाओं में शिक्षण एक तरफा और पाठ्यपुस्तक केन्द्रित हो गया है। विद्यार्थियों की कक्षा में भौतिक उपस्थिति तो होती है किन्तु शारीरिक और मानसिक रूप से अनुपस्थित रहते हैं और एक मात्र ज्ञानेन्द्री ष्सुननेष् का उपयोग होता है। बालकों के सीखने को सुनिश्चि त करने के लिए विशेष प्रयासों की आवश्य कता है। इसमें विद्यार्थियों का जुड़ाव बहुत महत्वपूर्ण है।
भारत में शिक्षकों की पेशेवर पहचान पेपर दिल्ली विश्वविद्यालय की राधिका मेनन ने प्रस्तुत किया।
संगोष्ठी बेहद संतुलित,सारगर्भित,व्यवस्थित,क्रमबद्धित होते हुए भी बेहद प्रभावशाली रही। एक घण्टा दिन के भोजन और दो दिन आधा घण्टा चाय व एक दिन पन्द्रह मिनट चाय के समय को निकाल लें तो कुल तीन दिनों में सहभागियों-श्रोताओं ने बाईस घण्टे पन्द्रह मिनट चर्चा में भाग लिया।
बता दें कि आयोजकों के पास कुल 180 पेपर तैयार करने का फौरी मसविदा पहुंचा था। जिनमें से 116 पेपर पढ़ने के लिए तैयार मान लिए गए। वह तैयार भी हुए। अंततः प्रस्तुतियों के लिए 100 पेपर चयनित किए गए थे। जिनमें से भौतिक तौर पर मंच पर 73 पेपरों की प्रस्तुतियां हुईं। विभिन्न सत्रों में मंच पर 107 चेहरों को स्थान मिला। वहीं कुल सत्रों की प्रस्तुतियों के बाद 200 से अधिक सार्थक सवाल सहभागियों-श्रोताओं ने प्रस्तोताओं से पूछे। तीनों दिन सुनने आने वालों के लिहाज़ से तथ्यों को आंकड़ा देखंे तो यह भी दिलचस्प रहा। पेपर प्रस्तुत करने वालों की संख्या के अलावा दोनों सभागारों की संख्या जोड़ लें तो हर दिन औसतन दो सौ श्रोता बने रहे। सहभागी साथियों में लगभग बीस ऐसे शोधकर्ता थे जिन्हें संगोष्ठी में सहभागी होने का मौका भी मिला, भले ही उन्होंने प्रस्तुतियां नहीं दीं। अम्बेडकर विश्वविद्यालय के बीस से अधिक विद्यार्थियों ने स्वयसेंवी भावना से तीन दिन अपने आप को प्रस्तुत किया हुआ था। संगोष्ठी आयोजन समिति में दिनेश मडगांवकर,हृदयकांत दीवानए
मनीष जैन मनोज कुमार
रोहित धनकर रंजना राजेश उत्साही
शिवानी नाग की बात न हो तो अधूरा होगा। ये कभी परदे के आगे होते तो कभी परदे के पीछे। ये न होते तो शायद इतना अच्छा अवसर इतने अच्छे तरीके से सम्पन्न न होता।
कुछ सुझाव:
एक-एक तो सारे सत्र एक ही हाॅल में हों।
दूसरा-क्षेत्रीय सेमिनार भी हों।
तीसरा-समयबद्धता तो रहे ही लेकिन कई बार बहुत कम समय भी बहुत कम ही हो जाता है। कई सत्र समय की अधिकता के कारण नीरसता की ओर बढ़ जाते हैं।
चार-यह अच्छी बात है कि पढ़े जाने वाले पेपर का मसविदा सहभागियों को पंजीकरण के वक्त ही मिल गया था। लेकिन इस बात की पुख़्ता आश्वस्ति हो जाए और समग्र लेख सबको मिल जाते तो सोने पे सुहागा हो जाता।
पांच-संभव है कि आयोजक एक बार फिर सहभागियों से इन्हें फिर से संपादित करने के लिए कहें। यह तय है कि हिंदी में पढ़े जाने और समझे जाने वाले इतने गहरे और जरूरी आलेख,शोध अनुभव समग्रता के साथ कहीं छपे ही नहीं हैं। यदि इन्हें पुस्तक का आकार दिया जाए तो बेहतर होगा।
छःह-सवाल करने वाले सहभागियों को भी यह चेताने की जरूरी है कि मंच पर बैठे प्रस्तोताओं को पता तो चले कि आप प्रश्न पूछ रहे हैं या अपनी टिप्पणी या विचार व्यक्त कर रहे हैं।
सात-मेरे जैसे कई रहे जो कईयों से पहली बार मिले। मैं रोहित धनकर, राजेश उत्साही,हार्डी, श्याम मेनन, मनोज कुमार जी से बात करना चाहता था लेकिन तीन दिन कब बीते पता ही नहीं चला। एक सत्र एक घण्टे का ऐसा होता कि उसमें कुछ न होता और हम सब सहभागी आपस में बात करते। सेल्फी खींचते। एक-दूसरे का परिचय लेते।
आठ-एक समय में दो-दो सत्रों का अलग-अलग जगह पर संचालित होने का मकसद था लेकिन मेरे जैसे ऐसे कई थे जो दोनों अलग-अलग स्थलों पर सत्रों को सुनना चाहते थे।
नौ-मसविदा सौ ही छपे थे। जबकि दो सौ से अधिक सहभागी आते रहे और जाते रहे। मेरे कई साथियों ने कहा था कि यार छपी सामग्री की एक-एक काॅपी लेते आना। हालांकि हमने आयोजक समिति से कहा और उन्होंने हमारी बात रख भी ली कि यह स्वीकृति देकर कि हम जिन किसी के भी मेल देंगे वह आरंभिक विचारों की बानगी 168 पेज की बुकलेट की पीडीएफ काॅपी सभी को भेज देंगे।
दस-आस-पास किसी एक छोटे से दर्शनीय स्थल में आने-जाने की मस्ती टाइम भी होना चाहिए था। वह चाहे छह बजे के बाद ही होता। हम सभी को लाने-ले-जाने के लिए एक पूरी बस थी। उसका थोड़ा सा और उपयोग हो जाता।
(अभी है...)
-मनोहर चमोली
राजकीय हाईस्कूल भितांई,पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखण्ड
मोबाइल-07579111144