15 अप्रैल 2019

भारत की एक पाती बापू के नाम : 7

 पूजनीय बापू को मेरा प्रणाम स्वीकार हो। मैं कुशल ही हूँ और आपकी कुशलता चाहता हूँ। पत्र लिखने का खास कारण यह है कि मैं भीतर ही भीतर जर्जर होता जा रहा हूँ। लगातार आबादी बढ़ने से मुझमें मैले का अंबार समाता जा रहा है। मैं इस बात से इतना परेशान नहीं हूँ। मैले के निपटारे और उससे जुड़ी समस्याओं की लुंज-पुंज व्यवस्था देखकर मन आहत है।
आदरणीय बापू। सात दशक पहले जंगल-पानी कोई समस्या ही नहीं थी। तब जंगल भी थे और पानी भी था। मैले का निस्तारण उस समय इतनी बड़ी समस्या नहीं थी। इसे लेकर तौर-तरीके भी सहज थे। हम जैसे-जैसे आधुनिक होते गए, वैसे-वैसे ये जंगल-पानी से निपटारा एक बड़ी समस्या बन गई है।

बापू अब तो सीवर लाइनें हैं। मेरे लोग घर में शौच कर लेते हैं। शौच के नाम पर जंगल की सैर बीते कल की बात हो गई है। अब योग का ही सहारा है। मेरे भीतर मल-मूत्र के लाखों गड्ढे हैं। हजारों सीवर की नालियाँ हैं। इन सीवर लाईनों की सफाई करते वक़्त मेरे ही दो से तीन मजदूर सीवर की सफाई करते वक़्त काल के गाल में समा जाते हैं। हर साल मेरे लगभग बाईस हजार मजदूर सीवर में सफाई के दौरान मर जाते हैं।
बढ़ती मौतों को ध्यान में रखते हुए मेरी सबसे बड़ी अदालत ने इन मजदूरों के काम की पड़ताल समझीं। पाँच साल पहले आदेश दिया था,‘‘सीवर में सफाई के दौरान हुई मजूदर की मौत पर परिवार को एक लाख रुपए दिए जाएँ।’’ इस आदेश के बाद तो हालात और बदतर हो गए हैं। मेरे राज्यों ने स्थाई मजदूरों की व्यवस्था ही बंद कर दी। न रहेगा बांस,न बजेगी बांसुरी।
कहने को तो बापू मेरे पास राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग है। लेकिन मेरे इस आयोग के पास आम आँकड़े तक नहीं है। यदि आप मुझसे पूछें कि मेरे कितने मजदूर सीवर की सफाई का काम करते हैं? मेरे कितने मजदूर कहाँ-कहाँ,कब-कब और कितने-कितने मौत के शिकार हुए हैं? बापू मैं नहीं बता सकूँगा।

आप तो स्वच्छता अभियान के अगुवा रहे हैं। अपने मल की स्वयं सफाई के पक्षधर रहे हैं। और अब आपके इस भारत में क्या हो रहा है? जानना नहीं चाहेंगे? मनुष्य ही मनुष्य के मल-मूत्र में डूबता-उतरता है। गहरे सीवर में जाता है। सुरक्षा के इंतजाम के अभाव में दम घुटता है और कई बार ये मनुष्य नहीं मानवता को काल निगल लेता है। ये है सबको जीने का हक़? एक ओर एक सासंद प्रत्याशी चुनाव मैदान में लड़ने के लिए पिचहत्तर लाख रुपए खर्च कर सकता है वहीं दूसरी ओर मल-मूत्र की सफाई को जुटे मजदूरों की मौत पर एक लाख रुपए मुआवजा भी नहीं मिलता?
इसका हल क्या है बापू? क्या सफाई कर्मचारियों की जान बचाना आतंकवाद के नाम पर अरबों रुपए के लड़ाकू विमान खरीदने से महँगा है?
उम्मीद है कि आप कोई समाधान निकालेंगे।
आपका अपना,
भारत

॰॰॰
पत्र लेखक: मनोहर चमोली ‘मनु’
Photo-google

11 अप्रैल 2019

पाखण्ड, दंभ, छद्म लोकहितता छिपाए नहीं छिपा पा रहे हैं

भारत की एक पाती बापू के नाम  : 6

-मनोहर चमोली ‘मनु’

मेरे आदरणीय बापू ! सादर अभिवादन। 

काश ! आप भी फेसबुक पर होते ! देख पाते कि मेरे लोगों में कई पाखंडी बन चुके हैं। धूर्त हैं। मक्कार हैं। कूढ़मग़ज़ हैं। दो हजार उन्नीस आते-आते ये घास-पात की तरह बढ़ चुके हैं। आप अच्छे पाठक रहे हैं। पर आपकी पाठकीयता भी कुंद हो जाती। 

जनवरी से अब तक इन पाखंडियों और कथित भक्तों की आए दिन चस्पा पोस्टों के चार-एक वाक्य ही आप पढ़ते और छोड़ देते। आपकी नज़र भी मन्द पड़ जाती। इनकी पोस्टों को देखते ही आप या तो चश्मा साफ करने लग जाते या आँखें मूँद लेते। 


मैं कैसा हूँ ? बताता हूँ। मैं इन अपनों की राजनीतिक, सामाजिक, सामुदायिक, सांस्कृतिक और नितांत व्यक्तिगत स्वार्थपरक पाॅलिटिक्स देख रहा हूँ। इनका कथित जनपक्षधरता का चोला उतरता हुआ देख रहा हूँ। इनकी मूर्खता पर हँसता नहीं हूँ। दुःखी हो जाता हूँ। 
क्यों? वह इसलिए कि ये जान-समझ ही नहीं पा रहे हैं कि इनका असली व्यक्तित्व सार्वजनिक हो रहा है।

या तो इन्हें क़तई लाज नहीं है। या यह जान ही नहीं पा रहे हैं कि ये साफ पहचाने जा रहे हैं। या ये चाहते हैं कि इन्हें अच्छे से जान-समझ लिया जाए। कुछ हैं जो तटस्थता का आवरण ओढ़े हुए हैं। लेकिन इनके भीतर भरा जातिवाद जोर मार कर बाहर आ रहा है। इनके क्षुद्र निजी सरोकार उद्घाटित हुए जा रहे हैं।

 वे पाखण्ड, दंभ, छद्म लोकहितता छिपाए नहीं छिपा पा रहे हैं। मैं रोज़ कुछ को आपस में लड़ते-भिड़ते देख रहा हूँ। गाली-गलौज का गॅ्राफ तो रोज का पारा है। जो लगातार चढ़ रहा है।

बापू आप सोच रहे होंगे कि ये अचानक हुआ? नहीं। नब्बे के दशक से ये सुलगता हुआ साल 2019 में आग का रूप ले चुका है। मैं अपनों में ही जैसे बेग़ाना हो गया हूँ! सबसे ज़्यादा दुःख मुझे मेरे शिक्षकों और लेखकों के कार्य व्यवहार को देखकर हो रहा है! मुझे सभी शिक्षकों से शिकायत नहीं है। कुछ से है। ये कुछ भले ही ‘थोड़े’ होंगे। पर हैं। इनमें समधर्म-समभाव है ही नहीं। ये दूसरों की गरिमा का सम्मान करना नहीं जानते। दूसरों को क्या सिखाएँगे। मुझे संशय है। ये ‘ट्रोल’ हो गए हैं। जो जिन्दगी भर शिक्षण कार्य करते रहे, उनकी ट्रोल भरी टिप्पणिया पढ़कर सोचता हूँ कि इन्होंने अपने छात्रों को समाज में कहाँ ले जाकर रख दिया होगा? सोचकर ही थर्रा जाता हूँ।

और, बापू लेखकों की तो मत ही पूछिये। लेखकों में ऐसे लेखक भले ही कम होंगे पर हैं। वे शरीर में एक फोड़े की तरह हैं। जिन्हें छेड़ा जाए चाहे-अनचाहे सहलाया जाए, वह बढ़ता ही है। कई बार पूरी देह को सड़ाने के लिए एक फोड़ा ही काफी होता है। ये लेखक, जिनकी मैं बात कर रहा हूँ, आज तलक सामन्ती सोच से बाहर नहीं निकल पाए हैं। ये आज भी तंत्र-मंत्र, पूजा-आरती के उपासक बने हुए हैं। बना करें पर पूरी दरिया को एक रंग में रंगने की तो कोशिश न करें। दकियानूसी सोच से लबरेज इनके संवाद और भाव, मेरे संविधान को चिन्दी-चिन्दी किए जा रहे हैं। अब संविधान की बात आपसे करना शायद ठीक न होगा। काश ! आप मेरे संविधान को लागू होता हुआ देख पाते ! या कि आपने संविधान की उद्देशिका ही पढ़ ली होती। फिलहाल तो इन शिक्षकों-लेखकों को देखकर मन विचलित हो रहा है। वे जो या तो भेड़चाल के मुरीद हैं या भीड़ का हिस्सा होते जा रहे हैं। 

क्या करूँ? लिखना।


शेष आपके जवाब मिलने पर,

आपका अपना ही,

भारत।

॰॰॰
पत्र लेखक: मनोहर चमोली ‘मनु’

9 अप्रैल 2019

मैं दुनिया की तीसरी महाशक्ति बनने जा रहा हूँ !

मैं दुनिया की तीसरी महाशक्ति बनने जा रहा हूँ !

भारत की एक पाती बापू के नाम  : 5

-मनोहर चमोली ‘मनु’

श्रद्धेय बापू ,
सादर अभिवादन स्वीकार कीजिएगा। मैं यहाँ कुशल से हूँ। आपकी कुशलता चाहता हूँ। पत्र लिखने का ख़ास कारण यह है कि हाल-फ़िलहाल मैं आपके सपनों का भारत तो नहीं बन पाया हूँ। हाँ, यह भी सच है कि राम राज्य की अवधारणा का अंश मात्र भी मेरी देह में नहीं आ सका है। मैं और मेरे लोग कितने स्वार्थी हो गए हैं? कहने की आवश्यकता भी नहीं है। मुझे ही ले लीजिए। आपकी हत्या के 71 साल बाद पत्र लिख रहा हूँ। आपके सत्य, अहिंसा और प्रेम के सिद्धान्त तिल का ताड़ बन चुके हैं। लगातार झांसों (झांसी से इसका कोई लेना-देना नहीं है) और जुमलों के बोझ से मैं दबा जा रहा हूँ।
श्रद्धेय बापू , लिखते हुए भी लाज आ रही है कि इन इकहत्तर सालों में जो विकास हुआ होगा, सो हुआ होगा। मैं उस बहस में नहीं पड़ना चाहता। लेकिन, इतना ज़रूर कहना चाहूंगा कि मेरे लोग मति भ्रमित अधिक होते जा रहे हैं। वे स्वयं के विवेक का इस्तेमाल नहीं करते। आप तो ख़ूब कहा करते थे कि झूठ के पांव नहीं होते। लेकिन आज, जिस झूठ को बार-बार परोसा जाए, दिखाया जाए, बोला जाए, वह ‘झूठ’ सच मान लिया जाता है। सच की आवाज़ झूठ की चिल्लाहटों में दब जाती है। उसका दम घुट जाता है। और झूठ? वह तो बड़ी बेशर्मी से हावी हो जाता है।
वैसे, इन इकहत्तर सालों में मेरे हिस्से भी ख़ूब उपलब्धियाँ आई हैं। आप जब थे, तब भी दुश्वारियाँ कम न थीं। लेकिन, तब आप भी और मेरे लोग भी, कमियों का ठीकरा गोरों के सिर पर फोड़ दिया करते थे। पर गोरों की सरकार तो अगस्त सन् 1947 से पूर्व ही हमेशा के लिए यहाँ से सात समन्दर पार चली गई थी। 72 सालों से तो मुझ पर, मेरे ही लोग राज कर रहे हैं। अब मेरे मतदाताओं पर एक ओर रोग लग गया है। वे अपनी ही चुनी सरकारों को बेदम बताने पर तुले हैं। कोई सरकार कई मुद्दों पर विफल हो सकती है। लेकिन, हर दूसरी सरकार को बड़ी रेखा खींचनी चाहिए। अपने आप छोटी रेखा छोटी हो जाएगी। पहले से खींची रेखा को कुरेदने, खुरचने और मिटाने को उपलब्ध्यिां नहीं माना जा सकता है।
लिखता चलूँ कि मैं दुनिया में आकार के हिसाब से सातवें नंबर पर हूँ। मेरे अपनों में कई हवाबाज़ हैं। गप्पी हैं। कपोल- कल्पनाओं को हवा देते हैं। यह संगति का असर है। दुनिया की सबसे बड़ी फिल्म इंडस्ट्री मेरे खाते में हैं। बापू , इसे बाॅलीवुड कहा जाता है। दुनिया में सबसे ज़्यादा फिल्में मेरे यहाँ बनती हैं।़ आप तो जानते हैं कि दुनिया को गणित का शून्य मैंने ही दिया था। उसके बाद दुनिया के महान गणितज्ञों में दूसरा मेरे यहाँ पैदा हुआ हो, याद नहीं आ रहा है। आपको याद आए तो लिख भेजना। वैसे बापू आपके बाद दूसरा कोई बापू जैसा नहीं ही हुआ है। ये मुझे याद आएगा तो अगले पत्र में लिखूंगा।
पूज्य बापू , आपको याद होगा, आजादी के समय में मेरे 18 फीसदी लोग ही पढ़े-लिखे थे। आज 75 फीसदी लोग पढ़े-लिखे हैं। आप चिंता न करें बापू। सन् 2085 में मेरा हर युवा ग्रेजुएट हो जाया करेगा। बीते साल तलक मात्र छःह करोड़ बच्चे ही तो स्कूलों तक नहीं पहुँच पाए थे ! वैसे, बापू पढ़ाई-लिखाई अब चिन्ता का विषय नहीं रह गई। आज मेरे सौ में बीस पुरुष ही अनपढ़ रह गए हैं। सौ में पैंतीस महिलाएं ही तो अनपढ़ रह गई हैं। क्या यह विकास नहीं? मात्र 45 साल बाद हमारी साक्षरता दुनिया की औसत साक्षरता के बराबर हो जाएगी।
वैसे बापू गौरव का विषय यह तो है ही कि कुकुरमुत्तों से अधिक हमारे यहाँ निजी स्कूल हैं। एशिया में सबसे अधिक शिक्षण संस्थाएँ भारत में हैं। यह बड़ी बात नहीं? मैं इस बात से अक्सर परेशान हूँ कि दुनिया में सबसे अधिक अनपढ़ मेरे यहाँ हैं। सबसे ज़्यादा मूक-बधिर मेरे यहाँ हैं। सबसे ज़्यादा बच्चों के अपहरण मेरे यहां होते हैं। महिलाएं सबसे ज़्यादा हिंसा की शिकार मेरे यहां होती हैं। सबसे अधिक दिव्यांग मेरे यहाँ हैं। क्या पता विकलांगों को दिव्यांग कह देने भर से यह प्रतिशत कम हो जाए !
बापू , मैं आज भी सबसे ज़्यादा केले दुनिया के देशों को भेजता हूँ। कभी एक रुपए के दर्जन केले मिलते थे। आज साठ रुपए दर्जन बिकता है। मैं दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश हूँ। चुनाव में सबसे अधिक खर्च भी मेरे यहाँ हो रहा है। मैं हैरान हूँ कि एक ओर एक तिहाई लोग भर पेट भोजन नहीं कर पा रहे हैं वहीं दूसरी ओर दुनिया में सबसे ज़्यादा सोना मेरे लोग ही खरीदते हैं। खरीद रहे हैं। गंगा-जमुनी संस्कृति मेरी थाती रही है। यह भी सच है कि सबसे अधिक त्योहार मैं ही मनाता हूँ। सबसे अधिक छुट्टियाँ मेरे यहाँ होती हैं।
वैसे बापू गौरव की बात यह भी है कि मेरे अपने अमेरिका में वैज्ञानिक हैं। नासा में तो छत्तीस फीसदी वैज्ञानिक भारतीय हैं। ये ओर बात है कि उन्होंने मेरे लिए क्या किया? मैं नहीं जानता। आप तो राष्ट्रपिता हैं। आपके नाम पर मेरे यहाँ जितनी सड़कें हैं उससे अधिक सड़कों के नाम विदेशों में हैं। आप दुनिया में भी स्वीकार्य हैं। चरक ने आयुर्वेद को चिकित्सा में हजारों साल पहले पहचान दी थी। लेकिन मेरे ही अपने अंग्रेजी शराब की दुकान पर और अंग्रेजी दवाखाना पर भरोसा करते हैं। मेरे नीति-नियंता विदेशी डाॅक्टरों पर अधिक एतबार करते हैं। अकेले अमेरिका में अड़तीस फीसदी डाॅक्टर भारतीय हैं। यहाँ मेरे लोग सरकारी डाॅक्टर नहीं बनना चाहते। गली-मुहल्लों में डाॅक्टरी की दुकान खोले बैठे हैं। मेरे सीने में दुनिया का सबसे लम्बी रेल पटरी हैं। रेल के कर्मचारी भी मेरे यहाँ सबसे अधिक हैं। बावजूद इसके लगभग दो लाख पद रेलवे विभाग में खाली हैं।
बापू , मेरे लोग पशु प्रेमी भी हैं। गौ हत्या के नाम पर मेरे बेकसूर नागरिकों को विदेशी नहीं मारते। मेरे अपने ही मारते हैं। पर दूसरा सच यह भी है कि पाँच करोड़ से अधिक बंदरों को शरण भी मैंने ही दी हुई है। आदरणीय बापू । मैं कर्ज़ में भी डूबा हुआ हूँ। दिसम्बर 2017 में मुझ पर 495 बिलियन अमेरिकी डाॅलर कर्ज है। यह बढ़ता ही जा रहा है। उधार लेकर घी पीना निन्दनीय माना जाता था। लेकिन आज सारी अर्थव्यवस्था उधार पर टिकी है। भारत से अलग हुआ पाकिस्तान तो चीन के कर्ज़ तले दबा पड़ा है। मेरी सरकार की बात करूँ तो हालात बद से बदतर हुए जा रहे हैं। साल 2014 में सरकार पर कुल कर्ज 54,90,763 करोड़ था। यह कर्ज़ जनवरी 2018 में बढ़कर 82 लाख करोड़ रुपए हो गया। इन पाँच सालों में यह लगभग पचास फीसदी और बढ़ गया है।
बापू फिर भी, मेरे कान यह सुन-सुन कर पक गए हैं कि मैं दुनिया की तीसरी महाशक्ति बनने जा रहा हूँ ! सुनकर अच्छा-सा लगता है। लेकिन भीतर ही भीतर डर भी जाता हूँ कि कहीं कोई मुझे और मेरे लोगों को गुमराह तो नहीं कर रहा है? सच क्या है? आप कुछ समझ-जान पाए हों तो बताइएगा।
आपके प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा में,
आपका अपना,
भारत
॰॰॰
पत्र लेखक: मनोहर चमोली ‘मनु’

8 अप्रैल 2019

एक पाती सखा के नाम



सँभल जा यार अब भी वक़्त है !

-मनोहर चमोली ‘मनु

मेरे बेवड़े दोस्त ! कैसे हो? यह पूछने का मन भी कहाँ है? भारी मन से तुम्हें यह पत्र लिख रहा हूँ। कैसे लिखूँ कि कैसे हो? कल तो ऐजेन्सी में तुमने मुझे भरी-दुपहरी छप्पन गालियाँ दे दीं। तुम इतने टल्ली थे कि दुपहिया पे बैठ भी न पाए। वो तो भला हो रक्का का,जो अपने दोस्त की सहायता से तुम्हें अपनी बाइक पर बिठा ले गया और घर छोड़ आया।

मैं समझ सकता हूँ कि रक्का और उसके दोस्तों ने भी ज़िंदगी में ऐसी गालियाँ नहीं सुनी होगी, जो तुमने रास्ते भर उन्हें दी होगी। आशा ही नहीं, पूरा भरोसा है कि वे दोनों किसी बेवड़े की अब कभी मदद नहीं करेंगे। 
ख़ैर जो हुआ-सो हुआ। तुम्हें इससे क्या? तुम्हें तो पता ही है कि कोई न कोई ढोकर ले ही जाएगा। अच्छा हुआ ! ये मैं कैसे कह सकता हूँ?

तुम नाम के नहीं स्वभाव के भी धीरज हो। शांत स्वभाव। हमेशा मुस्कराते रहते हो। बहुत ज़रूरत पर ही मुख खोलते हो। पर हलक़ में एक ढक्कन उतरता नहीं कि तुम शोले के बीरू हो जाते हो ! कमाल है ! मैं आज तक समझ नहीं पाया कि तुम असल में बीरू तो नहीं, जो गऊ बने रहने का स्वाँग करता है. लालपरी के उतरते ही असली रूप में आ जाता है? होश में रहते हुए तो कभी बताओगे नहीं, जब सरूर में होंगे, तभी पूछूँगा। पर तुम्हें भी कैसे दोष दूँ? जब घर का मुखिया ही होश-ओ-हवास में बहकने लगे तो तुम किस खेत की मूली हो?
तुम्हारे हवाले से काॅलेज का साथी दयाराम शर्मा याद आ गया। वो नंबर एक का नशेड़ी था। हाँ, मुझे देखकर भाग खड़ा होता। उसे पता था कि मैं उसके हाथ से सिगरेट छीन जो लूँगा।
एक दिन का वाक़या है। मैंने उसे रंगे हाथ पकड़ लिया। वो झल्ला उठा। बोला,‘‘मैं सिगरेट किसी के बाप की नहीं पीता। न चोरी करता हूँ।’’
मैं सन्न ! उलटे पाँव लौट आया था। फिर, उसका रास्ता अलग हो गया था। सामने मुझे देखता, तो रास्ता बदल देता। फिर एक दिन, पता चला कि दयाराम शर्मा दून अस्पताल में भर्ती है। मिलने गया, तो हरे बिस्तर पर लेटा था। मुझे देखते ही उसकी आँखों से आँसू टपक पड़े। उसकी माँजी स्टील की उलटी थाली से टँकित अस्पताली स्टूल पर बैठी थी। पहचानती ही थी। बोलीं,‘‘तेरा दोस्त कहता है कि यदि दोस्ती न टूटती तो टी॰बी॰ न जकड़ती।’’
बहरहाल, दयाराम शर्मा ठीक तो हो गया, पर नशा उसे ले डूबा। नशा तो हर चीज़ का बुरा होता है। तुम अच्छे इंसान हो। पर संगत बुरों की है। इन दिनों देखो,आम चुनाव 2019 की ही चर्चा है। अच्छे लोग भी गलत दलों में घुसे बैठे हैं। बुरे लोग भी अच्छे दलों में हैं। एक मछली से कहाँ तालाब गन्दा हुआ करता है?
अब वैसे तो हर कोई कहता है कि अच्छी सेहत के लिए शराब से बचना चाहिए। ये शराब आपको बरबाद कर देगी। ये वो लोग भी कहते नहीं थकते जो घर में बार खोले हुए बैठे हैं। ये वो लोग भी कहते हैं जो चैकीदार बने फिरते हैं। ये वो लोग भी कहते हैं जिन्होंने घर-बार छोड़ रखा है। ये बात वे भी कहते हैं जिनका गला तर है।
कल दुपहरी का मामला याद करता हूँ तो मुझे मेरा सहकर्मी शंकरलाल दूबे याद आ रहा है। नंबर एक का चुटकुलाबाज़। द्वीअर्थी बात करने वाला। दाढ़ी उसके चेहरे पर अच्छी नहीं लगती थी। पता नहीं, वह दाढ़ी क्यों रखता था? ड्रामेबाज अलग था। लच्छेदार बातों से सबका मन मोह लेता।
सालाना परीक्षा के दौरान मानो आम चुनाव आ जाते थे। सबसे गाढ़ी दोस्ती कर लेता। वही गाढ़ी दोस्ती, उसके परचे हल करवा देती। साल-दर-साल पास होता चला गया। आज चाय की दुकान खोले बैठा है। थकी हुई चाय बनाता है। पर ऐसा जुमलेबाज है कि उसका खोखा ग्राहकों से भरा रहता है। 
उसका सब कुछ अच्छा है। पर चढ़ाने के बाद 'स' को 'श' और 'श' को 'स' बोलने लगता है। हथेलियाँ पीटने लगता है। बाँया हाथ हवा में ऐसे लहराता है जैसे सुदर्शन चक्र धारण कर लिया हो। बुड़बक कहीं का।

मैं भी क्या ले बैठा? भला शराबबंदी से शराब बंद हो सकती है? मेरे कहने से तुम शराब बंद कर दोगे? अब अपनी कथित देव भूमि को ही ले लो। अकेले इस सूबे में सालाना 2650 करोड रुपए की शराब हलक़ से नीचे उतारने का लक्ष्य है। पूरे भारत में शराब से सालाना कमाई अरबों में हैं। जहाँ शराब पूरी तरह से बन्द है, वहाँ कदम-कदम पे मिल जाती है।
मेरे दोस्त। हम सब जानते हैं कि शराबी (सराबी नहीं) रोगी हो जाता है। ऐसे रोगी जो शराब की लत में हैं। हर साल मरते हैं। कितने? 33,00000 लाख ! शराबी वाहन भी चलाते हैं। सड़क हादसों में मारे जाने वालों में 1,38,000 लोग शराबी होते हैं। गाड़ियों की दुर्घटनाओं में 40 फीसदी शराबी वाहन चालकों की वजह से होती है। कुल आत्महत्याओं में आधी आत्महत्याओं में नशा प्रमुख कारण बना हुआ है।
प्यारे दोस्त ! फ़कीरों का क्या है? वो तो झोला उठाकर कहीं भी चल देंगे। उनका क्या? आगे नाथ न पीछे पगहा। लेकिन तुम्हारे साथ तो ऐसा नहीं है। बुजुर्ग माता-पिता तुम्हारे साथ है। पत्नी है। तीन बच्चे हैं। तुम्हारे पास सब कुछ है।
तुम हो कि पीकर कहते हो,‘‘मेरे पास सराब है!’’ गलत बात है। झांझ उतर जाए तो पेंट की जेब में यह पत्र मिलेगा।
मैं जानता हूँ और मानता भी हूँ कि शराब बुरी है। शराबी नहीं। मैंने शराबी जैसे भावनात्मक,मददगार और साहसी अशराबी नहीं देखे। शराब यदि ख़राब होती तो पूरी दुनिया से इसका खात्मा हो चुका होता। उन देशों में भी ख़ूब पी जाती है जहाँ साक्षरता दर उच्च है। उन देशों में भी ख़ूब प्रचलित है जो दुनिया के तीन बड़े शक्तिशाली देश हैं। एक बात और है, शराब में धुत्त आदमी कभी भी दूसरे के घर का दरवाज़ा नहीं खटखटाता। वह दूसरे की बीवी को अपनी बीवी कभी नहीं कहता। वह कभी दस रुपए के चक्कर में सौ रुपए नहीं गंवाता। शराबी को आप चोर नहीं कह सकते।
अभी पिछले महीने 25 फ़रवरी 2019 की ही तो बात है। असम में ज़हरीली शराब पीकर 140 चाय बागान मजदूर काल के गाल में समा गए। पता है वहां ये जहरीली शराब 10 रुपए लीटर मिल रही थी। अब सोचिए। दिन भर कमर तोड़ मेहनत करने वाले 10 रुपए की टुच्ची शराब में अपनी जीवन लीला समाप्त कर गए। इन परिवारों के पीछे लगभग 1000 लोग कमाऊ मुखिया के बाद कैसे दिन काट रहे होंगे? सोचकर भी नींद उड़ जाती है।
मैं मानता हूँ कि शराबियों से अधिक खराब तो पतित हैं। भ्रष्ट आचरण वाले खराब हैं। लफ़्फ़ाज़ खराब हैं। झांसा देने वाले टुच्चे हैं। झूठे सपने दिखाने वाले अधिक खराब हैं। सरकार को कोसने वाले खराब हैं। पर फिर भी मैं यह तो कहूँगा ही,''शराब दवाई भी तो नहीं है।'' वरना बाबा रामदेव शराब को भी अपना उत्पाद काहे नहीं बना देता? बोलो?
कल और आज आकस्मिक अवकाश की एप्लीकेशन तुम्हारे दफ़्तर में दे आया था। कल नहा-धोकर ड्यूटी चले जाना। दाँत साफ कर लेना। जेब में इलायची रख लेना। अब क्या लिखूँ। अगली बार गाली दोगे तो रिकाॅर्डिंग कर लूंगा। यू-ट्यूब में अपलोड कर दूंगा। और हाँ। ये बात-बात पे रोने जैसी शक्ल बनाने की ज़रूरत नहीं है।
तुम्हारा दोस्त
***

पत्र लेखन : मनोहर चमोली ‘मनु’

बापू काश ! आपने आम चुनाव देखे होते !

बापू काश ! आपने आम चुनाव देखे होते ! 

भारत की एक पाती बापू के नाम  : 4

-मनोहर चमोली ‘मनु’

आदरणीय बापू जी,
सादर प्रणाम। आशा है सानंद होंगे। मैं अपनी क्या कहूँ? आप जब जीवित थे, तब मेरा जनमानस एक ही भाव में सराबोर था। आजादी हासिल करने का भाव ही सर्वोपरि था। आपकी आँखों के सामने गोरे देश छोड़कर चले गए थे।

बापू । अब याद करता हूँ तो पाता हूँ कि आपने आजाद भारत का पहला आम चुनाव कहाँ देखा? अच्छा हुआ कि आपने भारतीय चुनाव नहीं देखे। 
हालांकि, ये पाँच साल में एक बार आता है और जमकर दल एक-दूसरे से बेहतर बताते हुए जनता की अदालत में जाते हैं। आपको बताते हुए मुझे हर्ष की अनुभूति तो हो ही रही है कि इन दिनों मेरे मतदाता लोकसभा चुनाव 2019 में सहभागी बन रहे हैं। सत्रहवीं लोकसभा का गठन 23 मई 2019 को मतगणना के बाद ही हो सकेगा।

बापू , पत्र लिखने का खास कारण यह है कि इस बार भी कई दिग्ग़जों के टिकट कटे हैं। कई हैं, जिन्हें दल-बदल का तमगा मिला है। कई हैं, जो फिर से घर वापिस हो आए हैं। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। कई हैं जो दो-दो सीटों पर खड़े हैं। इस बार भी चुनाव आयोग पर पक्षपातपूर्ण रवैया का आरोप लग रहा है।
प्रिय बापू । आपको बताते हुए मन बेहद दुःखी है। इस बार भी कई दलनिष्ठ, आस्थावान और कर्मठ भारी मन से हमेशा के लिए लोकसभा के दरवाजे को अलविदा कह चुके हैं।
वैसे परम्परा रही है कि लोकसभा में चार-पाँच-छःह बार अनवरत् जीत कर आए सांसद स्वयं अपनी बढ़ती उम्र का हवाला देकर स्वयं ही हाथ जोड़कर मतदाताओं से चुनाव न लड़ने की असमर्थता जता देते हैं। लेकिन इस बार तो हद ही हो गई।
एक उदाहरण देता हूँ। तीस साल संसदीय राजनीति में सक्रिय सांसद को खुद ही कहना पड़ा कि शीर्ष नेतृत्व मेरी जगह पर दूसरे नाम पर विचार कर ले। मैं चुनाव नहीं लड़ रही हूँ। ऐसा कहलवाया गया। क्या इसे सम्मानजनक विदाई कहेंगे?
छिहत्तर साल का उदाहरण देना गलत है। आज के दौर में युवा भी आलसी हो सकते हैं। बुजुर्ग भी कार्यशैली के हिसाब से युवा तुर्क माने जा सकते हैं। कितना अच्छा होता कि चुस्त और सक्रियता से बाहर हो चुकों को ही मार्गदर्शक नेता माना जाता।
मैं इस बात से भी दुःखी हूँ कि भारतीय राजनीति में कुछ ऐसे हैं जो सीधे चुनाव जीतकर नहीं आते और मंत्री बन जाते हैं। कुछ ऐसे हैं जिन्होंने अपना पिण्ड दान तक कर दिया है लेकिन कमान संभाले हुए हैं। कुछ ऐसे हैं जो साधु-बाबा-साध्वी-सन्यासी बने हैं और राजनीतिक रसूखी में आकण्ठ डूबे हुए हैं। कुछ ऐसे हैं जिनकी सामाजिक-पारिवारिक मान-मर्यादा संदिग्ध हैं। वे नसीहतें देते फिरते हैं। कुछ ऐसे हैं जिन पर हत्या, आगजनी, बलात्कार जैसे संगीन अपराध आरोपित हैं।
कुछ ऐसे हैं, जो नचैये हैं, गवैये हैं। कथा वाचक हैं। नट हैं, नटनी हैं। (इसका अर्थ यह नहीं है कि ये योग्य नहीं हैं। मेरा मक़सद कला,साहित्य और संस्कृति के मर्मज्ञों को राजनीति से बाहर रखने का कतई नहीं है) 
वैसे बापू , हमारा संविधान बेहद लोकतांत्रिक है। बहुत कम अयोग्यताएँ रखी हुई हैं जिसकी वजह से कोई चुनाव न लड़ पाए। अच्छी बात है। लेकिन नए पत्ते आने से कौन रोक सकता है। पर पुराने पत्तों की समयापूर्व छंटाई क्या ठीक है?

आठ-आठ बार लोकसभा का प्रतिनिधित्व कर रहे दिग्गजों को कह दिया गया कि अब आप राजनीति में अयोग्य हो चुके हैं। आपकी जगह दूसरों को दी जा रही है। लगातार छःह,सात और आठ बार सांसद रह चुके नामचीनों को अचानक बोझ मान लेना, कहा तक उचित है? वे एक दिन में ही उम्रदराज़ हो गए? यह मुझे बेहद नागवार गुजर रहा है।
बापू । आप भी तो बुजुर्ग रहे हैं। पैदल चलते रहे हैं। आपकी गतिशीलता और कर्मठता किसी से छिपी नहीं रही। किसी को टिकट की दावेदारी करने से रोकना लोकतांत्रिक है? विवादितों को फिर से टिकट देना न्यायसंगत है?
बापू , मैं जानता हूँ आप इस पत्र को पढ़कर हैरान होंगे। आपके पास मेरे सवालों का जवाब भी कहाँ से होगा? जानता हूँ कि आपने हद दर्जें की गिरी राजनीति का सामना जो नहीं किया है। सत्य,अहिंसा और प्रेम के सि़द्वान्त चुनाव में कहाँ कारगर होते हैं? लेकिन मैं भी क्या करूँ? ऐसे मुश्किल समय में मुझे आप बहुत याद आए। सो आपको पत्र लिख दिया।
सादर, शेष फिर कभी।

आपका अपना
भारत
॰॰॰
पत्र लेखन: मनोहर चमोली ‘मनु’

#महात्मा गांधी



पाप और अत्याचार की जननी है शराब

भारत की एक पाती बापू के नाम  : 3


आदरणीय बापू । मेरा प्रणाम आप तलक पहुँचे। आशा है सानंद होंगे। मैं यहाँ पर कुशल पूर्वक हूँ। यह लिखने का मन नहीं है।
आप अक्सर कहते थे,‘‘शराब पाप और अत्याचार की जननी है।’’ लेकिन बापू मेरे कई जिलों में आपके नाम से प्रेक्षागृह बने हुए हैं। उन्हीं प्रेक्षागृहों में शराब के ठेकों के टेण्डर हर साल होते हैं। आपके चित्र पीछे लगा रहता है और आगे कुर्सियों पर आला अफ़सर बैठकर शराब के ठेकों के ठेकेदार तय कर रहे होते हैं।

प्रिय बापू ! कहते हैं कि शराब बेचकर राज्यों को राजस्व मिलता है। वह राजस्व विकास के कामों पर खर्च होता है। पर बापू मैं आपकी नैतिकता को याद करता हूँ। आप तो कहते थे,‘‘पाप से घृणा करो, पापी से नहीं।’’ यहाँ तो ठीक उलट स्थिति है। शराब पर प्रेम बरसाया जा रहा है और शराबियों पर लाठी भांज दी जाती है। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। यह कहाँ चरितार्थ हो रही है?
बापू। जैसे-जैसे दिन ढलता है मेरा दिल बैठता चला जाता है। अब तो दिन-रात का अन्तर भी कहाँ रह गया है? ऐसे कई महानगर हैं जो कभी सोते ही नहीं। ऐसी हजारों शराब की दुकानें हैं जिनके किवाड़ के पट कभी बंद नहीं होते। हैरानी तो इस बात की है कि इन शराब की दुकानों में आने वाले किसी मन्दिर,मस्जिद,गुरुद्वारे और चर्च के अनुयायियों से कम नहीं हैं। कुछ तो ऐसे हैं कि जिनकी सुबह शराबखाने से ही शुरू होती है। ऐसे भी हैं जिनकी रात की सुबह कभी होती ही नहीं।
बापू जब आप जीवित थे तो नशा मुक्ति की ख़ूब बात किया करते थे। तब मेरे लोगों में एक ही जुनून था-दासता से मुक्ति। वह मिल गई। लेकिन शराब की गुलामी में मेरे लोग जकड़ते जा रहे हैं। शराब के प्रचलन को जैसे सामाजिक स्वीकृति मिल गई हो।
बापू आप तो कहते थे कि आदर्श रामराज्य की तरह आपके सपनों के भारत में जनता को पोषक भोजन मिले। सम्मानजनक जीवन निर्वाह के अवसर मिले। सेहत में सुधार हो।
बापू आपके नशा मुक्ति अभियान को ध्यान में रखते हुए मेरे संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद सेंतालीस में साफ उल्लेख किया है। वह यह है-राज्य अपने लोगों के पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊँचा करने और लोक स्वास्थ्य के सुधार को अपने प्राथमिक कत्र्तव्यों में मानेगा और राज्य,विशिष्टतया मादक पेयों और स्वास्थ्य के लिए हानिकर औषधियों के, औषधिय प्रयोजनों से भिन्न, उपभोग का प्रतिषेध करने का प्रयास करेगा।’
मुझे दुःख के साथ लिखना पड़ रहा है कि बापू ऐसा कोई प्रयास धरातल पर नहीं दिखाई देता। आपने कहा था,‘‘जो राष्ट्र शराब की आदत का शिकार है, उसके सामने विनाश मुँह बायें खड़ा है। इतिहास में इसके कितने ही प्रमाण हैं कि इस बुराई के कारण कितने ही राष्ट्र मिट्टी में मिल गए।’’ लेकिन बापू मुझे दुःख है कि हम इतिहास से भी सबक नहीं लेना चाहते।
आजादी के इकहत्तर साल बाद भी मैं मलेरिया से मुक़्त नहीं हो पाया हूँ। आपने एक बार कहा था,‘‘मद्यपान एवं अन्य नशीले पेयों का व्यसन अनेक दृष्टियों से मलेरिया एवं ऐसे ही अन्य रोगों से उत्पन्न व्याधि से भी बुरा है। क्योंकि जहाँ मलेरिया आदि से केवल शरीर को ही क्षति पहुंचती है वहां मद्यपान से शरीर एवं आत्मा दोनों ही क्षतिग्रसत होते हैं।’’
बापू ,जब आप ज़िन्दा थे तब मेरे नागरिक छत्तीस करोड़ थे। आज ये एक सौ पचास करोड़ होने वाले हैं। यदि सौ के सिर पर चोट लगी है तो बीस से अधिक चोटें शराब की वजह से लगती हैं। सौ में पैंतीस आत्महत्या का कारण शराब होती है। चालीस फीसदी दुर्घटनाएं शराब के नशे की वजह से होती हैं। हर साल मेरे तेंतीस लाख नागरिक शराब की वजह से दम तोड़ देते हैं। सड़क हादसों में शराब की वजह से हर साल एक लाख अड़तीस हजार नागरिक मारे जाते हैं। पति द्वारा घरेलू हिंसा के मामलों में सत्तासी फीसदी मामलों में शराब प्रमुख वजह है।
बापू , काश ! मैं भी इंसानों की तरह शराब चख सकता। मैं भी देखता कि इस शराब में ऐसा क्या है कि मेरे अधिकतर राज्यों का राजस्व इस पर निर्भर होता जा रहा है। मैं अभी तक समझ नहीं पाया हूँ कि आज अरबों रुपए का राजस्व यदि शराब से इकट्ठा हो रहा है तो उस रुपयों से किया गया विकास मुझे क्यों नहीं दिखाई दे रहा? आपको दिखाई दिया तो मुझे भी बताना।
आपका प्रिय 
भारत
***
पत्र लेखक: मनोहर चमोली ‘मनु’

 #महात्मा गांधी

इकहत्तर साल बाद भी मैं पूर्ण साक्षर नहीं

इकहत्तर साल बाद भी मैं पूर्ण साक्षर नहीं  

भारत की एक पाती बापू के नाम  : 2


आदरणीय बापू ! जय हिंद। 
आशा है आप सानंद होंगे।
 मैं और मेरे लोग आपको अक्सर याद करते हैं। दुनिया के शांतिप्रिय लोग भी आपको अक्सर याद करते हैं। मेरे लोग तो दो अक्तूबर को हर साल गांधी जयंती मनाते हैं। मुझे यह बताते हुए खुशी हो रही है कि दुनिया ने आपको बीसवीं सदी का युग पुरुष माना है। ये ओर बात है कि मेरे ही अपने कुछ सिरफिरे आपके सत्य, अहिंसा और प्रेम के सिद्वान्तों को बीते जमाने की बात कहते हैं। बापू ! मैं शर्मिन्दा हूँ।

पत्र लिखने का खास कारण यह है कि आपकी हत्या के चैवन साल बाद ही सही पर मैं आपका एक सपना पूरा कर सका। आप अक्सर कहा करते थे,‘‘भारत का विकास तभी होगा जब भारत पढ़ेगा। लिखेगा।’’
आपके जाने के दो साल बाद मुझ भारत का अपना एक लिखित संविधान बना। आपके रहते हुए उस पर काम हो रहा था। आपके सुझाव मेरे संविधान का अहम् हिस्सा हैं। लेकिन मैं शर्मिन्दा हूँ कि आपका एक सपना साकार करने के लिए संविधान में संशोधन करना पड़ा। इस संशोधन से पहले पिचासी संशोधन हुए। छियासीवां संशोधन कर अब मेरे वे सभी बच्चे जिनकी उम्र छःह से चौदह साल है वे निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा पा सकेंगे।
प्रिय बापू निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार लागू हुए सोलह साल हो चुके हैं। इसके बावजूद अभी भी मेरे लाखों बच्चे शिक्षा से कोसों दूर हैं। आप अक्सर कहते थे-‘सामाजिक उन्नति के लिए शिक्षा का योगदान महत्वपूर्ण है।‘
इस बात को समझने में मुझे आधी सदी लग गई। मैं शर्मिन्दा हूँ। कारण बताता हूँ। शिक्षा आम आदमी की पहुँच में हो। यह बात जानने और समझने के बावजूद भी सार्वजनिक शिक्षा के लिए स्थापित सार्वजनिक स्कूल तेजी से बंद हो रहे हैं। कुकरमुत्तों की तरह गाँव क्या और शहर ! क्या जो निजी स्कूल खुल गए हैं वह तेजी से बढ़ रहे हैं। सरकारी स्कूल दम तोड़ रहे हैं। मैं इस बात से परेशान हूँ कि चालीस लाख से अधिक भारतीय दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पाते। ऐसे में पाँचवी दर्जा की पढ़ाई से पहले हर महीने कम से कम एक हजार रुपए बतौर स्कूल फीस कैसे जुटाई जाती होगी?
ऐसे कौन-से कारण हैं और क्यों हैं कि हमारे सार्वजनिक स्कूल दम तोड़ रहे हैं? आप कहते रहे,‘‘शिक्षा ऐसी हो जो छात्रों को स्वावलंबी बनाये। शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो।’’ लेकिन बापू . . . मैं शर्मिन्दा हूँ। यहाँ हर दूसरा अभिभावक अंग्रेजी को सब कुछ मान बैठा है। मानवीय गुणों के विकास की बात तो किताबी ही रह गई। मुझे आजाद करने वाले रणबांकुरों ने कहाँ सोचा था कि आजादी के बाद मेरी बागडोर उन लोगों के हाथ में चली जाएगी जो बड़े घरानों की बात करेंगे। मुनाफे की बात करेंगे। वे लोग मेरा भाग्य विधाता बनेंगे जिन्होंने कभी एक वक़्त की भूख तक न सहन की हो। हाशिए पर रहने वाले और हाशिए पर चले जाएँगे! मैंने सपने में भी नहीं सोचा था।
आपके सपनों के इस भारत की हालत दयनीय है। ऐसी ठोस योजनाएं नहीं बन सकीं कि शिक्षा का सार्वभौमिकीकरण हो सके। आजादी के इकहत्तर साल बाद भी मैं पूर्ण साक्षर नहीं हो सका हूँ। अब तो मुझे भी लगने लगा है मुझे अनपढ़ बनाए रखने की एक छिपी कोई साजिश तो नहीं !
मुझे मालूम है कि मेरा यह पत्र पढ़कर आप फिर से चिन्ता करने लगेंगे। आपको चिन्तित होना भी चाहिए। क्या पता ! आपकी चिन्ता इक्कीसवीं सदी के नीति-निर्धारकों की चिन्ता बने।
शेष फिर कभी।

आपका भारत। 
॰॰॰-

पत्र लेखन: मनोहर चमोली ‘मनु’

 #महात्मा गांधी

सेहत के प्रति हम कितने गंभीर हैं बापू ! #महात्मा गांधी

भारत की एक पाती बापू के नाम  : 1

सेहत के प्रति हम कितने गंभीर हैं बापू !

-मनोहर चमोली ‘मनु’

परम पूज्य बापू को मेरा सलाम पहुँचे। उम्मीद करता हूँ कि आप जहाँ भी होंगे, मेरी तरह व्यथित न होंगे। बापू पत्र लिखने का ख़ास कारण कुछ नहीं है। बस ! पिछले दिनों कुछ घटनाएं घटी हैं, जिनकी वजह से मन आहत है। बापू वैसे तो आपके सामने ही मुझे अंग्रेजी दासता से मुक्ति मिल गई थी। पर, आप मेरा लिखित संविधान नहीं पढ़ सके। यूँ तो भारतीय संविधान में स्वास्थ्य के लिए अनुच्छेद 21 में उल्लेख मिलता है। इस जीने के अधिकार में ही स्वास्थ्य का अधिकार निहित है। बावजूद इसके, बावन साल बाद साल दो हजार दो में भारतीय चिकित्सा परिषद् को अपनी नीति और नियमावली में कुछ खास उल्लेख करने पड़े।

बापू आप होते तो इस मुद्दे पर ‘यंग इंडिया‘ या ‘हरिजन‘ में लेख लिखते। आप हैरान होते कि भारतीय अस्पतालों में धर्म, जाति, लिंग या आर्थिक आधार पर भेदभाव न करते हुए स्वास्थ्य सेवाएँ दी जानी चाहिए। हर भारतीय मरीज़ को सभी अस्पताल में आपातकालीन चिकित्सा लेने का हक़ है। कोई भी डाॅक्टर और अस्तपताल प्रशासन इमरजेंसी सेवा देने से मना नहीं कर सकता। हर मरीज़ को अपनी बीमारी जानने का हक़ है। मरीज़ के तीमारदारों को भी इलाज़ का ख़र्च, चिकित्सा अभिलेख, दवाईयाँ ,डाॅक्टर आदि के बारे में पूरी जानकारी पाने का अधिकार है।
यह सब भारतीय चिकित्सा परिषद् को अपनी नीति और नियमावली में क्यों जोड़ना पड़ा? सीधी-सी बात है कि यह सब नहीं है, सो हो, इसीलिए लिखना पड़ा।
बापू । मैं आबादी से दुनिया में चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा देश हूँ। लेकिन मैं लज्जा से झुका जा रहा हूँ। अपने नागरिकों को बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं देने में कई छोटे देश मेरे से बहुत आगे हैं। मेरे कामचीन और नामचीन कहते रहते हैं कि देश झूकने नहीं देंगे। देश मिटने नहीं देंगे। लेकिन बापू । जब भी मैं बांग्लादेश, भूटान, चीन, श्रीलंका जैसे पड़ोसी देशों की ओर देखता हूँ तो ग्लानि से भर जाता हूँ। वे अपने नागरिकों को मुझसे बेहतर स्वास्थ्य सेवाएँ दे रहे हैं। छब्बीस जनवरी और पन्द्रह अगस्त को मेरे नामदार और कामदार भी जब यह कहते हैं कि उन्होंने मेरी छवि और साख दुनिया में शक्तिशाली देश के रूप में स्थापित कर दी है तो मैं भावुक हो उठता हूँ।
बापू। आप भी मेरी तरह दुःखी होंगे। मैं सेहत के मामले में दुनिया के 195 मुल्क़ों में 145 वें स्थान पर हूँ। आप चाहें भारत को सोने की चिड़िया कहते रहे। लेकिन आजादी के सत्तर सालों के बाद भी हमारे अधिकांश दल अपने घोषणा-पत्रों में वादे कर रहे हैं कि हर जिले में एक मेडिकल काॅलेज होगा। मतलब बापू । अभी तक मेरे 719 जिलों में यह नहीं है। क्या एक साल में 10 मेडिकल काॅलेज बहुत बड़ा लक्ष्य था? हास्यास्पद स्थिति तो यह है कि इसे भी 2022 तक खिसकाया जा रहा है।
बापू , जिस घटना से मन खिन्न था, उसका ज़िक्र करने का मन भी नहीं है। लेकिन आपको बताना ज़रूरी है। मलेरिया, चेचक, हैजा आदि बीमारी के बारे में तो आपको पता है। डेंगू बुख़ार एक संक्रमण है। डेंगू एक मच्छर है। डेंगू वायरस के कारण होता है और इसे हड्डी तोड़ बुख़ार भी कहते हैं। हम गंदगी पर काबू नहीं कर सके हैं। हर साल डेंगू से मेरे सैकड़ों नागरिक मर रहे हैं। सरकारी अस्पतालों की हालत इतनी खराब है कि मरीज प्राइवेट अस्पतालों में मजबूरी में जाते हैं। कुछ महीनों पहले एक अस्पताल में डेंगू पीड़ित सात साल की बच्ची का पन्द्रह दिन इलाज चला। बिल आया सोलह लाख रुपए। बच्ची बची भी नहीं। आज उस बच्ची के परिवार पर क्या बीत रही होगी। आप महसूस कर सकते हैं?
बापू आप ही बताइए। आपके सपनों का भारत यही था? क्या इस दिन के लिए आपने धोती-लाठी धारण की थी? एक दूसरा पहलू भी है। अभी पिछले साल की ही तो बात है। पहली बार एक साल में प्रसव के दौरान मरने वाले बच्चों की संख्या दस लाख से कम हुई है। आज भी दुनिया के 18 फीसदी बच्चे भारत में मरते हैं। पर क्या एक साल में दस लाख नवजातों का मरना दुःखदायी नहीं?
बापू , काश ! मैं मूर्त होता। बोल सकता। तो ज़रूर बोलता। ये जो मेरे नीति-नियंता बनते हैं न, उनसे पूछता कि सकल घरेलू उत्पाद का केवल 1.3 फ़ीसदी खर्च कर रहे हो? क्यों? क्या जीवन रक्षा से बड़ा कुछ ओर है? ऊँट के मुँह में जीरा ! ब्राजील जैसा देश 8.3 खर्च करता है। रूस 7.1 खर्च कर रहा है। अफ़गानिस्तान 8.3 खर्च कर रहा है। मालदीव 13.7 खर्च कर रहा है। नेपाल 5.8 खर्च कर रहा है। पड़ोसी पाकिस्तान का सेहत पर बजट हमसे अधिक है।
बापू ! देश में लगभग 15 लाख डाॅक्टरों की कमी है। एक हजार की आबादी पर एक डाॅक्टर होना चाहिए। मेरे सात हजार नागरिकों के लिए भी एक डाॅक्टर नहीं है। आप हमेशा से सेहत को सबसे बड़ी पूंजी मानते थे। बापू आपको याद है न। आजादी के समय में सौ में आठ अस्पताल निजी थे। आज स्थिति बेहद भयावह है। आज सौ में तिरानवे अस्पताल निजी हैं। 
बापू ! आप सोच सकते हैं कि जहाँ मुझे हर नागरिक को निःशुल्क इलाज दिलाना था, वहाँ उलट रोगी लाखों रुपए देकर भी अपनी जान नहीं बचा पा रहा है। क्या अस्पताल भी मुनाफा बटोरने वाली जगह बन गए हैं? हर साल मेरे चार करोड़ से अधिक नागरिक आम बीमारी की चपेट में आते हैं और बीमारी में इतना रुपया खर्च करते हैं कि अचानक गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं। पूरी जिंदगी उबर नहीं पाते हैं।

बापू । मेरे नागरिक अपना जीवन स्तर कैसे ऊपर उठाएँगे ! अस्सी फीसदी परिवार की सालाना कमाई का आधा हिस्सा तो तीमारदारी में खप जाता है। हम बुलेट ट्रैन की वकालत करेंगे। पड़ोसी को उसके घर में घुसकर मारेंगे। पर अपने यहाँ साफ पानी के अभाव में होने वाली मौतों का ग्राफ कम नहीं कर पाएँगे। हम डेंगू से हार जाएँगे। हम प्रसव पीड़ा के दौरान जच्चा-बच्चा का जीवन बचाने में नाकम हो जाएंगे। हम युद्ध के हथियार खरीदने वाले सबसे बड़ा मुल्क बन जाएंगे। लेकिन प्रसवपूर्व आवश्यक तैयारी का सामान खरीदने के लिए बजट मुहैया नहीं करा पाएँगे। बापू ये विसंगति है या कोई साजिश? आप तो गाहे-बगाहे जंत्री दिया करते थे। कुछ जंत्री मुझे भी सुझाएँ। कैसे मेरे नागरिकों को साफ पीने का पानी मुहैया हो सके? कैसे सस्ती चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध हों? क्या यह इतना मुश्किल है? क्या यह राज्य की ज़िम्मेदारी नहीं होनी चाहिए? बापू चेचक, पोलियो, कुष्ठ रोग जैसी बीमारिया लगभग समाप्त हो गई हैं। लेकिन कुपोषण, मलेरिया और तपेदिक से सौ मैं तीस मौतें आज भी हो रही हैं। कई संक्रामक रोग आज भी मुझे जकड़े हुए हैं।
भारतीय बैंकों में बचत खातों की संख्या चालीस करोड़ बताई जाती है। पर इससे क्या? अभी भी प्रति माह हर व्यक्ति को 10,000 रुपए की आय भी नहीं जुट सकी है। मेरे पास कुल 35416 सरकारी अस्तपताल हैं। इस तरह एक जिले में मात्र पचास अस्पताल भी नहीं हैं। औसतन एक जिले की आबादी सत्रह लाख के आस-पास है। अब आप ही बताइए कि सत्रह लाख नागरिकों के लिए पचास अस्पताल बहुत हैं? आप ही अंदाजा लगा लीजिए कि एक जिले के सत्रह लाख नागरिकों के लिए कितने डाॅक्टरों की ज़रूरत होगी? यह सब कैसे होगा? क्यों नहीं हो सकता?
बापू पत्र समाप्त करते-करते आपको यह भी बताना चाहूंगा कि मैं अपनी उन सभी माताओं को वे ज़रूरी टीके नहीं लगवा पा रहा हूँ जिनके लगने से जच्चा-बच्चा सुरक्षित रह सकें। सन् 2022 तक ऐसा हो सके, इसके लिए आपके पास कोई जंत्री हो तो बताना।
आपके जवाब की प्रतीक्षा में,

आपका अपना
भारत
॰॰॰

पत्र लेखक: मनोहर चमोली ‘मनु’