16 मई 2013

प्रकाशित-अप्रकाशित रचना के बारे में.

प्रकाशित-अप्रकाशित रचना के बारे में

1. मुझे लगता है कि सबसे पहले तो रचना महत्वपूर्ण है न कि संपादक और न ही वह पत्रिका या पत्र, जिसने रचना को सबसे पहले छापा है। तो क्या कोई रचना एक बार छप जाने पर दोबारा छपने लायक नहीं रह जाती?
2. पाठक लगातार बनते हैं, छूटते भी हैं। नये पाठक जुड़ते हैं। यह क्या बात हुई कि जो रचना एक बार कहीं छप गई उसे दोबारा कहीं ओर न छापा जाए। क्यों? बाल रचनाआंे के बारे में ही क्या सभी प्रकार की रचनाओं पर यह नियम लागू क्यों हो? एक तो हर पाठक हर पत्रिका नहीं पढ़ता और न ही हर पत्र उसके घर में आता है। कई बार तो एक ही पत्रिका के एक-दो अंक अमूमन हर किसी से या तो छूट जाते हैं या पाठक भूलवश या अन्य कारण से खरीद नहीं पाता। तब? तब यदि उसे रचना किसी दूसरी पत्रिका में पढ़ने को मिल जाए तो दिक्कत क्या है?

3. एक बात जो हमारे खुद के अनुभव से भी जुड़ी है और पुष्ट होती है कि पहले रचनाकार महत्वपूर्ण है, जो रचना का जन्मदाता है। वो संपादक या वह पत्र-पत्रिका जो यह बंदिश लगाते हैं कि आप हमें अप्रकाशित रचना ही भेजें। क्या यह जरूरी है कि अप्रकाशित रचना ही पढ़े जाने योग्य होगी? संभव है कि नहीं भी। यह भी कि यदि कोई रचना सार्वभौमिक हो जाए तो उसका दायरा सीमित करने का अधिकार किसी को भी क्यों दिया जाए?
4.रचना कालजयी हो सके, पाठक के मन-मस्तिष्क में गहरे पैठ बना सके। इसके लिए रचनाओं की संख्या नहीं उसकी ग्राह्यता महत्वपूर्ण है। रचनाकार कोई मशीन तो है नहीं जिसकी कलम से बाजार की मांग के अनुसार नित नई रचनाएं पैदा होती रहें। भले ही कम रची जाएं पर वो लोकहित में हो। लोक जीवन में पसंद की जा सकें।
5. अप्रकाशित रचना का नियम वहां तक तो ठीक है जहां पत्र-पत्रिका सम्मानजनक मानदेय देते हों। आप औसत मानदेय भी नहीं दे रहे हैं और वो भी पाबंदी के साथ। उस पर तुर्रा यह कि जी हमें अप्रकाशित ही भेंजे। भेजने के बाद आप रचनाओं को साल-साल भर तक रोक कर रखें।
6. अप्रकाशित रचना भेजने के सन्दर्भ में यह तर्क देना कि पाठक रुपये खर्च कर के पत्रिका खरीदता है उसे बासी या पुरानी रचना दोबारा क्यों परोसी जाए। ऐसा मान लेना कुछ हद तक ठीक ह,ै लेकिन यह पैमाना कहां तक ठीक है कि पाकीजा या दिल वाले दुल्हनियां ले जाएंगे मैंने तो देख ली है फिर सिनेमा में दोबारा क्यों लगे?
7.यहां यह कहना आवश्यक है कि संपादक या कोई पत्र या कोई पत्रिका इस मुगालते में क्यों रहे कि उसने कोई रचना पहले छाप दी है तो बस अब वह रचना उसकी हो गई या दूसरों के लिए बेकार हो गई। अगर रचना बोलती है। रचना महत्वपूर्ण है तो वह कहीं भी बार-बार छपे, उसका स्वागत ही किया जाना चाहिए। प्रेमचंद की कई कहानियां इसकी गवाह हैं। यह भी कि अच्छे गाने बार-बार सुने जाते हैं। ठीक उसी प्रकार अच्छी रचना बार-बार पढ़ी भी जानी चाहिए। संपादक यदि किसी रचना को पहले पढ़कर यह जान भी चुका है कि यह रचना उसने किसी ओर पत्रिका में पढ़ ली है तो अपने यहां ससम्मान जनक स्थान देने पर वह घिस नहीं जाएगा। रचनाकार के लिए यह और सम्मानजनक स्थिति होगी और संभव है कि रचनाकार स्वयं से ही संपादक को नितांत अप्रकाशित रचना भेजने के लिए कटिबद्ध हो जाए।
8. कुछ पत्र और पत्रिकाएं रचनाओं के लिए कोई नियम नहीं थोपती। यह अच्छी बात है। लेकिन इसका यह अर्थ कहां हुआ कि उन्हें प्राप्त सभी रचनाएं प्रकाशित ही होंगी। छपी हुई रचनाएं यदि उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए बहुपयोगी होगी तो छपती हैं। यह भी कि यदि अप्रकाशित रचनाएं बहुपयोगी नहीं होती तो कौन सा वह भी छपती ही हैं? हां सकारात्मक बात यह है कि हर पत्र को और पत्रिका को और संपादक को चाहिए कि वह ध्यान रखे कि उनके पाठक को जायका बासी न लगे और यह भी कि नित नये जुड़ने वाले पाठक यह आश्वस्त हो जाएं कि अनमोल और धरोहर के साथ-साथ नई-ताज़ी रचनाएं भी उन्हें पढ़ने को मिल रही है।
 
 
आप क्या कहते हैं इस बारे में? बताएंगे तो मुझे भी एक राह मिल जाएगी।

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