बचपन छीन कर क्या हासिल होगा?
मुझे तो इन बच्चों पर तरस आता है। खासकर नन्हें-मुन्ने बच्चे सवा दो साल से लेकर चार साल के बच्चों को देखकर। कुछ बच्चे तो उनींदी आंखों के साथ अस्वाभाविक चाल के साथ कदम बढ़ाते हुए आपको मिल जाएंगे। सोचता हूं कि क्या वाकई हम बच्चों का भविष्य बना रहे हैं? पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि हम बड़े बच्चों के बचपन का गला घोंट रहे हैं। दो से चार साल का बच्चा जिसे मीठे-मीठे सपनों में व्यस्त होना चाहिए था। उसे जबरन-झकझोर कर, अप्राकृतिक-सा दुलार देकर हर रोज उठाया जाता है। कोमल मन में, विकसित हो रहे मस्तिष्क में क्या प्रभाव पड़ता होगा?
मुझे नहीं पता। मुझे तो इतना पता है कि नन्ही उम्र में स्कूल जाने का दबाव जिंदगी भर रहता होगा। नर्सरी, लोअर केजी, अपर केजी मुझे तो ठीक से इनका क्रम भी याद नहीं है। हम तो सीधे पहली कक्षा में भर्ती हुए थे। सोचता हूं कि क्या आज के बच्चे अपना बचपन भरपूर जी पाते हैं? स्कूल से घर ज्यादा दूर नहीं है। सहपाठियों से हंसी-ठिठोली ही क्या हो पाती होगी। फिर इन बच्चों की अंगुली पकड़े मम्मी-पापा,दादा-दादी और कहीं-कहीं तो नाना-नानी या मामा तक उन्हें नज़रबंद की सी अवस्था में स्कूल ले जाते हैं।
यह अति सतर्कता है या कुछ और? मैं सोचता हूं कि यदि स्कूल की अवधारणा इतनी प्यारी होती तो ये नन्हें-मुन्ने कभी यह नहीं कहते कि पापा सन्डे कब आएगा? ये सन्डे देर से क्यों आता है? स्कूल इतनी सुबह क्यों लगते हैं। स्कूल की छुट्टी का घंटा जल्दी क्यों नहीं लगता? ये ऐसे सवाल हैं जो यह तो पुष्ट करते हैं कि स्कूल बच्चों के लिए घर जैसा नहीं है। मैं उसे जेल तो नहीं कहूंगा। मैं स्कूल को कांजी हाउस भी नहीं कहता। लेकिन स्कूल बचपन को खिलने देने की जगह तो कतई नहीं है। स्कूल इन नन्हें-मुन्ने बच्चों को प्यार-दुलार देने का स्थल तो कतई नहीं है।
मैं खुद नहीं समझ पा रहा हूं कि आखिर हम बच्चों को वो भी बहुत ही कच्ची अवस्था में स्कूल भेजने पर आमादा क्यों हैं? स्कूल जाने की सही उम्र क्या है? यह बहस का विषय हो सकता है। लेकिन बहुत कच्ची उम्र में भेजने के लाभ से ज्यादा मुझे नुकसान अधिक दिखाई देते हैं।
क्या स्कूल बच्चों को तमीज और तहजीब सिखाते हैं? क्या उन्हें ठीक से उठना-बैठना सिखाते हैं? क्या उन्हें जीवन की पढ़ाई सिखाते हैं? यदि आप ऐसा मानते हैं तो फिर घर क्या करता है? मम्मी-पापा का काम क्या है? चलिए मान लेते है कि यदि मम्मी-पापा कामकाजी हैं तो बात संभवतः दूसरी हो सकती है। लेकिन ये कच्ची उम्र के सभी बच्चों के माता-पिता कामकाजी हों, मुझे इसमें संशय है।
चलिए मान लेते हैं कि स्कूल का दर्जा और शिक्षकों का स्तर घर और माता-पिता से अधिक ऊंचा होगा। यदि मान लेते हैं। तो फिर अधिकतर बच्चे खुशी-खुशी स्कूल क्यों नहीं जाते? इन नन्हें-मुन्नों से बार-बार यह कहना कि जो बच्चे स्कूल जाते हैं वह बड़ा आदमी बनते हैं। तुम्हें रिस्पांसेबिल बनना है। स्कूल में ठीक से रहना है। शैतानी नहीं करना है। इसका दूसरा पक्ष यह है कि घर में यह सब नहीं होता। नन्हें-मुन्ने बच्चे गैर जिम्मेदार होते हैं? घर में ठीक से नहीं रहते? घर में शैतानी करते हैं? इतने नन्हें बच्चों से कहना कि अच्छे माक्र्स लाने हैं। यदि ऐसा करोगे तो तुम्हारे लिए चिज्जी लाएंगे। तुम्हें ये देंगे वो देंगे। ये प्रोत्साहन है या प्रलोभन?
अब आते हैं कि कच्ची उम्र में भेजने से मुझे क्या डर सता रहे हैं।
- मुझे लगता है कि अधिकतर मामलों में ये नन्हें-मुन्ने बच्चे दबाव सहने के नहीं दबाव में रहने के आदि हो जाते हैं। जो नन्हें बच्चे सात दिन में छह दिन दबाव में रहेगा उसका समग्र विकास कैसे संभव है।
- पूरी नींद न ले पाने से बच्चे का स्वभाव अधिकतर चिड़चिड़ा हो जाता है।
- बचपन की अवस्था की मस्ती,उल्लास,छुटपना-बचपना, नटखटपन ये कुछ मानवीय संवेग हैं जो उम्र पार करने के बाद छूट जाते हैं। बचपन को जीने वाला बच्चा और बचपन से छलांग लगाने वाला बच्चा, दोनों के स्वभाव में क्या अंतर रहता होंगा, कहने की आवश्यकता नहीं है।
- इतने नन्हें बच्चों को खेलने का अवसर स्कूल नहीं देता। इस अवस्था में जो शारीरिक विकास घर में खेलने-पड़ोस में आने-जाने वो भी बगैर दबाव रहित होता है से इतर स्कूल में शरीर को एक सीट पर कैद कर देने से नहीं होता। बच्चें में आत्मविश्वास कम हो जाता है। मैं कर सकता हूं। मैं कर सकती हूं। यह भावना को तौलने का हुनर कम रहता है।
- स्कूल साल भर एक ही ढर्रे पर चलता है। शीतकालीन और ग्रीष्मकालीन अवकाश के प्रति बच्चे कितने उत्साहित रहते हैं। यह किसी से कहां छिपा है। स्कूल का नीरस और एक ही तरह का ढर्रा बच्चें की रचनात्मकता छीन लेता है। वह भी जीवन जीने का एक ही ढब बना लेता है।
- जिन बच्चांे का बचपन हम छीन लेते हैं। वे बच्चे जीवन में कुछ भी बन जाएं। लेकिन वे जीवन में कई बार जोखिम उठाने वाला कदम नहीं उठा पाते। कारण? कारण साफ है कि बचपन के वे खेल जिनमें जोखिम उठाना,कौशल विकासित करना,चुनौतियों का सामना करने का मकसद होता है, उन खेलों को बच्चे भूल गए हैं। काश! स्कूल में एक पीरियड बच्चों को कुछ भी कर लेने की छूट देता हो। कुछ भी करने का मतलब वे बैठे रहे या खेलें या बातें करें आदि-आदि।
- घर संवेदनाओं और भावनाओं का घरौंदा है। घरौंदा इसलिए कि वहा हर रोज कुछ न कुछ घटता है। कभी कोई बीमार होता है तो कभी कोई। मेहमान आते-जाते हैं। घर के सदस्यों मंे जो आत्मीयता होती है,बच्चे उसे महसूस करते हैं। घर में प्रेम,सद्भाव एक दूसरे की परवाह करना होता है। घर में दुख के क्षणों में दुखी होना होता है। सुख के क्षणों में हंसना होता है। घर में बहुत कुछ होता है जो स्कूल में होता ही नहीं। घर में स्वाभाविकता होती है। ये सब बच्चा कब सीखता है? कब जानता है? कब महसूस करता है? बचपन में ही तो। वही बचपन हमने बच्चे के स्कूल बैग में स्कूल भेज दिया है।
- मैं अपने छोटे से अनुभव के साथ कह सकता हूं कि आज के बच्चे अकादमिक अव्वल हो सकते हैं। अच्छी जाॅब पा सकते हैं। आराम तलब वाली जिंदगी जी सकते हैं। लेकिन भावनाओं के स्तर पर वे एकाकी हो जाते हैं। उन्हें बड़े होकर बड़े खलने लगते हैं। वे संवादहीन हो जाते हैं। वे उम्र दराज घर के सदस्यों से आत्मीयता नहीं रख पाते। वे न तो दुख जाहिर कर पाते हैं और न ही अपने आनंद में दूसरों को-अपनो को शामिल करना जानते हैं।
- ऐसा बहुत कुछ ये बच्चे बड़ा होकर करने लगते हैं, जो इन्हें नहीं करना चाहते। फिर इन बच्चों के बड़े उन पर झल्लाते हैं। खुद को कोसते हैं। क्यों? मुझे लगता है कि इन सबके पीछे एक ही कारण है, हम कथित बड़ों ने उनका बचपन उनसे छीना है। उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप वे हमसे अपनापन छीनेंगे ही।
- यह आलेख आपको डराने के लिए नहीं है। विचार करने के लिए है। यदि बच्चों को उम्र से पहले स्कूल भेजना वाकई जरूरी है तो हम इतना तो कर सकते हैं कि महीने में चार रविवार और कुल जमा साल में बावन रविवार इन नन्हें-मुन्ने बच्चों को उनका बचपन जी भर के जी लेने दें।
- और हां। एक बात और, उनके साथ खुद का बचपन भी थोड़ा दोबारा जी लें। बचपन को बचाइए दोस्तों। बचपन की हत्या मत कीजिए।
सही कहा आपने
जवाब देंहटाएंji abaar apka.
हटाएंबहुत ही गंभीर और संवेदनशील मुद्दा उठाया है आपने मनोहर जि. मैं अपने घर, परिवार, पडौस में ये साक्षात घटते हुए देख रहा हूं और बेहद असहाय महसूस कर रहा हूं कि क्या करूँ. क्या प्राथमिक/बुनियादी शिक्षा के नीतिनिर्धारक कुछ कर सकेंगे..लगता तो नहीं पर कोशिश तो होनी ही चाहिए..हर स्तर पर...
जवाब देंहटाएंआभार आपका तैलंग जी कि आपकों मेरी ये पोस्ट पसंद आई। अच्छा लगा कि आप यहां तक आए। आशा है सांनद होंगे और हां मेरी कहानियों पर आपकी बात आनी है। मैं प्रतीक्षारत हूं।
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