13 नव॰ 2016

children litrature वाहवाही का बाल साहित्य -मनोहर चमोली ‘मनु’

वाहवाही का बाल साहित्य

-मनोहर चमोली ‘मनु’

बाल साहित्यकार अपने वय वर्ग में अपने लिए कितने ही भक्त बना लें, आखिरकार उनका नाम लिवाने वाली रचना ही उनकी होगी। रचना ही बोलती है। लेकिन अपनी रचना तो सबको प्यारी लगती है। अपनी गाय के सींग सभी को सबसे पैने नज़र आते हैं। आनंद की अनुभूति तो तब होती है जब रचना किसी ओर की हो और उस रचना पर बोलने वाला कोई दूसरा हो। यह दूसरा कौन होगा? रचनाकार के मुरीद तो उसके पाठक हुए। भक्त तो रचना को समय की आंच पर रखकर आलोचना करने से रहे। तीसरा ही कोई होगा जिसे आलोचक कहा जाएगा। 


यह तय है कि रचना और रचनाकार में ही जब आलोचना सहन करने की ताकत नहीं होगी तो वह अल्पजीवन जीकर काल के गाल में समा जाएगी। मैं स्वयं बतौर पाठक तत्काल बाल साहित्य की चार-छह रचनाएं उंगलियों में नहीं गिना सकता। मैं यह तो कह सकता हूं कि बाल साहित्य में इन दिनों अमुक-अमुक बहुत अच्छा लिख रहे हैं। लेकिन वह बहुत अच्छा क्या है! इस पर विचार करते ही मेरे माथे पर बल पड़ने लग जाते हैं। कारण? मेरे ज़ेहन में बाल साहित्य की इतनी रचनाओं ने स्थाई जगह नहीं बनाई है। यही कारण है कि बाल साहित्य की अधिकतर रचनाएं काल के गाल में समा ही रही हैं। 

आखिरकार हम अपनी रचनाओं पर मनचाही स्तुतियों से फुरसत कब चाहेंगे? शायद कभी नहीं। अधिकतर बाल साहित्यकार अपने बारे में और अपनी रचनाओं के बारें में अच्छा ही सुनना चाहते हैं। वहीं स्वस्थ आलोचना का आधार हमेशा आलोचक के अपने तर्क, निष्कर्ष, समझ, अनुभव, विचार, रचना के औचित्य, कथ्य और रचना की बुनावट होती है। यह जरूरी नहीं कि आलोचक की आलोचना से पाठक भी सहमत हों। लेकिन रचनाकार? रचनाकार को तो चाहिए ही कि वह आलोचना सुनकर-पढ़कर कुपित न हों। आलोचना को सहजता और सरलता से सुनें, पढ़ें और समझें। उसे माने ही, यह कतई जरूरी नहीं। 

हम आलोचना में उदारता की उम्मीद क्यों करते हैं? क्या यह सही है? यदि ऐसा है तो यह हमारा हल्कापन ही है। पाठक तो उदारता के साथ रचनाएं पढ़ते ही हैं। न पसंद आए तो उस रचना को नहीं पढ़ेंगे। ऐसा प्रायः कम ही होता है कि अमुक रचनाकार की कोई रचना मुझे पसंद नहीं आती तो ऐसा नहीं है कि मैं कल, परसों या निकट भविष्य में उसकी कोई भी रचना नहीं पढ़ना चाहूंगा। लेकिन आलोचक के मामले में ऐसा नहीं होता। आलोचक क्यों कर किसी रचना के प्रति प्रेम और निर्ममता दिखाए? उसे तो वहीं करना चाहिए, जो उसे पढ़ते समय महसूस होता है। अलबत्ता आलोचक रचना को पढ़ते समय तिहरी भूमिका में होता है। एक तो वह पाठक होता है। दूसरा वह उसे बतौर रचनाकार भी देखता है कि यदि वह इस रचना का रचनाकार होता तो वह उसे कैसे और क्या आकार देता। तीसरा वह पाठक और रचनाकार से इतर तीसरे जीव के तौर पर उस रचना के गुण-देाष देखता है। उसी के आधार पर उसकी टिप्पणी रेखांकित होती है। 

ऐसा नहीं है कि आलोचक जानबूझकर किसी रचना को अच्छा या बुरा बता दे। कमियां होते हुए भी कमियां छिपा दे। अच्छाई होते हुए भी अच्छाई की चर्चा न करे। यदि ऐसा वह नहीं करता तो उस आलोचक की तटस्थता पर जल्दी ही सवाल खड़े होने लगेंगे। फिर एक दिन ऐसा आएगा कि उसकी आलोचनात्मक दृष्टि ही हास्यास्पद मानी जाएगी। उसकी आलोचना पर रचनाकार ध्यान नहीं देंगे। 

आखिर आलोचक की मंशा क्या है? यह हमें समझना होगा। क्या वह सिर्फ और सिर्फ कमियां निकालने के लिए होता है? क्या वह किसी रचना की तारीफ ही करता फिरे? तो फिर? आलोचक को उन पर भी दृष्टि डालनी होती है, जिस पर न तो रचनाकार का ध्यान गया, न ही आम पाठक का। यदि आलोचक ही उदारता बरतेगा तो यह संभव है कि रचनाकार अपनी रचनाओं के पुराने पाठकों को धीरे-धीरे खोते चले जाएंगे। फिर जब रचना पढ़ी ही नहीं जाएगी तो यह रचनाकर्म किस काम का? 

बगैर आलोचना के आत्ममुग्धता का कवच पहनकर और झूठी वाहवाही की चादर ओढ़कर भी किसी रचनाकार की रचनाएं छपती रह सकती हैं। पढ़ी और गुनी जाएंगी, ऐसा विश्वास करना भी गलतफहमी में रहना है। बाल साहित्य में अभी भी कमोबेश वाहवाही का प्रचलन अधिक दिखता है। कई रचनाकारों को यह गलतफहमी है कि अब तक उनकी दर्जनों रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं। फलां पत्रिका ने या पत्र ने उनकी रचना क्यों कर रोक रखी है? या क्यों अस्वीकृत कर दी है? कुछ रचनाकारों को यह गलतफहमी हो जाती है कि अब तक उनके दर्जनों संग्रह आ चुके हैं। वह स्थापित बाल साहित्यकार हैं। ऐसे बाल साहित्यकारों को अक्सर यह कहते सुना जा सकता है कि हमारी रचनाओं की कसौटी तो बच्चे हैं। आज तक बच्चों ने रचना पर कोई मीन-मेख नहीं निकाली है। ये आलोचक कौन होते हैं? 

बच्चों की पढ़ने की गति क्या है! वह कितना पढ़ते हैं! यह हम सब जानते हैं। रचना, रचनाकार, पाठक और आलोचक चारों स्वस्थ चित्त से अपना धर्म निभाएं तो हिन्दी बाल साहित्य आजादी के आस-पास के साहित्य से आगे बढ़ सकता है। वरना, बाल साहित्य का अंतिम ध्येय भी अखिल भारतीय स्तर के सम्मान-पुरस्कार पाना मात्र रह जाएगा। इससे अधिक हुआ तो पत्रिकाओं के संरक्षक मंडल में सदस्य बन जाएंगे। और अधिक हुआ तो नई पौध की पुस्तकों की समीक्षाएं लिखते रह जाएंगे। और अधिक हुआ तो पुस्तक मेलों के उदघाटनों में, पुस्तक विमोचनों में फोटो खींचते नज़र आएंगे। और अधिक हुआ तो पाठ्य पुस्तकों में एक अदद रचनाएं पढ़ाए जाने से प्रफुल्लित होते रहेंगे। क्या बाल साहित्य का मकसद यही है? इतना ही है?

मुझे लगता है कि आजादी के बाद से ही यदि संजीदगी से बाल साहित्य में उक्त चारों अपना धर्म निभाते तो तब से अब तक के बाल पाठक सजग पाठक बन जाते। साहित्यिक पत्रिकाओं के साथ पढ़ने का रिवाज़ बना रहता। और बढ़ता। पुस्तकालयों की संख्या बढ़ती। नित नए खुल रहे मोल्स, सुपर मार्केट्स में एक नहीं, कई दुकानें किताबों की भी होतीं। हर घर अंग्रेजी के एक अखबार के साथ हिन्दी का एक अखबार तक नहीं सिमटकर रह जाता। हर घर में हर माह बीस-पच्चीस पत्रिकाएं घर बैठे होकरों के माध्यम से आतीं। गली मुहल्लों में जागरण, भण्डारा, धार्मिक जमात-पंगतों की ही संख्या नहीं बढ़तीं। नई किताबों पर इस तरह चर्चा होती, जिस तरह दोपहिया-चैपहिया खरीदने की खबर बैठकों-रसोईयों का विषय बनती हैं। नई किताब और रचनाकारों के व्यक्तित्व-कृतित्व पर बातें होतीं। किताबों-रचनाओं पर विचार गोष्ठियां बढ़तीं। 

इन सबसे आगे की बात यह होती कि संवेदनशीलता, मानवता, नैतिकता, सामुदायिकता, सहभागिता से भरे आयोजन हमें दिखाई देते। अब भी वक़्त है। बाल साहित्यकार को अब अपनी रचना छपने-छपाने से पहले एक-दो पाठकों को पढ़ानी चाहिए। हर रचना को छपने-छपाने से पहले एक-दो मित्रों को आलोचनात्मक दृष्टि से पढ़वानी चाहिए। हर बाल साहित्यकार को हर माह अपने एक मित्र की रचना पर आलोचनात्मक दृष्टि डालनी चाहिए। ज़रा सा वक़्त निकालकर उस रचना पर लिखित राय बनाकर मित्र को जरूर भेजनी चाहिए। यह स्वस्थ और जरूरी परंपरा हिन्दी बाल साहित्य में जब तक नहीं बनेगी तब तलक कई बाल साहित्यकार गफलत में रहेंगे कि वे बाल पाठकों के मन-मस्तिष्क में अपनी रचना के मार्फत सम्मानजनक जगह बनाए हुए हैं। 

यह भी कि आज के दौर में यह कहने से बाल साहित्यकारों को बचना चाहिए कि साहित्य तो स्वयं के आनंद के लिए लिखा जाता है। यदि ऐसा ही मानना है तो लिखिए और लिखकर सहेज लीजिए। यहां-वहां मत भेजिए। संग्रह भी छपवाना है तो छपवाइए। उसें यहां-वहां मत बांटिए। पुरस्कारों और सम्मानों के लिए गुहार मत लगाइए। अपनी पुस्तकें विचारार्थ मत भेजिए। जब स्वान्तः सुखाय लिखा है! बच्चों को, अभिभावकों को और शिक्षकों को दोष देना बंद कीजिए कि वे पढ़ने की आदत छोड़ चुके हैं। पढ़ने लायक उपलब्ध हो तो ये तीनों (बच्चे, अभिभावक, शिक्षक) हमारी और आपकी तरह खरीदे जाने वाली वस्तु के लिए सुपर मार्केट या आम मार्केट की दर्जनों दुकानें छान आते हैं। ओन लाईन मंगाते हैं। पांच सौ रुपए की वह फलां चीज के लिए पूरा दिन और हजार रुपए का पेट्रोल कुर्बान कर देते हैं! इसे पढ़ने मात्र से, सोचने-विचारने मात्र से काम नहीं चलेगा। इस दिशा में व्यावहारिक कदम भी उठाइए।
 ॰॰॰ chamoli123456789@gmail.com

-मनोहर चमोली ‘मनु’ भिताई, पोस्ट 23, पौड़ी उत्तराखण्ड 246001 मोबाइल 09412158688

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