12 मई 2015

वृक्ष कथा : राज मुकुट 
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-मनोहर चमोली ‘मनु’
पौ फटते ही समूचा वन क्षेत्र पक्षियों के कलरव से गूंजने लगा था।पूरब की ओर क्षितिज लालिमा लिए हुई सुबह होने का संकेत दे चुका था। शहजादा सलीम के घोड़े की टाप से कई जीव-जंतु उचक-उचक कर अपनी उपस्थिति का अहसास करा रहे थे। शहजादा सलीम जैसे ही तिलस्मी नदी की ओर बढ़ा तो उसे किसी के रोने की आवाज सुनाई दी। सलीम ने अपनी तलवार खींच ली। वह आवाज की दिशा की ओर मुड़ते हुए बोला-‘‘कौन है वहां? सामने आओ।’’

सिसकती हुई आवाज फिर आई-‘‘शहजादे सलीम। इधर आइए। मैं चंदन का वृक्ष हूं। इधर, जिस पर यह हरी-भरी लता लिपटी है।’’
शहजादा ने अपनी तलवार म्यान में रख दी और वह चंदन के वृक्ष के पास जा पहुंचा। 
वृक्ष के भीतर से आवाज आई-‘‘शहजाते सलीम। वक़्त बहुत कम है। मैं राजा मानवेन्द्र प्रताप सिंह हूं। आवेश में आकर मैंने अपना मुकुट अपने सलाहकार को पहना दिया। मुझे शर्त लगाने का शौक रहा है। एक दिन में सलाहकार के साथ अपने बागीचे में टहल रहा था। मेरे सलाहकार असलम बेग ने मुझे एक प्राचीन कुआं दिखाया। वह मेरे बागीचे में ही था। वह सूखा हुआ था। मेरा मुकुट उस कूप में गिर गया। सलाहकार ने कहा कि अब यह मुकुट बाहर कैसे आएगा। मैंने सैनिकों को बुलाना चाहा तो मेरा सलाहकार बोला कि ऐसे नहीं। यदि आप वाकई राजन् हैं तो विवेक से इसे बाहर निकालिए। शर्त यह है कि न इसे रस्सी डालकर निकाला जाए, न ही किसी जीव की मदद ली जाए और न ही सीढ़ी डालकर मुकुट को निकाला जाए। यदि कोई युक्ति लगा सकें तो लगाइए। पूरा एक वर्ष आपको दिया जाता है। यदि एक वर्ष के भीतर आप अपने मुकुट को निकाल सके तो मैं क्या मेरी आने वाली सात पीढ़ीयां राजमहल की निःशुल्क सेवा करेगी यदि नहीं तो राजगद्दी मुझे सौंप दीजिए। आप चाहे तो इस संबंध में किसी की भी सलाह ले सकते हैं। कहिए मंजूर।’’
‘‘ओह! यह बात है।’’ शहजादा सलीम बोला।
वृक्ष के भीतर से आवाज आई-‘‘बस फिर क्या था मैंने आवेश में अपने सलाहकार की बात मान ली। मैंने सोचा कि कोई न कोई तो मुझे कूप में गिरे मुकुट को निकालने की तरकीब बता ही देगा। एक बरस का समय तो बहुत होता है। लेकिन मैं एक साधू के कहने पर इस तिलिस्म नदी के पास आ गया और गलती से मैंने इस नदी का पानी पी लिया और मैं वृक्ष बन गया। एक बरस पूर्ण होने को बस सात दिन शेष हैं। यदि वह मुकुट नहीं निकला तो मैं अपनी राजगद्दी कभी हासिल नहीं कर सकूंगा और हमेशा वृक्ष ही बना रहूंगा। मेरी मदद करो।’’
शहजादा सलीम बोला-‘‘लेकिन तुम्हें दोबारा इंसानी जिस्म में कैसे लाया जा सकता है?’’
वृक्ष के भीतर से आवाज आई-‘‘पहाड़ी के उस पार काला राक्षस रहता है। उसका एक दांत पत्थर का है। यदि वह किसी तरह तोड़ दिया जाए तो मैं दोबारा इंसानी शक्ल में आ सकता हूं। लेकिन वक्त कम है।’’ शहजादा सलीम ने इससे आगे कुछ नहीं सुना। वह अपने घोड़े पर सवार होकर पहाड़ी के दूसरी ओर चल पड़ा।
हवा से भी तेज घोड़े की चाल के चलते शहजादा शाम से पूर्व ही पहाड़ी के दूसरी ओर पहुंच गया। काला राक्षस दोपहर का भोजन कर गुफा में लेटा हुआ था। खर्रांटों की आवाज से गुफा तक कम्पन कर रही थी। 
शहजादा सलीम हर तरह की परिस्थितियों के लिए तैयार था। पीठ के बल लेटा काला राक्षस चिर निद्रा में सोया हुआ-सा था। सलीम घोड़ा समेत राक्षस के पेट पर कूद पड़ा। अचानक हुए हमले से बेख़बर काला राक्षस चिल्ला उठा-‘‘ओह! मारा।’’
बस इसी क्षण राक्षस के खुले मुंह पर अलग से चमक रहा पत्थर का दांत सलीम ने देख लिया। इससे पहले राक्षस कुछ समझ पाता,सलीम ने तलवार से उस पत्थर के दांत पर प्रहार किया। दांत दूसरे ही पल दो टूकड़ों में बंट गया। दोनों टूकड़े उछल कर राक्षस की आंख में जा घुसे। राक्षस की आंखों से खून की लहर दौड़ पड़ी। दूसरे ही पल शहजादा सलीम का घोड़ा उलटे पांव लौट गया। तिलस्म नदी के पास पहुंचते ही एक राजा हाथ जोड़े खड़ा था। वह कोई नहीं,राजा मानवेन्द्र प्रताप सिंह ही था, जो राक्षस के प्रकोप से अभी-अभी मुक्त हुआ था।
‘‘चलिए राजन्। वक्त कम है।’’ शहजादा सलीम ने राजा को अपने घोड़े पर बिठाया ही था कि राजा ने शहजादा सलीम से पूछा-‘‘मेरा कूप में गिरा मुकुट बाहर कैसे आएगा?’’
शहजादा सलीम बोला-‘‘आपके महल में पहुंचने से पहले ही उसका हल निकाल लिया जाएगा। मुझे और मेरे मस्तिष्क को सोचने का वक्त तो दीजिए। आप कुछ पल के लिए मौन रहिए।’’
रात घिर चुकी थी। समूचा राजमहल सो रहा था। असलम बेग इस बात से बेखबर था कि राजा मानवेन्द्र प्रताप सिंह ठीक एक साल समाप्त होने के आखिरी सप्ताह में लौट आएगा। राजा मानवेन्द्र प्रताप सिंह के निष्ठावान सेवकों ने सारा किस्सा सुनाया। 
मानवेन्द्र प्रताप सिंह ने कहा-‘‘इक्यावन सप्ताह हो गए हैं। मैं अपने राज्य से बाहर रहा, ऐसा लगता है कि मेरा राज्य बेहद मुसीबत में है। अब चिंता की कोई बात नहीं, मेरे साथ शहजादा सलीम है। उसके पास हर समस्या का हल है। कूप वाली पहेली सुलझ ही जाएगी।’’
शहजादा सलीम ने सेवक से कहा-‘‘जल्दी से एक परात भर कर गीला गोबर लाइए। उसे सुबह होने से पहले ही कूप में डाल देना है। अगली चार रातों में गोपनीय ढंग से उस गोबर को अग्नि का ताप देना है।’’
सेवक ने कहा-‘‘मैं अभी यह काम कर देता हूं। लेकिन अग्नि का ताप क्यों?’’
शहजादा सलीम धीरे से बोला-‘‘राजा का मुकुट सूखे कूएं में गिरा हुआ है। उस पर एक परात गीला गोबर फंेकने से मुकुट गोबर में सन जाएगा। यदि गीला गोबर तीन-चार दिनों में सूख जाता है तो हमारा काम हो गया समझो।’’
‘‘मगर कैसे?’’ मानवेन्द्र प्रताप सिंह ने पूछा।
शहजादा सलीम ने कहा-‘‘अति साधारण सी बात है। गीला गोबर सूख कर मुकुट को जकड़ लेगा। हम पांचवे दिन या छठे दिन महल में उपस्थित हो जाएंगे। आप अपने सलाहकार को शर्त पूर्ण होने के आखिरी दिन मुकुट को कूप के बाहर लाने की बात कहंेगे। बस मुकुट बाहर आ जाएगा।’’
सेवक बोला-‘‘लेकिन शहजादा सलीम जी कैसे?’’
शहजादा सलीम बोला-‘‘दरबारी या सैनिकों से हम कूप को भरने की बात कहेंगे। चूंकि मुकुट गोबर में सना हुआ है, सना हुआ मुकुट वाला गोबर सूख चुका होगा, जल से भरने पर वह कुछ देर बाद तैरता हुआ कुएं के उपरी सतह पर आ जाएगा। गोबर में चिपका हुआ मुकुट निकाल लिया जाएगा।’’
‘‘अरे वाह। हां यह तो हर कोई जानता है कि गोबर के उपले जल में तैरने लगते हैं। क्या बात है। मैं अभी जाता हूं। लेकिन कूए में आग की ताप कैसे दी जाएगी?’’
शहजादा सलीम बोला-‘‘जिस तरह से रस्सी से हम पात्र में पानी खींचते हैं, उसी तरह से जलते अंगारों से भरी अग्नि गोबर को सूखाने में मदद करेगी, लेकिन यह काम बड़ी सावधानी से करना है। किसी को कानों कान खबर न हो।’’
ऐसा ही किया गया। राजा के विश्वस्त कर्मठ और योग्य सेवकों ने रात-रात जागकर कूप में फेंके गए गोबर को बड़ी सावधानी से ताप देकर सुखाया।
साल के अंतिम दिवस पर रहस्मय ढंग से राजा मानवेन्द्र प्रताप सिंह दरबार में उपस्थित हो गया। अगले दिन असलम बेग अपने राजतिलक की बैठक में व्यस्त था। राजा मानवेन्द्र प्रताप सिंह को देखकर असलम बेग सिहांसन से उठा खड़ा हुआ-‘‘राजन् आप! लेकिन शर्त तो पूरी नहीं हुई। ये सिंहासन अब आपका कैसे हो सकता है?’’
राजा मानवेन्द्र प्रताप सिंह बोले-‘‘यदि शर्त पूरी कर दूं तो?’’
असलम बेग बोला-‘‘हां । लेकिन,,,अब कैसे? अब तो ,,,,आज तो,,,,,,।’’
शहजादा सलीम बोला-‘‘समूचा दरबार देखेगा। वैसे भी एक बरस होने को तीन पहर बाकी हैं। आपको मुकुट कुएं से बाहर आता हुआ दिखाई देगा, तब तो किसी तरह की कोई अड़चन नहीं होनी चाहिए।’’
असलम बेग की बदसलूकी से समूचा दरबार परेशान हो चुका था। अधिकतर दरबारी एक साथ बोल पड़े-‘‘कोई अड़चन नहीं। हम सब भी देखना चाहेंगे कि कूप में गिरा मुकुट कूप में बिना उतरे तल से बाहर कैसे आएगा। वह भी बिना रस्सी के या बिना सीड़ी के। चलिए। हम भी चलते हैं।’’
समूचा दरबार बागीचे में इकट्ठा हो गया। राजा मानवेन्द्र प्रताप सिंह के वापिस लौटने की ख़बर आग की तरह फैल गई। प्रजा भी महल की ओर उमड़ आई।
असलम बेग ने कूप में झांका। वह बोला-‘‘एक बरस होने का आया, पता नहीं मुकुट किस हाल में होगा। अब राजन् इसे बाहर निकालेंगे कैसे?’’
राजा ने सेवकों से कहा-‘‘शर्त के अनुसार न तो मैं कूप में जा सकता हूं और न ही कोई मेरा सहायक। न ही रस्सी से या किसी जीव के सहारे मुकुट को बाहर निकालना है, लेकिन हम उसे किसी तरह से बाहर निकालेंगे। मैं सेवकों को आदेश देता हूं कि पर्याप्त जल से इस कूप को भर दिया जाए।’’
असलम बेग हंस पड़ा-‘‘ये कैसी मूर्खता है? भला रत्नों से जड़ा मुकुट सूखे पत्ते की तरह कूप के उपरी सतह पर थोड़े न आ जाएगा। भरो-भरो। इस कूप को भरो। लेकिन जल्दी करो। सांझ होने से पहले यह कर लो। चलो एक दिन मैं और देता हूं। कल शाम तक इस कूप में गिरे मुकुट को बाहर निकलता हुआ देखेंगे। अन्यथा मैं राजा।’’
‘‘दो पहर की मशक्कत के बाद यह क्या! मुकुट गोबर की पपड़ी के साथ चिपका हुआ कूप के ऊपरी सतह पर तैर रहा था।’’ राजा मानवेन्द्र प्रताप सिंह की जय-जयकार होने लगी।
असलम बेग ने माथा पकड़ लिया। हाथ जोड़कर कहने लगा-‘‘राजन्। मैं लोभ के वशीभूत ऐसी शर्त लगा बैठा। लेकिन मुझे नहीं पता था कि हर समस्या का समाधान है। लेकिन यह हुआ कैसे?’’
राजा मानवेन्द्र प्रताप सिंह ने समूची प्रक्रिया विस्तार से बता दी। एक बार फिर राजा की जय-जय कार होने लगी।
राजा मानवेन्द्र प्रताप सिंह को अचानक ध्यान आया कि वह शहजादा सलीम का परिचय कराना भूल गए। लेकिन यह क्या ! शहजादा सलीम घोड़े पर सवार महल के द्वार से बहुत दूर जा चुका था। राजा मानवेन्द्र प्रताप सिंह जानते थे कि शहजादा सलीम का घोड़ा फिर से उसी तिलस्मी नदी की दिशा की ओर जा रहा होगा। 

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