23 अप्रैल 2014

बालसाहित्य: यथार्थ एवं कल्पना

बालसाहित्य: यथार्थ एवं कल्पना

-मनोहर ‘मनु’ 
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आपकी ही तरह मैंने भी बचपन में सैकड़ों कहानियाँ सुनी हैं। यह याद तो नहीं कि मैंने कैसे पढ़ना-लिखना सीखा। हाँ इतना याद है कि जब पढ़ना-लिखना सीख लिया तो अनगिनत कहानियाँ पढ़ने को मिली। मुझे अच्छी तरह से याद है कि बचपन में ही मैंने रेल, समुद्र, गिलहरी, हाथी और जहाज के दर्शन कहानियों में कर लिए थे। बस इन्हें अपनी आँखों से देखा नहीं था।

मुझे याद है जब मैं बारहवीं कक्षा पास कर आई0टी0आई0 करने देहरादून आया, तब मैंने पहली बार गिलहरी को देखा था। गिलहरी इतनी छोटी होती है! यह मेरे लिए हैरानी की बात थी। मैं अपलक गिलहरी को देखता रहा। बहुत दिनों तक गिलहरी मेरे मन-मस्तिष्क में छायी रही। किस्सों-कहानियों में तो गिलहरी बेहद चतुर और बड़ों-बड़ों को हराने वाली सशक्त पात्र बन कर मेरे मन में अच्छी तरह ठस गई थी। लेकिन वास्तव में वह कुछ ओर ही निकली। हलकी सी आहट पाते ही एकदम से पेड़ पर चढ़ जाती है। असल में वह कौआ को भी क्या चकमा देती होगी। लेकिन मेरे सामने तो पूर्व में गिलहरी कहानियों में हीरो की तरह आई थी। मुझे अजीब सा लगा।

ऐसा ही कुछ हाथी, रेल और समुद्र को पहली बार देखने पर हुआ था। समुद्र का तट देखना तो मेरे लिए अविस्मरणीय घटना जैसी थी। समुद्र भी मैंने तब देखा जब मैं स्नातक का छात्र हो चुका था। वैसे अभी मैंने समुद्री यात्रा नहीं की है। समुद्र विहंगम होता है। उसकी लहरों में इतना शोर हो सकता है। जहाँ तक नज़र जाती है, वहाँ तक पानी ही पानी होता है। यह सोच समुद्र को देखकर दूर तलक गई। जबकि कहानियों में समुद्र इस तरह से कहीं नहीं आया था।

आज मैं चालीस वसंत देख चुका हूँ। लेकिन मैंने आज तक हवाई जहाज अपने हाथों से छूकर नहीं देखा है। यात्रा तो दूर की बात है। हवाई जवाज को अपने हाथों से छूना और जहाज की यात्रा करना मेरे लिए आज भी रोमांच का विषय होगा। कहने का अभिप्राय यही है कि किसी चीज़,सामग्री, जीव या और भी जो कुछ हो, उसके बारे में पढ़ना और सुनना अलग बात है तथा उसे अपने हाथों से छूकर देखना या अपनी नंगी आँखों से साक्षात् सामने देखना बिल्कुल अलग बात है। उसका आनंद ही कुछ और है। पहली बार देखी गई चीज़ के बारे में पूर्व में अनुमान और कल्पना करना बिल्कुल ही दूसरी बात है। उसी को दृश्य-श्रृव्य माध्यमों से देखकर जानना एक अलग अनुभूति है।कई बार जब तक हमने कोई जीव या सामग्री देखी नहीं है, उसकी कल्पना कर अनुमान लगाना दूसरा ही मामला हो जाता है। फिर जब भी हम उस जीव या सामग्री को साक्षात् देख लेते हैं,तो अक्सर वस्तु-चीज़-जीव-सामग्री हमारे अनुमान और कल्पना की पकड़ से बेहद दूर होती है।

शायद ही कोई ऐसी चीज़ होगी, जिसका अनुमान हमने उसे अप्रत्यक्ष रूप में देखकर किया होगा और जब हमने उसे प्रत्यक्ष देखा हो तो वह एकदम सटीक या बेहद करीबी मिली हो।तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि अनुमान और कल्पना करना निरर्थक रहा? क्या अनुमान और कल्पना का जीवन में कोई महत्व नहीं है? है। बहुत है। असीमित है। अनुमान और कल्पना के मायने बच्चों के हिसाब से तो और भी दिलचस्प हैं।

 हम हर आयु के स्तर के बच्चों के लिए अनुमान और कल्पना को बेहद फंतासी जैसा स्थापित करें। यह कहीं न कहीं बच्चे की अनुमान शक्ति और कल्पना के साथ खिलवाड़ होगा। माना कि हम राई का बीज की अवधारणा बच्चों के समक्ष रख रहे हैं तो वह हमारी रचना सामग्री में पहाड़ की तरह न आए। हम राई का जो भी रेखाचित्र खींचें, वह ऐसा हो कि कहीं न कहीं बच्चे के मन-मस्तिष्क में राई की अवधारणा को पुष्ट करने में मदद मिले। बच्चा अपने स्तर पर राई का एक काल्पनिक खाका या चित्र बना सके। जब बच्चा जीवन में कभी भी राई का बीज पहली बार देखे तो वह इतना आश्चर्य व्यक्त न करें कि यह न कह दे-‘‘अरे! राई का बीज ऐसा होता है?’’

हाँ। यह अलग बात है कि यथार्थ से परे काल्पनिकता के सहारे हम कोई अवधारणा नहीं बल्कि कोई मूल्य प्रदर्शित करना चाहते हैं। मसलन मुंशी प्रेमचन्द की कहानी ईदगाह है। यह कहना ठीक न होगा कि ईदगाह बालसाहित्य में नहीं आ सकती। यह विषय दूसरा हो जाएगा। यहाँ उस कहानी को कोई भी पढ़ सकता है। बच्चा भी। खैर....हामिद के बारे में सवाल उठ सकता है कि आखिर उस उम्र का बच्चा अपनी दादी के प्रति इतना संवेदनशील कैसे हो सकता है?असल जीवन में यह अपवाद ही नहीं असंभव-सा लग सकता है। बाल स्वभाव तो चंचल होता है। जहाँ अन्य बच्चे मेला से अपने लिए भिन्न-भिन्न खिलौने लाए, वहीं हामिद चिमटा कैसे ले सकता है? बमुश्किल तो मेला देखने के लिए अनुमति मिली। खर्च करने के लिए कम पैसे। उस पर तुर्रा यह कि बच्चा चिमटा उठा लाया। लेकिन यह कहानी बच्चे की दिमागी परिपक्वता से इतर उसमें जगाती संवेदनाओं की कहानी है। मानवीय मूल्यों की ओर इशारा करती हुई कहानी है। और भी बहुत कुछ कहाती-सुनाती-जगाती हुई कहानी है।

खैर....अब हम इस कहानी में भी यथार्थ खोजने लगे तो हो गया। इस कहानी में हामिद का दादी के प्रति अगाध प्रेम का प्रदर्शन भी है। कहानी कहीं न कहीं यह भी बताने का प्रयास करती है कि हमें अपनी खुशियों के साथ दूसरों के कष्टों की भी चिन्ता करनी चाहिए। यह भी बड़े कभी-कभी ही नहीं अक्सर छोटों की गहरी सोच की थाह नहीं पा पाते।अनुमान और कल्पना कुछ न करे, लेकिन इतना तो करे कि बच्चे उस चीज़,वस्तु या जीव के प्रति सोचे, चिन्तन करे। उसे खोजे,तलाशे और जीवन के साथ उसका अन्तर्सम्बन्ध स्थापित करे। मुझे लगता है कि बालसाहित्य लिखते समय रचनाकार के अंतःस्थल में एक औसत खाका तो ध्यान में रखता ही होगा कि आखिर उसकी रचना किस आयु वर्ग के बच्चे के लिए है। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो उस रचना के अधिकाधिक पसंद न किए जाने के खतरे बढ़ जाएँगे। हालांकि मोटे तौर पर इस तरह का विभाजन ठीक नहीं माना जाता। लेकिन जब हम कल्पना और यथार्थ को शामिल करने की बात कर रहे हैं, तब यह जरूरी होगा।

मैं अपने घर से शुरू करता हूँ। मेरा छोटा बेटा अभी पन्द्रह महीने का है। वह अपनी उम्र के बच्चों की तरह ही बड़ों की बाते सुनता है। अंगुली के इशारे से प्रतिक्रिया भी करता है। कुछ शब्द स्पष्ट बोलता है। जहाज बोलो तो बाकायदा बाया हाथ उठाकर हवा में घुमाता हुआ घुघुघुंघुघुघुं की आवाज करता है। बड़ा बेटा चार साल का होने वाला है। वह कहानियाँ गौर से सुनता है। बीच-बीच में अपनी आँखों को आसमान की ओर नचाते हुए मेरी परवाह किए बिना उस कहानी में अपनी कहानी जोड़ने लगता है। कुछ पात्र जोड़ने लगता है। कभी कभी नहीं, अब तो अक्सर वह मुझे टोकते हुए कहता है कि नहीं उसने ऐसे बोला होगा। नहीं, वो फिर वहाँ जाता है। आदि-आदि बातें शामिल करता है। इस वय वर्ग के बच्चे हा नहीं ज्यादा नहीं से बड़ों की समझ से नहीं अपनी समझ से अपनी राय दे रहे होते हैं।

अब अपने परिवार के दो भतीजों और दो भतीजियों की बात पर आता हूँ। सबसे छोटा भतीजा सात साल का हो गया है। भतीजी आठ की है। शेष दो दस और बारह वर्ष के हैं। जब मैं इन सबकों एक साथ बिठाकर कोई कहानी सुनाने लगता हूं तो दस और बारह साल वाले बच्चे कहानी में यथार्थ वाली कहानियांे पर अधिक गौर करते हैं। उन्हें फंतासी कहानी अब ज्यादा दिलचस्प नहीं लगती। वहीं सात साल का भतीजा और आठ साल की भतीजी को ऐसी कहानियाँ सुनने में मज़ा आता है, वे दोनों जीवन की सच्चाईयों से इतर कल्पना और अति कल्पना से अधिक सराबोर वाली कहानियों को अधिक पसंद करते हैं। यथार्थपरक कहानियाँ सुनते हैं लेकिन उनके चेहरे तब सामान्य हो जाते हैं। मानों उन्हें बेस्वाद और भरपेट भोजन कर लेने के बाद फिर से भोजन करने को कहा जा रहा हो। हाँ। वह अपने जी चुके जीवन में देखी-भोगी गई बातों से हर कहानी को जोड़ना नहीं भूलते।

अब यह जरूरी भी नहीं कि इन छह बच्चों के आधार पर हम समेकित बच्चों के स्वभाव का सार निकाल लें। लेकिन मैं तो अक्सर कहानी की चर्चा करते समय बच्चों की आयु को देखते हुए इन बातों पर लम्बे समय से किसी निष्कर्ष की तलाश में हूँ।कई बार अलग-अलग आयु के बच्चों को एक साथ चार-पाँच कहानियाँ ले जाकर सुनाने-पढ़ाने के अध्ययन ने मुझे चैंकाया है। यदि कहानियों में आयु वर्ग के हिसाब से कथावस्तु नहीं है तो बच्चों के समूह में कई बच्चे बौर होने लगते हैं। वह प्रतिक्रिया करना छोड़ देते हैं। एक के बाद एक कर सारी कहानी नहीं सुनाने से भी वह चाव नहीं आ पाता जो पहली कहानी सुनाते समय सब बच्चों के चेहरे पर था। बच्चे दूसरी कहानी के बाद से ही अपनी एकाग्रता खोने लगते हैं। ऐसा क्यों हुआ होगा?

बालसाहित्य की कोई रचना पढ़ने या सुनाने से पहले जब भी हम यह परख लेते हैं, या अंदाजा लगा लेते हैं कि अमुक रचना किस आयु वर्ग के बच्चों के लिए अधिक उचित है तो अमूमन वह अपवादस्वरूप बच्चों में ग्राह्य हो जाती है। यदि कहानी सुनाते समय हम बच्चों की आयु के अनुसार यथार्थ और कल्पना का घोल तय कर कहानी का चयन कर लेते हैं तो कहानी चल पड़ती है। बच्चे एकाग्रता से सुनते भी है और उन्हें मज़ा भी आता है। बहुत छोटे बच्चों को यथार्थपरक कहानियां ज्यादा नहीं भाती। उन्हें तो चटपटी, मज़ेदार, गुदगुदाने वाली, कल्पनाओं के पँख लगाने वाली कहानियाँ ज्यादा भाती हैं। उन्हें अभी जीवन के कड़वे और सच्चे तानो-बानों से बुनी कथावस्तु से क्या लेना-देना?लेकिन वहीं जो बच्चे बड़े हो रहे है। वे जो अब अपने ही जीवन को अपने अनुभव के साँचे में फिट करते हुए एक-एक कदम आगे बढ़ाने लगे हैं, उन्हें अति काल्पनिक, फँतासी से इतर उन यथार्थवादी कहानियों में अधिक मज़ा आता है, जिनसे वे खुद दो-चार होते हैं। कहानी सुनाने के साथ यदि ऐसा अधिक मज़ेदार होता है, तो फिर हम यही प्रयोग रचना लिखते समय क्यों नहीं कर सकते?

दुनिया की आबादी में बच्चे तीस फीसद से अधिक हैं। यह बच्चे दुनिया का भविष्य हैं। राष्ट्र की प्रगति में बच्चों की भूमिका महत्वपूर्ण है। स्वस्थ और समग्र विकसित बच्चा ही तो किसी राष्ट्र के विकास में महती भूमिका निभाता है। विकसित देशों की नीतियों पर नज़र डालने से स्पष्ट होता है कि वह देश अन्यों की अपेक्षा इसलिए भी समृद्ध हैं, क्योंकि उन्होंने बच्चों को खुशहाल बचपन दिया। बच्चों के हित में कई योजनाएँ संचालित की।

आज अभिभावक गर्भस्थ शिशु से लेकर बालिग होने तक अपने बच्चे के प्रति बेहद सजग और संवेदनशील दिखाई देते हैं। आज उनकी शिक्षा, खेल, कॅरियर रहन-सहन और खान-पान तलक के पहलूओं पर बाज़ार की पैनी नज़र है। पिछले दो दशकों में बच्चों के प्रति उदार और दूरदर्शिता से भरे नज़रिए में आशातीत वृद्धि हुई है।बच्चों की शिक्षा के साथ-साथ बालसाहित्य पर भी विहंगम चर्चा, बहस और विमर्श तेजी से बढ़े हैं। आज बच्चों में पढ़ने के प्रति रुचि जगाने वाली कई पत्रिकाएँ बाज़ार में हैं। ये और बात है कि बच्चे क्या पढ़ना चाहते हैं? बच्चों को पढ़ने के लिए कैसी सामग्री दी जानी चाहिए? बच्चों को कैसी सामग्री नहीं देनी चाहिए? क्या बाल पत्रिकाएँ बच्चों को स्वस्थ साहित्य उपलब्ध करा पा रही हैं? क्या बच्चों की पत्रिकाएँ बच्चों के लिए हैं? बालसाहित्य से बच्चों में वैज्ञानिक जागरुकता को कैसे बढ़ाया जा सकता है? इस तरह के कई सवाल हैं, जिन पर समय-समय पर बालसाहित्यकार चर्चा कर रहे हैं।

इन दिनों एक बेहद महत्वपूर्ण सवाल विमर्श का विषय बना हुआ है। बालसाहित्य में कितना यथार्थ हो और वह कितना कल्पना से भरा हुआ हो? इसमें कोई दो राय हो नहीं सकती कि अब तक जितना भी बालसाहित्य लिखा गया है, उसमें बहुत सारी रचना सामग्री बाल मनोविज्ञान, बाल स्वभाव और बाल रुचियों की दृष्टि से असरदार नहीं है।नीरस और निष्प्रभावी रचना के कई कारण हो सकते हैं। एक बड़ा कारण तो यह है कि बाल साहित्यकारों में अमूमन अधिकतरों ने बच्चे को कच्चा घड़ा, मिट्टी का लोंदा और कोरी स्लेट मान लिया। यह धारणा भी एक कारण है कि बच्चों को कुछ भी परोस दो, वह उसे ग्रहण कर ही लेगा। यह भी कारण संभव है कि रचना का निर्माण करते समय बच्चे की अवस्था का ध्यान ही न रहा हो। यह भी संभव है कि किसी रचना की प्रक्रिया के समय बच्चे की समझ, रुचि और मनःस्थिति का ध्यान न रहा हो। यह भी संभव है कि बालसाहित्यकार ने अपने बचपन को ध्यान में रखते हुए रचना लिखी हो, जबकि जब वह रचना अस्तित्व में आई तब उसके बचपन को बीते चालीस साल और गुजर गए हों। क्या चालीस सालों में बच्चों का बचपन वैसा ही रहा होगा? तब क्या ऐसी रचना सामग्री चालीस साल बाद के बचपन में जी रहे बच्चे का भाएगी?

सामान्यतः दुनिया में बच्चों की आयु वर्ग का कोई सार्वभौमिक खाका नहीं है। कहीं तो बालिग होने तक के सभी बच्चों को बच्चा ही माना जाता है। कहीं किशोर उम्र चैदह से सोलह है तो कहीं तेरह से पन्द्रह मानी जाती है तो कहीं कुछ और मानी जाती है। आपराधिक कृत्यों में भी बच्चे की उम्र सीमा में मत-मतान्तर हैं।

शैक्षिक लिहाज़ से देखें तो कक्षा पाँच तक के बच्चों के लिए अलग स्कूल हैं। कक्षा छह से आठ में पढ़ने वाले बच्चों के लिए अलग स्कूल हैं। नौ और दस में पढ़ने वाले बच्चों के लिए अलग स्कूल हैं। यानि इन आयु वर्ग के बच्चों की हर तरह की जरूरते अलग-अलग हैं।

बहरहाल आम तौर पर हम अपने आस-पास यह सुनते आए हैं कि कि बच्चा हर साल अपने रंग बदलता है। जब तक बच्चा चलना-फिरना नहीं सीख लेता, उसकी एक सीमित दुनिया होती है। लेकिन उस सीमित दुनिया में भी उसका अपना अनुभव मायने रखता है। वह खुद देखकर-टटोलकर अपनी समझ बढ़ाता रहता है।जब हम उन बच्चों की दैनिक क्रियाएँ देखते हैं, जो चलने-फिरने लगता है तो उसकी गतिविधियाँ तेजी से बढ़ने लगती हैं। वह अब संकेतों से आगे अपनी भावनाओं को सार्थक-निरर्थक ध्वनियों के सहारे आकार देने लगता है। वह हर अनोखी और नई चीज़ को अपने हाथ में लेने को आतुर रहता है।जब हम उन बच्चों की दैनिक क्रियाओं को देखते हैं, जो तीन साल से अधिक के हो गए हैं, तो वह कई काल्पनिक बातों और चीज़ों को बातचीत में शामिल करने लगते हैं। यह बच्चे अब किस्सा सुनाने लग जाते हैं। कहानी सुनने में इनकी दिलचस्पी बढ़ने लगती है। यह बच्चे तेजी से बातों को ग्रहण करते हैं। अपनी अभिव्यक्ति में बड़ों का अनुसरण करते हैं।

छह साल की उम्र तक आते-आते बच्चा अपने मन की कहने लगता है। अपने मन की करने लगता है। कई बार वह बड़ों की बातों को सुन कर भी अनसुना करने लगता है। मना करने वाली बातों को-गतिविधियों को ही करता है। करना चाहता है। लेकिन खुद हुए अनुभव से ही वह किसी दृष्टिकोण को आत्मसात् करने लगता है।सात साल की उम्र तक आते-आते बच्चा कहने लगता है-‘‘क्या ऐसा होता है? नहीं नहीं। ऐसा थोड़े न होता है।’’

इन सब उदाहरणों का जिक्र यहाँ करने का मकसद मात्र इतना ही है कि उपरोक्त बच्चों की आयु के लिए एक ही रचना कैसे कारगर हो सकती है? पढ़ना सीख गए बच्चों के लिए तो और भी चुनोतियाँ हैं। अभी-अभी जो बच्चे अक्षर पहचान कर वाक्य मिलाकर पढ़ना सीखें हैं, उनके लिए लिखना तो और भी चुनौती भरा है। 

अब उपरोक्त आयु वर्ग के बच्चों को ध्यान में रखते हुए विचार करते हुए आसानी से महसूस किया जा सकता है कि सभी बच्चों के लिए एक जैसी कल्पना मुनासिब नहीं होगी। क्या कल्पना और अति कल्पना में अन्तर नहीं रखना होगा? वह भी आयु वर्ग के बच्चों के स्तर के आधार पर।ऐसे आयु वर्ग के बच्चे जो अब जीवन की असलियत को समझना शुरू करने लगते हैं। वे जान चुके होते हैं कि सूरज तो स्थिर है। सूरज न तो डूबता है और न ही उगता है। वे जान चुके होते हैं कि चन्दा मामा नहीं है। चाँद तो एक ग्रह है। आदि-आदि। अब इस तरह के जानने और मानने वाले बच्चों के लिए भी क्या अलादीन का चिराग चलेगा? नहीं चलेगा।

यहाँ एक सवाल उठ सकता है। फिर तो फिल्में और फिल्मी गीत भी यथार्थपरक होने चाहिए? जवाब कुछ भी हो। फिल्म और गीत कुछ नहीं सीखाते। यह कहना तो गलत होगा। यह कहना भी गलत होगा कि किसी भी फिल्म से हम कुछ सीखते ही नहीं। लेकिन अमूमन फिल्म और गीत हम मनोरंजन के लिए देखते-सुनते हैं। अब बालफिल्म और बाल गीतों के लिए यह कहना दूसरी बात हो जाएगी। बालसाहित्य के मामले में भी यह चिन्तन जरूरी होगा कि क्या बालसाहित्य का मकसद मात्र मनोरंजन करना रह गया है?

आज तो बच्चों के पास मनोरंजन के कई साधन हैं। तब भला बालसाहित्य का मकसद विहंगम नहीं होना चाहिए?आज आवश्यकता इस बात की है कि हम कोशिश करें कि बालसाहित्य ऐसा रचें, जो बच्चों के भावी जीवन में मददगार हो। कल्पनाओं की उड़ान हो तो ऐसी हो, कि बच्चे के मन-मस्तिष्क में उसका सकारात्मक असर पड़े। वह शक्तिमान की तरह छत से छलांग न लगाने की कोशिश करें। वह जान ले कि शक्तिमान जो दूसरों की मदद करने के लिए पलक झपकते ही पहुँच जाता है, उन्हें भी अपनी क्षमतानुसार मदद का भाव अपने ह्दय में संजोना है। कल्पना और अनुमान की उड़ान से बच्चों में वैज्ञानिक जागरुकता जगे तो कोई बात बने।

ऐसा साहित्य किसी काम का नहीं जो बच्चों में सामाजिक समरसता की बजाए आपस में ईष्याभाव से उपजी प्रतियोगिता कराने लगे। आखिरकार बचपन से किशोर और फिर युवा होने की यात्रा में भी तो वह यथार्थ का सामना करता है। फिर हमारा बालसाहित्य उस यथार्थ का सामना करने के लिए क्यों न बच्चों को साहित्य के सहारे तैयार करे? बस इस बात का ध्यान रखते हुए कि बचपन कहीं खो न जाए। सुनहरा बचपन फिर कभी लौटता नहीं। सतरंगी सपनों की अनन्त यात्रा और अति काल्पनिक उड़ानों का आनन्द बचपन में ही लिया जा सकता है। इसे जीवंत बनाए रखना और बचाए रखना बालसाहित्यकारों की ही जिम्मेदारी है। बशर्ते वह बालसाहित्य का सृजन नई पौध की आवश्यकताओं और रुचियों के अनुरूप कर सकें।
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-मनोहर ‘मनु’