12 नव॰ 2013

साहित्य अमृत नवम्बर 2013


अगर वे उस दिन भी स्कूल आते तो

-मनोहर चमोली ‘मनु’
    मुझे आज भी स्कूल की पढ़ाई-लिखाई के दिन याद हैं। अजीत और खजान मेरे सहपाठी थे। हम पहली कक्षा के पहले ही दिन दोस्त बन गए थे। हम तीनों ने हँसते-खेलते कक्षा पाँच पास कर ली थी। हम कक्षा छःह में भर्ती भी हो गए थे। लेकिन एक दिन वे दोनों स्कूल नहीं आए। उनका उस एक दिन स्कूल न आना, मेरे जीवन के महत्वपूर्ण बदलाव का कारण बन गया।

    आज सोचता हूँ कि यदि वे उस दिन भी स्कूल आते, तो आज मेरा क्या होता? डर जाता हूँ। बेचैन हो जाता हूँ। वे मेरे लिए महत्वपूर्ण थे। वे ही तो थे, जिनकी वजह से मैं आज अध्यापक हूँ। वे ही तो हैं जिनकी वजह से मैं आज बरसों पुराने दिनों को याद कर रहा हूँ। उन्हें याद करते हुए मुस्करा भी रहा हूँ। मैं नहीं जानता कि वे दोनों आज कहाँ हैं। कैसे हैं? क्या करते हैं? लेकिन उनके साथ बिताये सैकड़ों दिनों की मस्ती की मिठास आज भी जैसे जीभ पर लगी हो। मानो ताज़ा हो।
    अजीत का रंग गोरा था। वह औसत से अधिक मोटा था। अजीत हमारी क्लास में सबसे ठिगना था। वह हमेशा किसी से भी लड़ने-भिड़ने को तैयार रहता। अजीत को स्कूल के सभी बच्चों के पिता के नाम कंठस्थ थे। अक्सर वे किसी को भी उसके पिता के नाम से पुकारता था। जो चिढ़ता तो वह उसे और चिढ़ाता।
    अजीत दुस्साहसी भी था। वह स्कूल की दीवारों से लेकर आने-जाने वाले रास्तों पर चाॅक से सहपाठियों के पिता के नाम लिख दिया करता था। अजीत ने हर अध्यापक के नए नाम रखे हुए थे। उसके द्वारा रखे गए नाम ही स्कूल में और स्कूल से बाहर भी लोकप्रिय हुए। अजीत किसी भी पेड़ पर बड़ी आसानी से चढ़ जाता। कूदने-फाँदने में उसका कोई सानी नहीं था।
    मुझे अच्छी तरह याद है कि स्कूल का घण्टा एक बार ‘टन्न’ से बजने का क्या अर्थ था। यह घण्टा सुनते ही हम जोर से शोर मचाते थे। संकेत होता था, बेवक्त दोबारा मैदान में अपना बस्ता सहित प्रातःकालीन सभा की तरह खड़ा होना। यह प्रधानाचार्य के संबोधन का समय होता था। किसी के निधन होने की प्रधानाचार्य सूचना देते थे। दो मिनट का मौन रखा जाता था। शोक सभा का एक नियम होता था। दो मिनट मौन रहने के बाद सब सीधे अपने घर की ओर जाते थे। लेकिन दो मिनट होने से पहले कई छात्र-छात्राओं को हँसी आ जाती थी। आप समझ गए होंगे कि बंदर की तरह ‘खीं-खीं’ की आवाज कौन निकालता होगा। कौन हँसाने के लिए प्रेरित करता होगा? जी हाँ। अजीत ही यह काम करता था।
    खजान का रंग काला था। खजान का कद औसत से अधिक लंबा था। उसके दाँत मोतियों की तरह चमकते थे। उसका सिर भी सबसे बड़ा था। खजान की आँखें औसत से अधिक बड़ी थी। सिर बड़ा होने के कारण खजान दूर से ही पहचान लिया जाता था। उसके काले बाल हमेशा उसकी दाँयी आँख को ढक कर रखते थे। उसके बालों से हमेशा आँवले के तेल की खुशबू आती थी।
    खजान शरारती था। वह बिच्छू, छिपकली, घोंघा, जोंक और मेढक के बच्चे माचिस-सिगरेट की डिबिया में स्कूल लाता था। मौका मिलते ही वह उन्हें लड़कियों की ओर उछाल देता था। स्कूल में एक साथ कई चीखें निकल जाती। हो-हल्ला मच जाता। हँसी के ठहाके गूँज उठते। वहीं अजीत चेहरे में डर के भाव बना लेता। वह जताता कि उसे इन सब जीव-जन्तुओं से बेहद डर लगता है।
    अजीत कई बार निब वाला पैन हवा में उछाल देता। पैन की स्याही कई सहपाठियों के कपड़ों में बारिश की बूंदों की आकृति बना देती। यह सब शैतानियाँ वह बेहद फुर्ती से करता था। खजान कक्षा में यह शैतानियाँ गोपनीय ढंग से करता। परिणाम यह होता कि पिटाई समूची कक्षा की होती थी। वह कई बार किसी के बस्ते में चुपचाप केंचुएं के गुच्छे रख देता। कभी चुपके से किसी के टिफिन से रोटियाँ-आचार निकाल कर मुँह में ठूँस लेता। बारह महीनों उसे जुकाम रहता था।
    मैं? साँवला हूँ। मैं दब्बू था। शर्मीला और अंतर्मुखी था। कक्षा में शायद ही किसी सवाल का जवाब मैंने कभी दिया हो। तब भी, जब भले ही जवाब मुझे पता होता था। प्रातःकालीन सभा मंे गतिविधियाँ कराने का साहस मैं कभी नहीं बटोर पाया। मैं कभी भी अग्रजों की कक्षाओं के कक्ष में नहीं जा पाया। अध्यापकों का सामना करने की बजाय मैं कहीं छिप जाना बेहतर समझता था। मुझे गणित, अंग्रेजी और विज्ञान विषय कभी अच्छे नहीं लगे। मुझे जन्मतिथियाँ कभी याद नहीं रही। भूगोल और इतिहास तो कभी भी समझ नहीं आया।
    हाँ। चित्र बनाना और हिन्दी की किताब पढ़ना मुझे अच्छा लगता था। लेकिन मैं अन्य बच्चों की तरह कभी खड़ा होकर हिन्दी का कोई पाठ पढ़ने का साहस भी नहीं कर पाया। न ही मैंने कभी श्यामपट्ट पर जाकर आम-केला-संतरा बनाया।    
    हम तीनों बेमेल थे। फिर भी हम दोस्त थे। एक साथ स्कूल जाना। एक साथ स्कूल से घर लौटना। खाली वक्त पर एक साथ घूमना-टहलना। छुट्टी के दिन घने जंगल में चले जाना। पक्षियों के घोंसलों को खोजना। घोंसलों से अण्डों को निकालना, घोंसलों में पक्षियों के बच्चों को उठाना हमारा काम रहता। हमें पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों की अच्छी जानकारी हो गई थी। मदारी के खेल देखना हमें बेहद पसंद था। बंदर-भालू नचाने वाले और दवा बेचने वालों के तमाशों में हम सबसे आगे खड़े रहते।
    स्कूल हमारे गाँव से बहुत दूर था। दस-बारह गाँव के बच्चों के लिए एक ही स्कूल था। लगभग एक घण्टा पैदल चलकर हम स्कूल पहुँचते थे। हम घर से सबसे पहले निकल जाते। लेकिन स्कूल सबसे देर में पहुँचते। अक्सर स्कूल तब पहुँचते थे, जब प्रातःकालीन सभा हो जाती थी।
    स्कूल के कक्षा-कक्ष में दो दरवाजे होते थे। हम पीछे के दरवाजे से कक्षा में घुसते थे। जैसे ही अध्यापक ब्लैकबोर्ड में कुछ लिखना शुरू करते थे, उसी क्षण हम बारी-बारी से दबे पाँव कक्षा में घुस जाते। इसी तरह चुपचाप इसी दरवाजे से बाहर निकल जाते। छुट्टी का घंटा हमने शायद ही कभी सुना हो। हम अक्सर बीच में ही स्कूल से ‘टप’ लिया करते थे। लेकिन घर हम सबसे देर में पहुँचते थे।
    ब्लैक बोर्ड के ठीक सामने बाँयी ओर पाँच छात्र बैठते थे। दाँयी ओर पाँच छात्राएँ बैठती थीं। हम छात्रों की सबसे आखिरी पंक्ति में बैठते। हम तीनों कक्षा में होते हुए भी न होने के समान थे। हमारी बेसिर-पैर की बातें थीं कि कभी खत्म ही नहीं होती थीं। एक शिक्षक के बाद दूसरे शिक्षक के आने पर कक्षा के सब बच्चे खड़े हो जाते थे। एक हलचल-सी मच जाती थी। हम तभी जान पाते थे कि एक पीरियड खत्म हो गया है। 
    हमारी पढ़ने की बारी कभी आती ही नहीं थी। कोई भी अध्यापक कभी हमारी सीट तक नहीं आए। काॅपियों का ढेर कक्षा का माॅनीटर जमा करता था। हम बहाना बना देते कि आज काॅपी घर छूट गई है। कुछ दिनों बाद माॅनीटर ने भी हम तक आना छोड़ दिया। हम कक्षा में कभी शोर नहीं मचाते। कारण साफ था। हम तीनों सबसे पीछे जो बैठते थे। हमारे सिर अपनी-अपनी डेस्क पर झुके होते थे।
    हम तीनों अपनी ही बातों-गप्पों मंे व्यस्त रहते थे। हमने कभी यह जानने-सुनने की कोशिश ही नहीं की, कि अध्यापक पढ़ा क्या रहे हैं। अक्सर हम जरूरी सूचनाएं भी नहीं सुन पाते थे। कल फीस डे है। यह तो सुन लिया। लेकिन यह ध्यान नहीं दिया कि फीस कितनी लानी है।
    कई बार छुट्टी की घोषणा हो जाती थी। लेकिन हम तीनों सुबह-सवेरे तैयार होकर स्कूल चले आते। ऐसा कई बार होने के बाद एक तरीका खोज लिया गया। अब हम में से कोई एक हर सुबह स्कूल जाते हुए अन्य सहपाठियों को देख लेता। सीटी बजाकर संकेत देता कि आज स्कूल जाना है। सीटी की आवाज सुनकर ही हम तैयार होते। सीटी बजाने का तरीका भी तय किया हुआ था। एक लंबी सीटी और फिर एक छोटी ध्वनि की सीटी जरूर बजानी होती थी। यह इसलिए किया गया था कि कभी कोई मुगालता न हो। कभी किसी अन्य चैथे की सीटी पर हम तीनों को कोई गलतफहमी न हो।
    अक्सर अध्यापक कक्षा में कोई सवाल पूछते थे। आसान सवाल का जवाब तो आगे की पंक्तियों में बैठे सहपाठी दे दिया करते थे। लेकिन कभी-कभी कठिन सवाल का जवाब कोई नहीं दे पाता था। हमारी सीट के आगे बैठे हुए सहपाठियों की भी बारी आ जाती। वह भी खड़े हो जाते। तब जाकर हमें पता चलता था कि कोई सवाल पूछा गया है। लेकिन सवाल क्या पूछा गया होगा। यह हम तीनों कभी नहीं जान पाए। समूची कक्षा की पिटाई में हम भी पिटते।
    जब भी हमारी पिटाई होती, तब मुझे बहुत गुस्सा आता। मैं सोचता-‘‘ये इतने सारे हमसे आगे बैठते हैं। ध्यान से क्यों नहीं सुनते? मन लगाकर क्यों नहीं पढ़ते? इनके खड़े होने के बाद हमें भी खड़ा होना पड़ता है।’’
    एक सुबह की बात है। मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा। सूरज खिड़की से भीतर झांक रहा था। मैंने नित्य कर्म फटाफट निपटाए। बस्ता कांधे पर रखा। तेज कदमों से स्कूल की ओर दौड़ पड़ा। हांफते-हांफते स्कूल पहुँचा। कक्षा में झांका तो अजीत और खजान अपनी सीट पर नहीं थे।
    ‘‘तो क्या ये दोनों आज स्कूल नहीं आए। मैं क्लास में जाकर क्या करूंगा।’’ यह सोचकर मैं वापिस लौटने लगा।
    ‘‘ऐ लड़के ! कहाँ जा रहा है? कौन-सी क्लास का है?’’ यह प्रिंसिपल सर की आवाज थी। प्रिंसिपल मानो गश्त पर थे। मैं जानता था कि यदि उन्होंने मुझे पकड़ लिया तो जोर से कान उमेठेंगे। फिर मुर्गा बनाएंगे। पीठ पर एक ढेला रख देंगे।
    मैंने आव न देखा ताव। दौड़ा और चुपचाप अपनी सीट पर जाकर बैठ गया। कक्षा में अध्यापक ‘खरगोश और कछुआ’ की कहानी सुना रहे थे। पहली बार मैं किसी अध्यापक की बात को  गौर से सुन रहा था। पहली बार मैंने समूची कक्षा को निहारा। मैंने महसूस किया कि सभी सहपाठी मौन साधे अध्यापक को गौर से सुन रहे हैं।
    कहानी खत्म होने के बाद अध्यापक ने पूछा-‘‘अच्छा बताओ। कछुआ धीमी चाल के बावजूद जीत कैसे गया?’’
    कई सहपाठियों ने हाथ खड़ा किया। अध्यापक एक के बाद एक सवाल पूछते रहे। सहपाठी भी तत्परता से जवाब देते रहे। मैंने सोचा-‘‘ये जवाब तो मैं भी दे सकता हूँ।’’
    अध्यापक ने ब्लैक बोर्ड पर लिखा-‘‘कहानी में आए खरगोश के बारे में लिखिए।’’ कक्षा में हर दिशा से काॅपियों के पन्ने फड़फड़ाने की आवाज सुनाई दी। हर कोई काॅपी पर कुछ न कुछ लिखने को तैयार दिखाई दिया। मैं सकपकाया। मैं हैरान था। मैंने खुद को अकेला और परेशान पाया। मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था। रह-रहकर अजीत और खजान याद आ रहे थे।
    मेरे आगे की पंक्ति में से भी एक सहपाठी आज अनुपस्थित था। मेरे ठीक सामने बैठे सहपाठी ने मेरा बस्ता खींच कर अपने दांयी ओर खाली डेस्क पर रख दिया। वह धीरे से बोला-‘‘पीछे अकेले क्या करोगे। आगे आ जाओ। आओ।’’
    मैं चुपचाप आगे की खाली सीट पर उछलकर बैठ गया। मेरे दोनों ओर बैठे सहपाठी काॅपी पर अध्यापक के द्वारा लिखाए गए सवाल को उतार चुके थे। दोनों अपनी समझ से जवाब लिखना शुरू कर चुके थे। मैंने कनखियों से देखा। मैं चैंक पड़ा। दोनों सहपाठियों का हस्तलेख बहुत ही सुन्दर था। मैं मन ही मन में सवाल का जवाब सोच रहा था। मैंने देखा कि जो जवाब मैं सोच रहा था, वे दोनों भी लगभग वैसा ही जवाब अपनी-अपनी काॅपी पर लिख रहे थे।
    तभी अध्यापक की आवाज मेरे कानों पर पड़ी। उन्होंने कहा-‘‘चलिए। अब खरगोश के बारे में बताइए।’’ कई सहपाठियों ने अपने शब्दों में खरगोश के बारे में बताया। मुझे लगा कि मैं भी तो खरगोश के बारे में यही सोच रहा हूँ।
    मध्यांतर हुआ। सब अपने-अपने सहपाठियों के साथ अपना टीफिन साझा कर रहे थे। मैं चुपचाप अकेला खड़ा खजान और अजीत के बारे में सोच रहा था। तभी कुछ सहपाठियों ने मुझे इशारे से बुलाया। मैं चला गया। भूख तो लगी ही थी। सबने अपने टीफिन से मुझे कुछ न कुछ खाने को दिया। खाना खाने के बाद अब हम एक-दूसरे का नाम पूछ रहे थे। गाँव का नाम पूछ रहे थे।
    पांचवी घंटी में दूसरे अध्यापक आए। छठी घण्टी में तीसरे और सातवीं घण्टी में चैथे अध्यापक आए। मेरी तो धारा ही बदल गई। आज पहली बार मैं इतनी देर कक्षा में रुका था। सभी अध्यापकों को ध्यान से सुना था। एक-एक वाक्य उपयोगी लग रहा था। मैंने सोचा-‘‘इतने साल-इतने दिन कितनी बातें अनसुनी की। क्यों?’’
    आज पहली बार छुट्टी का घण्टा अपने कानों से सुना। धीमें कदमों से घर की ओर लौटा। पहली बार वक्त पर घर पहुँचा। मुँह-हाथ धोए। खाना खाया। स्कूल बैग को खाली किया। बैग धोया। सभी किताबों-काॅपियों पर अखबारी जिल्द लगाई। अब तक जांची न गई काॅपियों के पन्ने उलटे। खुद पर बहुत गुस्सा आया।
    मन में ठान लिया कि अब मन लगाकर सुनना है। मन लगाकर पढ़ना है। मन लगाकर लिखना है। सवालों से जूझना है। कक्षा में सबसे पीछे नहीं, आगे बैठना है।
    बस! फिर क्या था। मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। खजान और अजीत मेरे दोस्त बने रहे। लेकिन कक्षा से बाहर। कक्षा में मेरी सीट बदल गई। धीरे-धीरे मैं भी कक्षा का गंभीर छात्र बन गया। आज स्वयं अध्यापक हूँ। हर साल नया सत्र आते ही बच्चों को यह किस्सा जरूर सुनाता हूँ। कक्षा में सबसे पीछे बैठे हुए छात्रों से यह कहना नहीं भूलता कि सीट बदलती रहेगी। आज जो आगे बैठे हैं, कल वो पीछे बैठेंगे।
    हर संभव कोशिश करता हूं कि हर बच्चे पर नज़र रहे। हर बच्चे की काॅपी जंचे। हर बच्चे को बोलने का मौका मिले। आज भी खजान और अजीत का चेहरा याद है। एक बात बार-बार याद आती है। मुझे परेशान करती है। यदि उस दिन खजान और अजीत स्कूल आए होते तो मेरा क्या होता?
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-मनोहर चमोली ‘मनु’

2 टिप्‍पणियां:

यहाँ तक आएँ हैं तो दो शब्द लिख भी दीजिएगा। क्या पता आपके दो शब्द मेरे लिए प्रकाश पुंज बने। क्या पता आपकी सलाह मुझे सही राह दिखाए. मेरा लिखना और आप से जुड़ना सार्थक हो जाए। आभार! मित्रों धन्यवाद।