वह, जो कभी शहर था !
-मनोहर चमोली ‘मनु’
जी हाँ। शहर होना कंक्रीट का होना भर नहीं है। शहर का स्वभाव होता है। उसका खुश होना, अपने बाशिंदों पर हाथ रखना भी होता है। शहर अपने वासियों को सभी मौसमों का अहसास दिलाता है। रोजी-रोटी के साथ संवेदनाएं भी शहर देता है। यही कारण है कि इंसान कहीं भी जाता है लौट-लौट कर अपने शहर आता है। मैं नैनीतालवासियों से पूछना चाहता हूं जो शहर से बाहर हैं (पूरी आधी के आधे शहर से बाहर रहते हैं) क्या वे अब बार-बार अपने शहर आना चाहते हैं?
मैं पूछना चाहता हूँ कि क्या जब भी वे नैनीताल आते हैं, शहर की हालत और हालात देखकर पसीज पड़ते हैं। मैं उन नैनीतालवासियों से भी पूछना चाहता हूं कि जो किसी भी हालत मंे शहर को छोड़कर बाहर नहीं बसे। क्या वे दिल पर हाथ कर कह सकते हैं कि वे बारह महीनों में बारह सप्ताह भी सुकून से सांस लेते हैं? मैं उन सभी से पूछना चाहता हूं कि इस शहर से मिलने और इस शहर से विदा होते हुए इत्मीनान-सा कुछ रहता है? हर शख़्स जो यहां का है और यहां दूसरी बार घूमने ही सही आता है वह अजीब सी बेचैनी लिए हुए क्यों आता है। इस शहर के हाथ-पैरों से दूर होती सड़क पर पहुंचते ही वह राहत भरी सांस क्यों लेने लगता है? 
कुमाऊँ विश्वविद्यालय के मानव संसाधन विकास केन्द्र के अतिथि कक्षों में मैं और मोहन चैहान सहयात्री रहे। सुबह और शाम हमने नैनीताल शहर का जायजा लिया। एक शाम महेश बवाड़ी, महेश पुनेठा, गिरीश पाण्डेय प्रतीक, रेखा चमोली, मोनिका भण्डारी, मोहन चैहान, चिन्तामणि जोशी, दिनेश कर्नाटक लगभग सात किलोमीटर पैदल चलते हुए शहर को नीचे छोड़कर ऊंचाई में भी गए।
वर्ष 2011 के अनुसार नैनीताल शहर की आबादी इकतालीस हजार है। भारत को झीलों का जिला कहा जाता रहा है। लेकिन यह तब कहा जाता था जब इसके साठ ताल हुआ करते थे। इसका परगना छखाता यानि षष्टिखात है। साठ ताल। नयनी से नैनी हुआ और कहते हैं कि नैनी झील को तालों की आँख कहा जाता रहा है। यह झील विहंगम दृश्य के तौर पर कभी आँख का आकार लिए दिखाई देती थी। नैनीताल हिमालय की कुमाऊँ पहाड़ियों की तलहटी में बसा हुआ है। यह 1938 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। माना जाता है कि नैनी झील की परिधि तीन किलोमीटर की है। ताल की लम्बाई कभी एक हजार तीन सौ साठ मापी गई है। इसकी चैड़ाई चार सौ साठ मापी गई है। नैनी झील आरंभिक परिधि में पन्द्रह मीटर है तो अधिकतम गहराई एक सौ छप्पन मीटर मापी गई है। जानकार बताते हैं कि गर्मियों में कभी इसका तापमान 23 डिग्री से अधिक नहीं जाता था। लेकिन पिछले कुछ सालों में तीस डिग्री से अधिक भी तापमान महसूस किया गया है। इसी तरह सर्दियों में तो बर्फ की आमद से शून्य डिग्री से नीचे रहता ही रहा होता था। सर्दियों में जहां अधिकतम तापमान दस-ग्यारह ही रहता था अब वह सत्रह तक आ पहुंचता है। हालांकि बदलते मौसम का प्रभाव पर्यटकों पर नहीं पड़ा है। पर्यटक अब तो सालाना दिनों में ही आते हैं। कभी मई-जून और अक्टूबर-दिसंबर बेहद आमद हुआ करती थी। अब तो पर्यटक सिर उठाए कभी भी आ जाते हैं। अच्छी बात है। लेकिन आवत-जावत ही जी का जंजाल बन जाए तो, दुश्वारियां है कि बढ़ती जाती हैं। आस-पास काफल,बांझ,बुरांश,चीड़,देवदार, मोरपंखी के वृक्ष खूब रहे हैं। लेकिन अब सघन वन के पेड़ांे ने भी खुली हवा में सांस लेना शुरू कर दिया है।

हम दोनांे ने चार बजकर बीस मिनट पर नैनीताल से हरिद्वार रोडवेज बस में अपनी सीट पक्की करा ली। भवाली से भवाली डिपों की हमारी बस को छह बजे नैनीताल आना था। हमारी सीट उन्नीस और बीस थी। हमारे पास डेढ़ घण्टे से अधिक का समय था। हम दोनों ने बुकिंग काउंटर पर बैठे युवक से प्यार के दो बोल बोले तो उसने हमारे दोनों बैग रखने स्वीकार कर लिए और हम नैनी झील की ओर चल पड़े। थोड़ी देर आगे तक ठंडी सड़क की ओर गए। भवाली मार्ग पर हमने चाय भी पी। सुलभ शौचालय पानी विहीन था फिर भी जैसे-तैसे फारीग हुए। इस बीच भवाली से जो भी बसें आतीं उस पर चढ़ने के लिए यात्रियों की मारा-मारी देखते ही बनती थी। हमारा लक्ष्य तो अपनी बस नंबर 3253 पर ही था। हमने योजना बनाई कि एक हमारे दोनों बैग का ध्यान रखे और दूसरा इस बस को खोजते हुए भवाली मार्ग की ओर चल पड़े। मैंने जाना तय किया। लगभग एक किलोमीटर आगे चलते हुए यह बस मिल ही गई। यह भी जाम में फंसी हुई थी। मैंने टिकट दिखाकर कंडक्टर से दरवाजा खुलवाया। मनोधर जी को वस्तुस्थिति से अवगत कराया। वे भी हम दोनों के एक-एक बैग उठाते हुए बस की ओर आ गए। सात बजकर बीस मिनट पर किसी तरह से हम नैनीताल से रवाना हुए। यह बस भी भेड़-बकरियों की तरह यात्रियों से ठूंसी जा चुकी थी।
इस पूरी यात्रा को बिन्दुवार रखना चाहता हूं।
एक-नैनीताल सपिरवार या एक से अधिक बैग लेकर आने वाला यात्री कमोबेश दोबारा यहां पैर नहीं रखता।
दो-जिज्ञासु,घुमक्कड़ी स्वभाव वालों से अधिक यहां मौज-मस्ती करने वाले युवा अधिक आने लगे हैं। जिन्हें न शहर के स्वभाव से कोई लेना-देना है और न ही सैलानियों की मूल प्रवृत्ति से उन्हें कोई मतलब है।
तीन-धनाढय कथित पर्यटक अपनी एसी गाड़ियों में आते हैं, वे हल्द्वानी से आगे चढ़ते हुए बेतहाशा रुपया लुटाते हैं। उन्हें भी दूसरे की परेशानी से कोई लेना देना नहीं होता। वे रात बिताने के लिए और भोजन करने के लिए पटाखों पर दौलत खर्च करने वाली शोखबाज़ी दिखाने का एक भी अवसर नहीं चूकते।
चार-2011 से ऐसे पर्यटकों की आमद बेतहाशा बढ़ी है जिन्हें नैनीझील के पास सेल्फी लेना और झील में नौकायन का आनंद लेना ही आता है। यह दो काम कर लेने के बाद उन्हें लगता है कि वे गंगा नहा चुके।
पांच-रिक्शा चालकों में पूरी ईमानदारी देखी जाती है। वे शाम छह से नौ रिक्शा नहीं चला सकते। सुबह से लेकर शाम तक वे यहां-वहां दौड़ते मिलेंगे। रिक्शा के रेट तय हैं। कोई ख़बीस ही होगा जो पर्यटकों से ज़्यादा पैसे वसूलेगा। बेचारे वीआईपीज़ को भी ठेलते हैं।
छह-दवा लेनी हो या फोटो स्टेट करानी हो। यह काम नैनीताल में जोखि़म भरा है। हां दूसरे शौक करने हों तो उसके माध्यम खूब मिल जाएंगे और अवसर भी और ऐजेंट भी।
सात-पन्नी पैक्ड दूध ग्यारह बड़े ट्रक आते हैं। दो-तीन दूध बेचते अस्थाई दुकानदारों ने बताया कि इन दिन चालीस हजार लीटर दूध नैनीताल में आ रहा है। अब मुर्गों, बकरों और मदिरा का अंदाज़ा लगा लें।
आठ-सुबह सात बजे से पहले नैनी झील के आस-पास कूड़ा बटोर रहे दो युवकों से बात की तो वे बोले-‘‘काहे परेशान कर रहे हो। नौ बजे से पहले ये कूड़ा समेटना है। फुरसत ना है।‘‘ मैंने देखा कि कूड़ादान पलटते और उन्हें बोरों में भरते हुए ऐसे नौजवान बीस-एक थे। कूड़े में हड्डिया और बोतले अधिक थीं। सिगरेट के ठूंठ तो अनगिनत थे।
नौ- सुबह-सुबह सड़क के दोनों ओर चाय-खोमचे वालों का अंबार लगा देखा। चाय,नाश्ता मुहैया कराते ये अस्थाई रेहड़ी-ठेली वाले धन्य है। सुविधा शुल्क देने के बाद ये हजारों पर्यटकों के राम बने हुए हैं। उनके लिए जो गफलत में ही सही नैनीताल तो आ गए लेकिन रात को मंहगे होटलों में न तो रुक सके और न ही वहां के मंहगे भोजन का आंनद ले सके। पूछने पर पता चला कि ये सब अस्थाई दुकानदार नौ बजने से पहले ही खिसक लेंगे। नही ंतो स्थानीय प्रशासन लट्ठ अलग पेलेगा और सारा सामान ज़ब्त भी कर लेगा। मोहन चैहान जी चाय पीते नहीं। अपन ने दो दिन सुबह की यही चाय पी। बातों ही बातों में पता लगाया तो पता चला कि एक रेहड़ी ठेली वाला सुबह के दो-तीन घंटों में दो से तीन हजार की चाय-चाय ही बेच डालता है। जी हां केवल चाय।
दस-राज्य का उच्च न्यायालय शांत ही दिखाई दिया। लेकिन वह केवल कड़े निर्णय ही सुनाता है। अमल दरामद तो सरकार करती है। सुना है कि नैनीझील को भी गंगा की तरह एक जीवित व्यक्ति मानकर उसे बचाने की बात चल रही है। पर क्या गंगा की रक्षा हो रही है जो झील की रक्षा हो सकेगी?
ग्यारह-साथियों ने भी बताया और हमने भी देखा स्थानीय लोगों ने एक घर हल्द्वानी भी बनवा लिया है। वे आस-पास अपने पैतृक गांवों मे ंचले जाते हैं। पर्यटकों के आवत-जावत हो-हल्ले के आदी स्थानीय या तो मूक रहते हैं या खुद को कूल रखने के लिए अस्थाई पलायन कर जाते हैं।
बारह-घर भी पेइंग गेस्ट और घरनुमा होटल में तब्दील हैं। सूखाताल सहित कई जगह पर पार्किंग हैं। आदमी कम और गाड़ियां ही गाड़िया देखनी हैं तो सुबह टहलने आ जाइए या शाम के समय भ्रमण कीजिए। इस बोलते शहर को चिल्ल पौं करते हुए आप अपने कान भींच लेंगे।
तेरह-नैनीताल का जंगल कभी नगर पालिका प्रशासन के नियंत्रण मंे था। अब वह वन विभाग के पास है। वृक्षा रोपण होता दिखाई देता है लेकिन एक छोटा से जंगल को किशोर होने में ही साठ बरस लग जाते हैं। अब साठ बरस पुराना जंगल बड़ी सफाई से बूढ़ा किया जा रहा है।
चैदह-नैनीताल हाईकोर्ट से लेकर मल्ली ताल के अधिकतर अस्थाई नाले पक्के कर दिए हैं। कहीं भी पानी जमीन में रिसता नहीं। सब ढलान की वजह से नैनीझील की ओर बढ़ता दिखाई देता है पर कहां जा रहा हैं यहा सब जानते हैं पर मानते नहीं।
पन्द्रह-चारों ओर कूड़ा ही कूड़ा। नैनीताल में घुसते ही और नैनीताल से बाहर जाते हुए नाक में सडांध घुसती है। वह स्थानीय जनों की देन नहीं कथित पयर्टकों के द्वारा फैलाई गंदगी है। पैदल चलना मुश्किल हो जाता है। सीजन जब पीक पर होता है तो आपको स्थानीय सब्जी,फल और उत्पाद ढूंढे नहीं मिलेंगे। हां भुट्टा तीस रुपए में एक जरूर मिल जाएगा। विलासितापूर्ण भोज्य पदार्थ कहीं भी मिल जाएंगे।
सोलह-नैनीताल में सब कुछ दिखाई देता है बस नहीं दिखाई देते स्थानीय लोग। स्थानीय वस्तुएं। मुझे तो स्थानीय नैनीताल भी नहीं दिखाई दिया। ग्लोबल नैनीताल देखना है तो वह कहीं भी बैठकर देखा जा सकता है। फिर मेरे जैसा कोई यहां बार-बार क्यों आना चाहेगा।
सत्रह-बस,जीप,टैक्सी से यात्रा कर यहां पहुंचे लोग कहते हैं कि बहुत समय जाम ने खा लिया। अच्छा होता अपनी गाड़ियां लेकर आते। निजी गाड़ियां लेकर आए लोगों से बात करें तो वह कहते कि पका दिया। अच्छा होता जो अपनी गाड़ी लेकर नहीं आते।

और अंत में पूर्व की यात्राओं में मैंने जिस शहर से संवाद किया था। जिस नैनीताल की सड़कर पर चलते हुए मुझे रमणीक स्थल का अहसास हुआ था। जिस नैनीताल की झीलों की मछलियां टुकुर-टुकुर मेरी आंखों में झांककर मेरा स्वागत करती थी। जिस नैनीताल के चीड़-देवदार-बांझ-बुरांश के पेड़ों की नायाब सुगंध दिल और दिमाग को ठंडक पहुचाती थीं, जिस नैनीताल के भुट्टे में यहां की मिट्टी का स्वाद मिला था। जिस नैनी झील में विचरण करते चप्पू जल को चूमता हुआ हमें भी रोमांटिक करता था, आज वह सब स्थितियां घबराई हुई सी मिलीं। जैसे कह रही हों-‘‘हमें हमारे हाल पर छोड़ दो। अब मत आना यहां तुम।’’
(यह आलेख दिनांक 25 से 28 जून 2017 पढ़ने-लिखने की संस्कृति की ओर....विषयक संगोष्ठी के दौरान नैनीताल प्रवास के दौरान हल्द्वानी-नैनीताल के शिक्षक साथियों, पर्यटकों एवं दुकानदारों से हुई बाचतीत एवं स्वयं के अवलोकन के आधार पर तैयार किया गया है। यह किसी शोध एवं ठोस तथ्यों पर आधारित नहीं है। )
-मनोहर चमोली ‘मनु’
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जवाब देंहटाएंNice blog
जवाब देंहटाएंshukriya bhayi ji.
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