15 नव॰ 2010

कैसा ज्ञान [ katha ]

एक मशहूर विद्वान राजा के दरबार में उपदेश दे रहा था। इतिहास, संस्कृति, कला, साहित्य, विज्ञान, राजनीति और समाज से जुड़े कई प्रसंग वह सुना चुका था। वह धाराप्रवाह अपनी बात रख रहा था। विद्वान की हर विषय पर लगातार एकतरफ़ा विचार प्रकट करने की सामर्थ्य से सभी हतप्रभ थे। वह स्वयं को प्रकाण्ड विद्वान घोषित करने के सारे उपाय अपनाने को आतुर था।

दोपहर हो गई। मगर विद्वान था कि लगातार अपना ज्ञान बघार रहा था। दोपहर बीत गई। विद्वान को अचानक जैसे कुछ याद आया। उसने राजा से कहा-‘‘अरे हाँ। सुना है कि आपके दरबार में कोई ज्ञानी है। इतना ज्ञानी कि आपने उसका नाम ही ज्ञान सिंह रख दिया है। आप उसे बड़ा विद्वान बताते हैं। जरा हम भी तो देखें उसकी विद्वता।’’ ज्ञान सिंह को जैसे इसी अवसर की तलाश थी। वह उठा और विद्वान के पास जा पहुँचा। ज्ञान सिंह के हाथ में सुराही और एक पात्र था। उसने विद्वान से कहा-‘‘लीजिए। पहले जल ग्रहण कीजिए।’’ यह कहकर ज्ञान सिंह सुराही के जल को पात्र में उड़ेलने लगा। पात्र भर गया। मगर ज्ञान सिंह पात्र में फिर भी जल उड़ेलता ही जा रहा था। विद्वान ने चौंकते हुए कहा-‘‘बस करो। ये क्या कर रहे हो? दिखाई नहीं देता ? पात्र तो कब का भर चुका है।’’

ज्ञान सिंह ने कहा-‘‘मैं भी तो आपसे यही कहना चाहता हूँ। मैं ही ज्ञान सिंह हूँ। किन्तु अपनी विद्वता मैं आपको कैसे दिखाऊं? आप के ज्ञान का पात्र भी तो भरा हुआ है। मैं जो कुछ भी कहूँगा, वो भी इस जल की तरह छलक कर बाहर गिर जाएगा।’’

यह सुनकर विद्वान सकपका गया। दरबार में सन्नाटा छा गया। विद्वान अपनी झेंप मिटाते हुए राजा से कहने लगा-‘‘महाराज। अब तक मैंने मात्र सुना ही था कि आपके दरबार में ज्ञान सिंह है। आज इस रत्न के साक्षात दर्शन भी कर लिए हैं। मैं ज्ञान सिंह को प्रणाम करता हूँ।’’ ज्ञान सिंह ने सिर झुकाकर महाराज का अभिवादन किया।

महाराज मंद ही मंद मुस्करा रहे थे। वहीं दरबारी ज्ञान सिंह की विद्वता पर तालियाँ बजा रहे थे।

मनोहर चमोली 'मनु'
पोस्ट बॉक्स-23, पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड - 246001 मो.-9412158688.

10 नव॰ 2010

दूर हुई परेशानी [ बचपन ]

एक गाँव में रसीले आम का पेड़ था। लेकिन बच्चे थे कि हर बार आम पकने से पहले ही उन्हें तोड़ कर खा लेते थे।

एक दिन आम का पेड़ उदास था। हवा ने उससे पूछा-‘क्यों भाई। क्या बात है?’

आम के पेड़ ने कहा-‘हवा बहिन। क्या बताऊँ? काश। मैं किसी घने जंगल में उगा होता। आबादी के पास हम फलदार वृक्षों का होना ही बेकार है। मुझे देखो। मैंने अब तक अपनी काया में पके हुए फल नहीं देखे। ये इन्सानों के बच्चे फलों के पकने का भी इंतज़ार नहीं करते। देखो न। गाँव के बच्चों ने मुझ पर चढ़-चढ़ कर मेरे अंगों का क्या हाल बना दिया है। कई टहनियों और पत्तों को तोड़ डाला है। फल तो ये पकने ही नहीं देते।’

हवा मुस्कराई। फिर पेड़ से बोली-‘पेड़ भाई। दूर के ढोल सुहावने होते हैं। घने जंगल में फलदार वृक्ष तो तुमसे भी ज़्यादा दुखी हैं।’

‘मुझसे ज़्यादा दुखी है ! क्या बात कर रही हो ?’ पेड़ ने चौंकते हुए पूछा।

‘और नहीं तो क्या। जंगल के फलदार पेड़ अपने ही शरीर के फलों से परेशान रहते हैं। पेड़ों में फल बड़ी संख्या में लगते हैं। वहां फलों को खाने वाला तो दूर तोड़ने वाला भी नहीं होता। पक्षी कितने फल खा पाते हैं। फल पेड़ पर ही पकते हैं। पेड़ बेचारे अपने ही फलों का वज़न नहीं संभाल पाते। अक्सर फलों के बोझ से पेड़ों की कई टहनियां और शाख टूट जाती हैं। पके फलों का बोझ सहते-सहते पेड़ का सारा बदन दुखता रहता है। जब फल पक कर गिर जाते हैं, तभी जंगल के पेड़ों को राहत मिलती है। यही नहीं ढेर सारे पके हुए फल पेड़ के इर्द-गिर्द गिरकर ही सड़ते रहते हैं। पेड़ बेचारे अपने ही फलों की सड़ांध में चुपचाप खड़े रहते हैं।’ हवा ने बताया।

‘अच्छा! बहिन। फिर तो मैं ऐसे ही ठीक हूँ। मेरे फल इतने मीठे हैं, तभी तो बच्चे उनका पकने का इंतज़ार तक नहीं करते। याद आया। पतझड़ के मौसम में बच्चे मेरे पास भी फटकते नहीं हैं। उन दिनों मैं परेशान हो जाता हूँ। एक-एक दिन काटे नहीं कटता। तब मैं सोचता तो हूं कि आख़िर वसंत कब आएगा। रही बात मेरी टहनियों और पत्तों की तो वसंत आते ही मेरे कोमल अंग उग आते हैं।’ आम के पेड़ ने हवा से कहा।

हवा मुस्कराते हुए आगे बढ़ गई।


मनोहर चमोली 'मनु'
पोस्ट बॉक्स-23, पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड - 246001 मो.- 9412158688
manuchamoli@gmail.com

9 नव॰ 2010

वसंत कब आएगा ? [ बाल कथा ]

एक गाँव में रसीले आम का पेड़ था। लेकिन बच्चे थे कि हर बार आम पकने से पहले ही उन्हें तोड़ कर खा लेते थे।

एक दिन आम का पेड़ उदास था। हवा ने उससे पूछा-‘क्यों भाई। क्या बात है?’

आम के पेड़ ने कहा-‘हवा बहिन। क्या बताऊँ? काश। मैं किसी घने जंगल में उगा होता। आबादी के पास हम फलदार वृक्षों का होना ही बेकार है। मुझे देखो। मैंने अब तक अपनी काया में पके हुए फल नहीं देखे। ये इन्सानों के बच्चे फलों के पकने का भी इंतज़ार नहीं करते। देखो न। गाँव के बच्चों ने मुझ पर चढ़-चढ़ कर मेरे अंगों का क्या हाल बना दिया है। कई टहनियों और पत्तों को तोड़ डाला है। फल तो ये पकने ही नहीं देते।’

हवा मुस्कराई। फिर पेड़ से बोली-‘पेड़ भाई। दूर के ढोल सुहावने होते हैं। घने जंगल में फलदार वृक्ष तो तुमसे भी ज़्यादा दुखी हैं।’

‘मुझसे ज़्यादा दुखी है ! क्या बात कर रही हो ?’ पेड़ ने चौंकते हुए पूछा।

‘और नहीं तो क्या। जंगल के फलदार पेड़ अपने ही शरीर के फलों से परेशान रहते हैं। पेड़ों में फल बड़ी संख्या में लगते हैं। वहां फलों को खाने वाला तो दूर तोड़ने वाला भी नहीं होता। पक्षी कितने फल खा पाते हैं। फल पेड़ पर ही पकते हैं। पेड़ बेचारे अपने ही फलों का वज़न नहीं संभाल पाते। अक्सर फलों के बोझ से पेड़ों की कई टहनियां और शाख टूट जाती हैं। पके फलों का बोझ सहते-सहते पेड़ का सारा बदन दुखता रहता है। जब फल पक कर गिर जाते हैं, तभी जंगल के पेड़ों को राहत मिलती है। यही नहीं ढेर सारे पके हुए फल पेड़ के इर्द-गिर्द गिरकर ही सड़ते रहते हैं। पेड़ बेचारे अपने ही फलों की सड़ांध में चुपचाप खड़े रहते हैं।’ हवा ने बताया।

‘अच्छा! बहिन। फिर तो मैं ऐसे ही ठीक हूँ। मेरे फल इतने मीठे हैं, तभी तो बच्चे उनका पकने का इंतज़ार तक नहीं करते। याद आया। पतझड़ के मौसम में बच्चे मेरे पास भी फटकते नहीं हैं। उन दिनों मैं परेशान हो जाता हूँ। एक-एक दिन काटे नहीं कटता। तब मैं सोचता तो हूं कि आख़िर वसंत कब आएगा। रही बात मेरी टहनियों और पत्तों की तो वसंत आते ही मेरे कोमल अंग उग आते हैं।’ आम के पेड़ ने हवा से कहा।

हवा मुस्कराते हुए आगे बढ़ गई।


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बुरा है नकल करना [ प्रेरक प्रसंग ]

गांधी जी उस समय छात्र थे। उनका नाम मोहन दास था। स्कूल का निरीक्षण था। विद्यालय निरीक्षक आए। निरीक्षक ने छात्रों की लिखाई जांचनी चाही। उन्होंने सभी बच्चों को एक साथ बिठाया। मोहन दास भी बैठ गया। निरीक्षक ने पाँच शब्द बोले और कहा कि सभी बोले गए पांच शब्दों को कॉपी पर लिखें। विद्यालय के शिक्षक घूम-घूमकर निरीक्षण कर रहे थे। शिक्षक ने देखा कि मोहन दास शब्दों की मात्राएं ग़लत लिख रहे हैं। शिक्षक ने मोहन दास को इशारा किया कि बगल में बैठे हुए सहपाठी की कॉपी से देख ले। मोहन दास ने ऐसा नहीं किया। उसने अपने हिसाब से ही बोले गए शब्दों की वर्तनी लिखी। निरीक्षक के चले जाने पर शिक्षक ने मोहन दास से कहा-‘‘तुमने शब्दों की सही वर्तनी नहीं लिखी। मैंने बगल में बैठे हुए सहपाठी की कॉपी से देख लेने को भी कहा। तुमसे देखा भी नहीं गया। क्यों?’’ मोहन दास बोले-‘‘गुरुजी। मैं किसी दूसरे की कॉपी से देखकर शब्दों को अपनी कॉपी पर उतार सकता था। मगर मैंने ऐसा नहीं किया। ये तो नकल करना हुआ। नकल करना बुरी बात है।’’ मोहन दास का यह उत्तर सुनकर शिक्षक चुप हो गए। शिक्षक जान चुके थे कि मोहनदास बालक बड़ा होकर सत्य का पुजारी बनेगा। सबके हित की बात करना और जन सरोकारों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की आदत गांधी जी ने बचपन में ही विकसित कर ली थी। गाँधीजी ने सत्य, अहिंसा और प्रेम के साथ-साथ सत्याग्रह को अपने जीवन में उतारा। आज समूची दुनिया इस युगपुरुष के आदर्शों पर चलना महान कार्य मानती है।


मनोहर चमोली 'मनु'
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6 नव॰ 2010

छोड़ दी बैठक...'हास्य कथा'...Manohar Chamoli 'manu'

एक गांव था। गांव में एक सेठ था। सेठ अनपढ़ था। सेठ के तीन बेटे थे। बड़का, मंझला और छुटका। सेठ ने अपने बच्चों को भी स्कूल नहीं भेजा। सेठ एक ही बात कहता,‘‘छतरी वाले का सब कुछ दिया हुआ है। पढ़ाई-लिखाई करा के किसी की चाकरी तो करानी नहीं है।’’

बड़का कुछ समझदार था। मंझला और छुटका आलसी थे। दोनों मूर्खों जैसी बातें करते। सेठ का एक मुनीम था। वो सेठ के लेन-देन का हिसाब रखता। एक दिन की बात है। मुनीम बोला-‘‘चाचाजी गुज़र गए।’’ सेठ बोला-‘‘किधर से गुज़रे। यहां से तो नहीं गए। किस रास्ते से गए होंगे?’’

मुनीम ने सिर पकड़ते हुए कहा-‘‘ वह भगवान के यहां चले गए।’’ सेठ बोला-‘‘हो सकता है कुछ बकाया रहा हो। चाचाजी अपनी दुकान छोड़कर वैसे कहीं नहीं जाते। ज़रूर कोई देनदारी रही होगी।’’ मुनीम ने खीजते हुए कहा-‘‘वह नहीं रहे। चाचाजी मर गए हैं। मर। उनके घर में रोना-धोना चल रहा है।’’ सेठ धीरे से बोला-‘‘ये तो बुरा हुआ। चाचाजी की दुकान है। खैर कोई बात नहीं। उनके घरवालों को किसी चीज़ की परेशानी नहीं रहेगी।’’

मुनीम ने फिर अपना सिर पकड़ लिया। चारपाई पर बैठते हुए बोला-‘‘लालाजी की घरवाली है। तीन छोटे-छोटे बच्चे हैं। बूढ़ी मां है। कई लोग चाचाजी के ग्राहक थे। हज़ारों की लेनदारी थी। सारा गांव चाचाजी की चौखट पर जमा हो रहा होगा। आपको चाचाजी के परिवार की मदद करनी चाहिए।’’ 
सेठ सिर खुजाने लगा। बोला-‘‘वो मेरे भी तो चाचाजी थे। पर तुम तो जानते ही हो। मैं बैठक छोड़ कर कभी कहीं नहीं गया। हर काम बैठकर ही निपटायें हैं। मैं किसी की मौत में भी नहीं गया। मैं नहीं जानता कि वहां जाकर क्या करना होता है। क्या कहना होता है। मुझे तो किसी गीदड़ का रोना भी अच्छा नहीं लगता। बच्चों को भी समझदार बनाना है। मेरा छुटका चला जाएगा। दस हज़ार रुपये दे आएगा।’’ छुटका रुपये लेकर चाचाजी के घर की ओर चल पड़ा।

गांव वाले चाचाजी के घर से लौट रहे थे। किसी ने कहा-‘‘ चाचाजी को शराब खा गई। जुए की लत अलग थी। चाचाजी का परिवार रोज़-रोज़ के झमेले से तो बचा। अब कम से कम बच्चे तो चैन से जी सकेंगें।’’ छुटके ने भी यह सब सुना। छुटका चाचाजी के घर जा पहुंचा। रोना-धोना चल रहा था। रिश्तेदार बैठे हुए थे। छुटका सीधे चाची के पास गया। छुटका बोला-‘‘ये रुपए हैं। सेठजी ने भिजवाएं हैं। परेशान न हों। चाचाजी को शराब खा गई। उन्हें जुए की लत पड़ गई थी। जो हुआ ठीक हुआ। आप लोग रोज़-रोज़ के झमेले से तो बच गए। अब आप चैन से तो रहेंगे।’’ 
यह सुनकर चाची ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। आस-पास बैठे लोगों ने छुटके को पीट डाला। छुटका किसी तरह जान बचाकर भागा। छुटका लौट आया। सेठ को सारा क़िस्सा सुनाया। सेठ ने मंझले को बुलाया। उसे बीस हज़ार रुपए दिए। सेठजी मंझले से बोले-‘‘छुटके ने गड़बड़ कर दी है। अब तू जा। चाचीजी से माफी मांग आ। कुछ ग़लत मत कहना। चुप ही रहना।’’ मंझला चाचाजी के घर जा पहुंचा। रोना-धोना चल ही रहा था। कोई बोला-‘‘सेठजी से ऐसी आशा नहीं थी। ऐसे बुरे समय में तो दुश्मन भी भला ही सोचते हैं।’’

मंझला बोला-‘‘सेठजी ने मुझे भेजा है। पहले छुटका आया था। वो अभी बच्चा है न। कुछ ग़लत बोल गया। अब कभी ऐसा नहीं होगा। आगे से आपके घर में जो कोई भी मरेगा, तो छुटका नहीं आएगा। मैं ही आऊँगा।’’ चाची ने यह सुना तो वो और दहाड़े मार कर रोने लगी। मंझले की भी धुनाई हुई। बात बिगड़ गई। मुनीम ने बीच-बचाव कर बात को संभाला। बात आई-गई हो गई।

दिन बीतते चले गए। चाचाजी का श्राद्ध होना था। मुनीम सेठ से बोला-‘‘ अब तो आप जाओ।’’ मगर सेठजी नहीं गए। अब बड़के को बुलाया। कहा-‘‘सुन बड़के। छुटके और मंझले ने तो गड़बड़ कर दी थी। तू जा। कुछ कमाल कर आ। तीस हज़ार रुपये ले जा। सारी क़सर पूरी कर देना।’’

बड़का नए ज़माने की सोच का था। रुपये लेकर गया। मगर लौट आया। सारे रुपये वापिस ले आया। सेठ ने पूछा तो बड़का बोला-‘‘आपके चाचाजी तंगी में रहे। सारा शरीर दुकान में झोंक डाला। वे दुकान में उठते और दुकान में ही सोते थे। जीते जी कोई सुख न भोग सके। श्राद्ध पर पूरा गांव जीमा हुआ है। दस तरह के पकवान बने हुए हैं। चाचाजी के बकायेदार भी बेशर्म होकर पंगत में बैठे हैं। अंगुलियां चाट रहे हैं। श्राद्ध न हुआ गिद्ध भोज हो गया। बरतन-भांडे दान किए जा रहे हैं। आपके चाचाजी ने जो कमाया उसे श्राद्ध के नाम पर लुटाया जा रहा है। ऐसी लूट के लिए एक रुपया भी देना बेकार है।’’

सेठ मुनीम का मुंह ताक रहे थे। मुनीम बोला-‘‘हमारे बड़के बाबू ने ठीक किया। सेठजी दुनियादारी की समझ बैठक में बैठ कर नहीं होती। समाज में उठने-बैठने से होती है। चाचाजी का बचा-खुचा रुपया श्राद्ध के नाम पर लुटाने का क्या तुक है।’’ सेठ ने हंसते हुए कहा-‘‘ ठीक कहते हो। चाचाजी के परिवार की मदद तो करनी ही होगी। मगर मदद करने का तरीक़ा दूसरा खोजना होगा। आज से हम ये बैठक छोड़ते हैं। समाज में घुलेंगे। उठेंगे-बैठेंगे। सामाजिक सरोकारों को समझेंगे। सहयोग और मदद भी करेंगे।’’ मुनीम ने बड़के से रुपये वापिस लिए और तिजोरी में रख दिए।
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-मनोहर चमोली 'मनु'
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4 नव॰ 2010

गुल्लक [ बाल कथा ]

-मनोहर चमोली 'मनु'


वन में बिल्ली और चूहा रहते थे। चूहा चंचल था, मगर था बहुत होशियार। बिल्ली फुर्तीली थी, मगर वो लापरवाह भी थी। हर काम को कल पर टाल देती। चूहा बिल्ली को चिढ़ाता और बिल्ली कई बार चूहा को दबोच लेती। चूहा माफ़ी मांगता और बिल्ली उसे छोड़ देती। दोनों बात-बात पर झगड़ते, मगर एक-दूसरे के बिना रह भी नहीं पाते। एक बार चूहा बहुत बीमार हुआ। बिल्ली को पता चला तो वो उसके लिए बंदर से दवाई ले आई। मक्का, धान और गेंहू के बीज उसके बिल में पहुंचा आई। एक बार कुत्ते ने बिल्ली को काट लिया। बिल्ली ने बड़ी मुश्किल से जान बचाई। चूहा को जैसे ही पता चला वो हल्दी की गाँठ ले आया। उसे पीसा। तेल के साथ मिलाकर उसने बिल्ली के जख़्मों में लगाया। तीन-चार दिनों तक चूहा ने बिल्ली की ख़ूब सेवा की। वन में सभी एक ही बात कहते-‘‘दोस्ती हो तो बिल्ली और चूहा जैसी।’’

एक दिन की बात है। चूहा और बिल्ली आम के पेड़ के नीचे बैठे हुए थे। गधा भी पास में घास चर रहा था। गधा बोला-‘‘तुम दोनों भी अजीब हो। एक पल में लड़ते हो और दूसरे पल में एक हो जाते हो। लेकिन तुम दोनों में ज़्यादा समझदार कौन है?’’ एक पल के लिए तो बिल्ली और चूहा चुप रहे। फिर दोनों एक साथ बोल पड़े। दोनों ख़ुद को ज़्यादा समझदार बताने लगे। गधा बोला-‘‘सुनो। अपने लिए तो हर कोई समझदार हो सकता है। मगर तुम दोनों में जो भी वन की भलाई के लिए काम करेगा, उसे ज़्यादा समझदार माना जाएगा। तुम दोनों को अपनी क़ाबिलियत प्रमाणित करने के लिए दो माह का समय दिया जाता है। ठीक दो माह बाद हम यहीं मिलेंगे।’’ यह कहकर गधा चला गया। बिल्ली ने सोचा कि अभी तो दो महीने हैं। आराम से सोचा जाएगा, कि आआख़ि क्या किया जाये। मगर चूहा को रात भर नींद नहीं आयी। वो सोचता रहा कि दो महीनें के बाद ऐसा क्या हो, कि वन के लिए भलाई का काम किया जा सके।

सुबह हुई, वो बाज़ार चल दिया। उसके पास सिर्फ़ पाँच रुपए थे। उसने सुना था कि पैसा ही पैसे को कमाता है। उसने अपने आप से कहा-‘‘मुझे कुछ ऐसा ख़रीदना है, जिससे कुछ बड़ा काम किया जा सके।’’ शाम हो गई थी। वो बाज़ार में घूमता रहा। मगर उसे ऐसा कुछ नहीं मिला, जिसे वो ख़रीद पाए। निराश मन से चूहा घर लौटने लगा। तभी उसकी नज़र एक दूकान पर पड़ी। उस दूकान में मिट्टी के बरतन बिक रहे थे। उसने पाँच रुपए में एक गुल्लक ख़रीद लिया। उसे लेकर वो घर आ गया। घर आकर उसने अपनी दादी और दादा से कहा-‘‘आप हर रोज़ मुझे एक-एक रुपया देंगे। देखो। मैं अपने लिए मिट्टी का गुल्लक लाया हूँ।’’ चूहा के दादा-दादी तैयार हो गए।

अब चूहा को हर दिन दो रुपए मिल रहे थे। वो उन्हें गुल्लक में डाल देता। गुल्लक रेज़गारियों के वज़न से भारी होता जा रहा था। चूहा के पिता को जब गुल्लक के बारे में पता चला तो वे भी बहुत ख़ुश हुए। वे अनाज के व्यापारी थे। उन्होंने चूहा से कहा-‘‘अगर तुम शाम को गोदाम में आओ, और सिर्फ़ बची बोरियों को गिनकर मेरे मुंशी को बताओ, तो मैं भी तुम्हें हर रोज़ एक रुपया दे सकता हूँ।’’ चूहा इस काम के लिए तैयार हो गया। वो क्षण भर में ही सारी बोरियां गिन लेता और मुंशी से एक रुपया लेना नहीं भूलता। चूहा की लगन देखकर चूहा की मम्मी भी ख़ुश हुई। वो चूहा से बोली-‘‘अगर तुम सुबह ज़ल्दी उठकर अपना सबक याद कर लो और एक सुलेख लिखकर मुझे दिखाओ तो मैं भी तुम्हें एक रुपया रोज़ दे सकती हूँ।’’

चूहा को ये काम भी सरल लगा। अब चूहा को हर रोज़ चार रुपए मिलने लगे। एक दिन चूहा ने मुंशी से पूछ लिया-‘‘चार रुपए के हिसाब से दो महीने में कितने रुपए जमा हो जाएंगे।’’ मुंशी ने जोड़कर बताया-‘‘साठ दिन के दो सौ चालीस रुपए।’’ मुंशी ने जब चूहा से पूछा तो चूहा ने गुल्लक वाला सारा किस्सा सुना दिया। मुंशी जी भी ख़ुश हुए। वे बोले-‘‘अरे वाह! ये लो साठ रुपये। मेरी ओर से एक दिन का एक रुपया। मैंने भी तुम्हारे गुल्लक के लिए दे दिए।’’

चूहा दौड़कर आया और उसने वे साठ रुपये भी गुल्लक में डाल दिए। उसने दादा जी से पूछकर हिसाब लगा लिया कि उसके गुल्लक में तीन सौ रुपए इस तरह कब तलक जमा हो जाएंगे। चूहा मन ही मन बहुत ख़ुश था। अब वो ऐसे काम के बारे में सोचने लगा, जिसे करने से वन का कुछ भला हो सके। अचानक उसे ध्यान आया कि नन्हें जीवों को नदी या तालाब में पानी पीने में दिक्कत होती है। कई बार तो छोटे जीव पानी पीने के चक्कर में बह भी जाते हैं। उसने अपने आप से कहा-‘‘क्यों न चौपाल पर और आम चौराहे पर प्याऊ खुलवाये जाएं। छोटे-छोटे तालाब बनाए जाएं। जहाँ बारिश का पानी जमा हो सके।’’

चूहा ने दो माह पूरे होने का इंतज़ार भी नहीं किया। सन्नी बंदर और उसके मज़दूरों से उसने बात की। अपना मकसद बताया। सन्नी बोला-‘‘तुम तो नेक काम की शुरुआत कर रहे हो। मैं क्या कोई भी इस काम को करने से मना नहीं करेगा। मैं कल से ही काम शुरू कर देता हूँ। तीन सौ रुपये में तो छोटे-छोटे तीन तालाब बन ही जाएंगे। एक तालाब मैं अपनी और से बनाऊँगा, उसकी मजदूरी भी नहीं लूंगा।’’ एक सप्ताह में वन में चार तालाब बन गए। चारों ओर ये ख़बर आग की तरह फैली कि ये तालाब चूहा ने बनवाए हैं। बात शेर राजा के कानों में भी पहुंची। उसने दरबार में चूहा को बुलवाया। चूहा ने सारा किस्सा सुनाया। बिल्ली और गधा भी दरबार में ही थे। बिल्ली ने कहा-‘‘महाराज। चूहा ने दो माह से पहले ही ऐसा काम कर दिया जो मैं सपने में भी नहीं सोच सकती थी। वाकई चूहा समझदार है।’’

अब गधा बोला-‘‘महाराज। बूंद-बूंद से घड़ा भरता है। चूहा ने एक-एक रुपया जोड़ कर इतने रुपए इकट्ठे किए। चूहा ने हमें बचत का रहस्य तो समझाया ही है, उसके फायदे भी बता दिए हैं। वन के सभी निवासी अगर फ़िजूलख़र्ची न करें और छोटी-छोटी बचत करें, तो वो बचत भविष्य में काम आ सकती है।’’ शेर ने वन के निवासियों से कहा-‘‘आज से ही नहीं, अभी से प्रजा बचत की आदत डाले। हर एक के पास एक गुल्लक होना चाहिए। संकट में और भविष्य में जमा किया हुआ रुपया बहुत काम आ सकता है। हम चूहा को अपना सलाहकार भी बनाते हैं।’’ दरबारियों ने चूहा के लिए ज़ोरदार तालियाँ बजाई। चूहा जाने लगा। राजा ने पूछा-‘‘कहाँ चल दिए?’’ चूहा बोला-महाराज। बड़ा गुल्लक ख़रीदने।’’ दरबार में फिर से तालियाँ बजने लगीं।

-मनोहर चमोली 'मनु'

पोस्ट बॉक्स-23, पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड - 246001 मो.- 9412158688.
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2 नव॰ 2010

धनदान नहीं श्रमदान- .......प्रेरक प्रसंग

प्रसिद्ध सेवाग्राम आश्रम बन रहा था। यह आश्रम वर्धा से पाँच मील दूरी पर था। हर कोई सेवाग्राम आश्रम बनाने में सहयोग करना गौरव की बात मान रहा था। गांधीजी सेवाग्राम स्थल पर ही झोपड़ी बना कर रह रहे थे। कई लोग शाम को वापिस वर्धा लौट जाते। वर्धा से आश्रम स्थल आने-जाने का रास्ता बेहद ख़राब था। कहीं ऊबड़-खाबड़ तो कहीं ऊँचा-नीचा।

एक दिन की बात है। किसी ने कहा-‘‘बापू। यदि आप प्रशासन को एक पत्रा लिख दें, तो ये रास्ता ठीक बन सकता है।’’ अन्य लोगों ने भी इस सुझाव का समर्थन किया। गांधी जी ने मुस्कराते हुए कहा-‘‘प्रशासन को लिखे बग़ैर भी ये रास्ता ठीक हो सकता है।’’ कोई समझ नहीं पाया। गांधी जी बोले-‘‘यदि हर कोई वर्धा से आते-जाते समय इधर-उधर पड़े पत्थरों को रास्ते में बिछाता जाए तो रास्ता ठीक हो सकता है।’’

अगले दिन से यह काम शुरू हो गया। आते-जाते समय लोग पत्थरों को रास्ते के लिए डालते और गांधीजी उसे समतल करते जाते। देखते ही देखते रास्ता बनने की स्थिति में आने लगा।

गांधीजी के एक प्रशंसक थे। बृजकृष्ण चाँदीवाल। वे भी आश्रम देखने आए। उनका शरीर काफ़ी भारी था। पाँच मील का ख़राब रास्ता तय करते हुए हांफते हुए चाँदीवाल किसी तरह आश्रम पंहुचे। गाँधीजी आदत के अनुसार उन्हें आदर से बिठाने लगे। बृजकृष्ण चाँदीवाल अपना पसीना पोंछते हुए गाँधीजी से बोले-‘‘क्या दो-दो पत्थरों को इधर-उधर करने से ये रास्ता बन जाएगा? यदि आप रास्ते का काम प्रशासन से नहीं करवा सकते तो बताइए, इस रास्ते के लिए कितने धन की आवश्यकता है? मैं ही दे दूंगा।’’

गाँधी जी मुस्कराते हुए बोले-‘‘आपके दान से हमें लाभ होगा। लेकिन धनदान नहीं, हमें आपका श्रमदान चाहिए। बूंद-बूंद से घड़ा भरता है। यदि आप हमारे साथ जुड़ेंगे तो इसके तीन फायदे होंगे। एक तो हमारा आश्रम ठीक होगा। दूसरा आपका धन बचेगा। तीसरा आपका मोटापा कम होगा और आप निरोगी भी हो जाएंगे।’’

यह सुनकर चाँदीवाल ठहाका मारकर हँसने लगे। वे समझ गए कि गांधी जी धन की जगह सहयोग और श्रमदान को अधिक महत्व देते हैं।


मनोहर चमोली 'मनु'
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1 नव॰ 2010

ये मच्छर [ शिशु ...गीत ]

भन भन करते आते मच्छर,
मंडराते हैं पास में
यहाँ-वहाँ और गली-गली,
क्या खोली मकान में
सुबह शाम हो दिन या रात,
जुट जाते ये काम में
ख़ून चूसना इनको भाता,
शोर मचाते कान में
रुका हुआ पानी है ख़तरा,
साफ़-सफाई रक्खो भइया
ये हैं रोगों के बाराती,
आफ़त डाले जान में।

-मनोहर चमोली 'मनु'
पोस्ट बॉक्स-23,
पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड - 246001 मो.- 9412158688
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बाल कथा -................. चाँद का शॉल

आसमान में बादल छाए हुए थे। सावन के बादलों की गड़गड़ाहट सुनकर नन्ही चींटी रोने लगी।

तितली ने पूछा तो चींटी ने सुबकते हुए कहा-‘‘अब बारिश आएगी। चांद का क्या होगा? वो तो भीग जाएगा न। फिर सर्दियां आएंगी, बेचारा ठिठुरता ही रह जाएगा।’’

तितली ने हंसते हुए कहा-‘‘तो यह बात है। कोई बात नहीं चांद के लिए छतरी और शॉल का इंतज़ाम हो जाएगा।’’

चींटी ने होते हुए कहा-‘‘सच्ची। आप कितनी अच्छी हैं। ये तो मज़ा आ गया। चलो फिर चांद के पास चलते हैं। छतरी और शॉल लेकर।’’

तितली सोच में पड़ गई। फिर तितली भी रोने लगी। एक भेड़ ने दोनों का रोना सुना। पूछा तो उसे भी सारे मामले का पता चल गया। भेड़ ने कहा-‘‘तुम्हारा रोना भी सही है। मुझे भी रोना आ रहा है। मगर रोने से क्या होगा। कुछ सोचते हैं।’’

तीनों को रोता देख मकड़ी रानी आ गई। मकड़ी रानी के पूछने पर भेड़ ने सारा क़िस्सा उसे भी बता दिया।

मकड़ी रानी ने कहा-‘‘भेड़ तुम अपनी ऊन दे दो। मैं ऊन से चांद के लिए शाल बुन देती हूं।’’ भेड़ ने ख़ुशी-ख़ुशी अपने बदन से ढेर सारी ऊन निकालकर दे दी। मकड़ी रानी ने पलक झपकते ही सुंदर ऊन बुनकर नन्ही चींटी को दे दी।

चींटी फिर रोने लगी। कहने लगी-‘‘चांद के लिए छाता भी तो चाहिए।’’ मकड़ी ने कहा-‘‘इतना बड़ा छाता कहां से आएगा। अगर कोई मुझे चांद पर पहुंचा दे तो मैं चांद के चारों ओर ऐसा जाला बुन दूंगी कि वो भीगने से बच जाएगा।’’

तितली ने हिम्मत से काम लिया। वह बोली-‘‘तो ठीक है मकड़ी रानी। तुम मेरी पीठ पर बैठ जाओ। हम दोनों चाद को शॉल भी दे आएंगे और तुम वहां चांद के लिए छतरी भी बुन देना।’’

मकड़ी रानी तैयार हो गई। तितली ने मकड़ी रानी को पीठ पर बिठाया। मकड़ी ने शॉल को कस कर पकड़ लिया। दोनों आसमान की ओर चल पड़े। उन्हें आसमान में उड़ता देखकर नन्ही चींटी ताली बजाने लगी। भेड़ उछल-उछल कर नाचने लगी।
मनोहर चमोली 'मनु'
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बाल कहानी: ‘सही बचत’ कथा-मनोहर चमोली ‘मनु’.

'सही बचत' 

भरत और भारती भाई-बहिन थे। भरत बड़ा था और भारती छोटी थी। भरत स्वभाव से चंचल था। मौज़-मस्ती और लापरवाही उसमें कूट-कूट कर भरी थी। ज़्यादा लाड-प्यार के कारण वो जिद्दी भी हो गया था। अक्सर घर में वो शैतानी करता और बड़ी चालाकी से आरोप भारती पर लगा देता। भारती कुछ समझ ही नहीं पाती। अक्सर भरत के किए की सज़ा भारती को मिलती। भारती के मन में ये बात घर कर गई थी कि घर में ग़लत काम कोई भी करे, मगर सज़ा उसे ही मिलनी है। यही कारण था कि वो भरत के द्वारा बिगाडे़ हुए कामों को संवारने में ही जुटी रहती। परिणाम यह हुआ कि भारती भरत से ज़्यादा गंभीर हो गई। वो चुप रहती। हर बात के अच्छे और बुरे पक्ष पर सोचती, तब जाकर क़दम उठाती।

वहीं भरत के मन में ये बात गहरे ढंग से बैठ गई थी कि वो कुछ भी करे, उसे कोई कुछ नहीं कहेगा। गर्मियों की छुट्टियां पड़ गईं। भरत और भारती बहुत ख़ुश थे। गांव से उनके दादाजी जो आ गए थे। सुबह-शाम वो दोनों को घुमाने ले जाते। भरत और भारती को तरह-तरह के व्यंजन खिलाते। दादाजी दो-चार दिनों में ही समझ गए कि भरत और भारती में बहुत अंतर है।

एक दिन की बात है। दादाजी ने भारती से कहा-‘‘बेटी। तुम तो कभी किसी चीज़ की मांग ही नहीं करती। भरत को देखो, हमेशा कुछ न कुछ खाने की ज़िद करता रहता है।’’

भारती पहले चुप रही। फिर बोली-‘‘दादाजी। भरत भाई की इच्छाएं आप पूरी कर देते हैं, तो मेरी भी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं। मैं जो कुछ सोचती हूं, भाई पहले ही उसकी मांग आपसे कर लेता है। फिर मुझे भी तो वो चीज़ मिल जाती है, जो भरत को मिलती है।’’ दादाजी समझ गए कि भरत के मन में ख़र्च करने की आदत विकसित होती जा रही है। वहीं भारती संकोच के कारण ही सही अपनी इच्छाएं मन ही मन में रखती है।

शाम का समय था। दादाजी दो बड़े मिट्टी के गुल्लक ले आए। भरत और भारती आंगन में खेल रहे थे। दादाजी ने दोनों को बुलाते हुए कहा-‘‘ये लो। तुम दोनों के लिए अलग-अलग गुल्लक। अब देखते हैं कि तुम दोनों में से कौन ज़्यादा रुपए जमा करता है। आज से तुम्हें जो भी जेब ख़र्च मिलेगा, उसमें से कुछ हिस्सा तुम्हें गुल्लक में डालना होगा। मैं जाने से पहले उसे कुछ ख़ास ईनाम दूंगा, जो ज़्यादा बचत करेगा। तुम अपने गुल्लक में पहचान का निशान लगा लो।’’

दिन गुज़रते गए। गर्मियों की छुट्टियां ख़त्म होने को थीं। भरत और भारती गुल्लक में रुपए जमा करने का एक भी मौक़ा नहीं गंवाते। भारती मम्मी और पापा के छोटे-मोटे काम करती और बदले में एक-दो और पांच रुपए का सिक्का ईनाम में पाती। अपने जेब ख़र्च का ज़्यादातर हिस्सा भी वो गुल्लक में डालती जाती। वहीं भरत भी रुपए जमा कर रहा था। मगर वो खाने-पीने की चीज़ों में ज़्यादा रुपए ख़र्च कर ही देता था।

एक दिन की बात है। भरत और भारती गुल्लकों को लेकर झगड़ रहे थे। तभी वहां दादाजी आ गए। दादाजी को देखते हुए भरत बोला-‘‘दादाजी भारती ने अपना गुल्लक बदल दिया है। मैंने अपने और भारती के गुल्लक में कलर पेंसिल से निशान लगाया था। मेरे वाले गुल्लक में वो निशान है, मगर भारती के गुल्लक में वो निशान नहीं है। मुझे लगता है भारती ने ज़रूर कोई गड़बड़ की है।’’

दादाजी बोले-‘‘भरत। तुम्हारा गुल्लक तो तुम्हारे ही पास है न? वो तो नहीं बदला गया?’’ भरत बोला-‘‘नहीं दादाजी। मेरा गुल्लक तो मेरे ही पास है। मगर ।’’

‘‘अगर-मगर कुछ नहीं। तुम्हे भारती के गुल्लक से क्या मतलब। ज़रूर तुमने कोई गड़बड़ की है। लाओ। दोनों अपने-अपने गुल्लक मुझे दो। इन्हें अभी फोड़कर देखा जाएगा।’’ दादाजी बोले।

यह सुनते ही भारती रोने लगी। दादाजी बोले-‘‘अरे! तुम क्यों रो रही हो। मुझे मालूम है कि किसके गुल्लक में ज़्यादा रुपए जमा हुए होंगे।’’ यह कहते ही दादाजी ने दोनों के गुल्लक अपने हाथों में ले लिए। दादाजी ने भरत का गुल्लक पहले फोड़ा। भरत के गुल्लक में दो सौ तीस रुपए निकले। अब भारती के गुल्लक की बारी थी। दादाजी के साथ-साथ भरत भी हैरान था। भारती के गुल्लक में केवल पच्चीस रुपए ही निकले।

‘‘भारती! ये क्या है? तुम्हारे गुल्लक में बस इतने ही रुपए! सच-सच बताओ। तुमने जो बचत की थी, उसके रुपए कहां गए। और ये जो भरत गुल्लक बदलने वाली बात कह रहा था, वो क्या है?’’ दादाजी ने हैरानी से पूछा। भारती तो पहले से रो ही रही थी। दादाजी को गुस्से में देखकर वो और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। दादाजी ने भारती के सिर पर प्यार से हाथ रखा। पुचकारते हुए बोले-‘‘मैं जानता हूं। हमारी भारती ने कोई ग़लत काम नहीं किया होगा। मुझे पता है कि भारती अपने दादा को सच-सच बताएगी।’’ यह सुनते ही भारती ने रोना बंद कर दिया।

वो सुबकते हुए बोली-‘‘दादाजी ये नया गुल्लक है। ये मैंने तीन-चार दिन पहले ही ख़रीदा है। पुराने वाले गुल्लक को मैंने तोड़ दिया था।’’

‘‘तोड़ दिया ! पर क्यों? गुल्लक के रुपयों का तूने क्या किया?’’ भरत बोला। दादाजी ने भरत को अंगुली से इशारा करते हुए चुप रहने को कहा। फिर वो भारती से प्यार से बोले-‘‘गुल्लक में कितने रुपए जमा हुए थे?’’

‘‘तीन सौ पांच रुपए। पांच रुपए का मैंने ये नया वाला गुल्लक ख़रीदा है।’’ भारती ने सिसकते हुए कहा।

‘‘और वो तीन सौ रुपए कहां हैं?’’ इस बार दादाजी ने बड़े धीरे से पूछा। भारती थोड़ी देर चुप रही। फिर बोली-‘‘वो तो मेरे पास नहीं हैं।’’

‘‘नहीं हैं! तो कहां गए?’’ अब दादाजी ने भारती को गोद में उठा लिया।

‘‘भानुली की माँ बीमार है। भानुली मेरे साथ पढ़ती है। उसके पापा नहीं है। मैंने वो तीन सौ रुपए दवाई के लिए भानुली को दे दिए हैं। भानुली ने कहा है कि जब उसकी मम्मी ठीक हो जाएगी, तो वो मेरे सारे रुपये लौटा देगी।’’ भारती ने रूक-रूक कर कहा।

‘‘तो अब भानुली की माँ कैसी है?’’ दादाजी ने पूछा।

‘‘पता नहीं। मैं फिर उसके घर नहीं गई। अब वो मुझसे और रुपए मांगेगी तो मैं कहां से लाऊँगी?’’ भारती उदास हो गई।

‘‘मैं हूँ न। मेरी प्यारी बच्ची। हम तीनों अभी भानुली के घर जाएंगे। उसकी मम्मी को अच्छे डॉक्टर को दिखाएंगे। क्यों भरत, तुम चलोगे न हमारे साथ?’’ दादाजी ने भारती का माथा चूमते हुए पूछा।

‘‘हां दादा जी। अभी चलो। ये मेरे दो सौ तीस रुपए भी भानुली की मम्मी को दे देंगे। भानुली अच्छी लड़की है। उसने स्कूल में मेरी कई बार मदद की है।’’ भरत ने कहा।

दादा जी ने कहा-‘‘मेरे प्यारे बच्चों। तुम दोनों सही बचत करने का मतलब समझ गए हो।’’

भारती का चेहरा चमक उठा। वो कभी दादाजी की ओर देख रही थी और कभी अपने बड़े भाई भरत को। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वे तीनों भानुली के घर की ओर जा रहे हैं।
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-मनोहर चमोली 'मनु' manuchamoli@gmail.com