26 नव॰ 2013

अगली बार जरूर आना.-मनोहर चमोली ‘मनु’ champak NOV 1st,2013



अगली बार जरूर आना


मनोहर चमोली ‘मनु’


नुभव चिल्लाया-‘‘मम्मी! यहां आओ। देखो न, ये नई चिड़िया हमारे घर में घुस आई है। इसकी पूंछ दो मुंह वाली है।’’
अमिता दौड़कर आई। खुशी से बोली-‘‘अरे! ये तो अबाबील है। प्रवासी पक्षी। दूर देश से आई है। ये हमेशा यहां नहीं रहेगी। कुछ महीनों बाद ये वापिस अपने वतन चली जाएगी।’’

अनुभव सोचने लगा-‘‘इसका मतलब ये विदेशी चिड़िया है। भारत में घूमने आई है। मैं इसे अपने घर में नहीं रहने दंूगा।’’
अबाबील का जोड़ा मेहनती था। दोनों ने दिनरात एक कर दिया। उन्होंने घर की बैठक वाले कमरे का एक कोना चुन लिया था। छत के तिकोने पर दोनों ने मिलकर घोंसला बना लिया।
अमिता ने अनुभव से कहा-‘‘अबाबील ने कितना सुंदर घोंसला बनाया है। अब हम इन्हें झुनका और झुनकी कहेंगे।’’
अनुभव ने पूछा-‘‘मम्मी। ये अपनी चोंच में क्या ला रहे हैं?’’
अमिता ने बताया-‘‘झुनकी अंडे देगी। घोंसला भीतर से नरम और गरम रहेगा। इसके लिए झुनकाझुनकी घासफूस के तिनके, पंख और मुलायम रेशे ढूंढखोज कर ला रहे हैं।’’ यह कहकर अमिता रसोई में चली गई।
अनुभव ने मेज सरकाया। उस पर स्टूल रखा। स्टूल पर चढ़ कर अनुभव ने छतरी की नोक से झुनकाझुनकी का घोंसला तोड़ दिया। झुनकाझुनकी चिल्लाने लगीं। कमरे के चारों ओर मंडराने लगीं।
‘‘अनुभव। ये तुमने अच्छा नहीं किया। चलो हटो यहां से।’’ अमिता दौड़कर रसोई से आई और टूटा हुआ घोंसला देखकर अनुभव से बोली।
विदेशी चिड़िया की वजह से मुझे डांट पड़ी है। अनुभव यही सोच रहा था।
शाम हुई तो अमिता ने अनुभव को चायनाश्ता देते हुए कहा-‘‘झुनकाझुनकी फिर से अपना घोंसला उसी जगह पर बना रहे हैं। घासफूस और गीली मिट्टी चोंच में ला लाकर वह अपना घोंसला बनाते हैं। तिनकातिनका जोड़ते हैं। देखो। बेचारे दोबारा मेहनत कर रहे हैं। सिर्फ तुम्हारी वजह से। शुक्र है कि वे हमारा घर छोड़कर कहीं ओर नहीं गये।’’ यह सुनकर अनुभव चुप रहा। फिर मन ही मन में सोचने लगा-‘‘मैं झुनकाझुनकी को किसी भी सूरत में यहां नहीं रहने दूंगा। मैं इनका घोंसला बनने ही नहीं दूंगा।’’
झुनकाझुनकी ने बिना थकेरुके दो दिन की मशक्कत के बाद घोंसला तैयार कर लिया। अनुभव दोस्त से गुलेल मांग कर ले आया। उसने गुलेल स्टोर रूम में छिपा दी। झुनकाझुनकी दिन भर चहचहाते। फुर्र से उड़ते हुए बाहर निकलते। बैठक के दोतीन चक्कर लगाते। फिर एकएक कर घोंसले के अंदर घुस जाते।
एक दिन अमिता ने अनुभव को बताया-‘‘लगता है झुनकी ने अंडे दे दिये हैं। देखो। झुनका चोंच में कीड़ेमकोड़े पकड़ कर ला रहा है। कीटपतंगे और केंचुए इनका प्रिय भोजन है। पंद्रहबीस दिनों के बाद घोंसले से बच्चों की चींचीं की आवाजें सुनाई देने लगेंगी।’’
अनुभव सोचने लगा-‘‘मेरा निशाना पक्का है। बस एक बार गुलेल चलाने का मौका मिल जाए। घोंसला अंडों समेत नीचे गिरा दूंगा।’’
फिर एक दिन घोंसले से बच्चों की चींचीं की आवाजें आने लगीं। अनुभव दौड़कर आया। घोंसले से आ रही आवाजों को सुनने लगा।
‘‘अब कुछ ही दिनों में बच्चे घोंसले से बाहर निकल आएंगे।’’ अमिता ने अनुभव से कहा। अनुभव मन ही मन बुदबुदाया-‘‘कुछ भी हो। आज रात को मैं घोंसला तोड़ ही दूंगा।’’
रात हुई। अनुभव चुपचाप उठा। स्टोर रूम से गुलेल निकाल कर वह घोंसले के नजदीक जा पंहुचा। वह अभी निशाना साध ही रहा था कि झुनकाझुनकी चींचीं करते हुए अनुभव पर झपट पड़े। अनुभव के हाथ से गुलेल छिटक कर सोफे के पीछे जा गिरी। अनुभव उछलकर सोफे पर जा चढ़ा।
‘‘अनुभव बच कर रहना। देखो सोफे के सामने कितना बड़ा बिच्छू है।’’ अंकिता खटका सुनकर बैठक वाले कमरे में आ चुकी थी। दूसरे ही क्षण झुनकाझुनकी ने बिच्छू को चोंच मारमार कर जख्मी कर दिया। झुनका बिच्छू को चोंच में उठा कर घोंसले में ले गया। अनुभव डर के मारे कांप रहा था।
अमिता ने कहा-‘‘ अनुभव तुम बालबाल बच गए। वह बिच्छू तो खतरनाक था। अब तक झुनकाझुनकी के बच्चे बिच्छु को अपना भोजन बना चुके होंगे। यदि बिच्छू कहीं छिप जाता तो बड़ी मुश्किल हो जाती।’’ अनुभव ने राहत की सांस ली।
दिन गुजरते गए। अनुभव स्कूल आतेजाते घोंसले पर नज़र जरूर डालता। अब वह बैठक वाले कमरे में ही पढ़ाई करता। एक शाम अमिता ने कहा-‘‘अनुभव। मैं बाजार जा रही हूं।’’
अनुभव को इसी पल का इंतजार था। वह दौड़कर गुलेल ले आया। घोंसला निशाने पर था। इस बार उसका निशाना चूका नहीं। घोंसला भरभराकर नीचे आ गिरा। ढेर में मिट्टी, पंख, घासफूस के अलावा कुछ नहीं था। अमिता देर शाम घर लौटी और सीधे रसोई में खाना बनाने चली गई। खाना खाकर सब सो गए।
सुबह हुई। अमिता ने उठकर बैठक की सफाई की। अनुभव उठा तो वह डरता हुआ बैठक के कमरे में जा पहुंचा। अमिता ने कहा-‘‘अनुभव बेटा। झुनकाझुनकी का घोंसला न जाने कैसे टूट गया।’’
अनुभव ने कहा-‘‘ मम्मी लगता है कि वे अपने बच्चों समेत अपने देश वापिस लौट गए।’’
अमिता उदास हो गई। अनुभव से बोली-‘‘हां। लेकिन मुझे इस बात का दुख है कि तुम झुनकाझुनकी के बच्चों को देख नहीं पाए। तुम्हारे स्कूल जाने के बाद और तुम्हारे स्कूल आने से पहले वे सब बैठक में यहांवहां खूब उड़ते थे। कई बार रसोई में भी आ जाते थे।’’
यह सुनकर अनुभव को हैरानी हुई। कुछ ही देर में उसे भी महसूस हुआ कि घर सूनासूना सा लग रहा है। वह मुस्कराया और मन ही मन कहने लगा-‘‘साॅरी झुनकाझुनकी। अगली बार फिर आना और हमारे घर ही आना। मैं इंतजार करुंगा।’’
अनुभव चुपचाप स्टोर रूम में गया। गुलेल एक कोने में पड़ी थी। अनुभव ने गुलेल उठाई और दोस्त को वापिस करने के लिए उसके घर की ओर चल पड़ा।
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17 नव॰ 2013

बाल साहित्य और बच्चे : बाल साहित्य आलेख

बाल-साहित्य और बच्चे

-मनोहर चमोली ‘मनु’

    क्या बाल-साहित्य वह है, जो बच्चे लिखते हैं? क्या वह है, जो बच्चों के लिए लिखा जाता है? क्या अच्छी बाल पत्रिका वह है, जिसमें बाल लेखकों को स्थान मिलता है? क्या वह हैं, जिनमें बच्चों के लिए लिखी गई सामग्री को पर्याप्त स्थान मिलता है?
सरसरी तौर पर यह सवाल हास्यास्पद हो सकते हैं। लेकिन गौर से इन सवालों की प्रकृति पर ध्यान दें तो विमर्श की संभावना बनती है। पिछले दस-पन्द्रह वर्षों से प्रकाशित अमूमन सभी बाल पत्रिकाएँ मैं पढ़ रहा हूँ। पाता हूँ कि बाल पत्रिकाओं के नाम पर इन अधिकतर पत्रिकाओं में लेखक के रूप में बड़े-बुजुर्ग ही लिख रहे हैं। अब यदि बच्चे नहीं लिख रहे हैं तो क्या बड़ों का लिखा बच्चे पढ़ रहे हैं? ऐसी कुछ-एक पत्रिकाएँ हैं, जो बड़ों-बच्चों को एक ही अंक में स्थान दे रही है। अब ऐसी पत्रिकाओं की सामग्री की पठनीयता पर आते हैं। बड़ों का तो मैं क्या कहूँ। लेकिन बच्चे पहले बच्चों का लिखा हुआ ही पढ़ते हैं। क्यों? बड़ों का लिखा हुआ अमूमन बच्चे पढ़ते ही नहीं। अपवाद छोड़ दंे तो, ऐसा क्यों है? क्या नामचीन बाल साहित्यकारों ने कोई रचना पत्रिका में भेजने से पहले बच्चों को पढ़वाईं? जँचवाई?
    बड़ों का कहना होता है कि बच्चे कैसे हमारे लेखन का आकलन कर पाएँगे। बाल-लेखन है तो बच्चों के लिए और हम यह कहते फिरे कि बच्चे उसका आकलन नहीं कर सकते। फिर वह रचना बाल पत्रिका में क्यों? किसके लिए? अधिकतर बाल-साहित्यकार बच्चों के लिए लिखते समय बच्चे को बोदा-भोंदू-कोरा स्लेट, अज्ञानी, कच्ची मिट्टी का घड़ा आदि मानकर रचनाएँ लिखते हैं। खुद को बड़े के स्तर पर रखकर लिखते हैं? बहुत हुआ, तो अपना जिया बचपन याद करते हुए लिखते हैं। क्या इस तरह से मानकर कुछ लिख लेना बाल-साहित्य का भला करेगा? कितना अच्छा हो कि पहले हम बड़े बच्चों के साथ समय बिताकर जीवन का आनंद लें। उनके साथ घुले-मिले। उनके अपने समाज में बच्चा बनकर रहें। तब भला क्यों कर अच्छी रचना नहीं बन सकेगी?
    एक मित्र ने कहा कुछ कविताएँ भेजिए। मैंने आठ-दस कविताएँ भेज दी। कुछ दिनों बाद उनका फोन आया कि आपकी दो रचनाएँ बच्चों ने स्वीकार कर ली हैं। मैं चैंका। पूछा तो उन्होंने बताया-‘‘दरअसल। रचनाओं का चुनाव बच्चे ही कर रहे हैं। जो उन्हें पहले वाचन में पसंद आ रही हैं। उसे वह बड़े समूह में दे रहे हैं। अधिकतर जब उसे पठनीय मान रहे हैं, तब ही उसे स्वीकार किया जा रहा है। मेरी भूमिका तो बस उनके साथ सहायक-सी है।’’ इसे आप क्या कहेंगे?
    एक संपादक का फोन आया कि कुछ भेजिए। मैंने कहा-‘‘बच्चों जैसा या बच्चों का या बच्चों के लिए?’’ वह कहने लगे-‘‘मतलब?’’ मैंने जवाब दिया-‘‘यही कि जिस स्तर के बच्चे हैं। वह जो सोचते हैं, जैसा सोचते हैं। उसके आस-पास लिखने वाला बच्चों जैसा हुआ। जिस स्तर के बच्चे हैं, उन्हीं से लिखवाया जाए तो बच्चों का और मैं जो सोचता हूं कि यह रचना बच्चों के लिए होनी चाहिए, वह बच्चों के लिए हुई।’’ वे कहने लगे जो आप सोचते हैं कि वह बच्चों के लिए होनी चाहिए, वे भेज दीजिएा
    अब आप बताइए। मैं जो सोचता हूँ या आप जो सोचते हैं, वह बच्चों के लिए हो सकता है? शायद कुछ-कुछ। या कभी कुछ भी नहीं। ये भी संभव है कि बहुत कुछ। लेकिन हम यह मान लें कि हमने जो लिखा है, वह संपूर्ण हैं-पर्याप्त है? कहने का अर्थ यही है कि हम बड़े बच्चों के लिए जो कुछ घर बैठकर अपनी सोच से लिख रहे हैं, वह जरूरी नहीं कि वह बच्चों को मुफीद भी लगे। बच्चे उसे पहले ही वाचन में खारिज भी कर सकते हैं। इसका अर्थ यह भी नहीं कि हम लिखना ही छोड़ दें। भाव यही है कि क्या हम किसी भी रचना का निर्माण करते समय यह सोचते हैं कि जिस पाठक के लिए हम लिख रहे हैं, उसकी सोच, दायरा, मन, इच्छाएँ, सपने और परिस्थितियाँ रचना को आत्मसात् करने वाली है भी या नहीं।
    हमारे एक अग्रज साहित्यकार हैं। वह निरंतर अध्ययनशील रहते हैं। एक बार कहने लगे-‘‘क्या देश की अग्रणी बाल पत्रिकाओं में छपते रहना काफी है? क्या चार-सात बाल-साहित्य की दिशा में संग्रह आ जाना महत्वपूर्ण है? आपका साहित्य देश भर की पत्रिकाओं में छपता है। लेकिन क्या आपके साहित्य को पढने वाला पाठक आपके क्षेत्र-विशेष, अंचल और आपके स्थानीय परिवेश को महसूस कर पाता है?’’
मेरे लिए यह सवाल मननीय थे। मैंने अपनी सभी रचनाएँ घर आकर टटोली। तलीशी। पढ़ीं। एक भी रचना ऐसी नहीं मिली, जिसे पढ़कर सुदूर बैठा या पड़ोस में बैठा पाठक यह महसूस कर ले कि इस रचना का रचनाकार किस परिवेश का है। मैंने यह महसूस किया है कि रचनाकार का यह भी धर्म है कि देश-दुनिया को अपने स्थानीय परिवेश से भी परिचय कराए। दुनिया भर के बच्चे अपनी दुनिया को आपकी दुनिया से जोड़कर देखना चाहते हैं। वे रचनाकार बधाई के पात्र हैं जिनकी अधिकतर रचनाओं में उनका अंचल झलकता है। उनके परिवेश के बच्चों का चित्रण होता है। मेरा मानना है कि गिलहरी हर जगह नहीं होती। समुद्र पहाड़ के बच्चों के लिए विहंगम-अद्भुत और हैरत में डालने वाला होता है। ठीक उसी प्रकार जब हमने पहली बार हाथी देखा हो। पहली बार रेल देखी हो। आज भी पहाड़ के बच्चों के लिए हवाई जहाज इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना रेल के बारे में सोचना उसे देखने की इच्छा का प्रबल होना। जहाज तो वह अपने आसमान में दूर से ही सही,यदा-कदा देखते ही रहते हैं। 
    आलेख के आरंभ में उठाए गए प्रश्न अभी भी ज्यों के त्यों हैं। हम सब बाल पत्रिकाओं में बच्चों की भावनाओं को भी उकेरें। उनके लिखे हुए को प्रोत्साहित करें। हर बच्चे को प्रथम,द्वितीय और तृतीय की कसौटी पर न रखें। उसके लेखन का बढ़ाने में सहायता दें। ऐसी बहुत कम पत्रिकाएँ हैं, जो बच्चों के लिए हैं। जो बच्चों के लिखे हुए को ज्यादा स्थान देती है। हास्यास्पद बात तो यह है कि इन पत्रिकाओं को बचकाना,कूड़ा-कबाड़ करार दिया जाता है। इन्हें उद्देश्यहीन घोषित कर दिया जाता है। यह घोषणा भी वे करते हैं, जो बड़े हैं। जिन्हें बच्चों से बात करने का सलीका भी नहीं आता है। बाल-साहित्य में खुद को तराशना बड़ी बात है। एक रचना भी हम लिख पाएँ तो हम भी फणीश्वर नाथ रेणू न बन जाएँ ! शायद यही कारण है कि गुलज़ार साहब ने यह कहा कि हिन्दी में बाल साहित्य लिखा ही नहीं जा रहा है। शायद यही अर्थ रहा होगा कि जो कुछ लिखा जा रहा है, वह बच्चों के लिए कारगर नहीं है। बच्चे उसमें रम नहीं रहे हैं। आनंदित नहीं हो रहे हैं।
    अधिकतर पत्रिकाएं खुद को बाल पत्रिकाएँ कहती हैं। लेकिन बच्चों की लिखी गई रचना के लिए उनमें तीन-चार पेज ही हैं। क्या इन्हें बाल पत्रिकाएँ कहेंगे? संपादकों का कहना है कि जरूरी नहीं कि बच्चे अच्छा स्तर का लिखे। उनका हर कुछ लिखना बाल साहित्य कैसे हो सकता है? एक उदाहरण देना चाहूँगा। हम बाजार में सब्जी खरीदने जाते हैं। एक ही स्टाॅल पर विविधता भरी सब्जियाँ लाते हैं। स्वाद, रुचि और इच्छा के अनुसार जो हमें नहीं जंचती,वह तरकारी हमारे झोले में नहीं आती। फिर हम बच्चों को बच्चों की पत्रिकाओं में अधिक स्थान देने से क्यों बचते हैं। क्या बच्चों की पत्रिकाएं हम बड़ों के लिए तो नहीं हैं? क्या बच्चों की पत्रिकाएं बच्चों के लिए हैं भी या नहीं?
    बगैर किसी पत्रिका का नाम लिए मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि अधिकतर पत्रिकाएँ बच्चों को नौसिखिया ही मानती है। रंग भरो प्रतियोगिता, शीर्षक आधारित प्रतियोगिता, बूझो तो जानें, आप कितना जानते हैं? ऐसे कई स्तंभों से पत्रिकाएँ भरी पड़ी हैं, जो हर अंक में बच्चों को खुद को साबित करने की होड़ में लगी है। तीन-चार प्रविष्टियों को पुरस्कृत कर देने भर से बाल विकास हो रहा है? एक संस्था हैं वह हर साल किसी के जन्मदिवस पर चित्रकला प्रतियोगिता कराती है। हर साल पाँच सौ से अधिक बच्चे उस प्रतियोगिता में सहभागी बनते हैं। उसी स्पाॅट पर उसी दिन प्रथम,द्वितीय,तृतीय और तीन सांत्वना पुरस्कार देकर यह संस्था सोचती है कि वह बच्चों को चित्रकार बना रही है। क्या वाकई यह संस्था बाल विकास में कुछ कर रही है? जिन्हें पिछले दस सालों में (लगभग साठ बच्चों को) जिन्हें चित्रकला के नाम पर संस्था ने पुरस्कृत किया होगा उनमें एक भी चित्रकला की दिशा में आगे बढ़ पाया? यह शोध का विषय हो सकता है। यही हाल बाल साहित्य लिखने का है। क्या बाल-साहित्यकारों की रचनाओं को पढ़कर या बाल पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ छप जाने भर से बच्चों में सकारात्मक बदलाव आया है? यह विमर्श का विषय है।
    आज नहीं तो कल हमें अपनी दिशा तय करनी होगी। वह बाल-साहित्य कपोल-कल्पना ही होगा। निरर्थक ही होगा, जिसके केन्द्र में बच्चे नहीं है। जिनका सरोकार बच्चों से नहीं है। सीख, उपदेश और नसीहत देते रहने का हश्र शायद वही होगा, जो हर साल रावण का पुतला जला देने से हो रहा है। रामलीला में आदर्श अभिनय कर देने भर से हम आदर्श और अनुकरणीय नहीं हुए। ठीक उसी तरह से बाल-साहित्य में भी ‘चाहिए-चाहिए’-‘ऐसा करो-ऐसा करो’ चिल्लाने भर से बच्चों का भला नहीं होने वाला है। अब समय आ गया है कि इक्कीसवीं सदी के बाल साहित्य में हम कम से कम एक-एक रचना ही ऐसी सृजित करे जो भविष्य में रेखांकित हो। जिसका उल्लेख किया जा सके। जिसे पढ़क्र बच्चे आनंदित हो। मनन की स्थिति में हों। अन्यथा....।
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-मनोहर चमोली ‘मनु’.

12 नव॰ 2013

साहित्य अमृत नवम्बर 2013


अगर वे उस दिन भी स्कूल आते तो

-मनोहर चमोली ‘मनु’
    मुझे आज भी स्कूल की पढ़ाई-लिखाई के दिन याद हैं। अजीत और खजान मेरे सहपाठी थे। हम पहली कक्षा के पहले ही दिन दोस्त बन गए थे। हम तीनों ने हँसते-खेलते कक्षा पाँच पास कर ली थी। हम कक्षा छःह में भर्ती भी हो गए थे। लेकिन एक दिन वे दोनों स्कूल नहीं आए। उनका उस एक दिन स्कूल न आना, मेरे जीवन के महत्वपूर्ण बदलाव का कारण बन गया।

    आज सोचता हूँ कि यदि वे उस दिन भी स्कूल आते, तो आज मेरा क्या होता? डर जाता हूँ। बेचैन हो जाता हूँ। वे मेरे लिए महत्वपूर्ण थे। वे ही तो थे, जिनकी वजह से मैं आज अध्यापक हूँ। वे ही तो हैं जिनकी वजह से मैं आज बरसों पुराने दिनों को याद कर रहा हूँ। उन्हें याद करते हुए मुस्करा भी रहा हूँ। मैं नहीं जानता कि वे दोनों आज कहाँ हैं। कैसे हैं? क्या करते हैं? लेकिन उनके साथ बिताये सैकड़ों दिनों की मस्ती की मिठास आज भी जैसे जीभ पर लगी हो। मानो ताज़ा हो।
    अजीत का रंग गोरा था। वह औसत से अधिक मोटा था। अजीत हमारी क्लास में सबसे ठिगना था। वह हमेशा किसी से भी लड़ने-भिड़ने को तैयार रहता। अजीत को स्कूल के सभी बच्चों के पिता के नाम कंठस्थ थे। अक्सर वे किसी को भी उसके पिता के नाम से पुकारता था। जो चिढ़ता तो वह उसे और चिढ़ाता।
    अजीत दुस्साहसी भी था। वह स्कूल की दीवारों से लेकर आने-जाने वाले रास्तों पर चाॅक से सहपाठियों के पिता के नाम लिख दिया करता था। अजीत ने हर अध्यापक के नए नाम रखे हुए थे। उसके द्वारा रखे गए नाम ही स्कूल में और स्कूल से बाहर भी लोकप्रिय हुए। अजीत किसी भी पेड़ पर बड़ी आसानी से चढ़ जाता। कूदने-फाँदने में उसका कोई सानी नहीं था।
    मुझे अच्छी तरह याद है कि स्कूल का घण्टा एक बार ‘टन्न’ से बजने का क्या अर्थ था। यह घण्टा सुनते ही हम जोर से शोर मचाते थे। संकेत होता था, बेवक्त दोबारा मैदान में अपना बस्ता सहित प्रातःकालीन सभा की तरह खड़ा होना। यह प्रधानाचार्य के संबोधन का समय होता था। किसी के निधन होने की प्रधानाचार्य सूचना देते थे। दो मिनट का मौन रखा जाता था। शोक सभा का एक नियम होता था। दो मिनट मौन रहने के बाद सब सीधे अपने घर की ओर जाते थे। लेकिन दो मिनट होने से पहले कई छात्र-छात्राओं को हँसी आ जाती थी। आप समझ गए होंगे कि बंदर की तरह ‘खीं-खीं’ की आवाज कौन निकालता होगा। कौन हँसाने के लिए प्रेरित करता होगा? जी हाँ। अजीत ही यह काम करता था।
    खजान का रंग काला था। खजान का कद औसत से अधिक लंबा था। उसके दाँत मोतियों की तरह चमकते थे। उसका सिर भी सबसे बड़ा था। खजान की आँखें औसत से अधिक बड़ी थी। सिर बड़ा होने के कारण खजान दूर से ही पहचान लिया जाता था। उसके काले बाल हमेशा उसकी दाँयी आँख को ढक कर रखते थे। उसके बालों से हमेशा आँवले के तेल की खुशबू आती थी।
    खजान शरारती था। वह बिच्छू, छिपकली, घोंघा, जोंक और मेढक के बच्चे माचिस-सिगरेट की डिबिया में स्कूल लाता था। मौका मिलते ही वह उन्हें लड़कियों की ओर उछाल देता था। स्कूल में एक साथ कई चीखें निकल जाती। हो-हल्ला मच जाता। हँसी के ठहाके गूँज उठते। वहीं अजीत चेहरे में डर के भाव बना लेता। वह जताता कि उसे इन सब जीव-जन्तुओं से बेहद डर लगता है।
    अजीत कई बार निब वाला पैन हवा में उछाल देता। पैन की स्याही कई सहपाठियों के कपड़ों में बारिश की बूंदों की आकृति बना देती। यह सब शैतानियाँ वह बेहद फुर्ती से करता था। खजान कक्षा में यह शैतानियाँ गोपनीय ढंग से करता। परिणाम यह होता कि पिटाई समूची कक्षा की होती थी। वह कई बार किसी के बस्ते में चुपचाप केंचुएं के गुच्छे रख देता। कभी चुपके से किसी के टिफिन से रोटियाँ-आचार निकाल कर मुँह में ठूँस लेता। बारह महीनों उसे जुकाम रहता था।
    मैं? साँवला हूँ। मैं दब्बू था। शर्मीला और अंतर्मुखी था। कक्षा में शायद ही किसी सवाल का जवाब मैंने कभी दिया हो। तब भी, जब भले ही जवाब मुझे पता होता था। प्रातःकालीन सभा मंे गतिविधियाँ कराने का साहस मैं कभी नहीं बटोर पाया। मैं कभी भी अग्रजों की कक्षाओं के कक्ष में नहीं जा पाया। अध्यापकों का सामना करने की बजाय मैं कहीं छिप जाना बेहतर समझता था। मुझे गणित, अंग्रेजी और विज्ञान विषय कभी अच्छे नहीं लगे। मुझे जन्मतिथियाँ कभी याद नहीं रही। भूगोल और इतिहास तो कभी भी समझ नहीं आया।
    हाँ। चित्र बनाना और हिन्दी की किताब पढ़ना मुझे अच्छा लगता था। लेकिन मैं अन्य बच्चों की तरह कभी खड़ा होकर हिन्दी का कोई पाठ पढ़ने का साहस भी नहीं कर पाया। न ही मैंने कभी श्यामपट्ट पर जाकर आम-केला-संतरा बनाया।    
    हम तीनों बेमेल थे। फिर भी हम दोस्त थे। एक साथ स्कूल जाना। एक साथ स्कूल से घर लौटना। खाली वक्त पर एक साथ घूमना-टहलना। छुट्टी के दिन घने जंगल में चले जाना। पक्षियों के घोंसलों को खोजना। घोंसलों से अण्डों को निकालना, घोंसलों में पक्षियों के बच्चों को उठाना हमारा काम रहता। हमें पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों की अच्छी जानकारी हो गई थी। मदारी के खेल देखना हमें बेहद पसंद था। बंदर-भालू नचाने वाले और दवा बेचने वालों के तमाशों में हम सबसे आगे खड़े रहते।
    स्कूल हमारे गाँव से बहुत दूर था। दस-बारह गाँव के बच्चों के लिए एक ही स्कूल था। लगभग एक घण्टा पैदल चलकर हम स्कूल पहुँचते थे। हम घर से सबसे पहले निकल जाते। लेकिन स्कूल सबसे देर में पहुँचते। अक्सर स्कूल तब पहुँचते थे, जब प्रातःकालीन सभा हो जाती थी।
    स्कूल के कक्षा-कक्ष में दो दरवाजे होते थे। हम पीछे के दरवाजे से कक्षा में घुसते थे। जैसे ही अध्यापक ब्लैकबोर्ड में कुछ लिखना शुरू करते थे, उसी क्षण हम बारी-बारी से दबे पाँव कक्षा में घुस जाते। इसी तरह चुपचाप इसी दरवाजे से बाहर निकल जाते। छुट्टी का घंटा हमने शायद ही कभी सुना हो। हम अक्सर बीच में ही स्कूल से ‘टप’ लिया करते थे। लेकिन घर हम सबसे देर में पहुँचते थे।
    ब्लैक बोर्ड के ठीक सामने बाँयी ओर पाँच छात्र बैठते थे। दाँयी ओर पाँच छात्राएँ बैठती थीं। हम छात्रों की सबसे आखिरी पंक्ति में बैठते। हम तीनों कक्षा में होते हुए भी न होने के समान थे। हमारी बेसिर-पैर की बातें थीं कि कभी खत्म ही नहीं होती थीं। एक शिक्षक के बाद दूसरे शिक्षक के आने पर कक्षा के सब बच्चे खड़े हो जाते थे। एक हलचल-सी मच जाती थी। हम तभी जान पाते थे कि एक पीरियड खत्म हो गया है। 
    हमारी पढ़ने की बारी कभी आती ही नहीं थी। कोई भी अध्यापक कभी हमारी सीट तक नहीं आए। काॅपियों का ढेर कक्षा का माॅनीटर जमा करता था। हम बहाना बना देते कि आज काॅपी घर छूट गई है। कुछ दिनों बाद माॅनीटर ने भी हम तक आना छोड़ दिया। हम कक्षा में कभी शोर नहीं मचाते। कारण साफ था। हम तीनों सबसे पीछे जो बैठते थे। हमारे सिर अपनी-अपनी डेस्क पर झुके होते थे।
    हम तीनों अपनी ही बातों-गप्पों मंे व्यस्त रहते थे। हमने कभी यह जानने-सुनने की कोशिश ही नहीं की, कि अध्यापक पढ़ा क्या रहे हैं। अक्सर हम जरूरी सूचनाएं भी नहीं सुन पाते थे। कल फीस डे है। यह तो सुन लिया। लेकिन यह ध्यान नहीं दिया कि फीस कितनी लानी है।
    कई बार छुट्टी की घोषणा हो जाती थी। लेकिन हम तीनों सुबह-सवेरे तैयार होकर स्कूल चले आते। ऐसा कई बार होने के बाद एक तरीका खोज लिया गया। अब हम में से कोई एक हर सुबह स्कूल जाते हुए अन्य सहपाठियों को देख लेता। सीटी बजाकर संकेत देता कि आज स्कूल जाना है। सीटी की आवाज सुनकर ही हम तैयार होते। सीटी बजाने का तरीका भी तय किया हुआ था। एक लंबी सीटी और फिर एक छोटी ध्वनि की सीटी जरूर बजानी होती थी। यह इसलिए किया गया था कि कभी कोई मुगालता न हो। कभी किसी अन्य चैथे की सीटी पर हम तीनों को कोई गलतफहमी न हो।
    अक्सर अध्यापक कक्षा में कोई सवाल पूछते थे। आसान सवाल का जवाब तो आगे की पंक्तियों में बैठे सहपाठी दे दिया करते थे। लेकिन कभी-कभी कठिन सवाल का जवाब कोई नहीं दे पाता था। हमारी सीट के आगे बैठे हुए सहपाठियों की भी बारी आ जाती। वह भी खड़े हो जाते। तब जाकर हमें पता चलता था कि कोई सवाल पूछा गया है। लेकिन सवाल क्या पूछा गया होगा। यह हम तीनों कभी नहीं जान पाए। समूची कक्षा की पिटाई में हम भी पिटते।
    जब भी हमारी पिटाई होती, तब मुझे बहुत गुस्सा आता। मैं सोचता-‘‘ये इतने सारे हमसे आगे बैठते हैं। ध्यान से क्यों नहीं सुनते? मन लगाकर क्यों नहीं पढ़ते? इनके खड़े होने के बाद हमें भी खड़ा होना पड़ता है।’’
    एक सुबह की बात है। मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा। सूरज खिड़की से भीतर झांक रहा था। मैंने नित्य कर्म फटाफट निपटाए। बस्ता कांधे पर रखा। तेज कदमों से स्कूल की ओर दौड़ पड़ा। हांफते-हांफते स्कूल पहुँचा। कक्षा में झांका तो अजीत और खजान अपनी सीट पर नहीं थे।
    ‘‘तो क्या ये दोनों आज स्कूल नहीं आए। मैं क्लास में जाकर क्या करूंगा।’’ यह सोचकर मैं वापिस लौटने लगा।
    ‘‘ऐ लड़के ! कहाँ जा रहा है? कौन-सी क्लास का है?’’ यह प्रिंसिपल सर की आवाज थी। प्रिंसिपल मानो गश्त पर थे। मैं जानता था कि यदि उन्होंने मुझे पकड़ लिया तो जोर से कान उमेठेंगे। फिर मुर्गा बनाएंगे। पीठ पर एक ढेला रख देंगे।
    मैंने आव न देखा ताव। दौड़ा और चुपचाप अपनी सीट पर जाकर बैठ गया। कक्षा में अध्यापक ‘खरगोश और कछुआ’ की कहानी सुना रहे थे। पहली बार मैं किसी अध्यापक की बात को  गौर से सुन रहा था। पहली बार मैंने समूची कक्षा को निहारा। मैंने महसूस किया कि सभी सहपाठी मौन साधे अध्यापक को गौर से सुन रहे हैं।
    कहानी खत्म होने के बाद अध्यापक ने पूछा-‘‘अच्छा बताओ। कछुआ धीमी चाल के बावजूद जीत कैसे गया?’’
    कई सहपाठियों ने हाथ खड़ा किया। अध्यापक एक के बाद एक सवाल पूछते रहे। सहपाठी भी तत्परता से जवाब देते रहे। मैंने सोचा-‘‘ये जवाब तो मैं भी दे सकता हूँ।’’
    अध्यापक ने ब्लैक बोर्ड पर लिखा-‘‘कहानी में आए खरगोश के बारे में लिखिए।’’ कक्षा में हर दिशा से काॅपियों के पन्ने फड़फड़ाने की आवाज सुनाई दी। हर कोई काॅपी पर कुछ न कुछ लिखने को तैयार दिखाई दिया। मैं सकपकाया। मैं हैरान था। मैंने खुद को अकेला और परेशान पाया। मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था। रह-रहकर अजीत और खजान याद आ रहे थे।
    मेरे आगे की पंक्ति में से भी एक सहपाठी आज अनुपस्थित था। मेरे ठीक सामने बैठे सहपाठी ने मेरा बस्ता खींच कर अपने दांयी ओर खाली डेस्क पर रख दिया। वह धीरे से बोला-‘‘पीछे अकेले क्या करोगे। आगे आ जाओ। आओ।’’
    मैं चुपचाप आगे की खाली सीट पर उछलकर बैठ गया। मेरे दोनों ओर बैठे सहपाठी काॅपी पर अध्यापक के द्वारा लिखाए गए सवाल को उतार चुके थे। दोनों अपनी समझ से जवाब लिखना शुरू कर चुके थे। मैंने कनखियों से देखा। मैं चैंक पड़ा। दोनों सहपाठियों का हस्तलेख बहुत ही सुन्दर था। मैं मन ही मन में सवाल का जवाब सोच रहा था। मैंने देखा कि जो जवाब मैं सोच रहा था, वे दोनों भी लगभग वैसा ही जवाब अपनी-अपनी काॅपी पर लिख रहे थे।
    तभी अध्यापक की आवाज मेरे कानों पर पड़ी। उन्होंने कहा-‘‘चलिए। अब खरगोश के बारे में बताइए।’’ कई सहपाठियों ने अपने शब्दों में खरगोश के बारे में बताया। मुझे लगा कि मैं भी तो खरगोश के बारे में यही सोच रहा हूँ।
    मध्यांतर हुआ। सब अपने-अपने सहपाठियों के साथ अपना टीफिन साझा कर रहे थे। मैं चुपचाप अकेला खड़ा खजान और अजीत के बारे में सोच रहा था। तभी कुछ सहपाठियों ने मुझे इशारे से बुलाया। मैं चला गया। भूख तो लगी ही थी। सबने अपने टीफिन से मुझे कुछ न कुछ खाने को दिया। खाना खाने के बाद अब हम एक-दूसरे का नाम पूछ रहे थे। गाँव का नाम पूछ रहे थे।
    पांचवी घंटी में दूसरे अध्यापक आए। छठी घण्टी में तीसरे और सातवीं घण्टी में चैथे अध्यापक आए। मेरी तो धारा ही बदल गई। आज पहली बार मैं इतनी देर कक्षा में रुका था। सभी अध्यापकों को ध्यान से सुना था। एक-एक वाक्य उपयोगी लग रहा था। मैंने सोचा-‘‘इतने साल-इतने दिन कितनी बातें अनसुनी की। क्यों?’’
    आज पहली बार छुट्टी का घण्टा अपने कानों से सुना। धीमें कदमों से घर की ओर लौटा। पहली बार वक्त पर घर पहुँचा। मुँह-हाथ धोए। खाना खाया। स्कूल बैग को खाली किया। बैग धोया। सभी किताबों-काॅपियों पर अखबारी जिल्द लगाई। अब तक जांची न गई काॅपियों के पन्ने उलटे। खुद पर बहुत गुस्सा आया।
    मन में ठान लिया कि अब मन लगाकर सुनना है। मन लगाकर पढ़ना है। मन लगाकर लिखना है। सवालों से जूझना है। कक्षा में सबसे पीछे नहीं, आगे बैठना है।
    बस! फिर क्या था। मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। खजान और अजीत मेरे दोस्त बने रहे। लेकिन कक्षा से बाहर। कक्षा में मेरी सीट बदल गई। धीरे-धीरे मैं भी कक्षा का गंभीर छात्र बन गया। आज स्वयं अध्यापक हूँ। हर साल नया सत्र आते ही बच्चों को यह किस्सा जरूर सुनाता हूँ। कक्षा में सबसे पीछे बैठे हुए छात्रों से यह कहना नहीं भूलता कि सीट बदलती रहेगी। आज जो आगे बैठे हैं, कल वो पीछे बैठेंगे।
    हर संभव कोशिश करता हूं कि हर बच्चे पर नज़र रहे। हर बच्चे की काॅपी जंचे। हर बच्चे को बोलने का मौका मिले। आज भी खजान और अजीत का चेहरा याद है। एक बात बार-बार याद आती है। मुझे परेशान करती है। यदि उस दिन खजान और अजीत स्कूल आए होते तो मेरा क्या होता?
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-मनोहर चमोली ‘मनु’