10 मई 2011

'मीडिया और समाज' चर्चित हैं मीडिया की शब्दावली में ये दो शब्द

हाल ही के दो समाचार मन को उद्वेलित करते हुए याद आ रहे हैं। ‘एक विधायक को सरे आम एक महिला द्वारा चाकू घोंप कर मार देना’ और ‘एक तेल माफिया द्वारा अपर जिलाधिकारी को ज़िंदा जलाकर मार देना। याद कीजिए दोनों ख़बरें अधिकतर अख़बारों में मुखपृष्ठ पर छपी थीं। चैनलों ने भी इनका संज्ञान लिया था। मगर ये दोनों ख़बरें सूचना के रूप में ही आईं। इन दोनों ख़बरों का कल तो पता है। पर आज क्या हुआ। कल दोनों मामलों में क्या होने जा रहा है। किसी को पता नहीं। मीडिया में आ रहे बदलाव पर चर्चा करते हैं तो कई सारी बातें-यादें मीडियाकर्मियों के जहन में हैं। बतौर संवाददाता मुझे एक सांसद की हत्या के दिन याद आ रहे हैं। विश्व स्तर पर यह सांसद हत्याकांड सुर्खियों में रहा। मैं उस समय फैक्स से जिस नगर से समाचार भेजता था, उस नगर से भी कुछ जुड़ाव उस सांसद का था। मेरे नगर के अन्य समाचार पत्रों के संवाददाता भी रोज़ हत्या के बाद कुछ न कुछ हत्या से जुड़े समाचार भेज रहे थे और उन्हें अच्छी ख़ासी जगह मिल रही थी। एक मैं ही था जो लगातार समाचार भेज रहा था, मगर एक भी समाचार नहीं लग रहा था। चार रोज़ बाद मैंने डेस्क पर बात की तो डेस्क इंचार्ज ने बिफरते हुए मुझे कहा-‘‘इस हत्याकांड के अलावा समाचार भेजो, समझे।’’

मैं बहुत बाद में समझा कि मैं जिस अख़बार में काम कर रहा हूं, उस अख़बार में उस सांसद की हत्या के दिन के समाचार के बाद कोई भी समाचार अख़बार में लगा ही नहीं। तब पता चला कि एक राजनीतिक दल इस हत्याकांड को सुर्खियों से दूर रखना चाहता है। मैं जिस अख़बार के लिए काम कर रहा था, वो अख़बार उस दल से अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ा हुआ था। अख़बार प्रबंधन और उस दल के मध्य गोपनीय समझौता हुआ रहा होगा। इस घटना ने पहली बार मुझे ‘मीडिया मैनेजमेंट’ की जानकारी दी थी। धीरे-धीरे पता चला कि पूंजीपतियों-राजनीतिक दलों-सरकारों और नामचीन हस्तियों के साथ अख़बारों के स्वामियों और संपादकों के संबंध भी समाचारों को प्रभावित ही नहीं करते बल्कि सच को झूठ और झूठ को सच के रूप में परोसने का काम भी करते हैं। तभी मैंने महसूस किया कि इसके बावजूद भी डेस्क में काम कर रहे साथी कुशलता के साथ ख़बरों को छोटा-बड़ा करने, शीर्षक से किसी ख़बर को कमज़ोर-सशक्त करने, किसी ख़बर को कहाँ स्थान देना है, जिससे उसका महत्व बेहद बढ़ जाए या बेहद कम हो जाए के लिए अलग से संबंधों-विचारों से अपना काम करते हैं। फिर किसी ख़बर का संज्ञान लेने और छप जाने के बाद होने वाली प्रतिक्रिया ने और बदलाव करवाये। बाक़ायदा सर्कुलर जारी होने लगे। उप संपादकों, सहायक संपादकों, डेस्क इंचार्ज को लिखित में दिशा-निर्देश दिये जाने लगे कि आप किन्हें प्रमुखता देंगे और किन्हें कम महत्व देंगे और किन्हें बिल्कुल नज़रअंदाज़ कर देंगे। समाचार भेजने वाले को छोड़कर अख़बार छपने की प्रक्रिया से जुड़े अधिकतर मीडियाकर्मियों को नियमित तय ‘नज़राना-शुकराना‘ मिलने लगा। अब तो क़स्बाई पत्रकारों को भी ‘नजराना-शुकराना‘ के मोह से अपने आप को अलग रखने में ख़ासी दिक्कत होती है। चुनाव में विज्ञापनों से इतर छोटे-छोटे स्टेशनों में क्या-क्या नहीं होता, कौन नहीं जानता।

आज के अख़बार हों या टी.वी. चैनल। अधिकतर मात्र सूचना देने का काम कर रहे हैं। सूचना का एक साधारण उदाहरण का भी उल्लेख करते चलें। मसलन- ‘यहाँ गाय का ताज़ा दूध मिलता है।‘ अब वाकई गाय का दूध मिलता है या नहीं। इसकी पड़ताल की ज़िम्मेदारी मीडिया की नहीं है। मिलावटी है या नहीं। कह नहीं सकते। ताजा ही मिलेगा। ख़रीदने से पहले खुद ही परखो। यह मीडिया को क्या पता। कम से कम आज के दौर में तो नहीं है। तो फिर मीडिया का काम क्या है? क्या मीडिया का काम ‘सूचना’ देना ही है? यह विचारणीय है।

बीते कल में ऐसा नहीं था। मीडिया का अपना धर्म था। वजूद था। दायित्व था। मीडिया में एक-एक कॉलम की विश्वसनियता होती थी। दूसरे शब्दों में सुदूरवर्ती क्षेत्रों से ख़बरें भेज रहे प्रतिनिधि की अपनी साख थी। सम्मान था। आज स्थतियाँ बदल गई हैं। मीडिया में आए बदलाव की चर्चा करना फिलवक्त अहम् नहीं है। अहम् है दो नए शब्दों का गरमा-गरम रहना। या यूं कहें इन्हीं दो शब्दों में मीडिया का आचरण टिक-सा गया लगता है।

आजकल मीडियाकर्मी मीडिया शब्द कोश में आए दो नए (चूंकि ज़्यादा पुराने नहीं हैं) शब्दों से और चर्चित हैं। ‘मीडिया मैनेजमेंट’ से और ‘पेड न्यूज’ से। ऐसा भी नहीं है कि पाठक और श्रोता इन शब्दों से वाकिफ़ न हों। यही कारण है कि अब सुबह के अख़बार की प्रतीक्षा में वो व्यग्रता, आकुलता, पहले पढ़ने की छटपटाहट नहीं दीखती। वहीं बीते एक दशक में टी.वी. चैनलों को देखने का नज़रिया भी तो बदला है। अब एक ही चैनल में आँख गढ़ाए कौन दिखाई देता हैं? अब तो चैनल देखते हुए यदि हाथ में रिमोट सक्रिय नहीं है तो देखने वाला जागरुक है ही नहीं। यानि रिमोट पर ज़ल्दी-ज़ल्दी अंगुलिया दबनी ही चाहिए। ऐसा कोई चैनल है ही नहीं जो आपके हाथ का बाध्य कर दे कि आप चैनल न बदले। हर चैनल वाले बोलते ही दिखाई पड़ते हैं। ‘जाएगा नही।’,‘हमारे साथ बने रहिए।’ आदि आदि।

एक समय था जब समाचार ‘समाचार’ होता था। प्रतिनिधि या संवाददाता ने जो भेजा, वो साख पर आधारित होता था। डेस्क हो या अख़बार का संपादक। अपने संवाददाता की निष्ठा पर भरोसा करता था। वहीं संवाददाता भी अपने अख़बार के लिए मरने-मिटने को तैयार था। आज तो किसी भी अख़बार के लिए काम कर रहे पत्रकार कहते हैं कि ..........की नौकरी कर रहे हैं। संपादक और उसकी फौज कहती है कि कल की सुबह अख़बार में हमारा नाम हो न हो कह नहीं सकते। चैनल के लिए काम कर रहे पत्रकार अपने चेहरे के लिए चैनल की स्क्रीन ऐसे बदलते हैं जैसे कोई कपड़े बदलता है।

यह सब एक ही दिन में नहीं हुआ। उपभोक्तावाद की संस्कृति ने इसकी बुनियाद रखी। समाचार हो या अति महत्वपूर्ण कार्यक्रम। मुखपृष्ठ हो या आख़िरी। वो दिन लद गए, जब यदा-कदा ही विज्ञापन हुआ करते थे। धीरे-धीरे उत्पाद और उत्पाद की बिक्री के लिए विज्ञापन की मांग बढ़ी। मीडिया के पाठक और श्रोता-दर्शक बढ़ते चले गए तो सबकी निगाह विज्ञापनों पर टिकी। प्रसार संख्या के साथ-साथ पहुंच ने भी विज्ञापनों-समाचारों को अहमियत दी। कमीशन की बंदरबाँट और मान्यता ने भी इसे हवा दी। देखते ही देखते दस प्रतिशत कमीशन अरबों का व्यापार-कारोबार और लाभांश-मुनाफ़ा में तब्दील हो गया।

मीडिया का चरित्र विज्ञापन और विज्ञापनों से उत्पाद लाभांश तक ही सीमित रहता तो भी गनीमत थी। पर नहीं मीडिया का उपयोग नेताओं, राजनीतिक दलों और सरकारों ने भी करना शुरू किया। यह शुरू हुआ सरकार की उपलब्धियों को दिखाने और गिनाने के विज्ञापनों से। बस फिर क्या था। मंत्री-संत्री भी परदे के मोह से नहीं बच पाए। शुरू में मीडिया मेनेजमेंट का चरित्र इतना ढुल-मुल नहीं था। पेड न्यूज का प्रतिशत न्यून था। धीरे-धीरे बाक़ायदा संपादक और उसकी सहायक टीम, डेस्क और फिर क्षेत्रीय प्रतिनिधियों को सर्कूलर जारी होने लगा। छिपी नीतियाँ बनने लगीं। आप ये करें, ये न करें। ये भेजें ये न भेजें। समाचार में कांट-छांट होने लगी। समाचार रोके जाने लगे। भेजी क्लिप का प्रसारण हुआ ही नहीं। भाषा को नरम, ढुल-मुल और तोड़-मरोड़ कर परोसा जाने लगा। भेजा और बनाया कुछ तो छपा और प्रसारित हो रहा कुछ।

मीडिया के साथ बेहतर तालमेल बनाने के लिए अफसर ही नहीं नेताओं, दलों और पूंजीपतियों को मीडिया तंत्र को समझना पड़ा। मीडिया से रिश्ते बढ़ाने पड़े। दलों, सरकारों, औद्योगिक घरानों, फिल्म इंडस्ट्री के धुरंधरों ने मीडिया से रिश्ते बढ़ाने शुरू कर दिये। बाक़ायदा दलों से वैचारिक सहमति रखने वाले पत्रकारों को प्रशिक्षण दिया जाने लगा। अख़बार को चैनल को अप्रत्यक्ष रूप से लाभ देने के रास्तों और जरियों का बाज़ार तलाशा जाने लगा जो लगातार फैलता जा रहा है। ज़रूरी और नियमित विज्ञापनों को मीडिया में समर्थक अख़बार और चैनलों के साथ जोड़कर बांटा जाने लगा।

इस सारे खेल ने पत्रकारों में गुट बना दिये हैं। अख़बार और चैनल के दूसरे अख़बार और चैनल से इतर गुट। अब रुपया देकर समाचार छपने और न्यूज के प्रसारण को मानों मान्यता मिल गई हो। एक समय था जब मीडिया अपने समाचार का खंडन नहीं छापा करता था। खंडन छापे जाने को अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता था। आज खंडन की संभावना ही समाप्त हो गई। आज मीडिया से गलती होती ही नहीं पत्रकारों को क्या भेजना है, कैसे भेजना है। कितना भेजना है। कब भेजना है। सब तय होता है।

अख़बार की नौकरी करने वाले पत्रकार विमुख होकर जब अपना अख़बार या चैनल शुरू करते हैं तो इतने दबाव और मकड़जाल हैं कि वो अभिव्यक्ति की रक्षा करे या अख़बार की नियमितता और निरतंरता की रक्षा करे। कुल मिलाकर मीडिया मिशनरी पत्रकारिता से पीत पत्रकारिता की यात्रा से भी आगे निकल गया है। अब समाचार में व्यूज और न्यूज हो न हो, बस सूचना देना भर रह गया।

हद तो ये हो गई है कि चुनाव के दौरान क्षेत्रीय संवाददाताओं के अधिकार सीमित कर दिये जाते हैं। राजधानी या बड़े स्टेशनों में वरिष्ठ पत्रकार बिठा दिये जाते हैं। बड़ी कवरेज के लिए अख़बार-चैनल ‘स्पेशल मीडियाकर्मी’ को भेजते हैं। इसका क्या अर्थ है। सालों से रोज़-दर-रोज़ जो आपके अख़बार को ख़बरे भेज रहा है। उस पर दिन विशेष में ऐसा भेदभाव क्यों? कारण कई हो सकते हैं। पत्रकार की निष्पक्षता पर शंका हो सकती है या कुछ और भी। एक बात और है। प्रिन्ट में एक अख़बार दूसरे अख़बार में छप रहे विज्ञापनों पर नज़र रखता है। अपने अख़बार में छूट गए विज्ञापन पर संज्ञान लिया जाता है। स्टेशन के अपने पत्रकारों से कहा जाता है कि लगता है तुम्हारे संबंध विज्ञापन देने वाले से अच्छे नहीं है, तभी हमारे अख़बार को विज्ञापन नहीं मिला। अब सोचिये कि पत्रकार संबंध बनायेगा। मीठा व्यवहार रखेगा। उन्हें भोज पर बुलायेगा या उनके भोज पर जाएगा ताकि संबंध बने और विज्ञापन मिले। फिर समाचारों की निष्पक्षता का क्या होगा। पाठकों का क्या होगा?

ये ओर बात है कि निर्भीक पत्रकार जिसे अब ‘सनकी’ कहा जाने लगा है, जान पर खेल कर सच्ची और अच्छी ख़बर छपवाने और भेजने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगाना नहीं भूलते। मगर कब तक? जब बाढ़ ही खेत को खा रही है। तब भला खेतों में फ़सलों की जगह खरपतवार क्यों कर नहीं फलेगा और फूलेगा। अब अख़बार निकालने की बात कोई नहीं करता। करता है तो दूसरे कहने लग जाते हैं, ये देखो पेड न्यूज और मीडिया मैनेजमेंट के लिए एक अभिकर्ता पांत में शामिल हो गया है। मीडिया की शब्दावली में अब और कौन-कौन से शब्द आने वाले हैं। आइए, प्रतीक्षा करें। यह भी क्या मीडिया के प्रति आस्था बनी रहेगी या पाठक-श्रोता सूचना और ज्ञान पाने के तरीक़ों में बदलाव करेंगे?

मनोहर चमोली 'मनु'
पोस्ट बॉक्स-23, पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड - 246001 मो.- 9412158688

3 टिप्‍पणियां:

  1. Its interesting you are from media. yes you are write everything is pre decided but you are forgetting time is time. It will changed again.
    And you know who will changed -- like you good people will make changes. Today it may be you find yourself in a defeat position but somewhere you teach your child or your students about this. Then one day a new generation will come with your opinion - with good strength and power. And then you will find a change in society in work and everywhere. So try and try and next is prepare a new generation with power and morality.

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  2. aaj ke samay me har ek adhik se adhik paisa kamana chahta hai .chahe o jaise v ho.chahe o meedia ho chahe o marketing hojaise v ho.chahe o meedia ho chahe o marketing ho

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यहाँ तक आएँ हैं तो दो शब्द लिख भी दीजिएगा। क्या पता आपके दो शब्द मेरे लिए प्रकाश पुंज बने। क्या पता आपकी सलाह मुझे सही राह दिखाए. मेरा लिखना और आप से जुड़ना सार्थक हो जाए। आभार! मित्रों धन्यवाद।