लोक और बाल साहित्य
-मनोहर चमोली ‘मनु’
उत्तराखण्ड का बाल साहित्य भी कला, संस्कृति और परंपरा की तरह अनूठा है। बेजोड़ भी है। यह लिखित से अधिक मौखिक-वाचिक परंपरा में अधिक समृद्ध रहा है। तब, जब पढ़ने का रिवाज़ ही खतरे में बताया जा रहा है। तब, जब वर्तमान उत्तराखण्ड के लोगों के बराबर एक और समाज अपने लोकजीवन सहित उत्तराखण्ड से बाहर रह रहा है। तब, जब उत्तराखण्ड में रह रहे बाशिंदांे में अधिकतर अंग्रेजियत के पक्षधर होते जा रहे हैं। ऐसी स्थितियों में कौन नहीं जानता कि अंग्रेजी ने जहां-जहां अपने पैर पसारे हैं, उसने मूलतः वहां का लोक और विश्वास तो लुप्त किया ही है। यह भी सही है कि उत्तराखण्ड का लोक इसीलिए भी खास और अनोखा है क्योंकि इस सर जमीं का लंबा चैड़ा इतिहास तो है ही साथ ही विदेशी संस्कृति का जनमानस किसी न किसी तौर पर यहां से जुड़ा रहा है।
उत्तराखण्ड का रहा-बचा अधिकतर प्राचीन बाल साहित्य ज़बानी है और वह समय के साथ-साथ लुप्त होता जा रहा है। यह चिन्ता की बात है। अब तक लोक परंपरानुसार आंचलिक भाषाओं के अधिकाधिक प्रयोग से वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होता रहा है, लेकिन अब यह भी पुरानी घुमन्तु पीढ़ीयों के गुजरने के साथ बीते समय की बात होता जा रहा है।
हम सब जानते हैं कि ऋगवेद में उत्तराखण्ड हिमालय के इतिहास एवं संस्कृति के अल्प संकेत मिलते हैं। इसे सात सिन्धु प्रदेश मानने वालों का कहना है कि यही आर्यो का देश रहा है। शतपथ ब्राह्मण में इस प्रदेश का इतिहास एवं संस्कृति का सन्दर्भ मिलता है। शकुन्तलोपाख्यान भी इसी क्षेत्र से जुड़ा माना जाता है। केदारखण्ड और मानसखण्ड का संबंध इसी भूमि से है। बौद्धों के पालि साहित्य का प्रभाव इस क्षेत्र में रहा है।राजतरंगिणी (1148 ई॰) में केदारमण्डल का उल्लेख मिलता है। विदेशी प्रभाव जिसमें खासकर चीनी, मुगल, यूरोपीय-पुर्तगाली यात्रियों का प्रवेश भी वहां के साहित्य को यहां लेकर आया। यही कारण है कि उत्तराखण्ड को साहित्य की उर्वरा भूमि कहा गया है। लोक साहित्य में वीर गाथाएं, लोक कथाएं और लोकगीत पीढ़ी-दर-पीढ़ी वाचिक परंपरा के अनुसार हस्तांतरित होता रहा है।
आम तौर पर उत्तराखण्ड में पढ़ने-लिखने का माध्यम हिंदी भाषा ही रही है। राज-काज की भाषा का प्रभाव भी रहा तो राजे-रजवाड़ों की संस्कृति, आचार-व्यवहार और परम्राएं, तीज-त्योहार भी कथा-कहानियों का हिस्सा रहे हैं। सब जानते हैं कि उत्तराखण्ड का उल्लेख पुराणों में मिलता है। अंग्रेजों से पूर्व अनेक वंशजों का शासन राज्य के कई हिस्सों में रहा है। आबाद और गैर आबाद रहन-सहन के कारण भी यहां का लोक साहित्य वाचिक परंपरा के कारण हस्तांतरित होता रहा। श्रुत परंपरा के आधार पर संकलित साहित्य आगे बढ़ता रहा। देशकाल, परिस्थितियों और वातावरण पर दृष्टि डालने वाले मानते हैं कि सातवीं शताब्दी के पूर्व का लोकजीवन भी कथा-कहानियों में सुनने को मिलता है। जानकार बताते हैं कि कहानियों में इतनी विविधता है कि समग्रता से अध्ययन करने पर भी इसके आरंभ का सिरा पकड़ में नहीं आता। पुराणों की छाप तो इन कहानियों में मिलती ही है। इसके साथ-साथ राजा-रजवाड़ों का परिवेश भी कहानियों में शामिल है। पीढ़ी दर पीढ़ी वाचिक परंपरा के आधार पर सुनी जाती रहीं कहानियों के शिल्प और प्रवाह पर ध्यान देने से पता चलता है कि प्राचीन कहानियों में विदेशी लोक जीवन की महक भी मिलती है।
कहानियों में इतने भाव, बोध, संवेग और संघर्ष शामिल हैं कि लगता है पहाड़ का लोक जीवन और लोक साहित्य का अध्ययन करने के लिए वर्षों का समय चाहिए। वृहद अनुसंधान के लिए चुनौतियां स्वीकार करने के लिए युवा साहस चााहिए। जीवन संघर्ष, युद्ध, वृहद प्रकृति, विदेशियों का आगमन, कृषि, वन्य जीव, पालतू पशु, राजशाही, राजदरबारी जीवन, विवाद, कचहरी, अपराध, आंदोलन, बेगारी, लूटपाट, राहजनी, हिमालय, सर्दी, गर्मी, बरसात पर बाल साहित्य-सा सुनने-पढ़ने को मिल जाएगा। जानकार मानते हैं कि हिंदी साहित्य जितना पुराना है, उतना ही पुराना बाल साहित्य है।
पिछले एक शतक से ही साहित्य से बाल साहित्य को अलग करके देखने का नज़रिया बना है। अन्यथा प्राचीन समय में साहित्य से ही समय के अनुसार बाल मन को सुनाए जाने वाले लोक साहित्य से ही बच्चों का मनोरंजन किया जाता रहा है। मनोरंजन के साथ-साथ बच्चों में नैतिकता, साहस और आज्ञाकारिता का भाव भरने वाला लोक साहित्य भी मिलता है। जिसे बाल साहित्य के खांचे में भी रखा जा सकता है। उत्तराखण्ड के लोक साहित्य में बहुत सारा साहित्य बाल साहित्य की श्रेणी में रखा जा सकता है। भले ही इन रचनाओं का जन्म जिस काल के लोक ने किया हो, उन्होंने विशुद्ध रूप से बच्चों के मनोरंजनार्थ ये न रचा हो। लेकिन यह उतना ही प्राचीन है जितना मानव। यही कारण है कि लोक साहित्य में ऐसा साहित्य भी है जिसमें बालपन केन्द्र में है। दिलचस्प बात यह है कि इसे अधिकतर लोक कथा, लोक गाथाओं, वीर गाथाओं, लोकगीतों के तौर पर ही देखा जाता रहा है। ऐसा साहित्य विपुल मात्रा में है जिसकी छाप ग्रन्थों, पुराणों, पंचतंत्र, वेताल पचीसी, तिलस्म, भूत-प्रेत-डायन, परी, अंधविश्वास से मेल खाता प्रतीत होता है। लेकिन यह हमारे बीते लोक का हिस्सा है। इसे झुठलाया नहीं जा सकता। जैसे चिट्ठी-पत्री बीते समय के हमारे लोक का हिस्सा रही है। आज वह नई सूचना तकनीक के आने से धीरे-धीरे हमारे गीतों, रोजमर्रा के हिस्सों से लुप्त होने लगी है। अब कोई यह नहीं कहता कि चिट्ठी लिखना। चिट्ठी भेजना। लेकिन क्या आगामी समय का समाज चिट्ठी-पत्री और डाकिया की कभी बात नहीं करेगा?
समय के साथ-साथ पुरातन परंपरा का प्रवाह भले ही आज मंद हो गया हो। दूसरे शब्दों में थम गया हो या लुप्त हो गया हो। लेकिन वह बीते कल का हिस्सा तो माना ही जाएगा। यह भी तय है कि साधारण बच्चों के लिए साधारण जनजीवन के ताने-बाने में रचा लोक साहित्य ही बाल साहित्य ही है। आज बाल साहित्य की समझ यह भी इंगित करती है कि वह साहित्य बाल साहित्य कहां है जो बच्चों को बड़ा होने की दिशा में सहायक न हो। दिलचस्प बात यह है कि लोक कथाएं हों या बाल साहित्य, सभी में आदिकाल से अब तक के जीवन की छाप दिखाई देती है। उत्तराखण्ड का साहित्य इसीलिए भी विशिष्ट हो जाता है कि अब तक सुना और पढ़ा जाने वाला लोक साहित्य अन्य अंचलों में भी थोड़े बहुत संशोधन के साथ सुनने-पढ़ने को मिल जाता है। उत्तराखण्ड में लोक बाल साहित्य मौखिक है और अभी भी जिन्दा है। बस उसे संग्रहीत करने की आवश्यकता है। जहां यह भी सत्य है कि गांव-दर-गांव उजड़ते जा रहे हैं। लेकिन आज भी पहाड़ की संस्कृति और लोक का बहुत अधिक हिस्सा सामुदायिकता, सहभागिता और वाचिक परंपरा के चलते रहा-बचा है।
समूची संस्कृति के अध्ययन के लिए यहां के लोक साहित्य का वृहद अध्ययन जरूरी हो जाता है। अभी तक उत्तराखण्ड के बाल साहित्य का समग्र रूप से लिखित संकलन नहीं हो सका है। घर-घर जाकर पाण्डुलिपियों को इकट्ठा करने का काम करना होगा। बड़े-बुजुर्गो के साथ बैठकर इसे सुनना होगा। कुछ लोरियां सुनने-पढ़ने को मिलती हैं। लोक कथाएं पढ़ने को मिलती हैं। लेकिन लोक बाल कथाओं का तो संकलन करना होगा ! बाल गीत असंख्य हैं। लेकिन लोक बाल गीतों का संकलन भी एक बड़ा काम होगा। बहुत सी लोरियों और लोकगीतों में भी बाल वर्णन मिलता है। लोक साहित्य में अप्रत्यक्ष तौर पर बच्चों को प्रकृति से प्रेम करने, पशु-पक्षियों से प्रेम करने, गलत संगत न करने पर अधिक बल दिया गया है। इस हेतु परियों, चुडै़लों, डायनों, भूतों और निरंकुश राजाओं का सहारा भी लिया गया है। बच्चों को बुराईयों से दूर रखना सबसे बड़ा मकसद नज़र आता है। इसके साथ-साथ मेहनत करने, सच्चाई का साथ देने, बड़ों का आदर करने, खेती-बाड़ी करने आदि पर जोर दिया गया है।
एक बात तो निश्चित है कि उत्तराखण्ड में श्रुति एवं स्मृति का अधिकाधिक प्रयोग होता रहा है। रचनाएं सैकड़ों की ज़बान से सुनती-सुनती बनती-बिगड़ती नए-नए रूप में आगे बढ़ती रही। यह आज तक जारी है। मुझे लगता है कि लोककथाओं और लोक साहित्य से बाल साहित्य को छांटा जा सकता है। इसे काल खंड के स्तर पर भी किया जा सकता है। यह भी संभव है कि यदि देशकाल और समय का आभास न हो रहा हो तो कथावस्तु के आधार पर हम इसे अलग श्रेणियों में बांट सकते हैं। मसलन रीति-रिवाज, खान-पान, अंधविश्वास, परंपरा, लोक जीवन, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और यथार्थपरक बाल साहित्य तो अलग किया ही जा सकता है।
गढ़वाल, कुमांऊं, जौनसार, बधाण, रवांई जौनपुर आदि क्षेत्रों में ‘तीलू रौतेली‘, ‘पंथ्या दादा‘, ‘रामी-बोराणी’ जैसे सच्चे प्रसंगों का अविस्मरणीय इतिहास है। लोककथाओं जैसे-‘चल तुमड़ी बाटे-बाट‘, ‘काफल पाको-मिन नि चाखो’ को याद करते हुए उसमें बाल मनोविज्ञान और बाल मनोव्यवहार के साथ-साथ बच्चों के साथ बड़ों के व्यवहार की पड़ताल नए सिरे से की जा सकती है। इस तरह का कोई विशेष और ठोस अध्ययन प्रकाश में नहीं आया है, जिसके आधार पर कहा जा सकता हो कि उत्तराखण्ड में बाल साहित्य की लिखित शुरूआत कब, कैसे और कहां से हुई है।
पढ़ने-लिखने की समृद्ध परंपरा के बावजूद भी उत्तराखण्ड में बाल साहित्य को बचकाना साहित्य-फूहड़ साहित्य मानने वालों की कमी नहीं हैं। अपढ़ों का साहित्य कहने वाले इस बात से अनजान हैं कि बाल साहित्य रचना प्रौढ़ साहित्य की ही तरह है। बाल साहित्य अधिक परिश्रम मांगता है। बाल साहित्य को बचकाना साहित्य मानने वालों में अधिकतर वे हैं, जिन्होंने न स्वयं बाल साहित्य पढ़ा है न ही बच्चों को वे बाल साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित करते दिखाई देते हैं। दिलचस्प बात यह है जब उनसे पत्र-पत्रिकाओं के बारे में चर्चा करेंगे तो पाएंगे वे दो-तीन पत्रिकाओं के नाम के अलावा कुछ भी नहीं बता सकंेगे। आखिरी बार बाल साहित्य कब पढ़ा? यह सवाल पूछे जाने पर वे इधर-उधर की बात करते नज़र आएंगे।
बाल साहित्य को प्रकाशित करने वाले पत्र-पत्रिकाओं की बात करें तो उत्तराखण्ड के अलमोड़ा से प्रकाशित नटखट सबसे प्राचीन बाल पत्रिका प्रकाश में आती है। हालांकि इसका एक भी अंक उपलब्ध नहीं है। बच्चों का नज़रिया, बच्चों का अख़बार, बाल प्रहरी, बाल बिगुल, सितारों से आगे बचपन, अंकुर आदि के अलावा कुछ संस्थाएं हैं जिन्होंने अनियतकालिक बाल पत्रिका-पत्र के सीमित अंक प्रकाशित किए। उत्तराखण्ड के बाल साहित्यकारों की रचनाओं में परीकथाएं, गुलीवर की यात्राएं, एलिस इन वंडरलैण्ड की छाप अधिक दिखाई पड़ती है। कई रचनाकार अभी भी लोककथाओं के फाॅरमेट से बाहर नहीं निकल सके हैं। वे आज भी साठ के दशक के बच्चों की मानिंद आज के बच्चों के लिए बाल साहित्य रच रहे हैं। यह हैरानी की बात है। हालांकि उत्तराखण्ड में उत्तराखण्ड बाल कल्याण साहित्य संस्थान, बाल साहित्य संस्थान, अल्मोड़ा, रूम टू रीड, प्रथम, भारत ज्ञान विज्ञान समिति, रूलक जैसी संस्थाओं ने बालसाहित्य विमर्श आरंभ किया है। इस विमर्श में बालसाहित्य को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से रचने की वकालत भी की गई है।
आज भी अधिकतर बाल साहित्यकार बच्चों के स्तर का लेखन करने में सक्षम नहीं हैं। वे उपदेश देने, बच्चों को सूचना और ज्ञान देने, आदेश और नसीहत देने से अधिक नहीं सोच पाए हैं। वह बच्चों को सदाचारी बनाने, आज्ञाकारी बनाने और राष्ट्र का सच्चा नागरिक बनाने पर तुले हुए हैं। अधिकतर बाल साहित्यकार मानते हैं कि बच्चों को आदर्शवादी बातें बताना ही बालसाहित्यकार का ध्येय होना चाहिए।
आज का समय सूचना तकनीक का है। तीन साल के बच्चे भी जानते हैं कि पेड़ चल नहीं सकते। ट्रेन को टाटा करने का फायदा नहीं क्योंकि वह टाटा के बदले टाटा नहीं कह सकती। वे जानते हैं कि चांद मामा नहीं हो सकता। फिर क्यो न हमारा बाल साहित्य दिशा देने वाला हो। बेहतर जीवन की बात करने वाला हो। बच्चों की दुनिया से जुड़ी बातें बाल साहित्य में हो। बच्चे जो पढ़ना चाहते हैं। बच्चे जो जानना चाहते हैं। साहित्य भी उसी के आस-पास रहे। बच्चों को गड़ा खजाना मिल सकता है। अलादीन का चिराग भी हो सकता है से इतर यथार्थ जीवन से परिचित कराया जाए। आखिरकार उसे इस यथार्थ जीवन में ही बड़ा होना है। फिर क्यों झूठी दुनिया उसे परोसी जाए?
हिंदी बाल साहित्य का लिखित आरंभ भारतेंदु युग से माना जाता है। उत्तराखण्डवासियों का पढ़ने-लिखने का माध्यम हिन्दी है। यही कारण है कि हम हिन्दी बाल साहित्य के आस-पास ही बाल साहित्य के विमर्श पर बात नए प्रतिमानों के हिसाब से बाल साहित्य की पड़ताल कर सकते हैं। उत्तराखण्ड में प्राचीन समय से लिखने वाले बाल साहित्यकारों का कालक्रम भी व्यवस्थित करने की आवश्यकता है। आजादी से पहले और आजादी के बाद का बाल साहित्य व्यवस्थित किया जाना चाहिए। आजादी के बाद गौरा पंत शिवानी की बाल कहानी अल्मोड़ा से निकलने वाली बाल पत्रिका नटखट में छपी थी। मृणाल पाण्डे, रमेश चन्द्र शाह का बाल साहित्य पढ़ने को मिलता है। सत्तर और अस्सी के दशक की पीढ़ी से आज के बाल साहित्यकारों की लंबी सूची है। लोक जीवन के साथ-साथ यथार्थपरक बाल साहित्य रचनाकारों में अश्वघोष, अरुण बहुखंडी, अनीता चमोली ‘अनु’, आशा शैली, उमा तिवारी, उषा कटियार, कृष्ण शलभ, कमलेश जोशी ‘कमल’ कालिका प्रसाद सेमवाल,खुशाल सिंह खनी, गरिमा, जगदीश पंत, जगदीश जोशी, जीवन सिंह दानू, देवेन्द्र मेवाड़ी, दिनेश लखेड़ा, दीवान नगरकोटी, डाॅ॰ नन्द किशोर हटवाल, नवीन डिमरी ‘बादल‘, पुष्पा जोशी, प्रबोध उनियाल, प्रीतम अपच्छयाण, प्रमोद तिवारी, पंकज बिष्ट, प्रेम सिंह पापड़ा, प्रेमवल्लभ पुरोहित ‘राही’,पंकज बिष्ट, भगवत प्रसाद पाण्डेय, बद्री प्रसाद वर्मा ‘अनजान’, महावीर रंवाल्टा, मनोहर चमोली ‘मनु’ मदनमोहन पाण्डेय, मंजू पांडे ‘उदिता’, महेन्द्र ध्यानी, मथुरादत्त मठपाल, मनोज पांडे, मुकेश नौटियाल, महेन्द्र सिंह राणा, महेन्द्र प्रताप पाण्डे, माया जोशी, माया पांडे, रमेश चन्द्र पन्त, रश्मि बड़थ्वाल, रतन सिंह किरमोलिया, रतनसिंह जौनसारी’, राजेश्वरी जोशी, राज सक्सेना ‘राज’, रावेन्द्र रवि, लक्ष्मण सिंह नेगी, रेखा रौतेला, विष्णुदत्त शास्त्री, विनिता जोशी वीरेन्द्र खंकरियाल, विमला जोशी, शशांक मिश्र ‘भारती’, हरिमोहन ‘मोहन’, खेमकरन सोमन, डाॅ॰ दीपा कांडपाल, डाॅ० नन्द किशोर हटवाल, डाॅ॰ महेन्द्र सिंह पांडेय, डाॅ॰ दिनेश चमोला शैलेश, डाॅ० उमेश चमोला, डाॅ॰ सुरेन्द्र दत्त सेमल्टी, डाॅ॰ यशोदा प्रसाद सेमल्टी, डाॅ० रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ डाॅ० प्रभा पन्त, दयाशंकर नौटियाल, प्रकाश चन्द्र जोशी, बालेन्दु बडोला, भाष्करानंद डिमरी, रमेश चन्द्र पंत, राजेश्वरी जोशी, शेरजंग गर्ग, शशि भूषण बडोनी, शांति प्रकाश ‘जिज्ञासु’,शशि शर्मा, संतोष किरौला, सरोजिनी कुकरेती, हंसा बिष्ट प्रमुख हैं।
उत्तराखण्ड के बाल साहित्यकारों को चाहिए कि वह साक्षरता दर में बेहतर स्थिति का लाभ उठाए। पढ़ने-लिखने की संस्कृति को बचाए और बनाए रखने के लिए बेहतर बाल साहित्य का निर्माण करे। नए भाव बोध का साहित्य रचे। आखिर हम कब तक पचास के दशक के विषय, प्रकरण और प्रतीकों का इस्तेमाल करते रहेंगे। आए दिन हमारे साधन बदल रहे हैं फिर बाल साहित्य क्यों न बदले? ॰॰॰
manohar chamoli manu
09412158688
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यहाँ तक आएँ हैं तो दो शब्द लिख भी दीजिएगा। क्या पता आपके दो शब्द मेरे लिए प्रकाश पुंज बने। क्या पता आपकी सलाह मुझे सही राह दिखाए. मेरा लिखना और आप से जुड़ना सार्थक हो जाए। आभार! मित्रों धन्यवाद।