17 सित॰ 2022

विद्यार्थियों ने कहानी डायरी लेखन में दिखाई दिलचस्पी


कक्षा छह,सात,आठ,दस और ग्यारह के विद्यार्थियों में वय वर्ग की विविधता रचनात्मक कार्यो में कैसे उपयोगी हो? कैसे वे एक-साथ एक-दूसरे को सहयोग करें? कैसे भागीदारी में दायरा बढ़ाएं और अपने चिन्तन को बढ़ाएं? एक साथ मिलकर कुछ सुनें। बोलें, देखें और फिर मिलकर लिखें। यही सोचकर एक कार्यशाला मोहन चौहान जी के नेतृत्व में शुरू हुई। यह कार्यशाला 9 सितम्बर से 11 सितम्बर 2022 तक संचालित हुई। अंकुर एक रचनात्मक पहल के बैनर तले विद्यालयी सहयोग से यह संभव हुआ। राजकीय इंटर कॉलेज,खरसाड़ा,विकासखण्ड नरेन्द्र नगर, टिहरी में तीन दिवसीय रचनात्मक कार्यशाला में सहभागी बनने का अवसर मिला। गन्तव्य तक पहुँचने के लिए बासठ किलोमीटर का सफर तय करते हुए मन में खयाल आ रहा था कि आखिर कक्षा छह से आठ तक के विद्यार्थियों के साथ किन-किन मुद्दों पर बात की जाए? यह भी कि लेखन की किन विधाओं पर काम हो?

आज अवकाश का दिन था। सुबह सात बजे से से पूर्व पौड़ी से चला फिर भी नौ बज ही गए। कार्यशाला स्थल पर पहुँचा तो विद्यालय के अध्यापक मोहन चौहान और राजकीय प्राथमिक विद्यालय कठूर, विकासखण्ड चम्बा के अध्यापक दीपक रावत उनचास विद्यार्थियों के साथ कार्यशाला प्रारम्भ कर चुके थे। आठ समूह बनाए गए थे। कोशिश यही रहती रही है कि सभी समूह में सभी तरह के बच्चों को शामिल किया जाए। विद्यार्थियों ने अपने-अपने समूह के नाम भी बड़े दिलचस्प रखे। बकलोल, चूजे चार, गोलमाल, बकैती, चंपा-चमेली, स्वीटी स्पेशल, पागलपंथी और गोलमाल। 

विचार किया गया कि दुनिया को समझने-जानने और जानकारी जुटाने के साथ दुनिया को यह भी बताया जाए कि हमारी अपनी दुनिया क्या है ! हमारी भाषा क्या है? हमारे आस-पास क्या है? ग्रीन-बोर्ड पर विद्यार्थियों ने शानदार आंचलिक अनुभव साझा किए। जैसे-काखड़ी, कलच्वाणी, तुमड़ी, माछा, आरु, छिपाड़ु, मौल, दवै, मुंगरी, काखड़, छाला, मारसू, रिंगाल, ब्वई, पालु, कुलाड़ु, कपाल, दाथड़ू, भिमलु, चौकली, पत्यूड़, करौंदू, बासलु, गोदड़ी, बाखरू आदि। 

ग्रीन-बोर्ड पर से विद्यार्थियों ने अपने-अपने समूह के लिए एक-एक शब्द चुन लिया। अब समय था कि वे समूह में चर्चा कर एक-एक कहानी बनाएं। आधा घण्टा दिया गया था। लेकिन ठीक एक घण्टे बाद आठ कहानियां जो चार्ट पर आईं, उन्हें पढ़ा गया। 



तय तो यह हुआ था कि एक-एक कहानी पर शिल्प, भाव और कमजोर पक्ष पर बात हो। लेकिन इसे छोड़ दिया गया। यह सोचकर कि कहानियां पढ़ते-पढ़ते ओर लिखने के अभ्यास में यह कौशल भी विद्यार्थी अर्जित कर ही लेंगे।

इससे पूर्व चित्रात्मक किताब से दो कहानियाँ पढ़कर सुनाई गई। कहानी सुनाते समय यानि पढ़कर सुनाने के लहजे में चित्रों पर भी और कहानी आगे कहाँ जा सकती हैं, पर चर्चा करते रहे। विद्यार्थियों की तार्किकता और कल्पना शक्ति देखते ही बनती है। पिक्चर बुक में से पहले सत्र में मुकेश मालवीय कृत पाँच खंबों वाला गाँव और चंदन यादव कृत कुत्ते के अण्डे का चयन किया गया। विद्यार्थियों ने कहानी के हर पेज पर अनुमान और कल्पना का उपयोग करते हुए उसके आगे की घटना का अनुमान लगाया। यह अनुमान विविधता से भरा था। 

पहले दिन अधिकतर गतिविधियां सुनना कौशल को ध्यान में रखते हुए की गईं। हालांकि कुछ गतिविधियां देखना और सोचना पर भी आधारित थीं। जैसे कद, रंग, जाति, धर्म, इलाके को लेकर किसी को कमतर समझना गलत है। शहर अच्छे होते हैं और गाँव खराब। अपने आस-पास की चीजें तुच्छ होती हैं और महानगर की चीजें बहुत अच्छी। प्रथम,द्वितीय और तृतीय स्थान प्राप्त करना उपलब्धि है और कुछ भी स्थान पर न आना निराशा। अनुमान और कल्पना के साथ गणित की अवधारणाओं के साथ जोड़ने वाली गतिविधियों में विद्यार्थियों को आनन्द आया। 
विद्यालयी स्तर पर गठित पीटीए के अध्यक्ष लक्ष्मण सिंह रावत जी भी कार्यशाला में आए। उन्होंने बच्चों के जलपान की व्यवस्था भी की। 

एक अन्य गतिविधि भी ग्रीन-बोर्ड पर की गई। विद्यार्थियों से कहा गया कि वह अपने अनुभव और जानकारी के आधार पर उन बातों,मान्यताओं, अवधारणों और चीजों के लिए एक शब्द सुझाएं जो हमारे आस-पास चलन में हैं लेकिन वह वास्तव में हैं नहीं। यह भी कि कभी थीं पर अब नहीं हैं लेकिन चर्चा में हैं। जैसे राजा,रेडियो, लालटेन। 


विद्यार्थियों ने एक से बढ़कर एक त्वरित प्रतिक्रिया में अपने अनुभव साझा किए। उन्होंने आछरियां, जुगनू, चिमनी, डायनासौर, भूत, देवता, जात, आत्मा, परियां, राजकुमार, राक्षस, जादू , चुड़ैल, स्वर्ग, बैलगाड़ी, सिलबट्टा, छाया जैसे शब्द सुझाए। ग्रीन-बोर्ड पर इकट्ठा हुए शब्दों से कोई पांच शब्द विद्यार्थियों ने स्वेच्छा से अपने लिए ले लिए हैं। वह आज घर जाकर किसी एक शब्द पर मौलिक और व्यक्तिगत कहानी लिखकर लाने पर सहमत होंगे। 

मोहन चौहान जी काफी समय से विद्यालयी छात्रों के साथ रचनात्मक लेखन कार्यशाला पर बात कर रहे थे। हर बार किसी न किसी वजह से यह टल रही थी। आखिरकार 9 सितब्र से 11 सितम्बर 2022 तक यह कार्यशाला तय हो पाई है। इस बार कार्यशाला की थीम है-‘सुनना ... देखना ... सोचना ... और लिखना साथ-साथ’ तय हुई है। अधिकांश बालक और बालिकाएं घर से अपने लिए भोजन लाए थे। उन्होंने साथियों के साथ भोजन भी साझा किया। एक कक्षा-कक्ष में यह आयोजन है। उसकी व्यवस्था विद्यालय के विद्यार्थी स्वयं कर रहे हैं। विद्यार्थी खरसाड़ा, कोठी, सकन्याणी,सौड़,लसेर,कांडी,उखेल,झांकड़ और भट्टगांव के हैं। तेज धूप और बहुत दूर के विद्यार्थियों को कार्यशाला में शामिल नहीं किया गया है। दोपहर दो बजे तक ठहराव और पैदल दो किलोमीटर से अधिक आने-जाने की परेशानी को भी ध्यान में रखना पड़ा है। कुल मिलाकर विद्यार्थियों की हाजिर-जवाबी और सहभागिता काबिल-ए-गौर है। अभी तो दो दिन शेष हैं।
‘सुनना ... देखना ... सोचना ... और लिखना साथ-साथ’ विषयक तीन दिवसीय कार्यशाला के दूसरे दिन आज रा॰इं॰कॉ॰खरसाड़ा,नरेन्द्र नगर, टिहरी गढ़वाल में ‘डायरी लेखन’ मुख्य रहा। पढ़ते-लिखते शिक्षक जानते हैं कि डायरी लेखन हमारी भीतर संवेदना के भाव को मरने नहीं देता। हर्ष-विषाद, सुख-दुख, तनाव-बेचौनी, उलझन-उल्लास के क्षण में डायरी लेखन सखा-सहेली का काम तो करती ही है साथ में हम क्या थे, हम क्या हैं और हम क्या होंगे अभी के भाव पर लगातार नजर रखने का काम भी करती है। दिलचस्प बात यह है कि बुनियादी स्कूल सहित माध्यमिक कक्षाओं के सीखने के प्रतिफल जिन्हें हम लर्निंग आउटकम्स के तौर पर जानते हैं और बुनियादी मूलभूत साक्षरता और संख्यात्मकता की दक्षता के लिए भी ‘डायरी लेखन’ खास औजार हो सकता है। 

आज सुबह के सत्र में सबसे पहले बीते दिन का सार-संक्षेप तनिशा ने विस्तार से रखा। मयंक, स्नेहा, कनिका, पायल और शुभम ने छूटी हुई गतिविधियां जोड़ी। पहले दिन की संख्या छियालीस से बढ़कर विद्यार्थियों की आज संख्या छियासी हो गई। कुल मिलाकर 43 बालिकाएं और 43 बालक शामिल हुए। इस प्रकार अब कक्षा ग्यारह से पांच, कक्षा दस से दस, कक्षा आठ से बाईस, कक्षा सात में पैंतीस और कक्षा छह चौदह विद्यार्थियों ने शिरकत की। आकार में एक औसत कक्षा-कक्ष में छियासी विद्यार्थियों को लगभग पांच से छह घंटे बिठाए रखना स्वयं में चुनौतीपूर्ण रहा। यही कारण रहा कि आज विद्यालयी समय के उपरांत कार्यशाला का दूसरा दिन भी समाप्त कर दिया गया। चूंकि सुनना कौशल को हम हमेशा प्राथकिमता देते हैं। आज सुनना के साथ सोचना पर भी फोकस किया गया। बीते दिन लिखने के लिए दी गई कहानियां जमा की गईं। सरसरी तौर पर विद्यार्थियों ने अपने घर-गाँव, समाज, परिवार और सहपाठियों से संबंधित पात्रों को ध्यान में रखकर कहानियां लिखीं। 


तेरह गाँव घोरसाड़, खरसाड़ा, लसेर, जिमाण गाँव, सौड़, उखेल, झांकड़, मयाण गाँव, कांडी, कोलसारि, सकन्याणी, कोठि, भट्टगाँव के विद्यार्थियों को ग्रीन-बोर्ड पर दो अलग-अलग डायरी अंश के नमूने लिखकर पढ़े। सिर्फ लिखकर पढ़ना काफी नहीं था। उन दोनों डायरी अंश के काल्पनिक लेखकों की मनोदशा पर भी विस्तार से चर्चा हुई। क्या आप इन डायरी अंश को पढ़कर अनुमान और कल्पना का इस्तेमाल कर कुछ कह सकेंगे। हम हतप्रभ रहे कि विद्यार्थियों ने दोनों डायरी अंशों को पढ़कर-समझकर सटीक और तार्किक कयास लगाए। 

बहरहाल, उसके बाद उन्हें भी कल्पना और स्मृति पर आधारित डायरी लिखने का अवसर दिया गया। डायरी में क्या-क्या जरूरी तत्व होते हैं? क्या-क्या नहीं लिखा जाना चाहिए? इस पर भी विस्तार से चर्चा की गई। हमें प्रसन्नता है कि अल्प समय में ही कई विद्यार्थियों ने एक नहीं दो-दो डायरी अंश के नमूने प्रस्तुत किए। मौटे तौर पर उनकी डायरी अंश भाई-बहिनों,रिश्तेदारों में प्रमुख बुआ, नानी,चाचा-चाची, दादा-दादी, सहेली, खेल, चोट, सांप,कुत्ते, बिल्ली, स्कूल, सहपाठी और अध्यापकों के आस-पास केन्द्रित रही। 

अच्छी बात यह रही कि उन्होंने यह आसानी से और त्वरित जान लिया कि दिनचर्या और डायरी लेखन में फर्क होता है। चूंकि आज अगल-बगल कक्षाएं भी संचालित रहीं तो कार्यशाला कक्ष के भीतर मस्ती, उल्लास और आवाज आधारित गतिविधियां नहीं करा पाए। लेकिन समयबद्ध, सोचसहित और शब्दाधारित कई गतिविधियां कराई गई। विद्यार्थियों को स्वछंद से स्वस्थ दबावयुक्त मानसिक माथापच्ची गतिविधियां दी गईं। लग रहा था कि वे इन गतिविधियों में उलझन महसूस करेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सोचयुक्त इन गतिविधियों में भी उन्होंने अपना बेहतर प्रदर्शन करने की ललक को मरने नहीं दिया। आज भी बहुत ही मजा आया। दूसरे दिन की समाप्ति से पहले विद्यार्थियों ने आश्वस्त किया है कि वह कल आभासी नहीं वास्तविक डायरी अंश लिखकर लाएंगे। आने वाला कल आज से भी बेहतर होगा। यह उम्मीद तो है ही।  


रा॰इं॰कॉ॰खरसाड़ा,नरेन्द्र नगर, टिहरी गढ़वाल में इस कार्यशाला में सहभागी बनकर मैं यात्रा से लौट आया हूँ। किसी ने कहा था-यात्रा कितनी भी अहम् क्यों न हो, एक दिन समाप्त हो जाती है। लगभग पैंसठ किलोमीटर की यात्रा कर अब मैं पौड़ी में हूँ। हाँ यह यात्रा तो खत्म हो चुकी है लेकिन जिन 180 आँखों में झांकते हुए मुझे जो ख़याल मिले, सोच मिली, संकल्प मिले और सबसे बड़ी बात अच्छे समाज में भागादीरी की जो भावनाएं मिलीं उन्हें क्यों कर मैं कहूंगा कि वे भी खत्म हो गईं। लगभग 18 घण्टे हमने साथ-साथ संवाद किए। कुछ सपने बुने। कुछ परेशानी-दिक्कतें साझा की। रचनात्मकता तो जो बनी सो बनी लेकिन इस बहाने बातों ही बातों में सहयोग, सामूहिकता, साझी विरासत, सामुदायिकता, आंचलिकता, मनुष्यता और संवैधानिक मूल्यों की बातें हुईं वह किसी भी उदास किताब और सपाट व्याख्यान से बढ़कर थीं। 

आज विद्यालय में अवकाश था। फिर भी विद्यार्थी दूर-दूर से पैदल चलकर कार्यशाला में आए। आज स्मृति को टटोलने, एकाग्रता को बचाए-बनाए रखने, प्रकृति में जीवों की खासियत, विद्यार्थियों और शिक्षकों के असल धर्म पर, मानवगत व्यवहार पर, जीवन के लक्ष्यों पर कई गतिविधियां भी की गई। 

दो दिन के प्रतिफल का आकलन करने के बाद तय हुआ कि तीसरे दिन कहानी पर और काम किया जाए। बीते दिन हुई गतिविधियों का सार-संकलन पर चर्चा हुई। विद्यार्थियों ने स्मृति पर आधारित मौखिक बातें रखीं। सूरज, आरुषी, स्नेहा, पायल और कनिका ने दूसरे दिन के सत्रों को याद किया। तीसरे दिन विद्यार्थियों के न समूह बनाए गए। दस समूह बनाए गए। 

आज तय हुआ कि विविधता से भरी चित्रात्मक किताबों से छोटी-छोटी कहानियां पढ़ी-सुनी जाए। यह चार कहानियों में सुशील शुक्ल की ’मकड़ी और मक्खी’, प्रियंका की ’रंग’, शीतल पॉल की ’पुथ्थु’ और मुकेश मालवीय की कहानी ’बड़ा या छोटा’ का वाचन किया गया। मजेदार बात यह रही कि विद्यार्थियों को यह कहानियां खूब पसंद आईं। कहानियों में आगे क्या होगा? अनुमान और कल्पना के सहारे विद्यार्थी तार्किक ढंग से अपनी बात रख रहे थे। कहानियां जैसे-जैसे आगे बढ़ रही थीं विद्यार्थियों के चेहरे पर उत्सुकता देखते ही बनती थीं। किताबों के चित्रों, पात्रों, कहानी के शिल्प और कहानी के कहन पर विस्तार से बात हुई। 

सूक्ष्म जलपान के बाद विद्यार्थियों को समूह में मिलकर एक-एक कहानी लिखने की गतिविधि दी गई। आधा घण्टे का समय दिया गया था। सबसे बड़ी बात यह रही कि उनसे निवेदन किया गया कि समूह में हर सदस्य की राय, सुझाव और सहभागिता को शामिल किया जाए। इस समय में समूह में विद्यार्थियों ने चर्चा की, बहस की, तर्क-वितर्क किए। कुछ लिखा। कुछ हटाया। कुछ जोड़ा। कुछ कम किया। फिर उसे चार्ट पेपर पर लिखा भी। दस कहानियों को फिर से समूहवार सभी सहभागियों को पढ़कर सुनाया। कहानियों के कहन, पात्र, पात्रों के माध्यम से आ रही बातों, समस्याओं, काल्पनिकता, बेतुकेपन को रेखांकित किया। 

हमने महसूस किया कि विद्यार्थी मान रहे हैं और जान रहे हैं कि कहानी का मतलब बेसिर-पैर की बात को लिखना नहीं होता। घसियारी समूह की कहानी ’भूत का वहम’, ढोल-दमौ समूह की कहानी ’चींटी और मेढक’,  मसेटू समूह की कहानी ’अच्छा या बुरा’ लालटेन समूह की कहानी ’फ्युँली’, जुगनू समूह की कहानी  ’किसान और परी’ बुराँश समूह की कहानी ’आलसी लड़का’, गुड़हल का फूल समूह की कहानी ’टीचर और बच्चे’, पहाड़ी ग्रुप समूह की कहानी ’कंजूस आदमी’ तिमलु दाणी समूह की ’चींटी और बिल्ली’ और पहाड़ की शान समूह की कहानी ’मोनू का खरगोश’ में कहानीपन अच्छे से शामिल हो सका।  

इन तीन दिनों में बच्चों के साथ सुनने, बोलने, देखने, सोचने और लिखने से जुड़ी बहुत सी गतिविधियों के साथ गाहे-बगाहे बहुत से मुद्दो पर हल्की-फुल्की बातचीत की जाती रही। समय के सदुपयोग पर, सार्थक-निरर्थक चीजों,बातों और समाज में आ रही सामाजिक उदासीनता पर भी बार-बार बातचीत होती रही। 



समापन अवसर पर विद्यार्थियों ने भी अपनी बात रखी। निकिता, कनिका, शुभम, शशांक, प्रियांशी, प्रीति और साक्षी ने पिछले तीन दिनों के अपने अनुभवों को साझा किया। सभी इस बात पर सहमत दिखाई दिए कि इस तरह की कार्यशालाएं जल्दी-जल्दी होनी चाहिए। 

कार्यशाला में अंकुर एक सृजनात्मक पहल के साथियों में प्राथमिक स्कूल नौगा के शिक्षक दिनेश भी उपास्थित रहे। उन्होने भी अपने अनुभव साझा किए। शिक्षक साथी दीपक दो दिन बदस्तूर कार्यशाला में पूर्ण सहयोग करते रहे। उन्होंने अपने स्कूली जीवन को याद किया और बताया कि इस तरह की कार्यशालाओं को कोई मोल नहीं चुकाया जा सकता। पीटीए अध्यक्ष लक्ष्मण सिंह रावत ने बच्चों को सामाजिक योगदान के लिए प्रेरित किया। उन्होंने पहले दिन भी और आज भी विद्यार्थियों के लिए जलपान की व्यवस्था की। अंतिम सत्र में विद्यार्थियों ने फीड बैक लिखित में दिया। उन्होंने सब कुछ अच्छा ही बताया। पूछा तो यह था कि क्या-क्या अच्छा नहीं लगा। लेकिन इस सवाल का सकारात्मक जवाब ही आया। विद्यार्थी कविता लेखन पर एक दिन चाहते थे। वह चाहते हैं कि ऐसी कार्यशालाएं बार-बार हों। जल्दी-जल्दी हों और कम दिन की न हों। 

इन तीन दिनों की सहभागिता की बात करें तो हम वयस्कों में छह साथियों का सहयोग सहभागियों को मिला। सहभागियों की बात करें तो पहले और तीसरे दिन संख्या कम रहीं। दूसरे दिन छियासी विद्यार्थियों ने हिस्सेदारी की। हम कह सकते हैं कि कुल नब्बे दिलों-दिमागों की भावनाएं और सोच एक छत के नीचे तीन दिन तालमेल बिठाने के प्रयास में जुटी रहीं। कहा जा सकता है कि यह प्रयास किसी सालाना परीक्षा की अंक तालिका के अंक जैसे दिखाई नहीं देंगे। अलबत्ता किसी वसंत की बयार की मानिंद इसे सालों-साल महसूस किया जा सकता है। 

मैं आभार प्रकट करता हूँ कि मोहन जी बार-बार मुझे इस तरह का अवसर देते हैं जिसकी वजह से मैं फिर से बच्चे, बाल जीवन और अपने बालपन में लौटता हूँ। समझने-जानने का प्रयास करता हूँ कि बचपन की भावनाओं को समझ सकूँ। उनका सम्मान कर सकूँ। ‘सुनना ... देखना ... सोचना ... और लिखना साथ-साथ’ विषयक तीन दिवसीय कार्यशाला समाप्त हो गई। 
॰॰॰
-मनोहर चमोली ‘मनु’

20 अग॰ 2022

लिंक है

कला के प्रति संवेदनशीलता ही मनुष्यता को बचाएगी : जगमोहन बंगाणी

जगमोहन बंगाणी की कूची से बनी पेंटिंग्स भारत से बाहर स्पेन, कोरिया, इंग्लैंड, जर्मनी जैसे देशों में उपस्थित हैं। कला के पारखी समूची दुनिया में हैं और वे अपने घरों-कार्यालयों में रचनात्मकता को भरपूर स्थान देते हैं। बंगाणी मानते हैं कि कला आपके अपने अनुभव से आत्म-साक्षात्कार कराती है। वह स्वयं को जानने का एक असरदार साधन होती है। कला मन के भीतर चल रहे विचारों का प्रतिबिंब होती है। आप उसे बिना कहे हजारों शब्द दे सकते हैं।


कला के क्षेत्र में बंगाणी एक ऐसे चित्रकार हैं जो अभिनव प्रयोग के लिए जाने जाते हैं। लीक से हटकर अलहदा पेंटिग के लिए वह जाने जाते हैं। भारत के उन चुनिंदा चित्रकारों में वह एक हैं जो नए प्रयोग और दृष्टि के लिए प्रसिद्ध हैं। बंगाणी अब दिल्ली में रहते हैं। अलबत्ता उनकी जड़ें उत्तराखण्ड के मोण्डा, बंगाण से जुड़ी हुई हैं। हिमाचल की संस्कृति से परिचित और उत्तराखण्ड के पहाड़ में जन्मा-बीता बचपन उन्हें अभी भी प्रकृति से जोड़े हुए है। वह किसान परिवार से हैं। यह बताते हुए उनके गर्वीले मस्तक में उभरी चमक साफ देखी जा सकती है। उनकी आँखें फैल जाती हैं। उनके पास पैतृक सेब का बागीचा है। वह यह बताना नहीं भूलते।


मोण्डा उत्तराखण्ड के सुदूर जनपद उत्तरकाशी के विकासखण्ड मोरी, संकुल टिकोची का गांव है। इसी गाँव के राजकीय प्राथमिक विद्यालय में बंगाणी की प्रारम्भिक पढ़ाई हुई है। समय की विडम्बना देखिए कि छात्र संख्या के कम होने का हवाला देकर अब पच्चीस परिवारों के इस गांव का प्राथमिक विद्यालय अब बंद हो चुका है।


विविधता से भरे पेड़-पौधों के साथ हिमालयी परिवेश का असर था कि बंगाणी तीसरी-चौथी में ही कला के प्रति एक नजरिया रखने लगे थे। उनके गांव से बरनाली छह किलोमीटर दूर था। वह कला बनाने के लिए कोरी ड्राइंग कॉपियां लेने वहां जाते थे। कला करने का शौक ही था कि अपने सहपाठियों की ड्राइंग कॉपियांे पर भी वह हाथ आजमाते रहते थे। पांचवी के बाद की पढ़ाई के लिए उन्हें घर से तीन किलोमीटर पैदल जाना पड़ता था। यह पैदल रास्ता पहाड़ी ढलान का था। घर लौटते हुए लगने वाला समय ड़ेढ़ घण्टा से अधिक ही रहता था। बंगाणी स्कूल से आते-जाते समय का सदुपयोग करते। वह चलते-चलते पढ़ाई संबंधी सबक़ को याद कर लेते थे। दोहरा लेते थे। वह घर पहुँचकर लिखने वाला होमवर्क करने के बाद सारा समय कला सीखने के लिए निकालते।
छह से अधिक ख्यातिलब्ध एकल प्रदर्शनी का आयोजन कर चुके बंगाणी बताते हैं कि स्कूल जाना और स्कूल में जाकर पढ़ाई करना एक अलग बात थी। स्कूल में सहपाठियों के साथ सीखना-समझना की यात्रा अन्तहीन होती है। लेकिन, स्कूल जाते समय और स्कूल से घर आने की जो पैदल यात्रा होती थी, उसने प्रकृति को गौर से देखने-समझने का मौका दिया। इस तरह आठवीं की पढ़ाई के बाद बड़कोट जाना हुआ। कक्षा नौ की पढ़ाई के साथ कला के प्रति लगाव और बढ़ा। बढ़ता ही गया।


कला के क्षेत्र में सात से अधिक जाने-माने सम्मान और पुरस्कार प्राप्त बंगाणी मानते हैं कि कला कोई धनाढ्य वर्ग का शगल नहीं है। कला का सामान्य जीवन से गहरा रिश्ता है। कला और जीवन एक-दूसरे के पूरक हैं। हमारे लिए भले ही दूसरे का जीवन आम या खास हो सकता है। लेकिन प्रत्येक व्यक्ति का अपना जीवन उसके लिए आम ही होता है। जीवन सुखद और दुखद अनुभवों के साथ एक निरंतरता के साथ चलता रहता है। जिसके जीवन में कला है और कला का सम्मान है वह अपने उन अनुभवों को संजो सकता है। खुद का संवार सकता है। एक बेहतर जीवन जीने का नज़रिया दूसरों को कला के माध्यम से दे भी सकता है।


वह तीस-बत्तीस साल पीछे लौटते हैं। उन्हें अपनी स्मृतियों को सामने लाने के लिए कोई मशक्कत नहीं करनी पड़ती। वह बोलते चले जाते हैं जेसे आँखों से कोई फिल्म देख रहे हों और उसका वर्णन कर रहे हों। वह बताते हैं,‘‘बड़कोट में बड़े भाई के फोटो स्टूडियो में जाने का मौका मिला। पढ़ाई के साथ-साथ फोटो खींचना, डार्क रूम में उन्हें तैयार करना। इस सब ने नये विचार भी दिए। पेंसिल स्कैच बनाने लगा। कुछ आकर्षक फोटो का पोट्रेट बनाने का शौक हुआ। जिन परिचित-अपरिचितों के फोटो के पोट्रेट बनाये जब उन्हें देता तो वह खुश हो जाते। मुझे इस काम से अपने लिए जेबखर्च मिलने लगा। मेरा हस्तलेख अच्छा था तो अब दुकानों के साइन बोर्ड बैनर आदि बनाने से भी अपनी ज़रूरतों के लिए रुपए जुटने लगे। ग्यारहवीं कक्षा में पता चला कि आइल कलर भी होते हैं। स्कूली छात्रों के चार्ट पेपर भी तैयार करने लगा।’’


बीस से अधिक कला कैंप, कला महोत्सवों और आयोजनों में बंगाणी ने कला और उसके विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका भी अदा की है। वह उस दौर के कला विद्यार्थी हैं जब सोचना, समझना और आकार देना सब अपनी आँख, हाथ और मस्तिष्क के सहारे करना होता था। रंग-कूची, काग़ज़ सहायक सामग्री होती थी। यह आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। लेकिन उस दौर में इंटरनेट न था। इंटरनेट नई क्रांति लेकर आया है। इंटरनेट ने देश, काल, परिस्थितियों के घेरे को तोड़ दिया है। आज कला के आयाम और माध्यम बहुत बदल गए हैं। डिजिटल कला का विकास हो गया है। आज एनएफटी कला तेजी से कलाकारों को आकर्षित कर रही है। डिजिटल संपत्ति के रूप में भुगतान बढ़ता जा रहा है।


बंगाणी बताते हैं कि कला और फोटोग्राफी आपस में जुड़े हुए हैं। एक-दूसरे के सहायक हैं। वह याद करते हैं,‘‘मेरा रास्ता यहीं से तय हुआ। हम उस दौर और परिवेश के हैं जब बारहवीं के बाद पता चला कि आर्ट कॉलेज भी अलग से होते हैं। कला से लगाव के बावजूद भी ग्यारहवीं में गणित का छात्र रहा। बारहवीं के बाद उत्तरकाशी गया। स्नातक में प्रवेश लिया।’’



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जगमोहन बंगाणी की एक पेंटिंग


बंगाणी कहते हैं,‘‘आप अपने आप ही आप नहीं बन जाते। आपको आप बनाने वालों में घर-परिवार, पड़ोस, दोस्त, अग्रजों-अध्यापकों की भूमिका होती है। छोटे-छोटे अवसर आपके कदमों को आगे बढ़ने में सहायक होते हैं।’’ उत्तरकाशी के राजकीय महाविद्यालय से स्नातक में प्रवेश ने बंगाणी को विस्तार दिया। वह पढ़ाई के लिए प्रतिबद्ध थे साथ ही छात्रावास में रहने का शुल्क भी जुटाना था। सड़कों की दीवार पर लिखने का काम हाथ में लिया। स्नातक प्रथम वर्ष में ही कॉलेज की सालाना प्रदर्शनी में बंगाणी की उनतालीस चित्रों ने उन्हें अलग पहचान दिलाई।


वह बताते हैं कि कला के क्षेत्र में दिशा देने वाले बहुत मिले। अब वे नाम बहुत हैं। एक पल में जो नाम याद आ रहे हैं, उनमें मोहन चौहान, सुनीता गुप्ता, मंजू दी, कमलेश्वर रतूड़ी, शारदा, रोशन मौर्य प्रमुख हैं। बंगाणी के हाथों की तूलिका को मात्र उत्तरकाशी में ही रंग नहीं बिखेरने थे। फिर वह स्नातक द्वितीय वर्ष के लिए देहरादून आ गए। देहरादून में व्यावसायिक काम मिलने लगा। स्वयं सेवी संस्थाओं के लिए काम मिलने लगा। देहरादून में डीएवी कॉलेज के अध्ययन ने उन्हें नए पंख दिए।


वह बताते हैं,‘‘सीखने-समझने के लिए नए-नए विचार पनप रहे थे। एक मन था कि दिल्ली जाना चाहिए। पीएचडी करनी चाहिए। कुछ छूटता तो कुछ जुड़ने लग जाता। मैं जैसे-जैसे एक कदम बढ़ाता। रास्ते दस कदम चलने का हौसला देते।’’

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जगमोहन बंगाणी की एक पेंटिंग


साल दो हजार में देहरादून के डीएवी महाविद्यालय से ड्राइंग और पेन्टिंग में परास्नातक करने के बाद उन्हें दिल्ली स्थित राष्ट्रीय ललित कला अकादमी से रिसर्च स्कॉलरशिप मिल गई। इससे पूर्व ही उन्हें दिल्ली की ऑल इंडिया फाइन आर्टस एंड क्रॉफ्ट्स सोसायटी ने उत्तराखण्ड स्टेट अवार्ड से नवाज़ा। दिल्ली में ही रहकर कुछ नामचीन प्रकाशनों के लिए चित्र बनाने का काम भी किया। खाली वक्त पर पेंटिग चलती रही। साल दो हजार पाँच से सात तक बंगाणी फोर्ड फाउण्डेशन फैलोशिप के लिए न्यूयार्क रहे। यह अंतरराष्ट्रीय फैलोशिप कार्यक्रम था। दो हजार ग्यारह से तेरह तक बंगाणी भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के अधीन जूनियर फैलोशिप में रचनाशील रहे। बंगाणी एक सवाल के जवाब में बताते हैं,‘‘कला और कलाकार का बेहद आत्मीय संबंध है। यथार्थ में और कैनवास की सतह में विषय और ब्रश स्ट्रोक कलाकार के व्यक्तित्व में भी होना चाहिए। लेकिन कई बार कलाकार अपने अनुभवों से समाज को दिशा भी देता है और भयावहता से आगाह भी कराता है। कला के लिए कलाकार की सोच और स्वयं उसका व्यक्तित्व बहुत कुछ निर्भर करता है। कई बार कलाकार स्वयं अंधेरे में रहते हुए भविष्य की टॉर्च बन जाता है जो अपने आगे रोशनी बिखेरता है भले ही उसके पीछे अंधेरा रहा हो।’’


बंगाणी बताते हैं कि जब आप एक गांव में पलते-बढ़ते हैं वह एक दुनिया हो जाती है। जब आप शहर में आते हैं तो आपकी दुनिया बढ़ जाती है। जब आप उस शहर की राजधानी में आते हैं तब आपकी दुनिया का विस्तार हो जाता है। जब आप देश की राजधानी में आते हैं तब आपको वहां से एक और दुनिया दिखाई देती है। जब आप देश से बाहर ऐसी जगह जाते हैं, जहां मुल्कों का काम दिखाई देता है तब आपका नज़रिया और विस्तार लेता है। वह बड़ी सहजता से बताते हैं कि तमाम मुल्कों के कलाकारों का नजरिया मुझे किसी गांव या शहर से नहीं दिखाई देता। लेकिन, जब हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विविधिता से भरे कला के काम को देखते हैं तब हमें पता चलता है कि हम जिसे काम कह रहे हैं वह तो काम का एक छोटा सा हिस्सा भर है।

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जगमोहन बंगाणी की एक पेंटिंग


वह पीछे मुड़कर देखते हैं। याद करते हैं और बड़ी सहजता से बताते हैं,‘‘ठेठ पहाड़ से निकला एक कलाकार बनने की इच्छा रखने वाला किशोर 2004 तक आते-आते जीवन के सत्ताईस वसंत देख चुका था। उसका काम सराहा जा रहा था। उसकी कूची के रंग बिक रहे थे। काम भी लगातार मिल रहा था। लेकिन वह अपने काम से संतुष्ट नहीं था। कुछ द्वंद्व बराबर परेशान कर रहा था। कुछ सम्मान, पुरस्कार और प्रमाण-पत्रों के बावजूद जब यह अहसास हुआ कि अभी घूमना है। दुनिया को देखना है। अवलोकन करना है तो बस फिर सोचा। सोचा। डेढ़-दो महीने कुछ काम नहीं किया। अपना अवलोकन किया। होश संभालने तक की यात्रा को फिर से टटोला। फिर अपनी जन्मभूमि को याद किया। अपनी माँ को याद किया। फिर ब्रश उठाया। पचास-साठ बार लिखा-माँ। माँ। तुम कहाँ हो! बस! फिर यही से मुझे एक दिशा मिली। फिर मेरा नया काम उभरा। 10 चित्र बनाए जो टैक्स्ट में थे। टैक्स्ट में चित्र था। फिर अपने संघर्षों से ही एक नई दिशा मिली। समझ में आया कि पारंपरिक चित्र, यथार्थवादी चित्रण का रेखांकन करने वाले असंख्य है। कुछ हट कर क्या हो? कुछ नया क्या हो?’’


वह अब भी अपने काम से संतुष्ट नहीं हैं। उनका मानना है कि एक अनमोल जीवन है। इस एक अकेले जीवन में कुछ करने योग्य काम तो किया ही जाना चाहिए। कला के क्षेत्र में पढ़ना बहुत जरूरी है। यात्राएं करना ज़रूरी है। यदि कलाकार पढ़ेगा लिखेगा नहीं, देखेगा नहीं और चर्चा नहीं करेगा तो मौलिक और नवीनता से भरे काम का सर्जन नहीं कर पाएगा। वह बताते हैं,‘‘कला के प्रति संवेदनशीलता की कमी है। हमें आर्ट गैलरियों का भ्रमण करना चाहिए। सूक्ष्म अवलोकन की बहुत ज़्यादा जरूरत है। कला, साहित्य और संस्कृति के जानकारों के साथ कुछ समय बिताना चाहिए।’’


सुप्रसिद्ध सामूहिक विश्व एवं अखिल भारतीय कला प्रदर्शनियों में सहभागी बन चुके बंगाणी बताते हैं,‘‘मैं अपने आप को विशिष्ट कला प्रेमी मानता हूँ। ऐसा कला प्रेमी जो पहाड़ी जीवन में रचा-बसा है। ऐसे इलाके का बचपन मेरे पास है जो उत्तराखण्ड और हिमाचली कला, संस्कृति और जीवन से सराबोर है।’’
इक्कीसवीं सदी की कला और कलाकारों के एक सवाल के जवाब में वह कहते हैं,‘‘ बहुत से लोगों का दृष्टिकोण कला और कलाकार के प्रति बहुत ही सकारात्मक होता है। लेकिन, अधिकांश लोगों में आज भी कला शिक्षा का अभाव होता है। अभी भी चित्रों से सुखद संवेदना लेने के बजाय चित्रों को समझने पर अधिक जोर देने वालो की संख्या अधिक है।’’


वैश्विक स्तर पर कला के प्रति वह स्वयं क्या नजरिया रखते हैं? इस सवाल के जवाब में वह बताते हैं,‘‘कला के विकास में यूरोप और अमेरिका का नाम अग्रणी है। आज भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश चीन, अफ्रीका, जापान और कोरिया जैसे कई देश हैं जो अपनी कला के प्रति जागरुक हो गए हैं। कला अनवरत् विकसित हो रही है। कला के प्रति दृष्टिकोण भी बदल रहा है। अब बच्चे भविष्य में मात्र विज्ञान और वाणिज्य में ही अपना कॅरियर देखते हैं। वह कला में भी अपना कॅरियर देख पा रहे हैं।’’

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जगमोहन बंगाणी की एक पेंटिंग


समाज में अराजकता और असंतोष से संबंधित एक सवाल के जवाब में जगमोहन बंगाणी कहते हैं,‘‘मनुष्य जीवों में महाबली अपनी मनुष्यता की वजह से बन पाया है। उसने अपने जीवन स्तर को बहुत विकसित कर लिया है। जब मनुष्य के पास भाषा नहीं थी तब भी कला थी। कला के प्रति यदि हम संवेदनशील होंगे तो हमारे भीतर मनुष्यता बची रहेगी। यह इसलिए भी जरूरी है कि हम कला और कलाकार के प्रति संवेदनशील हों। हर मनुष्य के भीतर कला है और कलाकार भी है। बस उसे पहचानने, उभारते और विस्तार देने की आवश्यकता भर है।’’


जगमोहन बंगाणी का कला संसार बेहद वृहद है। यदि आप उन्हें और उनके काम को निकटता से देखना-महसूसना चाहते हैं तो निम्नलिखित लिंकों पर एक क्लिक कीजिएगा। मैं आश्वस्त हूँ कि आपको आनन्द आएगा। आप उजास, उल्लास और प्रफुल्लता से भर जाएँगे।
लिंक हैं-
-मनोहर चमोली ‘मनु’

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मोण्डा उत्तराखण्ड के सुदूर जनपद उत्तरकाशी के विकासखण्ड मोरी, संकुल टिकोची का गांव

1 जुल॰ 2022

जारी है सीखना : बाल कहानी

-मनोहर चमोली ‘मनु’


पुरानी बात है। तब आदमी जंगल में रहता था। वह शरीर को पेड़ों की छाल और सूखे पत्तों से ढकता। पेड़ का तना, चट्टान और गुफाएं ही उसका सहारा थे। जंगली फल और कच्चा मांस उसका भोजन था। 
एक दिन की बात है। बर्फ गिरने लगी। आदमी ठिठुरने लगा। वह एक पेड़ के नीचे जाकर बैठ गया। चींटियाँ कहीं जा रही थीं। आदमी ने पूछा,‘‘कहाँ घूम रही हो?’’ उसे जवाब मिला,‘‘घूम नहीं रहीं हैं। घर जा रही हैं।’’ आदमी ने पूछा,‘‘घर ! ये क्या होता है?’’ एक चींटी ने जवाब दिया,‘‘बताने लगूँगी तो अपनों से बिछड़ जाऊँगी। मेरा दल आगे निकल जाएगा।’’ आदमी सोचता ही रह गया। उसे समझ ही नहीं आया कि घर क्या होता है। दल क्या होता है। सैकड़ों चींटियाँ कतार में उसके सामने से गुजर गईं। रात होने पर आदमी किसी गुफा या चट्टान के नीचे चला जाता। इस तरह जाड़ा बीत गया। 

गरमी आई। आदमी पेड़ की छाँव में बैठा था। चींटियाँ जा रही थीं। आदमी ने पूछा,‘‘कहाँ चलीं? घूमने?’’ जवाब आया,‘‘घूम नहीं रहीं हैं। भोजन जमा कर रही हैं। बरसात आने वाली है। अपने और अपनों के लिए करना पड़ता है।’’ आदमी हैरान था। कहने लगा,‘‘अपनों के लिए ! भोजन! जमा! मतलब?’’ जवाब मिला,‘‘इतना समय नहीं है। घर,परिवार,बच्चे भी देखने हैं।’’ आदमी सोच में पड़ गया। वह चींटियों को देखता रहा। इस तरह गरमी भी बीत गई। 

बरसात आई। आदमी ओढ़ना, ढकना और सहेजना कहाँ जानता था! भोजन जुटाने के लिए उसे खूब मेहनत करनी पड़ी। उसे चींटियाँ कहीं नहीं दिखाई दी। बरसात में आदमी बहुत परेशान रहा। जैसे-तैसे बरसात बीती। फिर, एक दिन उसे चींटियाँ मिलीं। वह बोला,‘‘वो घर, वो भोजन जमा करना, वो अपनापन और वो बच्चे...! बताओ न!’’ 
एक चींटी ने बताया,‘‘इस धरती पर हमारे पुरखे करोड़ों साल से रह रहे हैं। पुरानी पीढ़ी अपने अनुभव नई पीढ़ी को देकर जाती है। तुम तो अभी आए हो।’’ आदमी हैरान था। पुरखे, करोड़ों साल, पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी। वह यह सब भी कहाँ जानता था! अब तक वह आवारा घूमता था। भोजन करता और सुस्ताने लगता। फिर सो जाता। यही उसका जीवन था। चींटिया अपनी राह चल पड़ीं।

अब आदमी ने सोचना शुरू कर दिया। वह विचार करने लगा। गौर से जल, जंगल, पहाड़, नदी को देखने लगा। धीरे-धीरे वह जानने लगा कि मौसम बदलता है। अब वह जीवों के जीवन को नजदीक से देखने लगा। उसने चींटियों के साथ रहना शुरू कर दिया। चींटियों से उसने बहुत कुछ सीखा। मिल-जुल कर रहना, घर बनाना, परिवार में रहना, भोजन जमा करना और अपनापन सीखा। अब उसने आग जलाना और खेती करना सीखा। तभी से आदमी का सीखना और समझना जारी है। वह आज भी नई-नई चीज़ें सीख रहा है। आदमी आज भी चींटियों के आस-पास ही रहता है। 

॰॰॰


-मनोहर चमोली ‘मनु’,गुरु भवन, निकट डिप्टी धारा,च्विंचा मार्ग, पौड़ी, 246001 पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखण्ड. 


6 अप्रैल 2022

मनोहर चमोली कृत पुस्तक कहानियाँ बाल मन की

धन्यवाद आदरणीय पाठकों! मित्रों और शुभ चिन्तकों !

धन्यवाद सम्मानित प्रकाशक श्वेतवर्णा प्रकाशन !
दिसम्बर में अग्रिम-आदेश और उसके तीन माह में बिक्री का साफ-सुथरा आँकड़ा ,चैक सहित का मुझे भिजवाने का प्रकाशक को धन्यवाद !





मेरे लिए 4 अंकों की रॉयल्टी इतनी अहम् नहीं है जितना पाठकों का इस पुस्तक का स्वागत किया जाना ।
प्रकाशक ने किताब छापने का बीड़ा उठाया । 15 मानद प्रतियाँ दीं । एक मुश्त रकम पारिश्रमिक भी । और बीते वित्तीय वर्ष पुस्तक बिक्री का ब्यौरा , रायल्टी सहित !
जहाँ कई प्रकाशक मुफ़्त में लेखकों से लिखवा रहे हैं । लेखकों की रचनाओं से पत्रिका - पुस्तकें छापकर सम्मान - पुरस्कार - विज्ञापन बटोर रहे हैं वहीं कई प्रकाशकों ने लेखक - पाठकों के मध्य सेतु का काम भी किया है।
( अभी स्पष्ट पारिश्रमिक / रायल्टी की सूचना देना उचित नहीं है। यह लेखक - प्रकाशक का निजी मसअला है। लेकिन यह पाठकों के भरोसे से ही संभव है। )
आप चाहें तो किताब मँगा सकते हैं-


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Shwetwarna की पुस्तकें जिन्हें पाठकों ने पसंद किया और जिनके लेखकों को रायल्टी प्रदान की गई...
1. कहानियाँ बाल मन की / मनोहर चमोली मनु
2. इक्कीसवीं सदी की ग़ज़लें / डॉ. भावना
3. एक नयी शुरुआत / Garima Saxena
4. गीत लड़ेंगे अँधियारे से / शुभम् श्रीवास्तव ओम
5. विज्ञान अतीत से आजतक / Pradeep Kumar
6. लौ दिए की / Anupama Anupama
7. प्रेम गुरुत्वाकर्षण ही तो है / Animesh Mukharjee
8. अंतत: अंतरिक्ष / प्रदीप
9. हिन्दी गद्य परंपरा / आचार्य शिवपूजन सहाय Bsm Murty
9. मेरा बचपन / आचार्य शिवपूजन सहाय
10. कृष्ण / अनिरुद्ध प्रसाद विमल
11. किसी नज़र को तेरा / नज़्म सुभाष
12. अधरतिया / Shweta Tiwari
13. दरवाज़ा खोलो बाबा / Monika Sharma
14. गांधी दौलत देश की / ओम वर्मा
15. आज़ादी के तराने / Abhishek Kumar Ambar
16. तुम अनुबंध निभाना / श्वेता राय
17. मुस्कान तुम्हीं हो जीवन की / रंजन कुमार झा
18. दरभंगा हाउस / K. Manjari Srivastava
19. तुमको भुलाया कहाँ है / राजश्री गौड़
20. बचपन की फुलवारी / एस. मनोज
21. कुछ बातें अपनी सी / प्रिया रानी
इसके अलावा कुछ पुस्तकें श्वेतवर्णा और कविता कोश की अपनी प्रस्तुतियाँ भी थीं। हमें पता है हम अभी इस क्षेत्र में नए हैं, अनुभव हीन हैं इसलिए कुछ गलतियां भी हुई होंगी लेकिन हम हर रोज़ बेहतर होने की कोशिश कर रहे हैं।
हमें पूरा भरोसा है कि आप सबका सहयोग और विश्वास हमारे साथ बना रहेगा। 🙏
( शारदा सुमन जी की भित्ति से कॉपी किया गया । )
आप भी इस किताब को मँगा सकते हैं। मुझे प्रसन्नता होगी। सादर,
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