6 नव॰ 2010

छोड़ दी बैठक...'हास्य कथा'...Manohar Chamoli 'manu'

एक गांव था। गांव में एक सेठ था। सेठ अनपढ़ था। सेठ के तीन बेटे थे। बड़का, मंझला और छुटका। सेठ ने अपने बच्चों को भी स्कूल नहीं भेजा। सेठ एक ही बात कहता,‘‘छतरी वाले का सब कुछ दिया हुआ है। पढ़ाई-लिखाई करा के किसी की चाकरी तो करानी नहीं है।’’

बड़का कुछ समझदार था। मंझला और छुटका आलसी थे। दोनों मूर्खों जैसी बातें करते। सेठ का एक मुनीम था। वो सेठ के लेन-देन का हिसाब रखता। एक दिन की बात है। मुनीम बोला-‘‘चाचाजी गुज़र गए।’’ सेठ बोला-‘‘किधर से गुज़रे। यहां से तो नहीं गए। किस रास्ते से गए होंगे?’’

मुनीम ने सिर पकड़ते हुए कहा-‘‘ वह भगवान के यहां चले गए।’’ सेठ बोला-‘‘हो सकता है कुछ बकाया रहा हो। चाचाजी अपनी दुकान छोड़कर वैसे कहीं नहीं जाते। ज़रूर कोई देनदारी रही होगी।’’ मुनीम ने खीजते हुए कहा-‘‘वह नहीं रहे। चाचाजी मर गए हैं। मर। उनके घर में रोना-धोना चल रहा है।’’ सेठ धीरे से बोला-‘‘ये तो बुरा हुआ। चाचाजी की दुकान है। खैर कोई बात नहीं। उनके घरवालों को किसी चीज़ की परेशानी नहीं रहेगी।’’

मुनीम ने फिर अपना सिर पकड़ लिया। चारपाई पर बैठते हुए बोला-‘‘लालाजी की घरवाली है। तीन छोटे-छोटे बच्चे हैं। बूढ़ी मां है। कई लोग चाचाजी के ग्राहक थे। हज़ारों की लेनदारी थी। सारा गांव चाचाजी की चौखट पर जमा हो रहा होगा। आपको चाचाजी के परिवार की मदद करनी चाहिए।’’ 
सेठ सिर खुजाने लगा। बोला-‘‘वो मेरे भी तो चाचाजी थे। पर तुम तो जानते ही हो। मैं बैठक छोड़ कर कभी कहीं नहीं गया। हर काम बैठकर ही निपटायें हैं। मैं किसी की मौत में भी नहीं गया। मैं नहीं जानता कि वहां जाकर क्या करना होता है। क्या कहना होता है। मुझे तो किसी गीदड़ का रोना भी अच्छा नहीं लगता। बच्चों को भी समझदार बनाना है। मेरा छुटका चला जाएगा। दस हज़ार रुपये दे आएगा।’’ छुटका रुपये लेकर चाचाजी के घर की ओर चल पड़ा।

गांव वाले चाचाजी के घर से लौट रहे थे। किसी ने कहा-‘‘ चाचाजी को शराब खा गई। जुए की लत अलग थी। चाचाजी का परिवार रोज़-रोज़ के झमेले से तो बचा। अब कम से कम बच्चे तो चैन से जी सकेंगें।’’ छुटके ने भी यह सब सुना। छुटका चाचाजी के घर जा पहुंचा। रोना-धोना चल रहा था। रिश्तेदार बैठे हुए थे। छुटका सीधे चाची के पास गया। छुटका बोला-‘‘ये रुपए हैं। सेठजी ने भिजवाएं हैं। परेशान न हों। चाचाजी को शराब खा गई। उन्हें जुए की लत पड़ गई थी। जो हुआ ठीक हुआ। आप लोग रोज़-रोज़ के झमेले से तो बच गए। अब आप चैन से तो रहेंगे।’’ 
यह सुनकर चाची ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। आस-पास बैठे लोगों ने छुटके को पीट डाला। छुटका किसी तरह जान बचाकर भागा। छुटका लौट आया। सेठ को सारा क़िस्सा सुनाया। सेठ ने मंझले को बुलाया। उसे बीस हज़ार रुपए दिए। सेठजी मंझले से बोले-‘‘छुटके ने गड़बड़ कर दी है। अब तू जा। चाचीजी से माफी मांग आ। कुछ ग़लत मत कहना। चुप ही रहना।’’ मंझला चाचाजी के घर जा पहुंचा। रोना-धोना चल ही रहा था। कोई बोला-‘‘सेठजी से ऐसी आशा नहीं थी। ऐसे बुरे समय में तो दुश्मन भी भला ही सोचते हैं।’’

मंझला बोला-‘‘सेठजी ने मुझे भेजा है। पहले छुटका आया था। वो अभी बच्चा है न। कुछ ग़लत बोल गया। अब कभी ऐसा नहीं होगा। आगे से आपके घर में जो कोई भी मरेगा, तो छुटका नहीं आएगा। मैं ही आऊँगा।’’ चाची ने यह सुना तो वो और दहाड़े मार कर रोने लगी। मंझले की भी धुनाई हुई। बात बिगड़ गई। मुनीम ने बीच-बचाव कर बात को संभाला। बात आई-गई हो गई।

दिन बीतते चले गए। चाचाजी का श्राद्ध होना था। मुनीम सेठ से बोला-‘‘ अब तो आप जाओ।’’ मगर सेठजी नहीं गए। अब बड़के को बुलाया। कहा-‘‘सुन बड़के। छुटके और मंझले ने तो गड़बड़ कर दी थी। तू जा। कुछ कमाल कर आ। तीस हज़ार रुपये ले जा। सारी क़सर पूरी कर देना।’’

बड़का नए ज़माने की सोच का था। रुपये लेकर गया। मगर लौट आया। सारे रुपये वापिस ले आया। सेठ ने पूछा तो बड़का बोला-‘‘आपके चाचाजी तंगी में रहे। सारा शरीर दुकान में झोंक डाला। वे दुकान में उठते और दुकान में ही सोते थे। जीते जी कोई सुख न भोग सके। श्राद्ध पर पूरा गांव जीमा हुआ है। दस तरह के पकवान बने हुए हैं। चाचाजी के बकायेदार भी बेशर्म होकर पंगत में बैठे हैं। अंगुलियां चाट रहे हैं। श्राद्ध न हुआ गिद्ध भोज हो गया। बरतन-भांडे दान किए जा रहे हैं। आपके चाचाजी ने जो कमाया उसे श्राद्ध के नाम पर लुटाया जा रहा है। ऐसी लूट के लिए एक रुपया भी देना बेकार है।’’

सेठ मुनीम का मुंह ताक रहे थे। मुनीम बोला-‘‘हमारे बड़के बाबू ने ठीक किया। सेठजी दुनियादारी की समझ बैठक में बैठ कर नहीं होती। समाज में उठने-बैठने से होती है। चाचाजी का बचा-खुचा रुपया श्राद्ध के नाम पर लुटाने का क्या तुक है।’’ सेठ ने हंसते हुए कहा-‘‘ ठीक कहते हो। चाचाजी के परिवार की मदद तो करनी ही होगी। मगर मदद करने का तरीक़ा दूसरा खोजना होगा। आज से हम ये बैठक छोड़ते हैं। समाज में घुलेंगे। उठेंगे-बैठेंगे। सामाजिक सरोकारों को समझेंगे। सहयोग और मदद भी करेंगे।’’ मुनीम ने बड़के से रुपये वापिस लिए और तिजोरी में रख दिए।
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-मनोहर चमोली 'मनु'
पोस्ट बॉक्स-23, पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड - 246001 मो.- 9412158688
manuchamoli@gmail.com

13 टिप्‍पणियां:

  1. कथा बहुत अच्छी लगी धन्यवाद|

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  2. हँस लिया जी कथा सुनकर। कुछ गुनने लायक भी पाया जो ले जा रहा हूँ। :)

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  3. achchha likhte hain aap, sir me thoda dard hai, ek dhun me aapki saari posts padhti jaa rhai thi par ye kahani padhte hue anaayaas hi hothon par muskaan pasar gayi. DHANYAVAAD.

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  4. .....तो भारतीय है आप http://chandradeepjasol.blogspot.com/2015/09/blog-post_30.html

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यहाँ तक आएँ हैं तो दो शब्द लिख भी दीजिएगा। क्या पता आपके दो शब्द मेरे लिए प्रकाश पुंज बने। क्या पता आपकी सलाह मुझे सही राह दिखाए. मेरा लिखना और आप से जुड़ना सार्थक हो जाए। आभार! मित्रों धन्यवाद।