31 अक्तू॰ 2010

बच्चे, बाल जीवन और स्कूल

-मनोहर चमोली 'मनु' manuchamoli@gmail.com

दोस्तों,नमस्कार,

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16 अक्तू॰ 2010

सफ़ेदपोश आवरण में मीडिया

ज का युग सूचना तकनीक का युग है। उच्च तकनीक के इस ज़माने में ख़ुद को अत्याधुनिक बनाए रखना एक विवशता-सी हो गई लगती है। बाज़ार नई संचार-तकनीक से अटा पड़ा है। आज कोई भी रोटी, कपड़ा, मकान सहित अन्य रोज़मर्रा की ज़रूरतों पर चर्चा करता कमोबेश कम ही दिखाई देता है। हाँ ! नए उत्पादों-सेवाओं पर सबकी नज़]र अवश्य रहती है। ऐसी नज़र रखने वाला हमें किसने बनाया ? मीडिया ने! यही नहीं, नित नये टी.वी.चैनलों की समीक्षा भी आम चौराहों पर हो रही है। कल रात और आज सुबह किस चैनल ने क्या दिखाया और किस चैनल में क्या मज़ेदार रहा। ऐसा विश्लेषण करना हमें किसने सिखाया ? मीडिया ने! देखने-पढ़ने में तो यह सब बातें विकसित होने का सूचक नज़र आती हैं। मगर यह तसवीर का एक ही पहलू है। दूसरी ओर की स्थिति भयावह नहीं तो चौंकाने वाली तो है ही।
आज का दौर भागम-भाग का है। ऐसा लगता है कि किसी के पास समय ही नहीं है। ये और बात है कि चाय पीने के बहाने रेस्तरा में घंटों गपियाया जा सकता है। देर सुबह आराम से उठा जा सकता है। चार से छह घंटे टी.वी. देखा जा सकता है। बेवजह के कुतर्को और पर निन्दा में घंटों बरबाद किये जा सकते हैं। साठ और सत्तर के दशक में ऐसा नहीं था। हमारे पास समय ही समय था। हम आराम से अपनी दिनचर्या शुरू करते थे। बिना किसी लाग-लपेट के आराम से रात्रि विश्राम होता था। अपना काम-काज, खेती-किसानी, पढ़ाई-लिखाई, सामाजिक सरोकार सहित आस-पड़ोस के सुख-दुख में भी हम शरीक़ हो जाते थे। मगर आज का दौर ऐसी दिनचर्या को आलसी और गँवई लोगों की लाईफ़ स्टाईल क़रार देता है।
यह सब अचानक तो नहीं हुआ। किसने किया? क्यों किया? इस पर विमर्श करना आवश्यक है। एक ख़ास वर्ग की रणनीति नहीं तो अपना लबादा छोड़ कर दूसरों के पहनावे की नक़ल करने की आदत करना हमें सिखाया जा रहा है। हमें अपनी संस्कृति और जीवन शैली से अलग करने में मुनाफ़ाखोर सफल तो हुए ही हैं। टी.वी. जिसे बुद्धू बक्सा भी कहा गया है ने सबसे अहम् भूमिका निभाई। उससे पहले तो रेडियो स्वस्थ मनोरंजन के साथ-साथ सूचनाओं का संप्रेषण बख़ूबी निभा रहा था। आज भी रेडियो; जो सुनते हैं, जो जानकार हैं, जानते हैं कि आवश्यक बदलाव के साथ रेडियो आज भी जन हिताय साबित हो रहा है। वे मानते हैं कि टी.वी. ने बहुत कुछ बरबाद ही किया है। आबाद नहीं किया है, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। हाँ। बीते चार दशकों में टी.वी. और चैनलों ने सारी परंपरा, तमीज़-तहज़ीब, मान-सम्मान, नक़ल-दिखावा, लम्पट राजनीति, मानवीय गुण, राग-द्वेष आदि सबको एक छतरी के नीचे लाकर तो रख ही दिया है।
आज का दौर ‘बूढ़े आदमी को नए जूते पहनाने से धावक नहीं बनाया जा सकता’ यह जुमला उन लोगों पर कसता है, जो मीडिया को उसके धर्म की याद दिलाते हैं। जो मीडिया को लताड़ते हैं। अपवाद को छोड़ दें तो आज मीडिया ;प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों में एक दशक से भी कम समय से जुड़े पत्रकारों की फ़ौज है। जो दस साल पहले के पत्रकारों को दूसरी पीढ़ी के पत्रकार मानते हैं। अपवादस्वरूप ये एक दशक के अधिकांश पत्रकार वरिष्ठ पत्रकारों से उलझ पड़ते हैं। हाँ। स्वस्थ बहस-तर्क नहीं कर पाते। चिल्लाने लगते हैं। क़स्बाई पत्रकार जो अधिकांश स्ट्रिंगर हैं। वे तो जिला स्तरीय अधिकारी-जन प्रतिनिधियों से वार्ता इस लहज़े में करते हैं जैसे वे उनके लँगोटिया यार हों। जनता से कैसा व्यवहार करते हैं। यह हम सब जानते हैं। यह सब किसकी शह पर, किस बैनर की तड़ी पर और किसने सिखाया? मीडिया ने!
जिनकी पत्रकारिता दस साल से अधिक की हो गई है, वे मीडिया की व्यवस्था में जकड़ गए दिखते लगते हैं। अधिकांश तो न कुछ बोलते हैं न उनकी क़लम बोलती है। अति स्वाभिमानी और अति महत्वकांक्षी पत्रकारों ने अपनी ज़मीन छोड़ दी या मीडिया संचालकों ने उन्हें दिशा बदलने पर विवश कर दिया। अच्छे और नामी पत्रकार कहाँ है ? क्या कर रहे हैं ? इस पर भी सोचा जाना चाहिए। अगर वे आज भी पत्रकार हैं, तो क्या उनकी समाचार शैली वैसी ही धारदार है? असरदार है ? जैसी उनके शुरूआती दौर पर हुआ करती थी। यह विमर्श का विषय है।
आज का मीडिया सफ़ेदपोश आवरण ओढ़ चुका है। जिसका कुहासा मिटता ही नहीं। पाठक और श्रोता नयापन चाहते हैं। बदलाव नहीं। पाठक को हर सुबह अख़बार की प्रतीक्षा रहती है। अब उसे कहाँ फ़ुरसत की किसी ख़बर पर मौखिक प्रतिक्रिया करे, चर्चा करे या लिखित टिप्पणी संपादक को भेजे। संपादक ऐसे कि उन्हें ख़ुद कल की सुबह के अख़बार में अपना नाम कायम रहने की फ़िक्र रहती है। वो प्रबंधतंत्र-मालिक,व्यवसायी के रूख को ही भाँपते रहते हैं। अगर रूख को भाँपने में चूक हो गई तो घोड़ा-गाड़ी छीनी गई हाथ से समझो। व्यवसायी ‘और लाभ पर लाभ’ की चिंता में है। उसे बाज़ार चाहिए और बिक्री चाहिए। चैनल जूतों की दुकान की तरह हो गए हैं। पहले तो एक ही दुकान में अपनी नाप का जूता पहन लो। नहीं समझ में आया। छोटा-बड़ा हो रहा है या अंदेशा हो कि काट रहा है तो दूसरी दुकान में जाओ। चैनल मानो एक-दूसरे में ताक-झाँक करते नज़र आते हैं कि उसके पास कौन सी कंपनी का नया जूता आया है। वो उनके पास क्यों नहीं आया। नहीं आ सकता तो उससे बेहतर दिखने वाला तो हो। बस चैनली पत्रकार इसी जुगत में लगे रहते हैं।
जानकारों से पूछ लें तो पाएँगे कि मीडिया के दस-दस पत्रकारों के नाम तक अधिकांश को याद तक नहीं हैं। अलबत्ता वे ये टोह लेते ज़रूर मिल जायेंगे कि फलां पत्रकार आजकल कहाँ होंगे। या फिर कि कोई नया स्कोप है या स्पेस है। जो जहाँ है, उसे वहाँ से हटाने की मुहिम जारी रहती है। जो जहाँ हैं, वो वहाँ ख़ुद को असुरक्षित महसूस करते हैं। उनकी सारी उर्जा अपने लिए नई ज़मीन तलाशने की रहती है। प्रिंट वाले इलैक्ट्रानिक में और इलैक्ट्रानिक वाले विदेशी चैनलों में हाथ-पैर मारते नज़र आते हैं। अपनी बेहतरी के लिए नहीं, अपने को बचाए रखने के लिए। कितने ख़ुद को बचा पाते हैं। बचाने की एवज में क्या गँवाते हैं। यह किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में जन सरोकारों को उठाना और जन समस्याओं की तह में जाना कैसे संभव है। बाज़ारवाद इस क़दर हावी हो चुका है कि जहाँ से ख़बर उठती है और जहाँ से छपती या प्रसारित होती है, उसके बीच इतने झोल आ गए हैं कि पत्रकार को ख़ुद पता नहीं होता कि उसकी किस ख़बर को लगाया जाएगा, किसे छोटा किया जाएगा, किसे कभी नहीं लगाया जाएगा और किस ख़बर पर ये टिप्पणी हो कि ‘ये क्या भेज दिया?’ क़स्बों में मीडिया के मुख्य कार्यालय और केंद्र हो गए हैं। अति स्थानीयता को परोसा जा रहा है। पाठकों को पहले दुनिया से, फिर देश से और अब अपने राज्य से काटा जा रहा है।
हमें ऐसा दिखाया और पढ़ाया जा रहा है कि हम कुएँ के मेंढक से भी अधिक संकुचित हो गए हैं। ऐसा बाज़ारवाद कि आपकी अपनी चीज़ सड़ जाए, मगर आपको आपके मुहल्ले की दुकानों में विदेशी चीज़ें मिल जायें। मीडिया मुनाफ़ाखोरों को अच्छा स्थान देता है। क्यों? ये आप और हम भी जानते हैं। अब जनता भी समझ गई है। वह आज मीडिया को ‘दिल बहलाने का साधन मात्र’ मानने लगी है। ‘समय बिताने के लिए देखना और पढ़ना क्या बुरा है’ यह सोच विकसित हो गई है। जनता ‘ख़बरों में विज्ञापन है या विज्ञापन में ख़बर है’ का अंतर भी समझ गई है। यही कारण है कि आज पत्रकार ख़ुद कहने लगे हैं कि अब बात निकलती तो है, पर दूर तक नहीं जाती। क्यों? इस सवाल पर वो भी विमर्श नहीं करना चाहते हैं। आख़िर विमर्श करें तो होगा क्या। पत्रकार ख़ुद कहते हैं कि हम आज के दौर में कठपुतली मात्र बन गए हैं। हम वही लिखेंगे, जो संस्थान लिखवाएगा। हम वहीं दिखाएँगे जो संस्थान दिखवाना चाहता है। हम वही बोलेंगे, जो संस्थान बुलवाना चाहता है। ऐसा लिखना, दिखाना और बोलना जो ख़ुद का ही नहीं है, तो क्या लेखन और क्या रिपोर्टिंग? ‘मिशनरी भावना’ और ‘अपनापन’ आज की मीडिया के शब्दकोश में नहीं हैं।
पत्रकार ख़ुद भी कहते हैं कि वे भी तो इंसान हैं। उनकी भी इच्छाएँ हैं, अभिलाषाएँ हैं, बच्चे हैं, परिवार है। वे ही क्यों अभाव में रहें। वे ही क्यों सत्ता से, समाज से और दबंगइयों से पँगा लें। वे ही क्यों जो होना चाहिए पर सवाल खड़ा करें। जिन्हें करना चाहिए था, उन्हें क्यों उनका धर्म याद दिलाएँ। आम आदमी की तरह वे भी तो पिस रहे हैं। जन सरोकारों को उठाने और जन समस्याओं को चर्चा में लाने के लिए उन्हें क्या मिल रहा है। हम ही ठेकेदार नहीं हैं। जनता अपने मुद्दों को लेकर ख़ुद मुखर हो। ऐसा अधिकांश मीडियावाले कहने लगे हैं।
समाचार चाहे वो टी.वी के हों या अख़बार के। कुछ ही पलों में बासी हो जाते हैं। हर कोई आज क्या हुआ है, बस यही जानना चाहता है। कल जो घट चुका था, उस पर और क्या होना शेष था, इसे जानने और विश्लेषण करने का न तो समय किसी के पास है और न ही रूचि। मीडिया ने हमें अपने घर नहीं, अपने-अपने कमरों में क़ैद-सा कर दिया है। जब भी हम अपने कमरे से बाहर आते हैं,तब भी हम अपने निजी काम के लिए निकलते हैं। अगर ऐसी कोई व्यवस्था हो जाए कि हमें जो चाहिए दाम चुकाकर घर के भीतर ही मिल जाएगी, तो हम पड़ोस में लगी आग को भी चैनल में देखना चाहेंगे। यह अति व्यक्तिवादी संस्कृति हमें किसने दी? यह भी विमर्श का विषय है।     आज के दौर और मीडिया के चरित्र को इस उदाहरण से समझा जाना चाहिए। जन सरोकारों की गठरी लिए एक हाथी चला जा रहा है। हाथी किसका है। यह पता नहीं चल पा रहा है। कुत्ते हाथी पर लदी गठरी और हाथी को देखकर लगातार भौंक रहे हैं। तमाशबीन कभी हाथी को देख रहे हैं तो कभी कुत्तों को। हाथी पर लदी गठरी को भी सभी उचक-उचक कर देख रहे हैं। सब देख रहे हैं और सुन भी रहे हैं। पर सब ख़ामोश है। हाथी कहाँ जा रहा है? हाथी आख़िर है किसका? किसी को पता नहीं। कोई जानना भी नहीं चाहता है। जिसके घर से आगे हाथी निकल गया, उसके घर के द्वार बंद हो गए और देखने वाले कमरे में फिर अपनी दुनिया में व्यस्त हो गए। यह सोचकर कि कुछ ही घंटों में पता चल जाएगा, नहीं तो कल अख़बार में देख लेंगे। मीडिया ने हमारी ऐसी स्थिति बना दी है कि यदि हम अपने घर पर सकुशल हैं, तो सब कुछ ठीक है। अगर हमें असुविधा है तो सारा समाज, तंत्र और व्यवस्था ख़राब है।
एक समय था जब हमारे क्षेत्र में कोई बीमार हो जाता था, तो सारा क्षेत्र बीमार का हौसला बढ़ाता था। उसकी तीमारदारी के लिए उपलब्ध हो जाता था। आज हम बीमार को देखने तक नहीं जा पाते। अर्थी में भी शामिल नहीं हो पाते। शोक संवेदना प्रकट करने के अलावा हम कुछ नहीं कर पाते। वो दिन दूर नहीं जब हमें अपने घर-परिवार में होने वाली मौत की ख़बर भी चैनल से मिलेगी। वो इसलिए की सारी दुनिया को जानने के लिए चौबीस घंटे टी.वी. हमारे कमरे में जागता है और हम टी.वी. देखते-देखते सोते हैं। टी.वी. को देखते-देखते और आँख मलते-मलते हमारी सुबह होती है। केवल कोसने भर से तो काम चलने वाला नहीं है। हमें अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा। वह अत्याधुनिकता, वह बाज़ार और वह सुविधाएँ जो हमे ऐसा आदमी बना रही है,जो ख़ुद को छोड़कर अन्य को आदमी नहीं समझता, इससे बचना होगा। अन्यथा जंगल तो दूर होते ही जा रहे हैं। जंगली लुप्त हो रहे हैं। शायद हम ऐसा कंकरीट का जंगल बना रहे हैं, जिसमें मानव जाति के जंगली रहते हैं।
जन सरोकार के पक्षध्र पत्राकारों और लेखकों को हर कोई जानता है। वे कल भी,आज भी और कल भी सर-आँखों में बिठाए गए हैं और बिठाए जाएँगे। मगर ऐसो की संख्या बढ़ने की जगह घट रही है। मीडिया वाले तो बताने से रहे कि ऐसा क्यों? किंतु आज नहीं तो कल इसकी पड़ताल होनी चाहिए।

-मनोहर चमोली 'मनु' manuchamoli@gmail.com

15 अक्तू॰ 2010

सुख का रास्ता

सुख का रास्ता

सुकरात को बंदी बना लिया गया। आरोप था कि वह जनता को भड़काता है। सुकरात को जेल में डाल दिया गया। यातनाएँ दी गईं। तय हुआ कि सुकरात को ज़हर का प्याला देकर मार दिया जाए। एक रात की बात है। रात के अँधेरे में कोई आया। सुकरात ने पूछा-‘‘कौन?’’
‘‘मैं क्रीटो। आपका परम भक्त।’’ यह कहकर क्रीटो ने सुकरात की बेड़ियाँ और सारे बंधन खोल दिए। उसने कहा-‘‘ये आपको मारने वाले हैं। भाग चलें।’’
सुकरात ने धीरे से कहा-‘‘नहीं भागना कायरता है। मैं ऐसा नहीं कर सकता।’’
क्रीटो अवाक् था। कहने लगा-‘‘गुरुवर मेरे लिए कोई संदेश।’’
सुकरात ने कहा-‘‘’’न्याय करने वाला कभी दुखी नहीं होता और अन्याय करने वाला कभी सुखी नहीं हो सकता। अन्याय सहन कर लो मगर कभी अन्याय मत करो।’’
क्रीटो ने सुकरात को नमन किया और चुपचाप चला गया। क्रीटो आगे चलकर महान दार्शनिक हुआ।

 



-मनोहर चमोली 'मनु' manuchamoli@gmail.com

12 अक्तू॰ 2010

प्रियतमा को पत्र

-मनोहर चमोली 'मनु' manuchamoli@gmail.com

प्रियतमा को पहला पत्र

प्रिय अनु,
आशा ही नहीं, दृढ़ विश्वास है कि इस पत्र को पढ़ते समय आप बेहद रोमांचित और आनंदित हो रही होंगी। होना भी चाहिए, क्योंकि आपने मुझे तीन दिन की लगातार उधेड़बुन के पश्चात विवश किया है कि मैं पत्र लिखने बैठ गया। अब हम जीवन के चरम सुख देने वाले, आनंददायी ज़िम्मेदारीपूर्ण सोपान पर साथ-साथ प्रवेश करने जा रहे हैं। मैंने अंतस से आपको जैसा जाना है, उसी के आधार पर ये सब लिख रहा हूँ। अब तक आपने अपनों का, दूसरों का ख़्याल रखा है। अब आपका ख़्याल रखने वाला, आपको संभालने और प्यार करने वाला, आपकी उलझनों को समझने वाला आपकी रग-रग में समा चुका है। इसका अहसास आपको है। इस अहसास की गहराई से अनुभूति आपको हो जाने वाली है।
मैं भी चाहता हूँ कि आप मुझे जानें, समझें। मुझे सँवारे। मेरी क्षमताओं को बढ़ाएँ। मुझे अधिक योग्य बनाने में सहभागी बनें। बनेंगी न ? मैं नहीं जानता कि मैं आपकी उम्मीदों, अपेक्षाओं और पसंद में कितनी जगह बना पाया हूँ। हां। मैं आशावादी हूँ। आपसे अपेक्षाएँ इसलिए कर रहा हूँ कि आपमें वे सब क्षमताएँ हैं, जो हम दोनों को निखारेंगी। काश ! आप पाँच-सात साल पहले मुझे मिल जातीं। ये पाँच-सात साल जो गुज़र गए हैं, मैं आपके सहयोग से क्या से क्या हो जाता। अब इन गुज़रे सालों की भरपाई करनी है। करोगी न?
मुझे लगता है कि हम दोनों एक-दूसरे के लिए ही बने होंगे। आपकी आँखों और आवाज़ में मुझे अपनापन नज़र आता है। हमें ऐसा जीवन जीना है, जो यादगार जीवन कहलाए। जिसकी लोग मिसाल दें। आपमें कुछ ऐसा है,जो मुझे उत्साहित और बेहद रोमांचित करता है। मेरी इच्छा है कि हम दोनों का प्रवाह निरन्तर तेज़ हो, गतिशील रहे। बहता रहे। आप ख़ुद भी गतिवान रहेंगी और मुझे भी शिथिल नहीं होने देंगी। ऐसा करोगी न?
मुझे लगता है कि मैं तुम्हें अनंत ख़ुशियों के साथ-साथ चुनौतियाँ भी दूँगा। उन चुनौतियों को आप सहर्ष स्वीकार भी करेंगी। विजयी भी होंगी। ऐसा अटूट विश्वास मुझे है। इसे तोड़ने न देना। है न ! बस एक ही डर मुझे कभी-कभी डरा देता है, मैं रात को उठ बैठता हूँ। ये डर है कि आप कहीं अपनी क़ाबिलियत, क्षमता, उर्जा और सामर्थ्य को सीमित न कर दो। पर इस डर को आप ख़ुद ही दूर कर देती हो। मैं बड़ी सहजता से बता ही देता हूँ और दूसरे ही क्षण आप आ आती हो। मुझे छोटे बच्चे की तरह पुचकारती हो। मेरे बालों को सहलाती हो। तब मुझे लगता है कि ये जो पहला सपना;जो मुझे डराता है, उस पर दूसरा सपना अनायास ही मेरे डर को दूर भगा देता है। फिर मैं मान लेता हूँ कि सपना तो सपना ही होता है। मगर सारे सपने महज़ सपने ही होते हैं। ये मैं नहीं मानता।
इस उम्मीद के साथ कि हम दोनों की नई शुरुआत, नया जीवन ख़ुशहाल होगा। हम, दोनों को, हमसे जुड़े लोगों को ख़ुश रख पाएँगे। असीम-अनंत प्यार के साथ,
आपका ही
मनोहर चमोली ‘मनु’
इसे संभालकर रखना। रखोगी न ?
06 अक्टूबर 2007
 

 

प्रियतमा को लिखा दूसरा पत्र

मेरी प्रिय अनु,
लगता ही नहीं बल्कि यक़ीन हो चला है कि आप मेरी कमज़ोरी बन चुकी हो। मुझे आज भी वो दिन याद है, जब आपने पहली बार मुझे फ़ोन किया था। तब ऐसा लगा था कि हम दोनों का रिश्ता दूसरों से अलग है। अनूठा है। यह भी कि जैसी मेरी आदतें हैं, वे भी चलती रहेंगी, और आप ज़्यादा मेरे काम में, सोच में, विचार में, रूटीन के कामों में दख़ल नहीं दोगी।
आज लग चुका है कि मैं कितना ग़लत था। आप ने क्या कर दिया? मैं नहीं जानता। बस इतना चाहता हूँ मुझे टूटने न देना। मुझे अब तक जो न मिला, वो आप देंगी। मुझे लगे कि मेरा कोई है। कोई ऐसा जो मेरे अपनों से भी ज़्यादा अपना है। मुझे अपना मानता है। आपकी आँखें इसे पढ़ते हुए क्या महसूस करेंगी, मैं नहीं जानता। मगर यदि आपने मुझे सच्चाइयों से महसूस किया हो तो आपको आभास होगा कि मैं लिख तो रहा हूँ, मगर मेरी आँखें गीली हैं। आँखों का छलकना शेष है। मैं वैसे आँसूओं को कमज़ोरी मानता हूँ। पर कभी-कभी मेरी आँखें भी मुझे कमज़ोर-सा कर देती हैं। मैं लिखना तो बहुत कुछ चाहता था, पर अब नहीं लिख पा रहा हूँ। मुझे माफ़ कर देना। हाँ। अब इतना तो है कि लगता है कि ज़िदगी से बड़ी आप हो गई हैं, मेरे लिए।
तुम्हारा ही
मनोहर चमोली ‘मनु’
07 अक्टूबर, 2007

सुजीवन की कुंजी है चरित्र

-मनोहर चमोली 'मनु' manuchamoli@gmail.com

ई बार पढ़ा कि ‘चरित्र ही जीवन की रक्षा करता है।’ इस वाक्य में जीवन का सार छिपा है। वाक़ई चरित्र है, तो सब कुछ है। चरित्र नहीं बचा तो जीवन पशु के समान ही है। कहा भी गया है कि धन तो आता है, चला जाता है। कुछ भी नष्ट हो गया तो उसे फिर से प्राप्त किया जा सकता है, लेकिन चरित्र चला गया तो सब कुछ चला गया। यह सदियों से सुनते-पढ़ते आए हैं। मगर सुनने-पढ़ने के बाद गुनने वाले कितने हैं? यही विचारणीय है। बहरहाल सज्जन हर संभव चरित्र की रक्षा करते हैं। अच्छे आचरण वाला चरित्र को सर्वोपरि रखता है।
आख़िर चरित्र है क्या? क्या बुरा आचरण कुचरित्र है। एक पिता घर में बच्चों के लिए बुरा आचरण करता हो, मगर बाहर उसका आचरण अच्छा हो तो? साँप की फितरत डसना है। मगर डसना उसकी विवशता भी तो है। कहते भी हैं कि घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खाएगा क्या। घास के लिए घोड़े का आचरण क्या है? वहीं घोड़ा घास खाने के अलावा अपने स्वामी के लिए तो आजीवन अच्छा आचरण करता है। तब घोड़े का चरित्र क्या है?
आपका व्यवहार किसी के लिए अच्छा हो सकता है, और वही व्यवहार किसी ओर के लिए बुरा हो सकता है। आदत और चरित्र में अंतर है। आदतें अच्छी और बुरी हो सकती हैं। यह ज़रूरी नहीं कि हर किसी की आदत हो कि वह ज़ल्दी उठता हो। लेकिन देर से उठने वाला कुचरित्र कैसे हो सकता है। एक व्यक्ति चोरी करता है। चोरी को उसने कर्म बना लिया। मगर दूसरे क्षण वह एक गरीब परिवार की दयनीय स्थिति देखकर चोरी के धन से ही उनकी मदद करता है, तो चोर के इस व्यवहार को आप क्या कहेंगे। क्या उसका समस्त आचरण अमानवीय है?
सच्चरित्र श्रमसाध्य है। कुआचरण वाला हमेशा ऐसा ही रहे। यह कहना ठीक नहीं होगा। वहीं चरित्रवान आज है, संभव है कल उसका पतन हो जाए। दूसरे शब्दों में चरित्रवान बने रहना दुष्कर कार्य है। इसे बनाए ओर बचाए रखना ही श्रमसाध्य है। अच्छे आचरण को पाने के लिए सुख-सुविधा, स्वार्थ, मोह और भोग-विलास तक त्यागना पड़ता है। किसी को कटु वचन न कहना, दूसरे के सम्मान की रक्षा करना, दूसरे को अपमानित न करना भी अच्छे आचरण का प्रतीक है।
कहते है कि वह सत्संगी है। इसका अर्थ यह नहीं कि किसी सत्संग में ही जाया जाए। सत्संग यानी सज्जनों का साथ करना। सज्जन कौन है। जो सत्य के मार्ग पर चलते हैं। पर क्या आज के युग में सत्य के मार्ग पर चलने वाले हैं? आजकल सत्संग का प्रचलन ख़ूब है। पर क्या वहाँ वाकई सत्संगी हैं। कुछ पल, कुछ दिन सत्संग कर लें और बाकी समय हमारा आचरण फिर असामाजिक हो, तो ऐसे सत्संग का क्या लाभ? सत्संगियों का साथ करना होता है। सत्संग का अर्थ है सच्चे लोगों का साथ। भले लोगों का आश्रय। भले व्यक्तियों में ही दया, करुणा, ममता, सहयोग और सहभागिता के गुण होते हैं।
अब पुनः चरित्र पर आते हैं। सत्पुरुष वही है जो अध्ययन करता है। सत्य, दया, सरलता और परिश्रम का पालन करता है। आलस से दूर रहता है। लोभ, झूठ, आलस, पाखंड और दुर्जनों का साथ हमें सच्चरित्र से दूर ले जाता है। यही कारण है कि बड़े-बुजुर्ग हमेशा अच्छी संगति करने को कहते हैं।
जीवन और मरण हमारे वश में नहीं है। मृत्यु अटल सत्य है। किंतु जीवन भर जो पाखंड करता है। जीवन भर मोह से बंधा रहता है। पाप में लीन रहता है। दुश्मन बनाता है। चुगली करता है। घमण्ड करता है। दुर्जनों का साथ करता है। ऐसा व्यक्ति कभी सुखी नहीं रह सकता। वह ज़ल्दी ही मृत्यु को प्राप्त होता है। यदि जीवन लंबा है, तो सम्मान नहीं है। संगति अच्छे लोगों की नहीं है। समाज में प्रतिष्ठा नहीं है। ऐसा व्यक्ति मरे के समान ही तो है। कुसंगति अपने साथ कई तरह की बुराईयाँ लाती है। बुराईयों से घिरा व्यक्ति समाज में आदर नहीं पाता। यही कारण है कि उसका जीवन लंबा नहीं होता। लंबे जीवन का अभिप्राय उम्र से नहीं लगाया जाना चाहिए।
कुख्यात अपराधी जीवन भर पकड़े जाने के भय से इधर-उधर छिपता है। पकड़े जाने के भय से वह आम जीवन भी नहीं जी पाता। पकड़े जाने पर सज़ा भुगतता है। भागने पर मुठभेड़ का शिकार हो जाता है। ऐसे दुर्गुणी के जीवन की रक्षा कैसे हो सकती है। दुर्गुण की कोई सहायता नहीं करता। ऐसा भी नहीं है कि दुर्गुणी गुणों को नहीं अपना सकता। अंगुलीमाल हो या डाकू फूलन देवी। कई चरित्र हैं जो बाद बद से सद् हुए हैं। पर उनका बद उनके साथ हमेशा चलता है। हमारा बद् हमारा पीछा नहीं छोड़ता। दाग़ लग जाने पर दाग भले ही छूट जाए। पर दाग़ का क़िस्सा मरते दम तक नहीं छूटता।
दुश्चरित्र का कोई मित्र नहीं होता। तब भला ऐसे व्यक्ति के जीवन की क्या सुरक्षा और क्या रक्षा? पुराणों, उपनिषदों और धार्मिक ग्रंथों में भी कहा गया है कि सज्जनों का ही जीवन दीघार्यु होता है। सज्जन बनना कठिन है। दुर्जन बनना आसान। किसी चीज़ को तोड़ना आसान है, मगर किसी चीज़ को जोड़ना कठिन है।
कबीरदास, तुलसीदास, विदुर और चाणक्य ने भी चरित्र की विस्तार से व्याख्या की है। चरित्र कोई वस्त्र नहीं है, जिसे ओढ़ा और जीवन सुरक्षित हो गया। अच्छे आचरण के लिए अभ्यास की आवश्यकता पड़ती है।
चरित्रवान हमेशा अहंकार से दूर रहता है। वह अपनी उपलब्धियों पर इतराता नहीं। वह जीवन की नींद में नहीं बिताता। चरित्रवान मेहनती होता है। वह हमेशा सतर्क रहता है, सावधान रहता है। दुष्टों के साथ से दूर रहता है। बु़द्धिमानों का साथ करता है। ऐसे चरित्रवान व्यक्ति के पास धन-सम्पदा और यश ख़ुद चलकर आते हैं।
छात्र जीवन में ही चरित्रवान बनने की दिशा मिल सकती है। यदि छात्र सुख-सुविधा में पड़ गया। उसका अपने गुस्से में नियंत्रण नहीं है। वह लोभी हो जाता है। स्वाद और चटोरापन उसकी आदत बन जाती है। तो वह कभी चरित्रवान नहीं हो सकता। वह जब इन आदतों का आदी हो जाता है तो आम जीवन में यह सब चीज़ें हासिल नहीं की जा सकती। फिर क्या होगा? इन्हें हासिल करने के लिए वो दूसरे रास्तों पर चलेगा। यहीं से चरित्र की संभाल की पकड़ ढीली हो जाती है। जो छात्र श्रृंगार यानि सजने-धजने में अपना समय बिताता है, वह सद्गुणों को कभी हासिल नहीं कर सकता। जो छात्र आस-पड़ोस की चमक-दमक और चका-चौंध के बारे में ही सोचता रहता है, वह मेधावी हो नहीं सकता। अधिक समय सोने में और आलस करने वाला छात्र भी चरित्रवान नहीं हो सकता। जो चरित्रवान नहीं है, वह कितना ही बलशाली हो, कितना ही धनवान हो वह आदर का पात्र नहीं होता।
अच्छे चरित्र वाले के लिए अच्छी शिक्षा पाना मुश्किल नहीं है। अच्छी शिक्षा पा चुका छात्र कहीं भी जा सकता है। अच्छे आचरण के कारण अजनबी भी उसके मित्र-बंधु बन जाते है। वह सारी दुनिया में वह यश पाता है। कहीं भी जाकर रोज़गार पा सकता है। तब उसे जीवन की रक्षा का भय भी नहीं होता है। यही कारण है कि जीवन को बचाए और बनाए रखने के लिए चरित्रवान होना पहली शर्त है।
हम भूल जाते हैं कि सुजीवन की कुंजी है चरित्र। हम जान कर भी अंजान बन जाते हैं और ऐसा आचरण या कृत्य कर बैठते हैं, जिसके लिए हमारा चित्त हमें रोकता भी है और टोकता भी है। मगर कुछ ऐसा होता है कि हम बुराई की ओर न चाह कर भी बढ़ ही जाते हैं और अपना चरित्र खो बैठते हैं। बस फिर क्या चरित्र की रक्षा की कुंजी हमसे खो जाती है। या यूं कहें कि फिर कोई भी हमारे आचरण रूपी ताले को अपनी कुंजी से खोल लेता है। तब क्या रक्षा और सुरक्षा।
चरित्रवान के लिए कोई री-प्ले नहीं है। कोई री-टेक नहीं है। कोई क्षमा नहीं है। ख़ुद भी अंतर्मन बार-बार धिक्कारता है कि तुमने चरित्र खो दिया। सो हर दिन नहीं, हर पल चरित्र को शीर्ष पर बनाये रखने का यत्न प्राथमिकता में होना ही चाहिए।

11 अक्तू॰ 2010

फिर एक सुहानी याद आई- मनोहर चमोली ‘मनु’

बात उन दिनों की है, जब आपसे मेरी बात चल रही थी। सगाई की तिथि तय होने वाली थी। परिचित कहते,‘भई वहाँ बात-वात भी होती है कि नहीं।’ तुम्हारे पास मोबाइल नहीं था। न ही तुम्हारे घर में फ़ोन था। मैं सभी से एक ही बात कहता, ‘‘वहाँ मोबाइल नहीं है। मेरे पास है। जब वहीं से फ़ोन नहीं आता तो मैं क्या करूँ।’’ मुझसे ऐसा उत्तर सुनकर कमोबेश सभी यही कहते, ‘‘इतना अंहकार ठीक नहीं। आस-पड़ोस में तो होगा। बुलाकर बात कर लिया करो।’’

मैं सोचता। पर सोचता ही रह जाता। फिर मेरा मन मुझे यह कहकर समझा लेता कि पहल तो तुम्हें करनी चाहिए। तुम कहीं से भी मुझे मेरे नंबर पर कॉल कर सकती हो। जब तुम ही एक कॉल नहीं कर रही हो, तो मैं पहल क्यों करूँ। करूँ भी तो कहाँ करूँ।

मेरी एक परिचित शिक्षिका बार-बार कहती,‘‘सुनो मनु। लड़कियाँ ख़ुद पहल नहीं करती। कुछ भी हो। तुम्हें आस-पड़ोस में ही सही फ़ोन करना चाहिए। शादी से पहले हुई बातों-मुलाक़ातों का अपना महत्व है। तुम बहुत कुछ ऐसा है, जिसे खो रहे हो।’’

मैं उनकी बात से सहमत तो था। पर मैं एक ही बात पर उलझ कर रह जाता। वह बात थी कि तुम एक फ़ोन पहले नहीं कर सकती। जबकि मैं कागज़ पर अपना मोबाइल नंबर लिखकर तुम्हें दे चुका था। कभी-कभी तो मुझे तुम पर बहुत गुस्सा आता। पर मेरी हालत यह थी कि मैं किसी से हम दोनों के मसले पर बात नहीं करना चाहता था। अब कई बार मैं मन ही मन सोचने लगा था कि कैसी लड़की से जीवन की डोर बंध रही है। मैं होता और मेरे पास तुम्हारा नंबर होता तो मैं आए दिन तुम्हें फ़ोन करता। एक तुम हो कि अभी तक एक कॉल तक नहीं की। इस तरह कई दिन नहीं कई सप्ताह यूं ही निकल गए।

तभी एक दिन अचानक आपका फ़ोन आया। एक अजनबी लड़की की कभी न सुनी हुई अजीब सी आवाज़ मेरे कानों पर पहुँची। मुझे लग तो गया था कि तुम ही हो। पर मैं फिर भी ‘हैलो-हैलो’ करता रहा। आपने कहा,‘‘मैं बोल रही हूँ।’’

मैंने जानबूझकर पूछा-‘‘मैं कौन?’’ तुम उधर से चुप ही रही। फिर कुछ देर दोनों चुप ही रहे। फिर मुझे पता नहीं क्या हुआ। मैंने फ़ोन रख दिया था। मगर वह दिन, फिर वह शाम ही नहीं रात भी यूंही गुजर गई। मैं सो ही नहीं पाया। खुद को कोसता रहा। मुझे अपने व्यवहार से ही ऐसी उम्मीद न थी। पर अब हो भी क्या सकता था।

फिर कई दिन यूं ही गुज़र गए। फिर एक दिन आपका फ़ोन आया। अब आपने बताया कि घर पर बेस फ़ोन लग गया है। आपने नंबर भी दिया। मैंने तुम्हें मोबाइल ख़रीद कर देने की बात कही तो आपने कहा,‘ नहीं। घर पर फ़ोन लग तो गया है। जब मुझे बात करनी होगी तो मैं आपसे ख़ुद कर ही लिया करूँगी।’’

फिर क्या था। तुम उधर से मिस कॉल करती। फिर मैं इधर से बात करता। फिर तो बातों का सिलसिला चल पड़ा। उस समय कॉल दर और पल्स दर आज की तरह इतनी सस्ती नहीं थी। तुमने कहा भी था कि बाद में हिसाब हो जाएगा। पता नहीं वो दिन कब आएगा। खैर. . . आज आलम यह है कि अगर बात न हो तो ऐसा लगता है कि वक़्त ठहर गया है। कुछ खो गया है। कितनी भी व्यस्त दिनचर्या हो, बीच-बीच में मन और मस्तिष्क लौट-लौट कर तुम्हारी और जा पहुँचता है।

ऐसे कई अवसर आए जब हम मिल सकते थे। मेरे सभी मुलाक़ात करने के प्रस्ताव तुमने ख़ारिज़ कर दिये। मुझे लगता था कि तुम सोती बहुत हो। ज़रूरत से ज़्यादा व्रत रखती हो। टी.वी. बहुत देखती हो। इधर-उधर गप्पें ख़ूब लड़ाती हो। अक्सर तुम्हें जुकाम और खाँसी की शिकायत रहती है। तुम आइसक्रीम भी ख़ूब खाती होंगी। ऐसा आपसे हुई बातों से मुझे लगा है। जब इस संबंध में बात करना चाहता हूँ तो आप टाल जाती हो। जब ज़िद कर अधिकार से पूछता हूँ तो खिलखिलाकर हँसने लग जाती हो।

आप अक्सर एक ही बात कहती थी,‘‘बस। कुछ समय और इंतज़ार कर लो। मैं तुम्हारी सब ग़लतफ़हमियाँ दूर कर दूँगी।’’ पता नहीं क्यों। मुझे अनजाना-सा डर लगा रहता कि जैसा मैं तुम्हारे बारे में सोचता हूँ, अगर तुम वैसी ही हो, तो मेरा क्या होगा। फिर हमारा विवाह हुआ। आज विवाह को हुए तीन साल हो गए। वाकई तुम्हारी बात ठीक निकली। मेरी सारी ग़लतफ़हमियाँ दूर हो गईं। आज में गर्व के साथ कह सकता हूँ कि तुम मेरी जीवनसंगिनी ही नहीं हो, मेरी मार्गदर्शक भी हो। ये ओर बात है कि शादी के बाद भी हम साथ-साथ नहीं हैं। एक-दूसरे से दूर हैं। मगर इस जीवन का भी अपना आनंद है। अब जब कभी मुझे शादी से पहले के दिन याद आते हैं, तो मैं अनायास ही मुस्करा जाता हूँ। वो दिन भी क्या दिन थे। यह हम-तुम ही जानते हैं। या फिर वो जानते होंगे, जिन्होंने हमारी-सी परिस्थितियों में प्रेम किया हो और फिर विवाह किया हो। खैर.....इस आपा-धापी के युग में कुछ रहे न रहे, मगर बातें और यादें ही रह जाती हैं।

- मनोहर चमोली ‘मनु’

जाना जीवन का रहस्य- मनोहर चमोली ‘मनु’

एक पहलवान था। कुश्ती में उसका कोई सानी नहीं था। जैसे ही उसे पता चलता कि कोई और व्यक्ति भी पहलवानी करता है, तो वह सीधे उस पहलवान के घर जा धमकता। उसे ललकारता और कुश्ती के लिए चुनौती देता। उसे कुश्ती में हरा कर ही दम लेता। पहलवान को दूसरों को हराने में बड़ा आनंद आता। दूसरे को पछाड़ कर वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाता। पहलवान कहता-‘‘मेरे जैसा पहलवान कोई नहीं है। यदि कोई है तो आए मेरे सामने।’’

यही कारण था कि अब कोई भी पहलवान उससे कुश्ती लड़ने के लिए तैयार नहीं होता। पहलवान अकेले ही अभ्यास में जुटा रहता। वह दूसरों को कुश्ती लड़ने के लिए ललकारता रहता। मगर कोई उससे कुश्ती तो क्या बात करना भी पसंद नहीं करता।

दिन गुज़रते गए। पहलवान का अकेले में दम घुटने लगा। वह परेशान रहने लगा। पहलवान जहाँ भी जाता, लोग उठ कर चले जाते। एक दिन की बात है। गांव के दूसरे छोर पर एक संत आए। वह कुटिया बनाकर वहीं रहने लगे। लोग दूर-दूर से संत के पास आने लगे। अपनी शंकाओं को मिटाने लगे। पहलवान भी संत के पास पहुँचा। पहलवान बोला-‘‘स्वामी जी। मैं मशहूर पहलवान हूँ। कोई भी पहलवान मुझे हरा नहीं पाया है। मेरे पास धन, मान-सम्मान और वैभव है। लेकिन मन है कि शांत नहीं है। मन बार-बार बैचेन हो उठता है।’’

संत मुस्कराए। बोले-‘‘मैंने भी तुम्हारा नाम सुना है। चलो आज तुमसे मुलाक़ात भी हो गई है। पहलवानी एक कला है। पहलवानी को तुमने अभ्यास और साधना से हासिल किया है।’’

पहलवान बीच में ही बोल पड़ा-‘‘स्वामी। मैंने कड़ी मेहनत की है। चारों दिशाओं में मेरे जैसा कोई पहलवान है ही नहीं।’’

संत फिर मुस्कराए। बोले-‘‘अहंकार तो रावण का भी नहीं रहा। अहंकार ने रावण की शक्ति को भी छीन लिया था। ज़रा सोचो। तुम जिसे भी पराजित करते हो, क्या उसके हृदय को चोट नहीं पहुँचती होगी? तुम कभी हारे नहीं हो न। हमेशा जीत का स्वाद ही चखा है। तुम्हारी हर जीत ने तुम्हारे अहंकार को और बढ़ाया है। पहलवान। जीवन की सपफलता हमेशा विजय पाने से नहीं होती। कल तुम्हारा शरीर जर्जर हो जाएगा। मजबूत बाहें कांपने लगेंगी। तब तुम्हारा अहंकार चूर-चूर हो जाएगा। अब भी वक़्त है। अपने अशांत मन को शांत करो। अब तुम्हारा अर्जित धन, मान-सम्मान और वैभव यहीं रह जाएगा। अच्छा होगा कि ग़रीबों, वंचितों और असहायों की सेवा करो। तब देखना। तुम एक अच्छे पहलवान के साथ-साथ एक सच्चे साधक के रूप में भी जाने जाओगे। लोग तुम्हारा यशगान करेंगे।’’

पहलवान ने अपना सिर झुका लिया। उसने संत को दण्डवत प्रणाम किया। पहलवाल बोला-‘‘आपने मुझे नया रास्ता दिखाया है। मैं जीवन का रहस्य अब समझ पाया हूं। आपने मेरी आँखें खोल दी।’’ यह कहकर पहलवान अपने गाँव की ओर चल पड़ा। अब उसकी चाल में अहंकार गायब था.
- मनोहर चमोली ‘मनु’
(उत्तराखंड की लोक कथा पर आधरित)

'बटन खुला आहे......' मनोहर चमोली ‘मनु'

या ज़माना है। इक्कीसवीं सदी का ज़माना है। वो दिन लद गए जब हर वस्त्रों पर बटन थे। आज तो जिसे देखो, वही बटन खुले रख कर छुट्टा घूम रहा है। अव्वल अब न तो कुर्ते में बटन रह गए हैं, न ही बटन वाली पेन्ट पहनने का समय बचा है। वे स्वेटर भी चली गई हैं, जिन पर कभी बटन दिखाई पड़ते थे।

कुर्ताधरी भी बटन की जगह चैन का प्रयोग कर रहे हैं। वो चैन भी खुली सी लटकती रहती है। एक ज़माना था, जब बटन खुलापन को बंद करने के संकेत थे। अगर कमीज़ के कॉलरों से नीचे का दूसरे नंबर का बटन खुला पाया गया तो क्या शिक्षक और क्या आमजन, सभी टोक दिया करते थे। इशारा से ही समझ लिया जाता था कि बटन खुला हुआ है। जिसका बटन खुला होता था, वो भी अहसास होते ही झट से बटन बंद कर लिया करता था। उस पर तो घड़ों पानी पड़ जाता था।

आज तो खुलापन आ गया है। समाज में भी और काम-काज में भी। आचार-व्यवहार में भी और लाज में भी। आज तो कपड़े ही कम पहनने का रिवाज़ है। क्या लड़की और क्या लड़का। बटन खोलते समय दिक्कत होती होगी न!

हम आधुनिक समाज के बंदे हैं। हमें हर चीज़ में सरलता चाहिए। चैन झट से खुल जाती है। खिसक जाती है। कोई आरोप भी नहीं लगा सकता। कह सकते हैं कि चैन थी। खुल गई। इस खुलेपन से क्या-क्या खुल गया। इस पर न हमारी नज़र है। न हमें परवाह है। जिसकी नज़र है तो लो कर लो बात। बुरी नज़र वाले तेरा मुँह काला। अगर कुछ खुल भी जाता है तो क्या। नज़र ही तो है। सकारात्मक हो, तो खुलना खलेगा ही नहीं। खोलना तो दूर की बात है।

बड़े-बूढ़ों को कहते सुना था कि ‘बटन तहज़ीब और तमीज़ का पर्याय होते हैं।’ बटन थे कि एक बार लगा लो, और निश्चिंत हो जाओ। अब तो चैन है, कि कब खिसक गई या कब खुल गई। पता चलता है क्या? फिर आगे सुना कि ‘अरे चैन भी तो पुरानी हो गई। देख नहीं रहे। अब तो ऐसे कपड़े पहनो, जिसमें चैन का भी झंझट नहीं रहा। अब क्या पारंपरिक वस्त्र, क्या बाहर के वस्त्र और क्या भीतर के वस्त्र। कोई अंतर है क्या? नहीं रहा न! दिख नहीं रहा क्या? देख नहीं रहे क्या?

अब तो सिले-सिलाये व खुले-खुलाए का चलन है। दर्जी भी चैन ख]राब हो जाने पर दूसरी चैन लगाना नहीं चाहता।

वैसे तो ‘बटन’ अँगरेज़ी शब्द है। जिसका अर्थ संभवतः गोलाकार चीज़ से है, जिसे किसी छेद के अंदर से टाँगा जाता है। अपने इस देश की बात करें तो हमारे इस देश में सिले-सिलाए कपड़े पहने ही नहीं जाते थे। धोती जैसे परिधान थे। पता नहीं ये पेन्ट और शर्ट कब और कहाँ से आ गये। सुनते हैं कि अब तो दुनिया एक गाँव है। अब देशी-विदेशी कहना भी पाप है। अति आधुनिक तो बटन को कष्टदायक बताते हैं। एक राजनीतिक विश्लेषक से जब बात की तो वो झल्लाते हुए कहने लगे-‘‘जहाँ बटन आया, उसने तो सोचने-समझने की शक्ति ही क्षीण कर दी। अब देखो न। अत्याधुनिक वोटिंग मशीन में बटन आ गया न। पत्रा क्या गए अब मतपत्र भी गए। कहाँ रह गए मतपत्रा? बटन दबाओ और गई तुम्हारे मत की मतशक्ति। बटन दबाते समय मतदाता एक क्षण के लिए भी नहीं सोचता। बटन दबाते ही मतदाता की महत्ता ख़त्म। क्यों?’’

इस पर आपकी क्या राय है? बटन-काज का संबंध भी देखते बनता है। बटन का महत्व तभी है, जब काज है। काज नहीं तो बटन बंद कहाँ से होगा। काज बंद करता था, बंद होता नहीं था। आज तो चैन बंद करती है। भले ही बंद के पीछे खुलापन का नंगा नाच होता है। फिर हमाम में हम सब नंगे ही तो हैं। आज बाप क्या और माँ क्या। जवान बेटी क्या और किशोरी क्या। बाज़ार साथ-साथ चलते हैं। न बाप को कुछ दिखाई देता है न माँ को। वहीं बेटी और किशोरी धड़ल्ले से ध्ड़ंग चली जा रही है। माँ-बाप को जानने वाली दर्जनों आँखें भी बेटी और किशोरी को घूरे जा रही हैं। माँ-बाप या तो नज़रें नीची कर चल रहे हैं या इस खुलेपन में उन्होंने अपनी आँखें खोल कर जो रखनी है। भले ही इन आँखों की मस्ती में कुछ भी हो जाए।

समाज में चाहे जितना खुलापन आ जाए। बटन रहे न रहे। मगर काज सांकेतिक रूप से हमेशा रहेगा। काज यानी बटन को बांधे रखना। घर में, स्कूल में, कार्यालय में, खुले मैदान में आज भी कुछ ऐसा है, जो हमे जानवर नहीं होने देता। परिवार में, पड़ोस में, दोस्तों में, बिरादरी में, समाज में, देश में ही नहीं समूची धरती में कुछ ऐसा है जो बटन का ही पर्याय है, जो हमें बांधे रखता है। जिस दिन ये ‘ऐसा कुछ’ काज से बाहर हो गया, तो मनुष्य की मानवता और नैतिकता ही खिसकी समझो।

ये ओर बात है कि मानव रूप में कई लोग हैं, जिनका ये ‘ऐसा कुछ’ खिसक गया है। वे मानव रूप में पशु ही हैं। अब देखना यह है कि मानवता हम मनुष्यों को मानव बनाये रखती है या धीरे-धीरे पशुओं की ज़मात में शामिल तो नहीं कर रही? अरे! मैं तो भूल ही गया। ज़रा मैं ख़ुद को भी तो देखूँ। मैं किस परिधि में आता हूँ ! अरे ! आप क्यों मुस्करा रहे हैं? मेरे बहाने ही सही, आप भी तो टटोलिए न। बस ! खा गए न गच्चा। अरे! अपने कपड़े नहीं अपने अंतर्मन को टटोलिए अंतर्मन को। और हाँ, टटोलते समय यह ज़रूर गौर करना कि कोई देख तो नहीं रहा है। क्यों गौर करेंगे न?

-मनोहर चमोली ‘मनु'


बच्चे अब बच्चे नहीं रहे

दि आप बच्चों को ‘बच्चा’ और उन्हें नासमझ मानते हैं तो यक़ीनन आप ग़लती कर रहे हैं। इस दौर के बच्चे अब वे बच्चे नहीं रहे, जिन्हें लोरी सुनाकर और परियों की कथा सुनाकर चुप कराया जाए। अगर आप आज के बच्चों को छोटा बच्चा समझ कर समझाने का प्रयास करते हैं, तो आपको बाल मनोविज्ञान की शरण में जाना पड़ेगा। कम-से-कम उन्हें तो अपने कार्य-व्यवहार में बदलाव लाना ही होगा जो दस से तेरह साल के उन बच्चों को अभी तक नासमझ मानकर उनकी उपेक्षा करते हैं या फिर नज़रअंदाज़ करते हैं। विद्यालयों के बच्चों ने लिखित में अपनी भावनाएँ इस तरह प्रकट की हैं कि बड़े-से-बड़ा भी दाँतों तले अँगुली दबा ले। यह बच्चे उच्च प्राथमिक विद्यालय में पढ़ते हैं। इन बच्चों से दो ही सवाल पूछे गए। बच्चों को अपना नाम व विद्यालय न लिखने की छूट भी दी गई थी। परिणाम यह हुआ कि बच्चों ने अपनी समझ और भावनाएँ बिना किसी लाग-लपेट के कागज़ पर उतार दी। ‘मुझे शिकायत है...’ और ‘......कैसा हो स्कूल हमारा...’ सवालों के जवाब में खट्टे-मीठे जवाब आए हैं। मसलन बच्चों ने लिखा है कि उन्हें उन शिक्षकों से शिकायत है जो स्कूल में पीरीयड के दौरान भी मोबाइल कान में चिपकाए रखते हैं। उन शिक्षिकाओं से जो चाय बनवाती हैं और अपने टिफ़िन भी हमसे धुलवाती हैं। लकड़ी और पानी मँगाती हैं। घाम (धूप) तापती हैं और टॉफी, चॉकलेट खाकर रैपर हमसे उठवाती हैं। शिक्षक पान-बीड़ी-गुटखा न सिर्फ़ खाते हैं, बल्कि हमसे मँगवाते हैं।

बच्चों ने सिर्फ़ स्कूल और गुरुजनों पर ही तंज़ नहीं कसे हैं। कुछ बच्चों ने अपने दादा-दादी, बड़े भाई-बहिनों सहित माता-पिता की शिकायतें भी लिखी हैं। बच्चे अपने घर के बड़े-बुजुर्गों के व्यवहार से भी आहत दिखाई दिये। बच्चों को अपने माता-पिता का झूठ बोलना अच्छा नहीं लगता। उनके सपनों का स्कूल भी उनकी बातों में साफ झलकता है। बच्चों ने लिखा है कि उनके स्कूल में विशालकाय मैदान होना चाहिए। खेल का सामान होना चाहिए। पुस्तकालय होना चाहिए। कंप्यूटर होना चाहिए। शिक्षाप्रद फ़िल्में और सामाजिक फ़िल्में दिखाई जाने की व्यवस्था होनी चाहिए। साप्ताहिक सांस्कृतिक कार्यक्रम होने चाहिए। व्यायाम और योगा की कक्षाएँ होनी चाहिए। स्कूल में पर्याप्त कमरे होने चाहिए। पर्याप्त टॉयलेट की व्यवस्था होनी चाहिए।

पहले बच्चों की शिकायतों पर नज़र डालते हैं। बच्चों की अधिकांश शिकायतें अपने शिक्षकों से हैं। शिक्षकों में भी ज़्यादा उनका ध्यान शिक्षिकाओं पर ज़्यादा गया है। मसलन बच्चे लिखते हैं कि शिक्षक कक्षा में पढ़ाते समय, कॉपियां जाँच करते समय, अंक देते समय भेदभाव करते हैं। औसत और कमज़ोर बच्चों की शिकायतें हैं कि शिक्षक होशियार छात्रों की ओर ही ध्यान देते हैं। उन्हें कमज़ोर बच्चों से कोई लेना-देना नहीं होता। उन्हें हिक़ारत की दृष्टि से देखा जाता है। यही नहीं बच्चों का कहना है कि जब किसी कारण छात्रों की उपस्थिति कम होती है, तो शिक्षक पढ़ाते नहीं हैं। कठिन पाठ और कठिन सवालों का हल नहीं कराते। गृह कार्य दे देते हैं। बात-बात पर ताने देते हैं। बार-बार स्टूल पर खड़ा कर देते हैं। डाँटते-मारते-पीटते हैं। अपशब्दों का प्रयोग करते हैं। ‘तुम कुछ नहीं जानते। मूर्ख कहीं के। बेवकूफ़ आदि संज्ञाओं का प्रयोग करते हैं।‘

बच्चों को अपने आत्मसम्मान की भी परवाह है। उन्हें कक्षा में उनका मज़ाक़ उडाना, ताने देना पसंद नहीं। वे कहते हैं कि हमारी उपेक्षा ही नहीं कई शिक्षक हमें हतोत्साहित करते हैं। बच्चों ने प्रार्थना स्थल को भी संदेह के घेरे में ला खड़ा किया है। बच्चे लिखते हैं कि शिक्षक प्रार्थना स्थल पर देर से पहुँचते हैं। शिक्षक स्वयं जेब में हाथ डाल कर खड़े होते हैं। प्रार्थना सभा में आपस में बातें करते रहते हैं। कई शिक्षक-शिक्षिकाएँ तो प्रार्थना सभा में न आकर स्टाफ़ रूम में ही बैठे रहते हैं। कक्षा में न पढ़ाकर घर पर ट्यूशन पढ़ाते हैं। ब्लैक बोर्ड का प्रयोग नहीं करते। बोल-बोलकर ज़ल्दी-ज़ल्दी लिखाते हैं। प्रार्थना सभा में ही बच्चों को अपमानित किया जाता है। कुछ बच्चों की शरारत पर समूची कक्षा को दण्ड दिया जाता है। शिक्षक कक्षा में आगे की दो पंक्तियों में बैठे हुए बच्चों पर ही ध्यान देते हैं। पीछे तक बैठे हुए बच्चों पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है। आधा-अधूरा पाठ पढ़ाकर बाकी खुद पढ़कर आना कहकर अभ्यास की ओर बढ़ जाते हैं। सालाना परीक्षा तक भी पाठ्यक्रम पूरा नहीं करा पाते।

बच्चों ने शिक्षकों के खान-पान पर भी टिप्पणी की है। वे लिखते हैं कि कक्षा में ही शिक्षक कुछ न कुछ चबाते रहते हैं। टॉफी-चॉकलेट आदि के रैपर बच्चों से उठवाते हैं। झूठे टिफ़िन धुलवाते हैं। पानी मंगवाते हैं। शिक्षिकाएँ अधिकांशतः घर-परिवार-फ़ैशन की बातें करती हैं। करोशिया-स्वेटर बुनती हैं। पकवानों-व्यंजनों की बातें करती हैं। कुछ बच्चों ने शिक्षकों के पहनावे पर भी टिप्पणी की है। बच्चों को शिक्षकों का जींस-टी शर्ट और काला चश्मा पहनकर स्कूल आना अच्छा नहीं लगता है। बच्चों को उनके उपर शिक्षकों का चॉक फेंकना भी अच्छा नहीं लगता है। बच्चों को कुछ शिक्षक घमंडी लगते हैं। बच्चों को शिक्षकों के आपसी व्यवहार का भी पता है। वे नहीं चाहते कि स्कूल में शिक्षकों में आपस में तनातनी हो। बच्चे नहीं चाहते कि शिक्षक च्विंगम,पान-बीड़ी-तम्बाकू और मदिरा का सेवन करे। बच्चे चाहते हैं कि उनके शिक्षक उन्हें प्यार करें। उनके कॅरियर के बारे में सोचें। उन्हें दिशा दें। बच्चों की बातों को नज़रअंदाज़ न करें। अकारण सज़ा न दे।

-मनोहर चमोली 'मनु'

10 अक्तू॰ 2010

दो शिशु गीत...' तितली रानी' और 'क्यों क्यों'

दो शिशु गीत.

तितली रानी

तितली रानी तितली रानी
पँख फैलाकर कहाँ चली
सुनकर तितली मुझसे बोली
मुरझा गई है कली-कली
मैं फूलों के सँग पली
दूर देश अब जाना है
मुझको यहाँ नहीं रहना है
फिर बोला मैं तितली से
तुमको हम नहीं छेड़ेंगे
फूल नहीं अब तोड़ेंगे।


क्यों क्यों

धरती में सागर लहराता
बार बार सूरज क्यों आता
बादल वर्षा क्यों बरसाता
पूछे हम तो बार बार
कोई न हमको बतलाता।

-मनोहर चमोली 'मनु'
[११-१०-2010]

5 अक्तू॰ 2010

-दो शिशु गीत, -'सूरज'---'टर्र टर्र क्यों'

सूरज


बहुत दूर से सूरज आया
और उजाला साथ में लाया
फिर धरती ने ली अंगड़ाई
और हवा भी मुस्काई
अगर न होता सूरज साथ
दिन में भी हो जाती रात।




टर्र टर्र क्यों

मेढक जी ओ मेढक जी
कहाँ-कहाँ रहते हो जी
टप टप टप टप बारिश में
टर्र टर्र क्यों करते हो जी
घर तुम्हारा पानी में
किस तरह सोते हो जी।

-मनोहर चमोली 'मनु'

5-10-2010

2 अक्तू॰ 2010

bal kvita - mama ji

बड़े दिनों में आए हो,
मामा जी क्या लाए हो?
गुड्डे-गुड़िया नहीं चाहिए,
पॉम-टॉप क्या लाए हो?
बछिया सुंदर दिखती होगी,
कामधेनू सी लगती होगी.
यहाँ तो शोर-शराबा है,
चमक-दमक छलावा है.
नानी कैसी है बतलाओ?
बातों में मत उलझाओ.
अबकी हम न एक सुनेंगे,
गाँव आपके संग चलेंगे.
घुड़सवारी ख़ूब करेंगे,
दूध-दही-छाँछ पियेंगे।।

-manohar chamoli 'manu'
[03-10-2010]

.कविता---तुम और मैं..

दिखाई देता होगा तुम्हें
नदियों में उफान
पेड़ों में पतझड़
बारिश में काँपते पहाड़
भीषण गर्मी में झुलसाती हवा
मुझे तो नदियाँ सुनाती हैं संगीत
याद आ जाती हैं माँ की लोरियाँ
पेड़ में दिखती हैं हरी-हरी कोंपलें
जैसे नन्हें शिशुओं के अभी उगे हों दाँत
झूमते हुए लगते हैं पहाड़ मुझे
नहाते हुए बच्चों की तरह
हवा का स्पर्श देता है ताज़गी
सुला रही हो जैसे माँ
थपकी देकर।

-manohar chamoli 'manu'
[2-10-2010]

kavita------लिखना-

लिखना
ताकि जान सको
तुम्हारे भीतर क्या है
लिखना
ताकि मान सको
तुमने जो सोचा वो कहा
लिखना
ताकि ठान लो
जो कहा, वो किया
लिखना
ताकि लोग तुम्हें जाने और माने
किताब में है समाई दुनिया।

-manohar chamoli 'manu'
[२-10-2010]

टक-बक टक बक --- -बाल कविता


टेकम टेक घोड़ा जी
सुस्ता लो थोड़ा जी
हरी घास खाना जी
मेरा साथ निभाना जी
खूब चने चबाना जी
पीठ पर बिठाना जी।।

-manohar
chamoli 'manu'
[२-१०-२०१०]
माँ! फूटने दे मुझमें अंकुर
उगने दे धरती पर
खोलने दे मुझे आँखें
देखने दे उनसे सपने
माँ। सीखूँगी ज़िंदगी की लय
बुदबुदाने दे इन होंठों को
लिखूँगी संघर्ष के गीत
मचलने दे इन हाथों को
माँ! पहुँचूँगी मंजिल तक मैं
बढ़ाने दे मुझे क़दम
आँधी, लू, बाढ़ का करूँगी सामना
दे दे सहारा मुझे थोड़ा-सा
माँ ! फिर देखना
मैं बना लूँगी अपनी राह
करूँगी साकार तुम्हारी आँखों के सपने
दूँगी छाँव घने पेड़ की तरह माँ
हाँ माँ! फूटने दे मुझमें अंकुर।
-manohar chamoli 'मनु'
[2-10-2010]

मौज़ूद रहेंगे--kvita.

उदास होंगे महीने
साल हो जाएँगे वीरान
फट पड़ेगी धरती
बादल टूट के बरसेगा
प्रेम फिर भी प्रेम रहेगा
गर्दिश में रहे ग़रीबी
तंगहाल मानवता
रो पड़ेगी ममता
थर्राएगी ये हवा
प्रेम फिर भी प्रेम रहेगा
चाहे जो भी हो
बदलाव नियम भी हो
प्रेम, माँ और उम्मीद
हर दम यहाँ मौज़ूद रहेंगे
चाहे मौत सबको हर ले
फिर भी ये रहेंगे।
[२-१०-2010]
-manohar chamoli 'manu'