31 दिस॰ 2013

नंदन जनवरी 2014 बाल कहानी

एकजुटता में है ताकत

-मनोहर चमोली ‘मनु’

    चंकी चूहे का रो-रोकर बुरा हाल था। अब क्या करे? उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। चंकी के बैल हष्ट-पुष्ट थे। मेहनती थे। राजा शेर की सवारी चंकी के खेतों के सामने से गुजरी थी। चंकी अपने बैलों से खेतों को जोत रहा था। राजा को चंकी के बैल पसंद आ गए थे। राजा ने चंकी  के बैल जबरन हांक लिए। उसने अपने दरबारियों को आदेश दिया कि वे बैलों को सीधे महल ले चलें। बेचारा चंकी विरोध भी नहीं कर पाया। दरबारियों में लोमड़, भेड़िया और लकड़बग्घा थे। वे बैलों को मार-मारकर महल की ओर ले गए।
    चंकी बहुत मेहनती था। जल्दी उठता। हल उठाता। अपने बैलों को हांकता और खेतों की ओर चल पड़ता। खेत जोतता। बीज बोता। निराई-गुड़ाई करता। फसल को समय पर पानी से सींचता। फसलें लहलहातीं।
    चंकी समय-समय पर फसल की देख-रेख करता। जब फसल पक जाती, उसे काटता। भंडार भर लेता। छोटा-बड़ा पक्षी हो या जानवर। कीट हो या पतंगा। सब चंकी की मेहनत का सम्मान करते। कोई भी मुसीबत में होता, तो चंकी सबसे  पहले मदद को तैयार रहता। सब एक ही बात कहते-‘‘चंकी हम सबकी शान है।’’
    मगर आज तो हद ही हो गई थी। राजा चंकी के बैल छीन कर ले गया है, यह ख़बर आग की तरह फैल गई। सबने चंकी को घेर लिया। चंकी ने सारा किस्सा सुनाया।
    चींटी बोली-‘‘हम राजा को सबक सिखाएंगे।’’ चींटी ने सीटी बजाई। पलक झपकते ही सैकड़ों चींटियां इकट्ठी हो गई।
    केकड़ा बोला-‘‘राजा है, तो क्या हुआ? ऐसे तो कोई भी किसी को लूट लेगा।’’ केकड़े ने ताली बजाई। क्षण भर में ही वहां सैकड़ों केकड़े जमा हो गए।     हजारों मकड़ियां आ गईं। बिच्छुओं की फौज से खेत भर गया। कांव-कांव करते कौओं का जमघट लग गया। बाज, चील, उल्लू और चमगादड़ों का तांता लग गया। सबने मिलकर विशालकाय रथ बनाया। फिर रथ राजा के महल की ओर चल पड़ा।
    रथ के पीछे पशु-पक्षियों की फौज चल पड़ी। फौज ने कोहराम मचा दिया। चूहों के दल ने राजा के अन्न भंडार पर हमला बोल दिया। महल में भगदड़ मच गई। राजा का सलाहकार सियार हांफते हुए आया। उसने शेर से कहा-‘‘महराज। गजब हो गया! चंकी चूहे ने महल पर हमला बोल दिया है। हमारी फौज उसकी फौज का सामना करने के लिए तैयार ही नहीं है। अगर चंकी को उसके बैल वापिस नहीं दिए गए तो हम युद्ध हार जाएंगे। महल तबाह हो जाएगा। चंकी के बैल छोड़ने में एक पल की भी देरी ठीक नहीं है। महाराज। देर मत कीजिए।’’
    राजा डर गया। उसने चंकी के बैलों को छोड़ दिया। युद्ध शुरू होने से पहले ही समाप्त हो गया। चंकी को उसके बैल मिल गए। सब नाचते-गाते वापस लौट आए। चंकी अपने बैलों को चूम रहा था।000

28 दिस॰ 2013

लौट आई किताबें...बाल कहानी

लौट आईं किताबें

----------Manohar Chamoli 'manu'
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अभिध स्कूल से घर लौटी तो दंग रह गई। सुबह आलमारियों में किताबें थीं।
‘‘किताबें कहां गईं? कल रात को तो मैंने कलर बुक में सपफेद परी देखी थी।’’ अभिध यही सोच रही थी।

अभिध की दादी ने उसे बताया था कि आलमारियों में रखी कुछ पत्रिकाएं बहुत पुरानी हैं। उसके पापा की उम्र से भी बहुत पुरानी। अभिध अक्सर दादी से आलमारियों में रखी कोई न कोई पत्रिका जरूर निकलवाती। दादी उन किताबों के पन्ने उलटती-पलटती। चित्रों को देर तक देखती। मुस्कराती और पिफर अभिध को कहानी सुनाने लग जाती।
अभिध खाली आलमारियों को देखकर रोने लगी। दादी और उसकी मम्मी ने समझाया। लेकिन अभिध थी कि रोती ही जा रही थी। उसने स्कूल बैग भी कंध्े से नहीं उतारा। उसने कुछ भी खाने से इनकार कर दिया।
अभिध की दादी ने मोबाइल पर बात की-‘‘अनिल बेटा। तुरंत घर आ जाओ। ये लड़की मेरी और कमला की तो एक भी नहीं सुन रही है। शायद तुम आकर इसे कुछ समझा सको।’’
कुछ ही देर में अभिधा के पिता घर आ पहुंचे। उन्होंने हापफते हुए पूछा-‘‘क्या हुआ? मुझे तुरंत क्यों बुलाया।’’
अभिध सुबकते हुए बोली-‘‘पापा। दादी और मम्मी ने सारी किताबें कबाड़ी को दे दी। उन किताबों में कितनी सारी कहानियां थीं। प्यारे-प्यारे रंग-बिरंगे चित्रा थे। मुझे वो सारी किताबें चाहिए। अभी के अभी।’’
यह सुनकर अभिध के पिता के जान में जान आई। लंबी सांस लेकर वे मुस्कराते हुए अभिधा से बोले-‘‘बस! इतनी सी बात! मैं तो डर ही गया था। वो पुराने जमाने की किताबें थीं। हमारी अभिध तो नये जमाने की है न। हम आपके लिए नई-नई किताबें लेकर आएंगे। ढेर सारी।’’
‘‘नहीं! मुझे वो सब किताबें भी चाहिए। मैंने अभी वो सब किताबें ठीक से देखी भी नहीं थी।’’ अभिध ने आंखें मलते हुए कहा।
अभिध की मम्मी पुचकारते हुए बोली-‘‘अभिध। जिद नहीं करते। पापा ने कह तो दिया कि वो तुम्हारे लिए अच्छी और नईं किताबें ले आयेंगे। चलो। ये बैग उतारो और कुछ खा लो।’’
‘‘नहीं। मुझे कुछ नहीं खाना। मुझे सारी किताबें अभी के अभी चाहिए। वही वाली। जो इन आलमारियों में थी।’’ अभिध ने पैर पटकते हुए कहा।
अभिध के पिता को गुस्सा आ गया। उन्होंने अभिध के गाल पर एक तमाचा जड़ दिया। वे बौखला गए। अभिध से बोले-‘‘कबाड़ को कबाड़ी ही ले जाता है। वो किताबें पुरानी थीं। आज वो बेकार हो गईं थी। समझीं तुम।’’
झन्नाटेदार थप्पड़ के निशान अभिध के गाल पर उभर आए। अभिध ने अपना नन्हा हाथ गाल पर रख लिया। उसका गला रूंध् गया। वह सिसकते हुए बोली-‘‘जो चीज पुरानी होती है, क्या वो बेकार हो जाती है? दादी भी तो पुरानी है। क्या उन्हें भी कबाड़ी को दे दोगे।’’
अभिध के पिता ने दूसरा हाथ उठाया ही था कि अभिध सहम गई। पीछे हटते हुए बोली-‘‘पापा। पिफर तो कल मैं भी पुरानी हो जाऊंगी। तो क्या मुझे भी कबाड़ी को दे दोगे?’’
यह सुनते ही अभिध के पिता का हाथ हवा में ही थम गया। वह सन्न रह गये। अभिध पफूट-पफूट कर रोने लगी। दौड़कर दादी से चिपकते हुए बोली-‘‘मैं कबाड़ी अंकल से सारी किताबें मांग लूंगी।’’ अभिध की दादी की आंखें भीग गईं। उन्होंने धेती का पल्लू अपने मुंह ठूंस लिया और हां में सिर हिलाया। अभिध की मम्मी रसोई में चली गई।
अभिध की दादी ने भर्राते हुई आवाज में कहा-‘‘अनिल बेटा। सांझ होने में अभी देर है। कबाड़ी मुहल्ले की रद्दी पलटन बाजार के कबाड़ी जरदारी को बेच देते हैं। जरदारी का पलटन बाजार में बहुत बड़ा स्टोर है। रद्दी वाला वहीं गया होगा। जा बेटा, किताबें वापिस ले आ।’’
अभिध के पिता तेज कदमों से बाहर निकल गए। शाम के बाद रात हो आई। अभिध कुर्सी पर बैठे-बैठे भूखी-प्यासी ही सो गई। देर रात दरवाजे की घंटी बजी। अभिध जाग गई। दरवाजा खुला। अभिध के पिता के साथ तीन मजदूर भी थे। उन्होंने किताबों के ढेर को अंदर रखा और मजदूरी लेकर चले गए। अभिध खुशाी से चहक उठी। कहने लगी-‘‘पापा। सारी किताबें मिल गईं न?’’
अभिध के पिता ने पसीना पोंछते हुए जवाब दिया-‘‘साॅरी अभिध। मुझे जरदारी का स्टोर ढूंढने में कापफी समय लग गया। मुझसे पहले वहां कुछ बच्चे चले गए होंगे। उन बच्चों ने दाम देकर हमारी कुछ पुरानी किताबें खरीद लीं। मुझे तो आज ही पता चला कि कईं बच्चे ऐसे भी हैं जो पुरानी पत्रिकाएं सस्ते दामों में कबाड़ियों से खरीदते हैं। वाकई। हमारी ये किताबें रद्दी के लिए नहीं हैं। ये तो अनमोल हैं। शुक्र है तुम्हारी दादी ने मुझे शाम को ही भेज दिया। कल तक तो ये किताबें आध्ी ही रह जातीं।’’
अभिध के पिता हांफ रहे थे। उनके माथे पर पसीना सापफ झलक रहा था।
अभिध ने कहा-‘‘चलो। पापा। इन्हें दोबारा आलमारियों में रख देते हैं। कहीं मम्मी और दादी दोबारा इन्हें कबाड़ी को न दे दें।’’
सब अभिध के चेहरे की चमक देखकर हैरान थे। दोपहर से भूखी-प्यासी नन्ही अभिध के नन्हें हाथ किताबों को उठाने में जो जुट गए थे।

10 दिस॰ 2013

सादगी से दीवाली.Nov. 1st 2013. चंपक

सादगी से दीवाली

Manohar Chamoli 'manu'

 
‘‘चंपकवन में मेरे आदेश के बिना पत्ता भी नहीं हिलना चाहिए। फिर भला किस की हिम्मत हुई जिसने यह कहलवा दिया कि दीवाली में धूमधड़ाका नहीं होगा। बताओ।’’ राजा शेर सिंह ने दहाड़ते हुए पूछा।

बैडी सियार शेर सिंह का सलाहकार था। वह बोला-‘‘ महाराज। ये सब चीकू खरगोश का कियाधरा है। उसने ही चंपकवन में यह अफवाह फैलाई है कि दुनिया खत्म हो जाएगी। यदि हम बमपटाखे जलाते हैं तो एक दिन हम सब मर जाएंगे।’’
शेरसिंह दहाड़ा। उसने आदेश देते हुए कहा-‘‘चीकू को जिन्दा मेरे सामने पेश किया जाए। अभी के अभी।’’
बैडी सियार और कल्लू लोमड़ को इसी अवसर की तलाश थी। वह दौड़कर चीकू खरगोश को पकड़ कर ले आए।
कल्लू लोमड़ ने शेर सिंह से कहा-‘‘ये लीजिए महाराज। यही है आपका गुनहगार। इसी ने चंपकवन में घूमघूम कर कहा है कि बमपटाखे नहीं जलाने चाहिए।’’
शेर सिंह चीकू खरगोश को घूरते हुए दहाड़ा-‘‘हम्म। तो तुम हो। मूर्ख दीवाली साल में एक ही बार तो आती है। चंपकवन में धूमधड़ाका नहीं होगा तो आसपास के जंगलवासी क्या कहेंगे। क्या मेरे वतन में इतनी कंगाली आ गई है?’’
चीकू ने विनम्रता से जवाब दिया-‘‘मेरे महाराज। दीवाली सादगी से मनाएंगे तो हमारा चंपकवन और भी खुशहाल हो जाएगा। दूसरी बात यदि महाराज। दीपावली में बमपटाखे जलाते रहे तो एक दिन ऐसा आएगा कि आप भूखे ही रह जाओगे।’’
शेर सिंह के कान खड़े हो गए। वह चैंकते हुए बोला-‘‘मैं भूखा रह जाऊंगा? कैसे?’’
चीकू ने हाथ जोड़ते हुए कहा-‘‘महाराज। दीपावली में बमपटाखे जलाने से ध्वनि प्रदूषण होता है। कई छोटेबड़े जीवजन्तु तो डर के मारे कई दिनों तक भूखेप्यासे ही रह जाते हैं। कईयों के कान हमेशा के लिए बहरे हो जाते हैं। दहशत से कई तो मर भी जाते हैं।’’
शेर सिंह दहाड़ा-‘‘उससे मुझे क्या? तुम तो यह बताओ कि मैं भूखा भला क्यो रह जाऊंगा यदि दीपावली पर पटाखे जलते रहे।’’
चीकू ने कहा-‘‘वही तो बता रहा हूं महाराज। आप तो जानते ही हैं कि प्रदूषण लगातार बढ़ता जा रहा है। चंपकवन की झील का पानी लगातार घट रहा है। इस बार तो बारिश भी नहीं हुई। बम पटाखों से निकलने वाली गैसें और प्रदूषण से उत्सर्जित कार्बन ने ओजोन परत में सुराख कर दिया है। ये सुराख बढ़ता ही जा रहा है।’’
कल्लू लोमड़ बीच में ही बोल पड़ा-‘‘महाराज। ये चीकू है। चालाक। अब ये आपको कहानी सुनाने लगा है।’’
बैडी सियार भी कल्लू लोमड़ की हां में हां मिलाते हुए कहने लगा-‘‘लगता है यह अपनी जान बचाने का कोई तरीका खोज रहा है।’’
शेर सिंह ने चीकू खरगोश से कहा-‘‘ये ओजोन परत क्या है? उससे हमारा क्या लेनादेना?’’
चीकू ने बताया-‘‘महाराज आसमान में एक छतरीनुमा विशालकाय परत है। जिस प्रकार छतरी हमें धूपबारिश से बचाती है उसी प्रकार ये ओजोन परत सूरज की तीव्र और नुकसान पहुंचाने वाली किरणों को धरती पर आने से रोकती है। लेकिन इस ओजोन परत पर सुराख हो गया है। यह सुराख बढ़ता ही जा रहा है। अब महाराज। यदि हम सुराख वाली छतरी लेकर घूमेंगे तो बारिश में भीग जाएंगे। इसी प्रकार अब सूरज की तीव्र किरणे उस सुराख से सीधे धरती तक आ रही है। इस कारण धरती पर असाधारण बदलाव दिखाई देने लगे हैं।’’
शेर सिंह ने पूछा-‘‘बदलाव! कौन से?’’
चीकू ने बताया-‘‘जैसे महाराज। अत्यधिक गर्मी का होना। अत्यधिक बारिश का होना। सूखा पड़ना या कहीं बाढ़ आना।’’
शेर सिंह ने पूछा-‘‘मगर बमपटाखों से ओजोन परत का क्या संबंध है?’’
चीकू बोला-‘‘संबंध है महाराज। बमपटाखों को जलाते समय इनसे मैग्नेशियम कार्बन मोनो अक्साइड,कापर मैग्नेशियम सल्फर नाइट्रोजन भारी मात्रा में निकलती है। इन गैसों की मात्रा वायुमंडल में बढ़ जाती है। प्रदूषण बढ़ता है और ओजोन परत को नुकसान पहुंचता है।’’
शेर सिंह बोला-‘‘हम्म। समझ गया। लेकिन मेरे भूखे रह जाने का क्या मतलब है?’’
चीकू ने कहा-‘‘जी महाराज। बताता हूं। महाराज। यदि ओजोन परत का सुराख बढ़ता ही जाएगा तो सूरज की किरणे सीधे हम तक पहुंचने लगेंगी। वे किरणें बेहद हानिकारक होती हैं। धरती गर्म से और गर्म हो जाएगी। हमारा जीना मुहाल हो जाएगा। घास हरेभरे वृक्ष झुलस कर सूख जाएंगे। बारिश नहीं होगी। हम जैसे शाकाहारी जीव बिना घासपात के मर जाएंगे। महाराज जब हम ही नहीं रहेंगे तो आप मांसाहारी भोजन कैसे कर पाएंगे?’’
शेर सिंह गुर्राया-‘‘ ये बात है। चीकू तुम सही कहते हो। आज से तुम चंपकवन के ही नहीं मेरे भी सलाहकार बनाए जाते हो।’’
बैडी सियार बीच में ही बोल पड़ा-‘‘मगर महाराज। आपका सलाहकार तो मैं हूं।’’
शेर सिंह दहाड़ा-‘‘चुप रहो। तुम और कल्लू लोमड़ अभी जाओ। समूचे चंपकवन में ऐलान करवा दो कि इस बार दीपावली सादगी से मनाई जाएगी। यही नहीं दीपावली के अवसर पर हम चंपकवन में विशाल वृक्षारोपण के लिए गड्ढे खुदवाएंगे। पौधशाला का निर्माण कराएंगे। बरसात आते ही विशाला वृक्षारोपण किया जाएगा। जाओ।’’
बैडी सियार और कल्लू लोमड़ दुम दबाकर चंपकवन की ओर दौड़ पड़े। वहीं दरबारी नये सलाहकार के स्वागत में चीकू खरगोश के लिए तालियां बजा रहे थे। 000

26 नव॰ 2013

अगली बार जरूर आना.-मनोहर चमोली ‘मनु’ champak NOV 1st,2013



अगली बार जरूर आना


मनोहर चमोली ‘मनु’


नुभव चिल्लाया-‘‘मम्मी! यहां आओ। देखो न, ये नई चिड़िया हमारे घर में घुस आई है। इसकी पूंछ दो मुंह वाली है।’’
अमिता दौड़कर आई। खुशी से बोली-‘‘अरे! ये तो अबाबील है। प्रवासी पक्षी। दूर देश से आई है। ये हमेशा यहां नहीं रहेगी। कुछ महीनों बाद ये वापिस अपने वतन चली जाएगी।’’

अनुभव सोचने लगा-‘‘इसका मतलब ये विदेशी चिड़िया है। भारत में घूमने आई है। मैं इसे अपने घर में नहीं रहने दंूगा।’’
अबाबील का जोड़ा मेहनती था। दोनों ने दिनरात एक कर दिया। उन्होंने घर की बैठक वाले कमरे का एक कोना चुन लिया था। छत के तिकोने पर दोनों ने मिलकर घोंसला बना लिया।
अमिता ने अनुभव से कहा-‘‘अबाबील ने कितना सुंदर घोंसला बनाया है। अब हम इन्हें झुनका और झुनकी कहेंगे।’’
अनुभव ने पूछा-‘‘मम्मी। ये अपनी चोंच में क्या ला रहे हैं?’’
अमिता ने बताया-‘‘झुनकी अंडे देगी। घोंसला भीतर से नरम और गरम रहेगा। इसके लिए झुनकाझुनकी घासफूस के तिनके, पंख और मुलायम रेशे ढूंढखोज कर ला रहे हैं।’’ यह कहकर अमिता रसोई में चली गई।
अनुभव ने मेज सरकाया। उस पर स्टूल रखा। स्टूल पर चढ़ कर अनुभव ने छतरी की नोक से झुनकाझुनकी का घोंसला तोड़ दिया। झुनकाझुनकी चिल्लाने लगीं। कमरे के चारों ओर मंडराने लगीं।
‘‘अनुभव। ये तुमने अच्छा नहीं किया। चलो हटो यहां से।’’ अमिता दौड़कर रसोई से आई और टूटा हुआ घोंसला देखकर अनुभव से बोली।
विदेशी चिड़िया की वजह से मुझे डांट पड़ी है। अनुभव यही सोच रहा था।
शाम हुई तो अमिता ने अनुभव को चायनाश्ता देते हुए कहा-‘‘झुनकाझुनकी फिर से अपना घोंसला उसी जगह पर बना रहे हैं। घासफूस और गीली मिट्टी चोंच में ला लाकर वह अपना घोंसला बनाते हैं। तिनकातिनका जोड़ते हैं। देखो। बेचारे दोबारा मेहनत कर रहे हैं। सिर्फ तुम्हारी वजह से। शुक्र है कि वे हमारा घर छोड़कर कहीं ओर नहीं गये।’’ यह सुनकर अनुभव चुप रहा। फिर मन ही मन में सोचने लगा-‘‘मैं झुनकाझुनकी को किसी भी सूरत में यहां नहीं रहने दूंगा। मैं इनका घोंसला बनने ही नहीं दूंगा।’’
झुनकाझुनकी ने बिना थकेरुके दो दिन की मशक्कत के बाद घोंसला तैयार कर लिया। अनुभव दोस्त से गुलेल मांग कर ले आया। उसने गुलेल स्टोर रूम में छिपा दी। झुनकाझुनकी दिन भर चहचहाते। फुर्र से उड़ते हुए बाहर निकलते। बैठक के दोतीन चक्कर लगाते। फिर एकएक कर घोंसले के अंदर घुस जाते।
एक दिन अमिता ने अनुभव को बताया-‘‘लगता है झुनकी ने अंडे दे दिये हैं। देखो। झुनका चोंच में कीड़ेमकोड़े पकड़ कर ला रहा है। कीटपतंगे और केंचुए इनका प्रिय भोजन है। पंद्रहबीस दिनों के बाद घोंसले से बच्चों की चींचीं की आवाजें सुनाई देने लगेंगी।’’
अनुभव सोचने लगा-‘‘मेरा निशाना पक्का है। बस एक बार गुलेल चलाने का मौका मिल जाए। घोंसला अंडों समेत नीचे गिरा दूंगा।’’
फिर एक दिन घोंसले से बच्चों की चींचीं की आवाजें आने लगीं। अनुभव दौड़कर आया। घोंसले से आ रही आवाजों को सुनने लगा।
‘‘अब कुछ ही दिनों में बच्चे घोंसले से बाहर निकल आएंगे।’’ अमिता ने अनुभव से कहा। अनुभव मन ही मन बुदबुदाया-‘‘कुछ भी हो। आज रात को मैं घोंसला तोड़ ही दूंगा।’’
रात हुई। अनुभव चुपचाप उठा। स्टोर रूम से गुलेल निकाल कर वह घोंसले के नजदीक जा पंहुचा। वह अभी निशाना साध ही रहा था कि झुनकाझुनकी चींचीं करते हुए अनुभव पर झपट पड़े। अनुभव के हाथ से गुलेल छिटक कर सोफे के पीछे जा गिरी। अनुभव उछलकर सोफे पर जा चढ़ा।
‘‘अनुभव बच कर रहना। देखो सोफे के सामने कितना बड़ा बिच्छू है।’’ अंकिता खटका सुनकर बैठक वाले कमरे में आ चुकी थी। दूसरे ही क्षण झुनकाझुनकी ने बिच्छू को चोंच मारमार कर जख्मी कर दिया। झुनका बिच्छू को चोंच में उठा कर घोंसले में ले गया। अनुभव डर के मारे कांप रहा था।
अमिता ने कहा-‘‘ अनुभव तुम बालबाल बच गए। वह बिच्छू तो खतरनाक था। अब तक झुनकाझुनकी के बच्चे बिच्छु को अपना भोजन बना चुके होंगे। यदि बिच्छू कहीं छिप जाता तो बड़ी मुश्किल हो जाती।’’ अनुभव ने राहत की सांस ली।
दिन गुजरते गए। अनुभव स्कूल आतेजाते घोंसले पर नज़र जरूर डालता। अब वह बैठक वाले कमरे में ही पढ़ाई करता। एक शाम अमिता ने कहा-‘‘अनुभव। मैं बाजार जा रही हूं।’’
अनुभव को इसी पल का इंतजार था। वह दौड़कर गुलेल ले आया। घोंसला निशाने पर था। इस बार उसका निशाना चूका नहीं। घोंसला भरभराकर नीचे आ गिरा। ढेर में मिट्टी, पंख, घासफूस के अलावा कुछ नहीं था। अमिता देर शाम घर लौटी और सीधे रसोई में खाना बनाने चली गई। खाना खाकर सब सो गए।
सुबह हुई। अमिता ने उठकर बैठक की सफाई की। अनुभव उठा तो वह डरता हुआ बैठक के कमरे में जा पहुंचा। अमिता ने कहा-‘‘अनुभव बेटा। झुनकाझुनकी का घोंसला न जाने कैसे टूट गया।’’
अनुभव ने कहा-‘‘ मम्मी लगता है कि वे अपने बच्चों समेत अपने देश वापिस लौट गए।’’
अमिता उदास हो गई। अनुभव से बोली-‘‘हां। लेकिन मुझे इस बात का दुख है कि तुम झुनकाझुनकी के बच्चों को देख नहीं पाए। तुम्हारे स्कूल जाने के बाद और तुम्हारे स्कूल आने से पहले वे सब बैठक में यहांवहां खूब उड़ते थे। कई बार रसोई में भी आ जाते थे।’’
यह सुनकर अनुभव को हैरानी हुई। कुछ ही देर में उसे भी महसूस हुआ कि घर सूनासूना सा लग रहा है। वह मुस्कराया और मन ही मन कहने लगा-‘‘साॅरी झुनकाझुनकी। अगली बार फिर आना और हमारे घर ही आना। मैं इंतजार करुंगा।’’
अनुभव चुपचाप स्टोर रूम में गया। गुलेल एक कोने में पड़ी थी। अनुभव ने गुलेल उठाई और दोस्त को वापिस करने के लिए उसके घर की ओर चल पड़ा।
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17 नव॰ 2013

बाल साहित्य और बच्चे : बाल साहित्य आलेख

बाल-साहित्य और बच्चे

-मनोहर चमोली ‘मनु’

    क्या बाल-साहित्य वह है, जो बच्चे लिखते हैं? क्या वह है, जो बच्चों के लिए लिखा जाता है? क्या अच्छी बाल पत्रिका वह है, जिसमें बाल लेखकों को स्थान मिलता है? क्या वह हैं, जिनमें बच्चों के लिए लिखी गई सामग्री को पर्याप्त स्थान मिलता है?
सरसरी तौर पर यह सवाल हास्यास्पद हो सकते हैं। लेकिन गौर से इन सवालों की प्रकृति पर ध्यान दें तो विमर्श की संभावना बनती है। पिछले दस-पन्द्रह वर्षों से प्रकाशित अमूमन सभी बाल पत्रिकाएँ मैं पढ़ रहा हूँ। पाता हूँ कि बाल पत्रिकाओं के नाम पर इन अधिकतर पत्रिकाओं में लेखक के रूप में बड़े-बुजुर्ग ही लिख रहे हैं। अब यदि बच्चे नहीं लिख रहे हैं तो क्या बड़ों का लिखा बच्चे पढ़ रहे हैं? ऐसी कुछ-एक पत्रिकाएँ हैं, जो बड़ों-बच्चों को एक ही अंक में स्थान दे रही है। अब ऐसी पत्रिकाओं की सामग्री की पठनीयता पर आते हैं। बड़ों का तो मैं क्या कहूँ। लेकिन बच्चे पहले बच्चों का लिखा हुआ ही पढ़ते हैं। क्यों? बड़ों का लिखा हुआ अमूमन बच्चे पढ़ते ही नहीं। अपवाद छोड़ दंे तो, ऐसा क्यों है? क्या नामचीन बाल साहित्यकारों ने कोई रचना पत्रिका में भेजने से पहले बच्चों को पढ़वाईं? जँचवाई?
    बड़ों का कहना होता है कि बच्चे कैसे हमारे लेखन का आकलन कर पाएँगे। बाल-लेखन है तो बच्चों के लिए और हम यह कहते फिरे कि बच्चे उसका आकलन नहीं कर सकते। फिर वह रचना बाल पत्रिका में क्यों? किसके लिए? अधिकतर बाल-साहित्यकार बच्चों के लिए लिखते समय बच्चे को बोदा-भोंदू-कोरा स्लेट, अज्ञानी, कच्ची मिट्टी का घड़ा आदि मानकर रचनाएँ लिखते हैं। खुद को बड़े के स्तर पर रखकर लिखते हैं? बहुत हुआ, तो अपना जिया बचपन याद करते हुए लिखते हैं। क्या इस तरह से मानकर कुछ लिख लेना बाल-साहित्य का भला करेगा? कितना अच्छा हो कि पहले हम बड़े बच्चों के साथ समय बिताकर जीवन का आनंद लें। उनके साथ घुले-मिले। उनके अपने समाज में बच्चा बनकर रहें। तब भला क्यों कर अच्छी रचना नहीं बन सकेगी?
    एक मित्र ने कहा कुछ कविताएँ भेजिए। मैंने आठ-दस कविताएँ भेज दी। कुछ दिनों बाद उनका फोन आया कि आपकी दो रचनाएँ बच्चों ने स्वीकार कर ली हैं। मैं चैंका। पूछा तो उन्होंने बताया-‘‘दरअसल। रचनाओं का चुनाव बच्चे ही कर रहे हैं। जो उन्हें पहले वाचन में पसंद आ रही हैं। उसे वह बड़े समूह में दे रहे हैं। अधिकतर जब उसे पठनीय मान रहे हैं, तब ही उसे स्वीकार किया जा रहा है। मेरी भूमिका तो बस उनके साथ सहायक-सी है।’’ इसे आप क्या कहेंगे?
    एक संपादक का फोन आया कि कुछ भेजिए। मैंने कहा-‘‘बच्चों जैसा या बच्चों का या बच्चों के लिए?’’ वह कहने लगे-‘‘मतलब?’’ मैंने जवाब दिया-‘‘यही कि जिस स्तर के बच्चे हैं। वह जो सोचते हैं, जैसा सोचते हैं। उसके आस-पास लिखने वाला बच्चों जैसा हुआ। जिस स्तर के बच्चे हैं, उन्हीं से लिखवाया जाए तो बच्चों का और मैं जो सोचता हूं कि यह रचना बच्चों के लिए होनी चाहिए, वह बच्चों के लिए हुई।’’ वे कहने लगे जो आप सोचते हैं कि वह बच्चों के लिए होनी चाहिए, वे भेज दीजिएा
    अब आप बताइए। मैं जो सोचता हूँ या आप जो सोचते हैं, वह बच्चों के लिए हो सकता है? शायद कुछ-कुछ। या कभी कुछ भी नहीं। ये भी संभव है कि बहुत कुछ। लेकिन हम यह मान लें कि हमने जो लिखा है, वह संपूर्ण हैं-पर्याप्त है? कहने का अर्थ यही है कि हम बड़े बच्चों के लिए जो कुछ घर बैठकर अपनी सोच से लिख रहे हैं, वह जरूरी नहीं कि वह बच्चों को मुफीद भी लगे। बच्चे उसे पहले ही वाचन में खारिज भी कर सकते हैं। इसका अर्थ यह भी नहीं कि हम लिखना ही छोड़ दें। भाव यही है कि क्या हम किसी भी रचना का निर्माण करते समय यह सोचते हैं कि जिस पाठक के लिए हम लिख रहे हैं, उसकी सोच, दायरा, मन, इच्छाएँ, सपने और परिस्थितियाँ रचना को आत्मसात् करने वाली है भी या नहीं।
    हमारे एक अग्रज साहित्यकार हैं। वह निरंतर अध्ययनशील रहते हैं। एक बार कहने लगे-‘‘क्या देश की अग्रणी बाल पत्रिकाओं में छपते रहना काफी है? क्या चार-सात बाल-साहित्य की दिशा में संग्रह आ जाना महत्वपूर्ण है? आपका साहित्य देश भर की पत्रिकाओं में छपता है। लेकिन क्या आपके साहित्य को पढने वाला पाठक आपके क्षेत्र-विशेष, अंचल और आपके स्थानीय परिवेश को महसूस कर पाता है?’’
मेरे लिए यह सवाल मननीय थे। मैंने अपनी सभी रचनाएँ घर आकर टटोली। तलीशी। पढ़ीं। एक भी रचना ऐसी नहीं मिली, जिसे पढ़कर सुदूर बैठा या पड़ोस में बैठा पाठक यह महसूस कर ले कि इस रचना का रचनाकार किस परिवेश का है। मैंने यह महसूस किया है कि रचनाकार का यह भी धर्म है कि देश-दुनिया को अपने स्थानीय परिवेश से भी परिचय कराए। दुनिया भर के बच्चे अपनी दुनिया को आपकी दुनिया से जोड़कर देखना चाहते हैं। वे रचनाकार बधाई के पात्र हैं जिनकी अधिकतर रचनाओं में उनका अंचल झलकता है। उनके परिवेश के बच्चों का चित्रण होता है। मेरा मानना है कि गिलहरी हर जगह नहीं होती। समुद्र पहाड़ के बच्चों के लिए विहंगम-अद्भुत और हैरत में डालने वाला होता है। ठीक उसी प्रकार जब हमने पहली बार हाथी देखा हो। पहली बार रेल देखी हो। आज भी पहाड़ के बच्चों के लिए हवाई जहाज इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना रेल के बारे में सोचना उसे देखने की इच्छा का प्रबल होना। जहाज तो वह अपने आसमान में दूर से ही सही,यदा-कदा देखते ही रहते हैं। 
    आलेख के आरंभ में उठाए गए प्रश्न अभी भी ज्यों के त्यों हैं। हम सब बाल पत्रिकाओं में बच्चों की भावनाओं को भी उकेरें। उनके लिखे हुए को प्रोत्साहित करें। हर बच्चे को प्रथम,द्वितीय और तृतीय की कसौटी पर न रखें। उसके लेखन का बढ़ाने में सहायता दें। ऐसी बहुत कम पत्रिकाएँ हैं, जो बच्चों के लिए हैं। जो बच्चों के लिखे हुए को ज्यादा स्थान देती है। हास्यास्पद बात तो यह है कि इन पत्रिकाओं को बचकाना,कूड़ा-कबाड़ करार दिया जाता है। इन्हें उद्देश्यहीन घोषित कर दिया जाता है। यह घोषणा भी वे करते हैं, जो बड़े हैं। जिन्हें बच्चों से बात करने का सलीका भी नहीं आता है। बाल-साहित्य में खुद को तराशना बड़ी बात है। एक रचना भी हम लिख पाएँ तो हम भी फणीश्वर नाथ रेणू न बन जाएँ ! शायद यही कारण है कि गुलज़ार साहब ने यह कहा कि हिन्दी में बाल साहित्य लिखा ही नहीं जा रहा है। शायद यही अर्थ रहा होगा कि जो कुछ लिखा जा रहा है, वह बच्चों के लिए कारगर नहीं है। बच्चे उसमें रम नहीं रहे हैं। आनंदित नहीं हो रहे हैं।
    अधिकतर पत्रिकाएं खुद को बाल पत्रिकाएँ कहती हैं। लेकिन बच्चों की लिखी गई रचना के लिए उनमें तीन-चार पेज ही हैं। क्या इन्हें बाल पत्रिकाएँ कहेंगे? संपादकों का कहना है कि जरूरी नहीं कि बच्चे अच्छा स्तर का लिखे। उनका हर कुछ लिखना बाल साहित्य कैसे हो सकता है? एक उदाहरण देना चाहूँगा। हम बाजार में सब्जी खरीदने जाते हैं। एक ही स्टाॅल पर विविधता भरी सब्जियाँ लाते हैं। स्वाद, रुचि और इच्छा के अनुसार जो हमें नहीं जंचती,वह तरकारी हमारे झोले में नहीं आती। फिर हम बच्चों को बच्चों की पत्रिकाओं में अधिक स्थान देने से क्यों बचते हैं। क्या बच्चों की पत्रिकाएं हम बड़ों के लिए तो नहीं हैं? क्या बच्चों की पत्रिकाएं बच्चों के लिए हैं भी या नहीं?
    बगैर किसी पत्रिका का नाम लिए मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि अधिकतर पत्रिकाएँ बच्चों को नौसिखिया ही मानती है। रंग भरो प्रतियोगिता, शीर्षक आधारित प्रतियोगिता, बूझो तो जानें, आप कितना जानते हैं? ऐसे कई स्तंभों से पत्रिकाएँ भरी पड़ी हैं, जो हर अंक में बच्चों को खुद को साबित करने की होड़ में लगी है। तीन-चार प्रविष्टियों को पुरस्कृत कर देने भर से बाल विकास हो रहा है? एक संस्था हैं वह हर साल किसी के जन्मदिवस पर चित्रकला प्रतियोगिता कराती है। हर साल पाँच सौ से अधिक बच्चे उस प्रतियोगिता में सहभागी बनते हैं। उसी स्पाॅट पर उसी दिन प्रथम,द्वितीय,तृतीय और तीन सांत्वना पुरस्कार देकर यह संस्था सोचती है कि वह बच्चों को चित्रकार बना रही है। क्या वाकई यह संस्था बाल विकास में कुछ कर रही है? जिन्हें पिछले दस सालों में (लगभग साठ बच्चों को) जिन्हें चित्रकला के नाम पर संस्था ने पुरस्कृत किया होगा उनमें एक भी चित्रकला की दिशा में आगे बढ़ पाया? यह शोध का विषय हो सकता है। यही हाल बाल साहित्य लिखने का है। क्या बाल-साहित्यकारों की रचनाओं को पढ़कर या बाल पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ छप जाने भर से बच्चों में सकारात्मक बदलाव आया है? यह विमर्श का विषय है।
    आज नहीं तो कल हमें अपनी दिशा तय करनी होगी। वह बाल-साहित्य कपोल-कल्पना ही होगा। निरर्थक ही होगा, जिसके केन्द्र में बच्चे नहीं है। जिनका सरोकार बच्चों से नहीं है। सीख, उपदेश और नसीहत देते रहने का हश्र शायद वही होगा, जो हर साल रावण का पुतला जला देने से हो रहा है। रामलीला में आदर्श अभिनय कर देने भर से हम आदर्श और अनुकरणीय नहीं हुए। ठीक उसी तरह से बाल-साहित्य में भी ‘चाहिए-चाहिए’-‘ऐसा करो-ऐसा करो’ चिल्लाने भर से बच्चों का भला नहीं होने वाला है। अब समय आ गया है कि इक्कीसवीं सदी के बाल साहित्य में हम कम से कम एक-एक रचना ही ऐसी सृजित करे जो भविष्य में रेखांकित हो। जिसका उल्लेख किया जा सके। जिसे पढ़क्र बच्चे आनंदित हो। मनन की स्थिति में हों। अन्यथा....।
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-मनोहर चमोली ‘मनु’.

12 नव॰ 2013

साहित्य अमृत नवम्बर 2013


अगर वे उस दिन भी स्कूल आते तो

-मनोहर चमोली ‘मनु’
    मुझे आज भी स्कूल की पढ़ाई-लिखाई के दिन याद हैं। अजीत और खजान मेरे सहपाठी थे। हम पहली कक्षा के पहले ही दिन दोस्त बन गए थे। हम तीनों ने हँसते-खेलते कक्षा पाँच पास कर ली थी। हम कक्षा छःह में भर्ती भी हो गए थे। लेकिन एक दिन वे दोनों स्कूल नहीं आए। उनका उस एक दिन स्कूल न आना, मेरे जीवन के महत्वपूर्ण बदलाव का कारण बन गया।

    आज सोचता हूँ कि यदि वे उस दिन भी स्कूल आते, तो आज मेरा क्या होता? डर जाता हूँ। बेचैन हो जाता हूँ। वे मेरे लिए महत्वपूर्ण थे। वे ही तो थे, जिनकी वजह से मैं आज अध्यापक हूँ। वे ही तो हैं जिनकी वजह से मैं आज बरसों पुराने दिनों को याद कर रहा हूँ। उन्हें याद करते हुए मुस्करा भी रहा हूँ। मैं नहीं जानता कि वे दोनों आज कहाँ हैं। कैसे हैं? क्या करते हैं? लेकिन उनके साथ बिताये सैकड़ों दिनों की मस्ती की मिठास आज भी जैसे जीभ पर लगी हो। मानो ताज़ा हो।
    अजीत का रंग गोरा था। वह औसत से अधिक मोटा था। अजीत हमारी क्लास में सबसे ठिगना था। वह हमेशा किसी से भी लड़ने-भिड़ने को तैयार रहता। अजीत को स्कूल के सभी बच्चों के पिता के नाम कंठस्थ थे। अक्सर वे किसी को भी उसके पिता के नाम से पुकारता था। जो चिढ़ता तो वह उसे और चिढ़ाता।
    अजीत दुस्साहसी भी था। वह स्कूल की दीवारों से लेकर आने-जाने वाले रास्तों पर चाॅक से सहपाठियों के पिता के नाम लिख दिया करता था। अजीत ने हर अध्यापक के नए नाम रखे हुए थे। उसके द्वारा रखे गए नाम ही स्कूल में और स्कूल से बाहर भी लोकप्रिय हुए। अजीत किसी भी पेड़ पर बड़ी आसानी से चढ़ जाता। कूदने-फाँदने में उसका कोई सानी नहीं था।
    मुझे अच्छी तरह याद है कि स्कूल का घण्टा एक बार ‘टन्न’ से बजने का क्या अर्थ था। यह घण्टा सुनते ही हम जोर से शोर मचाते थे। संकेत होता था, बेवक्त दोबारा मैदान में अपना बस्ता सहित प्रातःकालीन सभा की तरह खड़ा होना। यह प्रधानाचार्य के संबोधन का समय होता था। किसी के निधन होने की प्रधानाचार्य सूचना देते थे। दो मिनट का मौन रखा जाता था। शोक सभा का एक नियम होता था। दो मिनट मौन रहने के बाद सब सीधे अपने घर की ओर जाते थे। लेकिन दो मिनट होने से पहले कई छात्र-छात्राओं को हँसी आ जाती थी। आप समझ गए होंगे कि बंदर की तरह ‘खीं-खीं’ की आवाज कौन निकालता होगा। कौन हँसाने के लिए प्रेरित करता होगा? जी हाँ। अजीत ही यह काम करता था।
    खजान का रंग काला था। खजान का कद औसत से अधिक लंबा था। उसके दाँत मोतियों की तरह चमकते थे। उसका सिर भी सबसे बड़ा था। खजान की आँखें औसत से अधिक बड़ी थी। सिर बड़ा होने के कारण खजान दूर से ही पहचान लिया जाता था। उसके काले बाल हमेशा उसकी दाँयी आँख को ढक कर रखते थे। उसके बालों से हमेशा आँवले के तेल की खुशबू आती थी।
    खजान शरारती था। वह बिच्छू, छिपकली, घोंघा, जोंक और मेढक के बच्चे माचिस-सिगरेट की डिबिया में स्कूल लाता था। मौका मिलते ही वह उन्हें लड़कियों की ओर उछाल देता था। स्कूल में एक साथ कई चीखें निकल जाती। हो-हल्ला मच जाता। हँसी के ठहाके गूँज उठते। वहीं अजीत चेहरे में डर के भाव बना लेता। वह जताता कि उसे इन सब जीव-जन्तुओं से बेहद डर लगता है।
    अजीत कई बार निब वाला पैन हवा में उछाल देता। पैन की स्याही कई सहपाठियों के कपड़ों में बारिश की बूंदों की आकृति बना देती। यह सब शैतानियाँ वह बेहद फुर्ती से करता था। खजान कक्षा में यह शैतानियाँ गोपनीय ढंग से करता। परिणाम यह होता कि पिटाई समूची कक्षा की होती थी। वह कई बार किसी के बस्ते में चुपचाप केंचुएं के गुच्छे रख देता। कभी चुपके से किसी के टिफिन से रोटियाँ-आचार निकाल कर मुँह में ठूँस लेता। बारह महीनों उसे जुकाम रहता था।
    मैं? साँवला हूँ। मैं दब्बू था। शर्मीला और अंतर्मुखी था। कक्षा में शायद ही किसी सवाल का जवाब मैंने कभी दिया हो। तब भी, जब भले ही जवाब मुझे पता होता था। प्रातःकालीन सभा मंे गतिविधियाँ कराने का साहस मैं कभी नहीं बटोर पाया। मैं कभी भी अग्रजों की कक्षाओं के कक्ष में नहीं जा पाया। अध्यापकों का सामना करने की बजाय मैं कहीं छिप जाना बेहतर समझता था। मुझे गणित, अंग्रेजी और विज्ञान विषय कभी अच्छे नहीं लगे। मुझे जन्मतिथियाँ कभी याद नहीं रही। भूगोल और इतिहास तो कभी भी समझ नहीं आया।
    हाँ। चित्र बनाना और हिन्दी की किताब पढ़ना मुझे अच्छा लगता था। लेकिन मैं अन्य बच्चों की तरह कभी खड़ा होकर हिन्दी का कोई पाठ पढ़ने का साहस भी नहीं कर पाया। न ही मैंने कभी श्यामपट्ट पर जाकर आम-केला-संतरा बनाया।    
    हम तीनों बेमेल थे। फिर भी हम दोस्त थे। एक साथ स्कूल जाना। एक साथ स्कूल से घर लौटना। खाली वक्त पर एक साथ घूमना-टहलना। छुट्टी के दिन घने जंगल में चले जाना। पक्षियों के घोंसलों को खोजना। घोंसलों से अण्डों को निकालना, घोंसलों में पक्षियों के बच्चों को उठाना हमारा काम रहता। हमें पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों की अच्छी जानकारी हो गई थी। मदारी के खेल देखना हमें बेहद पसंद था। बंदर-भालू नचाने वाले और दवा बेचने वालों के तमाशों में हम सबसे आगे खड़े रहते।
    स्कूल हमारे गाँव से बहुत दूर था। दस-बारह गाँव के बच्चों के लिए एक ही स्कूल था। लगभग एक घण्टा पैदल चलकर हम स्कूल पहुँचते थे। हम घर से सबसे पहले निकल जाते। लेकिन स्कूल सबसे देर में पहुँचते। अक्सर स्कूल तब पहुँचते थे, जब प्रातःकालीन सभा हो जाती थी।
    स्कूल के कक्षा-कक्ष में दो दरवाजे होते थे। हम पीछे के दरवाजे से कक्षा में घुसते थे। जैसे ही अध्यापक ब्लैकबोर्ड में कुछ लिखना शुरू करते थे, उसी क्षण हम बारी-बारी से दबे पाँव कक्षा में घुस जाते। इसी तरह चुपचाप इसी दरवाजे से बाहर निकल जाते। छुट्टी का घंटा हमने शायद ही कभी सुना हो। हम अक्सर बीच में ही स्कूल से ‘टप’ लिया करते थे। लेकिन घर हम सबसे देर में पहुँचते थे।
    ब्लैक बोर्ड के ठीक सामने बाँयी ओर पाँच छात्र बैठते थे। दाँयी ओर पाँच छात्राएँ बैठती थीं। हम छात्रों की सबसे आखिरी पंक्ति में बैठते। हम तीनों कक्षा में होते हुए भी न होने के समान थे। हमारी बेसिर-पैर की बातें थीं कि कभी खत्म ही नहीं होती थीं। एक शिक्षक के बाद दूसरे शिक्षक के आने पर कक्षा के सब बच्चे खड़े हो जाते थे। एक हलचल-सी मच जाती थी। हम तभी जान पाते थे कि एक पीरियड खत्म हो गया है। 
    हमारी पढ़ने की बारी कभी आती ही नहीं थी। कोई भी अध्यापक कभी हमारी सीट तक नहीं आए। काॅपियों का ढेर कक्षा का माॅनीटर जमा करता था। हम बहाना बना देते कि आज काॅपी घर छूट गई है। कुछ दिनों बाद माॅनीटर ने भी हम तक आना छोड़ दिया। हम कक्षा में कभी शोर नहीं मचाते। कारण साफ था। हम तीनों सबसे पीछे जो बैठते थे। हमारे सिर अपनी-अपनी डेस्क पर झुके होते थे।
    हम तीनों अपनी ही बातों-गप्पों मंे व्यस्त रहते थे। हमने कभी यह जानने-सुनने की कोशिश ही नहीं की, कि अध्यापक पढ़ा क्या रहे हैं। अक्सर हम जरूरी सूचनाएं भी नहीं सुन पाते थे। कल फीस डे है। यह तो सुन लिया। लेकिन यह ध्यान नहीं दिया कि फीस कितनी लानी है।
    कई बार छुट्टी की घोषणा हो जाती थी। लेकिन हम तीनों सुबह-सवेरे तैयार होकर स्कूल चले आते। ऐसा कई बार होने के बाद एक तरीका खोज लिया गया। अब हम में से कोई एक हर सुबह स्कूल जाते हुए अन्य सहपाठियों को देख लेता। सीटी बजाकर संकेत देता कि आज स्कूल जाना है। सीटी की आवाज सुनकर ही हम तैयार होते। सीटी बजाने का तरीका भी तय किया हुआ था। एक लंबी सीटी और फिर एक छोटी ध्वनि की सीटी जरूर बजानी होती थी। यह इसलिए किया गया था कि कभी कोई मुगालता न हो। कभी किसी अन्य चैथे की सीटी पर हम तीनों को कोई गलतफहमी न हो।
    अक्सर अध्यापक कक्षा में कोई सवाल पूछते थे। आसान सवाल का जवाब तो आगे की पंक्तियों में बैठे सहपाठी दे दिया करते थे। लेकिन कभी-कभी कठिन सवाल का जवाब कोई नहीं दे पाता था। हमारी सीट के आगे बैठे हुए सहपाठियों की भी बारी आ जाती। वह भी खड़े हो जाते। तब जाकर हमें पता चलता था कि कोई सवाल पूछा गया है। लेकिन सवाल क्या पूछा गया होगा। यह हम तीनों कभी नहीं जान पाए। समूची कक्षा की पिटाई में हम भी पिटते।
    जब भी हमारी पिटाई होती, तब मुझे बहुत गुस्सा आता। मैं सोचता-‘‘ये इतने सारे हमसे आगे बैठते हैं। ध्यान से क्यों नहीं सुनते? मन लगाकर क्यों नहीं पढ़ते? इनके खड़े होने के बाद हमें भी खड़ा होना पड़ता है।’’
    एक सुबह की बात है। मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा। सूरज खिड़की से भीतर झांक रहा था। मैंने नित्य कर्म फटाफट निपटाए। बस्ता कांधे पर रखा। तेज कदमों से स्कूल की ओर दौड़ पड़ा। हांफते-हांफते स्कूल पहुँचा। कक्षा में झांका तो अजीत और खजान अपनी सीट पर नहीं थे।
    ‘‘तो क्या ये दोनों आज स्कूल नहीं आए। मैं क्लास में जाकर क्या करूंगा।’’ यह सोचकर मैं वापिस लौटने लगा।
    ‘‘ऐ लड़के ! कहाँ जा रहा है? कौन-सी क्लास का है?’’ यह प्रिंसिपल सर की आवाज थी। प्रिंसिपल मानो गश्त पर थे। मैं जानता था कि यदि उन्होंने मुझे पकड़ लिया तो जोर से कान उमेठेंगे। फिर मुर्गा बनाएंगे। पीठ पर एक ढेला रख देंगे।
    मैंने आव न देखा ताव। दौड़ा और चुपचाप अपनी सीट पर जाकर बैठ गया। कक्षा में अध्यापक ‘खरगोश और कछुआ’ की कहानी सुना रहे थे। पहली बार मैं किसी अध्यापक की बात को  गौर से सुन रहा था। पहली बार मैंने समूची कक्षा को निहारा। मैंने महसूस किया कि सभी सहपाठी मौन साधे अध्यापक को गौर से सुन रहे हैं।
    कहानी खत्म होने के बाद अध्यापक ने पूछा-‘‘अच्छा बताओ। कछुआ धीमी चाल के बावजूद जीत कैसे गया?’’
    कई सहपाठियों ने हाथ खड़ा किया। अध्यापक एक के बाद एक सवाल पूछते रहे। सहपाठी भी तत्परता से जवाब देते रहे। मैंने सोचा-‘‘ये जवाब तो मैं भी दे सकता हूँ।’’
    अध्यापक ने ब्लैक बोर्ड पर लिखा-‘‘कहानी में आए खरगोश के बारे में लिखिए।’’ कक्षा में हर दिशा से काॅपियों के पन्ने फड़फड़ाने की आवाज सुनाई दी। हर कोई काॅपी पर कुछ न कुछ लिखने को तैयार दिखाई दिया। मैं सकपकाया। मैं हैरान था। मैंने खुद को अकेला और परेशान पाया। मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था। रह-रहकर अजीत और खजान याद आ रहे थे।
    मेरे आगे की पंक्ति में से भी एक सहपाठी आज अनुपस्थित था। मेरे ठीक सामने बैठे सहपाठी ने मेरा बस्ता खींच कर अपने दांयी ओर खाली डेस्क पर रख दिया। वह धीरे से बोला-‘‘पीछे अकेले क्या करोगे। आगे आ जाओ। आओ।’’
    मैं चुपचाप आगे की खाली सीट पर उछलकर बैठ गया। मेरे दोनों ओर बैठे सहपाठी काॅपी पर अध्यापक के द्वारा लिखाए गए सवाल को उतार चुके थे। दोनों अपनी समझ से जवाब लिखना शुरू कर चुके थे। मैंने कनखियों से देखा। मैं चैंक पड़ा। दोनों सहपाठियों का हस्तलेख बहुत ही सुन्दर था। मैं मन ही मन में सवाल का जवाब सोच रहा था। मैंने देखा कि जो जवाब मैं सोच रहा था, वे दोनों भी लगभग वैसा ही जवाब अपनी-अपनी काॅपी पर लिख रहे थे।
    तभी अध्यापक की आवाज मेरे कानों पर पड़ी। उन्होंने कहा-‘‘चलिए। अब खरगोश के बारे में बताइए।’’ कई सहपाठियों ने अपने शब्दों में खरगोश के बारे में बताया। मुझे लगा कि मैं भी तो खरगोश के बारे में यही सोच रहा हूँ।
    मध्यांतर हुआ। सब अपने-अपने सहपाठियों के साथ अपना टीफिन साझा कर रहे थे। मैं चुपचाप अकेला खड़ा खजान और अजीत के बारे में सोच रहा था। तभी कुछ सहपाठियों ने मुझे इशारे से बुलाया। मैं चला गया। भूख तो लगी ही थी। सबने अपने टीफिन से मुझे कुछ न कुछ खाने को दिया। खाना खाने के बाद अब हम एक-दूसरे का नाम पूछ रहे थे। गाँव का नाम पूछ रहे थे।
    पांचवी घंटी में दूसरे अध्यापक आए। छठी घण्टी में तीसरे और सातवीं घण्टी में चैथे अध्यापक आए। मेरी तो धारा ही बदल गई। आज पहली बार मैं इतनी देर कक्षा में रुका था। सभी अध्यापकों को ध्यान से सुना था। एक-एक वाक्य उपयोगी लग रहा था। मैंने सोचा-‘‘इतने साल-इतने दिन कितनी बातें अनसुनी की। क्यों?’’
    आज पहली बार छुट्टी का घण्टा अपने कानों से सुना। धीमें कदमों से घर की ओर लौटा। पहली बार वक्त पर घर पहुँचा। मुँह-हाथ धोए। खाना खाया। स्कूल बैग को खाली किया। बैग धोया। सभी किताबों-काॅपियों पर अखबारी जिल्द लगाई। अब तक जांची न गई काॅपियों के पन्ने उलटे। खुद पर बहुत गुस्सा आया।
    मन में ठान लिया कि अब मन लगाकर सुनना है। मन लगाकर पढ़ना है। मन लगाकर लिखना है। सवालों से जूझना है। कक्षा में सबसे पीछे नहीं, आगे बैठना है।
    बस! फिर क्या था। मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। खजान और अजीत मेरे दोस्त बने रहे। लेकिन कक्षा से बाहर। कक्षा में मेरी सीट बदल गई। धीरे-धीरे मैं भी कक्षा का गंभीर छात्र बन गया। आज स्वयं अध्यापक हूँ। हर साल नया सत्र आते ही बच्चों को यह किस्सा जरूर सुनाता हूँ। कक्षा में सबसे पीछे बैठे हुए छात्रों से यह कहना नहीं भूलता कि सीट बदलती रहेगी। आज जो आगे बैठे हैं, कल वो पीछे बैठेंगे।
    हर संभव कोशिश करता हूं कि हर बच्चे पर नज़र रहे। हर बच्चे की काॅपी जंचे। हर बच्चे को बोलने का मौका मिले। आज भी खजान और अजीत का चेहरा याद है। एक बात बार-बार याद आती है। मुझे परेशान करती है। यदि उस दिन खजान और अजीत स्कूल आए होते तो मेरा क्या होता?
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-मनोहर चमोली ‘मनु’

27 सित॰ 2013

धन की माया अपरंपार मनोहर चमोली ‘मनु’ NANDAN Oct 2013

'धन की माया अपरंपार'

............. कथा: मनोहर चमोली ‘मनु’

एक बार की बात। राजा कृष्णदेव राय वन विहार पर थे।
दरबारी भी साथ थे। अचानक राजा ने कहा-‘‘अहा !  वन में शांति है। कल-कल बहती नदी और पक्षियों का कलरव आनंदित कर रहा है।’’
दरबारी हां में
हां मिलाने लगे।
राजा ने पूछा-‘‘हमारा सुख-चैन छीन कौन छीन लेता है?’’
दरबारी सोच में पड़ गए।
सबसे पहले राज पुरोहित ने जवाब दिया-‘‘महाराज। मन। ये मन ही है जो हमारा सुख-चैन छीन लेता है। मन यदि अशांत है तो फिर स्वादिष्ट व्यंजन भी फीका लगने लगता है।’’
सेनापति नजदीक आते हुए बोला-‘‘महाराज। बुढ़ापा हमारा सुख-चैन छीन लेता है।’’
राजगुरु ने कहा-‘‘राजन्। ईष्र्या वह भावना है जो हमारा सुख-चैन छीन लेती है।’’
मंत्री भी जवाब देने के लिए आतुर था। कहने लगा-‘‘महाराज। रोग हमारा सुख-चैन छीन लेता है। यदि काया निरोगी है तो आनंद ही आनंद है।’’
तेनालीराम को मुस्कराते देख राजा ने कहा-‘‘आज विजयनगर का तेनालीराम क्यों चुप है?’’
तेनालीराम ने कहा-‘‘महाराज। धन का मोह ही सबसे प्रबल है। इसकी माया सबसे निराली है। पहले यह हमारा सुख-चैन छीनता है फिर यह हमारी मति भी भ्रष्ट कर देता है।’’
राज पुरोहित ने बीच में टोकते हुए कहा-‘‘लेकिन तेनालीराम। गरीब और धन का मोह न रखने वाले भी कौन सा सुखी हैं?’’
तेनालीराम ने फिर कहा-‘‘महाराज। मेरा दृढ़ विश्वास है कि धन की माया ही सुख-चैन छीनने वाली है। इससे हर संभव दूर ही रहना चाहिए।’’
सेनापति हंसते हुए कहने लगा-‘‘महाराज। लगता है तेनालीराम की मति आज वन विहार में अनुचित सलाह देने लगी है।’’
तेनालीराम ने जोर देकर कहा-‘‘यदि महाराज अनुमति देंगे तो मैं उचित समय आने पर सिद्ध करना चाहूंगा कि धन-सम्पत्ति ही सुख-चैन के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है।’’ राजा ने सहर्ष अनुमति दे दी। कुछ समय पश्चात राजा दरबारियों सहित दरबार लौट आए।
एक दिन राजा कृष्णदेव राय दरबार में आवश्यक विचार-विमर्श कर रहे थे। तभी गुप्तचर ने दरबार में प्रवेश किया। पूछने पर वह बोला-‘‘महाराज। सूचना मिली है कि राजमहल का कुआं असंख्य स्वर्णमुद्राओं से भरा है।’’
तेनालीराम उठ खड़ा हुआ। कहने लगा-‘‘लेकिन कुआं तो निर्मल जल से भरा है। मान लेते हैं कि कुएं में स्वर्ण मुद्राएं हैं, फिर उन्हें निकालेंगे कैसे?’’
मंत्री ने जवाब दिया-‘‘ स्वर्ण मुद्राएं कुएं के तल में होंगी। उन्हें निकालने के लिए कुएं का सारा जल उलीचना होगा। यह असंभव नहीं है।’’
सेनापति बीच में ही बोल पड़ा-‘‘हमारी सेना में एक कुशल गोताखोर है। महाराज यदि आज्ञा दें तो गुप्तचर की सूचना की पुष्टि क्षण भर में ही हो जाएगी।’’
राजा ने अनुमति दे दी।
कुछ ही देर में गोताखोर मुट्ठी भर स्वर्ण मुद्राएं लेकर दरबार में उपस्थित हुआ। वह हांफते हुए बोला-‘‘महाराज। कुआं बहुत गहरा है। श्वास रोककर मैं मुट्ठी भर स्वर्ण मुद्राएं तो ले ही आया हूं।’’
राजा ने घोषणा कर दी कि तत्काल कूप का जल निकाल लिया जाए। महल के विश्वसनीय सैनिक कुएं से पानी खींचने लगे। तीन दिन तक पानी उलीचने का काम अनवरत चलता रहा। राजमहल के बागीचे में पानी ही पानी भर गया। चैथे दिन कुएं का तल दिखाई दिया। राजा के सामने एक दरबारी को कुएं में उतारा गया। लेकिन यह क्या ! कुएं में कंकड़-पत्थर के सिवा कुछ न मिला। सब हैरान थे।
तेनालीराम को इसी अवसर की तलाश थी। तेनालीराम ने राजा से कहा-‘‘राजन्। मैं न कहता था कि धन की माया सुख-चैन छीन लेती है। कुएं में स्वर्ण मुद्राओं की सूचना ने समूचे राजमहल में हलचल मचा दी। कुछ राजकर्मचारी पिछले तीन दिनों से सोए तक नहीं हैं।’’
राजा मुस्कराने लगे। कहने लगे-‘‘ओह! तो ये बात है! ये सब तुम्हारा किया-धरा है। गुप्तचर की सूचना, स्वर्ण मुद्राए और वो गोताखोर तुम्हारी ही योजना का हिस्सा थे !’’
तेनालीराम मुस्करा दिया। सिर झुकाकर कहने लगा-‘‘क्या करता महाराज। धन की माया सुख-चैन छीन लेती है और मति भी। यह साबित करने के लिए मुझे यह सब करना पड़ा।’’
यह सुनकर राजा खिलखिलाकर हंसने लगे। वहीं राज दरबारियों के चेहरे देखने लायक थे।
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-मनोहर चमोली ‘मनु’

2 सित॰ 2013

चंपक सितंबर प्रथम 2013 बैस्ट टीचर मनोहर चमोली ‘मनु’

बैस्ट टीचर 

 

-मनोहर चमोली ‘मनु’

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‘‘यार। ये रौली मैडम अपने आप को समझती क्या है। जब देखो डांटती रहती है।’’ जंपी बंदर ने कहा।
डैकू गधा बोला-‘‘रोकना और टोकना। रौली मैडम के यही तो काम हैं। पढ़ातेपढ़ाते किस्साकहानी सुनाने लग जाती है। जब देखो लेक्चरलेक्चर।’’
टाॅमी कुत्ता गुर्राते हुए बोला-‘‘स्कूल में और भी तो टीचर हैं। हर कोई अपने काम से काम रखता है। लेकिन रौली मैडम! उफ! वो तो हम पर ऐसे नज़र रखती है जैसे हम चोर उचक्के हों।’’
जंपी बंदर ने कहा-‘‘कल संडे था। मैं दोस्तों के साथ बाजार घूम रहा था। रौली मैडम मिल गई। कहने लगी कि बाजार क्यों घूम रहे हो। घर में बता कर आये हो या नहीं। साथ में ये कौन-कौन हैं। कहां पढ़ते हैं। उफ ! इतने सारे सवालों का जवाब देतेदेते मेरे तो हाथपांव फूल गए।’’
डैकू गधा चिल्लाते हुए बोला-‘‘यार। हमारी भी अपनी लाइफ है। स्कूल आने से पहले और स्कूल से जाने के बाद हम कुछ भी करें। किसी को इससे क्या। जरा सोचो।’’
अचानक रौली गिलहरी सामने आ गई। रौली मैडम को सामने देख चीकू खरगोश हकलाते हुए बोला-‘‘मैडम आप! गुड मार्निंग मैडम। मैंने कुछ नहीं कहा। मैं तो....मैं तो...मै तो बस इनकी बातें सुन रहा था।’’
रौली गिलहरी ने अपनी हंसी छिपाते हुए कहा-‘‘स्कूल की छुट्टी तो बहुत पहले हो गई थी। अब तक तुम सभी को अपने अपने घर पहुंच जाना चाहिए था।’’
डैकू गधा,जंपी बंदर और टाॅमी कुत्ता सिर पर पांव रख कर अपनेअपने घर की ओर दौड़ पड़े।
रौली गिलहरी ने चीकू खरगोश से कहा-‘‘चीकू। तुम पढ़ाई में अच्छे हो। डैकू,जंपी और टाॅमी का ध्यान मस्ती और खेल में ज्यादा रहता है। ये तीनों पढ़ाई में कम ध्यान देते हैं। तुम उनके दोस्त हो। इन्हें समझाते रहा करो। बातों ही बातों में पढ़ाईलिखाई की बातें भी किया करो। ओ.के.।’’ चीकू ने हां में सिर हिलाया और तेज कदमों से अपने घर की ओर चल पड़ा।
छमाही इम्तिहान खत्म हुए। परीक्षा परिणाम घोषित हुआ। चीकू का प्रदर्शन संतोषजनक रहा। लेकिन जंपी बंदर,डैकू गधा और टाॅमी कुत्ता का प्रदर्शन निराशाजनक रहा।
शिक्षक दिवस का दिन था। स्कूल में सभी अभिभावकों को बुलाया गया था. यह पहला अवसर था जब सभी अपने मातापिता को स्कूल टीचर्स से बात करते हुए देख रहे थे. डैकू गधा, जंपी बंदर और टाॅमी कुत्ता एक साथ बैठे हुए थे। टाॅमी कुत्ता दांत पीसते हुए बोला-‘‘ये रौली मैडम कहां है? कहीं ऐसा न हो कि ये मैडम हमारे मम्मीपापा को भी लेक्चर न देने लग जाए। मेरे पापा को तो लेक्चर सुनना बिल्कुल भी पसंद नहीं है।’’
डैकू गधा हंसते हुए बोला-‘‘अरे यार तब तो गज़ब हो जाएगा। मेरे पापा तो बड़े गुस्सेबाज़ हैं। कहीं ऐसा न हो कि मेरे पापा रौली मैडम से उलझ ही न पड़ें। ये लो। रौली मैडम तो मंच पर जाकर बैठ गई है।’’
जंपी बंदर ने फुसफुसाते हुए कहा-‘‘मेरे पापा को भी ज्यादा बोलने वाले पसंद नहीं है। वो तो यहां आने के लिए तैयार ही नहीं थे। बड़ी मुश्किल से मनाकर लाया हूं।’’
तभी डैकू गधा चैंकते हुए बोला-‘‘ओ तेरे की! ये क्या हो रहा है? अरे जंपी! तेरे पापा तो रौली मैडम के पैर छू रहे हैं!’’
जंपी बंदर के साथसाथ डैकू गधा और टाॅमी कुत्ता भी हैरान थे। उनके मम्मीपापा के अलावा कई पेरेंटस रौली मैडम के पैर छू रहे थे। तभी रौली मैडम की नज़र चीकू खरगोश पर पड़ी। चीकू दौड़कर मंच पर जा पहुंचा। चीकू फिर दौड़कर तीनों के पास आते हुए बोला-‘‘रौली मैडम तुम तीनों को बुला रही है। स्टेज पर। तुरंत जाओ।’’
जंपी बंदर ने कहा-‘‘मर गए। ये क्या हो रहा है? पता नहीं ये रौली मैडम ने हमारे मम्मीपापा से क्याक्या कह दिया होगा।’’
डैकू गधा बोला-‘‘अब चलो भी। देख नहीं रहे। हमारे मम्मीपापा भी हमारी ओर ही देख रहे हैं। मेरी तो शायद आज खैर नहीं है।’’ 
टाॅमी कुत्ता बोला-‘‘मेरे तो पसीने छूट रहे हैं। तुम दोनों आगेआगे चलो। मैं तुम्हारे पीछेपीछे चलूंगा। आज तो घर जाकर पिटाई तय है।’’
जंपी,टाॅमी और डैकू मंच पर पहुंच गए। रौली मैडम को अभिभावकों ने घेरा हुआ था।
जंपी,टाॅमी और डैकू को देखते ही रौली मैडम ने कहा-‘‘ये तीनों हमारे स्कूल की शान हैं। हर एक्टीविटी में आगे रहते हैं। मुझे पूरा भरोसा है कि इस बार ये तीनों सालाना परीक्षा में भी कुछ हट कर प्रदर्शन करेंगे। इनका स्कोर हर किसी से बेहतर होगा।’’
जंपी बंदर की मम्मी ने रौली मैडम से कहा-‘‘जंपी के पापा को भी तो आपने ही पढ़ाया है। टाॅमी के पापा तो अभीअभी कह ही रहे थे कि वे आज जो कुछ हैं आपकी वजह से ही हैं।’’
डैकू के पापा ने कहा-‘‘मेरे जैसे पीछे की सीट पर बैठने वाले कई थे, जिन्हें रौली मैडम ने हौसला दिया। सलाह दी और दिशा दी। हमें पूरा यकीन हैं कि हमारे बच्चे इस स्कूल का नाम रोशन करेंगे।’’
जंपी बंदर, टाॅमी कुत्ता और डैकू गधा चुपचाप खड़े होकर सुन रहे थे। सब से नजरें बचाकर उन्होंने एकदूसरे की आंखों में झांका। रौली मैडम तो बेस्ट टीचर है। तीनों मन ही मन यही सोच रहे थे।
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17 अग॰ 2013

समझ आया खेल का खेल AUG 2nd CHAMPAK

समझ आया खेल का खेल

मनोहर चमोली ‘मनु’
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‘‘चूंचूं। ये लो नया मोबाइल। ये उपहार तुम्हारे लिए है। इसमें कई वीडियों गेम हैं। इसका डाउनलोडिंग सिस्टम भी बढ़िया है।’’ चूंचूं चूहे के पापा ने चूंचूं से कहा।
‘‘लेकिन बेटा। चूंचूं को अभी से मोबाइल की आदत डलवाना ठीक होगा क्या?’’ चूंचूं की दादी ने पूछा।
‘‘ओह मम्मी। ये 21वीं सदी है। नई पीढ़ी बहुत समझदार है। आपका और हमारा जमाना लद गया।’’ चूंचूं के पापा ने चूंचूं की दादी से कहा।
चूंचूं चूहा स्कूल की दौड़ प्रतियोगिता में प्रथम आया था। उससे पहले उसने क्रिकेट में भी मैन आॅफ दि मैच का खिताब हासिल किया था। वह फुटबाल टीम में चुन लिया गया था। इन्ही कारणों से उसके पापा ने उसे मोबाइल उपहार में लाकर दिया था।
दादी ने चूंचूं को समझाते हुए कहा-‘‘चूंचूं बेटा। मुझे उम्मीद है कि तुम मोबाइल का उपयोग अच्छे के लिए ही करोगे। करोगे न?’’
चूंचूं चूहा हंसते हुए बोला-‘‘दादी। मोबाइल का उपयोग अच्छे के लिए ही होता है। मोबाइल चलाना गुड्डे-गुड़िया का खेल नहीं है।’’ उसने झट से मोबाइल के फंक्शन टटोलने शुरू कर दिये। चूंचूं ने कुछ ही दिनों में मोबाइल के सारे फंक्शन अच्छी तरह से समझ लिए थे।
चूंचूं चूहा अब अक्सर मोबाइल पर गेम खेलता। वह मोबाइल स्कूल भी ले जाने लगा था। जब भी उसे वक्त मिलता वह मोबाइल पर झुक जाता। उसने कुछ दोस्तों को भी मोबाइल गेम सिखा दिए। चूंचूं के कई दोस्त भी अब स्कूल में मोबाइल लेकर आने लगे।
‘‘चूंचूं बेटा। मैं देख रही हूं कि तुम जब देखो, मोबाइल पर ही व्यस्त रहते हो। तुम्हारा पढ़ना-लिखना पहले की तरह नहीं हो रहा है। यही नहीं तुमने स्पोटर््स प्रैक्टिस भी बंद कर दी है। है न?’’ चूंचूं की दादी ने पूछा।
यह सुनकर चूंचूं चिढ़ गया। झल्लाते हुए बोला-‘‘दादी अब मैं बच्चा नहीं रहा। आपको क्या पता कि मैं मोबाइल में क्या कर रहा हूं। आपको पता भी है कि मोबाइल पर आॅन लाइन टीचिंग भी होती है। मोबाइल में इनडोर गेम्स की भरमार है। इससे ब्रेन तेज भी होता है। आप नहीं समझेंगी।’’ यह सुनकर चूंचूं की दादी मुस्कराई और टहलने चली गई।
एक दिन की बात है। चूंचूं चूहा स्कूल से घर लौट रहा था। उसका चेहरा उतरा हुआ था। चूंचूं की मम्मी ने पूछा-‘‘क्यों बेटा। क्या बात है? किसी ने कुछ कहा क्या?’’
‘‘नहीं मम्मी। लेकिन। स्कूल में आज दौड़ हुई थी। मैं टाॅप 10 में भी नहीं आ सका।’’ चूंचूं ने बताया।
‘‘तो क्या हुआ। जाने दो। परेशान न हो। बेहतर आने के लिए जो प्रयास किया जाना था, वह नहीं किया होगा न। बस। उस कमी को दूर करना, जिसकी वजह से ऐसा हुआ। चलो। मुंहहाथ धो लो।’’ चूंचूं की मम्मी ने हौसला बढ़ाते हुए कहा।
चूंचूं दूसरे दिन भी स्कूल से घर लौटा तो परेशान था। चूंचूं चूहा रोते हुए बोला-‘‘मम्मी। स्कूल की क्रिकेट टीम में मेरा सलेक्शन नहीं हुआ।’’
चूंचूं की मम्मी ने फिर कहा-‘‘तो क्या हुआ। कोई बात नहीं। तुम तो तबला भी अच्छा बजा लेते हो। म्यूजिक कम्पीटिशन में तुम अच्छा करोगे।’’
स्कूल में स्थापना दिवस की रिहर्सल होने लगी। रैटी चूहा ने अच्छा तबला बजाया। फाइनल प्रोग्राम के लिए म्यूजिक टीचर ने चूंचूं की जगह रैटी चूहे को सलेक्ट कर लिया।
 चूंचूं चूहे ने दादी को सारा किस्सा सुनाया। दादी ने चूंचूं को समझाते हुए कहा-‘‘ये सब अभ्यास न करने का परिणाम है। संतोषजनक परिणाम देते रहने के लिए लगातार अभ्यास जरूरी होता है। दौड़ में,क्रिकेट में और म्यूजिक में तुम्हारा सलेक्शन नहीं हुआ। इसका मतलब यह नहीं कि तुम अयोग्य थे। बल्कि सलेक्शन के समय तुमसे अधिक फिट कोई और थे। यह तुम्हें अहसास कराने के लिए संकेत हैं कि तुमने अभ्यास का समय खोया है। मोबाइल गेम्स के चक्कर में तुमने अपनी क्षमता को कम किया है।’’
चूंचूं चूहा सुबकते हुए बोला-‘‘अब क्या होगा? तो दादी अब मैं क्या करूं?’’
दादी ने समझाया-‘‘कुछ नहीं। बस तुम पहले की तरह पढ़ाई में मन लगाओ। स्पोर्ट्स की प्रैक्टिस के लिए समय निकालो। फिर देखना परिणाम बेहतर मिलेंगे। हां। मोबाइल पर झुके रहना बंद करना होगा।’’
चूंचूं चूहा कान पकड़कर खड़ा हो गया। सिर हिलाते हुए बोला-‘‘प्राॅमिस दादी। आज से क्या। अभी से मोबाइल पर गेम्स खेलना बंद। चलो। आंगन का एक चक्कर दौड़ लगाकर पूरा करते हैं।’’
‘‘चलो।’’ यह कहकर दादी ने अपनी छड़ी एक ओर रखी और चूंचूं के साथ आंगन का चक्कर लगाने लगी।
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-मनोहर चमोली ‘मनु’.

27 जुल॰ 2013

कासे कहूं कि बच्चों को सम्मान दें, आत्मग्लानि से न भरें.

कासे कहूं कि बच्चों को सम्मान दें, आत्मग्लानि से न भरें.

-Baal Sansar.

    हम बच्चों को वैसे ही स्वीकार करें, जैसे वे हैं। आखिर हम क्यों यह चाहते हैं कि वे हमारे अनुसार चलें। हम जैसा चाहते हैं, वैसा व्यवहार करें। घर हो या स्कूल। अभिभावक भी और शिक्षक भी कमोबेश यही चाहते हैं कि उनके अधीन या संरक्षण में या उनकी देख-रेख में रहने वाले बच्चे उनके कहे के अनुसार चले। इससे बढ़कर एक कदम और आगे, वे चाहते हैं कि सभी बच्चे एक समान व्यवहार करें। क्यों? ये कैसे संभव है?

    जब एक मां अपनी ही बेटी को अपने अनुसार नहीं ढाल पाती। ढाल भी नहीं सकती और ढालना भी नहीं चाहिए। तब भला हम अभिभावक और शिक्षक सभी बच्चों से एक जैसा व्यवहार क्यों चाहते हैं? एक जैसी प्रतिक्रिया क्यों चाहते हैं? सौ फीसदी प्रगति क्यों चाहते है? क्या यह संभव है? जी नहीं। यह किसी भी सूरत में संभव नहीं है। 


    बच्चे पूरे इंसान हैं। उनका अपना वजूद है। वे किसी फैक्ट्री के सांचे का उत्पाद नहीं है, जो एक जैसे बनेंगे। उनका एक जैसा भार होगा। एक जैसा व्यवहार होगा। सीधी सी बात है। ऐसा भी नहीं है कि हमें इसका इल्म न हो। यही कि बचपन में हर बच्चे को आस-पास से मिलने वाली जानकारी भिन्न मिलती है। वह अपने नज़रिए से चीजों को और धारणाओं को समझता है। अपना एक विचार बनाता है। अपना एक नज़रिया बनाता है।

    हर बच्चे का अपना अलग व्यक्तित्व होता है। हर बच्चे को अलग माहौल मिलता है। उसकी अपनी मां से भी और धर-परिवार से भी। समाज से भी। सहपाठियों से भी। हर बच्चे के लालन-पालन की परिस्थितिया भिन्न हो ही जाती है। हर बच्चे के प्रत्येक दिन में घटने वाली बातें-घटनाएं भिन्न होती है। हर बच्चा अपने जीवन में आने वाले लोगों को अपने ढंग से स्वीकारता है। अपने ढंग से बातों को आत्मसात् करता है। फिर हम बड़े ये क्यों चाहते हैं कि सभी बच्चे एक जैसा प्रदर्शन करें। एक जैसा व्यवहार करें। ये तो हास्यापद ही है कि यह सब जानते हुए भी हम बात-बात पर बौखला जाते हैं कि हमारा बच्चा पड़ोसी के बच्चे से अव्वल क्यों नहीं है। 

    हम बात-बेबात पर अपने बच्चों की तुलना दूसरे के बच्चों से करने लग जाते हैं? क्यों भला? ऐसा करके हम अपने बच्चे के सामने चुनौतियां नहीं रख रहे होत हैं, बल्कि उसे उसकी ही नज़रों में छोटा बना रहे होते हैं। उसे आत्मग्लानि और हीन भावना की ओर धकेल रहे होते है। इससे बढ़कर खुद से भी उसे दूर कर रहे होते हैं। 

    जब इस सृष्टि में ही पेड़-पौधों में विविधता है। मौसम में विविधता है। कोस-दर-कोस में वायु-जल-हवा तक में विविधता है। फिर हम बच्चों में विविधता को क्यों नहीं स्वीकार करते? आपको जवाब मिले या आपके पास जवाब हो, तो बताइएगा मुझे भी। प्रतीक्षा में रहूंगा।

चंपक जुलाई प्रथम 2013. 'चंपकवन भी हमारा है'

-Baal Kahaani. 'चंपकवन भी हमारा है'


मनोहर चमोली ‘मनु’

‘‘यह अच्छी बात है कि मनुष्य भोजन पकाकर खाता है। यह हम सभी के लिए अच्छा है। यदि मनुष्य भी हमारी ही तरह कीड़ेमकौड़े खाने वाला होता तो हम कब के मिट गए होते।’’ टिंकू सारस ने हंसते हुए कहा।

‘‘कैसी बात करते हो। कुछ मनुष्य शाकाहारी भी हैं तो कुछ मांसाहारी भी है। कुछ फलाहारी भी होते हैं। ऐसी बहुत सारी चीजें हैं जिन्हें मनुष्य कच्चा ही खाता है।’’ सीटू हंस ने कहा।
‘‘ये मैं भी जानता हूं। लेकिन हमारा भोजन तो छोटेमोटे जीव हैं। जलीय पौधे हैं। यदि मनुष्य भी यही भोजन करने लगे तो? सोचो। हमारा क्या होगा।’’ टिंकू सारस ने कहा।
‘‘हम्म। ये बात तो मैंने सोची ही नहीं। लेकिन टिंकू। तुम्हें आज अचानक ये क्या सूझ रहा है। तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि हम आज रात इस चंपकवन को छोड़कर अपने मधुवन की ओर उड़ान भरने वाले हैं। हजारों किलोमीटर की यात्रा करेंगे और अपने मधुवन पहंुच जाएंगे।’’ सीटू हंस ने तालियां बजाते हुए कहा।
टिंकू सारस ने लंबी सांस लेते हुए कहा-‘‘यार सीटू। हम हर साल चंपकवन आते हैं। 6 माह से अधिक चंपकवन की इस झील में रहते हैं। यहां खातेपीते हैं। अपने बच्चों का लालनपालन भी करते हैं। फिर एक दिन हम वापिस अपने मधुवन की ओर लौट जाते हैं।’’
सीटू हंस ने बीच में ही टोकते हुए कहा-‘‘तो क्या हुआ? यह हमारी मजबूरी है। यदि हम सर्दियों में चंपकवन नहीं आएंगे तो भूखे मर जाएंगे। हम कर भी क्या कर सकते हैं। सर्दियों में हमारे मधुवन में बर्फ पड़ जाती है। नदीझीलें जम जाती हैं। भोजन की तलाश में ही तो हम चंपकवन आते हैं। अब जब हमारे मधुवन का मौसम अच्छा हो गया है तो वापिस लौटने में हर्ज ही क्या है?’’
टीकू सारस मुस्करा दिया। धीरे से बोला-‘‘यही बात तो मुझे परेशान कर रही है।
‘‘कौन सी बात? मैं समझा नहीं।’’ सीटू हंस ने पूछा। टीकू सारस ने जवाब दिया-‘‘हमें चंपकवन का धन्यवाद देना चाहिए। सोचो। चंपकवन जैसे वन न हों तो हम कहां जाएंगे? हम यहां तभी तो आ पाते हैं जब चंपकवन के पशुपक्षी शांतिप्रिय हैं। चंपकवन की हवा, झील, यहां का मौसम ही नहीं सब कुछ हमारे अनुकूल है।’’
युवी किंगफिशर ने चोंच उठाते हुए कहा-‘‘हम्म यार। ये तो मैंने भी कभी नहीं सोचा। बात तो तुम्हारी सोचने वाली है। तुम ठीक कहते हो। हम तो लाखों की संख्या में चंपकवन आते हैं। वो भी हर साल। यदि चंपकवन के पशुपक्षी हमारा स्वागत करने की बजाए हमसे लड़नेझगड़ने पर उतारू हो जाएं तो हम कर भी क्या सकते हैं? चंपकवन में कभी भी हमसे किसी ने झगड़ा नहीं किया। हमेशा हमारा स्वागत ही किया।’’
सीटू हंस भी सोच में पड़ गया। फिर बोला-‘‘ये तो है। लेकिन टिंकू के सोचने भर से क्या हो जाता है। हम कर भी क्या कर सकते हैं। यदि मनुष्य भी हमारे जैसा भोजन करने लगे तो क्या हम उन्हें रोक सकेंगे? नहीं न? जो बात हमारे वश में ही नहीं उस पर विचार क्यों करें?’’
टिंकू सारस ने कहा-‘‘सीटू भाई। मैं हर साल चंपकवन आता हूं। मेरी तरह सैकड़ों प्रजातियों के पक्षी यहां आते हैं। लेकिन हर साल झील का पानी कम होता जा रहा है। पानी हर साल मैला होता जा रहा है। यही नहीं हमारे भोजन में जो विविधता थी, वो भी धीरे धीरे लुप्त हो रही है। हरेभरे वृक्षों में कमी आ रही है। चंपकवन भी सिमटता जा रहा है। तुमने कभी गौर किया?’’
युवी किंगफिशर बीच में ही बोल पड़ी-‘‘अरे हां। मैं भी यही सोच रही हूं। वाकई। यदि ऐसा ही चलता रहा तो हमारा क्या होगा? मैं तो यह भी सोच रही हूं कि क्या हम अगले साल चंपकवन को खुशहाल देख भी पाएंगे या नहीं।’’
टिंकू सारस लंबी सांस लेते हुए बोला-‘‘दोस्तों। बस यही चिंता मुझे सता रही है। काश ! मनुष्य हमारी भाषा समझ पाते तो मैं जरूर उनसे कहता कि वनों को कंकरीट का जंगल बनाने से हम जीवजन्तुओं का जीवन खतरे में पड़ता जा रहा है। हम नहीं रहेंगे तो मनुष्य भी नहीं रहेगा। हम पारिस्थितिकी की एक कड़ी है। यह बात मनुष्य भलीभांति जानता तो है पर न जाने क्यों वह अपनी आंखों में काली पट्टी क्यों बंाध रहा है?’’
सीटू हंस ने उदास होते हुए कहा-‘‘हां दोस्तों। आप सही कह रहे हैं। देखा जाए तो चंपकवन भी हमारा है। भले ही हम यहां लगभग 6 महीने ही रह पाते हैं। खैर अब चलने की तैयारी करो और चंपकवन को अलविदा कहो। सब कुछ अच्छा रहा तो अगले साल फिर आएंगे।’’
‘‘चलो दोस्तों। तैयारी करो।’’ टिंकू सारस और युवी किंगफिशर ने अपने दोस्तों को पुकारा और वे खुद चंपकवन के साथियों से मुलाकात करने चल पड़े।  000

22 जुल॰ 2013

बाज़ार इतना बदल गया है!

***आज फुर्सत मिली तो देहरादून का मशहूर बाज़ार 'पलटन बाज़ार' घूम गया.खूब घूमा..
मैं हाथ से घुमाने वाला लट्टू खोज रहा था..लकड़ी या प्लास्टिक के लट्टू तो मिल ही जायेंगे.ये सोच कर निकला था. 

हर दुकानदार कहने लगा-''भाई साब. किस जमाने के बच्चो के खिलोने मांग रहे हो.'' 
एक ने कहा-''अब हाथ के बने खिलोने बनते ही नही.'' 
मैंने कहा-''बनते तो होंगे लेकिन आपके पास नही हैं.यूज़ एंड थ्रो का ज़माना है.टिकाऊ चीजें रखनी ही क्यों हैं.क्यों.?''
वो बोंला-''पता नही आपके  बच्चे को कहाँ से होश आ गया. इतने पुराने खिलोने की मांग जो कर रहा है.''
मैं चुप हो गया.
सोचता हूँ कि बाज़ार इतना बदल गया है! बच्चे का क्या दोष..? 
वो तो खुद हाथ से कई चीजें घुमा रहा है.
सेल से चलने वाले लट्टू तो मैं कई बार ले गया.तोड़ डाले उसने.कई चीजों को वो खुद ही हाथ से घुमा घुमा कर शायद घुमने-घुमाने  की प्रक्रिया को समझने-जानने का जतन कर रहा होगा.
खैर.... अजीब-सा लगा तो आपसे साझा करने का मन हुआ.
आप क्या सोचते हैं.?

10 जुल॰ 2013

बात खास भी नहीं तो आम भी नहीं है


बात कोई खास नहीं है तो मेरी नज़र में आम भी नहीं है। मेरे शहर का व्यस्तम बाजार और उसका एक तिराहा है। इस तिराहे पर समाचार पत्र-पत्रिकाओं और स्टेशनरी की एक दुकान है। अक्सर मैं इस दुकान पर कुछ देर ठहरता हूं। 

आज शाम हुआ यूं कि दुकान के बाहर से एक मां अपने बच्चे के साथ गुजरती है। अचानक मां की नज़र दुकान पर खड़े किसी सज्जन पर पड़ती है। वह उन्हें प्रणाम करती है और फिर पैर छूती है। फिर अपने नौ या दस साल के बच्चे से कहती है कि ये सज्जन वो हैं। प्रणाम करो। बच्चे के हाव-भाव बताते हैं कि वह असहज महसूस कर रहा है। मां अपने दांये हाथ से बच्चे के बांये कांधे के पीछे से जोर देकर झुकाते हुए कहती है कि प्रणाम करो। लेकिन बच्चा और तन कर खड़ा रहता है। मां झेप जाती है। वह सज्जन भी बुरी तरह झेंप जाते हैं, जिन्हंे वह अपने बच्चे से प्रणाम करने की आशा कर रही है। थोड़ी देर संवादहीनता बनी रहती है। फिर वो मां सिर झुकाकर अपने बच्चे के पीछे-पीछे आगे बढ़ जाती है। 
कल शाम का एक दूसरा वाकया भी सुनाता चलंू। इसी जगह पर पैंतीलीस-छियालीस वर्षीया मेरी परिचित एक महिला मिली। सड़क के दांयी ओर किनारें पर खड़े होकर हम बात करने लगे। दो हमउम्र बच्चे जिनकी उम्र बारह-तेरह साल के आस पास रही होगी। दोनों अलग-अलग साईकिल लेकर हमारे आगे खड़े हुए। दोनों ने साईकिल हमारे ठीक आगे झुके हुए स्टेण्ड पर खड़ी कर दी। 
एक बालक तो वहीं खड़ा रहा और दूसरा सामान खरीदने बगल की दुकान पर चला गया। हवा चल रही थी। मैं सोच ही रहा था कि हवा के झोंके से कहीं साईकिल गिर न जाए क्योंकि वह हिलने लगी थी और बच्चों ने उसे तिरछे तरीके से खड़े होने वाले स्टैण्ड पर ही खड़ी की थी। साईकिल गिर ही गई। जो साईकिल गिरी,वह ठीक उस महिला के आगे खड़ी थी, जिससे मैं बात कर रहा हूं। दूसरा बच्चा गिरी हुई साईकिल को उठाने के लिए झुकते हुए महिला से कहता है-‘‘क्या आंटी यार। आप भी न। साईकिल गिरा दी यार।’’
मैं भी और वह महिला भी हैरान। वो तो कुछ कह नहीं पाई लेकिन मैं चुप नहीं रह पाया। मैंने कहा-‘‘एक तो बीचों-बीच साईकिल खड़ी कर रहे हो। फिर साईकिल कैसे गिरी, यह देखा भी या यूं ही हवा में कह रहे हो। फिर ये आंटी तुम्हारी यार है।’’
बच्चा कहने लगा-‘‘अंकल यार मतलब सिम्पल बोला जाता है।’’
मैंने फिर कहा-‘‘तो तुम घर पर भी अपनी मम्मी को-दादी को यार कहोगे। स्कूल में मैडम को भी?’’ यह सुनकर वह चुप हो गया।

अब आप कह सकते हैं कि यह तो कोई बात नहीं। आजकल के बच्चे ऐसे ही हैं। लेकिन आजकल के बच्चे ऐसे क्यों हैं? ये तो एक बानगी भर है। बच्चों को गौर से देखें। उनकी बातें सुनें। उनकी गतिविधियों को गहरे से अवलोकन करें तो बहुत कुछ अच्छा नज़र नहीं आएगा। आप कह सकते हैं कि पहले वाले किस्से में जरूरी नहीं कि बच्चा अपरिचित को प्रणाम करे। पैर छुए। लेकिन जब मां भी अदब से पैर छू रही है, तब? मां कह भी रही है कि बेटा प्रणाम करो। तब भी? क्या माता-पिता बच्चों में रिश्ते-नातों-परिचितों से कैसे पेश आना है,इसकी नसीहत भी न दें? आखिर बच्चा असहज क्यों हो रहा था? बच्चे का इतना अंतर्मुखी हो जाना ठीक है? आप कह सकते हैं कि यह जरूरी नहीं कि माता-पिता जिस परिवेश में रहते आए हैं, बच्चों को भी जबरन उसी में ढाला जाए। क्या जीव-जंतुओं में बच्चों को स्वछंद और उन्मुक्त छोड़ दिया जाता है, आज की नई पौध भी ऐसा चाहती है?
दूसरे वाकये में बीचों-बीच सड़क पर वह भी दांयी ओर साईकिल खड़ी करना ठीक था? आप कह सकते हैं कि आप भी तो दांयी ओर ही खड़े थे। दुकान बांयी ओर थी और महिला दांयी ओर खड़ी थी, मैंने ठीक समझा कि मैं ही उन महिला के पास जाकर बात कर लूं बजाए कि वह सड़क के बाई ओर आए। फिर उस छोटे से बच्चे का बिना जाने उसकी अपनी मां की उम्र से ज्यादा उम्र की महिला से ऐसे लहजे में बात करना ठीक था?
आप कह सकते हैं कि बच्चे हैं? बच्चे धीरे-धीरे ही समझते हैं। मानता हूं लेकिन जिस तरह वह गरदन झटक कर चेहरे पर भाव लाकर कह चुका था, वह मुझे नागवार गुजरा। मैंने फिर भी बातचीत को हल्का-फुल्का माहौल देने की कोशिश की। ताकि वह महसूस करे कि कुछ ऐसा घटा है जो ठीक न था। आप क्या कहते हैं। कुछ कहेंगे?

28 जून 2013

आजकल के बच्चे न तो कहानी पढ़ रहे हैं न ही सुन रहे हैं

‘आजकल के बच्चे न तो कहानी पढ़ रहे हैं न ही सुन रहे हैं।’

 ‘बालपत्रिकाएं भी सिमटती जा रही हैं।’ 

‘बच्चे कार्टून ही पसंद करते हैं।’


 इस तरह के जुमले आए दिन सुनने को मिलते हैं। लेकिन यह तसवीर आधी-अधूरी है। हाल ही में मुझे तेरह से अठारह साल के लगभग एक सौ से अधिक बच्चों के साथ एक दिन बिताने का मौका मिला। यह बच्चे चार अलग-अलग सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले या पढ़ चुके बच्चे थे। कहानी लेखन एक दिन में तो हो नहीं सकता था। फिर भी मैंने कोशिश की कि बच्चों के साथ कहानी कला पर औपचारिक बात की जा सके। मैंने प्रख्यात लेखक रामदरश मिश्र की कहानी ‘पानी’ का खुद सस्वर वाचन किया। मैंने कोशिश की कि सभी बच्चों को कहानी के संवाद उसी लहज़े में सुनाई दें, जिस लहज़े में वे कहानी में कहे गए हैं। आप भी कहानी की कथावस्तु पढ़ लीजिए। 
'पानी' कहानी में मंगल और उसके बेटे रामहरख को रास्ते में साइकिल से गिरे परमेसर बाबू बेहोश पड़े हुए मिलते हैं। रामदेव गांव में ऊंची जाति के बड़े काश्तकार हैं। गांव के हर बड़े-छोटे उनकी चैपाल पर आकर बैठते हैं। परमेसर बाबू उन्ही का बेटा है। मंगल और उसका परिवार बरसों से रामदेव के यहां बेगार करता रहा है। तंग आकर जब मंगल ने रामदेव की हलवाही छोड़ दी तो गुंडों ने लाठी से पीटा अलग और उनकी झोपड़ी उजाड़ दी थी। ठाकुर बामन और छोटी जात का मसला गांव में है। रामहरख शहर में पढ़ने लगा है। वह पुरानी बात याद कर अपने पिता को परमेसर बाबू को इसी हाल में रहने देने के लिए राजी कर देता है और दोनों आगे बढ़ने लगते हैं।  फिर भी मंगल को लगता है कि प्यासा तड़प रहा कोई जानपहचान के आदमी को यूं ही छोड़कर आगे बढ़जाना अधर्म है। वह लौट पड़ता है और रामहरख भी पीछे-पीछे लौट पड़ता है। 

बेहोश परमेसर पानी मांगता है। जून की दोपहरी में अब पानी कहां से लाया जाए। उनके पास लोटा-डोरी था और पास में कुआं भी था। रामहरख कहता है कि एक तरफ इन्सानियत है और दूसरी तरफ उनकी छोटी जाति। अब क्या करें। मंगल जवाब देता है कि इन्सानियत जाति से बड़ी होती है। रामहरख कुएं से पानी भर कर ले आता है। फिर दोनांे उसे पानी पिलाते हैं। यही नहीं दोनों उसे किसी तरह उनके घर पहुंचाते हैं। 

रामदेव बाबू पूजा में बैठे हुए थे। दरवाजे पर गांव के कई लोग थे। पूछा तो मंगल ने सारा किस्सा सुना दिया। पानी का नाम सुनकर रामदेव खड़े हो जाते हैं और दोनों को धर्म नष्ट करने की बात कहते हैं। गुस्से में आकर वह मंगल पर अपनी खड़ाऊं खींच कर दे मारते हैं। रामहरख प्रतिकार करता है। रामदेव दाण्ेनों को भाग जाने की सलाह देता है।तभी परमेश्वर बाबू दोनों को अपने पास बुलाने की बात कहते हैं। वह मंगल को चाचा कहकर संबोधित करता है। ठाकुर रामदेव चिल्लाता है। रामदेव बहस करने लगता है और कहता है कि जान बचाने वाले के लिए यदि इस घर मंे कोई जगह नहीं है तो मैं भी इस घर में नहीं रह सकता।

 बुखार से तप रहा परमेश्वर धम्म से खाट पर से नीचे गिर पड़ता है। रामदेव का पुत्र मोह जागता है और वेदना भरी निगाहों से वह मंगल और रामहरख को देखता है। मंगल ओर रामहरख चुपचाप अपने रास्ते की ओर चल पड़ते हैं।  


मैंने इस कहानी का चयन बस इस लिहाज़ से किया था कि इसके वाक्य सरल हैं। पात्रों के लिहाज़ से भी यह मुझे उचित लगी। पृष्ठभूमि भी ग्रामीण थी। कहानी को पूर्व में पढ़ते समय मैंने अनुमान लगाया था कि बच्चों के साथ कहानी पर बातचीत शुरू करने में संभवतः थोड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 

कहानी पढ़ लेने के बाद जब मैंने बच्चों से यह कहा कि अब इस कहानी पर बातचीत करनी है। एक-एक कर कई बच्चे अपनी बात रखने को आतुर दिखे। बताता चलूं कि अभी मैंने कहानी के शिल्प पर या कहानी की विशेषताओं पर कोई बात नहीं की थी। मैंने बच्चों के साथ चार घण्टे बिताए। बच्चों ने अंत में कई सारी कहानियों की विषयवस्तु मुझे बताई, जिसे वे कहानी की शक्ल देना चाहते हैं। लेकिन इससे अच्छा बच्चों को कहानी सुनना ज्यादा पसंद आता है। वे कहानियों पर तर्क करना चाहते हैं। अपने विचार व्यक्त करना चाहते है। 

बच्चों के पास अपना नजरिया होता है। वह इतना ठोस और तर्क से भरा होता है कि कभी-कभी ऐसा लगता है कि जीवन को बच्चे भी बेहद गहराई से देखते हैं। महसूस करते हैं। मैं इस नतीजे पर पहूंचा हूं कि बच्चे चाहते हैं कि वे कहानी सुने और पढ़ें। वे यह भी चाहते हैं कि उनकी बात को सुना जाए। जब वे इतना सब चाहते हैं तो लिखना भी चाहेंगे। मैं जो थोड़ा बहुत बच्चों की मनःस्थिति को समझ पाया हूं, उनमें कुछ आपके सामने रखने की कोशिश करता हूं। 

ऽ    कहानी का कथ्य अच्छा हो और कहन स्पष्ट हो तो श्रोता अंत तक कहानी को धैर्य से सुनते हैं।

ऽ    कहानी यदि सरल और सहज हो। संवादांे में पिरोई हुई हो, तो श्रोता को आनंद आता है। 

ऽ    कहानी यदि किसी घटना या आकस्मिक कही गई रोचक बात से शुरू हो तो रोचकता बनी रहती है। 

ऽ    कहानी के पात्रों में यदि असहमतियां हों, विचारांे मंे भिन्नता हो तो जिज्ञासा बनी रहती है। 

ऽ    कहानी का परिवेश कुछ ऐसा हो कि श्रोता उसके देश काल और परिस्थितियों की कल्पना करने लगें तो कहानी पर बातचीत की संभावना बढ़ जाती है।

ऽ    कहानी के पात्रों के नाम और उनका स्वभाव भी चित्रित हो, तो रोचकता बनी रहती है। 

ऽ    भले ही कहानी सीधी और सपाट रास्ते से चल रही हो, लेकिन कहानी की कथा में जिज्ञासा बनी रहे तो कहानी की लोकप्रियता में कोई संशय नहीं हो सकता। 

ऽ    कहानी में कोई प्रकरण,बात,मुद्दा या पात्र केन्द्र में हो तो श्रोता कहानी के विविध पक्षों पर विचार करने लगता है। 

ऽ    कहानी में हर पात्र के चरित्र का चित्रण उसके संवादों से ही उभरे तो श्रोता को सीख देने और समझाने का भाव नहीं आता। श्रोता चरित्रों के आचरण और बातचीत से ही उनके गुणों का आकलन कर लेते हैं। 

ऽ    कहानी के शीर्षक पर श्रोता अपनी बेहतरीन राय देते हैं। एक कहानी के कई शीर्षक श्रोता रखे गए शीर्षक से अच्छा सुझा पाते हैं। इसका अर्थ यही हुआ कि श्रोता कहानी को गहरे से आत्मसातृ कर रहे होते हैं। यह जरूरी नहीं कि लेखक ही कहानी का सबसे सटीक और अंतिम शीर्षक रखने में माहिर हो।

ऽ    श्रोता कहानी के बाद बड़ी आसानी से और विचार कर पात्रांे के व्यवहार मंे गुण-दोष निकाल लेते हैं। वह यह भी सुझा देते हैं कि फलां पात्र को ऐसा नहीं कहना चाहिए था। फलां पात्र को ऐसा नहीं करना चाहिए था।

ऽ    श्रोता हर कहानी के सामाजिक यथार्थ का भी आकलन कर लेते हैं। कई बार लेखक के द्वारा किसी चरित्र के साथ भरपूर न्याय होता-सा नहीं दिखता। श्रोता कहानी के आगे की कहानी भी गढ़ लेते हैं। यह कहानी की सफलता ही मानी जानी चाहिए कि कहानी के अंत हो जाने के बाद भी श्रोता कहानी के भीतर और कहानियों को खोज लेते हैं और चर्चा में उसे रेखांकित करते हैं। 

ऽ    श्रोता कहानीकार से यदि पात्र ऐसा कहता, यदि कहानी में कुछ ऐसा हो जाता तो कैसा होता। ऐसी कई संभावनाओं को तार्किकता के साथ रखते हैं। यह बेहद महत्वपूर्ण है। यह जरूरी नहीं कि जब कहानी रची गई हो, तब भी और अब भी जब कहानी पढ़ी या सुनी जा रही हो, में समाज मंे सामाजिक-राजनैतिक और परम्परागत संस्कार एक जैसे रहे हों। दूसरे शब्दों में कहानी कभी मरती नहीं। हां उसके मायने आज के सन्दर्भ मंे कुछ बदल जाते हैं। या यह भी संभव है कि यदि कथा यथार्थ से मेल नहीं भी खाती है तो श्रोता उस देशकाल और परिस्थितियों की कल्पना कर लेते हैं। यह कहानी की विशेषता मानी जानी चाहिए। 

ऽ    तमाम मत-मतांतर के और कहानीकार की विहंगम दृष्टि के बाद भी श्रोता कहानी से जो आनंद ले पाया है उसे हमेशा संदेश-सीख और निष्कर्ष के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए। हम आज जो कहानी एक समूह में सुनाते है वही कहानी कल किसी दूसरे समूह में सुनाते हैं तो एक ही कहानी पर जुदा-जदुा राय-मशविरा सामने आते हैं। लेकिन श्रोता की राय से हर बार इत्तफाक न रखना भी ठीक नहीं है। 

ऽ    श्रोता यह जानते हुए भी कि कहानी काल्पनिक हो सकती है। कहानी आनंद के लिए होती है। कहानी में जरूरी नहीं कि सब कुछ वास्तविक सा हो। फिर भी श्रोता चाहते हैं कि कहानी में आदर्शात्मकता से अधिक कुछ तो यथार्थ का अंश हो। यानि अधिकतर श्रोता चाहते हैं कि कहानी में किसी भी पात्र के साथ अन्याय न हो। इसका अर्थ यह हुआ कि कहानी मानवीय मूल्यों की रक्षा करती हुई होनी ही चाहिए। 
सही भी है कि यदि दुनिया में नैतिकता और मानवता ही न रहे तो यह समाज मानव समाज कहां कहलाएगा। लेकिन श्रोता इसे ठूंस गए जबरन थोपे जाने वाली शैली से स्वीकार करना नहीं चाहते।  

कुल मिलाकर यह कहना गलत न होगा कि हम बड़े बिना बच्चों से गहराई से बात किये बिना बालसाहित्य की दिशा और दशा पर विद्धता भरे विचार व्यक्त कर देते हैं। 
मुझे लगता है कि बालसाहित्य का भविष्य उज्जवल है और बच्चे साहित्य से विमुख हो ही नहीं सकते।

26 जून 2013

उत्तराखण्ड के जनपद उत्तरकाशी में आयोजित राष्ट्रीय बालसाहित्य संगोष्ठी

     राष्ट्रीय बालसाहित्य संगोष्ठी 
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उत्तराखण्ड के जनपद उत्तरकाशी में आयोजित राष्ट्रीय बालसाहित्य संगोष्ठी में शामिल होने का मौका मिला। यह संगोष्ठी बाल प्रहरी और अजीम प्रेमजी फाउण्डेशन के तत्वाधान में सम्पन्न हुई। सात जून से प्रारम्भ हुई यह संगोष्ठी 9 जून 2013 को समाप्त हुई। बाल प्रहरी की बाल साहित्य संगोष्ठी में पहली बार शामिल होने का अवसर मिला। अच्छा लगा। तीन दिवसीय संगोष्ठी में बाल साहित्य में विज्ञान लेखन, बाल साहित्य में बाल पत्रिकाओं का योगदान, बालसाहित्य एवं शिक्षा, बाल विज्ञान कथा विश्लेषण के साथ-साथ अप्रत्यक्ष तौर पर बाल कविता पर भी चर्चा हुई।
अजीम प्रेमजी फाॅउण्डेशन के सहयोग से यह संगोष्ठी सम्पन्न हुई। बाल साहित्य में विज्ञान लेखन सत्र बेहद महत्वपूर्ण रहा। किन्तु इस सत्र में व्यापक बहस और चर्चा की आवश्यकता महसूस की गई। सभी सत्रों में दो-दो बाल साहित्यकारों को सत्रों पर अपनी बात रखने का अवसर दिया गया था। फिर अध्यक्षीय संबोधन भी था, किन्तु समयाभाव के कारण प्रत्येक सत्र में विशेषज्ञों और अध्यक्षीय संबोधन में अधिक प्रकाश डालने के कमी अवश्य खली। खुला सत्र में पर्याप्त समय के अभाव के चलते कई प्रश्न और जिज्ञासा बंद रह गए। उपस्थित बाल साहित्यकार हर सत्र में अपनी बात रखना चाह रहे थे, लेकिन सत्र संचालकों ने खुले सत्र को भी तीन चार प्रश्नों तक ही समेट दिया। कारण स्पष्ट था कि अगले सत्र के प्रारम्भ होने की भी चिंता थी।
इसके साथ-साथ एक बात और देखने को मिली कि संबंधित सत्रों के लिए पृच्छा विषय से इतर अनावश्यक अधिक रही। अपनी बात कहने वाले और प्रश्न पूछने वाले सहभागी विषय से भटकते रहे। यही कारण रहा कि अपेक्षित समय भी अनावश्यक चर्चाओं में जाया हुआ। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आगामी संगोष्ठियों में विभिन्न सत्रों के चलते एक मुख्य सत्र ही रखा जाए।
    यदि उपरोक्त सत्रों के हिसाब से नये और उदीयमान बाल साहित्यकारों की सहभागिता देखी जाए और निष्कर्ष के रूप में कुछ सार निकाला जाए तो संभवतः कोई भी सत्र अपने सार-निष्कर्ष तक नहीं पहंुच पाया। यानि हर सत्र के विषय और गंभीर चर्चा और बहस की दरकार रखते थे।
अमूमन संगोष्ठियों में ऐसा ही होता है, लेकिन व्यवस्थित और समयपूर्व यदि तैयारी हो तो सत्रों के विशेषज्ञों के विचार लिखित में सहभागियों को बंट जाएं। इससे सहभागी भी अपनी पूर्व धारणा और एक्सपर्ट के विचारों से मानसिक रूप से जुड़ सकते हैं और बहस-चर्चा के उपरांत एक राय तक पहुंच सकते हैं। संभव है कि कई बार विशेषज्ञों का आना ऐन वक्त पर टल जाता है, तो दूसरे विकल्प पर भी आयोजकों को विचार कर लेना चाहिए।
एक बात और है कि सहभागी भी कई बार मूल चर्चा-प्रश्न-बहस से इतर भटक कर चर्चा को नई और अतार्किक बहस की और ले जाते हैं। कई बार सहभागियों की इच्छा यह भी रहती है कि उन्हें भी सुना जाए, उनके काम और उपलब्धियों पर भी रोशनी पड़ जाए। लेकिन किसी समयबद्ध और तय सत्रों के मध्य ऐसा कर पाना और ऐसा हो पाना संभव नहीं होता।
    मुझे तो ये लगता है कि या तो संगोष्ठियों में सभी सहभागी अपना जीवन वृतांत और उपलब्धियों का विवरण सहभागियों की संख्या के अनुसार छायाप्रति लेकर आएं और सबको बांट दे। या फिर आयोजक ऐसा स्लाइड शो तैयार करे जिसमें उपस्थित सभी सहभागियों का विवरण सब देख लें। अधिकतर संगोष्ठियों में सहभागी सुनने कम सुनाने ज्यादा लगते हैं। वह भी विषय से हटकर और उद्देश्यविहीन बातों पर समय बिताने लगते हैं। परिणाम यह होता है कि मुख्य सत्रांे के गंभीर व्याख्यान सारगर्भित होते हुए भी अपना वह असर नहीं छोड़ पाते जो उन्हें तय करते समय संभवतः आयोजकों ने सोचें हों या जिनकी संभावना रही हो। 
संगोष्ठियों को विधावार भी होना चाहिए। बाल कवि, बाल कथाकार को भी चाहिए कि वाह बाल नाटककार को सुने। महसूस करे। अन्य विधाओं पर भी संगोष्ठी हो सकती है। बालसाहित्य पर चर्चा विहंगम दृष्टिकोण चाहती है। अच्छा हो कि हम कहानी, कविता, नाटक, डायरी लेखन, उपन्यास, आदि विधाओं को अलग-अलग संगोष्ठियों का हिस्सा बनाएं। एक तो सहभागी अधिक हो सकेंगे और विशेषज्ञ कम। दूसरा अन्य विधाओं से भी परिचय हो सकेगा। अक्सर बाल साहित्यकार कविता और कहानी में खुद को बेहतर समझते हैं और इस पर अपनी अच्छी पकड़ मानकर चलते हैं। जबकि हम सब जानते हैं कि सीखने-जानने और खुद को तराशने की संभावना हमेशा बनी रहती है।
विषम परिस्थितियों में और उत्तरकाशी में तीन दिवसीय आयोजन होना अपने आप में उपलब्धि है। बाल प्रहरी के साथ-साथ अजीमप्रेमजी फाउण्डेशन भी और दूर-दूर से आने वाले बाल साहित्यकार बधाई के पात्र हैं।
संगोष्ठी में उत्तराखण्ड, उत्तरप्रदेश, बिहार , राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा, दिल्ली, झारखण्ड, गुजरात राज्यों के सौ से अधिक बालसाहित्यकारों एवं साहित्यप्रेमियों ने सहभाग किया। दस से अधिक बाल साहित्य पर केन्द्रित पुस्तकों का विमोचन भी किया गया। बाल साहित्य संस्थान, अल्मोड़ा द्वारा संग्रहीत नई-पुरानी बाल साहित्य पत्रिकाएं प्रदर्शनी में अवलोकनार्थ भी रखी गईं। बाल साहित्यकारों ने बाल कविताओं पर आधारित कवि सम्मेलन में भी सहभाग किया। बाल साहित्यकारों में प्रमुख रूप से डाॅ0 राष्ट्रबंधु, मुरलीधर वैष्णव, गुरुवचन सिंह,राजेश उत्साही, डाॅ0रामनिवास ‘मानव’, रमेश तैलंग, डाॅ0हरिश्चन्द्र बोरकर, गोविन्द भारद्वाज, डाॅ0 भैरूलाल गर्ग, डाॅ महावीर रंवाल्टा, डाॅ0 परशुराम शुक्ल, डाॅ0मधु भारतीय, डाॅ0अशोक गुलशन, मुरलीधर पाण्डेय, डाॅ प्रीतम अपच्छयाण, रेखा चमोली, विमला भण्डारी, अमरेन्द्र सिंह, खजान सिंह, डाॅ शेषपाल सिंह शेष, अखिलेश निगम, देश बन्धु शाहजहां पुरी, दयाशंकर कुशवाहा, गोविन्द शर्मा, रतन सिंह किरमोलिया, नीरज पंत, प्रमोद पैन्यूली, मंजू पाण्डे उदिता, जगमोहन कठैत, जगमोहन चोपता,  उदय किरौला, नवीन डिमरी बादल, मोहन चैहान, सतीश जोशी, प्रदीप बहुगुणा ‘दर्पण’ (सभी के नाम शामिल न करने का खेद है) आदि ने विभिन्न सत्रों में अपने विचार भी व्यक्त किये।
000 मनोहर चमोली ‘मनु’
काण्डई,पोस्ट बाॅक्स-23,पौड़ी,पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखण्ड 246001.
सम्पर्कः 09412158688.
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25 मई 2013

गुल्लक रखने की परंपरा कहीं न कहीं जीवित तो है।

रिश्तेदारी में एक विवाह है। बारातियों के स्वागत-सत्कार के लिए सफेद लिफाफों में जो नये नोट देने का रिवाज है, उसके लिए नये नोटों का बमुश्किल से प्रबंध हुआ। 
 
अब समस्या हुई कि एक-एक रुपए के नोट कहां से लायें। मिले ही नहीं। सिक्कों का मिलना भी दूभर है आजकल। सब परेशान हो गए। लगभग एक-एक रुपए के छह सौ सिक्के अब आएंगे कहां से? आटो वालों से, सिटी बस वालों से भी बमुश्किल 100 सिक्के ही इकट्ठा हो पाये। 
 
अचानक मुझे सूझा कि जिन घरों में बच्चे हैं, वहां सिक्के होंगे। गुल्लक मांगे जाएं। बस फिर ढूंढ-खोज शुरू हो गई। 
 
एक घर से 150 दूसरे घर से 100 और तीसरे घर से 250 रुपये के सिक्के मिल गए। अच्छा लगा कि गुल्लक रखने की परंपरा कहीं न कहीं जीवित तो है। 
 
भले ही यह परंपरा अब धीरे-धीरे लुप्त हो रही है। आप क्या कहते हैं? 

16 मई 2013

प्रकाशित-अप्रकाशित रचना के बारे में.

प्रकाशित-अप्रकाशित रचना के बारे में

1. मुझे लगता है कि सबसे पहले तो रचना महत्वपूर्ण है न कि संपादक और न ही वह पत्रिका या पत्र, जिसने रचना को सबसे पहले छापा है। तो क्या कोई रचना एक बार छप जाने पर दोबारा छपने लायक नहीं रह जाती?
2. पाठक लगातार बनते हैं, छूटते भी हैं। नये पाठक जुड़ते हैं। यह क्या बात हुई कि जो रचना एक बार कहीं छप गई उसे दोबारा कहीं ओर न छापा जाए। क्यों? बाल रचनाआंे के बारे में ही क्या सभी प्रकार की रचनाओं पर यह नियम लागू क्यों हो? एक तो हर पाठक हर पत्रिका नहीं पढ़ता और न ही हर पत्र उसके घर में आता है। कई बार तो एक ही पत्रिका के एक-दो अंक अमूमन हर किसी से या तो छूट जाते हैं या पाठक भूलवश या अन्य कारण से खरीद नहीं पाता। तब? तब यदि उसे रचना किसी दूसरी पत्रिका में पढ़ने को मिल जाए तो दिक्कत क्या है?

3. एक बात जो हमारे खुद के अनुभव से भी जुड़ी है और पुष्ट होती है कि पहले रचनाकार महत्वपूर्ण है, जो रचना का जन्मदाता है। वो संपादक या वह पत्र-पत्रिका जो यह बंदिश लगाते हैं कि आप हमें अप्रकाशित रचना ही भेजें। क्या यह जरूरी है कि अप्रकाशित रचना ही पढ़े जाने योग्य होगी? संभव है कि नहीं भी। यह भी कि यदि कोई रचना सार्वभौमिक हो जाए तो उसका दायरा सीमित करने का अधिकार किसी को भी क्यों दिया जाए?
4.रचना कालजयी हो सके, पाठक के मन-मस्तिष्क में गहरे पैठ बना सके। इसके लिए रचनाओं की संख्या नहीं उसकी ग्राह्यता महत्वपूर्ण है। रचनाकार कोई मशीन तो है नहीं जिसकी कलम से बाजार की मांग के अनुसार नित नई रचनाएं पैदा होती रहें। भले ही कम रची जाएं पर वो लोकहित में हो। लोक जीवन में पसंद की जा सकें।
5. अप्रकाशित रचना का नियम वहां तक तो ठीक है जहां पत्र-पत्रिका सम्मानजनक मानदेय देते हों। आप औसत मानदेय भी नहीं दे रहे हैं और वो भी पाबंदी के साथ। उस पर तुर्रा यह कि जी हमें अप्रकाशित ही भेंजे। भेजने के बाद आप रचनाओं को साल-साल भर तक रोक कर रखें।
6. अप्रकाशित रचना भेजने के सन्दर्भ में यह तर्क देना कि पाठक रुपये खर्च कर के पत्रिका खरीदता है उसे बासी या पुरानी रचना दोबारा क्यों परोसी जाए। ऐसा मान लेना कुछ हद तक ठीक ह,ै लेकिन यह पैमाना कहां तक ठीक है कि पाकीजा या दिल वाले दुल्हनियां ले जाएंगे मैंने तो देख ली है फिर सिनेमा में दोबारा क्यों लगे?
7.यहां यह कहना आवश्यक है कि संपादक या कोई पत्र या कोई पत्रिका इस मुगालते में क्यों रहे कि उसने कोई रचना पहले छाप दी है तो बस अब वह रचना उसकी हो गई या दूसरों के लिए बेकार हो गई। अगर रचना बोलती है। रचना महत्वपूर्ण है तो वह कहीं भी बार-बार छपे, उसका स्वागत ही किया जाना चाहिए। प्रेमचंद की कई कहानियां इसकी गवाह हैं। यह भी कि अच्छे गाने बार-बार सुने जाते हैं। ठीक उसी प्रकार अच्छी रचना बार-बार पढ़ी भी जानी चाहिए। संपादक यदि किसी रचना को पहले पढ़कर यह जान भी चुका है कि यह रचना उसने किसी ओर पत्रिका में पढ़ ली है तो अपने यहां ससम्मान जनक स्थान देने पर वह घिस नहीं जाएगा। रचनाकार के लिए यह और सम्मानजनक स्थिति होगी और संभव है कि रचनाकार स्वयं से ही संपादक को नितांत अप्रकाशित रचना भेजने के लिए कटिबद्ध हो जाए।
8. कुछ पत्र और पत्रिकाएं रचनाओं के लिए कोई नियम नहीं थोपती। यह अच्छी बात है। लेकिन इसका यह अर्थ कहां हुआ कि उन्हें प्राप्त सभी रचनाएं प्रकाशित ही होंगी। छपी हुई रचनाएं यदि उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए बहुपयोगी होगी तो छपती हैं। यह भी कि यदि अप्रकाशित रचनाएं बहुपयोगी नहीं होती तो कौन सा वह भी छपती ही हैं? हां सकारात्मक बात यह है कि हर पत्र को और पत्रिका को और संपादक को चाहिए कि वह ध्यान रखे कि उनके पाठक को जायका बासी न लगे और यह भी कि नित नये जुड़ने वाले पाठक यह आश्वस्त हो जाएं कि अनमोल और धरोहर के साथ-साथ नई-ताज़ी रचनाएं भी उन्हें पढ़ने को मिल रही है।
 
 
आप क्या कहते हैं इस बारे में? बताएंगे तो मुझे भी एक राह मिल जाएगी।

11 मई 2013

कठिन से कठिन समस्याओं का समाधान गारंटी से

कठिन से कठिन समस्याओं का समाधान गारंटी से

यदि मैं आप से कहूं कि एक रास्ता है, जिस पर चलकर 'कठिन से कठिन सभी समस्याओं का समाधान गारन्टी से किया जाता है' तो आप हैरान  जरूर हो जाएंगे। है न? 
 
मैं खुद हैरान हूं कि भला ऐसा कैसे हो सकता है। सुबह अखबार में एक इश्तहार नत्थी मिला। जिस पर्चे में लिखा था कि कारोबार का न चलना, लाभ, हानि, नौकरी, पद, स्थान, तबादला, विवाह, सम्बन्ध, विदेश यात्रा में रूकावट वशीकरण, ऊपरी असर, जादू-टोना, किया-कराया, गन्दी हवा, देवता बन्धन, सन्तान का न होना, गृह कलेश, कन्या ही कन्या होना, मुकदमा अदालत, दवाई का असर न होना,पुराने से पुराना कष्ट आदि समस्याओं का समाधान व उपाय मन्त्र-तन्त्र द्वारा विधि पूर्वक गारन्टी से किया जाता है। बाकायदा मोबाइल नम्बर पर्चे मे छपा है। मिलने का स्थान एक होटल है। हर दिन मिलें। ऐसा लिखा गया है। ये सब ज्योतिष विद्या द्वारा चमत्कार के रूप में किया जाएगा। 
 
 
मैंने पर्चे को दो बार पढ़ा। हंसी आ गई। दुख भी हुआ और गुस्सा भी आया। इस इक्कीसवीं सदी में भी कुछ लोग ठग विद्या से दूसरों को गुमराह कर पैसा कमा रहे हैं। सोच रहा हूं कि ये जो भी हैं। हर जगह हैं। अपना और परिवार का पेट पाल रहे हैं। अपने बच्चों को भी इसी लूट-पाट-ठगी के क्षेत्र में ले जाएंगे?
 
 काश...! इन ठगों के बच्चे भी यदि कहीं ठगे जाएं तो इन्हें पता चले कि किसी को ठगना किसी पाप से कम नहीं है। यह कहना कि इनके बच्चे भी ठगे जाएं का आशय सिर्फ इतना है कि कम से कम नई पौध इस कुत्सित कुव्यवसाय को अपना रोजगार कदापि न बनायें। 
आप क्या कहते हैं?