23 जून 2019

‘शैक्षिक दख़ल’

शिक्षकों के साथ कदम मिलाती शैक्षिक दख़ल
-मनोहर चमोली ‘मनु’
शैक्षिक सरोकारों को समर्पित शिक्षकों तथा नागरिकों का साझा मंच ‘शैक्षिक दख़ल’ का नवीनतम अंक प्रकाशित हो चुका है। ही डाक से मिला। आवरण का रंग संयोजन बेहतरीन है। आवरण के साथ ही पत्रिका के सभी रेखांकन छत्तीसगढ़ के बिलासपुर स्थित केन्द्रीय विद्यालय की कक्षा आठ में पढ़ रही छात्रा अनुष्का दत्ता ने तैयार किए हैं। आवरण (भीतर) में ‘बच्चे खेल रहे हैं’ अर्थपूर्ण कविता है। यह कविता भले ही शहरी और कस्बाई बस्ती के जीवन की झांकी का प्रतिनिधित्व करती है। 
लेकिन इस दुनिया में बच्चों की ध्वनि है। बच्चों की आवाज़ें हैं। 

कविता की कुछ पँक्तियाँ-
‘अपेक्षाओं के बोझ से हो फुरसत
मिले थोड़े समय में 
मानवता के खिलाफ साजिशों के विरुद्ध
कूदते,फांदते,नाचते,गाते
कभी बारिश से गले मिलते
कभी फूलों संग मुस्काते
कभी देख नवीन सपने
स्वयं से बतियाते
ये नन्हें गात
सभ्यता के अंतस्तल में 
आशा के बीज बो रहे हैं!
कि बच्चे खेल रहे हैं!‘
आवरण अन्तिम के भीतरी पेज पर वसंत सकरगाए की कविता ‘बचा हुआ होमवर्क’ ने स्थान पाया है। कुछ पँक्तियाँ-
‘सोचो, इसलिए सोचो
कि तपिश की इन तमाम लकीरों के पार
तुम्हें नया सूरज लोचना है
और यह तुम जो देख रहे हो ना!
चंद के चेहरे पर
ज़िन्दगी न होने का दाग
इसे भी तुम्हें ही पों़छना है़’

बर्तोल्त ब्रेख्त की कविता ‘सीखों अपना इतिहास’ अन्तिम आवरण (बाहर) प्रकाशित हुई है। कविता का एक अंश-
‘मेरा बेटा मुझसे पूछता है
क्या मुझे इतिहास सीखना चाहिए?
इससे क्या होगा,मैं कहना चाहता हूँ
अपना सिर धरती से सटाए रखना सीखो
शायद तुम जिंदा बच जाओ।
हां गणित सीखो, मैं कहता हूँ
अपनी फ्रेंच सीखो
सीखो अपना इतिहास!’

तीनों कविताओं में बच्चों की ध्वनि है। सीखने-सीखाने और समझने-समझाने का भाव भी है। अपने अनुभव और अपनी सोच को हासिल करने की छटपटाहट है। नीतिपरक सीख-सन्देश जैसा कुछ नहीं है। कविताओं में बच्चों की दुनिया है। बच्चों के स्कूली जीवन की ध्वनियाँ हैं।
पच्चीस से अधिक महत्वपूर्ण रचना सामग्री इस अंक में हैं। अभी चित्रों का संयोजन आकार और सामग्री के साथ भरा-पूरा पाने की गुंजाइश रखता है।यह अच्छी बात है कि कहीं भी कोई भी रचना-सामग्री ठूंसी हुई प्रतीत नहीं होती। पढ़ने की ललक में रुकावट नहीं बनती। इस बार अभिमत में सात महत्वपूर्ण पाठकों का दृष्टिकोण प्रकाशित हुआ है। मीनाक्षी रयाल,इन्द्र लाल वर्मा, गिरीश चंद्र पांडेय सीधे छात्रों से जुड़े हुए पाठक हैं। राजाराम भादू, सीमा संगसार, रंजीत रविदास, भास्कर चैधुरी भी अनुभव से उपजे भाव प्रकट करते हैं। अभिमत में पाठकों के बयान और टिप्पणियां बताती हैं कि पत्रिका का असर धीरे-धीरे अपना रंग जमा रहा है।
संपादक महेश पुनेठा जी का संपादकीय हर बार की तरह इस बार भी केन्द्रीय विषय के कई आयामों को खोलता है। वे इस बार भी सकारात्मकता और सामूहिकता को सीखने-सीखाने की कुंजी मानते हैं।
वह एन॰सी॰ई॰आर॰टी॰ की पाठ्य पुस्तकों के संबंध में शिक्षकों के हवाले से कहते हैं-‘अधिकतर शिक्षकों की शिकायत रहती है कि नई किताबें बेकार हैं। इन किताबों में बहुत कम विषयवस्तु है। जितनी सूचनाएं व तथ्य पुरानी किताबों में होती थीं,उतनी इनमें नहीं है। अभ्यास प्रश्न भी बहुत कम हैं। साथ ही प्रश्नावली में दिए गए प्रश्नों के उत्तर पाठ में नहीं मिलते हैं। गतिविधियां बहुत अधिक दी गई हैं। क्रमबद्धता का अभाव है। भाषा क्लिष्ट है। ...’
वे इसके कारण भी सुझाते हैं। 
वे लिखते हैं-
‘दरअसल अब तक शिकायत करने वाले अधिकांश शिक्षकों ने न नई पाठ्यपुस्तकों के शुरुआत में शिक्षकों के लिए लिखे गए पन्ने को पढ़ा है, न एन॰सी॰एफ॰ 2005 के मूल दस्तावेज व एनसीईआरटी द्वारा तैयार किए गए आधारा पत्रों को समझा है न ही उन्हें इनके इस्तेमाल के लिए कोई ठोस प्रशिक्षण दिया है।’

प्रारम्भ के तहत महेश पुनेठा जी एक बार पुन शिक्षा के दस्तावेजों के मर्म का अनुभवों के साथ जोड़त्े हुए हम सबके लिए उपलब्ध कराया है। यह कहना गलत न होगा कि संपादकीय में एनसीएफ 2005 के मार्गदर्शक सिद्वान्तों का और शैक्षिक आधार पत्रों का शानदार चित्रण है।
’और अंत में’ नियमित द्वय संपादकीय ‘कैसा हो, अगर पाठ्यपुस्तकें ही न हों?’ के बहाने दिनेश कर्नाटक ने उन शिक्षकों को नई दृष्टि देने की कोशिश की है जो पाठ्य पुस्तक को ही सीखने-सीखाने का एकमात्र औजार मानते हैं। वे लिखते हैं-
‘पाठ्यपुस्तक की समस्या यह है कि शिक्षक और विद्यार्थी दोनों उसे ‘पवित्र पुस्तक’ मानकर साधने में लगे रहते हैं। इस प्रक्रिया में न प्रश्न उठते हैं और न ही खोज होती है। वे उसकी सहायता से आजाद नहीं होते, बल्कि उसके दायरे में कैद हो जाते हैं।’
दिनेश कर्नाटक शैक्षणिक संदर्भ,नवम्बर-दिसम्बर 2017, के साथ-साथ उदयन वाजपेयी, हाइडेगर के हवाले से कई महत्वपूर्ण बातें पाठ्यपुस्तक,शिक्षक,शिक्षार्थी और कक्षा-कक्ष के संबंध में रेखांकित करते हैं। 
वे आगे लिखते हैं-

‘पाठयपुस्तक केन्द्रीयता शिक्षक,विद्यार्थी,शिक्षा के सरोकारों तथा देश-समाज के लिए काफी नुकासनदायक है। वर्षों तक एक जैसी पाठ्यपुस्तक को पढ़ाने से शिक्षक धीरे-धीरे ऊबने लगते हैं। उनके शिक्षण में एकरसता आने लगती है। उन्हें लगने लगता है कि ज्ञान इतना ही होता है तथा उन्हें अपने विषय के बारे में और पढ़ने की आवश्यकता नहीं है।’
वे इस संपादकीय शीर्षक पर केन्द्रित महत्वपूर्ण बातें भी साझा करते हैं। वे लिखते हैं-
‘यदि प्रत्येक कक्षा के लिए पाठ्यक्रम तो हो मगर पाठ्यपुस्तकें न हों तो कैसी स्थित बनेगी? शिक्षक तथा विद्यार्थी पुस्तकालय,प्रयोगशाला तथा आस-पास मौजूद संसाधनों के द्वारा पाठ्य सामग्री तैयार करेंगे। उदाहरण के कलिए कक्षा सात का हिन्दी पाठ्यक्रम करुणा के मूल्य से बच्चों को परिचित कराना चाहता है ता शिक्षक और छात्र करुणा विषयक कहानी को पुस्तकालय में खोजेंगे। सामाजिक विज्ञान में बच्चों को न्यायपालिका से परिचित कराना है तो वे पुस्तकालय से संविधान तथा न्याय संबंधी किताब निकालकर उससे नोट्स लेंगे। विज्ञान में गुरुत्वाकर्षण समझना है तो प्रयोगशाला में सहायक सामग्रियों से समझने की कोशिश करेंगे।’
इस अंक में फेसबुक परिचर्चा ‘क्या पाठ्यपुस्तक तथ्यों तथा सूचनाओं से भरी होनी चाहिए? पर शामिल की गई। चैंतीस टिप्पणियां शामिल की गई हैं। एक समय में इस पूरी परिचर्चा को पढ़ते हैं तो कई सारे मत सामने आते हैं और एक शिक्षक को शिक्षण और समझ के साथ अपने नियोजन को नए सिरे से समझने का अवसर मिलता है। पूरी परिचर्चा मननीय है।
इस अंक में प्रख्यात शिक्षाविद और कथाकार प्रेमपाल के साथ विस्तारित बातचीत को जगह मिली है। शिक्षक और पत्रिका के संपादक महेश पुनेठा ने बीस बिन्दुओं सहित कई गूढ़,ज़रूरी और समसामयिक शैक्षिक सवालों के जवाब जुटाए हैं। पूरी बातचीत प्रभावी है। रोचक है और अंतस में छटपटाहट पैदा करती है। पाठ्यपुस्तक के काम, पाठयपुस्तक की सार्थकता, समझ के विस्तार में उसकी भूमिका, पाठ्यपुस्तकों की समीक्षा, पाठ्यपुस्तक के ढांचे में बदलाव, सूचना,तथ्य और सीखने की ओर उन्मुख कराती पुस्तकों में भेद,पाठ्यपुस्तकों की संरचना, भाषा की पुस्तकों की स्थिति, पाठ्यपुस्तक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण जैसे मुद्दों पर सार्थक बातचीत इस अंक में है।
इस अंक में दिनेश भट्ट की कहानी सीलू मवासी का सपना प्रकाशित हुई है। मध्य प्रदेश के भोपाल के जनजातियों के आस-पास की यह कहानी शिक्षक,शिक्षा और छात्रों के आपसी रिश्तों के इर्द-गिर्द घूमती है। ऐसे बच्चों के लिए ऐसी किताब जो मुख्यधारा की भाषा से इतर उनकी अपनी भाषा में हो। मवासी भाषा में किताब लिखने की आवश्यकता से लेकर उपजी बातें कहां तक पहुँचती हैं? इसके लिए कहानी की यात्रा में सहभागी बनना लाज़िमी है। हाँ, बीच-बीच से कुछ एक संवाद ये हैं-
बच्चे ने खट जवाब दिया-‘‘काकू गोगोय डोय सेन ऊ।’’
वह केवल दो शब्दों का अर्थ निकाल पाया। काकू याने मछली और डोय याने तालाब।

॰॰॰
‘‘सर, मैं यह चाहता हूं कि अनुभवहीन तथ्यों को प्रदेश के शिक्षकों पर न थोपा जाए। मैं बहु-कक्षा शिक्षण वाले स्कूलों और शिक्षकों की वस्तुस्थिति बताना चाहता हूं ताकि बनाया गया मसैदा यथार्थपरक हो।’’

॰॰॰
जैसे ही उसने कार स्टार्ट की,हैडमासाब दौड़े आए थे-‘‘सर,ये सीलू सर के दो हजार रुपये के यात्रा-भत्ता बिल लेते जाइए,किताब लिखते समय के हैं। कोई अधिकारी निकालने को तैयार नहीं है। संभव हो तो निकलवा दीजिएगा।‘‘

गौरतलब में सीएन सुब्रह्मण्यम का लेख ‘इतिहास शिक्षण यानि ऐतिहासिक नजरिया विकसित करना’ पठनीय है। आरंभ में ही असरदार बात वे लिखते हैं-पाठ्यपुस्तक निर्माण के दो सिरे हैं। एक सिरे पर वे लोग हैं जो कि इतिहास के पेशे में अंग्रणी लोग हैं तो दूसरे सिरे पर वे लोग हैं जो बच्चों को इतिहास पढ़ाते हैं।’’
वे रेखांकित करते हैं कि अच्छी पुस्तक का बनना और अच्छी शिक्षण सामग्री बनना में अन्तर होता है। लेख में वे लिखते हैं-इतिहास शिक्षण का ज़्यादा बेहतर तरीका यह होगा कि आप बच्चे को तर्क करने का मौका देते हैं, उनके सामने सिर्फ एक सवाल ही उठाकर छोड़ देते हैं कि आपको क्या लगता है-ऐसा क्यों हुआ होगा?
लेख में आगे पढ़ते हैं-कुछ लोग आरंभिक स्तर पर इतिहास शिक्षण में जटिलता की बात करते हैं, इस बारे में कहना चाहूंगा कि बच्चे इससे भी जटिल विचारों को पकड़ लेते हैं और अपना लेते हैं।
नंद किशोर आचार्य का लेख ‘इतिहास: मनुष्य जाति की प्रयोगशाला’ भी शानदार लेख है। यह सीधे कक्षा-कक्ष में लाभदायक है। वे शुरुआत भी शानदार तरीके से करते हैं-मैं यह समझता हूं कि अभी हम इतिहास नहीं पढ़ा रहे हैं। अभी हम केवल कुछ विवरण बता रहे हैं और उन विवरणों के पीछे एक चयन-दृष्टि भी काम करती है। क्योंकि सारे विवरण आप नहीं बता सकते हैं, इसलिए एक खास दृष्टि से खास तरह के समाज या व्यवस्था के लिए शिक्षार्थी को तैयार करना चाहते हैं। उस दृष्टि से इतिहास के तथ्यों का चयन होता है और उसी दृष्टि से तथ्यात्मक विवरण उनको बता दिए जाते हैं। 
आगे लेख में पढ़ते हैं-अभी हम इतिहास की अतीतजीविता की तरह पढ़ाते हैं-जबकि इतिहास भविष्य दृष्टा है। उसे भविष्य दृष्टा की दृष्टि से पढ़ाया जाना चाहिए, न कि अतीतजीविता की दृष्टि से।

आगे लेख में पढ़ते हैं-इतिहास,दरअसल, मनुष्य जाति की प्रयोगशाला है, उस प्रयोगशाला में वह कुछ प्रयोग करता है। जिनमें से कुछ सफल होते हैं, कुछ असफल होते हैं।
प्रसिद्ध शिक्षाविद् कृष्ण कुमार का लेख ‘पाठ और पुस्तकें’की एक-एक पंक्ति पठनीय ही नहीं मननीय भी है। वे लिखते हैं-पाठ्यपुस्तकें सामान्य पुस्तकों से भिन्न होती हैं,क्योंकि उसके भीतर जानकारी या साहित्य नहीं पाठ होते हैं। स्कूल के संदर्भ में पाठ का एक ही अर्थ होता है-सीख,जो कभी-कभी शिखा के पर्यायवाची की तरह इस्तेमाल की जाती है। 
एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक कृष्ण कुमार लिखते हैं-

‘स्कूल के दायरों में सीखों का स्रोत पाठ्यपुस्तकें होती हैं,क्योंकि प्रत्यक्ष अनुभवों की गुंजाइश बहुत कम होती है। वर्णमाला से लेकर विाान तक सबकुछ पाठ की इकाइयों में बंटा और बंधा होता है।’
वे बताते हैं-‘अनुभव की गतिमा तभी स्वीकारी जा सकती है, जब व्यक्ति को गरिमा दी जाए। जिस समाज में व्यक्ति के लिए गरिमा क्या,करुणा की भी गुंजाइश न हो,वहाँ अनुभव की स्वतंत्र सत्ता नहीं हो सकती।’ मात्र चार अनुच्छेदों का अतुलनीय आलेख, सभी के लिए पठनीय।
‘पाठ्यपुस्तक की प्रासंगिकता’ के जरिए डाॅ॰ इसपाक अली तर्कपूर्ण नज़रिया सामने लाते हैं। 
आरंभ ही चिंतनीय है-

‘जिस समाज में छपे हुए अक्षर शब्द वेद वाक्य की तरह स्थापित हो उस समाज में पाठ्यपुस्तक की भूमिका काफी बढ़ जाती है। बच्चों का पाठ्यपुस्तकों में इतना अटूट विश्वास होता है कि उससे अलग कोई भी सत्य-असत्य उनके लिए असत्य ही होता है।’
यानि छात्र पाठ्यपुस्तक को ही अंतिम सत्य मान लेते हैं। वे यशपाल समिति के हवाले से कहते हैं कि बच्चे के दिन प्रतिदिन के जीवन और पाठ्यपुस्तकों की विषयवस्तु के बीच की दूरी भी ज्ञान को बोझ में बदल देती है। इतिहास,पंथ और भाषा के नज़रिए को रेखांकित करते हुए आलेख कई सवाल भी उठाता है।
कालू राम शर्मा का नजरिया ‘मात्र पाठ्यपुस्तक पर सवार होकर पढ़ना-लिखना संभव नहीं’ अनुभव और बातचीत के आधार पर तैयार हुआ लगता है। एक ज़रूरी और शिक्षकों के शिक्षण में सुधार के सुझाव देता लेख एनसीएफ 2005 के नजरिए को भी सामने रखता है।
वे लिखते हैं- यों पाठ्यपुस्तकों को लेकर बच्चों और शिक्षकों में जो दृष्टिकोण पैदा हो चुका है वह यह कि इनका कक्षा में इस्तेमाल प्रश्न-उत्तर लिखवाने व परीक्षा पास करने भर के लिए है। दरअसल, यह नियति बनाई जा चुकी है। 
वे लिखते हैं- पाठ्यपुस्तकों में बच्चों के अलगाव काप्रमुख कारण है, बच्चों के मनोविज्ञान का ख्याल करके इनकी रचना नहीं की जाती। दरअसल, पाठ्यपुस्तकों का पूरा जोर इस बात पर होता है िकवे बच्चों को खुद से ज्ञान रचने के बजाय ज्ञान की घुट्अी पिताली हैं। पाठ्यपुस्तकों की भाषा बच्चों के संदर्भ व उनके स्तर से परे की होती है। किताबें बच्चों पर भरोसा नहीं जताती कि वे एक सीखने वाले, सोचने वाले, तर्कशील व खोजने वाले के रूप में जन्म लेते हैं।’

वे सुझाते हैं-‘यहां शिक्षक की भूमिका अहम है। शिक्षक की भूमिका सीखने में सहयोगी की है न कि हर चीज़ वह बच्चों में थोपे। बेशक, शिक्षक से अपेक्षा है कि बच्चे चित्र को देखें व उन्हें बातचीत के मौके उपलब्ध कराए। बच्चे जो भी कुछ कह पाएं अपनी भाषा में उसे स्वीकार किया जाए।’ वे रिमझिम 1 के आलोक में पाठ्यपुस्तक की खूबियों पर भी चर्चा करते हैं। 
सविता प्रथमेश के नजरिए में ‘पाठ्य पुस्तकों की भाषा और ग्राह्यता’ के बहाने शिक्षक, शिक्षा और अधिगम पर महत्वपूर्ण बातें शामिल हो सकी हैं। लेख छत्तीसगढ़ के राज्य शिक्षा बोर्ड के अनुभवों से समृद्ध हुआ है। प्रो॰कृष्ण कुमार के हवाले से भी लेख आगे बढ़ता है। आलेख की अलग-अलग अनुच्छेदों से कुछ बातें ये हैं-

‘ पाठ्यपुस्तकें आम पुस्तकों से सामग्री की दृष्टि से ही अलग नहीं होती हैं, बल्कि इसका पाठक वर्ग भी निश्चित होता है और उसका मानसिक स्तर भी एक हद तक निश्चित ही होता है। इस दृष्टिकोण से पाठ्यपुस्तकों की महत्ता और भी बढ़ जाती है।’
पाठ्यपुस्तकों की भाषा पर जीवंत अनुभव के सिलसिले में लेख में आता है-‘ग्यारहवीं के जीवविज्ञान के छात्रों का कहना था कि राज्य द्वारा विकसित पुस्तक उनकी समझ से परे है। कारण क्लिष्ट,कठिन और हिंदी के निहायत ही अप्रचलित शब्दों का प्रयोग। एक सिरे से पुस्तक पढ़ने पर नज़र आता है कि ये अंग्रेजी वर्जन का महज अनुवाद ही है। वह भी एक कठिन अनुवाद।’
‘भाषा,विकास और अवरधारणा विकास एक दूजे से गहराई से जुड़े हुए हैं। विचार और भाषा एक-दूसरे के पूरक हैं। भाषा जब ग्रहणीय होती है, तब विचार उत्पन्न होते हैं। जब तक विद्यार्थी भाषा नहीं समझेगा वह उससे तादात्म्य स्थापति नहीं कर सकेगा। विचार उत्पन्न होना तो दूर की बात है। एक उत्तम पाठ्यपुस्तक की विशेषता ही होती है कि वह भाषिक आवश्यकताओं के अनुरूप होती हैं।’ कक्षा-कक्ष में नवाचार के प्रतिबद्ध शिक्षक के लेख अलग से पहचाने जाते हैं। विज्ञान विषय की किताब और उनके प्रकरण के साथ-साथ भाषा की सरलता और सहजता पर भी यह आलेख केन्द्रित है। इसे जरूर पढ़ा जाना चाहिए।
बच्चों के साथ शिक्षा और उनकी समझ से आगे बढ़कर काम करते रहना हर किसी के वश की बात नहीं। लेकिन कमलेश जोशी हर समय वैज्ञानिक जागरुकता जगाने के साथ-साथ बच्चों के मध्य निरन्तर उपस्थित रहते हैं। ‘बच्चों के करने के लिए बहुत कुछ’ आलेख में उन्होंने अपने अनुभवों के साथ बच्चों की दुनिया को भी शामिल किया है। वह लिखते हैं-अगर हम हिंदी की किताब देखते हैं तो उसमें अभ्यास के लिए इतनी गतिविधियां दी गई हैं कि बच्चे को खुद से वे सारी चीज़ें करवाई जाए तो उसको अलग से हिंदी का व्याकरण पढ़ाने की जरूरत ही नहीं है। लेकिन इसके लिए हमें यह भाव छोड़ना पड़ैगा कि हमें सब कुछ आता है और बच्चे कुछ नहीं जानते।’
एनसीईआरटी की किताबों के आलोक में वे आगे लिखते हैं-‘ये किताबें बच्चों को अपने आस-पास के समाज से जुड़ने के अवसर उपलब्ध कराती हैं। उनकों इस चीज़ का बोध भी कराती है कि जिस प्रकृति और समाज में वे रह रहे हैं, उसके प्रति भी उनके कुछ कत्र्तव्य होते हैं, जिन्हें उनको जाने-अनजाने निभाना ही होता है।’
शिक्षा के सरोकारों में निरन्तर अपनी आवाज बुलंद करते डाॅ॰ केवलानंद काण्डपाल ने कक्षा छःह के लिए सामाजिक विज्ञान की पाठ्यपुस्तक पर केन्द्रित लेख ‘कक्षा में पाठ्यपुस्तक का उपयोग कैसे हो?‘ में लिखा है-‘अब हम शिक्षकों पर निर्भर है कि पाठ्यपुस्तक की केन्द्रयीता की अनैच्छिक स्थिति में कम से कम पाठ्यपुस्तकों को कक्षा-कक्ष में इस प्रकार से बरतें,उपयोग में लायें जिससे बच्चे के ज्ञान,कौशल एवं मूल्यों-अभिवृत्ति में अधिकतम संभव बदलाव लाया जा सके।’
उन्होंने सामाजिक विज्ञान के सन्दर्भ में पड़ताल को आगे बढ़ाया। उन्होंने कक्षा छह की पाठ्यपुस्तक ‘सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन-1’ के सन्दर्भ में विस्तार से व्यावहारिक बातों की ओर इशारा किया है। काण्डपाल जी लिखते हैं-पुस्तक में चार थीम को ध्यान रखकर निर्मित किया गया है। विविधता, सरकार, स्थानीय सरकार एवं प्रशासन और आजीविकाएं।
वे आगे बताते हैं कि पुस्तक को बरतने के बारे में भी विस्तार से बताते हैं। पाठ की शुरुआत, पाठ के बीच में प्रश्न और अभ्यास, अभ्यास, कथानकों का उपयोग, छवियों का उपयोग,भाषा में जेंडर संवेदनशीलता और अन्य साधनों का उपयोग के आधार पर पुस्तक को खगालते हुए मिलते हैं। मुझे यह लगता है कि किसी भी विषय की पाठ्यपुस्तक को हमें इस आधार पर देखना ही चाहिए। अभिभावकों को भी।

उनका तीव्र आग्रह बेहद असरदार है-
‘अध्यापक पाठ्यपुस्तक से हटकर भी सोच सकें, इसके लिए दो बातें महत्वपूर्ण हैं। पहला-इस बात की स्पष्ट समझ कि पाठ्यपुस्तक केवल एक सुविधाजनक साधन है,जिसमें बच्चों से क्या-क्या सीखने की अपेक्षाएं हैं, उन बातों से सम्बंिन्धत विषय सामग्री का व्यवस्थित तरीके से किया गया एकत्रीकरण है और यह अन्तिम भी नहीं है। बहुत बार इससे बाहर भी जाकर अध्यापक को सामग्री एकत्रित करनी पड़ेगी, जुटानी पड़ेगी,विकसित करनी पड़ेगी। दूसरा-अध्यापक को इस बारे में निरंतर सचेत रहना होगा कि विषय की पाठ्यचर्या के लक्ष्य क्या हैं? पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तक में संकल्पनात्क अंतर है? शिक्षक की इस बारे में समझ से बच्चों के अनुभवों को कक्षा-कक्षा प्रक्रिया में शामिल होने की संभावनाएं बलवती होती हैं।’
एनसीईआरटी की विज्ञान की कक्षा छह से आठ की पाठ्यपुस्तकों पर केन्द्रित एक और महत्वपूर्ण लेख डाॅ॰निर्मल कुमार न्योलिया का है। ‘कसौटी पर एनसीईआरटी की विज्ञान पाठ्यपुस्तकें’ वैज्ञानिक नज़रिये और संकल्पनाओं पर गहरी बात करता नज़र आता है। जैसा पहले भी कहा गया है कि कक्षा-कक्ष में छात्रों के साथ सीखने-सीखाने की प्रक्रिया में रत अध्यापक का दृष्टिकोण शिक्षाविदों और नीति-नियंताओं से नायाब लगता है। इस आलेख को पढ़कर भी इस बात की पुष्टि होती है। वे एनसीएफ 2005 के हवाले से बहुत सारी ज़रूरी बातें-मान्यताओं को हमारे सामने रखते हैं। वे लिखते हैं-‘एनसीएफ ने ऐसी विज्ञान शिक्षा जो बच्चों के प्रति,जीवन के प्रति और विज्ञान के प्रति ईमानदार हो,को सही माना है।’
न्योलिया जी सवाल उठाते हैं-‘जो भी इस लेख को पढ़ें, कभी फुर्सत में जरूर यह जानने काप्रयास करें कि उनके आस-पास के विद्यालयों में विज्ञान पढ़ रहे बच्चे किसी भी स्थानीय समस्या का वैज्ञानिक हल ढूंढने में सक्षम रहे हैं?’
और अंत में वे लिखते हैं-विज्ञान विषय की सीमाएं यह भी हैं कि प्रत्येक संकल्पना में 6 वैधताओं को सम्मिलित किया जा सके। विषयवस्तु की प्रकृति में बदलाव से यह सम्भव हो सकता है।’ वे 6 वैधताओं का भी उल्लेख लेख में हो जाता तो बेहतर होता।
अनुपमा तिवाड़ी का लेख ‘पाठ्यपुस्तक की समस्याओं को खोजने की कुंजी’ मौजूदा शिक्षा की स्थिति पर सोचने को बाध्य करता है। वह लिखती हैं कि शिक्षा में ये शार्टकट रास्ता, जो हम अपनाते हैं, वह हमारे सीखने में बाधक बन जाता है। इसमें सीखने की जिज्ञासा नहीं है, चुनौती नहीं है,खोजने की तड़प नहीं है। इसमें स्वयं को समृद्ध करना नहीं है।’
स्वयं की निजी अनुभवों से सराबोर यह आलेख पठनीय है। वे साल्व्ड औरअनसाल्वड परिपाटी की भी बात करती हैं। एक्सीलेंट, पासबुक वाले प्रचलन पर भी इस लेख में विचारणीय बिन्दु शामिल हैं। निजी स्कूलों की अव्यावहारिकता भी इस लेख में पढ़ने को मिलती है। कुंजी के प्रचलन पर चर्चा भी असरदार है। अनुपमा लिखती हैं-‘अब लिखने का मापदंड अंक प्रणाली पर आधारित है तो इस बौद्धिक युग में बच्चे, ज्यादा से ज्यादा अंक प्राप्त करने की जुगत करते दिखाई देते हैं।’
प्रतिभा कटियार का आलेख ‘एक पाठ्यपुस्तक जिससे दिल लग जाए’ एनसीईआरटी की कक्षा 3 की हिंदी की पाठ्यपुस्तक का अध्ययन कर बना है। वैसे भी प्रतिभा साहित्यसेवी है और सार्वजनिक शिक्षा और शिक्षकों से गहरे से जुड़ी हुई हैं। रिमझिक भाग तीन पाठ्यपुस्तक की आवरण से लेकर पाठों की चर्चा, पाठों के आधार पर आई विधाओं पर भी उन्होंने विस्तार से चर्चा की है। वे लिखती भी हैं-‘आमतौर पर पाठ्यपुस्तकों को देखने,उठाने और पढ़ने का मन और मौसम अलग ही होता है। कोर्स की किताब यानि कोई काम,समय की पाबंदी के साथ कोर्स को पूरा करने की जिम्मेदारी जैसा कुछ। लेकिन एनसीईआरटी ने पाठ्यपुस्तकों को पाठ्यपुस्तकों वाली बोरियत से बचाने का प्रयास किया है। किताब की साज-सज्जा बाल मन को आकर्षित करती है। ऐसी कि टीचार जो पढ़ने को कहें या न हें बच्चे किताबों से लिपते रहें।’
लेख में पाठ्यपुस्तकों के चित्र और पाठ में निहित कथावस्तु पर पैनी नज़र से पड़ताल की गई है। प्रतिभा लिखती हैं-इनत माम पाठों को पढ़ते हुए कतई महसूस नहीं होता कि कोई पाठ पढ़ रहे हैं। हर पाठ का रचना संसार शरारतों,कल्पनाओं,आसपास की दुनिया की बातों से जोड़ते हुए हैं। पाठ के बाद पाठ का मजा और बढ़ना शुरू होता है। सवाल, सवाल की तरह नहीं शरारत की तरह हैं या बातचीत करते हुए मजे लेते हुए एक-दूसरे की बातें सुनने-जानने को लेकर हैं। हर पाठ के बाद की रोचक गतिविधियां बच्चों को उनके परिवेश , उनके जीवन, उनके लोक की भाषा और मजेदारी से जोड़ने वाली हैं। कक्षा के सभी बच्चो को जोड़ने वाली हैं। बच्चों के भीतर की हिचक,संकोच को तोड़ने वाली और बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी के लिए उकसाने वाली है।
अंत में वे बहुत ही गहरी बात लिखती हैं-‘वैसे रिमझिम है तो कक्षा-3 के बच्चों की पाठ्यपुस्तक लेकिन बड़ों को भी इसमें खूब मजा आता है। यात्राओं में भी इसे साथ रखने की सलाह मैंने दोस्तों को दी है। इसकी कहानियों और कविताओं ने मुझे कई और कहानियों तक भी पहुंचाया है।’
डाॅ॰दिनेश जोशी ने पाठ्यपुस्तकों को शिक्षक की जिम्मेदारी की ओर से देखने का प्रयास किया है। उनका लेख ‘शिक्षक की भूमिका तथा पाठ्यपुस्तकें’ हर तरह के शिक्षक को पढ़ना ही चाहिए।

डाॅ॰ दिनेश जोशी 5 आधारभूत बातों को रेखांकित करते हैं, जिसमें वे मानते हैं कि किसी भी अध्यापक को यह काम तो करने ही चाहिए। वह लेख में हिंदी शिक्षण को दो भागों में बांटकर देखते हैं। एक-हिन्दी को सीखना,समझना,अभिव्यक्त करना और व्यक्तित्व तथा जीवन के विकास में इसका योगदान। दो-परम्परागत परीक्षाओं को पास करना और अंक प्राप्त करना। नौकरी के लिए आवश्यक बना दिए गये बच्चों के परीक्षा-परिणाम के अंतर्गत।
इस लेख में वे हिन्दी पढ़ाने के लिए कक्षा अनुसार और विद्यार्थी अनुसार योजना बनाने पर जोर देते हैं। स्वयं के अनुभवों को साझा भी करते हैं। इस लेख में दिनेश एनसीईआरटी की हिंदी की पाठ्यपुस्तकों में हासिल अवसरों पर भी बात करते हैं।
वे लिखते हैं-हिंदी की पुस्तकों में उपलब्ध अवसर तो अपार हैं, उन्हें तलाश कर यथाशक्ति उपयोग करने की ज़रूरत है। समयानुसार बदलाव और सुधार की आवश्यकता तो हर क्षेत्र में रहती है। दिनेश अपनी कक्षा-कक्षों में जो गतिविधियां कराते हैं उनका भी उल्लेख करते हैं। उनकी अपनी विकसित की गई गतिविधियों में हमें भी पूछना है एक रजिस्टर है। जिसमें छात्र उन सवालों को दर्ज़ करते हैं जो वे पूछना चाहते हैं। दूसरा रजिस्टर है मन की बात। बच्चे इसमें मन की बात लिखते हैं। तीसरी पेटिका है जिज्ञासा समाधान। इस में बच्चे हिंदी विषयक प्रश्न पर्चियां डालकर पूछते हैं। इस तरह दस गतिविधियों का उल्लेख इस लेख में है। यह भी सभी शिक्षकों को पढ़ना ही चाहिए।
इस अंक में एक संक्षिप्त सर्वे भी है। आपको कौन सी पाठ्यपुस्तक पसंद है? दस छात्रों ने अपनी पसंदीदा पाठ्यपुस्तक के बारे में लिखा है। इस सर्वे में नैनीताल के राजकीय इंटर काॅलेज गहना के छात्रों ने भाग लिया। यह भी एक शानदार गतिविधि है। क्या हमने भी अपने छात्रों से पूछा है कि उन्हें कौन-सी पाठ्यपुस्तकें अच्छी लगती है? और क्यों?
सीमा भाटिया की लघुकथा सत्यमेव जयते भी इस अंक में है। हिंदी की पाठ्यपुस्तकों,सामाजिक विज्ञान,विज्ञान के साथ-साथ गणित,संस्कृत,अंग्रेजी की पाठ्यपुस्तकों पर भी चर्चा आती तो बेहतर होता। लेकिन रचना-सामग्री और लेख जुटाना और उससे पहले प्रतिबद्धता के साथ ससमय भेजना इन दिनों स्वंय एक चुनौती बन गया है। भीतर के आवरण में सुभाष चंद्र सिंह की कविता ‘बच्चे खेल रहे है’ के साथ चित्र का संयोजन किसी लम्बवत् चित्र के साथ और बेहतर हो बन पड़ता। मसलन भीतर झूला झूलती बालिका वाला चित्र इस कविता में फैलाव ले सकता था। अनुष्का ने इस अंक के लिए चैदह (एक चित्र दो बार प्रकाशित हुआ है) चित्र बनाए है।। इस अंक का काग़ज़ आवरण के काग़ज़ सहित बेहतरीन है। पत्रिका को दीर्घायु बनाने के लिए यह अच्छी सोच का परिचायक है।
मुझ तक यह शनिवार को बज़रिए डाकघर पहुँच गया था। लेकिन मैं उसे आज सुबह ही हासिल कर सका। रविवार का समय मुफ़ीद रहा। पत्रिका को समय दे सका और तात्कालिक टिप्पणी आपकी नज़र कर रहा हूँ। वहीं बात कि यह महज़ चैंसठ पेज की छमाही पत्रिका ही नहीं है। शामिल रचना सामग्री और लेख प्रायः ऐसे जुटते हैं कि जब भी मन करे पत्रिका के अंकों को टटोला जा सकता है। दूसरे शब्दों में कहूं तो यह एक तरह से संदर्भ सामग्री का डाइजेस्ट बनती जा रही है। मुझे लगता है कि शैक्षिक दख़ल समिति को अपने सभी अंकों को दस अंक क्रमवार एक साथ एकाकार डाइजेस्ट के तौर पर संकलित भी करना चाहिए। यह साल की कालिकचक्र रस्मअदायगी मात्र नहीं है। पत्रिका में पाठक के लिए बौद्धिक खुराक के साथ चेतना के स्तर पर कुछ औजार और हथियार शामिल हैं। यह कहना ठीक ही होगा कि वे शिक्षक जो पत्रिका से जुड़े हैं आद्योपांत इसे पढ़ते हैं। समझते हैं। गुनते हैं और अपने अनुभवों में अन्य साथी शिक्षकों के अनुभवों को जोड़कर कक्षा-कक्ष में बदलाव लाते हैं तो यकीनन वे नवाचार के मामलें में उन शिक्षकों से एक कदम आगे हो जाते हैं जिनके पास इस पत्रिका का मंच मुहैया नहीं है। तो आइए, इस बहाने हम और आप भी शैक्षिक दखल के साथ शैक्षिक हस्तक्षेप में सहभागी बनें।
पत्रिका: शैक्षिक दख़ल
संपादक: महेश पुनेठा-दिनेश कर्नाटक
मूल्य: 50
पेज: 64
वर्ष: 7
अंक: 14,जुलाई 2019
संपादकीय पता: शैक्षिक दख़ल समिति,
द्वारा महेश पुनेठा, शिव कालोनी, न्यू पियाना, पोस्ट आॅफिस डिग्री काॅलेज, पिथौरागढ़ 262502 उत्तराखण्ड 
मेल: punetha.mahesh@gmail.com
dineshkarnatak12@gmail.com

सम्पर्क: 9411707470,9411793190,9411347601
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-मनोहर चमोली ‘मनु’

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