30 अप्रैल 2020

cycle Dec-Jan 2020 child magzine


कहीं सन्तला न आ जाए !

-मनोहर चमोली ‘मनु’

‘‘खट-खट-खट ! दरवाज़ा खोलो।’’ ये संतला की आवाज़ थी। संतला बहुत गुस्से में थी। एक हाथ में लोहे का चिमटा था। दूसरे हाथ में लालटेन थी। दरवाज़ा खुला। संतला रसोई में आ घुसी। ‘‘चूल्हे में क्या पक रहा है? ये देखने आई हूँ। मैं खुशबू से ही अपने मुर्गे को पहचान लूंगी।’’ 
संतला ने चिमटे से कढ़ाही के ऊपर रखी थाली उठाई। कढ़ाही में झांका।‘‘

यह जाड़े की शाम थी। पहाड़ का जागना और सोना सूरज के साथ-साथ होता है। यहाँ सूरज देर में जागता है। तेजी से पश्चिम की ओर दौड़ने लगता है। हर कोई अपने घर की ओर जल्दी से लौटना चाहता है। कड़ाके की ठंड जो पड़ती है। सोनेे से पहले खाना पकाना और खा लेना भी तो जरूरी है। यही कारण है घरों में लगभग एक ही समय के आस-पास भोजन पकने लगता है।


‘‘दड़बे से मुर्गा गायब है। ज़रूर किसी की रसोई में पक रहा है। मैं तलाशी लूंगी।’’ संतला अब पड़ोस के घर का दरवाज़ा थपथपा रही थी। वह जिस घर से बाहर निकलती, कोई बच्चा साथ हो लेता। तनवीर, मुसद्दी, सलमा, थापला, बिट्टू, नीटू, मालती पीछे-पीछे चलने लगे। लालटेन की रोशनी में संतला इंजन और बच्चे रेल के डिब्बे की तरह लग रहे थे। यह रेल गांव की पगडण्डी पर चल रही थी। यह रेलगाड़ी सीटू लुहार, मियां मुरादाबादी, सतनाम कुम्हार और पण्डित रामदयाल के घर के रास्ते पर पहुंची। इनकी रसोईनुमा स्टेशन पर भी ठहरी।


संतला भूल गई कि गांव की अधिकतर रसोई में मांस पकता ही नहीं। वह तो चिमटा लहराते हुए कह रही थी-‘‘मेरा मुर्गा किसी न किसी की रसोई में तो पक ही रहा है।’’ तभी पीछे से गिरबीर ने पुकारा-‘‘माँजी। मुर्गा मिल गया है।’’

‘‘किसकी रसोई में?’’
‘‘रसोई में नहीं मिला। हमारे ही गोट में दुबका था। जंगली बिल्ली के डर से।’’ फिर क्या था। अब संतला ने बच्चों को घूरा ओर कहा-‘‘चलो रे, भागो अपने-अपने घर।’’ इस दिन के बाद संतला फिर किसी के घर नहीं आई। हां, पहाड़ के गांवों में यह किस्सा कई दिनों तक चलता रहा। खाना पकाते समय हंसी-ठिठोली करते हुए सुनने को मिलता-‘‘दरवाजा बंद कर दो, कहीं संतला न आ जाए।’’
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हम बच्चों के चेहरे पढ़ पा रहे हैं? #corona child

क्या इन दिनों हम बच्चों के चेहरे पढ़ पा रहे हैं?


-मनोहर चमोली ‘मनु’

घर में चुप्पियों की जगह बढ़ गई हैं! घर में रहने वाली आम आवाज़ें परेशान हैं। उनका गला चीखों-चिल्लाहटों ने घोंट दिया है? दीवारों में टंगी दिवंगतों की तसवीरों के चेहरे उदास हो गए हैं। उनकी शांति घर में बढ़ गई हँसी-ठिठोलियों ने भंग कर दी है। घर के छोटे-छोटे कमरों में कदमों की आवाजाही बेतहाशा बढ़ गई हैं। घर घर नहीं रह गए हैं। वे स्कूल-से बन गए हैं। बच्चों की बेचैनियों से दीवारों की घुटन बढ़ गई हैं। वे बीमार दिखाई देती हैं। बूढ़े, जवान और महिलाओं के चेहरों पर बदलने वाले भावों की संख्या तेजी से बढ़ रही हैं।




जीवित इंसानों के साथ ऐसा पहली बार हो रहा है। कोरोना काल से दुनिया का दैनिक जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। कामकाजियों ने पहली बार घरों की छतों को हजारों बार घूर लिया है। दुनिया भर के तमाम बच्चे इन दिनों सबसे अधिक तनाव में हैं। वे चिड़चिड़े हो गए हैं। उदास हो गए हैं। परेशान हो गए हैं। उन्हें डरावने सपने पहले से ज़्यादा आ रहे हैं। उन्हें जो नापसंद है, उसे पसंद करना मजबूरी बन गया है। वे भयभीत भी हो गए हैं। सीखों, सन्देशों, उलाहनाओं, डाँट, हिदायतों, झिड़कियों और तानों की बरसात से वे भीग चुके हैं। वे नींद में अधजगे हैं। सामान्य दिनों में चहकते बच्चे इन दिनों बौखला रहे हैं। झल्ला रहे हैं। उनमें यह लक्षण परिजनों को नहीं दिखाई दे रहे हैं। चूँकि घर के सभी लोग स्वयं तनाव में हैं। उलझन में हैं। उनकी चिंताएं अलग हैं। शायद बच्चों से बड़ी हैं। ज़्यादा हैं। घर के बड़ों को लगता है कि बच्चों को दिन भर खेलना ही तो हैं,ज्यादा ही हुआ तो कुछ घण्टे पढ़ना ही तो है। लेकिन ऐसा नहीं है।

बच्चे फरवरी से परेशान हैं। हर साल फरवरी आते ही स्कूली बच्चों को सालाना इम्तिहान की चिंता सताने लगती है। अभिभावकों को भी और उनके शिक्षकों को भी। यह फरवरी भी फरवरी को आई। तनाव,चिंता और भय के बादल तो पहले से ही मंडरा रहे थे। फिर मार्च में परीक्षा आई। परीक्षा कहीं हुईं, कहीं नहीं हुईं। कहीं अभी होनी हैं तो कहीं औसत अंक देकर बच्चों को पास करने जैसी व्यवस्था हो रही है। लेकिन लाखों बच्चे अधर में अटके हुए हैं। वे अभी पास-फेल,डिवीजन के मकड़जाल से उबरे नहीं हैं। लगभग चालीस दिन लाॅकडाउन ने तो रही-सही कसर पूरी कर दी। बच्चे घर पर रहते और बड़े काम पर जा रहे होते, तो बात अलग थी। सब कुछ ऐसा ही होता, जैसा हो रहा है और बच्चे स्कूल जा रहे होते तो भी बात अलग हो जाती। लेकिन इन दिनों तो बच्चे घर पर हैं। हर पल कईं आँखें सीसी कैमरे की तरह उन पर गड़ी हैं। कई निर्देशों के साथ जेलर की भूमिका में घर के बड़े सिर पर सवार हैं।
अपवादों को छोड़ दे ंतो घर में बच्चों के साथ पालन-पोषण के निश्चित और वैज्ञानिक नियम नहीं हैं। अभिभावक आम तौर पर बच्चों के साथ कड़ाई के साथ पेश आते हैं। अधिकतर अभिभावक मानते हैं कि बच्चों को ज़्यादा पूछताछ नहीं करनी चाहिए। उन्हें सवाल पर सवाल नहीं करने चाहिए। बच्चों को घर में कठोर अनुशासन का पालन करना चाहिए। हाँ जी ही उनका स्वर होना चाहिए। आज्ञा पालन करना बच्चों का पहला और सबसे जरूरी धर्म-संस्कार है।
बड़े तो फोन पर कुशल क्षेम पूछ रहे हैं। खैर-ख़बर ले रहे हैं। लेकिन बच्चों की परवाह किसे है? क्या हम बड़े उन्हें उतना समय दे रहे हैं कि वे भी अपनी दुनिया को खगाल लें? क्या हम बच्चों के साथ सकारात्मक हैं? क्या वाकई हम घर में रहते हुए भी बच्चों के साथ हैं? जितना समय हमने उन्हें नसीहतें देने में खपा दिया, उसका बीस फीसदी समय उनके साथ बातचीत में गुजारा है? उनके साथ खेलने के कितने घण्टे हमने निकाले?

ऊपर से किताबी वेबदुनिया से दिया जा रहा गृहकार्य उन्हें और व्यथित कर रहा है। क्या आपको नहीं लगता कि ये लाॅकडाउन बच्चों के लिए जी जा जंजाल बन चुका है।
आइए ! कुछ बातें बच्चों के लिए करने की हैं। उन्हें साझा करते हैं-

माना कि बेहद मुश्किल दौर है। हम सबके लिए यह धैर्य से काम लेने का समय है। सबसे पहली बात हम सकारात्मक रहें। टीवी में आ रही मौत,भयावह ख़बरों से बच्चों को दूर ही रखें। ये ओर बात है कि यह सब समाज का हिस्सा है। इसी समाज में बच्चे रहते हैं। उन्हें कल इन सब समस्याओं का सामना करना है। हाँ कोरोना से संबंधित स्वस्थ समाचार जानकारीपरक सूचनाएं ज़रूर बताएं-दिखाएं। समझाए,चर्चा करें कि कैसे दुनिया इससे निपटने के प्रयास कर रही है।
बच्चों के साथ समय बिताएं। उन्हें अपने बचपन के, दादा-दादी के किस्से सुनाएं। आरीगेमी बना सकते हैं। कबाड़ से जुगाड़ की कुछ गतिविधियां कर सकते हैं। उन्हें इन दिनों भरपूर बोलने का अवसर दें। टेनग्रेम की गतिविधियां कर सकते हैं। चित्रकारी कर सकते हैं। इनडोर गेम खेल सकते हैं। कठिन परिस्थितियों में जीने की कला पर बात कर सकते हैं। घर के और रसोई के काम में उन्हें व्यस्त रख सकते हैं। इन दिनों उनकी नियमित दिनचर्या बना सकते हैं। कब सोना है? कब उठना है? कब टीवी देखना है? कितनी देर देखना है। पढ़ाई-लिखाई से संबंधित चीज़ें कब और कितनी देर कर सकते हैं? डिस्कवरी चैनल उनके साथ बैठकर देख सकते हैं। उनके साथ योगा के कुछ आसन कर सकते हैं। घर की सफाई कर सकते हैं। किताबों को ठीक कर सकते हैं। कुछ किताबों का सस्वर वाचन कर सकते हैं। गीत-संगीत सुन सकते हैं। उन पर चर्चा कर सकते हैं। व्यक्तिगत साफ-सफाई पर बात कर सकते हैं। बच्चों के दोस्तों से बात करा सकते हैं। परिजनों से बात करा सकते हैं। यदि वे सहमत हों तो उनके अध्यापकों से बात करा सकते हैं। बच्चे यदि उदास या गुमसुम दिखाई देते हैं, तो उनके निकट बैठ सकते हैं। एक दोस्त की मानिंद उन्हें सुन सकते हैं। उनकी पसंद-नापसंद चीजों के बारे में बात कर उनका तनाव कम किया जा सकता है।
कुछ सार्थक गृह कार्य दिया जा सकता है-
एक-अंग्रेजी और हिन्दी दोनों में भी या सुविधाजनक तरीके से जिस पर बच्चे सहज हों, रसोई की ची़जों,वस्तुओं की सूची बनवाई जा सकती है। रसोई में बनने वाले भोजन की लिखित में रेसिपी लिखवाई जा सकती है। रसोई के सब खाद्य पदार्थ भारतीय नहीं हैं। कौन-कौन सी ऐसी चीज़ें हैं जो विदेशी हैं और अब हमारी रसोई का अभिन्न हिस्सा हो गई हैं? उनके बारे में बच्चे लिख सकते हैं।
दो-घर,कमरों में उपलब्ध सामान की सूची बनवाई जा सकती है। उन्हें भी बांटा जा सकता है। स्थानीय,भारतीय और विदेशी सामान की सूची अलग-अलग बनवाई जा सकती है।
तीन-दर्पण,रसोई गैस, पंखा,कूलर, फ्रीज, टीवी,कंप्यूटर,लैपटाॅप,मोबाइल,टाॅर्च, तकनीकी और गैर तकनीकी वाले सामान की कार्यप्रणाली पर लिखवाया जा सकता है।
चार-घर के सामान में लकड़ी,लोहा,प्लास्टिक की चीजों,सामान,वस्तुओं की सूची बनवाई जा सकती है। इस पूरी प्रक्रिया में मिट्टी के बरतन से लेकर स्टील,तांबा,लकड़ी लोहा की प्रक्रियाओं पर बच्चे अपने विचार लिख सकते हैं।
पाँच-स्टोर में रखे सामान पर बात हो सकती है। फिल्टर कैसे काम करता है। फिल्टरों के प्रकारों पर बात हो सकती है। पानी पर बात हो सकती है।
छःह-कपड़े धोने के साबुन,नहाने के साबुन,शैम्पू, सौंदर्य प्रसाधनों को गहराई से समझने, उनके रासायनिक तत्वों और उसका हम पर असर आदि पर चर्चा और लेखन करवाया जा सकता है।
सात-हिंदी,संस्कृत,अंग्रेजी के यदि शब्दकोश हैं तो उनकी मदद से बच्चों को खूब व्यस्त रखा जा सकता है। वे प्रतिदिन सिर्फ एक-एक मनचाहा नया शब्द काॅपी पर उतारेंगे। उसका अर्थ लिखेंगे। दस अलग-अलग वर्ण के एक-एक शब्द को उतारने को कहा जा सकता है। उसका उच्चारण भी सुना जा सकता है। लेकिन दूसरे दिन वे दस वर्ण पहले दिन के वर्ण और उनसे लिखे हुए शब्दों से भिन्न होंगे। माना आज बच्चों ने एबीसीडीइएफजीएचआईजे के एक-एक वर्ण लिखे तो कल वे केएलएमनओपी से टी तक के एक एक नए शब्द लिखेंगे। इस तरह फिर लौट कर एबीसीडी वर्ण तो दोहराए जाएंगे लेकिन ठीक अगले दिन नहीं और हर दिन नए शब्द लिखे जाएंगे। एक पैटर्न और नियम के तहत बच्चों को बढ़ा मज़ा आएगा।
आठ-घर में मानचित्र या एटलस है तो इससे कई गतिविधियां कराई जा सकती हैं। यह तो असीमित हैं। न सिर्फ शहरो,राज्यों देशों के नाम मात्र लिखवाएं जा सकते हैं बल्कि बहुत कुछ नया लिखवाया जा सकता है। वह भी समझ के साथ।

नौ- ग्लोब से तो कई गतिविधियाँ हो सकती हैं। ( जीत यायावर जी ने ग्लोब-एटलस की ये गतिविधियाँ - अभ्यास सुझाए हैं -
आम तौर पर इन्हें शिक्षा की अतिरिक्त और गैर जरूरी सामग्री ही समझा जाता है। बच्चों से निम्न बिंदु पर भी चर्चा की जा सकती है, उन्हें सोचने, समझने का मौका दें कि यदि -
1. हमारी पृथ्वी गेंद जैसी गोल न होकर थाली जैसी गोल होती तो क्या होता।

2. अगर पृथ्वी गेंद जैसी गोल है तो फिर ऑस्ट्रेलिया के लोग रूस के लोगो की तुलना में उल्टे चलते है क्या।
3. क्या होता यदि पृथ्वी झुकी न होती।
4. यदि पृथ्वी गोल है तो फिर एटलस के सभी विश्व नक्शों में अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, फ्रांस (विकसित) आदि देश हमेशा ऊपर ही नज़र क्यों आते है। गोले में तो कोई ऊपर - नीचे नहीं होता।

आदि।
*****
बहरहाल,मुझे लगता है कि रस्म अदायगी के तौर पर किताबी होमवर्क बच्चों पर थोपा जाने वाला काम है। यह उबाऊ होता है और इससे नीरसता बढ़ती है। जबरन लिखवाने वाला गृहकार्य सिर्फ पेज भरने वाला है। यह ऐसा दबाव माना जाएगा जिसमें बच्चे सीख नहीं रहे हैं बस उसकी काॅपी कर रहे हैं।
मैं नहीं मानता कि इन दिनों दिया जा रहा होमवर्क बच्चों की अभिरुचियों का है। बच्चों के अपने अनुभवों के लिए क्या उस होमवर्क में स्थान है? लेकिन ऊपर जो काम सुझाया गया है वह उनकी इच्छा और अनुभव पर केन्द्रित है। भले ही आपने कुछ नियम और पैटर्न बनाए हैं पर कुछ आजादी है जिसकी वजह से वह इसे करने में आनंद लेंगे।

कमाल तो यह हो रहा है कि वेबआधारित जो गृह दिया जा रहा है उसमें भी स्पर्धा का भाव पैदा किया जा रहा है। व्हाट्सएप पर जो बच्चे काम की गवाही दे रहे हैं हम उन्हें शाबासी भेज रहे हैं। दूसरा जो बच्चे नहीं कर पा रहे हैं या धीमें हैं उन्हें उसी लहज़ें में आदेश-निर्देश-समझाइश का एक भी अवसर नहीं चूक रहे हैं।
जिस तरह के गृहकार्य को दिए जाने की यह आलेख सिफारिश कर रहा है उसमें एक बात दीगर है उसकी जांच गलतियां निकालने के लिए न की जाए। दूसरा स्कूल में और परीक्षा में अंक कट जाएंगे वाली बात घर में कदापि न की जाए। स्कूल में वैसे ही तनाव है। अब हम घर में भी बच्चों को तनाव क्यों दें?
अभी कल ही एक प्रतियोगिता पढ़ रहा था। वह कोरोना काल में बच्चों से घर पर रह कर करवाई जा रही है। अच्छी बात है। लेकिन दस सर्वश्रेष्ठों के इनाम देने की घोषणा से आप क्या साबित करना चाहते हैं? श्रेष्ठतम,श्रेष्ठ,समान्य, सामान्य से कम और असफल के ठप्पे लगाने वाले आप कौन होते हैं?
मेरा साफ मानना है कि गृह कार्य यदि दिया भी जा रहा है तो उसमें बच्चे के लिए कितनी आज़ादी है? स्वायत्तता का स्थान है? अध्यापक को भी गृह कार्य कैसा देना है? इसकी आजादी है? कही ऐसा तो नहीं कि बच्चों के लिए ये दिन उन पर मनमाना आदेश थोपने जैसे कट रहे हों? क्या हम ऐसा गृहकार्य दे पा रहे हैं जिसमें बच्चे का चिंतन कौशल बढ़ रहा है? अचरज करने वाली पाठ्य सामग्री दे पा रहे हैं? आनंद प्रदान करने वाला गद्य या पद्य दे पा रहे हैं? जो गृह कार्य हम दे रहे हैं उसमें घर में भले ही एक ही बच्चा है वह अभिभावकों से विचार विमर्श कर उसे लिख रहा होगा। हम कब समझेंगे कि ज्ञान का सृजन केवल विद्यालय में नहीं होता। ज्ञान का स्रोत एक मात्र पाठयपुस्तकें भी नहीं हैं। ज्ञान के वेत्ता मात्र शिक्षक ही नहीं हैं। हाँ। मैं ऐसे काम को दिए जाने का पक्षधर हूं जो बच्चों में घर बैठे खोजबीन करने की आजादी दे। वह काम चुनौतीपूर्ण भी हो चलेगा लेकिन वह सिरदर्द पैदा कर दे, यह उनके साथ अत्याचार से कम नहीं।

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पुनश्च: ऐसी गतिविधियां जो बच्चों को बोझ न लगें और वे उसे स्कूली काम न समझें। आप भी सुझाइएगा। मैं एक अध्यापक हूं और अभिभावक भी। मैं भी कोरोना काल में बच्चों को समझने का प्रयास कर रहा हूँ। कृपया मदद कीजिएगा।

-मनोहर चमोली ‘मनु’
7579111144
***सभी फोटोज़ अलग-अलग दिनों की हैं। कुछ फोटोज़ कोरोनाकाल से पूर्व की हैं।

28 अप्रैल 2020

लेकिन एक सुशिक्षित पादरी, मौलवी, ग्रन्थी और पण्डित पाखण्ड करे?

बचपन एक फिर राह अनेक कैसे हो गई?

-मनोहर चमोली ‘मनु’

सुरजीत पहली कक्षा से मेरा सहपाठी रहा। होशियार बच्चों में उसकी गिनती होती थी। पहले तो ध्यान नहीं दिया। एक दिन (कक्षा याद नहीं) वह पगड़ी,कंगन,कृपाण पहनकर आया। कुछ दिनों बाद समझ में आया कि वह सरदार हो गया है। आगे जाकर पता चला कि मुंडा क्या होता है और सरदार क्या होता है। उसका व्यवहार बहुत बदल गया। कुछ अवसरों पर उसकी कुछ बातें हैरान करती थीं। उसे तैयार होने में और कही किसी समूह में सहभागिता करते हुए परेशानी होती थी। धीरे-धीरे वह गुरुद्वारा के काम-काज में व्यस्त हो गया। काॅलेज तक पहुँचते-पहुँचते वह मुख्यधारा से बेहद पिछड़ गया।

मज़ाहिर के बारे में भी बताता चलूं। हमारे जैसा ही था। गाता बहुत अच्छा था। डांस भी करता था। कमेंट्री भी बढ़िया करता था। उसका लतीफा सुनाना हमें हमेशा अच्छा लगता था।
पाँचवी जमात के पास के बाद जब हम दूसरे स्कूल में पढ़ने गए तो वह उलट व्यवहार करने लगा। हर चीज़ में इनकार कर देता। गाना,डांस करना यहां तक कि लतीफा सुनाना तो दूर वह सुनने से भी परहेज़ करने लगा। काॅलेज तक वह पहुँचा ही नहीं लेकिन सिर पर टोपी और दाढ़ी और सूरमा उसकी पहचान हो गए।


सारिया हंसोड़ थी। आए दिन उसकी शैतानियों से हम तंग आ जाते। सोमवार से शनिवार के दिनों में एक दिन ऐसा आता जब उसे खड़ा कर दिया जाता। कारण। कक्षा में कोई ऐसी हरकत करना, जिससे मास्साब तंग हो जाया करते थे। धक्का-मुक्की करना उसकी आदत थी। सहपाठियों की किताबें छिपाना उसका काम था। दूसरों को खूब तंग करती और खिलखिलाकर हंसती। बाद दिनों में उसकी बोलती बंद हो गई। आगे चलकर वह क्राॅस के लाॅकेट चैन सहित बांटती। यीशु मसीह की किताबें बांटने लगी। वक़्त से पहले धीर,गंभीर हो गई। चर्च के चक्कर काटने लगी।

विनय मोहन ‘बिन्नू’ बेहद मिलनसार था। ख़ूब घुमक्कड़। चटोरा। उसने ही हमें यारबाज़ बनाया था। हाॅफ डे,फीस डे के दिन वह तय करता कि किसके घर जाना है। हम लगभग पचास एक सहपाठी थे। लड़कियां ज़्यादा थीं। वह हर किसी के घर चला जाता। हमें भी ले जाता। रसोई में जाकर वह खुशबूओं की गंध सूंघने का अभ्यस्त था। हम उसे भुक्कड़ कहते। उसकी लोकप्रियता देखकर कई बार हमें दिक्कत होती। बाद दिनों में बिन्नू ऐसा बदला,ऐसा बदला कि हम हैरान हो गए। वह जन्माष्टमी,शिवरात्रि,रामलीला में सक्रिय हो गया। बिना नागा टीका लगाकर आने लगा। हम दसवीं में थे। बिन्नू हाथ देखने लगा। क्या लड़के और क्या लड़कियाँ ! उसे हाथ दिखाने को आतुर रहते। परीक्षा परिणाम आया तो वह रह गया। ऐसा रहा कि फिर रह ही गया। हाथों में पत्थर जड़ी अंगूठियां पहनकर अक्सर मिल जाता।

सुरजी, मज़ाहिर,सारिया और विनय मोहन उर्फ बिन्नू कालान्तर में छूट गए। पच्चीस-तीस साल बाद पता चला कि ये चारों जो कक्षा में बस आपके-हमारे जैसे मात्र विद्यार्थी थे। अक्षर ज्ञान हासिल करने आए थे। लेकिन अक्षरों की दुनिया के साथ-साथ समाज ने उन्हें धर्म की अफीम इतनी चटा दी कि उन्होंने मान लिया कि धर्म मनुष्य के मनुष्यता से ज़्यादा ज़रूरी है। वे अपने-अपने धर्म से सामने वाले को देखने लगे। वे भूल गए है कि मनुष्य पहले आया, धर्म नहीं।

कभी-कभी जब उन सुनहरे दिनों को याद करता हूँ तो एक अलग तरह की अनुभूति होती है। इन चारों दोस्तों पर दया आती है। हमारे सामने-सामने कट्टरता ने चार प्रतिभाशाली दोस्त हमसे छीन लिए। वे हमारे आस-पास रहकर भी हमारे पास नहीं रह गए थे। उन्होंने स्कूल की पढ़ाई और जीवन की पढ़ाई में तर्क, समझ और मनुष्यता को पीछे धकेल दिया। धर्मान्धता को तरजीह देकर उसे दवा मान लिया। धार्मिक, धार्मिक अतिवादी तो छोड़िए वे पाखण्डी हो गए। वे पाखण्ड के रास्ते पर चले पड़े। पाखण्डियों की पूंजी जमा करने लगे। उनकी सारी ऊर्जा अपने-अपने ईश्वर को महान बताने में खप गई। हम कुछ गहरे दोस्तों से वे पढ़ाई के दौरान ही कटने लगे थे। ऐसा नहीं है कि जो अपने और दूसरों के धर्मों के प्रति उदार हैं और अपने धर्म के प्रति बेहद लचीले हैं, कामयाब हैं।

कामयाबी की परिभाषा क्या है? मैं नहीं जानता। लेकिन एक सुशिक्षित पादरी, मौलवी, ग्रन्थी और पण्डित पाखण्ड करे? ग्रन्थों के हिसाब से दिनचर्या तय करे? मनुष्य को मज़हब के चश्मे से देखे? भयाकुल में मंत्र बांचे। बिना नागा आयतें देखे। पूजा-पाठ, नमाज़, शबद, कीर्तन को गले लगाए और मनुष्यता को दोयम समझें? ऐसे संग से बचना ही ठीक है। हालांकि मुझे आज तक इस बात का दुःख है कि मैंने और मेरे जैसे दोस्तों ने बार-बार कोशिश कि हमारी दोस्ती बनी रहे। बची रहे। लेकिन हम उनके जितना पास जाते रहे वे हमसे दूर होते गए।

खैर.......मैं उन चारों से और उनके जैसों से पूछना चाहता हूँ कि क्या वे बता सकेंगे कि कोरोना काल अभी कितनों की जान लेगा? क्या वे बता सकेंगे कि आगामी दस-बारह महीनों बाद नमक-प्याज क्या भाव रहेगा? क्या वे बता सकेंगे कि मजदूर-किसान क्या करें जिससे उनकी बदहाली जाती रहे?
#कोरोना काल ने दोस्तों को खगालने का वक़्त दिया।

ज़रूरी हस्ताक्षर हैं हिन्दी बाल साहित्य में श्रीप्रसाद

हिन्दी बाल साहित्य में श्रीप्रसाद ज़रूरी हस्ताक्षर हैं। उन्होंने बाल साहित्य को परम्परा,भाव,बोध और आनंद के नाम पर उम्दा रचनाएं दी हैं। बाल साहित्य हमेशा उनके प्रति कृतज्ञ रहेगा। पद्य में उन्होंने विपुल रचनाएं सृजित की हैं। उन्हें पढ़ना और पढ़कर समझना अपने आप में श्रमसाध्य है। यहाँ कुछ बाल कविताएं पढ़कर उन्हें और साहित्य को समझने का आंशिक प्रयास किया गया है। प्रतिक्रियाओं का स्वागत रहेगा।  

-मनोहर चमोली ‘मनु’


बाल साहित्य में पुच्छल तारा हैं श्रीप्रसाद

-मनोहर चमोली ‘मनु’ 

साहित्य में बालमन के कुशल चितेरों में श्रीप्रसाद एक बड़ा नाम हैं। बच्चों के लिए बालसुलभ साहित्य की जब भी बात होगी, श्रीप्रसाद का नाम लिए बगैर अधूरी मानी जाएगी। श्रीप्रसाद ने मौसम, काल, धरती, आकाश, खिलौने, यंत्र, यातायात के साधन, ग्रामीण जीवन, शहरी जीवन, त्यौहार, जीव-जन्तुओं, पालतू पशुओं, उनके व्यवहार, बाल मन के संवेगों, मानवीय रिश्तों, खान-पान, स्वाद, पकवानों, राष्ट्रीय गौरव, अस्मिता, नागरिक बोध एवं मनुष्य की गरिमा, प्यार, दोस्ती, प्रकृति आदि को अपनी कविता का हिस्सा बनाया। साहित्य के अध्येता जब भी श्रीप्रसाद के व्यक्तित्व और कृतित्व की पड़ताल करते हैं तो पाते हैं कि कैसे एक कलमकार अपने बचपन, बच्चों के बचपन और लोकजीवन को अपनी रचनाओं में शामिल करता है ! श्रीप्रसाद अपने समय के ही नहीं, समय से आगे चलने वाले कवि हैं। 

Shriparsad ji

यह सही है कि किसी भी कविता को महसूसते हुए कवि का देशकाल, परिस्थिति और वातावरण भी महसूसना होगा। हाँ, कई कविताएं ऐसी बन पड़ती है कि वे कल, आज और कल का पता नहीं देती। ऐसा लगता है कि आज ही रची गई हो। अभी रची गई हो। तभी तो वे पुराने समय के नये कवि कहलाते हैं। उनकी कई कविताओं में नयापन आज भी देखा जा सकता है। श्रीप्रसाद की कई कविताओं में पाठक को रचनाकाल में नहीं जाना पड़ता। ऐसा लगता है कि कवि ओर कविता जैसे आस-पास ही हैं। यह बड़ी नहीं, विशेष बात है। 

श्रीप्रसाद कभी भी कल के कवि नहीं माने जाएंगे। वह हमेशा आज के कवि माने जाएंगे। उन्होंने बड़ी ही सरलता से मेहनत की पुरजोर वकालत की है। बच्चों को यह नहीं कहा कि मेहनत करो। 
सफल हो जाओगे। 
आलस करोगे तो पिछड़ जाओगे। 
कमोबेश, नहीं कहा। सुबह को मेहनती बताया और बच्चों से ही पूछ लिया कि सोचो यदि सुबह ही आलसी हो जाए और प्रकट न हो तो? 

रचना की सुन्दर पँक्तियाँ-

‘मेहनत सबसे अच्छा गुण है
आलस बहुत बड़ा दुर्गुण है
अगर सुबह भी अलसा जाए
तो क्या जग सुन्दर हो जाए’

यह कहना गलत न होगा कि श्रीप्रसाद समाज के साथ भी चलते रहे और समाज के आगे भी चलते रहे। उन्होंने जानदार रचनाएं देकर बालमन की बुद्धि को उर्वर बनाने के लिए अनुमान और कल्पना के साथ यथार्थ को समझने का चिन्तन भी दिया। कवि कविताएं हैं जो पढ़ते ही पता देती हैं कि वह श्रीप्रसाद जी की हैं। अनुमान और कल्पना को ऐसा आकार देना श्रीप्रसाद से सीखा जाना चाहिए। कविता की कुछ पँक्तियाँ-

‘चरागाह हलवे का होता
बड़ा मज़ा आता
हर पर्वत बरफी का होता
बड़ा मज़ा आता
लड्डू की सब खानें होतीं
बड़ा मज़ा आता
दुनिया घर में पेड़े बोती
बड़ा मज़ा आता’

श्रीप्रसाद ने अमूमन कविताओं में बालमन को ध्यान में रखा है। कई कविताएँ बच्चों के लिए लिखी गई हैं। कई कविताएँ बच्चों की ओर से लिखी गई हैं। बच्चों की ओर से लिखी गई कविताओं में कवि का स्वर नहीं दिखाई देता। यही कौशल उन्हें लीक पर चलने वाले कवियों से अलग करता है। बच्चों के खान-पान का पता रखना भी एक बड़ा काम हैं। भले ही यह बहुत ही पुरानी कविता है। चूरन आज नए तरीके से बच्चों के सामने आ गया है। पर चूरन के बहाने बच्चे जो चटपटी चीज़ें खाते हैं। इस कविता को पढ़ते समय बड़ों की लार भी टपकने लगती है। सीधें बच्चों के ख़्यालात पकड़ती इस कविता को पढ़ने का आनन्द ही कुछ ओर है-

‘बिल्ली बोली बड़ी जोर का
मुझको हुआ जुकाम
चूहे चाचा चूरन दे दो
जल्दी हो आराम
चूहा बोला बतलाता हूँ
एक दवा बेजोड़
अब आगे से चूहे खाना
बिल्कुल ही दो छोड़’

जब भारत आज़ाद हुआ तो श्रीप्रसाद किशोर हो चुके थे। उन्नीस सौ बत्तीस में जन्में श्रीप्रसाद के लेखन में जो विविधता दिखाई पड़ती है उसके मुख्य कारणों में आजादी से पहले का काल महत्वपूर्ण माना जाएगा। अंग्रेजी शासन अपने चरम पर था। ज़ाहिर है कि किस्से-कहानियों-लोरियों-बातों-मुलाकातों में वह दौर गहरे से मन में पैठा होगा। आजाद भारत का नवोदय और श्रीप्रसाद का युवा जीवन, सपनें, उमंगे और उस दौर की न्यून साक्षरता दर ऐसे कई कारण थे, जिसकी वजह से उनकी कविताओं का फलक भी बड़ा है। श्रीप्रसाद बिना अति आदर्श की चीज़ें प्रस्तुत करते हुए भी बच्चों की अवलोकन क्षमता को जगह देते हैं। बच्चे भी सब समझते हैं। बच्चे हम बड़ों का भी विश्लेषण करते हैं। यह उन्होंने बिना कहे ही इस कविता में बच्चों की ओर से हम बड़ों के लिए बड़ी रोचकता के साथ प्रस्तुत किया है-

‘खाने को दो खीर कदम
खाने को दो मालपुआ
खाने को देना पेड़े
माँग रही हैं बड़ी बुआ
बड़ी बुआ ने खाया सब
बड़े पलँग पर बैठीं अब
अब क्या लेंगी बड़ी बुआ
शायद माँगेंगी हलुआ’

एक कवि की कविताओं में विविधता की पड़ताल करनी हो तो श्रीप्रसाद जी को ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में यदि श्रीप्रसाद की कविताएँ प्रकाश में नहीं लाई गईं है तो प्रत्यक्ष है कि पड़तालकर्ता का अध्ययन और चिन्तन अधूरा है। श्रीप्रसाद सोच और बिम्ब के विराट कवि हैं। वे सरलता के धनी हैं। सहजता और सादगी उनकी पूंजी है। यह सब उनकी कई कविताओं में दिखाई देता है। मुझे उनकी एक कविता बेहद पसंद है। दही-बड़ा। क्या ग़जब की कविता है। ऐसाी कविता बालसाहित्य के आकाश में किसी चाँद से कम नहीं है। बच्चे ही नहीं बड़े भी इस कविता का आनंद लेते हैं। इस कविता की कई खासियतें हैं। इस कविता को यदि दस चित्रकारों को एक समय में दिया जाए और वे अलग-अलग बैठकर अपनी कल्पना से इस कविता का चित्रांकन करें तो पाठकों को दस अलग चित्र और चित्र के सहारे नई दुनिया देखने को मिलेगी। यह कविता मात्र चूहों का बयान नहीं है। इस कविता में जो मेलजोल का भाव है। सामूहिकता की बात है। वह एक नई ऊर्जा देती है। साहस भर देती है। बिना संदेश,उपदेश के यह कविता हम मनुष्य में मनुष्यता भर देती है। सामहिकता से किए गए किसी काम को पूरा करने के बाद जो आनन्द की अनुभूति होती है, उसे महसूस किया जा सकता है-

‘सारे चूहों ने मिल-जुलकर
एक बनाया दही-बड़ा
सत्तर किलो दही मँगाया
फिर छुड़वाया दही-बड़ा
दिन भर रहा दही के अंदर
बहुत बड़ा वह दही बड़ा
फिर चूहों ने उसे उठाकर
दरवाजे से किया खड़ा
रात और दिन दही बड़ा ही
अब सब चूहे खाते हैं
मोज मनाते गाना गाते
कहीं न घर से जाते हैं’

निरर्थक और ध्वन्यात्मक वर्ण-शब्द उनकी कविताओं में सायास आए हुए हैं। उन्हें ठूंसा नहीं गया है। उनकी कविताओं पर बात करते हुए हमें बारम्बार उनका देशकाल और वातावरण याद रखना चाहिए। अपवादों को छोड़ दें तो भारतीय कवियों का विपुल लेखन युवावस्था के दौर का मिलता है। ध्वन्यात्मक और निरर्थक शब्द भी स्वतः अर्थ देने लगते हैं। मज़ेदार बात तो यह है कि पाठक अपने-अपने स्तर से इन शब्दों को आत्मसात् भी कर लेते हैं-

‘सौ हाथी यदि नाच दिखाएँ
यह हो कितना अच्छा
नाच देखने को आएगा
तब तो बच्चा-बच्चा
धम्मक-धम्मक पाँव उठेंगे
सूँड झम्मक-झम्मक
उछल-उछल हाथी नाचेंगे
छम्मक-छम्मक-छम्मक
जो देखेगा हँसते-हँसते
पेट फूल जाएगा
देख-देख करके सौ हाथी
बड़ा मज़ा आएगा’

श्रीप्रसाद जी तो प्रौढ़ावस्था तलक भी ख़ूब लिखते रहे। आजाद भारत से लेकर आपातकाल तक भी श्रीप्रसाद साहित्य में उन समकालीनों में एक हैं जिन्होंने हिन्दी बाल कविता का परचम उठाए रखा था। वे उस समय नए भाव, बोध की कविताएँ लेकर छाए हुए थे। यूँ तो हिंदी बाल कविता का वह दौर आजाद भारत के संदर्भ में नयापन लिए हुए था। लेकिन उस दौर में भी श्रीप्रसाद परम्परागत प्रकरणों में बाल सुलभता लेकर लगातार उपस्थित रहे। वे हर समय नए युग को ग्रामीण संस्कृति की ओर से लगातार अपने काव्य से चमत्कृत करते नज़र आते हैं। श्रीप्रसाद जी की कई कविताएँ एक साथ कई बातों,भावों और घटनाओं को साथ लेकर चलती हैं। पूरी रवानगी के साथ। ऐसी कविताएं जो सहजता के साथ गूढ़ बातों की परतें बगैर किसी वैज्ञानिक शब्दावली के सहारे खोलती हैं, कम ही प्रकाश में आती हैं-
















‘दादी चिल्ला करके बोली
मुन्नू जल्दी भाग
घर के पास बड़े छप्पर में
लगी जोर की आग
कोई पानी लेकर दौड़ा
कोई लेकर धूल
जलती बीड़ी फेंक फूस पर 
किसने की यह भूल
छप्पर जला जले दरवाजे
सब जल गया अनाज
तभी सुनी सबने घन-घन-घन
दमकल की आवाज़
घंटे भर में दमकल ने आ
तुरत बुझाई आग
दमकल के ये वीर सिपाही
करते कितना त्याग
आक्सीजन और कार्बन 
इनका जब हो मेल
गरमी और रोशनी देकर
आग दिखाती खेल
जाड़े में हम आग तापते
शीत न आती पास
आग बड़ी ताकत है लेकिन
करती बहुत विनाश
छुक-छुक चलती इससे रेलें
चलते हैं जलयान
चमकाती है सारे घर को
दीये की बन शान’

कौन नहीं जानता कि श्रीप्रसाद की कविताएँ मज़ेदार हैं! कई कविताएं बोलती हैं। कविताओं में आए चरित्रों का रेखाचित्र अनायास ही बनने लगता है। वह बच्चों के  मनोविज्ञान को बखूबी समझते हैं। यही कारण है कि उनकी कविताएं सीख-सन्देश से इतर समझ आधारित भी हैं। हास-परिहास की मात्रा भी वह बालसुलभता को ध्यान में रखकर शामिल करते हैं। श्रीप्रसाद जैसे कवि कम ही हैं जो सर्दी,गरमी और बरसात को आफत नहीं ज़रूरी बताते हैं। वरना उफ ये गरमी, उफ ये सरदी आदि भाव देने वाली सैकड़ों कविताओं में ये कविता अलहदा न होती-

‘आई है सुंदर बरसात,जरा देखो तो 
लगती हैअब बिलकुल रात, जरा देखो तो
उमड़ घुमड़कर बादल आए हैं
आसमान में आकर छाए हैं
मेढकों की ये बारात,जरा देखो तो
आई है सुंदर बरसात,जरा देखो तो’ 

कविताएँ पढ़ते-पढ़ते यह आभास सरलता से हो जाता है कि श्रीप्रसाद बच्चों में आदर्श थोपते हुए नहीं ही दिखाई देते हैं। वे उपदेश और नीतिवचन रटाने वाले कवि नहीं हैं। श्रीप्रसाद ने जीवन भी ऐसे ही जिया और लिखा भी वैसे ही है। श्रीप्रसाद अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से हमेशा सम्मान की नज़र से देखे जाएँगे। यह कहना गलत न होगा कि साहित्य श्रीप्रसाद का कृतज्ञ रहेगा। उनकी निरन्तर सक्रियता ने कईयों का मार्ग प्रशस्त किया। कईयों को उन्होंने लिखने के लिए प्रेरित भी किया। 
यह बात सही है कि उनका और उनकी शैली का अनुसरण कईयों ने किया। लेकिन उनकी तरह के अर्थहीन,अनगढ़ और बेतुके शब्दों को सार्थक अर्थ देने वाले कवि कम ही हुए हैं। दरअसल सारा मामला बच्चों से जुड़ा होने का है। श्रीप्रसाद की कविताओं से साफ पता चलता है कि उनका सूक्ष्म अवलोकर और परिवार,आस-पास तथा समाज के बच्चों पर गहरी नज़र,संग-साथ भी रहा। तभी तो वे बच्चों की ज़ुबान को कविता में कहन और लय के साथ ले आते हैं-

‘लड़ते हो जी,तुम से कुट्टी
नहीं लड़ोगे,अच्छा मिल्ली
आओ,खेलें हम मिलजुलकर
हाथ मिलाओ,लिल्ली-लिल्ली
॰॰॰
ते अब कभी न होगी कुट्टी
सदा रहेगी मिल्ली-मिल्ली
हम दोनों हैं प्यारे साथी
आपस में हैं हिल्ली-मिल्ली’

श्रीप्रसाद जी ने ऐसी कविताएं लिखी हैं जो परम्परा में नहीं थीं। दुःख होता है कि चिड़िया पर श्रीप्रसाद जी के बाद सैकड़ों कविताएं रची गईं। लेकिन श्रीप्रसाद जी जैसी गहराई उत्तरवर्ती रचनाओं में देखने को कम मिलती हैं। इस कविता में जहाँ तिनका-तिनका जोड़कर घोंसला बनाने की बात आई है वहीं अप्रत्यक्ष तौर पर ‘होमसिकनेस’ से दूर रहने की बात भी आई है। मुझे लगता है कि सादगी और चीज़ों,अपनों,चल-अचल सम्पत्ति से मोह को भी ठोकर मारती ये कविताएं बच्चों को दूसरे ढंग से परिष्कृत करने की सामथ्र्य रखती है। वह भी झूठे,कोरे नारों-उपदेशों से हटकर सरलता से कहकर। कमाल की रचना है-

‘चिड़िया ने घोंसला बनाया
मेहनत की भारी
एक-एक कर तिनके लाई
चिड़िया बेचारी
॰॰॰
चिड़िया उनको चुग्गा लाती
और खिलाती थी
बार-बार बाहर जाती थी
जल्दी आती थी
॰॰॰
जब बच्चों को उड़ना आया
च्ले गये उड़कर
छोड़ गई चिड़िया भी अपना
बना बनाया घर
यह चिड़िया ऐसा ही फिर
घोंसला बनायेगी
अंडे देगी,बच्चे पाकर
खुश हो जायेगी’

हालांकि यह कहना सही होगा कि कोई भी कवि अलग से पैदा नहीं होता। वह अपने पूर्व कवियों के आलोक में भी आगे बढ़ता है। अंततोगत्वा उसे अपनी राह अलग बनानी ही पड़ती है। श्रीप्रसाद ने भी अपने पुरानेपन को ही संभालकर नहीं रखा। अपने दौर में वह नवीनता लिए हुआ भी उपस्थित हुए। इसे उनकी संपूर्ण साहित्यिक यात्रा की स्थिति से परखा जाना चाहिए। श्रीप्रसाद कितने आत्मीय हैं! कितने संवेदनशील हैं! इस प्रकृति के हर जीव की अस्मिता और प्राण की उन्हें कितनी चिन्ता थी! किसी चिड़िया का तीर से मारा जाना उन्हें गहरे चिन्तन में ले जाता है-

‘अब बगिया में मीठे-मीठे
कौन गीत गाएगा
कोई भी पक्षी डरकर
अब यहां नहीं आएगा
बाग लगेगा कितना सूना
होगा यहां न गाना
चिड़िया गई और मीठे
गीतों का गया खजाना’

यह कहना गलत न होगा कि श्रीप्रसाद आजीवन बाल साहित्य के सृजन में लगे रहे। उनका अध्ययन भी वृहद था। उनकी भाषा हमेशा सरल रही। आम बच्चे की भाषा उनकी विशेषता रही है। लय को वह चमत्कृत ढंग से प्रस्तुत करने वाले कवियों में हमेशा याद किए जाते रहेंगे। हल्लम-हल्लम हौदा कविता श्रीप्रसाद के नाम का पर्याय मानी जाती है। यदि श्रीप्रसाद जी की बात हो और इस कविता पर चर्चा न हो तो सब व्यर्थ है। और हाँ हाथी पर बात हो और श्रीप्रसाद जी की इस कविता की बात न हो तो समझिए हाथी को जानना अधूरा है। हाथी के एक अलग नज़रिए से देखने का सलीका उनकी अद्भुत कविता में किसे हतप्रभ नहीं करता-

‘हल्लम-हल्लम हौदा,हाथी चल्लम चल्लम
हम बैठे हाथी पर, हाथी हल्लम हल्लम
लंबी लंबी सूँड़ फटाफट फट्टर फट्टर
लंबे लंबे दाँत खटाखट खट्टर खट्टर 
भारी भारी मूँड़ मटकता झम्मम झम्मम
हल्लम-हल्लम हौदा,हाथी चल्लम चल्लम
पर्वत जैसी देह थुलथुली थल्लल थल्लल
हालर हालर देह हिले जब हाथी चल्लल
खंभे जैसे पाँव धपाधप पड़ते धम्मम
हल्लम-हल्लम हौदा,हाथी चल्लम चल्लम
हाथी जैसी नहीं सवारी अग्गड़ बग्गड़
पीलवान पुच्छन बैठा है बाँधे पग्गड़
बैठे बच्चे बीस सभी हम डग्गम डग्गम
हल्लम-हल्लम हौदा,हाथी चल्लम चल्लम
दिनभर घूमेंगे हाथी पर हल्लर हल्लर
हाथी दादा जरा नाच दो थल्लर थल्लर
अरे नहीं हम गिर जाएँगे घम्मम घम्मम
हल्लम-हल्लम हौदा,हाथी चल्लम चल्लम’

जैसा पूर्व में भी कहा गया है श्रीप्रसाद का लेखन दीर्घकालिक रहा। वह अपने पूर्ववर्ती, समकालीन और फिर नवोदितों के साथ भी साहित्य की यात्रा पर रहे। लिखते रहे। छपते रहे और प्रसिद्धि पाते रहे। डाॅ॰ श्रीप्रसाद गद्य के साथ पद्य में साधिकार रखते थे। इस लेख में केवल उनकी बाल कविताओं की चर्चा की जा रही है। लेकिन यह बताना जरूरी होगा कि उनके संपादन में नब्बे के दशक में प्रतिनिधि बाल गीत किताब भी आई। वह भी ख़ूब चर्चा में रही। श्रीप्रसाद कविता में नाद-सौन्दर्य सहजता से शामिल कर लेते हैं। बच्चों के लिए उन्हीं के अनुकूल शब्दों का इस्तेमाल श्रीप्रसाद से सीखा-समझा जा सकता है। 


















‘चल रे घोड़े‘ ऐसी ही कविता है। कविता में कई किस्से हैं। लयता-तन्मयता के साथ हैं। अनुमान और कल्पना के साथ ऐसी हतप्रभ करने वाली बातें हैं कि बच्चों को पूरा आनंद आता है। संभवतः आज से लगभग चालीस-पचास साल पहले लिखी गई इस कविता में सौ लड्डू का दिया जाना को सोचना-समझना होगा। ‘शेर गरजता गधा न डरता’ में जो बात है वह बड़ी मस्त है !पूरी कविता पढ़ते हैं तो समूचा दृश्य आँखों में खींचा चला आता है। कविता किसी एक नहीं बल्कि कई खास भाव और दृश्यों के साथ उपस्थित होती है। इस कविता को पढ़ते समय यदि हम खुद को पढ़ना सीख चुके बच्चे के स्तर पर पढ़ने-समझने की कोशिश करें तो कविता के साथ एक बच्चा या बच्ची जो भी घोड़े से बात कर रहा है या कर रही है को बेहद संवेदनशीलता के साथ महसूस किया जा सकता है-

‘चल रे घोड़े, चल अलमोड़े
तुझ पर बैठे हम
धम्मक धम्मक धम
सौ लड्डू ले बमबम बोले
खीर न देना कम
धम्मक धम्मक धम
कहते चाचा, दिखा तमाचा
करो नहीं ऊधम
धम्मक धम्मक धम 
ल्ेकर बिल्ली,जाता दिल्ली
चूहा चढ़ टमटम
धम्मक धम्मक धम
नचे बंदर,घर के अंदर
ढोल बजा ढमढम
धम्मक धम्मक धम
उछल-उछलकर मेंढक टर-टर
कहता-बादल थम
धम्मक धम्मक धम
शेर गरजता,गधा न डरता
चरता घास नरम
धम्मक धम्मक धम‘

प्राप्त जानकारी के अनुसार उत्तरप्रदेश के आगरा जिला में ग्राम पारना में जन्मे श्रीप्रसाद बाद में वाराणसी में रहने लगे। उनकी बेहद मशहूर किताबों में गीत बचपन के, भारतगीत, चिड़ियाघर की सैर, साथी मेरा घोड़ा, फूलों के गीत, तक तक धिन, आँगन के फूल, झिलमिल तारे, खेलो और गाओ, खिड़की से सूरज, आ रही कोयल, गुड़िया की शादी प्रमुख हैं। फुटकर में तो वे हर प्रसिद्ध पत्रिका में छपते रहे। वे पत्र-पत्रिकाओं में अपनी रचनाओं के माध्यम से अनवरत् बेहद सक्रिय रहे। जानकार बताते हैं कि श्रीप्रसाद ने पचास से अधिक पुस्तकें लिखी हैं।  

समकालीन साहित्यकारों का व्यक्तित्व और कृतित्व पर बात करते हुए कई किस्से हतप्रभ कर देते हैं। नए दौर के सभी साहित्यकार मनुष्यता के लिए रचनाकर्म करते होंगे? क़तई नहीं। कुछ ही साहित्यकार हैं जो आगे बढ़ने के लिए दूसरों को औज़ार नहीं बनाते। उपयोग, उपभोग और आत्ममुग्धता से इतर पाठक को उपयोगी रचना देने की दिशा में काम करते हैं। समकालीनों को अग्रज साहित्यकारों से सीखना चाहिए। अग्रज कौन-सा ठकुरसुहाती से दूर रहे हैं? लेकिन यह तय है कि सुविधा,अवसर और साधनों की ललक के पीछे भागने वाले साहित्यकारों को बड़ा नहीं माना जा सकता। पुरस्कार और सम्मान भी उन्हें बड़ा घोषित नहीं कर सकते। ऐसे तमाम उदाहरण हैं जिनसे पता चलता है कि अपने समय में जो बड़े महान बनते फिरते थे, उन्हें कालान्तर में कोई पूछता भी नहीं। ऐसे उदाहरण भी हैं जिन्हें समय ने उपेक्षित किया लेकिन कालान्तर में वे रचनाओं से महान माने गए। आज भले ही राज्याश्रित कवि नहीं हैं। चारण नहीं हैं। लेकिन आत्ममुग्ध रचनाकार ख़ूब हैं। अपनी रचनाओं को बार-बार पढ़ने वाले रचनाकार चारों ओर मिल जाएंगे। दूसरों की रचनाओं को न पढ़ने वाले और अच्छी रचना पढ़ने के बाद भी मौन रहने वाले रचनाकार भी मिल जाएँगे। बकौल धूमिल ‘कविता भाषा में आदमी होने की तमीज़ है’ को जानने-समझने वाली रचनाकार बहुधा कम ही मिलेंगे। संभवतः इक्कीसवीं सदी के युवा रचनाकारों से पाठक उम्मीद करेंगे कि वे इंसान और इंसानियत से जुड़े सभी सवालों को अपनी रचनाओं में शामिल करेंगे।

श्रीप्रसाद एक ही प्रकरण पर विस्तार से भी लिख पाते थे। पानी पर उनकी एक कविता है। सीधी,सरल पर गहरी कविता है-

‘जाने कब से पानी है
कितनी बड़ी कहानी है
कहीं ओस है, बर्फ कहीं है
पानी ही क्या भाप नहीं
सब रूपों में पानी है
कहती ऐसा नानी है’

दर्पण किसी को आकर्षक तो नहीं ही बना सकता। हम जैसे हैं वैसा ही दिखाई देंगे। हम हर कविता से जन सुधार और जन चेतना की उम्मीद क्यों करते हैं? आज भी अधिकतर कविता की प्रंशसा करते हुए सुना जा सकता है-‘‘वाह ! क्या संदेश है!’’ ‘‘बहुत सुंदर। इस कविता से बच्चा जीवन में सच बोलने के लिए प्रेरित होगा।’’ ‘‘अति सुन्दर। यह कविता बच्चों को देश पर मर मिटने के लिए प्रेरित करेगी।’’ आदि-आदि। साहित्य हर बार समाज में क्रांति लाएगा, ऐसा समझना मूर्खता है। साहित्य बच्चों में हर बार संस्कार पैदा करेगा,मानवीय मूल्य विकसित करेगा। ऐसा मानना उचित नहीं। समाज में पसरी अनैतिकता का उन्मूलन साहित्य से दूर नहीं होगा। अलबत्ता आनंद की अनुभूति भी साहित्य का एक मक़सद है। साहित्य हमारी सोच-समझ में सकारात्मक बदलाव करता है। यह सही है। सामाजिक परिवर्तन की खुराक भी साहित्य से मिलती है। यह भी सही है लेकिन साहित्य से जबरन सीख,संदेश चाहना ही बचकाना है।

 किसी कविता को बचकाना कहना भी साहित्य का अपमान है। श्रीप्रसाद अपने समकालीनों में बेहद प्रयोगधर्मी रहे। वे नितांत साहित्य के अध्येता बने रहे। स्तुतिगान और पीठ थपथपाए जाने के आकांक्षी नहीं रहे। किसी गुट के खास पैरोकार भी नहीं रहे। यही कारण है कि उन्हें वह स्थान,दजाऱ् नहीं मिल पाया, जिसके वह हकदार थे। मैं यह नहीं कह सकता कि उन्हें पर्याप्त सम्मान नहीं मिला। उनकी रचनाएं प्रकाश में आतीं तो समकालीन रचनाकार,पाठक और बाल साहित्य के अध्येता हतप्रभ रहते और चर्चा भी करते। श्रीप्रसाद की रचनाओं को आदर्श और अनुकरण की स्थिति में देखा जाता। यह ओर बात है कि खुलकर मुक्त कण्ठ से प्रशंसा न की गई हो। श्रीप्रसाद कविता में कई कविताओं को शामिल कर लेते थे। वे एक ही कविता में एक कहन नहीं रखते थे। उनकी यह शैली ही उन्हें औरों से अलग करती है।  रात का सपना भी ऐसी ही एक कविता है। पाठक इसमें कोई एक केन्द्रीय भाव खोज ही नहीं सकता। जिज्ञासा और रोमांच के साथ अंत तक गजब की गति और लय के साथ अब क्या होगा? शामिल करना रोमांचकारी कौशल है। यह कविता पूरा किस्सा है। कई कविताओं के अंडे इस कविता में हैं-

‘आज रात में सपना देखा
अद्भुत एक तमाशा
गाड़ी लेकर चला ड्राइवर
खाते हुए बताशा
भूल गया वह अटरी-पटरी
वह सिगनल भी भूला
पार कर गया प्लेटफार्म सब
तब उसका दम फूला
फिर भी रुकी न गाड़ी उसकी
एक गाँव से आई
घर तोड़े,छप्पर उजाड़कर
खंभों से टकराई
छप्पर पर बंदर बैठे थे
वे इंजन में आए
इधर-उधर कुछ पुरजे खींचे
ठोके और हिलाए
बस,इंजन रुक गया वहीं पर
और रुक गई गाड़ी
मेरा रुका मेरा सपना भी
गाड़ी बनी पहाड़ी‘

ऐसा नहीं है कि श्रीप्रसाद ने लीक पर चलने वाली कविताएं नहीं लिखीं। लिखीं हैं। लेकिन वे धीरे-धीरे बालमन को पकड़ने वाले शानदार कवि बन गए। अच्छा बच्चा,गंदा बच्चा वाली भी उनकी ही एक कविता है। उस पर क्या चर्चा करना। लेकिन श्रीप्रसाद के लेखन का निकष कुछ साधारण कविताओं के भरोसे नहीं टिका है। साहित्य में अभाव भी है तो प्रभाव भी है। दुःख भी है तो सुख भी है। यथार्थ भी है तो कल्पना भी है। बच्चों के बालमन की उड़ान और थाह की जांच करना असंभव है। तभी तो कहा गया है कि हर बच्चा अपने आप में विलक्षण है। वे जानें क्या-क्या सोच लेते हैं-

‘आठ फीट की टाँगे होतीं
चार फीट के हाथ बड़े
तो मैं आम तोड़कर खाता
धरती से ही खड़े-खड़े
कान बड़े होते दोनों ही
दो केले के पत्ते से 
तो मैं सुन लेता मामा की
बातें सब कलकत्ते से
नाक बड़ी होती हाकी-सी
तो फिर छत पर जाकर मैं
फूल सूँघता सात कोस के
अपनी नाक उठाकर मैं
आँख बड़ी होती बैंगन-सी
तो दिल्ली में ही रहकर
लालकिले से तुरत देखता
पूरा जैसलमेर शहर 
सिर होता जो एक ढोल-सा
तो दिमाग जो पाता मैं 
अँगरेजी,इतिहास,गणित सब
सबका सब रट जाता मैं
पेट बड़े बोरे-सा होता
सौ पेड़े,सौ खीरकदम
सौ बरफी,सौ बालूशाई
खाता पूरे सौ चमचम
पर खाना घरभर का खाता
यदि ऐसा कुछ होता मैं
कपड़े कैसे मिलते ऐसे 
हरदम ही तब रोता मैं‘

मानवीकरण का भी श्रीप्रसाद ने बहुधा प्रयोग किया है। वह भी बेहद सरलता के साथ। ऐसा मानवीकरण कि पाठक के सामने पूरा परिदृश्य खींच जाता है। ऐसा उपयोग कर श्रीप्रसाद जी पाठक को गहराई से सोचने पर बाध्य कर देते हैं। बाल पाठक तो वैसे ही कई कल्पनाओं में बड़ों से बहुत-बहुत आगे होता है। सूरज पर सैकड़ों कविताएं हैं। अमीर खुसरो ने अंतरिक्ष के लिए क्या खूबसूरज कहा है-एक थाल मोती से भरा, सबके सिर पर औंधा धरा,चारों ओर वह थाली फिरे,मोती उससे एक न गिरे। श्रीप्रसाद जी ने सूरज के लिए कहा है-

‘लाल थाल सा जगमग-जगमग
रोज सुबह आता है कौन
पीली-पीली बड़ी सजीली
किरणें बिखराता है कौन
इसी कविता में वे लिखते हैं-
कली-कली खिलती है सुंदर
खिल जाते हैं फूल सभी
धरती सपना त्याग जागती
और भागती रात तभी
पेड़ों के पत्तों पर फिर
दीये से रख जाता है कौन’

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि किसी भी रचनाकार के व्यक्तित्व और कृतित्व का कोई एक पाठक मूल्यांकन कर भी नहीं सकता। श्रीप्रसाद जी ने रचना को सृजित कर अपना काम कर दिया। अब उनकी रचनाएँ पाठकों के अंतस पर कब,कैसा और कितना बदलाव लाती है, इसकी थाह पाना असंभव है। कोई भी पाठक कविता में कविता जैसी चीज़ खोजकर किसी कविता को स्वीकार या खारिज नहीं कर सकता। जिस प्रकार मनुष्य की मनुष्यता भी देशकाल,वातावरण और परिस्थितियों में अपना अर्थ बदलती है उसी प्रकार कविता का कवित्व भी समय-समय पर अपना आस्वाद और अनुभूति का जायका बदलती हुई प्रतीत होती है। 

श्रीप्रसाद जी की कविताओं में लड्डू और बताशा खू़ब आया है। आज के पाठक को समझना होगा कि उस दौर में साठ-सत्तर के दशक में लड्डू और बताशा सभी बच्चों की पहुँच में क्या ही रहा होगा? क्या इक्कीसवीं सदी के इस युग में भी कोई यह दावा कर सकता है कि लड्डू इस दुनिया के हर बच्चे की पहुँच में हैं? कहने का आशय सिर्फ यह है कि हम वर्तमान की पीठ पर सवार होकर अतीत के रचनाकर्म को बचकाना नहीं कह सकते। आज तो हर पांच साल में दुनिया बदल रही है। दुनिया के प्रतिमान बदल रहे हैं। ऐसे वक़्त में हमें वरिष्ठ रचनाकारों के रचनाकर्म को पढ़ते-समझते वक़्त उस दौर की पृष्ठभूमि को समझने का सलीका भी आना चाहिए। जो कुछ समाज में घट रहा है। जो कुछ भी हमारे जीवन में है वह सब साहित्य में आना चाहिए। कुछ भी वर्जित नहीं है। 

आज आवश्यकता इस बात की है कि साहित्य, कला, संगीत सहित सभी कलाओं में नया सृजन हो। किसी पुराने की पीठ पर सवार होकर नया या अलहदा कहलाया ही नहीं जा सकता। नया होने का मतलब नई या युवा पीढ़ी भी नहीं होता। नया तो तब होता है, जब कला में कोई नया सृजित करे। कितना अच्छा हो कि लेखक, कवि, गीतकार, संगीतकार अपने सामाजिक बोध के अनुभव से नया रचें। नितांत मौलिक, स्वरचित और स्वनिर्मित। 

श्रीप्रसाद की बाल कविताओं को उनके सामथ्र्य, अध्ययन, अनुभव और चेतना के स्तर पर देखा जाना चाहिए। इस लिहाज़ से श्रीप्रसाद कई मायनों में अपने समकालीनों में विशेष थे। उनकी बाल कविताएं केवल सरल ही नहीं हैं। केवल सहज अभिव्यक्ति नहीं हैं। उनकी कविताएं गूढ़ आशयों के साथ उपस्थित हैं। उन्होंने अपनी कविताओं का शब्द भंडार बालमन के अनुरूप रखा। कविता को पढ़ते समय उच्चारण का ख़्याल रखा। ध्वन्यात्मक सौन्दर्य को भी बच्चों की दुनिया के आस-पास रखा। 

श्रीप्रसाद ने अपने पूरे रचनाकर्म की अवधि में यश-अपयश की परवाह नहीं की। उनकी संपूर्ण साहित्यिक यात्रा की परख करना बेहद कठिन कार्य है। आज वे हमारे बीच में नहीं हैं। लेकिन उन्हें कविता में कथ्य गढ़ने के लिए उन्हें हमेशा याद किया जाता रहेगा। हाँ ! मैं इतना तो कह ही सकता हूँ कि श्रीप्रसाद की बाल कविताओं की सार्थकता,संभावना और जीवन बोध की आलोचना नहीं की जा सकी है। ऐसी आलोचना जिसमें निन्दा न हो। उसकी प्रतीक्षा है। 
॰॰॰
-मनोहर चमोली ‘मनु’
संपर्क: 7579111144
******
Manohar Chamoli manu


24 अप्रैल 2020

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हम और हमारे स्कूल

-मनोहर चमोली ‘मनु’

क्या हम और हमारे स्कूल प्रातःकालीन सभा से लेकर छुट्टी का घण्टा बजने तलक पाठ्यपुस्तकों की अवधारणाओं,गतिविधियों, समस्याओं और अभ्यास कार्यों को रोचक ढंग से करने के तरीके संचालित कर पाए हैं?
क्या हम और हमारे स्कूल ऐसी खास गतिविधियाँ करने लगे हैं जिससे कई तरह की अक्षमताएँ झेल रहे बच्चों सीखने की गति बढ़ा सके हैं?
क्या हम और हमारे स्कूल छात्रों के चिंतन को आलोचनात्मक ढंग से सोचने-समझने का नज़रिया बढ़ा पाए हैं?
क्या राज्य शिक्षकों को
पेशेवर कार्यों के लिए स्वायत्तता दे चुका है?
क्या हम और हमारे स्कूल शिक्षा को इकतरफा संवाद से प्रश्न-प्रतिप्रश्न, छात्र-शिक्षक के जीवंत संवाद,स्वस्थ परिचर्चा में तब्दील कर पाए हैं?

क्या हम और हमारे स्कूल छात्रों में भाषाई दक्षता इतनी विकसित कर पाए हैं कि वह अपने अनुभवों से तुरंत स्वयं को अभिव्यक्त कर लेते हैं। किसी भी प्रकरण पर मौलिक लिखित अभिव्यक्ति दे पाते हैं?
क्या हम और हमारे स्कूल परीक्षा की बोझिल व्यवस्था को दूर कर पाए हैं?
क्या हम और हमारे स्कूल ऐसी पढ़ाई करने के अभ्यस्त हो चुके हैं जिसके परिणामस्वरूप अब जाति,धर्म,वर्ग,लिंग,सामाजिक,आर्थिक अंतर पाट दिया गया हो?

क्या हम और हमारे स्कूल सूचना और संचार तकनीक से इतने समृद्ध हो गए हैं कि हर विद्यालय का हर एक छात्र समान रूप से इनके लाभ का अवसर प्राप्त कर चुका है?
यदि इन कुछ सवालों का जवाब हाँ में है तो निश्चित तौर पर मैं आॅन लाईन शिक्षण के साथ हूँ। मैं सूचना और तकनीक माध्यम का शिक्षण में प्रयोग का हिमायती हूँ। लेकिन उसकी तैयारी तो हो?
अभी तो हमारे स्कूलों में ब्लैकबोर्ड के नाम पर दीवार पर काला रंग पुता कक्षा नहीं हटा है। वाॅइट और ग्रीन बोर्ड तो दूर की कौड़ी है। जिलेवार शिक्षा की प्रगति में शायद ही कोई विकासखण्ड ऐसा होगा जो कह सकता है कि वहां सुविधासम्पन्न विद्यालय है। बहरहाल, कभी न कभी शुरूआत तो करनी होगी।
लेकिन इन दिनों जिस तरह सार्वजनिक विद्यालयों में हो रही पढ़ाई की क्षति का जो प्रचार किया जा रहा है, उससे मैं सहमत नहीं हूँ। दो-तीन महीने यदि पढ़ाई नहीं होगी तो मुझे नहीं लगता कि हमारे बच्चे पढ़ाई के जीवन में पिछड़ जाएंगे और वह पढ़ाई के बाद जीवन की पढ़ाई में भी पिछड़ जाएंगे। मुझे लगता है कि कोई नुकसान नहीं हो रहा है। स्कूल भी समाज का हिस्सा है। बच्चे भी समाज का हिस्सा हैं। दुनिया का कोई भी बालमनोवैज्ञानिक ऐसा नहीं कह सकता कि लाॅकडाउन के दिनों में घर में रहकर बच्चे कुछ न सीख रहे होंगे। कुछ न समझ रहे होंगे। अपने अनुभवों को समृद्ध न कर रहे होंगे।
क्या मेरी तरह आप नहीं मानते कि बच्चों के पास अपनी वयवर्ग के हिसाब से विकसित मस्तिष्क है। वह न मशीन है न कोई कलपुर्जा हैं। जो कल जिस स्थिति में थे, आज भी उसी स्थिति में होंगे। बच्चों के लिए यह चालीस दिन अन्य दिनों से अलग हैं। शून्य नहीं। शायद, हर दिन की हर सुबह, बीत चुके दिन की सुबह से एकदम अलग और एकदम नई है।
वैसे भी आॅन लाइन शिक्षक उन्हें क्या दे सकते हैं? कक्षा के विषय की किताब से पाठ,पाठ के प्रश्नोत्तर और प्रकरण से जुड़े लिंक या वीडियो? यही न? ज़्यादा ही हुआ तो किसी प्रकरण से जुड़ा हुआ साहित्यिक भाषा में दिया गया व्याख्यान! ते यू-ट्यूब है न? एनसीईआरटी,एससीईआरटी और दूरदर्शन के सैकड़ों कार्यक्रम बने हुए हैं। नहीं हैं क्या?
क्या हम इन दिनों में कक्षा की जीवंतता और समूह में हासिल सीखने के अवसर मोबाइल में परोस देंगे? समूह में जो प्रश्नोत्तर की प्रक्रिया कक्षा में उत्पन्न होती है उसे कहां से लाएंगे? वाचन,श्रृवण और अवधारणा का स्पष्टीकरण-विस्तार कहां से लाएंगे? तत्काल कक्षा में हो रही परिचर्चा,सवाल-जवाब और प्रतिप्रश्न कहां से लाएंगे? फिर आन लाईन होमवर्क स्कूल की घण्टी बजने से लेकर छुट्टी होने तक हो रही अन्य गतिविधियों का पूरक हैं?
बच्चे मिट्टी का ढेला नहीं हैं। जो स्कूल बंद होने के बाद से ढेला ही हैं और ढेला ही रहेंगे। क्या कोई एक भी शिक्षक यह दावा कर सकता है कि स्कूल खुलने पर वह बच्चे जो इन दिनों घर पर ही हैं, सोच,समझ कहन और पठन स्तर पर वहीं पाए जाएंगे जहां वे उस दिन थे, जिस दिन से स्कूल बंद हैं? शायद नहीं। कतई नहीं।
कौन नहीं जानता कि बच्चे उस बीज की तरह हैं जो मिट्टी से बाहर निकलकर हर दिन अपने आकार को बढ़ा रहे हैं। फिर सीखना-समझना सिर्फ और सिर्फ किताबों से ही नहीं होता। पूरी दुनिया में इंसानों के बच्चों के अलावा किसी भी जीव के बच्चों को होमवर्क नहीं मिलता। वहीं इस दुनिया में सैकड़ों बच्चे ऐसे हैं कि उन्हें जीवन में कभी होमवर्क नहीं मिला। लेकिन उनकी दुनिया में भी सुख हैं। चुनौतियां हैं। संघर्ष हैं और उत्सव भी हैं। हमारे स्कूली बच्चे यदि तीन-चार महीने स्कूली विषय की एक-एक किताब से दूर रहेंगे तो भी वह सीख-समझ रहे होंगे। वे बच्चे भी जिनके घर में एक भी किताब नहीं है। कृपा करके घर को घर ही रहने दें। घर को स्कूल न बनाएं। घर और बच्चे के परिवेश में बहुत कुछ है जो उन्हें सीखाता भी है और समझाता भी है। विश्वास कीजिए।
-मनोहर चमोली ‘मनु’

Photo-bbc

22 अप्रैल 2020

माचिस की डिबिया -मनोहर चमोली ‘मनु ,nandan child magazine,APR 2020

माचिस की डिबिया
-मनोहर चमोली ‘मनु
स्कूल की छुट्टी हुई। सभी स्कूल गेट की ओर बढ़ रहे थे। रेहाना ने पूछा तो अभेद ने घबराते हुए बताया-‘‘सोमवार से एग्ज़ाम हैं।’’ यह सुनकर रेहाना हंस पड़ी-‘‘अभेद ! लगता है एग्ज़ामोफोबिया के शिकार हो गए हो। मंथली टैस्ट में भी तुम ऐसे ही डरे रहे। माक्र्स तो अच्छे ही आए थे। फिर डर कैसा?’’ अखिल ने चिढ़ाते हुए कहा-‘‘ये ऐसा ही है। जब कभी हम स्कूल के लिए थोड़ा लेट हो जाते हैं, तब भी तब भी ये ऐसा ही हो जाता है। इसका कुछ नहीं हो सकता।’’

नाहिद ने कहा-‘‘ये टेंशन लेता है।’’ एक के बाद एक दोस्त अभेद को चिढ़ाने लगे तो रेहाना ने बात को बदलते हुए कहा-‘‘बहुत हो गया। तुम सब इसे सपोर्ट करने की जगह इसका मजाक उडा रहे हो। अच्छे दोस्त ऐसा नहीं करते। चलो। अब घर चलें।’’ दूसरे दिन स्कूल का इंटरवल हुआ तो बच्चे मस्ती करने लगे। अभेद चुपचाप एक कोने में बैठा था। रेहाना ने देखा तो वह कहने लगी-‘‘आज कुछ नहीं खाया? अभेद ने कहा-‘‘एग्ज़ाम डेट सुनने के बाद से मेरा तो खाने का मन ही नहीं है। मुझे तो आज रात नींद भी नहीं आएगी।’’ रेहाना पहले तो मुस्कराई फिर धीरे से बोली-‘‘क्या तुम शाम को मेरे घर आ सकोगे? मेरे पास एक मैजिक मैच बाॅक्स है।’’ अभेद ने पूछा-‘‘जादुई माचिस की डिब्बी ?’’

रेहाना ने बताया-‘‘हां। उसे मेरे अब्बू को उनके अब्बू ने दी थी। उनके अब्बू को उनके अब्बू ने दी थी। वह करिश्मा करती है। लेकिन उस डिबिया को भूल कर न किसी को दिखाना और न ही उसे खोलना। यदि तुमने ऐसा किया तो उसका असर जाता रहेगा। तुम चुपचाप उसे अपने स्कूल बैग में रख लेना और स्कूल बैग को अपने आस-पास ही रखना। उस मैच बाॅक्स के बारे में किसी से कुछ कहना भी नहीं है। मैं उस मैच बाॅक्स को तुम्हें एक बार ही दे सकूंगी।’’ अभेद मुस्करा उठा। कहने लगा-‘‘रेहाना, तुम कितनी अच्छी हो। क्या वाकई उस मैच बाॅक्स से मेरी परेशानी दूर हो जाएगी?’’ रेहाना ने आंखें मटकाते हुए कहा-‘‘ये तो तुम्हंे मैच बाॅक्स रखने के बाद ही पता चलेगा।’’ अभेद ने कहा-‘‘ठीक है। मैं छुट्टी के बाद सीधे तुम्हारे घर आ जाऊंगा।’’ तभी घंटी बजी। सब अपनी-अपनी क्लास में चले गए। 

छुट्टी हुई तो अभेद सीधे रेहाना के घर चला आया। माचिस की डिबिया देते हुए रेहाना बोली-‘‘तुम्हें याद है न? कल मुझे स्कूल में वापिस कर देना।’’ अभेद ने खुश होकर हां में सिर हिलाया। सुबह रेहाना स्कूल गेट पर खड़ी थी। वह अभेद का इंतजार कर रही थी। अभेद दौड़ता हुआ आया। माचिस की डिबिया रेहाना को लौटाते हुए वह बोला-‘‘कमाल हो गया। कल मैंने भरपेट डिनर भी किया और मुझे बढ़िया नींद भी आई। थैंक्स रेहाना।’’ रेहाना ने माचिस की डिबिया को बैग में रखते हुए कहा-‘‘मैंने कहा था न, ये मैजिक मैच बाॅक्स है। अब चलो।’’ दोनों हंसते हुए अपनी क्लास की ओर चल पड़े। 


दो-तीन सब ठीक रहा। फिर एक दिन अभेद को परेशान देख रेहाना ने पूछा-‘‘अब क्या हुआ? तुम फिर टेंशन में हो क्या?’’ अभेद ने धीरे से कहा-‘‘क्या करूं? पहला ही पेपर मैथ्स का है। मैथ्स से मुझे बहुत डर लगता है।’’ रेहाना ने मुस्कराते हुए कहा-‘‘बस इतनी सी बात। डोंट वरी। बिलाल सर कह रहे थे कि पेपर हैल्दी माहौल में होंगे। हमें यदि किसी क्वेश्चन में प्राॅब्लम हो तो हम टीचर्स से पूछ सकते हैं। टीचर्स हमारी हेल्प करेंगे।’’ 

अभेद ने कहा-‘‘वो तो है। लेकिन फिर भी, मैं ठीक से तैयारी नहीं कर पा रहा हूं। बस मैथ्स का पेपर किसी तरह से निपट जाए तो फिर कोई प्राॅब्लम नहीं।’’ रेहाना ने कहा-‘‘अब हो भी क्या सकता है। आज की ही तो बात है। कल तो मैथ्स का पेपर है ही। तुम बस रिवीजन करो न।’’ अभेद ने कहा-‘‘हो क्यों नहीं सकता। मैं शाम को तुम्हारे घर आ रहा हूं। प्लीज़। बस आज रात के लिए मुझे वो जादुई मैच बाॅक्स और दे दो।’’ रेहाना ने धीरे से कहा-‘‘ओके। लेकिन ये लास्ट है। प्राॅमिस करो कि घर जाते ही खूब प्रैक्टिस करोगे। एक-एक चैप्टर का रिवीजन करोगे। करोगे न?’’ अभेद बोला-‘‘प्रैक्टिस तो मैं कर ही रहा हूं। लेकिन घबराहट है कि जा ही नहीं रही है।’’ 

शाम को अभेद रेहाना के घर जाकर माचिस की डिबिया ले गया। सुबह वह फिर दौड़ता हुआ आया। रेहाना उसे स्कूल गेट पर ही मिल गई। अभेद बोला-‘‘ये लो रेहाना। कमाल हो गया। मैंने देर रात तक रिवीजन किया। मैं सुबह जल्दी भी उठ गया। थैक्स अगेन।’’ दोनों क्लास की ओर चल पड़े। पेपर खत्म हुआ तो रेहाना ने अभेद से पूछा-‘‘पेपर कैसा हुआ?’’ अभेद मुस्कराते हुए बोला-‘‘बहुत अच्छा रहा।’’ रेहाना ने कहा-‘‘अच्छा ही होना चाहिए। सभी पेपरों की जमकर तैयारी करो। मैं भी कर रही हूं। चलती हूं।’’ यह कहकर रेहाना घर की ओर चल पड़ी। 

आखिरी पेपर देने के बाद अभेद स्कूल गेट पर खड़ा था। रेहाना को देखकर वह बोला-‘‘मैं आज शाम फिर तुम्हारे घर आ रहा हूं।’’ रेहाना हंस पड़ी-‘‘आज ! क्यों? अब तो पेपर भी खत्म हो गए हैं।’’ अभेद ने धीरे से कहा-‘‘तीन दिन की छुट्टी है। फिर रिजल्ट भी तो है। मैं टेंशन में हूं। मैजिक मैच बाॅक्स ही मुझे टेंशन फ्री रखेगी। प्लीज ! मना मत करना। मैं उसे रिजल्ट के दिन वापिस ले आऊंगा। इसके बाद फिर कभी नहीं मांगूगा।’’ रेहाना हंस पड़ी। अभेद शाम को माचिस की डिबिया ले गया। तीन दिन बाद स्कूल खुला। रेहाना उसे रास्ते में मिल गई। अभेद ने माचिस की डिबिया रेहाना को पकड़ा दी। रेहाना ने पूछा-‘‘छुट्टियां कैसी रहीं?’’

अभेद ने जवाब दिया-‘‘एकदम मस्त। तीन दिन की छुट्टियां चुटकियों में बीत गईं।’’ रेहाना ने माचिस की डिबिया बैग में रखते हुए कहा-‘‘जल्दी चलो। लगता है रिजल्ट एनाउंस होने लगे हैं।’’ रेहाना ने अभेद का हाथ पकड़ लिया। दोनों ग्राउंड की ओर भागने लगे। तभी लाउडस्पीकर से आवाज आई-‘स्कूल की टाॅप टेन सूची के नाम इस प्रकार से हैं। सिमरन, आबिद, अनुभव, रिया, सुरजीत, शबाना, एंजेल, बयार, रेहाना और अभेद।’ दोनों अपना-अपना नाम सुनकर ठिठक गए। रेहाना मुस्कराई। कहने लगी-‘‘अभेद। तुम तो यूं ही घबरा रहे थे। सुना तुमने ! टाॅप टेन लिस्ट में तुम्हारा नाम भी पुकारा गया है।’’ अभेद खुशी से उछल पड़ा। कहने लगा-‘‘ये सब मैजिक मैच बाॅक्स का कमाल है।’’

रेहाना ने बैग से माचिस की डिबिया निकाल ली। डिबिया अभेद को देते हुए रेहाना ने कहा-‘‘अब इसे तुम रखो।’’ अभेद हैरान था। कहने लगा-‘‘यह मैजिक मैच बाॅक्स तो तुम्हारे अब्बू के अब्बू के अब्बू.......।’’ रेहाना को जोर-जोर से हंसता हुआ देख अभेद चुप हो गया। रेहाना ने कहा-‘‘इस मैच बाॅक्स को खोलो।’’ अभेद ने उसे खोलने से मना कर दिया। रेहाना ने उस मैच बाॅक्स का रैपर खोल दिया। मैच बाॅक्स खाली थी। साधारण माचिस की डिबिया को देख अभेद हैरान था। रेहाना ने कहा-‘‘अभेद। ये सिंपल मैच बाॅक्स थी। कोई मैजिक बाॅक्स नहीं। मैजिक कहीं नहीं होता। वह तो हमारे अंदर होता है। यदि तुम टाॅप टेन में शामिल हुए हो तो सिर्फ और सिर्फ अपनी मेहनत और लगन से। तुम्हारा आत्मविश्वास तुम्हारे अंदर था। दुनिया में कोई भी चीज किसी जादू से हासिल नहीं हो सकती। वह केवल अपनी मेहनत और काबलियत से ही हासिल हो सकती है। उदाहरण तुम हो। हो न?’’ अभेद कुछ नहीं बोला। बस चुपचाप वह उस माचिस की डिबिया को देख रहा था, जिसे रेहाना टुकड़े-टुकड़े कर फेंक चुकी थी। ॰॰॰
-मनोहर चमोली ‘मनु’,पोस्ट बाॅक्स-23पौड़ी गढ़वाल। 246001 Uttarakhand
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