‘आजकल के बच्चे न तो कहानी पढ़ रहे हैं न ही सुन रहे हैं।’
‘बालपत्रिकाएं भी सिमटती जा रही हैं।’
‘बच्चे कार्टून ही पसंद करते हैं।’
इस तरह के जुमले आए दिन सुनने को मिलते हैं। लेकिन यह तसवीर आधी-अधूरी है। हाल ही में मुझे तेरह से अठारह साल के लगभग एक सौ से अधिक बच्चों के साथ एक दिन बिताने का मौका मिला। यह बच्चे चार अलग-अलग सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले या पढ़ चुके बच्चे थे। कहानी लेखन एक दिन में तो हो नहीं सकता था। फिर भी मैंने कोशिश की कि बच्चों के साथ कहानी कला पर औपचारिक बात की जा सके। मैंने प्रख्यात लेखक रामदरश मिश्र की कहानी ‘पानी’ का खुद सस्वर वाचन किया। मैंने कोशिश की कि सभी बच्चों को कहानी के संवाद उसी लहज़े में सुनाई दें, जिस लहज़े में वे कहानी में कहे गए हैं। आप भी कहानी की कथावस्तु पढ़ लीजिए।
'पानी' कहानी में मंगल और उसके बेटे रामहरख को रास्ते में साइकिल से गिरे परमेसर बाबू बेहोश पड़े हुए मिलते हैं। रामदेव गांव में ऊंची जाति के बड़े काश्तकार हैं। गांव के हर बड़े-छोटे उनकी चैपाल पर आकर बैठते हैं। परमेसर बाबू उन्ही का बेटा है। मंगल और उसका परिवार बरसों से रामदेव के यहां बेगार करता रहा है। तंग आकर जब मंगल ने रामदेव की हलवाही छोड़ दी तो गुंडों ने लाठी से पीटा अलग और उनकी झोपड़ी उजाड़ दी थी। ठाकुर बामन और छोटी जात का मसला गांव में है। रामहरख शहर में पढ़ने लगा है। वह पुरानी बात याद कर अपने पिता को परमेसर बाबू को इसी हाल में रहने देने के लिए राजी कर देता है और दोनों आगे बढ़ने लगते हैं। फिर भी मंगल को लगता है कि प्यासा तड़प रहा कोई जानपहचान के आदमी को यूं ही छोड़कर आगे बढ़जाना अधर्म है। वह लौट पड़ता है और रामहरख भी पीछे-पीछे लौट पड़ता है।
बेहोश परमेसर पानी मांगता है। जून की दोपहरी में अब पानी कहां से लाया जाए। उनके पास लोटा-डोरी था और पास में कुआं भी था। रामहरख कहता है कि एक तरफ इन्सानियत है और दूसरी तरफ उनकी छोटी जाति। अब क्या करें। मंगल जवाब देता है कि इन्सानियत जाति से बड़ी होती है। रामहरख कुएं से पानी भर कर ले आता है। फिर दोनांे उसे पानी पिलाते हैं। यही नहीं दोनों उसे किसी तरह उनके घर पहुंचाते हैं।
रामदेव बाबू पूजा में बैठे हुए थे। दरवाजे पर गांव के कई लोग थे। पूछा तो मंगल ने सारा किस्सा सुना दिया। पानी का नाम सुनकर रामदेव खड़े हो जाते हैं और दोनों को धर्म नष्ट करने की बात कहते हैं। गुस्से में आकर वह मंगल पर अपनी खड़ाऊं खींच कर दे मारते हैं। रामहरख प्रतिकार करता है। रामदेव दाण्ेनों को भाग जाने की सलाह देता है।तभी परमेश्वर बाबू दोनों को अपने पास बुलाने की बात कहते हैं। वह मंगल को चाचा कहकर संबोधित करता है। ठाकुर रामदेव चिल्लाता है। रामदेव बहस करने लगता है और कहता है कि जान बचाने वाले के लिए यदि इस घर मंे कोई जगह नहीं है तो मैं भी इस घर में नहीं रह सकता।
बुखार से तप रहा परमेश्वर धम्म से खाट पर से नीचे गिर पड़ता है। रामदेव का पुत्र मोह जागता है और वेदना भरी निगाहों से वह मंगल और रामहरख को देखता है। मंगल ओर रामहरख चुपचाप अपने रास्ते की ओर चल पड़ते हैं।
मैंने इस कहानी का चयन बस इस लिहाज़ से किया था कि इसके वाक्य सरल हैं। पात्रों के लिहाज़ से भी यह मुझे उचित लगी। पृष्ठभूमि भी ग्रामीण थी। कहानी को पूर्व में पढ़ते समय मैंने अनुमान लगाया था कि बच्चों के साथ कहानी पर बातचीत शुरू करने में संभवतः थोड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
कहानी पढ़ लेने के बाद जब मैंने बच्चों से यह कहा कि अब इस कहानी पर बातचीत करनी है। एक-एक कर कई बच्चे अपनी बात रखने को आतुर दिखे। बताता चलूं कि अभी मैंने कहानी के शिल्प पर या कहानी की विशेषताओं पर कोई बात नहीं की थी। मैंने बच्चों के साथ चार घण्टे बिताए। बच्चों ने अंत में कई सारी कहानियों की विषयवस्तु मुझे बताई, जिसे वे कहानी की शक्ल देना चाहते हैं। लेकिन इससे अच्छा बच्चों को कहानी सुनना ज्यादा पसंद आता है। वे कहानियों पर तर्क करना चाहते हैं। अपने विचार व्यक्त करना चाहते है।
बच्चों के पास अपना नजरिया होता है। वह इतना ठोस और तर्क से भरा होता है कि कभी-कभी ऐसा लगता है कि जीवन को बच्चे भी बेहद गहराई से देखते हैं। महसूस करते हैं। मैं इस नतीजे पर पहूंचा हूं कि बच्चे चाहते हैं कि वे कहानी सुने और पढ़ें। वे यह भी चाहते हैं कि उनकी बात को सुना जाए। जब वे इतना सब चाहते हैं तो लिखना भी चाहेंगे। मैं जो थोड़ा बहुत बच्चों की मनःस्थिति को समझ पाया हूं, उनमें कुछ आपके सामने रखने की कोशिश करता हूं।
ऽ कहानी का कथ्य अच्छा हो और कहन स्पष्ट हो तो श्रोता अंत तक कहानी को धैर्य से सुनते हैं।
ऽ कहानी यदि सरल और सहज हो। संवादांे में पिरोई हुई हो, तो श्रोता को आनंद आता है।
ऽ कहानी यदि किसी घटना या आकस्मिक कही गई रोचक बात से शुरू हो तो रोचकता बनी रहती है।
ऽ कहानी के पात्रों में यदि असहमतियां हों, विचारांे मंे भिन्नता हो तो जिज्ञासा बनी रहती है।
ऽ कहानी का परिवेश कुछ ऐसा हो कि श्रोता उसके देश काल और परिस्थितियों की कल्पना करने लगें तो कहानी पर बातचीत की संभावना बढ़ जाती है।
ऽ कहानी के पात्रों के नाम और उनका स्वभाव भी चित्रित हो, तो रोचकता बनी रहती है।
ऽ भले ही कहानी सीधी और सपाट रास्ते से चल रही हो, लेकिन कहानी की कथा में जिज्ञासा बनी रहे तो कहानी की लोकप्रियता में कोई संशय नहीं हो सकता।
ऽ कहानी में कोई प्रकरण,बात,मुद्दा या पात्र केन्द्र में हो तो श्रोता कहानी के विविध पक्षों पर विचार करने लगता है।
ऽ कहानी में हर पात्र के चरित्र का चित्रण उसके संवादों से ही उभरे तो श्रोता को सीख देने और समझाने का भाव नहीं आता। श्रोता चरित्रों के आचरण और बातचीत से ही उनके गुणों का आकलन कर लेते हैं।
ऽ कहानी के शीर्षक पर श्रोता अपनी बेहतरीन राय देते हैं। एक कहानी के कई शीर्षक श्रोता रखे गए शीर्षक से अच्छा सुझा पाते हैं। इसका अर्थ यही हुआ कि श्रोता कहानी को गहरे से आत्मसातृ कर रहे होते हैं। यह जरूरी नहीं कि लेखक ही कहानी का सबसे सटीक और अंतिम शीर्षक रखने में माहिर हो।
ऽ श्रोता कहानी के बाद बड़ी आसानी से और विचार कर पात्रांे के व्यवहार मंे गुण-दोष निकाल लेते हैं। वह यह भी सुझा देते हैं कि फलां पात्र को ऐसा नहीं कहना चाहिए था। फलां पात्र को ऐसा नहीं करना चाहिए था।
ऽ श्रोता हर कहानी के सामाजिक यथार्थ का भी आकलन कर लेते हैं। कई बार लेखक के द्वारा किसी चरित्र के साथ भरपूर न्याय होता-सा नहीं दिखता। श्रोता कहानी के आगे की कहानी भी गढ़ लेते हैं। यह कहानी की सफलता ही मानी जानी चाहिए कि कहानी के अंत हो जाने के बाद भी श्रोता कहानी के भीतर और कहानियों को खोज लेते हैं और चर्चा में उसे रेखांकित करते हैं।
ऽ श्रोता कहानीकार से यदि पात्र ऐसा कहता, यदि कहानी में कुछ ऐसा हो जाता तो कैसा होता। ऐसी कई संभावनाओं को तार्किकता के साथ रखते हैं। यह बेहद महत्वपूर्ण है। यह जरूरी नहीं कि जब कहानी रची गई हो, तब भी और अब भी जब कहानी पढ़ी या सुनी जा रही हो, में समाज मंे सामाजिक-राजनैतिक और परम्परागत संस्कार एक जैसे रहे हों। दूसरे शब्दों में कहानी कभी मरती नहीं। हां उसके मायने आज के सन्दर्भ मंे कुछ बदल जाते हैं। या यह भी संभव है कि यदि कथा यथार्थ से मेल नहीं भी खाती है तो श्रोता उस देशकाल और परिस्थितियों की कल्पना कर लेते हैं। यह कहानी की विशेषता मानी जानी चाहिए।
ऽ तमाम मत-मतांतर के और कहानीकार की विहंगम दृष्टि के बाद भी श्रोता कहानी से जो आनंद ले पाया है उसे हमेशा संदेश-सीख और निष्कर्ष के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए। हम आज जो कहानी एक समूह में सुनाते है वही कहानी कल किसी दूसरे समूह में सुनाते हैं तो एक ही कहानी पर जुदा-जदुा राय-मशविरा सामने आते हैं। लेकिन श्रोता की राय से हर बार इत्तफाक न रखना भी ठीक नहीं है।
ऽ श्रोता यह जानते हुए भी कि कहानी काल्पनिक हो सकती है। कहानी आनंद के लिए होती है। कहानी में जरूरी नहीं कि सब कुछ वास्तविक सा हो। फिर भी श्रोता चाहते हैं कि कहानी में आदर्शात्मकता से अधिक कुछ तो यथार्थ का अंश हो। यानि अधिकतर श्रोता चाहते हैं कि कहानी में किसी भी पात्र के साथ अन्याय न हो। इसका अर्थ यह हुआ कि कहानी मानवीय मूल्यों की रक्षा करती हुई होनी ही चाहिए।
सही भी है कि यदि दुनिया में नैतिकता और मानवता ही न रहे तो यह समाज मानव समाज कहां कहलाएगा। लेकिन श्रोता इसे ठूंस गए जबरन थोपे जाने वाली शैली से स्वीकार करना नहीं चाहते।
कुल मिलाकर यह कहना गलत न होगा कि हम बड़े बिना बच्चों से गहराई से बात किये बिना बालसाहित्य की दिशा और दशा पर विद्धता भरे विचार व्यक्त कर देते हैं।
मुझे लगता है कि बालसाहित्य का भविष्य उज्जवल है और बच्चे साहित्य से विमुख हो ही नहीं सकते।