6 अप्रैल 2013

ये शिक्षा कहाँ ले जाएगी?

ये शिक्षा कहाँ ले जाएगी?

-मनोहर चमोली ‘मनु’

मेरे सहयोगी शिक्षक ने मुझसे कहा-‘‘घर खाली-खाली सा नज़र आ रहा है। कल मैंने घर में रखी किताबें कबाड़ी को बेच दीं। कबाड़ी को सात फेरों मंे वे किताबें ले जानी पड़ीं। पत्नी तो कब से इस कूड़े को हटाने की ज़िद कर रही थी। किताबों से हुई खाली जगह में आसानी से सोफा सेट, कुर्सियां, कूलर, फ्रिज, टी.वी. और वाशिंग मशीन फिट आ गए हैं। फिर भी जगह बच गई है।’’
अध्ययनशील साथी की ये बात चैंकाने वाली थी। वह बोला-‘‘इतनी सारी पत्रिकाएं डाक से मंगाता था। अब इनकी जरूरत ही क्या है। सब कुछ इंटरनेट पर है। एक क्लिक करो और वांछित जानकारी स्क्रीन पर पाओ। धीरे-धीरे सारी पत्रिकाएं इंटरनेट पर आ ही जाएंगी। अखबार इंटरनेट पर हैं। क्या नहीं है इंटरनेट पर? अब घर पर किताबों-पत्र-पत्रिकाओं का ढेर रखना मूर्खता है। ये तो कूड़ा जमा करना हुआ।’’
साथी की ये बात समय की दरकार के साथ शायद ठीक थी। लेकिन पता नहीं क्यों मुझे जंची नहीं। फिर मैंने खुद को टटोला। अभी एक दशक पहले ही तो मैं भी कई पत्रिकाओं का और किताबों का दीवाना था। लेकिन धीरे-धीेरे मैंने भी तो पत्रिकाएं और किताब खरीदना बंद कर दिया। ये ओर बात है कि पढ़ने की ललक तो नहीं छूटी। तो साथी शिक्षक की बात मुझे अखरी क्यों?
यह बात मेरे आस-पास ही घूमती रही। विचार किया तो फिर से जाना कि मेरे पास भी तो सैकड़ों किताबें हैं। कुछ किताबें तो वर्षों पुरानी हैं। ऐसी कई किताबें हैं जिन्हें मैंने सालों से टटोला तक नहीं। तो क्या वाकई ये किताबें घर में आज कूड़ा हो गई हैं?
कई दिनों तक ये बात मुझे परेशान करती रही। फिर मैंने अपना ध्यान इस बात से हटाने में ही भलाई समझी। बात आई-गई हो गई।
फिर एक दिन वही साथी शिक्षक झल्लाते हुए बोला-‘‘हद हो गई। ये पब्लिक स्कूल भी न जाने बच्चों को क्या शिक्षा दे रहे हैं। आए दिन प्रोजेक्ट-प्रोजेक्ट चिल्लाते रहते हैं। बच्चों के साथ मेरा तो दिमाग ही खराब हो गया है। आए दिन कुछ न कुछ एक्टीविटी कराते रहते हैं। कुछ न कुछ डिमांड करते रहते हैं।’’
मैंने कहा-‘‘अच्छा तो है। बच्चे हरफनमौला बनेंगे। हर एक्टीविटी में अव्वल आएंगे। इसमें परेशानी वाली क्या बात है?’’
साथी शिक्षक बोला-‘‘हम शिक्षक हैं न? हमारा काम बच्चों को पढ़ाना है या उन्हें और उनके मातापिता को कुली बनाना है? अनाप-शनाप होमवर्क देना, वर्कबुक पर काम कराने का क्या तुक है? प्रोजेक्ट पर प्रोजेक्ट बनाने से बच्चे क्या सीख रहे है? स्कूली फंक्शन के नाम पर बच्चों से बेमकसद की खरीदारी करवाने से कौन सी पढ़ाई होती है?’’
उसने बताया कि उसके बच्चे जिस पब्लिक स्कूल में पढ़ते हैं, वहां के हर टीचर विषय में आए दिन प्रोजेक्ट बनवाते हैं। वह प्रोजेक्ट स्कूल में बने या शिक्षक के सहयोग से बने तो बात समझ में आती है। लेकिन घर से बनाकर या बाजार से खरीदकर लाने वाले प्रोजेक्ट से बच्चा क्या सीखेगा? वह भी इस तरह की लत बनाकर कि गूगल में सर्च करो और वहां से डाउनलोड करो फिर अपना प्रोजेक्ट बनाकर स्कूल में लाओ। फिर उनमें बेहतर प्रोजेक्टस को ‘फस्र्ट-सेकण्ड-थर्ड’ का नाम देकर अन्य बच्चों को हतोत्साहित करो। क्या ये है पढ़ाई? यह सब बातें मुझे भी परेशान करने लगी। 
हम सभी साथी बहस में शामिल हुए। अंत में यही निष्कर्ष निकला कि शिक्षक और स्कूल अपने नैतिक और मूल दायित्व से पीछे हट रहे हैं। सूचना और तकनीक का हवाला देकर बच्चों को पहले से परोसी गई जानकारी को कट-पेस्ट कर परोसने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। घर में माता-पिता और बड़े भाई-बहिनों की ऊर्जा भी ऐसे प्रोजेक्ट बनाने में खप रही है। अधिकतर अभिभावकों को लगता है कि ऐसे में बच्चे खुद करके सीख रहे हैं। लेकिन यह तसवीर का आधा और एक पक्षीय पहलू है।
अधिकतर स्कूलों में आज पढ़ाई की अवधारणा ही बदल रही है। परीक्षा में अधिकतम स्कोर करना ही पढ़ाई का मूल मकसद बन गया है। सारा ढांचा ऐसी गतिविधियों में लिप्त दिखाई देता है। व्यावहारिक शिक्षा और समग्र शिक्षा की कोई बात नहीं करता। परीक्षा की पद्वति भी ऐसी बन गई है कि पहले तीन पाठ पढ़िए उनकी परीक्षा दीजिए और उन्हें भूल जाइए। फिर आगे के तीन पाठ पढ़िए,उनकी परीक्षा दीजिए और फिर उन्हें भी भूल जाइए। एक कक्षा के बाद दूसरी कक्षा में जाइए और फिर पहली कक्षा का किया-धरा भूल जाइए। ऐसा कैसे हो सकता है? यह सवाल उठना लाजिमी है। लेकिन खुद व्यवहार में आप किसी भी बच्चे से उसका पूर्व ज्ञान का आकलन करेंगे तो यही पाएंगे। डीजिटल घड़ियां आने से बच्चे पारंपरिक घड़ी में समय देखना नहीं जानते। मौसम के बदलावों की उन्हें जानकारी तक नहीं है। फसल चक्र और अनाज व उनके बीजों की पहचान तो गंवई मानसिकता का प्रतीक हो गए हैं।
बच्चे की बुद्धि का ऐसा विकास क्या समाज के लिए लाभदायक है। बच्चों में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के बदले एक दूसरे को पटखनी देने की मानसिकता ज्यादा प्रबल हो रही है। किताबों को उलटना-पलटना और उनके अक्षरों को साक्षात छूकर महसूस करना अलग बात थी। लेकिन गूगल पर सर्च कर उसे भाषा में कन्वर्ट कर उतार लेना समझ बनाता हो। मैं नहीं मानता। तकनीक हमारे काम को सरल करे तो उसका स्वागत कौन नहीं करेगा। लेकिन यदि कोई तकनीक हमें पंगु बना दे। हमारी बुद्धि को कुंद कर दे, तो सवाल खड़े होने स्वाभाविक ही हैं।  

इक्कीसवीं सदी की खूबियों का डंका हम खूब बजा रहे हैं। सूचना-तकनीक की सदी जो है। दुनिया एक गांव जो हो गई है। संचार सुविधाएं पलक झपकते ही हमें दुनिया के एक छोर से दूसरे छोर की खबरें जो दे रही हैं। इस युग का बच्चा पैदाइशी मेधावी जो दिखाई दे रहा है। उपभोक्तावादी संस्कृति ने रसोई क्या और स्नानागार क्या? बूढ़े क्या और बच्चे क्या? हर किसी को वस्तुओं और सेवाओं का इतना दीवाना बना दिया है कि हम बाजार के उत्पादों के इशारे पर उठ रहे हैं और जैसे उसी के इशारे पर सो रहे हैं।
बात यहां तक तो पचाई जा सकती है। लेकिन इतना काफी नहीं है। इस सदी का दूसरा दशक तो लंबी छलांग लगाने पर उतारू है। हमारे-आपके बच्चों का एक क्लिक करने का जो नशा छा रहा है। ये न जाने कहां तक ले जाएगा। इंटरनेट ने हमें एक क्लिक करने से भर से जो सुविधाएं मुहैया कराई हैं। उस पर अंगुली नहीं उठाई जा रही है। मेल से सारी सूचनाएं जो इधर-उधर पलक झपकते पहुंच रही हैं। इस सुविधा का विरोध नहीं हो रहा है। चिंता तो सिर्फ इस बात की है कि बच्चों में इंटरनेट का नशा हो या विवशता। यह ऐसे धीमे जहर के रूप में दिमाग को कुंद कर रहा है कि एक समय ऐसा आएगा जब दिमाग कल की बातों-मुलाकातों को भी अपनी याददाश्त से बाहर करता हुआ नज़र आएगा।
आज आम बातचीत में कोई जिज्ञास या सवाल उठाने पर दूसरा कहता है-‘‘गूगल पर सर्च करो न।’’ सर्च करो तो यह बात नहीं कि संबंधित पहलू पर कुछ मिलता ही न हो। लेकिन कई बार इतने सारे लिंक क्लिक करने पर भी आप उस बात को नहीं ढूंढ-खोज पाते जो असल में आपको परेशान कर रही है। फिर लगता है कि अपने किताबी संग्रह में ढूंढते तो अब तक जिज्ञास शांत हो जाती।
अब फिर स्कूली शिक्षा पर आते हैं। रटना कभी सीखना नहीं होता। इसका हम भी विरोध करते हैं कि रटने की पद्वति की वकालत की जाए। लेकिन किसी प्रकरण को सवाल को या समस्या को ठीक से समझना और समझकर उसे अपने जीवन से जोड़ते हुए अपने व्यावहारिक जीवन में आत्मसात् करने के लिए स्थाई करना तो शिक्षा का उद्देश्य होना ही चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। समझ बनाने,करके सीखने और देख-परख कर,सुनकर,समझकर और अवलोकन कर विषयगत अध्ययन करना अलग बात है और डिजीटल रूप में अंतरजाल पर है और उसे काॅपी कर उतार लेना दूसरी बात है।
अब और पीछे जाएं तो यह सवाल भी उठता है कि मानव जीवन बिना किताबों के भी तो था। आने वाले समय में जब सब कुछ डिजीटल हो जाएगा। कागजी सामान बचेगा ही नहीं। तो क्या भावी पीढ़ी का जीना मुश्किल हो जाएगा? नहीं। जीवन चलेगा। लेकिन जो ठोस तरीका अपनाया जाना चाहिए, उस ओर किसी का ध्यान कमोबेश कम ही है। किताबों की जगह डिजीटल किताबों ने ले ली है। चिट्ठी-पत्री की जगह ई-मेल ने ले ली है। युग परिवर्तन है। लेकिन डिजीटल किताबों को पढना तो होगा न? ई-मेल भेजने के लिए लिखना तो होगा न? हाथ का लेखन की-बोर्ड पर चलने वाली अंगुलियों ने ले ली है। लेकिन समझ ने साथ नहीं छोड़ा है। समझ विकसित करने और संवाद के लिए शब्द सामथ्र्य नहीं बदली। लेकिन आज के स्कूल संवाद की जगह रख रहे हैं। बच्चों का शब्द सामथ्र्य बढ़ा रहे हैं? इसमें संशय है। यह मुद्दा व्यापक बहस की गुंजाइश तो रखता है। आप क्या कहते हैं?

4 टिप्‍पणियां:

यहाँ तक आएँ हैं तो दो शब्द लिख भी दीजिएगा। क्या पता आपके दो शब्द मेरे लिए प्रकाश पुंज बने। क्या पता आपकी सलाह मुझे सही राह दिखाए. मेरा लिखना और आप से जुड़ना सार्थक हो जाए। आभार! मित्रों धन्यवाद।