27 जुल॰ 2013

कासे कहूं कि बच्चों को सम्मान दें, आत्मग्लानि से न भरें.

कासे कहूं कि बच्चों को सम्मान दें, आत्मग्लानि से न भरें.

-Baal Sansar.

    हम बच्चों को वैसे ही स्वीकार करें, जैसे वे हैं। आखिर हम क्यों यह चाहते हैं कि वे हमारे अनुसार चलें। हम जैसा चाहते हैं, वैसा व्यवहार करें। घर हो या स्कूल। अभिभावक भी और शिक्षक भी कमोबेश यही चाहते हैं कि उनके अधीन या संरक्षण में या उनकी देख-रेख में रहने वाले बच्चे उनके कहे के अनुसार चले। इससे बढ़कर एक कदम और आगे, वे चाहते हैं कि सभी बच्चे एक समान व्यवहार करें। क्यों? ये कैसे संभव है?

    जब एक मां अपनी ही बेटी को अपने अनुसार नहीं ढाल पाती। ढाल भी नहीं सकती और ढालना भी नहीं चाहिए। तब भला हम अभिभावक और शिक्षक सभी बच्चों से एक जैसा व्यवहार क्यों चाहते हैं? एक जैसी प्रतिक्रिया क्यों चाहते हैं? सौ फीसदी प्रगति क्यों चाहते है? क्या यह संभव है? जी नहीं। यह किसी भी सूरत में संभव नहीं है। 


    बच्चे पूरे इंसान हैं। उनका अपना वजूद है। वे किसी फैक्ट्री के सांचे का उत्पाद नहीं है, जो एक जैसे बनेंगे। उनका एक जैसा भार होगा। एक जैसा व्यवहार होगा। सीधी सी बात है। ऐसा भी नहीं है कि हमें इसका इल्म न हो। यही कि बचपन में हर बच्चे को आस-पास से मिलने वाली जानकारी भिन्न मिलती है। वह अपने नज़रिए से चीजों को और धारणाओं को समझता है। अपना एक विचार बनाता है। अपना एक नज़रिया बनाता है।

    हर बच्चे का अपना अलग व्यक्तित्व होता है। हर बच्चे को अलग माहौल मिलता है। उसकी अपनी मां से भी और धर-परिवार से भी। समाज से भी। सहपाठियों से भी। हर बच्चे के लालन-पालन की परिस्थितिया भिन्न हो ही जाती है। हर बच्चे के प्रत्येक दिन में घटने वाली बातें-घटनाएं भिन्न होती है। हर बच्चा अपने जीवन में आने वाले लोगों को अपने ढंग से स्वीकारता है। अपने ढंग से बातों को आत्मसात् करता है। फिर हम बड़े ये क्यों चाहते हैं कि सभी बच्चे एक जैसा प्रदर्शन करें। एक जैसा व्यवहार करें। ये तो हास्यापद ही है कि यह सब जानते हुए भी हम बात-बात पर बौखला जाते हैं कि हमारा बच्चा पड़ोसी के बच्चे से अव्वल क्यों नहीं है। 

    हम बात-बेबात पर अपने बच्चों की तुलना दूसरे के बच्चों से करने लग जाते हैं? क्यों भला? ऐसा करके हम अपने बच्चे के सामने चुनौतियां नहीं रख रहे होत हैं, बल्कि उसे उसकी ही नज़रों में छोटा बना रहे होते हैं। उसे आत्मग्लानि और हीन भावना की ओर धकेल रहे होते है। इससे बढ़कर खुद से भी उसे दूर कर रहे होते हैं। 

    जब इस सृष्टि में ही पेड़-पौधों में विविधता है। मौसम में विविधता है। कोस-दर-कोस में वायु-जल-हवा तक में विविधता है। फिर हम बच्चों में विविधता को क्यों नहीं स्वीकार करते? आपको जवाब मिले या आपके पास जवाब हो, तो बताइएगा मुझे भी। प्रतीक्षा में रहूंगा।

4 टिप्‍पणियां:

  1. इस आलेख में अपने एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही है जिस पर सभी अभिभावकों, शिक्षकों और नीति निर्माताओं को ध्यान देना चाहिए। विविधता का भी आदर होना चाहिए और स्वतंत्र व्यक्तित्व के विकास का प्रयत्न भी होना चाहिए। शाला एक ऐसी जगह बने जहां बच्चे खुशी-खुशी आयें क्योंकि वहाँ उनकी रुचि और क्षमता के अनुसार सीखने और विकसित होने के अवसर मिल रहे हों।

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