26 जन॰ 2021

‘बाल-साहित्य’ के माध्यम से समाज की ओर यात्रा… भाग दो :- ‘मनोहर चमोली’ से ‘मनोहर चमोली’ तक

‘बाल-साहित्य’ के माध्यम से समाज की ओर यात्रा…

भाग दो :-

‘मनोहर चमोली’ से ‘मनोहर चमोली’ तक


 

मनोहर चमोली ‘मनु’…! एक बाल-साहित्यकार…! उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल में पौड़ी जिले के अंतर्गत स्थित राजकीय उच्च विद्यालय, केवर्स के एक समर्पित अध्यापक | कई लोगों, या यूँ कहा जाय, कि अपने विरोधियों एवं इस साहित्यकार-अध्यापक को नापसंद करनेवालों की दृष्टि में एक बहिर्मुखी-व्यक्तित्व, एक अहंकारी, मुँहफट, ज़िद्दी, आत्म-मुग्ध, आत्म-प्रवंचना के शिकार, अपने विचारों के प्रति अति-आग्रही… और भी न जाने क्या-क्या…? लेकिन जो व्यक्ति, जिन्हें प्रायः ‘समाजवादी’ और ‘जनवादी’ जैसी ‘दक्षिणपंथी गालियों’ (जो कि अक्सर दक्षिणपंथी-मानसिकता वाले लोग ही दिया करते हैं, इन शब्दों को इसी कारण मैं ‘दक्षिणपंथी गालियाँ’ कहना पसंद करुँगी— प्रतिष्ठित एवं सम्मानित तथा जनता के हक़ की वक़ालत करनेवाले शब्दों को एक ‘गाली’ की तरह प्रयोग करने की मानसिकता | जोकि ऐसे लोगों की ‘ब्राह्मणवादी’ या ‘वर्चस्ववादी’ प्रवृत्ति को ख़ूब अच्छी तरह प्रतिबिंबित करता है) से विभूषित किया जाता है, जो समाज में सभी की समानता एवं अधिकारों की वक़ालत करते हैं, सभी के लिए समान अवसरों की बात करते हैं, सभी के प्रति मानवीय-संवेदनाएँ रखते हैं, इस दिशा में प्रयास करते हैं…! लेकिन बहुत से अपने जैसों की दृष्टि में यह साहित्यकार-अध्यापक एक दृढ़-प्रतिज्ञ, समाजवादी सोच, मानवीय-संवेदनाओं से संपृक्त, सुचिंतित एवं सुविचारित विचारों एवं चिंतना से युक्त एक ठोस व्यक्तित्व का धनी व्यक्ति है …


(समूचा लेख यहाँ पढ़ा जा सकता है -
https://batkahi.net/kathetar/%e0%a4%ae%e0%a4%a8%e0%a5%8b%e0%a4%b9%e0%a4%b0-%e0%a4%9a%e0%a4%ae%e0%a5%8b%e0%a4%b2%e0%a5%80-%e0%a4%ae%e0%a4%a8%e0%a5%81-2/

‘बाल-साहित्य’ के माध्यम से समाज की ओर यात्रा… भाग-एक :- ‘मनोहर चमोली’ होने का अर्थ…

‘बाल-साहित्य’ के माध्यम से समाज की ओर यात्रा…

भाग-एक :-

‘मनोहर चमोली’ होने का अर्थ…

सफ़दर हाशमी ने कभी बच्चों को सपनों और कल्पनाओं की दुनिया में ले


जाने की कोशिश में उन्हें संबोधित करते हुए लिखा था—

“किताबें कुछ कहना चाहती हैं।
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं॥

किताबों में चिड़िया चहचहाती हैं
किताबों में खेतियाँ लहलहाती हैं
किताबों में झरने गुनगुनाते हैं
परियों के किस्से सुनाते हैं

किताबों में राकेट का राज़ है
किताबों में साइंस की आवाज़ है
किताबों में कितना बड़ा संसार है
किताबों में ज्ञान की भरमार है
क्या तुम इस संसार में
नहीं जाना चाहोगे?”        (सफ़दर हाशमी)

ऐसा लगता है, जैसे मनोहर चमोली भी बच्चों से कुछ ऐसा ही कहने की कोशिश पिछले कई सालों से कर रहे हैं, अपनी बाल-रचनाओं के द्वारा | जैसे वे बच्चों का हाथ पकड़कर उन्हें किताबों की दुनिया में ले जाना चाहते हों, अपनी कहानियों एवं कविताओं द्वारा…जैसे वे उन्हें सपनों, उम्मीदों, आशाओं के मोहक संसार में ले जाने की कोशिश कर रहे हैं, अपनी कहानियों-कविताओं के पात्रों के माध्यम से… जैसे वे बच्चों के मन में साहस, उत्साह, प्रयत्नशीलता, रचनात्मकता भर देना चाहते हैं, अपनी कहानियों-कविताओं के पात्रों के चरित्र एवं व्यक्तित्व के माध्यम से… 

मनोहर चमोली…! एक ऐसा अध्यापक, जो अपने तयशुदा कार्य —विद्यालय में पढ़ाना और शिक्षा-विभाग का हुक्म बजाना— के अलावा साहित्य की दुनिया में आकर एक अतिरिक्त कार्य, एक अतिरिक्त ज़िम्मेदारी उठाए चल रहा है | वह ज़िम्मेदारी, जिसके लिए यह अध्यापक किसी भी रूप में बाध्य नहीं है, वह ज़िम्मेदारी, जिसके लिए बाध्य न होते हुए भी प्रतिबद्ध है, क्योंकि वह शिक्षक बच्चों के बेहतर भविष्य से स्वयं को सम्बद्ध पाता है, आबद्ध रखना चाहता है…! इसी कारण बच्चों के लिए साहित्य की रचना करना अपना कर्तव्य समझता है, ताकि वह अपनी ज़िम्मेदारी को जवाबदेही के साथ अंजाम दे सके… इसके लिए उस व्यक्ति ने बच्चों के साथ काम करने का जो अतिरिक्त तरीका चुना है, वह है ‘बाल-साहित्य’ का सृजन ! ( पूरा आलेख पढ़ने के लिए आप इस लिंक का प्रयोग कीजिएगा -https://batkahi.net/kathetar/%e0%a4%ae%e0%a4%a8%e0%a5%8b%e0%a4%b9%e0%a4%b0-%e0%a4%9a%e0%a4%ae%e0%a5%8b%e0%a4%b2%e0%a5%80-%e0%a4%ae%e0%a4%a8%e0%a5%81/


17 जन॰ 2021

मन करता है सूरज बनकर.....

कविताओं में बालमन की दुनिया शामिल करना आसान नहीं है

-मनोहर चमोली ‘मनु’
मन करता है सूरज बनकर
आसमान में दौड़ लगाऊँ
मन करता है चंदा बनकर
सब तारो पर अकड़ दिखाऊँ
मन करता है बाबा बनकर
घर में सब पर धौंस जमाऊँ
मन करता है पापा बनकर
मैं भी अपनी मूँछ बढ़ाऊँ
मन करता है तितली बनकर
दूर-दूर उड़ता जाऊँ
मन करता है कोयल बनकर
मीठे-मीठे बोल सुनाऊँ
मन करता है चिडि़या बनकर
चीं-चीं चूँ-चूँ शोर मचाऊँ
मन करता है चर्खी लेकर
पीली-लाल पतंग उड़ाऊँ।


जी हाँ मैं इस बेमिसाल,बेजोड़ कविता ‘मन करता है’ के रचनाकार सुरेंद्र विक्रम का आज उल्लेख कर रहा हूँ। उन पर बात करने से पहले इस लोकप्रिय कविता को एक बार फिर से पढ़ने का मन करता है। हालांकि इस कविता पर हज़ार-हज़ार बार बात हो चुकी है। लेकिन इस कविता से पहले मुझे सुरेंद्र विक्रम की कोई कविता सूझी ही नहीं। हाँ ! इसके बाद तो कई कविताएँ हैं, जिन पर खू़ब बात की जा सकती है। साल दो हजार छःह से लाखों बच्चे इस कविता को कक्षा तीन में पढ़ रहे हैं। इन पिछले पन्द्रह सालों में एनसीईआरटी की किताबों ने देश भर के कई राज्यों में विस्तार पाया है। ज़ाहिर सी बात है कि यह कविता और भी विस्तारित हुई है। देश में हज़ारों स्कूल निजी हैं। निजी प्रकाशकों ने भी इस कविता को अपनी पाठ्यपुस्तकों में इसे शामिल किया है। यू-ट्यूब में तो इस कविता के सैकड़ों ऑडियो-वीडियो संकलित हैं। लाखों सब्सक्राइबरों के माध्यम से यह कविता घर-घर में बचपन का प्रतिनिधित्व करती है। बेशक! पता नहीं कैसे सुरेन्द्र विक्रम जी इस सोलह पँक्तियों में बच्चों की दुनिया का एक बड़ा हिस्सा शामिल कर गए।
ऐसी कमाल की कविता प्रायः लिखी ही कम जाती है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो कविता की कारीगरी में तथ्य,सत्य और कथ्य शामिल करना बेहद श्रमसाध्य कार्य है। जब वे कविता के माध्यम से कहते हैं-‘घर में सब पर धौंस जमाऊँ’......तो दुनिया का प्रत्येक बच्चा गर्व से फूला नहीं समाता। ऐसा कौन-सा बच्चा होगा जो प्यार-लाड़-दुलार के प्रभाव में आकर घर ही नहीं आस-पास भी धौंस न जमाता हो। ये जो धौंसपन है न! इसके सामने दुनिया की बेशकीमती दौलत पानी भरने लगती है। मुझे तो इस पँक्ति में फुटपाथ में खप रहा बचपन भी याद आता है। वे जो बचपन को करीब से देखते हैं, वे बेहतर जानते हैं कि धौंस किसी सम्पन्न परिवार में जन्में परिवार के बच्चों की जागीर नहीं है। यह तो दिल में बसती है। अब दिल न जात देखता है न धर्म। न सम्पन्नता और न ही विपन्नता। ‘मन करता है’ शीर्षक के अलावा आठ बार आया है। इस मन की सामर्थ्य किसी भी तरह की सत्ता को सीधे चुनौती नहीं देती? होंगे आप किसी पूंजीपति परिवार के वारिस! मैं हूँगा चाहे चालीस एकड़ ज़मीन का भूपति! बच्चों को इससे क्या! वे तो पल-पल में इस दुनिया को अपनी मुट्ठी में रखने की ताकत रखते हैं। बच्चों के मन की कल्पनाओं की उड़ान इतनी ऊँची हैं कि वे सारी दुनिया घूम आते हैं। मन ही मन में वे देश के प्रधानमंत्री बन जाते हैं तो दूसरे ही पल वे पायलट और तीसरे ही पल सात समन्दर तैर कर आ जाते हैं।

‘‘शब्दों के साथ भावपूर्ण इस कविता में बालमन पूरी तरह से यथार्थ के उस अभिनेता का प्रतिनिधित्व करती है जो बहुआयामी है। सही भी है। हर बच्चा मेधावी है। हर बच्चे में अपनी अलग खासियत है। ये तो हम और हमारी क्रूर दुनिया उसे समझ नहीं पाती। अनुकरण और अनुसरण का प्रभाव इतना तीव्र होता है कि बच्चे हमें देखकर छल-प्रपंच के हुनर सीखते हुए आगे बढ़ते हैं। काश! बच्चों के भीतर की मनुष्यता हम बड़ों में भी आ जाती।
‘मन करता है चंदा बनकर, सब तारों पर अकड़ दिखाऊँ’ ऐसी सकारात्मक अकड़ बच्चे ही दिखा सकते हैं। हमारी अकड़ में तो ठकुरसुहाती की बू आती है लेकिन बच्चों की अकड़ कौन नहीं जानता! डनकी अकड़ में भी खुद को आकार और उम्र के हिसाब से व्यवहार समझने का भाव साफ पकड़ में आता है। बच्चें की बाल सुलभ कल्पनाओं का इतना नायाब उदाहरण खोजने पर भी बहुत कम ही मिलता है। बच्चे चाँद को बड़ा समझते हैं और तारों को छोटा। बच्चे खुद को इस समाज में छोटा समझते हैं और हम बड़ों को बड़ा। समझते हैं या उन्हें बारम्बार अहसास कराया जाता है? तभी तो कविता के माध्यम से कवि सारे बच्चों की ओर से यह कहना चाहते हैं कि मैं भी जब चंदा-सा बड़ा हो जाऊँगा तो तारों जैसे छोटों पर अपनी अकड़ दिखाऊँगा। कितनी शानदार और जानदार बात है कि कवि ने बच्चे के लिए जो प्रतीक लिए हैं वे यथार्थ से नहीं उठाए। जीव-जन्तु या सजीवों से नहीं लिए हैं। सीधे वे तारों और चाँद को शामिल करते हैं।
बच्चों के लिए बड़ों के चेहरे पर दाढ़ी का उगना रहस्यमय बना रहता है। वे अक्सर पूछते हैं कि हमारी मूँछ क्यों नहीं है? हमारी दाढ़ी कब आएगी? महिलाओं के चेहरे पर दाढ़ी क्यों नहीं होती? दादा-दादी या नाना-नानी या बूढ़ों के बाल सफेद क्यों होते हैं? ऐसे तमाम सवाल बच्चों के पास होते हैं। कष्ट की बात यह भी है कि उनको सही जवाब नहीं मिलते। यही कारण है कि जब वे बड़े हो जाते हैं तब वे भी संभवतः बच्चों को जवाब नहीं देते। तभी तो पीढ़ीयों से ये सवाल बने हुए हैं। जवाब हों तो सवाल दूसरे हों। नए हों।
कविता में आया है-‘मन करता है पापा बनकर, मैं भी अपनी मूँछ बढ़ाऊँ’..... यह पँक्तियाँ भी बच्चों की दुनिया का प्रतिनिधित्व करती हैं। यह कविता मुझे बेहद पसंद है। पसंद आने के कई कारण है। कविता बहुत सारे सवालों को खड़ा करने की ताकत रखती है। इस कविता में भरपूर बातचीत के अवसर हैं। इतनी बातचीत की कक्षा-कक्ष में भी और घर में भी बच्चों से कई दिनों तक अनवरत् बातें की जा सकती हैं। यह कहना गलत न होगा कि इस कविता में बच्चों के मन की ध्वनियाँ हैं। उनकी सोच है। उनकी दुनिया है और बालमन स्वभाव चित्रित हुआ है। अपनत्व भरी कविता किसे न अच्छी लगेगी?
प्रखर आलोचक,समीक्षक,भाषाविद् एवं साहित्यकार डॉ॰ सुरेन्द्र विक्रम का गद्य एवं पद्य संसार विविधताओं से भरा है। उनके पूरे रचनाकर्म का अध्ययन करना और महसूसना संभवतः संभव नहीं। कारण? वह इतना समृद्ध और विस्तारित है कि किसी एक अध्येता के वश की बात नहीं है। हाँ ! समग्रता में सहयोगी भावना से मिलकर कुछ संवेदनशील मननशील ऐसा कर सकते हैं। इसके लिए पर्याप्त समय,समर्पण और लक्ष्यआधारित कर्म की आवश्यकता होगी। बहरहाल मैंने कुछ दिन विचार किया। सोचा कि उनका साहित्य का कौन सा क्षेत्र छू लूँ? मन बनाया कि साहित्य में बालमन की कविताएँ सरल रहेंगी। अपने लिए सरल मार्ग कौन नहीं चुनना चाहेगा? मैंने भी यही किया। लेकिन जब रचनाओं पर ध्यान गया तो वे भले ही प्रवाह और सौंदर्य के स्तर पर सरल ज़रूर हैं लेकिन उन पर सरलता से बात कहना उतना ही कठिन है। लेकिन अब हो भी क्या सकता था?
सोचने,संकलन करने और उन्हें पढ़ने के बाद फिर दूसरा सिरा पकड़ने में लगने वाले समय की कल्पना करने से ही मैं व्याकुल हो गया। फिर मन बनाया कि अब सिर्फ कुछ रचनाओं के निहितार्थ ही तो पकड़ने हैं। सोचना,संकलन करना फिर उन्हें पढ़ना जैसा काम तो हो गया। अब समझना है और झट से लिख डालना है। लेकिन ये जो ‘झट से’ लिखने वाला मामला है इसकी चाल घोंघा से भी बेहद सुस्त जान पड़ी। यह सब लिखना इसलिए भी ज़रूरी है कि बतौर पाठक जितना आसान पढ़ना लगता है उससे कठिन पढ़ने लायक सामग्री पर बात करना है। पढ़ने लायक सामग्री को लिपिबद्ध करना तब और कठिन है जब बेहद प्रचलित सामग्री के भाव,बिम्ब और मक़सदों पर बात करनी हो। इस लिहाज़ से सुरेन्द्र विक्रम जी के लिए और उनकी रचना पर लिखना मुझे सरल नहीं लगा।
सुरेन्द्र विक्रम देश भर की हिन्दी पाठ्यपुस्तक निर्माण प्रक्रियाओं से जुड़े रहे हैं। वे पाठ्य पुस्तक निर्माण समितियों में भी रहे हैं। यही कारण है कि वे बाल साहित्य और पाठ्य पुस्तकों की रचना प्रक्रिया को बखूबी समझते हैं। समझते भी हैं और स्वयं करके भी दिखाते हैं। देश भर में हिन्दी भाषा के कौशल और अभिमुखीकरण कार्यशालाओं में वे विषय विशेषज्ञ के तौर पर प्रतिभाग करते रहते हैं। उनकी पहचान मुख्य प्रशिक्षक के तौर पर भी है। बहुआयामी प्रतिभा के धनी सुरेन्द्र विक्रम देश भर की जानी-पहचानी स्वयं सेवी संस्थाओं और प्रतिष्ठानों के राजभाषा कार्यक्रमों में सक्रिय रहते हैं।
सुरेंद्र विक्रम की एक कविता ‘उलझन’ भी बेहद लोकप्रिय कविता है। यह कविता भी हज़ार-हज़ार बार अपने बारे में बात करवा चुकी है। यह कविता भी साल दो हजार छःह से लाखों बच्चे कक्षा चौथी में पढ़ रहे हैं। इसके अलावा भी यह कविता कई सन्दर्भों में बार-बार उद्धरित होती रही है।
कविता है-
पापा कहते बनो डॉक्टर/माँ कहती इंजीनियर!/भैया कहते इससे अच्छा/सीखो तुम कंप्यूटर/चाचा कहते बनो प्रोफ़ेसर/चाची कहतीं अफ़सर/दीदी कहती आगे चलकर/बनना तुम्हें कलेक्टर!/बाबा कहते फ़ौज में जाकर/जग में नाम कमाओ!/दादी कहती घर में रहकर/ही उद्योग लगाओ!/सबकी अलग-अलग अभिलाषा/सबका अपना नाता!/लेकिन मेरे मन की उलझन/कोई समझ न पाता!
यह एक शानदार कविता है। शानदार कई रूपों में है। बालमन की उड़ान इस कविता में है। बाल सुलभ कल्पनाओं से इतर बच्चे के विचार सार्थक और यथार्थ से भरे हुए सामने आए हैं। हम बड़ों की जो अपेक्षाएँ हैं, उस पर करारा व्यंग्य भी दिखाई देता है। समाज की कुंठाएँ जो बच्चों पर प्रकट होती हैं। कहीं न कहीं उस ओर इशारा करती है।
आज़ाद भारत में आए शिक्षा के दस्तावेज़ जो कहते हैं उसका शानदार प्रकटीकरण इस कविता में आया है। वह भी बगैर संदेश के। बगैर निर्देश के। बच्चा समाज का,परिवार का और यहाँ तक कि स्कूल के शिक्षकों का मनोभाव बखूबी समझते हैं। कवि ने बच्चे के मुख से वह सब कहला दिया जो इस दुनिया के तमाम बच्चों की आवाज़ें हैं। हम यदि अपना बचपन देखें तो हमसे भी संभवतः हमारे बड़ों की यही उम्मीदें रही होंगी। विडम्बना इस बात की है कि बच्चों से माता-पिता की वे उम्मीदें होती हैं जो बड़ों की होती हैं। बच्चों की अपनी चाहतें न पूरी की जाती हैं न ही उनसे उनके सपने पूछे जाते हैं। लेकिन मेरे मन की उलझन/कोई समझ न पाता! कविता में शामिल दो पँक्तियों के यह नौ शब्द एक बाल मन के द्वारा इस पूरे समाज को कटघरे में खड़ा करने के लिए काफी नहीं?
पापा,माँ,चाचा,चाची,दीदी,भैया,बाबा के सहारे कविता यह कहने की सफल कोशिश करती है कि बड़ों के आग्रह और इच्छाओं में बच्चे की इच्छा कहीं भी शामिल नहीं है। सब बेहिसाब की इच्छाएँ और सपने बच्चे से पाले बैठे हैं। बच्चे के मन की थाह खोजता कोई नहीं दिखाई देता। यह कविता भी दुनिया के किसी भी घर में पल-बढ़ रहे बच्चे की आवाज़ नहीं? इस कविता में कोई प्रतीक नहीं है। कोई बिंब नहीं है। सीधी,सरल,सहज कविता है। लेकिन सीधे बच्चों की दुनिया में प्रवेश कराती है। गहरे और व्यापक अर्थ देती है। यह कविता कथ्य को संक्षेप में ज़रूर रखती हुई प्रतीत होती है लेकिन समझ के स्तर पर यह सघन कविता है। सरल बात को फलक आसमान से भी अधिक व्यापक और प्रभावित करने वाला है। कहना उचित होगा कि ऐसी कविता भी दशकों में एक जन्म लेती है।
सुरेन्द्र विक्रम जी ने ऐसी कविताएँ भी लिखी हैं जो दृश्य चित्र भी प्रस्तुत करती हैं। ‘जाड़ा आ गया’ कविता में वे कहते हैं-छिटककर फैली है चारों और देखो/धूप की मुसकान, जाड़ा आ गया! उन्होंने बच्चों के लिए, बच्चों की दुनिया को शामिल करते हुए पाठकों के लिए ऐसी कविताएं भी रची हैं जो संसार के पदार्थों-चीज़ों-स्थितियों-परिस्थितियों को प्रतीक बनाकर आती हैं। जाड़ा को वे किसी मुसीबत की तरह नहीं लेते। जाड़ा की सुंदरता को भी चित्रित करते हैं। हालांकि वे अन्य कवियों की तरह कविता को बौद्धिक नहीं बनाते। न ही वे कविताओं को गूढ़ प्रदर्शित करने की कोशिश में दिखाई देते हैं। वह मानवीय संवेदना के कवि हैं। वे किसी तरह के उपदेश और निर्देश देने की होड़ में कहीं नहीं दिखाई देते। वे निराशा भी नहीं परोसते। उनकी कविताएं समस्याओं पर ध्यान तो दिलाती हैं पर वे निराशा नहीं परोसते। वे बच्चों की मनोदशाओं को सरलता के साथ अभिव्यक्त करते हैं। अनायास ही उनकी कविताओं को पढ़ते-पढ़ते पाठक भी चित्रित प्रकरणों को कवि की नज़र से देखने का शानदार प्रयास करने लगते हैं। मैं इसे रचनाकर्म की बड़ी सफलता मानता हूँ।
ऐसा नहीं है कि वे बस ढर्रे पर चल रहे विषयों पर ही रचनाएँ लिखते रहे हैं। नहीं। वे रचनाओं में गांव, शहर, प्रकृति, बादल, नदी आदि को आधार बनाते हैं तो उसे भी अलग दृष्टि से चित्रित करते हैं। शहरों और कॉलोनी के बच्चों की आम समस्या है कि वे खेलें कहाँ। अब तो कॉलोनियों के पॉर्क भी उजड़ गए हैं।
एक कविता में वे कहते हैं-अब तो कोई हमें बताए/कहाँ खेलने जाएँ हम? दो कमरों के छोटे घर में, कैसे मन बहलाएँ हम। सुरेंद्र विक्रम जी की कई कविताएँ ऐसी हैं जिनमे कस्बाई और शहरी बच्चों के जीवन की छोटी-छोटी समस्याएँ भी चित्रित हुई हैं। बाल साहित्य में पिछले सौ-डेढ़ सौ सालों की यात्रा पर दृष्टि डालें तो अमूमन दिन-रात, चांद, तारे, परी, बादल, पेड़, रेल, जहाज, स्कूल, पानी, नदी, जाड़ा, गरमी, सरदी, बरसात पर हजारों-हज़ार कविताएं पढ़ने को निरंतर मिलती हैं। लेकिन ऐसी कविताएं प्रायः कम पढ़ने को मिलती हैं जो मनोदशाओं की अभिव्यक्ति को नई गति या लय प्रदान करती हैं।
वे बाल साहित्य में आए विषयों-उपविषयों और प्रकरणों के रटे-रटाए और स्थापित मापदण्डों से हटकर उन्हें सकारात्मक तरीके से सामने रखते हैं। वे अनावश्यक शब्द जंजाल नहीं गढ़ते। उनकी कविता ‘रात’ है। वे उसे भयावह, डरावनी और काली नहीं बताते। वे इस कविता में कहते हैं-नींद बाँटती फिरती सबको/सचमुच कितनी दानी रात। ।
‘बस्ते का बोझ’ कविता में वे कहते हैं-इक ऐसी तरकीब सुझाओ, तुम कम्प्यूटर भैया/बस्ते का कुछ बोझ घटाओ,तुम कम्प्यूटर भैया। यह कविता इसलिए लीक से हटकर है कि बच्चा किसी जीव-जगत के प्राणी से नहीं यह बात या अनुरोध कम्प्यूटर से करता है। संभव है कि स्कूली बच्चा इतना तो जानता है कि मनुष्य समाज बच्चों की पीड़ा को समझ ही नहीं सकते। यह भी कह सकते हैं कि स्कूली बच्चे हम बड़ों को इस योग्य नहीं समझते होंगे। बस्ते का बोझ भी तो बच्चों के लिए हमने तय किया है।
एक कविता में वे बच्चों के जिज्ञासा से भरे सवालों को उठाते हैं। वे कहते हैं-अब तो हमें बताओ नानी/हवा कहाँ से आती है?/पंखा कैसे चलता है? बिजली कैसे मुसकाती है?/कम्प्यूटर रोबोट एक्स रे/कैसे अपना काम करें/दिन और रात मशीनें चलतीं/तनिक नहीं आराम करें। यह कविता अप्रत्यक्ष तौर पर गंभीर पाठकों को यह बताने के लिए पर्याप्त है कि कवि बालमन के चितेरे हैं। वे अतार्किक और सतही कविताएँ नहीं लिखते।
ऐसा भी नहीं है कि वे कथ्यात्मक कविताओं का लोभ संवरण नहीं कर पाए। कई बार प्रख्यात समर्थ कलमकार भी अभिव्यक्ति को गौण मान लेते हैं। हालांकि ऐसी कविताएँ भले ही शानदार कविताओं की तरह रस और आस्वाद नहीं दे पातीं, लेकिन वे अकविता हैं, मैं ऐसा नहीं कह सकता। एक उदाहरण देखिएगा। वे लिखते हैं-‘कोट,स्वेटर बिक रहे हैं सब जगह/ सज गई दूकान, जाड़ा आ गया। काटने को दौड़ता हर रोज़ पानी/ बंद दोनों कान, जाड़ा आ गया।
ऐसी ही सपाट और भी कविताएं उनकी कलम से निकली हैं। कई बार पाठ्य पुस्तकों, प्रशिक्षणों और भाषाई कौशलों के विकास के लिए स्कूली ढर्रे पर भी कविताएं लिखी जाती हैं। संभवतः वे भी इस क्षेत्र में हैं तो प्रयोजनार्थ ऐसी कविताएं बुनना अनायास भी संभव है।
एक और कविता का अंश पढि़एगा-‘कल हुआ था ‘टेस्ट’ दस में दो मिले/हो रही है जगहँसाई क्या करें?/क्यों मिले हैं अंक इतने कम बताओ/ पूछते हैं ताऊ-ताई, क्या करें?
शिक्षा जगत में यशपाल समिति की सिफारिशों ने देश में हलचल मचा दी थी। समाज के सामने आए कि पढ़ाई बिना बोझ के हो। बच्चे खेल-खेल में सीखें। करके सीखें। विषयों की दीवार टूटे। देश में लाखों स्कूल हैं जो कुकुरमत्तों की तरह गली-गली में खुल गए हैं। उनके लिए शिक्षा उत्पाद है और स्कूल दूकान। अस्सी-नब्बे के दशक में निजी स्कूलों की भारत में बाढ़-सी आ गई। निजी स्कूल मुनाफे के लिए निजी प्रकाशकों से मँहगी किताबों की माँग करने लगे। भाषा की पुस्तक के अलावा पर्यावरण,विज्ञान,सामाजिक विज्ञान में भी कविताएं शामिल होने लगीं। परिवार, खेल भावना, परिवार, यातायात, सेहत आदि उपविषयों पर आधारित रचनाओं की माँग यकायक बढ़ गई।
संभव है कि ऐसी कविताएं इरादतन लिखवाई भी जाती हैं। ‘खेल-खेल में’ ऐसी ही रचना है। आप भी पढि़एगा-‘खेल-भावना से बनता है,/एक भरा-पूरा परिवार/जिसमें कोई बड़ा न छोटा/सपने सब होते साकार/सपनों का एक चित्र बनाकर मढ़ना सीखो जी। खेल-खेल में आगे-आगे बढ़ना सीखो जी।।
और अंत में यह कहना ज़रूरी होगा कि बतौर पाठक सुरेन्द्र विक्रम जी के कृतित्व को रेखांकित करना भी मेरे लिए संभव है। विस्तार से कहना तो दूर की बात है। कहा-अनकहा बहुत कुछ है। वह किसी लेख में तो क्या किसी किताब में शामिल करना भी आंशिक ही होगा। फिर भी बतौर पाठक मुझे यकीन है कि सुरेंद्र विक्रम जी की कलम से बेहतरीन बालमन की विविधिता भरी रचनाएँ आनी शेष हैं। वे सूक्ष्म,संक्षिप्त और सुगठित शब्दों को लेखन में पिरोने के धनी है। छोटी-छोटी सामान्य बातों,वस्तुओं में भी गहरी बात और सौन्दर्य प्रस्तुत करना वे बखूबी जानते हैं। वे कविताओं में बातों,चीज़ों,वस्तुओं और मुद्दों को समेटते नहीं है बल्कि उन्हें फैलाते हैं। यह बड़ी बात है।
॰॰॰
-मनोहर चमोली ‘मनु’

6 जन॰ 2021

'नया साल, कोरोना और हम'

'नया साल, कोरोना और हम'
किसी परिवार का एक सदस्य नहीं, दो नहीं....बल्कि सभी के सभी कोरोना पॉजीटिव हो जाएं तो चिंतित होना स्वाभाविक था। ...................
बशीर बद्र साहब को कहाँ पता था कि उनका ये शेर 2020 में नए अर्थों और सन्दर्भों में कुछ और ही ध्वनि दे रहा होगा। पहले शेर आपकी नज़र-

कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो
एक शहर क्या और एक मुल्क़ क्याण्ण्! यहाँ तो अब दुनिया ही फ़ासला चाहती है। हमारे साथ भी ऐसा ही हुआ। हालांकि यह ज़रूरी था। 17 दिसम्बर 2020 की बात है। अनीता दो-तीन दिन से बुखार में थीं। उससे पहले अनीता को नवम्बर में टाइफाइड की शिकायत रही। यूँ तो हम पिताजी का पहला वार्षिक श्राद्ध में शामिल होने देहरादून गए थे। लेकिन यह बात नवम्बर के आखिरी सप्ताह की थी। अब याद कर रहा हूँ तो 11 या 12 दिसम्बर को मुझे भी बुखार महसूस हुआ था। एक-दो दिन खाने-पीने का मन भी नहीं किया। लेकिन मैंने इसे हलके में लिया।

यह बात भी जोड़ देना चाहता हूँ कि जनता कर्फ्यू के घोषित होने के बाद से ही हम पूरे 10 महीने पौड़ी में ही रहे। 20 किलोमीटर तक की भी कोई यात्रा नहीं की। कोरोना काल में परिषदीय परीक्षा में कक्ष निरीक्षक की जिम्मेदारी निभाई। बोर्ड परीक्षा का मूल्यांकन कार्य भी किया। लेकिन कोरोना से हम भी भयभीत रहे। सतर्क रहे। सावधानी भी बरती। मार्च 2019 से मैं अपने विद्यालय के सेवित क्षेत्र में थोड़े-थोड़े अन्तराल पर कोरोना की डॅयूटी करता रहा। कालान्तर में सितम्बर माह से तो नगरपालिका क्षेत्र के अन्तर्गत वॉर्ड 8 में सिटी रिस्पान्स टीम में कोरोना की ड्यूटी में जुट गया था। 2 नवम्बर 2020 से विद्यालय खुल जाने की दशा में ही कोरोना की ड्यूटी से कार्यमुक्त हुआ। मीर हसन की बात से सहमति है कि सुख के साथ दुःख भी आते हैं। कष्ट के दिन कुछ ज़्यादा लंबे लगते हैं। वे लिखते हैं-

सदा ऐश दौराँ दिखाता नहीं
गया वक्त फिर हाथ आता नहीं
यह सब विस्तार से बताना ज़रूरी इसलिए भी है कि पूरी सावधानी बरतने के बावजूद घर में यह कोरोना वायरस दाखिल हो ही गया। फिर हम 6 दिसम्बर 2020 को पौड़ी वापिस आ गए। हमारे साथ देहरादून से माँजी भी लौटी। साल भर से अधिक हो गया था, वे देहरादून ही थीं।
तो, बात 17 दिसम्बर 2020 की हो रही थी। पौड़ी के राजकीय चिकित्सालय में गए। डॉक्टर रौतेला जी को दिखाया। उन्होंने कुछ टैस्ट कराए। अनीता की प्लैटलेट्स कम हो गई थीं। दवाएं दीं और कोविड 19 जांच भी लिख दी। 21 दिसम्बर को रिपोर्ट आई। पॉजीटिव। मैं विद्यालय में था। शिक्षक साथी बिजल्वाण जी की स्कूटी ली और लौट आया। मैं स्टॉफ गाड़ी में जाता रहा हूँ। सावधानी के चलते विद्यालय को भी बंद करना पड़ा। बहरहाल! अनीता की अलग कमरे में व्यवस्था करना ठीक समझा गया। अलग टॉयलेट-वॉशरूम। ठीक ही हुआ। यहाँ वसीम बरेलवी का एक शेर समीचीन साझा कर रहा हूँ-

अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपाएँ कैसे
तेरी मर्जी के मुताबिक नज़र आएँ कैसे
अब हमारी बारी थी। 21 दिसम्बर को ही तुरंत मेरी, माँजी, अनुभव और मृगाँक की कोरोना सैम्पलिंग हुई। पाँच दिन बीत गए। लेकिन छठे दिन फोन आया और मुझे बताया कि हम सभी (पूरा परिवार, 5 सदस्य) कोरोना पॉजीटिव है। एक पल के लिए तो मैं परेशान हो गया। अनीता को 2 जनवरी 2021 तक होम आइसोलेशन में रहना तय किया गया। और हम चारों का 6 जनवरी 2021 तक होम आइसोलेशन में रहना तय किया गया।
28 दिसम्बर 2020 तक यदि हम 17 दिसम्बर को ही अनीता का कोविड संक्रमण का दिन मान लें तो 12 दिन हुए जाते हैं। और यदि हम चारों 21 से जिस दिन हमारी सैम्पलिंग हुई है को संक्रमण का दिन मान लें तो भी हमें 8 दिन हो चुके हैं। और आज जब 7 जनवरी 2010 है तो हम सभी को आज 22 वां दिन हुआ जाता है। स्थिति सामान्य है। बुखार नहीं है। गले में खराश और यदा-कदा खिच-खिच मात्र है। सभी का ऑक्सीजन स्तर 95 से ऊपर ही है। नमक के गरारे कर रहे हैं। गरम पानी पी रहे हैं। भाप भी ले रहे हैं और ससमय दी गई दवाई ले रहे हैं।
हम परिवार के पाँचों सदस्य एक छत के नीचे होते हुए भी एक छत के नीचे न थे। अक्सर अहमद फराज़ याद आए। जिन्होंने यह क्यों कहा? आज समझ में आ रहा है-

किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझे से ख़फा है तो ज़माने के लिए आ
क्या समय रहा? कोई नाराज़गी भी नहीं थी और सब एक-दूसरे से ऐसे दूरी बनाए हुए थे कि ख़फा हो गए हों। खैर...पीछे मुड़कर देखता हूँ तो याद आता है कि गोल्डन कॉर्ड बनाने के लिए लाईन में मुझे एक दिन नहीं दो दिन लगना पड़ा था। फिर अनुभव और मृगाँक को भी मैंने एक अलग दिन लाईन में लगाया था। मृगाँक की अंगुलियाँ कम्प्यूटर नहीं पकड़ रहा था तो ऑपरेटर ने कहा कि बच्चे का आधार अपडेट कराना होगा। उसके लिए मुझे दो दिन और एक बैंक में जाना पड़ा। इस बीच मुझे भीतर ही भीतर बुखार रहा और भोजन का स्वाद भी बिगड़ गया था। संभवतः मुझसे ही अनीता संक्रमित हुई होगी। फिर बच्चों ने तो होना ही था। माँजी के साथ हम हैं ही हैं तो वे भी संक्रमित हो गईं। बहरहाल ..इन 22 दिनों में बहुत सारे साथियों ने बेहद आत्मीयता से आत्मबल बढ़ाया। अल्लामा इकबाल ने यूँ थोड़े कहा है-

सितारों से आगे जहाँ और भी हैं
अभी इश्क के इम्तिहाँ और भी हैं
हमारे देहरादून, दिल्ली और अन्य जगहों में रह रहे पारिवारिक सदस्यों ने नियमित दूरभाष पर हमारी सुध ली। मैं अपने विद्यालय रा॰इ॰कॉ॰केवर्स के विद्यालयी परिवार के सहयोग को कभी नहीं भूल सकूंगा। साथ ही अनीता के विद्यालय रा॰इ॰कॉ॰ कालेश्वर के शिक्षकों का भी सहयोग अविस्मरणीय है। देवानन्द भट्ट जी रोज़ शाम को दूध लाते रहे। शिक्षक साथी रघुराज चौहान जी ने पारिवारिक जिम्मेदारी निभाई। वे राशन-तरकारी और दवाई आदि लाते रहे। रविन्द्र नेगी, विनय मोहन डबराल, रमाकान्त बिजल्वाण, सीता राम रावत, राजेन्द्र सिंह राणा, बन्टी रौथाण, बिमल नेगी, राजू भाई, आकाश सारस्वत, जीवानन्द, सरोज, सतीश, मुकेश वशिष्ठ, देवेन्द्र कण्डारी,किशोर रौतेला, बबीता नेगी,शोभा, सुनीता मलेठा, मोहन चौहान, सतीश जोशी, प्रदीप बहुगुणा ‘दर्पण’, रघुबीर रावत, अजय, दुर्गेश जुगरान, राकेश पटवाल, जगमोहन चोपता, जगमोहन कठैत, गणेश बलूनी, विजय आनन्द नौटियाल, कनक लता, सकलानन्द नौटियाल, गजेन्द्र रौतेला, विजय भट्ट, हंसराम चमोली, लक्ष्मी रतूड़ी, निखिलेश, संजय रुडोला, गणेश काला, प्रीति रावत, उनियाल मैडम, धरम सिंह, आशीष नेगी, अनीता ध्यानी, सरिता पंवार,मनोज ध्यानी, उत्तम कुमार सिंह सहित कालेश्वर कॉलेज का विद्यालयी स्टॉफ सुध लेते रहे। यह तब है जब हमने इस पूरे प्रकरण को सीमित रखा। अलबत्ता आस-पड़ोस में खुलकर बताया। ताकि सभी स्वयं शारीरिक दूरी बना लें।
हम लगभग 18 दिन घर में रहे। घाम तापने ही बाहर आए। घर के आँगन तक दूध देने आ रही बालिका ही ने प्रवेश पाया। उसे भी ताकीद कर दी गई कि दूध पहले से रखे बरतन को बिना छुए अपने बरतन से उलट दे।
मैं सिटी रिस्पांस टीम (सी॰आर॰टी॰) मैडिकल टीम का भी आभार प्रकट करता हूँ। लैब से सीधे फोन आते ही मैंने सीआरटी को अवगत कराया। आधे घण्टे में ही अनीता की दवाई किट घर पर उपलब्ध हो गई। वॉर्ड के समन्वयक और सीआरटी सदस्य गणेश काला भी तत्काल कागजी कार्रवाई के लिए पहुंच गए। आधे घण्टे में ही सैम्पलिंग टीम हमारे सैंपल ले गई। हम चारों की रिपोर्ट पॉजीटिव आने की खबर लैब से सीधे मुझे मिली तो मैंने टीम को अवगत कराया। आधे घण्टे में ही हम चारों के लिए दवाई किट और काग़जी कार्रवाई के लिए संबंधित साथी दरवाजे पर थे। अस्पताल से, स्वास्थ्य विभाग से, आपदा प्रबन्धन से, पुलिस कंट्रोल रूम से और देहरादून स्थित कोरोना सेन्टर से बराबर फोन आते रहे। वे वस्तुस्थिति से अवगत होते रहे और हमारा हौसला बढ़ाते रहे।
कुल मिलाकर मैं और हम सभी पाँच सदस्य इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि यदि नकारात्मकता हावी न हो और आप कितने भी अकेले हों तो भी बड़ी से बड़ी समस्या से निजात पा सकते हैं। अनीता को पूरे 14 दिन परिवार से बिल्कुल अलग रखने में जो मानसिक, पारिवारिक उलझने हुईं वे इस रोग से बहुत छोटी थीं।
दवाईयों के अलावा तीन-चार बार सादा पानी में भाप लेना चलता रहा। गिलोय का उबला हुआ पानी भी पिया। रात को शुद्ध हल्दीयुक्त दूध भी पीना पड़ा। टमाटर सूप भी चलता रहा। एक दिन में तीन बार साबुत काली मिर्च और अदरक को पीसकर बनाई गई चाय पी। पपीता, अनार और सेब को दो-तीन घण्टे धूप में रखकर नियमित खाया। परिणाम यह हुआ कि सभी बुखार की न्यूनतम परिधि में रहे। ऑक्सीजन का स्तर औसत से अच्छा रहा। खांसी ने पल दो पल ही परेशान किया। रिपोर्ट पॉजीटिव की ख़बर ने ज़रूर खाने के स्वाद को पूर्णतः फीका कर दिया था। लेकिन उससे भी हम दो-तीन दिनों में उबर गए।
आज इस कोरोना प्रकरण के घर में प्रवेश को 21 दिन पूरे हुए जाते हैं। हम उम्मीद करते हैं कि हम पाँच के शरीर में यह अब मृत हो गया होगा। शेष जीवन तो भविष्य के गर्त में है। समय बड़ा बलवान है। उसके आगे हम नतमस्तक हैं। अलबत्ता हम पूरी सतर्कता और जागरुकता के साथ नियमित जीवन जीते हैं। लेकिन कहीं न कहीं लापरवाही तो हुई है। यह भी कि यह शरीर है। धीरे-धीरे यह खोखला होता जाता है। 65 वर्षीय माँजी ने जिस सकारात्मकता के साथ खुद को और हमें भी सँभाला, वह प्रणम्य है। हाँ ! पिताजी होते तो वह ज़रूर हम सबका हौसला होते। वे ज़रूर इस नमुराद कोरोना को कुछ न समझते। पर उनके अनुभव हमारे खूब काम आए।
यूँ तो हम याद रख ही रहे थे कि सभी को एक-दूसरे से दूर रहना है। अनुभव को दादी से अलग कर दिया। अनीता ऊपर वाली मंजिल में रह रही थीं। बच्चे भी यदा-कदा एक-दम सामने आ-जा रहे थे। तब फिराक गोरखपुरी जी को कहाँ पता रहा होगा कि उनका शेर 2020-21 में इस कदर याद आता रहेगा-

तुम मुखातिब भी हो करीब भी हो
तुम को देखें कि तुम से बात करें
और अंत में-अनुभव (दस बरस) और मृगाँक (आठ बरस) को भी हमने जैसे ही फोन से सूचना मिली, बता दिया गया। इन दोनों ने भी भरपूर सहयोग किया। वे दोनों अपनी माँजी से 14 दिन दूर रहे। एक बार भी नजदीक नहीं गए। कोरोना प्रभाव वे भी देख-सुन-पढ़ रहे थे। बाद में उनके पॉजीटिव आने की ख़बर भी आई तो यह भी उन्हें तत्काल बता दिया गया। पहले माँजी से अलग रहना और अब दादी से और अपना पिता से दूरी बनाए रखना आसान काम तो न था। अपनी उम्र के स्वभावानुसार उन्होंने अपेक्षा से अधिक सहयोग किया। दो कमरों में रहते हुए हमसे जितना हुआ, हमने हिदायतें बरतीं। अनीता के 14 दिन पूरे होते ही सब कुछ सहज होने लगा। तो हमारा अनुभव यह भी बताता है कि हमें बच्चों को बच्चा नहीं समझना चाहिए। उन्हें अपनी बातों का, अहसासों का, तकलीफों का साझीदार बनाना चाहिए। यूँ तो क्या जि़ंदगी तो कट ही जाती है। मुंशी अमीरुल्लाह तस्लीम के शब्दों से हौसला मिलता है। वे कहीं कहते हैं कि-

सुबह होती है शाम होती है
उम्र यूँ ही तमाम होती है
आप सभी का धन्यवाद कि आपने हमारे इन इक्कीस दिनों का संक्षिप्त ब्यौरा पूरा पढ़ा। आभार।
॰॰॰
#Manohar Chamoli 'manu'
#मनोहर चमोली ‘मनु’
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1 जन॰ 2021

बाल पत्रिका: साल 2021 में नई आहट पायस की

बाल पत्रिका: साल 2021 में नई आहट पायस की
-मनोहर चमोली ‘मनु’
पायस यानि खीर ! दूध में पकाया हुआ चीनी या मीठा से चावलयुक्त एक बहुपसंदीदा व्यजंन है। ऐसा कौन-सा बच्चा होगा जिसे खीर पसंद न हो। पायस ऑनलाइन बाल पत्रिका जनवरी 2021 में प्रवेशांक के तौर पर पाठकों के लिए 1 जनवरी 2021 को उपलब्ध हो गई है।
आवरण सम-सामयिक है। आकर्षक है। पत्रिका के जनक एवं संपादक अनिल कुमार जायसवाल ‘करें नई शुरुआत’ में बच्चों से बातचीत करते हैं। वे विस्तार से लिखते हुए कहते हैं-‘‘साल 2020 ने बहुत से परिवार के साथ बुरा किया, पर बहुत-सी नई बातें भी सिखा गया। लॉकडाउन एकल परिवार को संयुक्त परिवार के फायदे याद दिला गया। लोगों को सही मायनों में परिवार की तरह रहना और एक-दूसरे का केयर करना सिखाया। घर-परिवार और गांव छोड़ चुके लोगों को संकट के समय परिवार और गांव की याद आई।......’’



वे संपादकीय में यह भी लिखते हैं-‘‘तुम्हारी तरह मैंने भी लॉकडाउन में इंटरनेट पर खूब पढ़ाई की। लोगों और बच्चों से बातें कीं। इस दौरान विचार आया कि क्यों न छपी हुई पत्रिका की तरह ही एक आनलाइन बाल पत्रिका निकाली जाए, जो किसी भी मायने में प्रिंटेड पत्रिका से कम न हो। तुम सबका समर्थन मिला और आज यह पत्रिका तुम्हारे सामने है।’’ पूरा संपादकीय पढ़कर मन में आया कि बारह साल की उम्र के आस-पास के बच्चों के लिए संपादकीय का फोंट ज़रा-सा ओर बड़ा होता तो आनंद आ जाता। यह भी कि संपादकीय और सरल तथा बच्चों की दुनिया का हो। वैसे संपादकीय बच्चों से ही मुखातिब तो है ही है।
जाने-माने साहित्यकार समीर गांगुली की कहानी ‘नया साल नई सुबह’ पायस में प्रकाशित हुई है। यह कहानी नए साल का सूरज उगाती है। मेढक,मुर्गा,बिल्ली,भेडि़या पात्रों की यह कहानी रोचक है। कहानी की एक बानगी आप भी पढि़एगा-‘चितकबरे चीते ने भी एक ही पल में नया निर्णय ले लिया। घबराए भेडि़ए के पास जाकर वह बोला,‘कल तक जो कुछ था, उसे भूल जाओ। आज से तुम हमारे दोस्त हो। नया साल मुबारक हो।’’ अंत में कहानी का मुर्गा इंसानों की तरह भगवान का शुक्रिया अदा करता है। यह बात कुछ अटपटी लगी।
पायस के लिए कवर स्टोरी अनिल जायसवाल ने जुटाई है। गणतंत्र दिवस को केन्द्र में रखकर शानदार जानकारी बाल पाठकों के लिए जुटाई गई है। इतिहास के आइने में झांकने का अवसर यह लेख देता है। दो पेज में समाया यह लेख बाल अनुकूल है। चूँकि शानदार और विचारणीय सात चित्र भी इन्ही दो पेज में हैं।
वरिष्ठ कथाकार और कवि देवेंद्र कुमार की कहानी ‘खुल गए ताले’ पायस के प्रवेशांक में शामिल है। एक अनाथालय में पुस्तकालय तो है लेकिन पुस्तकें आलमारियों में बंद हैं। लेखक ने अलग तरीके से इस कहानी को बुना है। समस्या और उसका समाधान भी लीक से हटकर है। प्रासंगिक भी है। बनावटी नहीं लगता। कहानी अच्छी है। सभी वय वर्ग के पाठकों को पसंद आएगी। ऐसा विश्वास है।
विज्ञान कथाकार और किस्सागो देवेन्द्र मेवाड़ी ने अपनी चिर-परिचित शैली में फसलों की कहानी में शानदार जानकारी दी है। तीन पेज में सामग्री ज़रूर चली गई है लेकिन बातचीत की शैली में सरल और सहज वाक्य इसे लंबा नहीं बनाते। चित्रांकन भी शानदार है और आंखों को भाता है। अधिकतर सामग्री पेज में दो कॉलम में है। यही कारण है कि कोई भी पेज पढ़ने में आंखों को बोझ जैसा कुछ महसूस नहीं होता। जानकारीपरक लेख की शुरुआत को आप भी पढि़एगा,‘‘अच्छा दोस्तों, एक बात बताओ। क्या खाना खाते समय तुमने कभी सोचा कि भोजन का जो कौर तुम मुंह में ले रहे हो, वह कहां से आता है? रोटी हो या दाल-भात या तुम्हारा बर्गर-पिज्जा, ये आखिर आया कहां से?’’
खेल शतरंज की रोचक जानकारी भी पायस में शामिल है। मशहूर लेखक और स्तम्भकार क्षमा शर्मा की कहानी ‘करौदे ले गया कौन’ पायस के प्रवेशांक में शामिल है। गाँववासी तो करौंदा जानते हैं। उसका फल और कांटेदार झाड़ी से परिचित हैं। लेकिन शहरी पाठक शायद ही करौंदे को जानते होंगे। निर्मला शादी के बाद शहर आ गई। करौंदों से उसका रिश्ता पुराना था। वह साथ में एक पौधा करौंदा का शहर ले आई। जब करौंदे लगते तब कई सारी घटनाएं घटतीं। बस इसी के आस-पास है ये कहानी।
शॉन द शीप, श्रेक, फैंटम,पोपाय द सेलर मैन, थॉमस द टैंक इंजन, स्कूनी डू, फ्ंिलस्टोन,डॉनल्ड डक, ऑसवल्ड, पॉवरपफ गर्ल्स,नॉडी जैसे कॉमिक पात्रों को सर्च करने का मौका बाल पाठकों के लिए पायस ने उपलब्ध कराया है।
आवारा कुत्तों की जि़ंदगी और फ्लैटीय संस्कृति के आस-पास बुनी कहानी कजली की बखरी जाने माने स्तम्भकार,लेखक और एक्टीविस्ट पंकज चतुर्वेदी की है। तीन पेज में शामिल कहानी इस रोचकता के साथ बुनी है कि कौतूहल बना रहता है कि कजली के साथ आगे क्या होने वाला है? कालू गिरोह के साथ-साथ लॉकडाउन का परिवेश भी इस कथा में है।
दिविक रमेश साहित्य में चिर-परिचित नाम है। उनकी कविता ‘मेरी सर्दी मेरा गीत’ इस अंक में है। कविता का अंत बड़ा ही मार्मिक और यथार्थवादी है। अलबत्ता चित्र सकारात्मक हो सकता था। सर्दी में अभावग्रस्त बच्चों की जुराब का चित्रण आप भी पढि़एगा-
झाड़ू-पोचा, बर्तन करके
जब घर पर आऊँगी बेटी
सबसे पहले इस जुराब को
सी दूंगी मैं सच्ची बेटी।
पता नहीं क्यों? मुझे हास-परिहास और मनोरंजन पूर्ण सामग्री में किसी की हँसी उड़ाती बात पसंद नहीं आती। जैसे किसी खर्राटे लेने वाले पात्र का ऐसा चित्रण खिल्ली उड़ाने जैसा लगने लगता है तो अजीब सा लगता है। इसी तरह शराबी का अधिक चित्रण और शराब की बुराई कम वाली बात भी पसंद नहीं आती। संतोष कुमार सिंह की मजेदार कविता भी मुझे चौबेलाल की हँसी उड़ाती हुई अधिक प्रतीत होती है। किसी का मोटा होना या किसी का पेटू होना मजाक का पात्र नहीं बनाया जाना चाहिए।
अंक में संवेदनशील कवयित्री डॉ॰ अनुपमा गुप्ता की कविता भी है। कविता पायस यानि खीर पर आधारित है। बच्चों को पसंद आएगी।
अंक में बाल साहित्य के अध्येता और साहित्यकार डॉ॰ नागेश पाण्डेय ‘संजय’ की सरस और चुटीली कविता ‘भैया जी’ शामिल है। छोटे बच्चों को बड़े बच्चे अक्सर परेशान करते हैं। छेड़ते भी हैं। उसी का शानदार चित्रण इस कविता में हैं। आप भी एक अंश पढि़एगा-
क्यों इतना हो हमे सताते?
बोलो भैया जी।
गुलगुल गुलगुल चुन्नू के
गुलगुली मचाते क्यों?
मुझे पकड़कर कहो कान में
गाना गाते क्यों?
क्यों कसकर हो धौल जमाते,
बोलो भैया जी।
युवा साहित्यकार शादाब आलम की भी कविता इस अंक में है। गले की खराश को कविता में शानदार तरीके से शामिल किया गया है-
सोच रहा हूँ माँ का कहना
माना होता मैंने काश!
उफ ! मुझको हो गयी खराश।
राम करन नए भाव-बोध-बिम्ब के बेमिसाल कवि हैं। पुराने विषयों-प्रतीकों को लेते हैं लेकिन कथ्य नया लाते हैं। बिल्ली बाई उनकी कविता यहां शामिल हुई है-
बिल्ली बाई बड़ी घुमक्कड़
इस घर पर कभी उस घर पर
खाती-पीती दिनभर रहती
और पचाती घूम घूमकर......
युवा साहित्यकार शिव मोहन यादव की कविता एकता भी शामिल है-
लिये कैमरा चला भेडि़या
था जंगल का सीन।
कुत्ता, बिल्ली,चूहा बोले
फोटो खींचों तीन।...... ड
सुभाष चंद्र बोस का जन्मदिवस 23 जनवरी है। उन्हें नमन करते हुए जानकारीपरक लेख भी पत्रिका में है।
‘बादल रोने लगा’ वरिष्ठ साहित्यकार संजीव जायसवाल ‘संजय’ की है। उनकी कहानी में नटखट बादल है। वह दूसरों को परेशान करना चाहता है लेकिन उसके सारे प्रयास हानि की जगह लाभ ही देते हैं। आगे कहानी में उसे हवा का साथ मिलता है और एक नयी राह बनती है। कहानी की बानगी-
‘‘मुझसे कोई डर ही नहीं रहा। लगता है, मेरी ताकत खत्म हो गई है।’’ बादल फफक पड़ा।
यह सुन हवा हंस पड़ी,‘‘दोस्त,बादलों का जन्म लोगों को डराने के लिए नहीं, मदद करने के लिए होता है। तुम सब तो बहुत प्यारे होते हो,इसीलिए सभी तुम्हारा इंतजार किया करते हैं।’’..........
दिल्ली स्थित गोल मार्केट के पास स्थित गांधी स्मृति स्थल की जानकारी भी पत्रिका में है। चित्र बहुतायत में है। शानदार सामग्री।
वरिष्ठ साहित्यकार डॉ॰विमला भंडारी की कहानी ‘भूखे भेडि़ए’ भी पायस के प्रवेशांक में है। भूखे भेडि़यों का दल किसान की झोपड़ी के पास बंधे मवेशियों में एक बैल को शिकार बनाना चाहते हैं। कहानी इतनी रोचकता और जिज्ञासा के साथ आगे बढ़ती है कि अंत तक कौतूहल जगाए रखती है। अंत भी बड़ा शानदार है। कहानी में किसान और भेडि़यों के साथ यथार्थपरक न्याय करना ही इस कहानी की खूबी है। कहानी का संवाद आप भी पढि़एगा-
‘‘सरदार, क्या कह रहे हो? किसान का बैल? वह भी जागते हुए किसान का बैल? बैल की तो छोड़ो,उसके जगे में तो हम वहां से मुर्गी तक नहीं ला सकते।’’ एक भेडि़या पस्त होकर बोला।
‘‘एक बार हिम्मत तो करो। एक बैल बहुत है, हम सब के लिए। भूख से निजात मिल जाएगी, कई दिनों के लिए।’’.........
जो बाइडेन अमेरिका के नए राष्ट्रपति नाम से जानकारी भी है। पत्रिका में अमेरिका की पहली अश्वेत उपराष्ट्रपति कमला हैरिस
पर भी सरल जानकारी दी गई है।
विराट कोहली के बचपन से लेकर बुलंदी तक की कहानी को प्रेरकता के साथ प्रस्तुत किया गया है। हालांकि इ सपेज में गहरा काला रंग और उस पर हरा रंग का फोंट का तालमेल सही नहीं बैठ पाया है। यह पेज आँखों को तकलीफ दे रहा है। रंग संयोजन ठीक नहीं हो पाया है। तीन पेज पर फैली सामग्री लक्ष्यांकित बच्चों के हिसाब से अधिक है। जीव-जंतुओं का अद्भुत संसार के तहत ब्राउटो, फ्लाइंग फॉक्स,थ्रैशर शॉर्क,एलिफेंट सील और पफिन की जानकारी आइवर यूशिएल ने जुटाई है।
लोकप्रिय कवि एवं कथाकार रावेंद्रकुमार रवि की कहानी ‘मजे टिम्मू के’ भी पायस के प्रवेशांक में शामिल है। टिम्मू और चौकीदार के संबंधों पर बुनी कहानी अच्छी है। संवाद की बानगी-
‘सौम्या ने चौकीदार को समझाया,‘‘यह नन्हा-सा पिल्ला है। इसकी मां से छीनकर इसे यहां इतनी दूर लाया गया है। इसको हमेशा बांधकर रखा जाता है। यह अभी इतना समझदार नहीं हुआ है कि आपकी सारी बातें मान लें। इसलिए आप इसे मारा मत कीजिए।’’
ठहाका लगाओं के तहत मज़ेदार चुटकुले भी पत्रिका में हैं। पंकज रॉय का मस्त कार्टून भी पत्रिका में है। नया साल पर यह प्रासंगिक भी है।
वरिष्ठ कथाकार कल्पना कुलश्रेष्ठ की कहानी ऑपरेशन वाइरस भी रोचक कहानी है। यह कहानी हमें 200 साल आगे की दुनिया की सौर कराती है। बच्चों को यह कहानी बेहद पसंद आएगी। कहानी का एक अंश-
‘‘आप सबको इतनी जल्दी दोबारा यहां बुलाने का कारण कुछ खास है। एक भयानक घटना होने वाली है, जिसे हम नहीं रोक पाए, तो दुनिया ठहर जाएगी। वैसे ही जैसे दो सदी पहले ठहर गई थी।’’ चीफ की भारी आवाज में चिंता थी।
जरा सोचो स्तम्भ के तहत दो पेज स्कूली गतिविधियों-सी हैं। यह स्कूली बच्चों को ध्यान में रखकर रची गई हैं। सात पेज बाल कोना के लिए रखे गए हैं। 16 भविष्य के सितारे यानि बाल रचनाकारों को भव्यता के साथ स्थान मिला है। रचना की स्तरीयता भी देखते ही बनती है।
पत्रिका में रसोई का भी ध्यान रखा गया है। खाना और पकाना के तहत चूल्हा से माइक्रोवेव की जानकारी दी गई है। 6 बाल साहित्य की पुस्तकों के लिए तीन पेज निर्धारित किए गए हैं। मुझे लगता है कि पुस्तकों का परिचय और संक्षिप्त किया जाना चाहिए। और अंत में पत्रिका ने उन सभी शुभचिन्तकों का धन्यवाद ज्ञापित किया है जिन्होंने पत्रिका को आर्थिक संबल प्रदान किया है। उम्मीद की जाती है कि पत्रिका को और भी साहित्यकार, जानकार और अध्येता मदद करेंगे। फौरी तौर पर मदद करने वालों का नाम दिया जाना समीचीन जान पड़ता है। पंकज चतुर्वेदी, राम करन, मनोहर, अनुपमा गुप्ता, रेनू मंडल, अरशद खान, मोनिका अग्रवाल, मेराज रजा, पवन चौहान, भगवत प्रसाद पाण्डेय, रावेन्द्रकुमार रवि, देवेन्द्र कुमार, हरिओम जायसवाल, शील कौशिक, भास्वर लोचन, उषा सोमानी, समीर गांगुली, दीप्ति मित्तल, संगीता सेठी,प्रभा खन्ना और अनिल जायसवाल प्रमुख हैं।
फोंट शानदार है। रंग संयोजन बाल मन के अनुकूल है। सामग्री-चित्र और स्थान का समन्वय देखते ही बनता है। कहीं भी सामग्री ठूंसी हुई प्रतीत नहीं होती। हाँ भरसक प्रयास यह किया जाना चाहिए कि कोई भी सामग्री दो पेज से अधिक न हो। चूँकि पत्रिका ऑनलाइन है तो अनुभव बताता है कि पाठक कमोबेश छोटी-छोटी रचनाएं ही प्राथमिकता के तौर पर पढ़ते हैं। तथ्यात्मक और आँकड़ों से सराबोर सामग्री देने से बचा जाना चाहिए। गूगल के युग में यदि कोई पत्रिका भी सूचना,जानकारी और ज्ञान को अत्यधिक प्राथमिकता देंगे तो पठनीयता के कम होने की आशंका बढ़ जाती है। हालांकि प्रवेशांक में कमोबेश यह प्रयास किया गया है कि पठनीयता बनी रहे और रोचकता का अंश अधिकाधिक रहे। सेलिब्रिटी टॉइप सामग्री और मात्र शहरी परिवेश से यह पत्रिका बची रहेगी। बच्चों की पत्रिका भी बच्चों की दुनिया में जो विविधता है, उसे छूएगी। ऐसा विश्वास है।
***
पायस: ऑनलाइन बाल पत्रिका
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-मनोहर चमोली ‘मनु’
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