29 अप्रैल 2012

कैसे जाना मेरा मन ..........

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देर रात तक जागा मन

क्यों कर भटका मेरा मन

तेरे दर पे जा पहुँचा

तनहाई से भागा मन

भीतर हौले से रखना

कोमल धागे जैसा मन

टिकता अब ये कहीं नहीं
जब से तुझसे लागा मन

याद किया तो हाज़िर तू
कैसे जाना मेरा मन

तुझसे मिलने की हसरत
कभी न चाहे नागा मन

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-मनोहर चमोली ‘मनु’
30 अप्रैल 2012..सुबह-सवेरे।

कुछ तो नाम कमाया होता

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तू जो मेरा साया होता
मैंने भी कुछ पाया होता

वो शायर होता तो उसने

अपना शेर सुनाया होता

ख़ूब दुआएँ पाता गर मैं

किसी पेड़ का साया होता

मिलकर आता मैं गर उसने
अपना पता बताया होता

जो आया वो जाएगा पर
कुछ तो नाम कमाया होता

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-मनोहर चमोली ‘मनु’

29 अप्रैल 2012. गोधूलि की बेला में.

28 अप्रैल 2012

जीवन के हैं रंग अनेक.....



 खोया ही कम पाया जी
तब भी जीवन भाया जी

शाम ढले ही छिप जाए
मेरा अपना साया जी

आलस छोड़ो जग जाओ
सूरज भीतर आया जी

जीवन के हैं रंग अनेक
कहीं धूप तो छाया जी

तेरे इश्क का नगमा तो
खुलकर मैंने गाया जी

.............

-मनोहर चमोली ‘मनु’
-28 4. 2012. सुबह सवेरे में।

'एक नज़र में भा गए तुम'






       एक नज़र में भा गए तुम        
तन में आग लगा गए तुम

टिकट मिला संसद भी पहुँचे

पलक झपकते छा गए तुम

खुला रहा था दिल का द्वार

अंदर मेरे समा गए तुम

बने हुए थे हम तो ठूँठ
कोंपल लेकर आ गए तुम

‘मनु’ तो बेहद शरमीला है
उससे ही शरमा गए तुम

.............
-मनोहर चमोली ‘मनु’
-27 4. 2012. सुबह सवेरे में।

'पसीना भी बहाया कर' ----

पसीना भी बहाया कर   
चार पैसे बचाया कर

ज़ख़्म गहरे भी हों चाहे

गीत ख़ुशी के गाया कर

नौकरी में ना नहीं पर

अपने घर भी आया कर

खा ले होटल में लेकिन
चूल्हा तो जलाया कर

दिन कड़वा बीता हो पर
मीठे ख़्वाब सजाया कर
.............
-मनोहर चमोली ‘मनु’
-26 4. 2012. सुबह सवेरे में।

27 अप्रैल 2012

मुझको अगर कमाना होता


थोड़ा और सयाना होता
मुझको अगर कमाना होता

उसका कोई कद जो होता

उसके साथ ज़माना होता

मैं भी जे़ब में दरपन रखता

चेहरा जो सजाना होता

 
   मैं तो नदिया का पानी हूँ
सागर बनता ख़ारा होता

 
मैं फिर ग़ज़लें क्यों कहता जो
इश्क अगर छिपाना होता


.............
-मनोहर चमोली ‘मनु’
-24. 4. 2012. गोधूलि की बेला में.


मैं ही उससे उलझूँ क्यों




खौले मेरा ही ख़ूँ क्यों
मैं ही उससे उलझूँ क्यों

नैया अपनी नाविक मैं
अपना भाड़ा मैं दूँ क्यों

मेरी जान का दुश्मन वो
फिर मैं उसको चाहूँ क्यों

वो आदत से रूखा है
इस पर इतना चाौकूँ क्यों

वो फासला रक्खे मुझसे
मैं  ही  हाथ  बढ़ाऊँ क्यों

.............

-मनोहर चमोली ‘मनु’
-24. 4. 2012. सुबह सवेरे.


घर का कोना-कोना रो गया


 
ऐसी बातें कह कर वो गया
घर का कोना-कोना रो गया

बीच हमारे अब नहीं है वो

बो के बीज वहम का वो गया

माँ च ौखट में खड़ी रही और

भूखा बिलख़ता बच्चा सो गया

दरपन भी रोया साथ मेरे
बाद उसके चूर वह हो गया

मैं तो सूखा पेड़ था अब तक
छुआ तूने तो हरा हो गया

............................
-मनोहर चमोली ‘मनु’
-23. 4. 2012. सुबह सवेरे.
.................................





अब तो ख़ुद को छलना होगा






अब तो यारों चलना होगा
देखूँ कब सँभलना होगा

वो मुझसे अब दूरी चाहे

तय है साथ बदलना होगा

सब पैसों से यारी रखते

नई गिरह ये कसना होगा

सूरज भी सोकर उठता है
इस आदत में ढलना होगा

यार-सगों को छला है मैंने
अब तो ख़ुद को छलना होगा

....................
-मनोहर चमोली ‘मनु’
-22. 4. 2012. सुबह सवेरे.







23 अप्रैल 2012

दिल मेरा दुखाते हो


 पहले तो बुलाते हो
काहे फिर रुलाते हो
 
दिन अवकाश के भी तो
घर में दफ्तर लाते हो
 
ख़ुद नज़रे मिलाते हो
फिर क्यों सिर झुकाते हो
 
खटपट रोज़ करते हो
झुककर फिर मनाते हो
 
उसका नाम ले लेकर
दिल मेरा दुखाते हो
....................
                                         -मनोहर चमोली ‘मनु’
                                                  -21. 4. 2012. सुबह सवेरे.

हमने तुमको समझा कुछ

हमने तुमको समझा कुछ       
तुमने हमको समझा कुछ

पगला है या दीवाना
सारी रात चिल्लाता कुछ

इश्क बला है यारों ये
दरद दवा की देता कुछ

यारी पूरी रखता है
फिर भी राज़ छिपाता कुछ

....................
-मनोहर चमोली ‘मनु’
-20. 4. 2012. सुबह सवेरे.

18 अप्रैल 2012

मुझको खुद संभलना होगा


अब तो उससे मिलना होगा
शायद फिर से झुकना होगा

वो चाहे सूरज बन जाए
उसको फिर भी ढलना होगा

लड़के वाले कल आएँगे
उसको फिर सँवरना होगा

विपदा चाहे जैसी भी हो
मुझको खुद संभलना होगा

बेटी पीहर जाने को है
फिर कुछ गिरवी रखना होगा
....................

-मनोहर चमोली ‘मनु’
-19. 4. 2012. सुबह सवेरे.

17 अप्रैल 2012

तुम बिन........
















कितने और महीने होंगे                        
तुम बिन अब जो जीने होंगे

बाँध बनाने में ना जाने
कितनों के हक छीने होंगे

भारत के गाँधी बापू पर
ऐसे लाख नगीने होंगे

अपना सिक्का खोटा हो तब
खूँ के घूँट ही पीने होंगे

....-मनोहर चमोली ‘मनु’

तुम आओ तो सही


 
बस आखि़री ही इक बार तुम आओ तो सही
दम तोड़ रहा बीमार तुम आओ तो सही


अब बातें न मुलाकातें होती हैं, जो लिया
न चुकाना मेरा उधार तुम आओ तो सही


दिल भी धड़कन भी दरपन भी तुम हो, सामने
तो रहो लूँ खुद को सँवार तुम आओ तो सही


बरसों हुए सोया नहीं तुम नींद हो मेरी
मैं बस पाँव लूंगा पसार तुम आओ तो सही


बेवजह तेरा जाना आइने में बाल है
चलो हटो मैं गया हार तुम आओ तो सही

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-मनोहर चमोली ‘मनु’

16 अप्रैल 2012




न आया संदेश और न फोन मेरे यार का।
करुंगा सब्र भी लूंगा मज़ा इंतज़ार का ।।

न करोगे बहस न ही मुंह फेरोगे मुझसे।
फिर सब किया तो क्या रहा उस करार।।

फूल न खुशबुएँ न ही तितलियाँ चमन में।
फिर क्या मौसम और क्या मज़ा बहार का।।

कल थे जो दाम आज कहाँ मिलेंगे यारों।
यही है नियत यही है स्वभाव बाजार का।।

उसके हाथ में खंज़र और वो मेरे पीछे है।
अब जो हो खूँ न होगा मेरे ऐतबार का।।

भीड़ में अकेला भी रात का मुसाफिर ‘मनु’
यही सिला तो मिलना था तूझे प्यार का।।

-मनोहर चमोली ‘मनु’

15 अप्रैल 2012

दिन तक सो जाना कभी-कभी



 भला    है   यूँ    ही    रो   जाना   कभी-कभी
मुँह  का  इस  तरह  धो  जाना   कभी-कभी 

जिस  भीड़  से  हमेशा  डर  लगता  है  मुझे
भाता  है    उसमें  खो    जाना    कभी-कभी

ये  बात  सच  है  कि  सादगी  ही   भली  है
सजना    चँदा-सा   हो   जाना  कभी-कभी

सुबह होते   ही  उठ  जाना अच्छा है  मगर
क्या हुआ  दिन तक  सो  जाना कभी-कभी 


-मनोहर चमोली ‘मनु’

14 अप्रैल 2012

मिला न दूजा हिन्दुस्तान



सबसे प्यारा हिन्दुस्तान
है जमुनी-गंगा पहचान

चीनी अरबी हो या तुर्की
सबको देता ये सम्मान

ये तो है विश्वगुरु यहाँ
हर कण है देता बलिदान 

मैं घूमा हूँ मुल्कों-मुल्कों
मिला न दूजा हिन्दुस्तान

-Manohar Chamoli 'manu'

12 अप्रैल 2012

अपने भीतर जाकर देखूँ





तेरे   ख़त       जलाकर   देखूँ
ख़ुद  को  फिर   रुलाकर  देखूँ

तू    कितना    पानी    में    है
तेरे    भीतर       आकर  देखूँ

अँगुली किस  पर क्यों उठाऊँ
अपने  भीतर     जाकर   देखूँ

माँ   ने    कैसे     पाला   होगा
पैसे    चार       बचाकर   देखूँ

मुझको   भी  कुछ  दाद   मिले
मैं   भी    शेर    चुराकर    देखूँ
................
-मनोहर चमोली ‘मनु’

माँ की सादगी मुझे सँवरने नहीं देती-----




            ये   यादें    हैं    जो    संभलने   नहीं   देती
बस   ये  कोसों   दूर   बहकने  नहीं   देती

वो  तेरे  पास  होकर  मेरा  किस  तरह है
तेरी  चाहत  उसे  मेरा   बनने  नहीं  देती

दिल क्या धड़कन  भी  बदल सकता हूँ मैं
पर कोई बात  मुझे  ऐसा  करने नहीं देती

चाहा   सँवार    लूँ   अपना   चेहरा  मगर
माँ  की   सादगी   मुझे  सँवरने  नहीं देती

रिश्वत  लाख  झुका  दे  तुझे लेकिन  मेरी
अना   है   जो   मुझे   बदलने   नहीं   देती

...-मनोहर चमोली ‘मनु’

......बच्चे बस सोते रह जाएँ......

खाली चूल्हा जलता क्यों है
उस पर तवा तपता क्यों है

एक  ज़रा  सी  रोटी  पे  ही
जीवन सारा खटता क्यों है

गेहूँ,   आटा,    रोटी,   भूख
सबका रंग बदलता क्यों है

सड़कों  पे रोटी  का बिकना
माँ को ये  अख़रता  क्यों है

बच्चे  बस   सोते  रह जाएँ
वो  ये दुआ   करता  क्यों  है

-मनोहर चमोली ‘मनु’

3 अप्रैल 2012

रात का मुसाफिर ‘मनु’

 


































न आया संदेश और न फोन मेरे यार का।
करुंगा सब्र भी लूंगा मज़ा इंतज़ार का ।।

न करोगे बहस न ही मुंह फेरोगे मुझसे।
फिर सब किया तो क्या रहा उस करार।।

फूल न खुशबुएँ न ही तितलियाँ चमन में।
फिर क्या मौसम और क्या मज़ा बहार का।।

कल थे जो दाम आज कहाँ मिलेंगे यारों।
यही है नियत यही है स्वभाव बाजार का।।

उसके हाथ में खंज़र और वो मेरे पीछे है।
अब जो हो खूँ न होगा मेरे ऐतबार का।।

भीड़ में अकेला भी रात का मुसाफिर ‘मनु’
यही सिला तो मिलना था तूझे प्यार का।।

-मनोहर चमोली ‘मनु’

1 अप्रैल 2012

बच्चों का खेल नहीं है बाल साहित्य

बच्चों का खेल नहीं है बाल साहित्य

-मनोहर चमोली ‘मनु’

    बाल साहित्य कैसा हो? यह प्रष्न आज भी नया है। यह प्रष्न बीते कल तक भी नया-सा था। बाल साहित्य कैसा होना चाहिए? यह प्रष्न आने वाले समय में भी नया ही रहेगा। इस प्रष्न का उत्तर न तो कल एक था, न ही आज है। दरअसल यह प्रष्न विविध उत्तर की मांग करता है। कारण सीधा-सा है। कल के बच्चों का समय अलग था। आज के बच्चों का समय अलग है। आने वाले कल के बच्चों का समय तो और भी विषिश्ट होगा। एक पीढ़ी का बदलाव पहले काफी अंतराल का हुआ करता था। फिर माना गया कि दस साल बाद के बच्चों को दूसरी पीढ़ी का माना जाए। आज यह पाँच साल में बदल जाने की मांग करती है। दुनिया ही नहीं जीवन षैली भी तीव्रता से बदल रही है। 
    जाहिर है कि विशम स्थिति और परिस्थिति में कोई भी सार्वभौमिक नहीं हो सकता। फिर बाल मन तो बेहद चंचल होता है। बेहद तीव्रता से बदलाव, नयापन और अनोखापन चाहता है। बीते समय में तो न साधन थे न सुविधाएँ। बाल मन को बहलाने के अवसर भी सीमित थे। लेकिन आज तो साधन भी हैं और सुविधाएँ भी हैं। आज बाल मन को बहलाने के लिए और भी काल्पनिकता, रचनात्मकता, नवीनता, रोचकता, विविधता चाहिए। साथ ही धैर्य भी और बाल मनोविज्ञान की जानकारी भी।
    आज बाल साहित्य और भी मुष्किल मांग करता है। किसी भी क्षेत्र के पत्र हों या पत्रिकाएँ। सभी विविधता से परिपूर्ण हैं लेकिन बाल मन को स्थान देने वाले पत्र और पत्रिकाओं को अंगुलियों में गिना जा सकता है। कोई भी युग हो या क्षेत्र। देष क्या और विदेष क्या। बालमन की दृश्टि में आषातीत व्यापकता ही आई है। हर नई पीढ़ी पिछली पीढ़ी से दो कदम आगे जाने का हौसला लेकर बढ़ी होती है। यह सार्वभौमिक सत्य है। आज जो नया है कल पुराना हो जाएगा। आज जो पूरा है, उसे कल अधूरा माना जाएगा। कल जिसे स्वर्णिम समझा गया, आज उससे अधिक सुनहरा और उजला प्रस्तुत है। कल क्या पता अनंत का भी अंत घोशित कर दिया जाए तो कोई हैरत की बात नहीं मानी जाएगी।
    बाल साहित्य का समग्र मूल्यांकन भी इस दृश्टि से संभव नहीं है। कौन सा बेहतर है, श्रेश्ठ है और सौ फीसदी स्वीकार्य है। यह कहना तो संभव ही नहीं है। बाल मनोभावों की विविधता इतनी है कि कोई भी साहित्य समग्रता से आनंददायी और पसंदीदा नहीं हो सकता। यह आवष्यक नहीं कि पहाड़ से संबंधित साहित्य हर क्षेत्र के बच्चे को पसंद ही आएगा। यह जरूरी नहीं कि परी आधारित या फंतासी रचना हर बच्चे को पसंद आएगी। कारण हर बच्चे की कल्पना की थाह नहीं पाई जा सकती। हाँ यह भी सही है कि वह रचना ज्यादा सषक्त मानी जाती है जिसे आँचलिक बच्चे ही नहीं प्रदेष-देष-विदेष के बच्चे भी पसंद करें। बाल साहित्य में हमारे प्राचीन ग्रन्थ ही नहीं विदेषी साहित्य भी अनमोल भूमिका आज तक निभाते आ रहे हैं। ऐसा बाल साहित्य जिसने भाशा और देष की सरहद को भी अड़चन नहीं माना। वह सराहनीय तो रहेंगे ही। एक चर्चा यह भी महत्वपूर्ण है कि यह कहना कि बच्चे पढ़ ही नहीं रहे हैं। यह गलत है। यह वह कह रहे हैं, जो खुद बाल साहित्य से दूर हैं। जिनका बच्चों से सीधा संवाद नहीं है। यह जरूर है कि बहुत से बच्चों को अवसर ही नहीं दिये जा रहे हैं। लेकिन जहां अवसर हैं, जहां संसाधन हैं, वहां बच्चे पढ़ भी रहे हैं और क्षमतानुसार अपनी बात पत्र-पत्रिकाओं में पहुंचा भी रहे हैं।
    बाल साहित्य पर चर्चा हो और यह प्रष्न न उठे कि बाल साहित्य अलग से क्यों लिखा जाए? संभव नहीं है। आज भी अधिकतर षिक्षक, माता-पिता, अभिभावक भी यह मानते हैं कि बच्चे चित्रकारी कर लें, कुछ कविताएं गुनगुना लें। बड़ों से कहानियां सुन लें, यही बहुत है। इसके अलावा बच्चे तो बस और बस पढ़ाई करें। ऐसे में पाठक क्या और समाज का बड़ा हिस्सा क्या। ये भी मान सकता है कि बच्चों का साहित्य से क्या लेना-देना। जब बच्चे बड़े हो जाएंगे तो खुद-ब-खुद ही साहित्य के संपर्क में आ जाएंगे। आज जो किताबों का और पत्र-पत्रिकाओं का कम होना या कम पढ़ा जाना चर्चा में है, उसके मूल कारणों में एक कारण यह भी है कि जब बचपन में ही साहित्य के पढ़ने की आदत नहीं डली तो भला, बड़ा होकर खाक पड़ेगी। एक तो यह कारण भी मुख्य है कि बच्चों को साहित्य से दूर न रखा जाए। दूसरा बाल मन बेहद चंचल होता है। नटखट होता है। उल्लास, मस्ती, चुलबुलापन, सीखने की तीव्र ललक, हर बार कुछ नया करने का मन, तितली की तरह मन का चलायमान आदि-आदि। कई मूलगत स्वभाव हैं जो हम बड़ों में नहीं होते। यह भी प्रमुख कारण है कि बाल मन के अनुरूप ही बाल साहित्य हो। आज भी एक बड़ा वर्ग बच्चों को पुरानी मान्यताओं के आधार पर ही देखता है। मसलन-‘बच्चा तो मिट्टी का लोंदा है।’ ‘बच्चा कच्चा घड़ा है।’ ‘बच्चा कोरी स्लेट है।’ ‘बच्चा कोरा कागज है।’
    ये सारी मान्यताएं आज के संदर्भ में निराधार हैं। बच्चे को कोरा मान लेना ही सबसे बड़ी भूल है। बच्चा तो बच्चा होता है। लेकिन उसका अपना वजूद होता है। यह मान लेना कि उसे जैसा ढालेंगे, वो ढल जाएगा। संभव नहीं है। यदि ऐसा होता तो हर माँ का हर बेटा ‘महात्मा गांधी’, ‘टैगोर’ या और भी अंगुली में गिने जाने वाले व्यक्तित्व के क्यों नहीं हो जाते। यह मान लेना कि बच्चे को जो सिखाया जाता है, वो वही सीखता है। तो राजा का बेटा राजा ही बनता। ईमानदार माता-पिता का बच्चा आतंकवादी न बनता। कई षोध साबित करते हैं कि बच्चे को जबरन कुछ नहीं सिखाया जा सकता। बच्चे खुद भी अपने वय वर्ग में और इस समाज से  स्वतः ही बहुत कुछ सीखते हैं। वह वो सब भी सीख लेते हैं जो हम बड़े उन्हें नहीं सीखने देना चाहते। यह भी कि बच्चा वह भी सीख ही लेता है जो हम उसे नहीं सीखाते।
    अब एक प्रष्न यह भी उठता है कि यदि ऐसा ही है तो बाल साहित्य बच्चे के लिए लिखा ही क्यों जाए? जब हम उसे जो कुछ भी सीखाना चाहते हैं, वो वह सब नहीं सीखता तो बाल साहित्य के बहाने भी हम बच्चों को कुछ सीखाने की कोषिष तो नहीं कर रहे? नहीं। आज ऐसा साहित्य उसे देने की आवष्यकता नहीं है कि वह उसे पढ़े और उसे उपदेषात्मक लगे। वह पढ़े और उसे ऐसा लगे कि उसे भी ऐसा ही करना है। वह भी ऐसा ही करे। ऐसा ही बने। सीखपरक और संदेषात्मक साहित्य से अच्छा है हम उसे सही-गलत, सच-झूठ, अच्छा-बुरा, यथार्थ-मिथक की समझ विकसित करने वाला साहित्य दें। अप्रत्यक्ष रूप से घटनाओं-पात्रों के माध्यम से हम साहित्य दें, उसे अपने ढंग से उसका विष्लेशण करने दें। ‘तुम भी ऐसे बन जाओ।’ ‘अच्छे बच्चे जल्दी उठते।’ से अच्छा है कि बचपन में लोग कैसे-कैसे थे और क्या से क्या बन गए। यह बताया जाए। जल्दी उठने से क्या लाभ होते हैं और देर से उठने वाले क्या-क्या खो देते हैं? यह बताया जाए। बच्चा अपने आप को तथ्यों के साथ, स्थितियों के साथ जोड़ लेगा। आज भी ऐसी कथाओं व कविताओं की भरमार है, जो बच्चांे को आज्ञात्मक षैली में सीख देने की कोषिष करती हैं। सारे नैतिक वचन और उपदेष  से लेकर संदेष और दिषा-निर्देष बच्चांे को ठूंस-ठूंस कर देने की परम्परा छूटी नहीं। क्या बच्चों को हम बोलना सीखाते हैं? चलना सीखाते हैं? नहीं। हम बच्चों को बोलने और चलने में सहायक बनते हैं। बोलना-चलना-खाना उसकी खुद की कोषिष से ही आता है। इसी तरह पढ़ाई-लिखाई का मसला है। हम सुगमकर्ता होते हैं। सुविधा जुटाते हैं। सहयोग करते हैं। बाकी तो बच्चा अपने आप सीखता है। उसकी लगन,ध्येय,ललक और सीखने की इच्छा ही उसे मदद करती है। यही बाल साहित्य में होना चाहिए। हम अपने तजुर्बों से समझ से बच्चे के सामने कथा-कहानी रखें। न कि निश्कर्श भी स्वयं दें। कथा-कहानी-कविता उद्देष्य के साथ समाप्त तो होगी ही। लेकिन ठूंस कर -जानबूझकर अपनी और से रखा जाने वाला निश्कर्श सभी को कभी भी ग्राह्य नहीं होगा। यह तय है।
    हर बच्चा अपने स्कूल के पहले दिन अपने साथ औसतन पांच हजार षब्द और उनके अपने अनुभव से समझे गए अर्थ लेकर जाता है। वह कोरा नहीं होता। उसकी अपनी भाशा में आम बोलचाल के अधिकतर षब्दों और वाक्यों की ठीक-ठाक समझ होती है। वह अपनी दुनिया को अपने नजरिए से देखना-समझना जानता है। फिर स्कूल वह किसलिए भेजा जा रहा है? स्कूल में सबसे पहले तो वह अपनी बात को लिखना सीख सके। दूसरा दूसरों की लिखी हुई बातों को पढ़ सके। पढ़ना-लिखना आ जाने से वे किताबों की दुनिया से और अधिक इस दुनिया को और दुनियादारी को समझ ले। बस। यहीं से बाल साहित्य का काम षुरू होता है। बाल साहित्य वह सब कुछ दे सकता है, जो बच्चों को किताबों में नहीं मिल रहा। अपने आस-पास नहीं मिल रहा। अपने आस-पास की गहनता से जानकारी भी बाल साहित्य दे सकता है।
    बाल साहित्य का धर्म बेहद बड़ा है। बाल साहित्य बहुत कुछ कर सकता है। इतना तो कर ही सकता है कि बच्चा जितना कुछ अपने अनुभव से जानता है। उसकी पड़ताल कराये।  बच्चे ने समाज में, स्कूल में, सहपाठियों से, घर से जो कुछ भी सीखा है, सुना है, जाना है और परखा है, उसे प्रचलित मूल्यों की कसौटी पर कस कर राह दिखाये। चलना तो बच्चे को ही है। राह दिखाना और अंगुली पकड़कर चलाते रहना में अंतर है। बांये चलो। बस चलो। अरे! क्यों चलो। ये तो बताना चाहिए न। ठीक इसी तरह बाल साहित्य में यह ध्यान दिया जाना बेहद जरूरी है कि कोई रास्ता कहां जाता है, इस पर इंगित कर दिया जाये। चलना तो राहगीर को है। रास्ते पर चलते वक्त क्या-क्या मुष्किलें आएंगी ये तो राहगीर जब चलेगा, तब न पता चलेगा। बाल साहित्य मंजिल तक पहुंचाने का माध्यम नहीं हो सकता। वह तो मंजिल का रास्ता बताने का धर्म निभाए। कबीर तो कभी स्कूल नहीं गए। लेकिन दुनियादारी की समझ क्या उनके बालमन से नहीं षुरू हुई होगी?
बाल साहित्य आज ही लिखा जा रहा हो। ऐसा नहीं है। हम सब जानते हैं कि बाल साहित्य तो लेखन कला के विकसित होने से पहले भी था। यही नहीं जब मानव की भाशा समृद्ध नहीं थी,तब भी बाल साहित्य था। हां वह संकेतों में, अनुभव में, वाचिक परंपरा के रूप में ही था।  लेकिन तब बाल साहित्य मूल्यों पर आधारित था। सीख पर आधारित था। संदेषपरक भी था। यहां यह कहने का आषय नहीं हैं कि साहित्य मूल्य न दे। लेकिन मूल्य थोपे न जाएं। साहित्य इस तरह से मूल्यों को प्रतिस्थापित करे कि पाठक मूल्यों को तरजीह दे। लेकिन हम ये कहें की झूठ बोलना पाप है। सदा सत्य बोलो। तो बाल मन अपने चारों ओर देखता ही है कि झूठा बोलने से कोई पाप कहां लगता है। हमेषा सत्य कहां बोला जाता है। हां हम झूठ और झूठ बोलने वाले को महिमामंडित न करें और आचरण और सत्य को सम्मानित बनाएं तो चलेगा। साहित्य समाज का दर्पण होता हैं। ठीक बात है। लेकिन समाज में आज अनाचार,पाप,अपराध बढ़ रहा है। भ्रश्टाचार को मानों हर किसी ने आत्मसात कर लिया है। तो क्या साहित्य भी इसे आत्मसात करना जैसा दिखाये। इस स्थापति करे? नहीं। कदापि नहीं। लेकिन यह कहना भी उचित होगा कि समाज में जो असल में हो रहा है उसे छिपाना भी साहित्य का काम नहीं है। उसे दिखाया जाए। लेकिन किस रूप में उसका बालमन पर क्या प्रभाव पड़ेगा। ये महत्वपूर्ण है। नकारात्मक से सकारात्मक की ओर ले जाना ही सबसे बड़ी चुनौती है।
    ये ओर बात है कि आज बाल साहित्य से अपेक्षा की जा रही है कि वह यर्थाथ से भी परिचय कराये। यह ठीक भी है। मानव समाज जैसे-जैसे विकसित होता जा रहा है, वैसे ही बाल मन की थाह पाना जटिल होता जा रहा है। हर नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से और आगे जाने का हौसला लेकर पलती-बढ़ती है। यह सही है। लेकिन पुरानी पीढ़ी का अनुभव नई पीढ़ी के लिए प्रकाष पुंज का काम तो करता ही है।
    हर समाज में पीढ़ी-दर-पीढ़ी साहित्य का वाचिक हस्तांतरण होता रहा है। फिर मुद्रण कला के विकसित होने के बाद तो छपाई का महत्व बढ़ गया। आज सूचना तकनीक ने इस हस्तांतरण को और सरल कर दिया है। आज बाल साहित्य को उन छोटी-छोटी बातों में मषक्कत करने की जरूरत नहीं है जो पिछले तीन-चार दषक पूर्व के साहित्य ने की है। आज बच्चा चाहे ग्रामीण पृश्ठभूमि में ही पल-बढ़ रहा हो। समाज में व्याप्त सूचना और ज्ञान के विस्फोट से वो भी अछूता नहीं है। यह सूचना और ज्ञान हवा में तो है नहीं। कहीं न कहीं उसका वजूद है। ये तो तय है कि ये कहा जाना कि बाल साहित्य नहीं लिखा जा रहा है। गलत होगा। बाल साहित्य स्तरहीन हो गया है। यह कहना भी गलत है। ये ओर बात है कि बहुत कुछ ऐसा है जो बालोपयोगी नहीं है। ठूंसे जाने जैसा है। बच्चों के लिए कुछ लिखना है ये सोच कर लिखा गया है। लेकिन ऐसा बाल साहित्य भी है जो अद्भुत है। यहां किसी पुस्तक और किसी बाल साहित्यकार का नाम देना ठीक भी नहीं है और तर्क संगत भी नहीं है। जैसा पहले कहा गया है कि कम से कम बाल साहित्य में कोई कविता-कहानी या अन्य विधा सभी को भा ही जाए, संभव ही नहीं है। लेकिन यह तो तय है कि बहुत कुछ सार्थक भी लिखा जा रहा है। बाल मनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए लिखा जा रहा है। बाल मन की मुष्किलों को ध्यान में रखकर लिखा जा रहा है। बाल मन बड़े से बड़े मुद्दों को सहजता से भी लेता है और बड़े भोलेपन से उसका विष्लेशण कर अपना मन बनाता है। यह रेखांकित करती हुई कई कहानियां और कविताएं आए दिन पढ़ने को मिलती है।
    इन दिनों कहा जा रहा है कि फंतासी का जमाना गया। परी कथाओं,पषु-पक्षिओं और राजा-रानी की कथाओं के दिन गए। यह कहना ठीक नहीं है। हम चांद पर पहुंच जाएं, लेकिन मूल रूप से धरती वासी ही कहलाए जाएंगे। आखिर क्यों हम अपनी पुराने संदर्भों को नए रूप में लिख नहीं सकते। राजा-रानी के पात्रों के माध्यम से हम बाल साहित्य में दूरदर्षिता,न्याय, षिक्षा,समानता, समभाव के भाव रेखांकित क्यों नहीं कर सकते हैं। हम परी रानी के माध्यम से सकारात्मक मुद्दे भी तो बाल साहित्य में षामिल कर सकते हैं। यह किसने कहा कि हमा सांता क्लाज और परियों से जादू-टोना और बिना मेहनत के मिलने वाले उपहार सरीखी सी ही कहानियां बच्चों को दिलाते रहें। पषु-पक्षियों के माध्यम से आज भी नैतिक मूल्यों को आसानी से दर्षाया जा सकता है। नैतिक मूल्यों को एक सिरे से खारिज करना भी तर्कसंगत है ही नहीं। काल्पनिकता और यथार्थ के मध्य सामंजस्य बनाना आज की मांग है। कितनी आसानी से कहा जा रहा है कि चंदामामा, बादल, तितली,परी के दिन गए। क्यों चले जाएंगे भई। हां उनमें नयापन आए। नई स्थितियां आए। नया परिवेष, नए हालात लेकर बढ़ रही दुष्वारियों को लेकर सांताक्लाज आता है तो आए। क्या फर्क पड़ता है। बच्चों की काल्पनिक दुनिया में नन्हें से जीव का वजूद बड़े के सामने बड़ा करके दिखाया जा रहा है तो उद्देष्य बड़े को छोटा बताना नहीं है। छोटे को सम्मानजनक स्थान दिलाना है। हां झूठ को स्थापित करना और असामाजिकता को बढ़ावा देना और बुराइयों का हिंसा का अधिकाधिक प्रयोग से बचा जाना भी जरूरी होगा।
    बस ध्यान तो यही रखना है कि बालमन के किसी भी कोने में वह सब अमिट रूप से स्थापित न हो जो समाज के लिए, बड़ो-बूढ़ो के लिए, इस धरती के लिए,मानवता के लिए क्या सम्पूर्ण सजीव के लिए घातक हो।


-मनोहर चमोली ‘मनु’. पोस्ट बाॅक्स-23,भितांई,पौड़ी ,पौड़ी गढ़वाल.246001, मोबाइल-09412158688.