10 अक्तू॰ 2014

करवा-चौथ के बारे में कुछ बातें और कुछ सवाल

करवा-चौथ के बारे में कुछ बातें और कुछ सवाल

आज करवा है। पूरी दुनिया की पत्नियां इस व्रत को क्यों नहीं रखती यदि यह पति की जीवन रक्षा का सबसे बड़ा मसअला है? क्या वे पत्नियां जिन्होंने यह व्रत रखा है, विधवा नहीं होती। यानि पत्नी पहले मरती है और पति बाद में? माने यदि पत्नियां अपने पति की दीर्घायु के लिए यह व्रत रखती है तो पत्नी अल्पायु होनी चाहिए। लेकिन मेरे छोटे से अनुभव के आधार पर मैं आज भी देखता हूं कि यदि आकस्मिक घटनाएं न घटे तो अमूमन पति पहले मरते हुए देखे हैं। कारण कई हैं। मसलन वह अधिकतर व्यसनी होते हैं। अधिकतर उम्र में पत्नी से 3 से 10 साल बड़े हैं। सो.....।
 
इसका मतलब यह नहीं कि मैं पति या पत्नी विरोधी हूं। मैं तो इस पांेगापंथी विशुद्ध व्यावसायिक त्योहार के समर्थक नहीं हो सकता। वैसे अभी तक इस प्रकार की पड़ताल नहीं हुई है कि हमारे आस-पास जितनी भी विधवाएं हैं, क्या वह इस त्योहार की समर्थक नहीं थी, यदि वे भी करवा रखती तो विधवा न होती?
 
अब बात करते हैं कि साल में एक दिन पति के लिए इस तरह का पाखंड क्यों करवाया जाता है। यह भी कि कोई पत्नी क्यों कर व्रत रखे। अब व्रत रखने के वैज्ञानिक पक्ष पर बात करें। आयुर्वेद हमेशा अल्पाहारी की वकालत करता है। यह भी कि यदि रात को भोजन न भी करें तो चलेगा। भारतीयों में कई जाति-समुदाय आज भी ऐसे हैं कि सूर्यास्त से पहले भोजन  कर लेते हैं। पशु-पक्षियों को देखें तो पता चलता है कि वे भी अमूमन अपने नीड़ में जाने के उपरांत यानि अंधेरा होने के बाद कुछ नहीं खाते। खैर..........
 
फिर यह भी कि धर्म और आस्था की आड़ में पत्नियों को ही ऐसे प्रपंचों का शिकार क्यों कर बनाया जाता है। मेरे कई मित्र हैं, कई मामलों में पति धर्म का पूर्णतः निबाह नहीं करते लेकिन आज के दिन सुबह नहा-धोकर मंदिर जाकर और टीका-तिलक लगाकर अभिभूत हैं। यही नहीं आज चांद के दिखाई देने तलक पत्नी धर्म निबाहने के लिए सीना चैड़ा किए हुए है। उस पर तुर्रा यह कि- ‘‘क्या करें यार जल में रहकर मगर से बैर करना कहां की समझदारी है।’’ 

यह सुर 24 घंटे से अधिक क्यों नहीं रहता। आज के बाद फिर वही तानाशाही रवैया। मैं चाहे जो करूं मेरी मर्जी वाला व्यवहार? क्यों?
कुछ हैं जो आज पत्नी के साथ खुद भी व्रत रखते हैं। लेकिन आज के बाद फिर कोई व्रत नहीं। यह भी कि पत्नी साल में और भी व्रत रख रही है तो पलट कर नहीं पूछते कि क्यों भई ये व्रत किसलिए? उन्हें लगता है कि व्रत रखने से पत्नी स्वस्थ रहेगी। तो भैया तुम व्रत न रखने से स्वस्थ कैसे रह सकते हो?
 
कुछ मित्र कहते हैं कि यार दुनिया को समझा लो। लेकिन पत्नी के समझाना भैंस के आगे बीन बजाना है। ये क्या है? यह महिला विरोधी सोच नहीं है?
 
कह सकते हैं कि समाज पुरुषवादी है। लेकिन कुछ तो ऐसे हों जो इस मामले में साम्यवादी दिखाई दें। पत्नी की परवाह करते दिखाई दें। कहते सब हैं। लेकिन परवाह करते कम ही दिखाई देते हैं। घर में दादा-दादी हैं। ननद है। देवर है। बच्चे हैं। सब बीमार पड़ गए तो चलेगा। पत्नी बीमार हो गई तो जैसे नरकीय जीवन हो गया। पत्नी कुछ दिनों के लिए कहीं चली गई तो खाना-पीना हराम हो जाता है। घर कबाड़खाना बन जाता है। अरे भई यह कौन नहीं जानता? 

तो फिर कुछ ऐसा करें कि इस पोंगापंथी दकियानूसी विचारधारा से खुद भी हटें और पत्नी को भी हटाएं। बैठकर सोचे और वैज्ञानिक नज़रिए से आज की आपाधापी और मंहगाई से भरे दौर में हर त्योहार,दिखावे और जीवन शैली को बदलें। देखादेखी न करें। पड़ोसी के परदे बदले गए हैं तो मेरे भी बदले जाएंगे। पड़ोसी सप्ताह में एक बार होटल में खाना खाते हैं तो हम भी खाएंगे। यह क्या बात हुई?

याद आया इस समाज में किन्नर भी तो हैं। उन्हें किसकी जीवन रक्षा की चिंता होनी चाहिए? आजीवन कुंवारा और कुंवारी रहने वाले भी तो हैं? वे क्यों नहीं किसी के जीवन के प्रति जवाबदेह हैं? बहुत विधवाएं हैं अब यदि उनका पति नहीं है तो उनके लिए इस त्योहार के कोई मायने नहीं?

अब अपनी कहता हूं। शादी हुई है। यह सातवां करवा है। अपन ने न तो चांद देखा और न ही छलनी। करवा के दिन डटकर नाश्ता करते हैं। करवाते हैं। आराम से नियत समय पर ही चैन की नींद सोते हैं। यही नहीं न खुद कोई व्रत रखते हैं और न ही अपन जिसका पति है, वह व्रत रखती है। कोई पूजा-पाठ नहीं कोई गंडा-ताबीज नहीं। कोई धार्मिक यात्रा-कथा भी नहीं। कहने वाले कुछ भी कहें। मन चंगा तो कठौती में गंगा। मैं कईयों को देखता हूं। खूब धार्मिक बने फिरते हैं। नवरात्रि में कन्याओं को भोजन कराते हैं। भू्रण हत्या के समर्थक नहीं खुद शिकार हैं। एक धेला किसी जरूरतमंद को नहीं देते। इनके घरों में कोई याचक आ जाए तो दरवाजा नहीं खोलते। व्रत रखते हैं और पड़ोसी को जमकर गाली देते हैं। 

अरे ! मन भी और तन भी आकंठ पापों से-कुकर्मों से भरा है और श्वेतपोश बने फिरते हैं। लानत है ऐसी मानसिकता पर और ऐसे त्योहार पर। अजी हां। आपको थोड़े कुछ कह रहे हैं। आप स्वतंत्र है इस पोस्ट को न पढ़ें। पढें तो टिप्पणी न कीजिए। पढ़ें तो जो चाहे टिप्पणी भी कीजिए। विचारों की अभिव्यक्ति है। किसी का अपमान किए बगैर अपनी बात तो कहनी ही चाहिए। क्यों? 

मैं कोई साधू-संत नहीं हूं। मैं मानता हूं कि दांपत्य जीवन के निर्वाह के इन सात सालों में मैंने भी कई बार पतिधर्म का निबाह ठीक से न किया होगा। लेकिन यह मेरी पत्नी को पता है कि मुझे क्या-क्या नहीं करना चाहिए था। वह अहसास कराती भी हैं। मैं सोचता हूं विचारता हूं और खुद को दांपत्य जीवन के सफल निर्वाह के लिए खुद को बदलता भी हूं। मैं भी तो इस पुरुषवादी समाज में ही पला-बढ़ा हूं। लेकिन थोड़ी खुशी इस बात की मुझे है कि मैं कई मित्रों की तरह न खुद पर और न ही अपनी पत्नी की आंखों पर पट्टी चढ़ाता हूं। आप? आपकी तो आप जानें।