22 जुल॰ 2013

बाज़ार इतना बदल गया है!

***आज फुर्सत मिली तो देहरादून का मशहूर बाज़ार 'पलटन बाज़ार' घूम गया.खूब घूमा..
मैं हाथ से घुमाने वाला लट्टू खोज रहा था..लकड़ी या प्लास्टिक के लट्टू तो मिल ही जायेंगे.ये सोच कर निकला था. 

हर दुकानदार कहने लगा-''भाई साब. किस जमाने के बच्चो के खिलोने मांग रहे हो.'' 
एक ने कहा-''अब हाथ के बने खिलोने बनते ही नही.'' 
मैंने कहा-''बनते तो होंगे लेकिन आपके पास नही हैं.यूज़ एंड थ्रो का ज़माना है.टिकाऊ चीजें रखनी ही क्यों हैं.क्यों.?''
वो बोंला-''पता नही आपके  बच्चे को कहाँ से होश आ गया. इतने पुराने खिलोने की मांग जो कर रहा है.''
मैं चुप हो गया.
सोचता हूँ कि बाज़ार इतना बदल गया है! बच्चे का क्या दोष..? 
वो तो खुद हाथ से कई चीजें घुमा रहा है.
सेल से चलने वाले लट्टू तो मैं कई बार ले गया.तोड़ डाले उसने.कई चीजों को वो खुद ही हाथ से घुमा घुमा कर शायद घुमने-घुमाने  की प्रक्रिया को समझने-जानने का जतन कर रहा होगा.
खैर.... अजीब-सा लगा तो आपसे साझा करने का मन हुआ.
आप क्या सोचते हैं.?

7 टिप्‍पणियां:

  1. आपने बहुत ही गहरा सवाल उठाया है । गहरा और विचारणीय ।
    आज के चमक-दमक वाले बाजार में जहाँ कीमत से वस्तु की महत्ता आँकी जाती है लट्टू और फिरकनी (चकरी)जैसी चीजों का दुर्लभ होजाना आश्चर्य नही है ।
    पिछले साल मयंक लकडी की कुछ रंगबिरंगी चकरियाँ लाया । बैंगलोर जैसे शहर में उनका मिलना बडा विस्मयकारी लगा(जबकि ग्वालियर में भी आसानी से नही मिलती) लेकिन उतना ही आनन्ददायक भी । मान्या व विहान अपने मँहगे खिलौने छोड कर उन चकरियों में अटक कर रह गए ।
    बच्चों की मौलिक प्रवृत्ति आज भी खोजी और जिज्ञासु ही है । हमारा कर्तव्य है कि उनकी ऐसी रुचियों को बढावा दें न कि उन्हें दोछी या पिछडा मानें ।

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    1. मैं पिछलीे कई महीने से लट्टू खोज रहा हूं लेकिन मिल ही नहीं रहे हैं। क्या करूं कुछ समझ नहीं आ रहा है।

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  2. बाजार ही क्यों यहाँ तो बहुत कुछ बदल रहा है...

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    1. जी बिल्कुल लेकिन बाजार हमें बदल रहा है। यह गंभीर है.

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यहाँ तक आएँ हैं तो दो शब्द लिख भी दीजिएगा। क्या पता आपके दो शब्द मेरे लिए प्रकाश पुंज बने। क्या पता आपकी सलाह मुझे सही राह दिखाए. मेरा लिखना और आप से जुड़ना सार्थक हो जाए। आभार! मित्रों धन्यवाद।