9 अप्रैल 2013

किशोरियों ने कहा 'लड़की' ही बनना है


किशोरियों ने कहा 'लड़की' ही बनना है

-मनोहर चमोली ‘मनु’

हम और आप मानते हैं कि लिंग भेद धीरे-धीरे घट रहा है। लेकिन सचाई कुछ और है। यह भी मुमकिन हो कि हर बात को लिंग भेद से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। लेकिन फिर भी सूचना तकनीक के अति उपभोक्तावादी इस युग में यदि पंचानबे फीसद किशोरिया यें कहें कि वे अगले जनम में भी ‘लड़की’ ही बनना चाहती हंै तो आप चैंकेंगे जरूर। जी हां। 
यह किशोरियां ‘समाचार पत्रों में लेखन’ विषयक कार्यशाला में उत्तराखण्ड के गढ़वाल जनपद के सुदूर विकासखण्डों से बतौर सहभागी आई थीं। बतातें चलें कि यह किशोरियां कक्षा आठ से लेकर स्नातक में पढ़ने वाली थीं।
 
पहाड़ के पहाड़ी जीवन की जीवटता किसी से छिपी नहीं है। यहां सूरज के साथ-साथ घर के काम शुरू हो जाते हैं और रात के गहरा जाने तलक भी वे अनवरत् चलते रहते हैं। घर का हर सदस्य छोटा हो या बड़ा। अपनी क्षमतानुसार घर और बाहर के काम अपने हाथ में ले लेता है। सूचना तकनीक के साधन भी यहां पहुंच गए हैं। सिर पर घास का आदमकद बोझा भी है तो हाथ में मोबाइल भी। खेत में काम करती महिलाएं हों या मवेशियों को चराने जाती किशोरियां। हर हाथ में मोबाइल दिखाई देता है। घर में बिजली के उपकरणों के साथ-साथ मनोरंजन के सभी साधन और तरीके भी पहाड़ में पहुंच गए हैं।

एक दशक पहले घर आए स्वामी को मोटर मार्ग तक छोड़ने गए परिवार के सदस्य सिसकते हुए कहते थे-‘‘पहुंचते ही चिट्ठी लिखना। राजीखुशी देते रहना।’’ आज भी घर आए स्वामी को परिवार के सदस्य छोड़ने सड़क तलक आते हैं। लेकिन अब कहते हैं-‘‘पहुंचते ही फोन कर देना।’’
 
सोचा तो था कि तेजी से बदल रहे गांव की किशोरियां भी नए तरीके से सुविधाभोगी जीवन को आत्मसात् कर चुकी होंगी। तीन दिवसीय ‘समाचार लेखन’ कार्यशाला में किशोरियों ने उम्मीद से अधिक क्षमता का प्रदर्शन तो किया ही। तीसरे दिन जब उनसे पूछा गया कि कल्पना करें कि यदि दूसरा जन्म भी मिले और उन्हें यह विकल्प भी मिले कि लड़का बनना है या लड़की। तो वे क्या बनना चाहेंगी और क्यों?
 
सत्तर सहभागियों में मात्र तीन किशोरियों ने लिखा कि वे लड़का बनना चाहती हैं। सड़सठ किशोरियों ने सकारण सहित लिखा कि वे लड़की ही बनना चाहेंगी। लड़का बनने की चाह वाली तीन लड़कियों ने कारणों में यही लिखा था कि उन्हें वे सब करने की आजादी मिल सकेगी जो लड़की के रूप में नहीं मिल पाती। वे असीम ऊंचाईयों को छूने के लिए लड़का बनना चाहेंगी।

‘अगले जन्म में लड़की ही बनूंगी‘ के पक्ष में जो तर्क दिए गए थे, वे आज के युग में भी चैंकाने वाले हैं। एक बात और समझ में आई कि भले ही तथाकथित बुद्धिजीवी ये कहें कि लालन-पालन के समय लड़कियों की कंडीशनिंग ही ऐसी की जाती है कि वे अपने दायरे से बाहर नहीं सोच पाती। लेकिन यह दावा यहां खोखला नज़र आया। 

किशोरियों ने बेबाकी से अपने आस-पास के और अपने घर में भोगे गए जीवन के आधार पर लड़की बनना ही पसंद किया। यह पूछे जाने पर कि क्या लड़की के रूप में यह जन्म नाकाफी है? इस पर एक किशोरी ने कहा-‘‘यह जीवन तो लड़की आखिर है क्या। यह समझने में निकल जाएगा। दूसरे जीवन में लड़की क्या नहीं कर सकती। यह कर दिखाने का भरपूर मौका मिलेगा न।’’

बहरहाल सत्तर सहभागियों की सारी टिप्पणियों में कुछ सार रूप में यहां दी जा रही हैं। ये टिप्पणियां उन्होंने लड़की बनने के पक्ष में दी हैं।
अगले जन्म में 'लड़की 'ही बनना है।
  •   लड़की ही है जो दो-दो घर संभालती है। माता-पिता के लिए कुछ कर गुजरने के लिए लड़की ही बनना है।
  •   लड़के अधिकतर जीवन मस्ती में बिताते हैं। या फिर अपने लिए सोचते हैं। उन्हें परवाह नहीं होती कि मातापिता कैसे जी रहे हैं। परिवार के सदस्य कैसे रह रहे हैं। सो लड़की ही बनना है। लड़की रहकर हम परिवार के बनाते हैं और संभालते हैं।
  •   लड़की ही बनना है क्योंकि लड़की लड़के से हर क्षेत्र में बेहतर होती हैं। वे सुलझी हुई होती हैं। किसी को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहती। लड़कियां स्वार्थी नहीं होती।
  •   लड़की ही बनना है। इस जन्म में तो देख लिया है कि हम क्या क्या कर सकते हैं। यदि नहीं कर पाई तो अगला जन्म लेकर वे सब कर सकूंगी और दुनिया को दिखा दूंगी कि लड़की है तो जीवन है।
  •   लड़की ही है जो मां बन सकती है। लड़कों में मां बनने की क्षमता है ही नहीं। विज्ञान कुछ भी कर ले। सहनशीलता और धैर्य हम लड़कियों से कोई नहीं छीन सकता।
  •   लड़की का आभूषण लज्जा नहीं निर्माण है। वह विकास की सीढ़ी है। मैं लड़की ही बनूंगी।
  •   लड़की है तो यह कायनात है। हम रक्तबीज हैं। हमसे ही दुनिया है। हम दुनिया से नहीं हैं। यह बात लड़कों को समझनी चाहिए। हमारा सम्मान करना ही समाज का सम्मान करना है।
  •   लड़का बनने के पीछे क्या आधार हो सकता है। मौज-मस्ती। आराम। यदि हम लड़कियां घर से मजबूत हों तो हम भी वह सब कर सकते हैं जो लड़के कर सकते हैं। यह दुनिया हम सबकी है। लड़कों की कोई नई दुनिया नहीं है। सो मैं लड़की ही बनूंगी।
  •   घर को संवारना और बनाना हमें कुदरत से बतौर उपहार मिला है। यह हमसे कोई नहीं छीन सकता। हम घर और बाहर भी तरक्की करती हैं। हम ही हैं जिनकी वजह से पुरुष समाज दुनिया की सैर कर पाया है। यही कारण है कि मुझे लड़की ही बनना है।  ***

-मनोहर चमोली ‘मनु’. भिताईं,पौड़ी, पोस्ट बाॅक्स-23 पौड़ी,पौड़ी गढ़वाल। 246001 उत्तराखण्ड.


बुनियादी शिक्षा में बाल साहित्य की भूमिका

बुनियादी शिक्षा में बाल साहित्य की भूमिका

-मनोहर चमोली ‘मनु’

शैक्षिक जगत से जुड़ा हर संवेदनशील व्यक्ति परिचित है कि किसी भी बच्चे की पाठशाला का पहला दिन कोरा नहीं होता। वह न तो कोरी स्लेट-सा स्कूल आता है। वह कच्चा घड़ा-सा भी नहीं होता और न ही मिट्टी का लौंदा होता है। बच्चा स्वयं में अपना वजूद रखता है। ठीक वैसे ही जैसे हवा का,पानी का, सूरज का, आपका और हमारा वजूद है।
स्कूल के पहले दिन से पूर्व ही औसतन हर बच्चा लगभग चार से पांच हजार शब्दों से परिचित होता है। इन शब्दों की अपने अनुभव से जानी गई समझ और परिभाषा भी उसके पास होती है। वह अपने हम उम्र के कुछ परिचित-अपरिचित सहपाठियों और अपनी आयु से चार-आठ गुना आयु के शिक्षक की बात को आसानी से समझ भी लेता है। इतना सब होने के बावजूद हम उसे पहले ही दिन से लिखना-पढ़ना सिखाने लग जाते हैं। इससे अधिक हैरानी इस बात की है कि कमोबेश अधिकतर शिक्षक यह मान कर चलते हैं कि बच्चे कुछ नहीं जानते। कोरे हैं। अमूमन अधिकतर शिक्षक यह तर्क देते हैं कि बच्चा छोटा है। अपनी कक्षा की किताब ही पढ़ ले, वही बहुत है। बाल साहित्य और पाठ्य पुस्तक के महत्व और भिन्नता से पहले हम यह भी चर्चा कर लें कि जिस बच्चे को हम छोटा समझ रहे हैं, वह अपनी आयु के स्तर से औसतन कितना आकलन स्वयं कर लेता है। 
  • छह माह की आयु का बच्चा औसतन रंग बिरंगे चित्रों वाली किताब देखता है। वह चित्र को देखने की कोशिश करता है। लाल रंग उसे आकर्षित करता है। वह कागज-किताब को छूने का प्रयास करता है।
  • नौ माह की आयु का बच्चा सुनने की गतिविधि को गौर से देखता है। वह गौर से चेहरा देखता है। हर बात को सुनने की कोशिश करता है। यही वह समय है जब अभिभावक उसे यूं ही कुछ न कुछ पढ़ कर सुनाते रहें। वह सुनकर शब्दों को समझने की कोशिश करेगा। यह और बात है कि उससे प्रत्युत्तर की कोशिश नही की जानी चाहिए।
  •  एक साल की आयु का बच्चा किताब-अखबार को छीनने का सफल प्रयास करने लगता है। वह हर किताब-पन्ने-पत्रिकाएं अपनी मुट्ठी मंे कर लेना चाहता है। इस उम्र के बच्चे को छोटी-छोटी कहानियां पढ़ कर सुनाई जानी चाहिए। रंगीन चित्र दिखाने चाहिए। संभव है ऐसा करते समय पन्ने फट सकते हैं। वह फाड़ते समय आ रही ध्वनि से आनंद लेता है। आप पुराने अखबारों से भी यह गतिविधि उसके साथ कर सकते हैं।
  •  दो साल का बच्चा किताबें पसंद करने लगता है। यदि बड़े,स्पष्ट और रंगीन चित्र हैं तो वह इशारा करता है। टूटे-फूटे शब्दों में किताब मांगने की कोशिश करता है। उसे जोर-जोर से पढ़ कर कहानी-कविता सुनाई जानी चाहिए। बच्चे को किताबों से खेलने दीजिए। पुराने रंगीन अखबारों के चित्रों पर अंगुली से इशारा करते हुए बातचीत की जानी चाहिए।
  •  तीन वर्ष की आयु के बच्चे की क्रियाशीलता बढ़ जाती है। इस उम्र तक आते-आते बच्चा हर चीज को स्वयं जानने की कोशिश करने लगता है। वह हर चीज को छूना चाहता है। वह सुनकर हर बात को अपनी समझ से समझने की कोशिश करने लगता है। यही समय है, जब हम उसे छोटी-छोटी कहानियां कह कर सुनायें। पढ़कर सुनाये। गीत सुनायें। 
  •  चार साल की आयु का बच्चा तो बेहद तीव्रता से इस प्रकृति को, सूरज,चांद,तारों,जीव-जन्तुओं के प्रति जिज्ञासु हो जाता है। उसके पास इनसे संबंधित सैकड़ों प्रश्न होते हैं। उसे ऐसी किताबों से कुछ न कुछ पढ़ कर सुनायें, जिसमें रहस्य हो,रोमांच हो। उसकी कल्पना को और पंख लगें। अच्छे-अच्छे गीतों की ओर इशारा करें। सुनाये। गीतों की व्याख्या करें।
  •  पांच साल की आयु तक आते-आते बच्चा कहानियों को न सिर्फ सुनता है। बल्कि वह कहानियों पर अब प्रश्न करने लगता है। कहानी खत्म हो जाने के बाद उसके पास कहानी से जुड़े पात्रों से संबंधित ढेरों प्रश्न होते हैं। वह कभी खुश होता है तो कभी सोच में पड़ जाता है। उसकी उत्सुकता बढ़ने लगती है। वह बहुत कुछ सुनने,देखने ,जानने और सीखने की दिशा में आगे बढ़ने योग्य हो जाता है।                                                                आइए ज़रा सोचें कि क्या हम अभिभावक अथवा शिक्षक ऐसा करते हैं। क्या हम उपरोक्त वय वर्ग के बच्चों के साथ ऐसी गतिविधिया करते हैं? कमोबेश नहीं। दिलचस्प बात तो यह है कि अभिभावक भी और शिक्षक भी किसी भी आयु के बच्चे को कमतर ही समझते हैं। आखिर क्यों हम बच्चे को समाज का एक हिस्सा मानते हैं? उसे वही सम्मान क्यों नहीं देते, जिसका वह हकदार है। आखिर क्यों हम उसे ‘बच्चा है’ कहकर नजर अंदाज करते रहे हैं? यही कारण है कि बाल साहित्य तो दूर की बात है। हम वाचिक परंपरा का निबाह भी नहीं करते। हमें जो कहानियां-किस्से याद हैं। वह भी हम बच्चों से साझा नहीं करते।
हमें हर रोज उसे एक कहानी सुनानी चाहिए। कहानी में उसकी कल्पना बढ़ती है। वह कहानी सुनते-सुनते नये शब्दों से परिचित होगा। भाषा के निकट जाएगा। मौखिक कहानी सुनाने के बाद आप यह कह सकते है कि यह कहानी आपने किताब से पढ़ कर उसे सुनाई है। किताबों के प्रति बच्चे की रुचि स्वतः ही बढ़ेगी।

पाठ्य पुस्तकों में बाल साहित्य

बुनियादी स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों की पाठ्य पुस्तकों में साहित्य नहीं होता। यह कहना ठीक नहीं होगा। लेकिन यह सही है कि बाल साहित्य की मात्रा न्यून है। भाषा की जिन पुस्तकों में साहित्य है भी वह आयु वर्ग के स्तर से व्यवस्थित नहीं है। आज भी गढ़े हुए खजाने, राजा-रानी और परियों-राक्षस की कहानियां भी प्रचलन में हैं। जबकि आज का बालक इक्कीसवीं सदी का है। उसके खेल, उसकी दुनिया में बहुत सारी नई चीज़ें शामिल हो गई हैं। कल्पना का समावेश बाल साहित्य में बेहद जरूरी है। लेकिन कल्पना बाल मन में अनगढ़ छाप न छोड़े। इसका ध्यान रखा जाना जरूरी है। बाल साहित्य के नाम पर सीख और जबरन ठूंसे गए और आदर्शवाद के पाठ अधिक पिरोये गये मिलते हैं।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 के आलोक में मुझे भी पाठ्य पुस्तक निर्माण में कार्य करने का मौका मिला। बुनियादी स्कूलों के बच्चों की आयु को देखते हुए बहुत कम पाठ्य पुस्तकें हैं, जिनमें बाल मनोविज्ञान और बाल अभिरुचियों का ध्यान रखा गया है। इसके कई कारण है। उन कारणों पर चर्चा अलग से की जा सकती है। यहाँ इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि भाषा सीखने-सिखाने के मामले में प्राथमिक कक्षाओं में बाल साहित्य की दशा बेहद कमजोर है। हमारे शिक्षक भी कोर्स पूरा कराने की फिक्र में दिखाई पढ़ते हैं। भाषा का शिक्षक प्राय बाल पत्रिकाओं के नाम तक नहीं जानता। जो जानते हैं, उनका कहना है कि हां बचपन में पढ़ी थी। आज बाल साहित्य की दिशा क्या है? क्या-क्या लिखा जा रहा है। इन सवालों के उत्तर अधिकतर शिक्षकों के पास नहीं है।

बच्चे और बाल साहित्य

अक्सर कहा जाता है कि बच्चे का साहित्य से क्या लेना-देना? सही बात तो यही है साहित्य की पहली सीढ़ी बाल जीवन ही है। लोरियाँ क्या हैं? माँ का आँचल साहित्य में झांकने वाला सबसे पहला झरोखा है। स्कूल जाने से पहले ही बच्चे कहानी-किस्सा सुनने और गढ़ने में माहिर होते हैं। काश! कितना अच्छा होता कि बच्चे की पहली पुस्तक उसके घर और उसके बाल जीवन से जुड़ी होती। आयु के आधार पर उसकी पाठ्य पुस्तकें बनी होती। कक्षा के स्तर पर बनी पाठ्य पुस्तकें नई चिंतनदृष्टि से दूर क्यों है? यह विचारणीय प्रश्न है।
बच्चा तो स्कूल में पहले ही दिन अजब-गजब के संसार में पहुंच कर हैरान हो जाता है। बाल साहित्य में आयु के अनुरूप रचना सामग्री होती है। बहरहाल उपरोक्त पांच साल तक बच्चों की खासियतों को ध्यान में रखते हुए हम बाल साहित्य पर विमर्श करते हैं।
  •     बच्चांे के लिए लिखा गया साहित्य ही बाल साहित्य है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि उस साहित्य में बच्चों की दुनिया शामिल ही नहीं की जाए। सबसे पहली और अनिवार्य शर्त यही है कि वह जो कुछ भी सुने उसमें खुद को शामिल करने की कल्पना करे।
  •     बाल साहित्य कहीं न कहीं मनोरंजन करता हुआ उसे कल्पना की दुनिया की सैर कराता हुआ अप्रत्यक्ष रूप से उसे सामाजिक प्राणी के रूप में संस्कारित करने वाला तो अवश्य हो। हाँ! उपदेशात्मक और सीख सिखाने जैसी शैली कदापि न हो।
  •     बुनियादी कक्षा की पुस्तकों में चित्रात्मक कहानियां और कविताएं अधिक हों। पढ़ने के लिए सामग्री ज्यादा हो। यह कहानियां शिक्षक पढ़कर बच्चों को सुनाएं।
  •     लिखावट का काम सीखाने की जल्दी नहीं होनी चाहिए। बच्चे सुनना और बोलना दक्षताओं में पारंगत हों। पढ़ना और आखिर में लिखना पर काम हो। समस्या यह है कि भाषा की कक्षा ही सबसे ज्यादा उदासीन और बोझिल होती है। साहित्य तो दूर अधिकतर शिक्षक के चेहरे में तनाव और झुंझलाहट अधिक दिखाई देती है।
  •    भाषा के शिक्षक में यह दबाव नहीं होना चाहिए कि उसकी कक्षा में छात्र लिखना-पढ़ना नहीं सीख पा रहा है। पाठों के अभ्यासों में गतिविधियां अधिक हों। बुनियादी कक्षाओं में चित्राधारित,कविता और कहानी आधारित छोटे-छोटे पाठ हों। मौखिक सवाल-जवाब अधिक हों।
  •   देश-प्रेम जैसी अवधारणा बच्चे के लिए कठिन हैं बच्चे के लिए तो उसका घर-गांव, पड़ोस, दोस्ती ही उसका देश है। मस्ती,खेल,छोटी-छोटी गतिविधियां, रहस्य-रोमांच, फंतासी आधारित कहानियां सुना-सुना कर बच्चों में धैर्य,समझ,लगन और अपनी राय बनाने के योग्य बनाने की कसरत की जानी चाहिए।
  •    गेयबद्ध, तुकांत छोटी-छोटी कविताएं जिन्हें बच्चा सुनते-सुनते खुद भी बोलने लगे। अपनी कल्पनाओं में धीरे-धीरे वह खुद ही कविता में छिपे निहितार्थ समझ लेगा। रहस्यवादी और लंबी कविताएं बुनियादी कक्षाओं में होनी ही नहीं चाहिए।
  •     बाल साहित्य की सहायता से बच्चों के बीच हम उसके घर और परिवेश में जो बेहद भिन्नता नजर आती है, उसे कम कर सकते हैं। बाल साहित्य ही है जो पाठ्य पुस्तकों से इतर बच्चों को खेल-खेल में बहुत सारी अवधारणाओं के प्रति समझ बढ़ाने में सहायक होता है।
  •    बाल साहित्य ही वह सहायक सामग्री है जिसकी सहायता से बच्चे की मौखिक भाषा-शैली संवर सकती है। बच्चों में संवाद अदायगी का विस्तार हो सकता है। प्रश्न करने और खुद उत्तर देने की क्षमता विकसित की जा सकती है। बाल साहित्य के माध्यम से बच्चे कल्पना लोक में जाते हैं। वे निष्कर्ष और विश्लेषण करना सीखते हैं।
  •     यही नहीं कहानी सुनकर वह धीरे-धीरे पुस्तकों के प्रति प्रेम करने लगते हैं। पाठ्य पुस्तकों के पन्ने उलटने लगते हैं। पुस्तक के चित्रों और पाठों को देख-देख कर पढ़ने की ओर उन्मुख होने लगते हैं।
  •     बाल साहित्य विशेषकर कहानी और कविता बच्चों को अनौपचारिक रूप से मात्र मनोरंजन नहीं करती। वह बच्चों में सजगता, आत्मविश्वास, गतिशीलता,सृजनशीलता बढ़ाती है। कहानी के सशक्त पात्रों के माध्यम से वह मानवीय गुणों को आत्मसात् करते हैं और बगैर उपदेश और आज्ञा के बिना अच्छे-बुरे की समझ विकसित कर लेते हैं। 
  •     बाल सािहत्य के चलते बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण स्थापित किया जा सकता है। भाग्यवाद से उन्हें दूर रखा जा सकता है। बच्चों को नयेपन की अनुभूति होती है। साल भर कुछ पाठ्य पुस्तकों को उलट-पलट कर बच्चा उदासीन हो जाता है। पाठ्य पुस्तकों से हट कर बाल साहित्य उनमें कल्पना जगाने का धारदार हथियार है।

कैसा हो बाल साहित्य

    प्राथमिक कक्षाओं के लिए विशेष बाल साहित्य की आवश्यकता है। यह आवश्यकता उसकी पाट्य पुस्तकें पूरी नहीं करतीं। किसी भी राज्य की पुस्तकें तेजी से बदल रही बच्चों की दुनिया के अनुरूप तैयार नहीं की जाती। वर्तमान समय के जीवन-मूल्य, संदर्भ, आदर्श, तोर-तरीके,विषमताएं पाठ्य पुस्तकों का हिस्सा नहीं हो पाती। यह सब बाल साहित्य के जरिए ही बच्चों के सामने आ सकता है। पाठ्य पुस्तकें आज भी पुरातन सोच और दिशा का त्याग नहीं कर पाई है। जबकि बच्चों की दुनिया का हर पहलू बहुत तेजी से बदल चुका है। यह सब बाल साहित्य के माध्यम से रेखांकित हो सकता है। बहुत ही कम पाठ्य पुस्तकें हैं, जो बाल मनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए तैयार की जाती हैं। चित्रों के पात्र और बिंब भी अत्याधुनिकता से पाठ्यपुस्तकों में नहीं होते। यह काम बाल साहित्य के पत्र-पत्रिकाएं बखूबी कर सकती हैं।
बच्चों की आयु को ध्यान में रखते हुए हमें बाल साहित्य का चुनाव करना होगा। जैसा कि पहले भी कहा गया है कि शुरूआती कक्षाओं के बच्चों के लिए कविताएं और छोटी-छोटी कहानियां ही शामिल की जानी चाहिए। वह भी अधिकतर मौखिक वाचन के रूप में ही। इसमें शिक्षक को बेहद सक्रिय होना होगा। उसे पढ़कर सुनाना होगा। बच्चे सिर्फ श्रोता के रूप में हिस्सेदारी निभाएंगे। धीरे-धीरे उनका लगाव बाल साहित्य को छूने,उलटने-पलटने से शुरू होकर पढ़ने की ओर भी उन्मुख होगा। शिक्षक के धैर्य की असली परीक्षा यही है कि वह कैसे बाल साहित्य की ओर बच्चों को लाये। यह हुआ तो बच्चे पाठ्य पुस्तकों से भी प्रेम करना सीख जाएंगे। फिर भी कहानी-कविता का चुनाव करते समय हम कुछ बातों का ध्यान अवश्य रखें। कुछ प्रमुख बातें निम्न हो सकती हैं।
  •  बाल साहित्य सामग्री रोचक हो।
  •  संभव हो तो उस पर चित्र बनाया जा सके। बच्चों को सुनाते समय भाषा शैली सरल हो।
  •  संवाद शैली का ही अधिकाधिक प्रयोग करें।
  • रचना साम्रगी वैज्ञानिक दृष्टिकोण स्थापित करे न कि अंधविश्वास और भाग्यवाद पर आस्था जगाए।
  • रचना सामग्री में बच्चों के परिवेश को समुचित स्थान मिले। 
  • लोक जीवन, मूल्यपरक, सामाजिक मूल्यों के साथ तार्किकता जगाने वाली सामग्री बच्चों को अवश्य भाती है।
  • मनोरंजन बाल साहित्य की अनिवार्य शर्त है। अन्यथा बच्चे कुछ ही दिन में कहानी-कविता सुनने के प्रति उदासीन हो जाएंगे।
  • बाल साहित्य प्रस्तुत करते समय यह भी जरूरी है कि बच्चों को बीच में बोलने-प्रतिभाग करने का अवसर भी दिया जाए। अंत में यह कदापि न पूछा जाए कि बच्चों इससे आपको क्या शिक्षा मिलती है। उपदेशात्मक अंत कदापि न हो। इससे अच्छा यह होगा कि हम कहानी-कविता कैसी लगी? यह पूछें। पात्रों-घटनाओं की चर्चा करें। यदि ऐसा होता तो कैसा होता? इन प्रश्नों से बच्चों की प्रतिक्रियाएं आने दें।
  •  रचना सामग्री बच्चों के मानसिक स्तर के अनुरूप हों। कहीं न कहीं बाल साहित्य बच्चों की पाठ्यपुस्तकों के संबोधों से जोड़े जाने की सामथ्र्य रखता हो।

यह कहना गलत नहीं होगा कि मानव एक सामाजिक प्राणी है। उसे सामाजिक संबंध,सुख-दुख,हंसी-खुशी और हर्ष-विषाद प्रभावित करते हैं। बच्चे भी भविष्य में संवेदनशील प्राणी बन सकें, इसमें स्वस्थ साहित्य महती भूमिका निभाता है। इसकी उपेक्षा देश के लिए ही नहीं विश्व के लिए घातक होती है। ...

-मनोहर चमोली ‘मनु’.पोस्ट बाॅक्स-23,भिताई,पौड़ी, पौड़ी गढ़वाल 246001

7 अप्रैल 2013

बचपन छीन कर क्या हासिल होगा?

बचपन छीन कर क्या हासिल होगा?

इन दिनों जरा सुबह जल्दी उठिये और सड़क पर आइए। आपको नन्हें-मुन्ने बच्चे चुपचाप कांधे में स्कूल बैग ढोते मिल जाएंगे। आप सोच सकते हैं कि स्कूल जाने का नया सत्र है। बच्चों को नई किताबें मिली हैं। नई यूनिफार्म-नये जूते मिलें हैं। बच्चे नये दोस्तों से मुलाकात करेंगे। इसमें नया क्या है। बच्चों का परिचय जो होने जा रहा है।

मुझे तो इन बच्चों पर तरस आता है। खासकर नन्हें-मुन्ने बच्चे सवा दो साल से लेकर चार साल के बच्चों को देखकर। कुछ बच्चे तो उनींदी आंखों के साथ अस्वाभाविक चाल के साथ कदम बढ़ाते हुए आपको मिल जाएंगे। सोचता हूं कि क्या वाकई हम बच्चों का भविष्य बना रहे हैं? पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि हम बड़े बच्चों के बचपन का गला घोंट रहे हैं। दो से चार साल का बच्चा जिसे मीठे-मीठे सपनों में व्यस्त होना चाहिए था। उसे जबरन-झकझोर कर, अप्राकृतिक-सा दुलार देकर हर रोज उठाया जाता है। कोमल मन में, विकसित हो रहे मस्तिष्क में क्या प्रभाव पड़ता होगा? 

मुझे नहीं पता। मुझे तो इतना पता है कि नन्ही उम्र में स्कूल जाने का दबाव जिंदगी भर रहता होगा। नर्सरी, लोअर केजी, अपर केजी मुझे तो ठीक से इनका क्रम भी याद नहीं है। हम तो सीधे पहली कक्षा में भर्ती हुए थे। सोचता हूं कि क्या आज के बच्चे अपना बचपन भरपूर जी पाते हैं? स्कूल से घर ज्यादा दूर नहीं है। सहपाठियों से हंसी-ठिठोली ही क्या हो पाती होगी। फिर इन बच्चों की अंगुली पकड़े मम्मी-पापा,दादा-दादी और कहीं-कहीं तो नाना-नानी या मामा तक उन्हें नज़रबंद की सी अवस्था में स्कूल ले जाते हैं।

यह अति सतर्कता है या कुछ और? मैं सोचता हूं कि यदि स्कूल की अवधारणा इतनी प्यारी होती तो ये नन्हें-मुन्ने कभी यह नहीं कहते कि पापा सन्डे कब आएगा? ये सन्डे देर से क्यों आता है? स्कूल इतनी सुबह क्यों लगते हैं। स्कूल की छुट्टी का घंटा जल्दी क्यों नहीं लगता? ये ऐसे सवाल हैं जो यह तो पुष्ट करते हैं कि स्कूल बच्चों के लिए घर जैसा नहीं है। मैं उसे जेल तो नहीं कहूंगा। मैं स्कूल को कांजी हाउस भी नहीं कहता। लेकिन स्कूल बचपन को खिलने देने की जगह तो कतई नहीं है। स्कूल इन नन्हें-मुन्ने बच्चों को प्यार-दुलार देने का स्थल तो कतई नहीं है।

मैं खुद नहीं समझ पा रहा हूं कि आखिर हम बच्चों को वो भी बहुत ही कच्ची अवस्था में स्कूल भेजने पर आमादा क्यों हैं? स्कूल जाने की सही उम्र क्या है? यह बहस का विषय हो सकता है। लेकिन बहुत कच्ची उम्र में भेजने के लाभ से ज्यादा मुझे नुकसान अधिक दिखाई देते हैं।

क्या स्कूल बच्चों को तमीज और तहजीब सिखाते हैं? क्या उन्हें ठीक से उठना-बैठना सिखाते हैं? क्या उन्हें जीवन की पढ़ाई सिखाते हैं? यदि आप ऐसा मानते हैं तो फिर घर क्या करता है? मम्मी-पापा का काम क्या है? चलिए मान लेते है कि यदि मम्मी-पापा कामकाजी हैं तो बात संभवतः दूसरी हो सकती है। लेकिन ये कच्ची उम्र के सभी बच्चों के माता-पिता कामकाजी हों, मुझे इसमें संशय है।

चलिए मान लेते हैं कि स्कूल का दर्जा और शिक्षकों का स्तर घर और माता-पिता से अधिक ऊंचा होगा। यदि मान लेते हैं। तो फिर अधिकतर बच्चे खुशी-खुशी स्कूल क्यों नहीं जाते? इन नन्हें-मुन्नों से बार-बार यह कहना कि जो बच्चे स्कूल जाते हैं वह बड़ा आदमी बनते हैं। तुम्हें रिस्पांसेबिल बनना है। स्कूल में ठीक से रहना है। शैतानी नहीं करना है। इसका दूसरा पक्ष यह है कि घर में यह सब नहीं होता। नन्हें-मुन्ने बच्चे गैर जिम्मेदार होते हैं? घर में ठीक से नहीं रहते? घर में शैतानी करते हैं? इतने नन्हें बच्चों से कहना कि अच्छे माक्र्स लाने हैं। यदि ऐसा करोगे तो तुम्हारे लिए चिज्जी लाएंगे। तुम्हें ये देंगे वो देंगे। ये प्रोत्साहन है या प्रलोभन?

अब आते हैं कि कच्ची उम्र में भेजने से मुझे क्या डर सता रहे हैं। 
  • मुझे लगता है कि अधिकतर मामलों में ये नन्हें-मुन्ने बच्चे दबाव सहने के नहीं दबाव में रहने के आदि हो जाते हैं। जो नन्हें बच्चे सात दिन में छह दिन दबाव में रहेगा उसका समग्र विकास कैसे संभव है।
  • पूरी नींद न ले पाने से बच्चे का स्वभाव अधिकतर चिड़चिड़ा हो जाता है।
  •  बचपन की अवस्था की मस्ती,उल्लास,छुटपना-बचपना, नटखटपन ये कुछ मानवीय संवेग हैं जो उम्र पार करने के बाद छूट जाते हैं। बचपन को जीने वाला बच्चा और बचपन से छलांग लगाने वाला बच्चा, दोनों के स्वभाव में क्या अंतर रहता होंगा, कहने की आवश्यकता नहीं है।
  • इतने नन्हें बच्चों को खेलने का अवसर स्कूल नहीं देता। इस अवस्था में जो शारीरिक विकास घर में खेलने-पड़ोस में आने-जाने वो भी बगैर दबाव रहित होता है से इतर स्कूल में शरीर को एक सीट पर कैद कर देने से नहीं होता। बच्चें में आत्मविश्वास कम हो जाता है। मैं कर सकता हूं। मैं कर सकती हूं। यह भावना को तौलने का हुनर कम रहता है।
  • स्कूल साल भर एक ही ढर्रे पर चलता है। शीतकालीन और ग्रीष्मकालीन अवकाश के प्रति बच्चे कितने उत्साहित रहते हैं। यह किसी से कहां छिपा है। स्कूल का नीरस और एक ही तरह का ढर्रा बच्चें की रचनात्मकता छीन लेता है। वह भी जीवन जीने का एक ही ढब बना लेता है।
  •  जिन बच्चांे का बचपन हम छीन लेते हैं। वे बच्चे जीवन में कुछ भी बन जाएं। लेकिन वे जीवन में कई बार जोखिम उठाने वाला कदम नहीं उठा पाते। कारण? कारण साफ है कि बचपन के वे खेल जिनमें जोखिम उठाना,कौशल विकासित करना,चुनौतियों का सामना करने का मकसद होता है, उन खेलों को बच्चे भूल गए हैं। काश! स्कूल में एक पीरियड बच्चों को कुछ भी कर लेने की छूट देता हो। कुछ भी करने का मतलब वे बैठे रहे या खेलें या बातें करें आदि-आदि।
  • घर संवेदनाओं और भावनाओं का घरौंदा है। घरौंदा इसलिए कि वहा हर रोज कुछ न कुछ घटता है। कभी कोई बीमार होता है तो कभी कोई। मेहमान आते-जाते हैं। घर के सदस्यों मंे जो आत्मीयता होती है,बच्चे उसे महसूस करते हैं। घर में प्रेम,सद्भाव एक दूसरे की परवाह करना होता है। घर में दुख के क्षणों में दुखी होना होता है। सुख के क्षणों में हंसना होता है। घर में बहुत कुछ होता है जो स्कूल में होता ही नहीं। घर में स्वाभाविकता होती है। ये सब बच्चा कब सीखता है? कब जानता है? कब महसूस करता है? बचपन में ही तो। वही बचपन हमने बच्चे के स्कूल बैग में स्कूल भेज दिया है।
  •  मैं अपने छोटे से अनुभव के साथ कह सकता हूं कि आज के बच्चे अकादमिक अव्वल हो सकते हैं। अच्छी जाॅब पा सकते हैं। आराम तलब वाली जिंदगी जी सकते हैं। लेकिन भावनाओं के स्तर पर वे एकाकी हो जाते हैं। उन्हें बड़े होकर बड़े खलने लगते हैं। वे संवादहीन हो जाते हैं। वे उम्र दराज घर के सदस्यों से आत्मीयता नहीं रख पाते। वे न तो दुख जाहिर कर पाते हैं और न ही अपने आनंद में दूसरों को-अपनो को शामिल करना जानते हैं। 
  •  ऐसा बहुत कुछ ये बच्चे बड़ा होकर करने लगते हैं, जो इन्हें नहीं करना चाहते। फिर इन बच्चों के बड़े उन पर झल्लाते हैं। खुद को कोसते हैं। क्यों? मुझे लगता है कि इन सबके पीछे एक ही कारण है, हम कथित बड़ों ने उनका बचपन उनसे छीना है। उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप वे हमसे अपनापन छीनेंगे ही।
  •  यह आलेख आपको डराने के लिए नहीं है। विचार करने के लिए है। यदि बच्चों को उम्र से पहले स्कूल भेजना वाकई जरूरी है तो हम इतना तो कर सकते हैं कि महीने में चार रविवार और कुल जमा साल में बावन रविवार इन नन्हें-मुन्ने बच्चों को उनका बचपन जी भर के जी लेने दें। 
  • और हां। एक बात और, उनके साथ खुद का बचपन भी थोड़ा दोबारा जी लें। बचपन को बचाइए दोस्तों। बचपन की हत्या मत कीजिए।

6 अप्रैल 2013

ये शिक्षा कहाँ ले जाएगी?

ये शिक्षा कहाँ ले जाएगी?

-मनोहर चमोली ‘मनु’

मेरे सहयोगी शिक्षक ने मुझसे कहा-‘‘घर खाली-खाली सा नज़र आ रहा है। कल मैंने घर में रखी किताबें कबाड़ी को बेच दीं। कबाड़ी को सात फेरों मंे वे किताबें ले जानी पड़ीं। पत्नी तो कब से इस कूड़े को हटाने की ज़िद कर रही थी। किताबों से हुई खाली जगह में आसानी से सोफा सेट, कुर्सियां, कूलर, फ्रिज, टी.वी. और वाशिंग मशीन फिट आ गए हैं। फिर भी जगह बच गई है।’’
अध्ययनशील साथी की ये बात चैंकाने वाली थी। वह बोला-‘‘इतनी सारी पत्रिकाएं डाक से मंगाता था। अब इनकी जरूरत ही क्या है। सब कुछ इंटरनेट पर है। एक क्लिक करो और वांछित जानकारी स्क्रीन पर पाओ। धीरे-धीरे सारी पत्रिकाएं इंटरनेट पर आ ही जाएंगी। अखबार इंटरनेट पर हैं। क्या नहीं है इंटरनेट पर? अब घर पर किताबों-पत्र-पत्रिकाओं का ढेर रखना मूर्खता है। ये तो कूड़ा जमा करना हुआ।’’
साथी की ये बात समय की दरकार के साथ शायद ठीक थी। लेकिन पता नहीं क्यों मुझे जंची नहीं। फिर मैंने खुद को टटोला। अभी एक दशक पहले ही तो मैं भी कई पत्रिकाओं का और किताबों का दीवाना था। लेकिन धीरे-धीेरे मैंने भी तो पत्रिकाएं और किताब खरीदना बंद कर दिया। ये ओर बात है कि पढ़ने की ललक तो नहीं छूटी। तो साथी शिक्षक की बात मुझे अखरी क्यों?
यह बात मेरे आस-पास ही घूमती रही। विचार किया तो फिर से जाना कि मेरे पास भी तो सैकड़ों किताबें हैं। कुछ किताबें तो वर्षों पुरानी हैं। ऐसी कई किताबें हैं जिन्हें मैंने सालों से टटोला तक नहीं। तो क्या वाकई ये किताबें घर में आज कूड़ा हो गई हैं?
कई दिनों तक ये बात मुझे परेशान करती रही। फिर मैंने अपना ध्यान इस बात से हटाने में ही भलाई समझी। बात आई-गई हो गई।
फिर एक दिन वही साथी शिक्षक झल्लाते हुए बोला-‘‘हद हो गई। ये पब्लिक स्कूल भी न जाने बच्चों को क्या शिक्षा दे रहे हैं। आए दिन प्रोजेक्ट-प्रोजेक्ट चिल्लाते रहते हैं। बच्चों के साथ मेरा तो दिमाग ही खराब हो गया है। आए दिन कुछ न कुछ एक्टीविटी कराते रहते हैं। कुछ न कुछ डिमांड करते रहते हैं।’’
मैंने कहा-‘‘अच्छा तो है। बच्चे हरफनमौला बनेंगे। हर एक्टीविटी में अव्वल आएंगे। इसमें परेशानी वाली क्या बात है?’’
साथी शिक्षक बोला-‘‘हम शिक्षक हैं न? हमारा काम बच्चों को पढ़ाना है या उन्हें और उनके मातापिता को कुली बनाना है? अनाप-शनाप होमवर्क देना, वर्कबुक पर काम कराने का क्या तुक है? प्रोजेक्ट पर प्रोजेक्ट बनाने से बच्चे क्या सीख रहे है? स्कूली फंक्शन के नाम पर बच्चों से बेमकसद की खरीदारी करवाने से कौन सी पढ़ाई होती है?’’
उसने बताया कि उसके बच्चे जिस पब्लिक स्कूल में पढ़ते हैं, वहां के हर टीचर विषय में आए दिन प्रोजेक्ट बनवाते हैं। वह प्रोजेक्ट स्कूल में बने या शिक्षक के सहयोग से बने तो बात समझ में आती है। लेकिन घर से बनाकर या बाजार से खरीदकर लाने वाले प्रोजेक्ट से बच्चा क्या सीखेगा? वह भी इस तरह की लत बनाकर कि गूगल में सर्च करो और वहां से डाउनलोड करो फिर अपना प्रोजेक्ट बनाकर स्कूल में लाओ। फिर उनमें बेहतर प्रोजेक्टस को ‘फस्र्ट-सेकण्ड-थर्ड’ का नाम देकर अन्य बच्चों को हतोत्साहित करो। क्या ये है पढ़ाई? यह सब बातें मुझे भी परेशान करने लगी। 
हम सभी साथी बहस में शामिल हुए। अंत में यही निष्कर्ष निकला कि शिक्षक और स्कूल अपने नैतिक और मूल दायित्व से पीछे हट रहे हैं। सूचना और तकनीक का हवाला देकर बच्चों को पहले से परोसी गई जानकारी को कट-पेस्ट कर परोसने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। घर में माता-पिता और बड़े भाई-बहिनों की ऊर्जा भी ऐसे प्रोजेक्ट बनाने में खप रही है। अधिकतर अभिभावकों को लगता है कि ऐसे में बच्चे खुद करके सीख रहे हैं। लेकिन यह तसवीर का आधा और एक पक्षीय पहलू है।
अधिकतर स्कूलों में आज पढ़ाई की अवधारणा ही बदल रही है। परीक्षा में अधिकतम स्कोर करना ही पढ़ाई का मूल मकसद बन गया है। सारा ढांचा ऐसी गतिविधियों में लिप्त दिखाई देता है। व्यावहारिक शिक्षा और समग्र शिक्षा की कोई बात नहीं करता। परीक्षा की पद्वति भी ऐसी बन गई है कि पहले तीन पाठ पढ़िए उनकी परीक्षा दीजिए और उन्हें भूल जाइए। फिर आगे के तीन पाठ पढ़िए,उनकी परीक्षा दीजिए और फिर उन्हें भी भूल जाइए। एक कक्षा के बाद दूसरी कक्षा में जाइए और फिर पहली कक्षा का किया-धरा भूल जाइए। ऐसा कैसे हो सकता है? यह सवाल उठना लाजिमी है। लेकिन खुद व्यवहार में आप किसी भी बच्चे से उसका पूर्व ज्ञान का आकलन करेंगे तो यही पाएंगे। डीजिटल घड़ियां आने से बच्चे पारंपरिक घड़ी में समय देखना नहीं जानते। मौसम के बदलावों की उन्हें जानकारी तक नहीं है। फसल चक्र और अनाज व उनके बीजों की पहचान तो गंवई मानसिकता का प्रतीक हो गए हैं।
बच्चे की बुद्धि का ऐसा विकास क्या समाज के लिए लाभदायक है। बच्चों में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के बदले एक दूसरे को पटखनी देने की मानसिकता ज्यादा प्रबल हो रही है। किताबों को उलटना-पलटना और उनके अक्षरों को साक्षात छूकर महसूस करना अलग बात थी। लेकिन गूगल पर सर्च कर उसे भाषा में कन्वर्ट कर उतार लेना समझ बनाता हो। मैं नहीं मानता। तकनीक हमारे काम को सरल करे तो उसका स्वागत कौन नहीं करेगा। लेकिन यदि कोई तकनीक हमें पंगु बना दे। हमारी बुद्धि को कुंद कर दे, तो सवाल खड़े होने स्वाभाविक ही हैं।  

इक्कीसवीं सदी की खूबियों का डंका हम खूब बजा रहे हैं। सूचना-तकनीक की सदी जो है। दुनिया एक गांव जो हो गई है। संचार सुविधाएं पलक झपकते ही हमें दुनिया के एक छोर से दूसरे छोर की खबरें जो दे रही हैं। इस युग का बच्चा पैदाइशी मेधावी जो दिखाई दे रहा है। उपभोक्तावादी संस्कृति ने रसोई क्या और स्नानागार क्या? बूढ़े क्या और बच्चे क्या? हर किसी को वस्तुओं और सेवाओं का इतना दीवाना बना दिया है कि हम बाजार के उत्पादों के इशारे पर उठ रहे हैं और जैसे उसी के इशारे पर सो रहे हैं।
बात यहां तक तो पचाई जा सकती है। लेकिन इतना काफी नहीं है। इस सदी का दूसरा दशक तो लंबी छलांग लगाने पर उतारू है। हमारे-आपके बच्चों का एक क्लिक करने का जो नशा छा रहा है। ये न जाने कहां तक ले जाएगा। इंटरनेट ने हमें एक क्लिक करने से भर से जो सुविधाएं मुहैया कराई हैं। उस पर अंगुली नहीं उठाई जा रही है। मेल से सारी सूचनाएं जो इधर-उधर पलक झपकते पहुंच रही हैं। इस सुविधा का विरोध नहीं हो रहा है। चिंता तो सिर्फ इस बात की है कि बच्चों में इंटरनेट का नशा हो या विवशता। यह ऐसे धीमे जहर के रूप में दिमाग को कुंद कर रहा है कि एक समय ऐसा आएगा जब दिमाग कल की बातों-मुलाकातों को भी अपनी याददाश्त से बाहर करता हुआ नज़र आएगा।
आज आम बातचीत में कोई जिज्ञास या सवाल उठाने पर दूसरा कहता है-‘‘गूगल पर सर्च करो न।’’ सर्च करो तो यह बात नहीं कि संबंधित पहलू पर कुछ मिलता ही न हो। लेकिन कई बार इतने सारे लिंक क्लिक करने पर भी आप उस बात को नहीं ढूंढ-खोज पाते जो असल में आपको परेशान कर रही है। फिर लगता है कि अपने किताबी संग्रह में ढूंढते तो अब तक जिज्ञास शांत हो जाती।
अब फिर स्कूली शिक्षा पर आते हैं। रटना कभी सीखना नहीं होता। इसका हम भी विरोध करते हैं कि रटने की पद्वति की वकालत की जाए। लेकिन किसी प्रकरण को सवाल को या समस्या को ठीक से समझना और समझकर उसे अपने जीवन से जोड़ते हुए अपने व्यावहारिक जीवन में आत्मसात् करने के लिए स्थाई करना तो शिक्षा का उद्देश्य होना ही चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। समझ बनाने,करके सीखने और देख-परख कर,सुनकर,समझकर और अवलोकन कर विषयगत अध्ययन करना अलग बात है और डिजीटल रूप में अंतरजाल पर है और उसे काॅपी कर उतार लेना दूसरी बात है।
अब और पीछे जाएं तो यह सवाल भी उठता है कि मानव जीवन बिना किताबों के भी तो था। आने वाले समय में जब सब कुछ डिजीटल हो जाएगा। कागजी सामान बचेगा ही नहीं। तो क्या भावी पीढ़ी का जीना मुश्किल हो जाएगा? नहीं। जीवन चलेगा। लेकिन जो ठोस तरीका अपनाया जाना चाहिए, उस ओर किसी का ध्यान कमोबेश कम ही है। किताबों की जगह डिजीटल किताबों ने ले ली है। चिट्ठी-पत्री की जगह ई-मेल ने ले ली है। युग परिवर्तन है। लेकिन डिजीटल किताबों को पढना तो होगा न? ई-मेल भेजने के लिए लिखना तो होगा न? हाथ का लेखन की-बोर्ड पर चलने वाली अंगुलियों ने ले ली है। लेकिन समझ ने साथ नहीं छोड़ा है। समझ विकसित करने और संवाद के लिए शब्द सामथ्र्य नहीं बदली। लेकिन आज के स्कूल संवाद की जगह रख रहे हैं। बच्चों का शब्द सामथ्र्य बढ़ा रहे हैं? इसमें संशय है। यह मुद्दा व्यापक बहस की गुंजाइश तो रखता है। आप क्या कहते हैं?

4 अप्रैल 2013

दो प्रेरक कहानियां अब मराठी में भी.

दो प्रेरक कहानियां अब मराठी में भी.

मेरी कहानी कंचन का पेड़ का मराठी में अनुवाद

मेरी कहानी कंचन का पेड़ का मराठी में अनुवाद
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अब आप मराठी में भी पढ सकते हैं मेरी कुछ बाल कहानियां --'असा जिंकला उंदीर'

अब आप मराठी में भी पढ सकते हैं मेरी कुछ बाल कहानियां --'असा जिंकला उंदीर'