28 मार्च 2019

nandan April 2019 मोजे हुए उदास

मोज़े हुए उदास

मनोहर चमोली ‘मनु’

जीनत स्कूल से लौटी। नया स्कूल। नई किताबें। नया बैग। आज बहुत सारी नई चीज़ें आईं थीं। नए जूते और नए मोजे भी आए थे। जीनत ने जूते उतारे। फिर मोज़े उतारे। मोज़े उतारकर उसने जूतों में रख दिए। फिर वह हाथ-मुह धोने चली गई। 

‘‘उफ ! तुम कितने बदबूदार हो।’’ एक जूते ने मोज़े से कहा। 
एक मोज़ा बोला-‘‘तुम्हारी तरह हम भी नए हैं। जो कहना है जीनत से कहो। पसीना बदन से आता है। हमें पसीना नहीं आता।’’ 
दूसरा जूता बोला-‘‘ये हम नहीं जानते। इस वक़्त तो जीनत यहां नहीं है। बदबू तो तुम से ही आ रही है। चलो हटो यहां से।’’ 
दूसरा मोज़ा बोला-‘‘हमारी मर्जी कहां चलती है। जीनत ही हमें यहां से निकालेगी। धोएगी। सुखाएगी और पहनेगी। चाहो तो तुम अपना नाक बंद कर सकते हो।’’ 
जूते मुंह फुलाए चुप हो गए।

 जीनत थोड़ी देर बाद लौटी। उसने मोज़ों को जूतों से बाहर निकाला। धोया और फिर धूप में सूखने के लिए रख दिया। यह देखकर जूते चिढ़ गए।  

दिन गुजरते रहे। जूते हमेशा मोज़ों से चिढ़े ही रहते।
 एक दिन की बात है। जीनत ने मोज़े पहने। पर यह क्या! जीनत के बाँए पैर का अंगूठा मोज़े से बाहर झांक रहा था। यह देखकर जूते मोज़ों पर हंसे। खूब हंसे।

 बांया पैर का जूता बोला-‘‘अब आएगा मज़ा। अब तुम गए। फटे मोज़े भी भला कोई पहनता है। अब तुम्हें फेंक दिया जाएगा।’’ यह सुनकर मोज़े उदास हो गए। जीनत ने मोज़ों को पैरों से उतारा। सुई-धागे की सहायता से फटा हिस्सा सिल दिया। फिर उन्हें पहन लिया। यह देखकर जूते फिर चिढ़ गए। 

एक दिन की बात है। जीनत ने मोज़े पहने। पर यह क्या! जीनत के दाँए पैर का मोज़ा ढीला हो गया। वह उसे घुटने की ओर खींचती लेकिन वह खिसककर एड़ी की ओर चला जाता। जूते हँसने लगे। जीनत ने चोटी से रबर निकाला और उसे मोजे के ऊपर चढ़ा दिया। यह देखकर जूते फिर चिढ़ गए।

दिन गुजरते रहे। एक दिन की बात है। इस बार दोनों मोजे नीचे से फट गए थे। फटे मोज़ों को देखकर जूते खूब हँसे। हँसते रहे। दोनों जूते एक साथ बोले-‘‘अब कैसे बचोगे?’’ 

जीनत ने मोज़े उतारे। उन पर रुई भरी। एक से बिल्ली बनाई और दूसरे से चूहा। दोनों पुराने मोज़ों का नया रूप घर की अलमारी में सजा था। बिल्ली और चूहा बने पुराने मोज़े हँस रहे थे। जीनत ने अपनी दीदी के मोज़े पहन लिए। फिर जूते पहन लिए। पर यह क्या! जूते तो नीचे से फट चुके थे। जीनत ने जूते उतारे और उन्हें कूड़े के डिब्बे में डाल दिया। जूते सिसक रहे थे। उन्होंने अलमारी की ओर देखा। यह क्या! बिल्ली और चूहा बने मोज़े यह सब देखकर उदास थे। ॰॰॰ 


20 मार्च 2019

चकमक फरवरी 2019 कहानी-च्विंगम



फुर्रररररररररररर ! #MainBhiChowkidar

फुर्रररररररररररर ! 

-मनोहर चमोली ‘मनु’

ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर, दस पल का मौन सन्नाटा। फिर, फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा।


रात के ग्यारह बजे से सुबह चार बजे तक बदस्तूर एक-सी आवाज़ कानों में पड़ती। ऐसा लगता कि इन आवाज़ों के साथ घड़ी भी साथ देती होगी। जो कहती होगी-‘‘एक दो तीन।’’ और आवाज़ पुकारती-‘‘फुर्रररररररररररर !’’ फिर घड़ी पुकारती होगी,‘‘एक दो तीन।’’ आवाज़ कहती,‘‘ ठक-ठक-ठक-ठक-ठक !’’

फिर घड़ी कहती होगी,‘‘एक दो तीन। दस सेकण्ड तक मौन।’’ दस सेकण्ड तक चुप्पी छा जाती। फिर फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा। फिर, फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा।

दीवाली से होली तक यह आवाज़ जैसे कानों में घुल-सी गई थीं। ऐसा लगता था कि ये आवाज़ें हमारे घर की परिक्रमा कर रही हों। पर ऐसा नहीं था। होली के बाद फिर रातें छोटी होने लगतीं तो आवाज़ कानों में धीमी सुनाई देती। हाँ, यह तो तय था कि आवाज़ें रोज़ जागती रहती थीं। होली के बाद गुड फ्राॅइडे आ जाता। पर आवाज़ की तासीर एक सी रहती। अनवरत्। उसी लय के साथ।

मैं सोचता,‘‘कहीं टेप रिकाॅर्डर तो नहीं बज रहा? बार-बार एक ही कैसेट तो नहीं चल रही?’’ पाँचों वक़्त की नमाज़ अपने समय पर जुटती। रमज़ान के दिनों में शाम की अजान और सुबह की अजान कानों में रस घोलती। हाँ, बरसात के मौसम में ये आवाजे़ं हर रात ठीक से बातचीत नहीं कर पाती थीं। जिस रोज़ बारिश न होती तो ये आवाजें मानों अचानक उग आतीं। फिर कानों में आवाज़ आने लगती- फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा। फिर, फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा।

पन्द्रह अगस्त की सुबह चार बजे से पहले उठना होता था। प्रभात फेरी का इंतजार चार-पाँच दिनों से जो रहता था। दो दिन पहले से रियाज़ करते थे कि ऐन पन्द्रह अगस्त को नींद से न उठे तो गए काम से!

फिर ये आवाज़ें खूब काम आतीं- फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा। फिर, फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा।

रक्षा बन्धन आता और जन्माष्टमी। कृष्ण के रात वाले बारह बजे के बाद जब सोने जाते तो फिर यह आवाज़ थोड़ा और जागने के लिए बाध्य करती-फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा। फिर, फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा।

पूरे साल नहीं। कई सालों तक यह आवाज़ नींद आने से पहले और नींद आने के बाद भी जैसे साथ-साथ सोती हों । बस मुलाकात नहीं होती थी। होती भी कैसे? जब हम जागते तो यह आवाज़ शायद सोने चली जाती। जब हम सोने जाते तो यह आवाज़ें जागतीं। खेलती थीं। कूदती थीं। हम भला चाहकर भी इन आवाज़ों के साथ कैसे खेल पाते? रात को तो क्या शाम के आते ही हम भीतर होते। हम क्या होते हमें भीतर कर दिया जाता था। रात को बाहर जाने की अनुमति नहीं थी, तो नहीं थी।

घर के बड़े कहते,‘‘बाहर नहीं। बाहर बाघ है। रीक है। भूत है! साँप है।’’
हम सोचते कि उन आवाज़ों के लिए बाहर कोई डर क्यों नहीं है? फिर दशहरा आता। दीवाली आती। क्रिसमस आता। मैं सोचता,‘‘सेंटा क्लाॅज से तो ये आवाज़ें ज़रूर मिलती होंगी। काश ! हम सेंटा क्लाॅज होते।’’

हमारा होना हम कहाँ तय करते हैं? यह तो कोई ओर तय करता है। मैं अक्सर सोचता था। जब सोचता था। अब हम सोचते भी कहाँ हैं?

मैं सोचता था-‘‘हवा कब बहेगी? कितना बहेगी? यह कौन तय करता होगा? घर में क्या पकेगा? यह कौन तय करता है? छुट्टियां हमारे लिए पड़ती थीं और होमवर्क कोई ओर तय करता था। परीक्षा हम देते हैं परीक्षाफल कोई ओर तय करता है। क्यो?

सेंटाक्लाॅज का इंतजार मैंने भी किया। ख़ूब किया। कई साल किया। आपने किया? इस सेंटाक्लाॅज का इंतज़ार करते-करते आँखों के रस्ते ये आवाज़ें फिर सुनाई देती-

फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा। फिर, फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा।

फिर एक दिन नया साल आता। हम भी नए साल में कुछ नई योजनाएं बनाते। जो दस-बीस दिन के बाद ग़ायब हो जातीं। लेकिन ये आवाज़ें कभी ग़ायब नहीं हुई। छब्बीस जनवरी का दिन था। हम घर लौट रहे थे। अचानक मुझे आवाज सुनाई दी-फुर्रररररररररररर !

मैं चौका। यह फुर्रररररररररररर की आवाज़ एक आदमी के हाथ में थी। नहीं-नहीं। हाथ में पकड़ी हुई किसी चीज़ की थी। नहीं-नहीं। वो चीज़ नहीं सीटी थी। वह सीटी एक आदमी के होंठो पर थी। सीटी कहाँ थी ?
वो तो किसी फूँक से पैदा हुई आवाज़ थी।


ठिगना-सा आदमी दुबली-पतली काया। लाल मेंहदी में रंगी दाढ़ी। सिर पर हरा कपड़ा बाँधे। आँखों में गोल चश्मा जो किसी चिकट डोर से बँधा है। हाथ में मोटा बाँस का लट्ठ लिए गमबूट पहने हुए लियाकत चचा थे। आज वह बाज़ार से नई सीटी लाए थे। उसी को बजाते हुए जा रहे थे। अलबत्ता लाठी से ठक-ठक-ठक-ठक-ठक की आवाज़ नहीं बना रहे थे।

गुरदीप साथ में था। उसने कहा,‘‘लियाकत चचा की सीटी चोरी हो गई। पता नहीं किसी ने मजाक में छिपा दी हो शायद। देख, नई सीटी कितनी बड़ी है। पीतल की है। चैन भी पीतल की है। गले में टाँग लेंगे तो न गुम होगी न चोरी चली जाएगी।’’

मैं सन्न था। मैं मुड़कर उन्हें एकटक देखता रहा। उनके कांधे झुके हुए थे। पीठ पर कुर्ता चिपका हुआ था। बाँए हाथ पर पकड़ी हुई लाठी को जैसे वह खींच रहे थें। ऐसा लग रहा था कि पैरों को जूते आगे की ओर खींच रहे हों।

तो ये हैं लियाकत चचा? मरियल से। मैं तो सोचता था कि कोई हट्टा-कट्टा विशालकाय पहलवान होगा। जो सालों से काॅलोनी में चौकीदार है। छप्पन नहीं साठ इंच का सीना लिए घूमता होगा ! ये हैं लियाकत चचा ! यह रात पसरते कानों में आवाज़ गूँजाने वाले ! यह वही शरीर है जिसका बाँया हाथ बेजान लाठी से भी आवाज़ निकलवा लेता है !

'ठक-ठक-ठक-ठक-ठक !'


मेरी आँखें फटी की फटी रह गई! रात का अँधेरा याद आ गया। जाड़ों की सर्द रातें सामने छा गईं। हिमालय की ओर से सनसनाती हुई बदन को छूने वाली हवा को महसूस किया तो कँपकँपी छूटने लगी। बरसात के दिनों में अक्सर कपड़ों के साथ बदन भी तर हो जाता था। तर-बतर शरीर के बाल ठंड में तन कर खड़े हो जाते थे। यह याद आते ही शरीर सिहर गया। हाँ , मन और मस्तिष्क लियाकत चचा के लिए आदर और श्रृद्धा से भर ज़रूर गया था।

तभी सोच लिया था। बड़ा होकर कुछ भी बन जाऊँगा पर चौकीदार नहीं बनूँगा। तब मुझे लगा था कि सबसे कठिन है चौकीदार बनना। और आज? आज की कलुषित राजनीति ने जैसे सब कुछ आसान कर दिया हो। सोच रहा हूँ। हम कितना गिर चुके हैं। हमारे लिए कर्म और कर्म की पहचान हँसी-ठट्ठा हो गई है। हम बग़ैर सोचे-समझे किसी का भी मज़ाक उड़ाने लग गए हैं। हम वो बनने का स्वाँग रचने लगे हैं जो हम बन नहीं सकते। जो हम कभी हो नहीं सकते।

आज पीछे मुड़कर देखता हूँ तो लियाकत चचा याद आते हैं। वे रात के अँधेरे में कहाँ नज़र आते थे? लेकिन उनकी लाठी की ठक-ठक-ठक-ठक-ठक और नपी-तुली घड़ी बाद सीटी की आवाज़ तो नज़र आती थी। नज़र क्या आती थी। सुनने वालों की धड़कन में रच-बस गई थीं। उन्होंने सालों सीटी और लाठी को सहेजकर रखा होगा। सीटी की आवाज़ के लिए न जाने लाखों-करोड़ों बार लंबी साँस भीतर की ओर खींची होगी। मुझे तो यह भी इल्म नहीं कि साँस खींचते वक़्त फेफड़े सिकुड़ते हैं या फैलते हैं? चचा ने लाठी की ठक-ठक-ठक-ठक-ठक तो धरती की पीठ पर करोड़ों बार धौल के तौर पर दी होगी।

याद करता हूँ तो पाता हूँ कि उनके रहते चोरी-चकारी की एक भी घटना तो छोड़िए बात तक कानों में नहीं पड़ी। लियाकत चचा की कद-काठी देखकर मुझे चोरों पर भी तरस आ गया था। मैं अक्सर सोचता था कि लियाकत चचा जैसे चोरों का क्या बिगाड़ लेंगे। चोर तो बहुत ही डरपोक होते हैं। फिर मन में बैठ गया था कि चोर डरपोक ही होते हैं तभी तो रात के अँधेरे में चोरी-चकारी करते हैं।

रात, लियाकत चचा, सीटी और लाठी का याराना सालों-साल रहा होगा। मरते दम तक रहा होगा। चचा ख़्याल रखने वाले थे। सीटी का और लाठी का ही नहीं, पूरी काॅलोनी का भी। 

उनके लिए ये चार पँक्तियाँ याद आ रही हैं-

'प्रीत करे तो ऐसी करे 
कि जैसे करे कपास 
जीते जीतो संग रहे 
मरे ना छोड़े साथ.'


मैं चालीस वसंत कब का देख चुका हूँ। मैं जीवन की लगभग सात हजार तीन सौ रातें सौ चुका हूँ। मुझे याद नहीं आ रहा कि इन रातों में एक भी रात मेरे हिस्से आई होगी जिस रात मैं जागा हूँगा। तो मैं कैसे चौकीदार हो सकता हूँ?
॰॰॰

-मनोहर चमोली ‘मनु’

19 मार्च 2019

‘‘ओ ! फ़सली चौकीदार ! ’’

‘‘ओ ! फ़सली चौकीदार ! ’’

-मनोहर चमोली ‘मनु’


मैंने पलटकर देखा। लगभग बीस कदम की दूरी पर एक अनजान आदमी खड़ा था। वह व्यंग्यात्मक भाव लिए मुस्करा रहा था। मैंने कदम बढ़ा दिए।
‘‘ओ ! फ़सली चौकीदार ! ठहरो !’’

पता नहीं, मुझे क्यों लगा कि वह मुझे ही पुकार रहा है। मैंने फिर पलटकर देखा। उसने 'हाँ ' में ठुड्डी हिलाकर तसदीक कर दी। यही कि वह मुझसे ही मुख़ातिब हो रहा है। उसने रुकने का इशारा करते हुए जल्दी-जल्दी डग भरे और मेरे निकट आ पहुँचा।

पहली बार ! पहली बार, मैंने देखा कि कैसे कोई दो कदमों की चाल एक कदम में पूरा कर सकता है। मैं उसे पहचान नहीं पा रहा था। वह बोला,‘‘हम पहली बार मिल रहे हैं। पर फेसबुक में रोज़ मिलते हैं। आप फ़सली है और मैं असली।’’

‘‘मतलब ?’’ मैंने पूछा।


वह बोला,‘‘मतलब ये कि मैं चौकीदार हूँ। डबल चौकीदार।’’

मैं समझ गया। डबल इंजन की सरकार की तरह यह भी वही है। मैं सोच ही रहा था कि वह फिर बोला,‘‘मैं न भक्त हूँ , न अंधभक्त। मैं बुद्धिजीवी भी नहीं हूँ। डबल मतलब, रात को एटीएम मशीन के दरवज्जे पर बैठता हूँ। चौकीदारी करता हूँ। रात के दस बजे से सुबह छःह बजे तक। फिर दिन में दो बजे से रात के दस बजे तक एक फैक्ट्री के गेट पर चौकीदारी करता हूँ।’’

मैं मन ही मन घंटे गिन रहा था कि वह बोल पड़ा,‘‘सोलह घंटे की चौकीदारी करता हूँ। और आप?’’ मैं बिफ़र पड़ा,‘‘तुम कौन हो? मैं क्यों बताऊँ?’’

वह बोला,‘‘तो फेसबुक में क्यों बताया?’’
‘‘क्या?’’
‘‘यही कि मैं भी ‘चौकीदार‘ हूँ।’’
‘‘मेरी मर्जी।’’
‘‘तो क्या मैं यह लिख सकता हूँ मैं भी प्रधानमंत्री?’’

मैं उलझना नहीं चाहता था। मुझे लगा कि वह मुझे अपमानित कर रहा है। लोग हम दोनों को देख रहे थे। मैं जाने लगा।

‘‘अरे-अरे! आप तो बुरा मान गए। फेसबुक में आपकी चौधराहट पढ़कर मज़ा आता है। सोचा,असल ज़िंदगी में भी आपकी रसूखदारी देख लूँ। ’’

मैं किंकर्तव्यविमूढ़ था। वह सामान्य हो गया। बोला,‘‘चौकीदार हूँ। चौकीदारी मेरा पेशा है। पूरी निष्ठा के साथ अपना काम करता हूँ। किसी तरह से डबल ड्यूटी कर बारह हजार पाता हूँ। पत्नी स्वेटर बुनती है। स्वेटर बेच-बेचकर वह भी पाँच-छःह हजार कमा लेती है। पर आप लोगों ने हम मेहनतकशों का मजाक बना दिया है। जिसे देखो कहता फिर रहा है - 'मैं भी चौकीदार-मैं भी चौकीदार।' फ़र्ज़ी साले। आए दिन भ्रष्टाचार करते हैं। रिश्वत देते हैं और लेते भी हैं। भिखारी ही नहीं , कुत्तों तक को आए दिन दुत्कारते फिरते हैं। ठेली-रेहड़ी वालों की चने-मुंगफली आते-जाते मुट्ठी भर लेते हैं। एक ढेला खर्च नहीं करते। और कहते फिर रहे हैं कि मैं भी चौकीदार ! थू है!’’
अब मुझे गुस्सा आ गया। वह समझ गया। बोला-‘‘भाई जी, नाराज़ मत हों। आप सही आदमी हो। पर ज़रा भटके हुए हो। अब देखो न , गुमराह लोग ही तो चोरी-चकारी करते हैं। और हम चौकीदार उन पर ही तो नज़र रखते हैं। है कि नहीं? आप तो पहरेदारी और चौकीदारी में फ़र्क़ महसूसते हैं। आस्था, पोंगापंथी, भक्ति,राष्ट्रभक्ति और अंधभक्ति समझते होंगे। तो आपसे कह रहा हूँ। वरना जैसा माहौल है तो दिन को दिन कहना भी गुनाह है। आप समझ रहे हैं न मैं क्या कह रहा हूँ?"
मैं सोच रहा था कि ये पढ़ा-लिखा भी होगा? वह बोला,‘‘भाई जी। वक़्त-वक़्त की बात है। एम.एस.सी. हूँ। आधा बी.एड. हूँ। आधा मतलब कि परीक्षा के पहले दिन ही झगड़ा हो गया। पूरे कमरे में नकल करा रहे थे। सौ-सौ रुपए इकट्ठा कर रहे थे। बस छोड़ आया। एक स्कूल में पढ़ाया कई साल। लेकिन वहाँ भेड़-बकरियों की तरह बच्चों को पीटते मुझसे देखा नहीं गया। झड़प हो गई। छोड़ आया।’’
‘‘यह तो लढ़ाकू है।’’ मैं सोच रहा था कि वह बोला,‘‘लोगों में धैर्य नहीं है। सच्ची बात कड़वी लगती है। लोग सुनना ही नहीं चाहते। लड़ पड़ते हैं। हाथ छोड़ने लगते हैं। भले ही मैं चौकीदार हूँ। लेकिन एक चींटी पे भी मैंने कभी हाथ नहीं उठाया। हाहाहा।’’
रणी लाला की दुकान पास में ही थी। मैंने कहा,‘‘आओ। चाय पीते हैं।’’

वह साथ हो लिया। हम चाय का इन्तज़ार करने लगे। मैं उसकी ओर देख रहा था। वह बोला,‘‘क्या हम चौकीदारों की स्थिति कभी ऐसी आएगी कि हम भी आयकर रिटर्न भर सकें? हम चौकीदार भी मनी बैक पाॅलिसियाँ खरीद सकें? हमारा भी मन होता है कि हम भी माॅल में जाकर खरीददारी कर सकें। हमारा भी मन होता है कि एक चौपहिया गाड़ी हमारी हो। बताइए। सोलह घंटे चाकरी करने के बाद भी हमारी जेब बीस तारीख को ढीली हो जाती है। कितनी अजीब बात है ! सुरक्षा करने की जिम्मेदारी हमारी और हमारी साख देखिए। बैंक तो क्या ? दोस्त भी हमें कर्ज़ देने से साफ मना कर देते हैं।’’

मैं कुछ पूछता पर वह था कि लगातार बोले जा रहा था। जैसे कोई पहली बार उसे सुन रहा हो। वह बोला,‘‘ मैं हूँ चौकीदार कहने मात्र से आप लोग हमारे नहीं हो सकते। हमारे जैसे भी नहीं हो सकते। क्या आपको पता है कि हम कैसी-कैसी चौकीदार करते हैं? बाजारों की चौकीदारी करते हैं। मुहल्लों की चौकीदारी का जिम्मा हमारा होता है। स्टूल पर बैठे रहना चौकीदारी नहीं है। सो जाना चौकीदारी नहीं है। जागना भर चौकीदारी नहीं है। कुछ गलत दिखता है या होता है या होने की संभावना होती है उसकी ख़बर करनी होती है। सबसे पहली ग़ाज़ हम पर ही गिरती है। पता भी है आपको? महीने के सारे दिन हमारी तैनाती रहती है। 8 घण्टे तो कहीं 10 घण्टे तो कहीं 12 घण्टे की तैनाती होती है। एक ड्यूटी के 200 से 300 रुपए मिलते हैं। हम जानते भी नहीं कि छुट्टी क्या होती है। याद भी नहीं कि आखिरी छुट्टी कब ली थी। जब भी ली तो दोगुने रुपए कटते हैं। आप लोग खुद को चौकीदार कहते हो तो सोचते हो कि हम गर्व महसूस कर रहे हैं? गलतफ़हमी है आपको। हम तब गर्व महसूस करेंगे जब हमारी पीड़ाए समझेंगे आप लोग। हम चौकीदार बेरोजगार हैं तभी चौकीदारी कर रहे हैं। आप समझ लें जिस दिन रोजगार मिल जाएगा ये काम छोड़ देंगे। चौकीदारी में मेहनत का मोल नहीं है।’’
‘‘पैसा तो मिल रहा है। फिर ऐसा क्यों कहते हो?’’
‘‘इसलिए कि यह ज़िम्मेदारी का काम है। नौकरी नहीं। यदि कुछ घटता है तो हम पर बन आती है। रिस्क तो हमारा है। जान भी हमारी है। पगार भी हमारी कटेगी। मजबूरी का नाम चौकीदारी है भाई जी। अभी तो ख़ून गरम है। कल पचास का हो जाऊँगा। दुःख है। बीमारी है। कोई फण्ड नहीं। छुट्टी ली तो, हमेशा की छुट्टी हो जाती है। रात की ड्यूटी करते हैं। चोरों का डर। बिच्छूओं का डर, मच्छरों का डर। साँप का डर। कुत्तों का डर। अरे इंसानों से बेहतर दोस्त तो हमारे अवारा कुत्ते हो जाते हैं। हम तो होली-दीवाली-ईद और क्रिसमस इन सड़कछाप कुत्तों के साथ मनाते हैं। कैसी दुनिया बना रहे हैं भाईजी हम? आप भी चाय दुकान पे पिला रहे हो। घर पर नहीं बुलाओगे। क्यों? हर तीन में दो परिवार के लोग सोचते हैं कि हम घरों के भेद चोरों को बताते हैं। सो ,वे हमसे दूरी बना कर रखते हैं। चौकीदार को चोर समझने वाली भावना से हमें ठेस लगती है।’’
चाय आ गई। मैंने दस रुपए की सेळ मँगाई। हम चाय पीने लगे।

वह बोला,‘‘कोई अपने को कुछ भी कहे। हमें क्या फ़र्क पड़ता है। पर चोर खुद को चौकीदार कहे तो हैरानी होती है। लेकिन मैं यह नहीं कह रहा कि चोर चोरी का काम छोड़कर ईमानदार नहीं हो सकता। हो सकता है। वह चौकीदार बन सकता है। पर चैकीदारी का ढोंग करना हमारे पेशे का मजाक बनाना है। बस ! यह कहना चाहता हूँ।’’


मैं चुपचाप उसे सुन रहा था। मैं उसकी थाह ले रहा था और वह मेरी थाह ले रहा था।

वह बोला,‘‘ यह मुल्क़ केवल नेताओं का नहीं है। पूंजीपतियों का नहीं है। मेरा और आपका भी है। राष्ट्र की सेवा एक मोची भी कर रहा है। जो आपके और मेरे बूट पर पूरी निष्ठा के साथ बीस रुपए की पाॅलिश करता है। आपके और मेरे पैर के जूतों को हथेली में ओढ़ लेता है। अपनी आँखों के नज़दीक ले जाकर करीने से ब्रुश फेरता है। जूते के तले में सड़क में गिरा गू-मूत सूँघता है। वे स्वच्छक जो हर सुबह की शुरूआत गली-मुहल्लों में हमारे द्वारा फैलाई गंदगी साफ करते हैं। बिना नागा। क्या वे देश की प्रगति के लिए मेहनत नहीं कर रहे? ये लोग भारतीय जनता की गाढ़ी कमाई से हवा में नहीं उड़ रहे हैं। जमीन पे हैं, ज़मीनी बात कर रहे हैं। आप तो जानते ही होंगे कि हम हर साल भ्रष्ट देशों की सूची में लगातार ऊपर चढ़ रहे हैं। हर साल अपराध का ग्राफ ऊपर और ऊपर चढ़ रहा है। ऐसे में आम आदमी होने का ढोंग रचना गलत है। आम आदमी की पीड़ा समझने के लिए आम आदमी के बीच रहना होगा। उन्हें भी इंसान समझना होगा।’’

मैं रुपए देने लगा। वह बोला,‘‘अरे ध्यान से, तीस रुपए रणी लाला को दिए और तीन सौ नीचे गिरा दिए।’’ दो सौ रुपए और पचास-पचास के दो नए नोट मोबाइल के साथ चिपके हुए थे। जेब से बाहर निकालते हुए वह जमीन पर लोटने लगे।

‘‘चौकीदार का मतलब चौकसी है। चौक पर खड़ा आदमी चौकीदार है। उसे बिठाने का इंतजाम नहीं कर सकते तो उसके खड़े होने का अपमान तो मत कीजिए। हम कह रहे हैं कि दुनिया हमारी शक्ति का लोहा मान रही है। पर मुझे कोई यह बताए कि 1,20,000 बच्चे ग़ायब हैं। उन्हें कौन ले गया? उन्हें कौन खोजेगा? हर साल भारत में ही 20,000 से अधिक बच्चे मिसिंग हो जाते हैं। कैसी चौकसी है भाई जी?"

अब वो सवाल करने लगा। बोला,‘‘ क्या एक माँ चौकीदार नहीं। पर फेसबुक में किसी महिला ने क्यों नहीं लिखा कि मैं भी चौकीदार ! क्यों? क्योंकि असल जीवन में चौकीदार वह है जो स्टूल पर बैठा हुआ मिलता है। मरियल हाथ में मरियल डण्डा लिए होता है। हाई टैक के जमाने में वह सिक्योरिटी वाला हो गया है। चौकीदार शब्द में जेण्डर की बू आती है। नहीं? किसान कहते ही आदमी किसान का चित्र क्यों बनता है? हल जोतता किसान ही क्यों चित्रों में दिखाया जाता है? कोई किसानी क्यों नहीं दिखाई जाती? पंडित की पंडिताईन तो खूब बोलते हो। चौकीदार की चौकीदारिन क्यों नहीं कहते? ये जो twitter में नाम के आगे चौकीदार जोड़ रहे हैं उनमें महिलाएं भी हैं क्या? कोई चौकीदार भी twitter पर है क्या? होंगे , क्यों न होंगे। पर उन्हें फोलो भी करते हो क्या?"

मैं कहने वाला था कि ज़रा ज़ल्दी में हूँ। पर वो ही बोल पड़ा,‘‘धन्यवाद चाय के लिए। फिर मिलते हैं कभी। ड्यूटी का टाइम हो रहा है। मैं जब स्टूल पर बैठूंगा तभी 8 घण्टे ड्यूटी पर खड़ा चौकीदार घर जाएगा। मैं दस सेकण्ड भी लेट पहूँचा तो भाई का दिल बैठ जाएगा। सो, ड्यूटी के साथ नो लफ़्फ़ाजी। सीधी बात, नो बक़वास ! होली की मुबारकें।’’ उसने जय हिंद वाला सैल्यूट दिया और लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ आगे बढ़ गया।

जिन-जिन दोस्तों ने फेसबुक पर ही सही, लिखा है- मैं भी चौकीदार। #MainBhiChowkidar #mainbhichowkidar उनके व्यक्तित्व को असल ज़िंदगी में खगाला जाए तो पता चल जाएगा कि वह असली हैं या नकली? या मेरी तरह फ़सली? आज सुबह कुछ दोस्तों की वाॅल खगाली। फिर उनके निजी जीवन को याद किया। उन पर लिखने का ख़ाका बनाने लगा तो मन संबंधों में खटास हो जाने की आशंका से भर गया।
फिर याद आए मुंशी प्रेमचन्द। पंच परमेश्वर की खाला याद आ गई। जो कहती है-‘‘बेटा ! क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे?

पुनश्च: मैं उसकी बातों में तल्लीन तो था पर क्या मुझे इतना तल्लीन होना चाहिए था कि उसका नाम भी न पूछ सकूँ?
॰॰॰
-मनोहर चमोली ‘मनु’

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17 मार्च 2019

जो हम कभी हो नहीं सकते

जो हम कभी हो नहीं सकते

-मनोहर चमोली ‘मनु’

....फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर, दस पल का मौन सन्नाटा। फिर, फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा।
रात के ग्यारह बजे से सुबह चार बजे तक बदस्तूर एक-सी आवाज़ कानों में पड़ती। ऐसा लगता कि इन आवाज़ों के साथ घड़ी भी साथ देती होगी। जो कहती होगी-‘‘एक दो तीन।’’ और आवाज़ पुकारती-‘‘फुर्रररररररररररर !’’ फिर घड़ी पुकारती होगी,‘‘एक दो तीन।’’ आवाज़ कहती,‘‘ ठक-ठक-ठक-ठक-ठक !’’

फिर घड़ी कहती होगी,‘‘एक दो तीन। दस सेकण्ड तक मौन।’’ दस सेकण्ड तक चुप्पी छा जाती। फिर फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा। फिर, फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा।
दीवाली से होली तक यह आवाज़ जैसे कानों में घुल-सी गई थीं। ऐसा लगता था कि ये आवाज़ें हमारे घर की परिक्रमा कर रही हों। पर ऐसा नहीं था। होली के बाद फिर रातें छोटी होने लगतीं तो आवाज़ कानों में धीमी सुनाई देती। हाँ, यह तो तय था कि आवाज़ें रोज़ जागती रहती थीं। होली के बाद गुड फ्राॅइडे आ जाता। पर आवाज़ की तासीर एक सी रहती। अनवरत्। उसी लय के साथ।
मैं सोचता,‘‘कहीं टेप रिकाॅर्डर तो नहीं बज रहा? बार-बार एक ही कैसेट तो नहीं चल रही?’’ पाँचों वक़्त की नमाज़ अपने समय पर जुटती। रमज़ान के दिनों में शाम की अजान और सुबह की अजान कानों में रस घोलती। हाँ, बरसात के मौसम में ये आवाजे़ं हर रात ठीक से बातचीत नहीं कर पाती थीं। जिस रोज़ बारिश न होती तो ये आवाजें मानों अचानक उग आतीं। फिर कानों में आवाज़ आने लगती- फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा। फिर, फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा।
पन्द्रह अगस्त की सुबह चार बजे से पहले उठना होता था। प्रभात फेरी का इंतजार चार-पाँच दिनों से जो रहता था। दो दिन पहले से रियाज़ करते थे कि ऐन पन्द्रह अगस्त को नींद से न उठे तो गए काम से!
फिर ये आवाज़ें खूब काम आतीं- फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा। फिर, फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा।
रक्षा बन्धन आता और जन्माष्टमी। कृष्ण के रात वाले बारह बजे के बाद जब सोने जाते तो फिर यह आवाज़ थोड़ा और जागने के लिए बाध्य करती-फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा। फिर, फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा।
पूरे साल नहीं। कई सालों तक यह आवाज़ नींद आने से पहले और नींद आने के बाद भी जैसे साथ-साथ सोती हों । बस मुलाकात नहीं होती थी। होती भी कैसे? जब हम जागते तो यह आवाज़ शायद सोने चली जाती। जब हम सोने जाते तो यह आवाज़ें जागतीं। खेलती थीं। कूदती थीं। हम भला चाहकर भी इन आवाज़ों के साथ कैसे खेल पाते? रात को तो क्या शाम के आते ही हम भीतर होते। हम क्या होते हमें भीतर कर दिया जाता था। रात को बाहर जाने की अनुमति नहीं थी, तो नहीं थी।
घर के बड़े कहते,‘‘बाहर नहीं। बाहर बाघ है। रीक है। भूत है! साँप है।’’
हम सोचते कि उन आवाज़ों के लिए बाहर कोई डर क्यों नहीं है? फिर दशहरा आता। दीवाली आती। क्रिसमस आता। मैं सोचता,‘‘सेंटा क्लाॅज से तो ये आवाज़ें ज़रूर मिलती होंगी। काश ! हम सेंटा क्लाॅज होते।’’
हमारा होना हम कहाँ तय करते हैं? यह तो कोई ओर तय करता है। मैं अक्सर सोचता था। जब सोचता था। अब हम सोचते भी कहाँ हैं?
मैं सोचता था-‘‘हवा कब बहेगी? कितना बहेगी? यह कौन तय करता होगा? घर में क्या पकेगा? यह कौन तय करता है? छुट्टियां हमारे लिए पड़ती थीं और होमवर्क कोई ओर तय करता था। परीक्षा हम देते हैं परीक्षाफल कोई ओर तय करता है। क्यो?
सेंटाक्लाॅज का इंतजार मैंने भी किया। ख़ूब किया। कई साल किया। आपने किया? इस सेंटाक्लाॅज का इंतज़ार करते-करते आँखों के रस्ते ये आवाज़ें फिर सुनाई देती-
फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा। फिर, फुर्रररररररररररर ! ठक-ठक-ठक-ठक-ठक ! फिर दस पल का मौन सन्नाटा।
फिर एक दिन नया साल आता। हम भी नए साल में कुछ नई योजनाएं बनाते। जो दस-बीस दिन के बाद ग़ायब हो जातीं। लेकिन ये आवाज़ें कभी ग़ायब नहीं हुई। छब्बीस जनवरी का दिन था। हम घर लौट रहे थे। अचानक मुझे आवाज सुनाई दी-फुर्रररररररररररर !
मैं चौका। यह फुर्रररररररररररर की आवाज़ एक आदमी के हाथ में थी। नहीं-नहीं। हाथ में पकड़ी हुई किसी चीज़ की थी। नहीं-नहीं। वो चीज़ नहीं सीटी थी। वह सीटी एक आदमी के होंठो पर थी। सीटी कहाँ थी ?
वो तो किसी फूँक से पैदा हुई आवाज़ थी।

ठिगना-सा आदमी दुबली-पतली काया। लाल मेंहदी में रंगी दाढ़ी। सिर पर हरा कपड़ा बाँधे। आँखों में गोल चश्मा जो किसी चिकट डोर से बँधा है। हाथ में मोटा बाँस का लट्ठ लिए गमबूट पहने हुए लियाकत चचा थे। आज वह बाज़ार से नई सीटी लाए थे। उसी को बजाते हुए जा रहे थे। अलबत्ता लाठी से ठक-ठक-ठक-ठक-ठक की आवाज़ नहीं बना रहे थे।
गुरदीप साथ में था। उसने कहा,‘‘लियाकत चचा की सीटी चोरी हो गई। पता नहीं किसी ने मजाक में छिपा दी हो शायद। देख, नई सीटी कितनी बड़ी है। पीतल की है। चैन भी पीतल की है। गले में टाँग लेंगे तो न गुम होगी न चोरी चली जाएगी।’’
मैं सन्न था। मैं मुड़कर उन्हें एकटक देखता रहा। उनके कांधे झुके हुए थे। पीठ पर कुर्ता चिपका हुआ था। बाँए हाथ पर पकड़ी हुई लाठी को जैसे वह खींच रहे थें। ऐसा लग रहा था कि पैरों को जूते आगे की ओर खींच रहे हों।
तो ये हैं लियाकत चचा? मरियल से। मैं तो सोचता था कि कोई हट्टा-कट्टा विशालकाय पहलवान होगा। जो सालों से काॅलोनी में चौकीदार है। छप्पन नहीं साठ इंच का सीना लिए घूमता होगा ! ये हैं लियाकत चचा ! यह रात पसरते कानों में आवाज़ गूँजाने वाले ! यह वही शरीर है जिसका बाँया हाथ बेजान लाठी से भी आवाज़ निकलवा लेता है !
'ठक-ठक-ठक-ठक-ठक !'

मेरी आँखें फटी की फटी रह गई! रात का अँधेरा याद आ गया। जाड़ों की सर्द रातें सामने छा गईं। हिमालय की ओर से सनसनाती हुई बदन को छूने वाली हवा को महसूस किया तो कँपकँपी छूटने लगी। बरसात के दिनों में अक्सर कपड़ों के साथ बदन भी तर हो जाता था। तर-बतर शरीर के बाल ठंड में तन कर खड़े हो जाते थे। यह याद आते ही शरीर सिहर गया। हाँ , मन और मस्तिष्क लियाकत चचा के लिए आदर और श्रृद्धा से भर ज़रूर गया था।
तभी सोच लिया था। बड़ा होकर कुछ भी बन जाऊँगा पर चौकीदार नहीं बनूँगा। तब मुझे लगा था कि सबसे कठिन है चौकीदार बनना। और आज? आज की कलुषित राजनीति ने जैसे सब कुछ आसान कर दिया हो। सोच रहा हूँ। हम कितना गिर चुके हैं। हमारे लिए कर्म और कर्म की पहचान हँसी-ठट्ठा हो गई है। हम बग़ैर सोचे-समझे किसी का भी मज़ाक उड़ाने लग गए हैं। हम वो बनने का स्वाँग रचने लगे हैं जो हम बन नहीं सकते। जो हम कभी हो नहीं सकते।
मैं चालीस वसंत कब का देख चुका हूँ। मैं जीवन की लगभग सात हजार तीन सौ रातें सौ चुका हूँ। मुझे याद नहीं आ रहा कि इन रातों में एक भी रात मेरे हिस्से आई होगी जिस रात मैं जागा हूँगा। तो मैं कैसे चौकीदार हो सकता हूँ?
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-मनोहर चमोली ‘मनु’

13 मार्च 2019

manohar chamoli manu मनोहर चमोली मनु: ‘कहानियों में बचपन’ children story manohar chamoli...

manohar chamoli manu मनोहर चमोली मनु: ‘कहानियों में बचपन’ children story manohar chamoli...: ---‘कहानियों में बचपन’ __________________दोस्तों। सादर, नमस्ते ! कई मित्र मुझसे मेरी कहानियों की किताब मांगते हैं। कई बार मेल से भी मांग...

लिंक है- http://alwidaa.blogspot.in

‘कहानियों में बचपन’ children story manohar chamoli manu

---‘कहानियों में बचपन’
__________________दोस्तों। सादर, नमस्ते !
कई मित्र मुझसे मेरी कहानियों की किताब मांगते हैं। कई बार मेल से भी मांगते हैं। हर संभव कोशिश भी करता हूँ। असल किताब की प्रतियाँ दो-एक ही बची हैं। 

वैसे... अब तो ebook's का युग आ चुका है। इसका मतलब यह नहीं कि किताबें छपना बंद हो जाएंगी...! किताब हाथ में पकड़कर पन्ना-दर-पलटना उलटना अपने आप में पढ़ने का आनंद बढ़ाता है। फिर भी, जो मित्र ईबुक्स पढ़ते हैं उनके लिए मेरी एक किताब ‘कहानियों में बचपन’ है। मात्र 51 रुपए की है। हाँ ,बारह कहानियाँ हैं। यानि आपको एक कहानी के लिए 5 रुपए भी खर्च नहीं करने हैं।
इससे बड़ी बात कि यदि कहानियां आनंद नहीं दे सकीं तो, समीक्षा भी वहीं कर सकेंगे। धारदार,असरदार और सुधार हेतु सुझाव का मैं क़ायल होऊँगा। तो, उम्मीद है कि अपना हाथ अपन के सिर पर रखिएगा।
मैं उम्मीद कर रहा हूँ कि हमेशा की तरह मेरी टीप पर आप लाइक या कमेंट से इतर कहानियों को पढ़ने की पहल भी करेंगे। यह उम्मीद बनी रहनी चाहिए और बची भी।
प्रकाशन की तिथि : 30-03-2018
Rs- 51 रुपए
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जनवरी 2019, नंदन, 'किस्सा गुनगुनी धूप का' -मनोहर चमोली ‘मनु’

'किस्सा गुनगुनी धूप का'

-मनोहर चमोली ‘मनु’

बात उन दिनों की है जब धूप को बुलाना पड़ता था। जो बुलाता, धूप वहीं चली आती। इस भाग-दौड़ में वह थक जाती। मौका मिलता तो वह सो जाती। इस बीच कोई पुकारता तो वह हड़बड़ाकर उठती और दौड़कर पहुंच जाती।

एक दिन की बात। बिल्ली ने धूप को पुकारा। बार-बार पुकारा। धूप भागती हुई आ गई। बिल्ली ने डांटा-‘‘हमें सर्दी बहुत लगती है। देखो, मेरे बच्चे कैसे कांप रहे हैं!’’ कुछ देर बाद फिर धूप को गुबरैले की आवाज सुनाई दी। धूप हांफती हुए पहुंची। गुबरैले ने आंख दिखाई-‘‘देखो। गोबर कच्चा है। इसे कौन सूखाएगा? खाद में ही मेरा भोजन है।’’

धूप गोबर को सूखाने लगी। ‘अब ज़रा सुस्ता लेती हूं।‘ धूप ने सोचा। लेकि यह क्या! तभी मगरमच्छ चिल्लाया। धूप मगरमच्छ के पास जा पहुंची। मगरमच्छ ने अपना जबड़ा खोल लिया। कहा-‘‘इन दिनों पानी बर्फ बन गया है। मेरी पूंछ तक कांप रही है। मेरे पास रहो।’’ मगरमच्छ गुनगुनी धूप में आनंद लेने लगा।

अब गिलहरी की चीख धूप को सुनाई दी। धूप पहुंची तो वह बोली-‘‘डाल से गिर गई हूँ। सीधे नदी में जा गिरी। देखो, पूरा भीग गई हूं। ठंड से जान निकली जा रही है।’’ धूप पेड़ पर जा बैठी। अभी वह दम ही ले रही थी कि कुत्ता भौंकने लगा। धूप दौड़ी। दौड़ते हुए कुत्ते के पास जा पहुंची। कुत्ता गुस्से में बोला-‘‘मैं रखवाली करता हूं। अब मुझे भी तो आराम चाहिए। धूप शरीर पर पड़े तो चैन आए।’’

बेचारी धूप का धीरज जवाब दे गया। रोज-रोज की भाग-दौड़ से वह परेशान हो गई थी। उसने आंखें बंद कर ली। धूप के आंख बंद करने से चारों ओर अंधेरा छा गया। धूप रोने लगी। जोर-जोर से रोने लगी। इतना रोई कि उसके आंसू झरने लगे। आंसू थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। आंसू बारिश में बदल गए। झमाझम बारिश होने लगी। सब भीगने लगे। भीगते-भीगते कुत्ते के पास जा पहुंचे। कुत्ते ने कहा-‘‘धूप अभी तो यहीं थी। मेरे पास ही थी।’’ बिल्ली ने लंबी सांस ली। कहा-‘‘मेरे पास से ही तो वह यहां आई थी। एक अकेली धूप।’’

गुबरैला बोला-‘‘बेचारी धूप।’’ मगरमच्छ ने जम्हाई ली-‘‘बेचारी धूप। कहां-कहां तो जाएगी।’’ कुत्ता सोचते हुए बोला-‘‘अब क्या करें? धूप के बिना हमारा काम भी तो नहीं चलता।’’ गिलहरी उदास हो गई-‘‘हमें हमेशा अपना ही ध्यान रहा। हमने कभी धूप के बारे में नहीं सोचा।’’ आज तक किसी ने अंधेरा न देखा था। सब कांप रहे थे।
इतना अंधेरा! ये अंधेरा धूप के जाने की वजह से हुआ है। अब क्या होगा? सब यही सोच रहे थे। सब एक दूसरे के नजदीक आ गए थे। सब डरे हुए थे। अंधेरा छंटने लगा। सब चैंक पड़े। बिल्ली हैरान थी-‘‘ये क्या हुआ?’’ गुबरैला लट्टू की तरह घूमते हुए बोला-‘‘अचानक उजाला हो गया !’’ मगरमच्छ मिट्टी में लोट गया-‘‘वो भी चारों दिशाओं में!’’ कुत्ते ने दुम हिलाई-‘‘अहा! गुनगुनी धूप!’’

धूप चहकी। बोली-‘‘मैं सूरज के पास गई थी। सूरज ने मेरा आना और जाना तय कर दिया है। अब मैं धरती के आधे हिस्से पर एक साथ आऊंगी। वह हिस्सा दिन कहलाएगा। धरती के बाकी हिस्से पर अंधेरा रहेगा। वह हिस्सा रात कहलाएगा।’’

सब इधर-उधर देखने लगे। धूप हर तरफ फैल चुकी थी। सभी को जल्दी ही दिन और रात का फासला समझ में आ गया। कुछ ही दिनों में सब ने धूप के आने और जाने के हिसाब से खुद को ढाल लिया।
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-मनोहर चमोली ‘मनु’