28 दिस॰ 2016

Doon Literature Festival 2016 24-25 December 2016

साबित हुआ कि मरा नहीं है सब कुछ

 -मनोहर चमोली ‘मनु’

 साल दो हजार सोलह का अंतिम सप्ताह ‘दून साहित्य महोत्सव’ के नाम से लंबे समय तक याद किया जाएगा। द्रोण नगरी में यह पहला ऐतिहासिक मौका था जब जनपक्षीय सरोकार के पक्षधर कलमकार दो दिन जुटे। साहित्यका, पत्रकार, छायाकार, चित्रकार, पाठक और श्रोता के तौर पर इन दो दिनों में लगभग दो हजार आंखों का आंकड़ा आश्वस्त करता है कि पढ़ने-लिखने और सुनने समझने की आग अभी भी बाकी है। यदि मकसद मुनाफा और राजनीतिक संकीर्णता से परे हो तो आयोजन भले ही बहुत दूर हो तो भी जागरुक व संवेदनशील बुद्धिजीवी भी जुटते हैं और आम पाठकगण भी बिन बुलाए आ जाते हैं।

 यह आयोजन सिद्व करता है कि जनसरोकारों की चिंताएं भी विमर्श का हिस्सा बनती हैं और पाठक पढ़कर और सुनकर अपनी समझ का विस्तार भी करते हैं। दून पुस्तकालय एवं संस्कृति विभाग के सहयोग से सूबे में तेजी से अपनी धमक देने वाला प्रकाशक समय साक्ष्य ने इस आयोजन का जिम्मा लिया।

 दो दिवसीय साहित्यिक महोत्सव में ग्यारह सत्रों का सफल संचालन हुआ। अलग-अलग सत्रों को सुनने आए और दो दिवसीय पूर्ण आयोजन में जुटे श्रोता और दर्शकों का आंकड़ा एक हजार से भी आगे जा पहुंचा। पहले दिन के महत्वपूर्ण सत्रों में हिन्दी साहित्य का वर्तमान परिदृश्य और नया मीडिया, भूमण्डलीकरण और हिन्दी कहानी, हिन्दी कविता: चेतना और पक्षधरता, स्त्री और आधुनिकता, कवि और कविता के साथ खुले प्रागंण में पुस्तक मेला भी आयोजित हुआ।

दूसरे दिन लोक साहित्य: अतीत, वर्तमान और भविष्य, बाल साहित्य: चुनौतियां और संभावनाएं, बाज़ार, मीडिया और लोकतंत्र, कथेतर साहित्य: समय और समाज, आंचलिक साहित्यः चुनौतियां और संभावनाएं तथा सरला देवी: व्यावहारिक वेदान्त पर चर्चा हुई। इसी के साथ-साथ सुनील भट्ट कृत पुस्तक साहिर लुधियानवी की पुस्तक पर भी चर्चा हुई। भास्कर उप्रेती ने दिनेश कर्नाटक कृत पुस्तक मैकाले का जिन्न तथा अन्य कहानियां पुस्तक पर चर्चा की। दोनों दिन देर रात संचालित वृहद काव्य गोष्ठी भी श्रोता खूब जुटे। दोनों दिन कमल जोशी और भूमेश भारती की छायाचित्र प्रदर्शनी ने भी आयोजन में चार चांद लगाए। प्रख्यात चित्रकार बी॰मोहन नेगी की रेखाचित्र प्रदर्शनी ने भी विशिष्ट माहौल बनाया।

हिन्दी साहित्य का वर्तमान परिदृश्य और नया मीडिया सत्र का संचालन सुशील उपाध्याय ने किया। बतौर संचालन कर रहे सुशील उपाध्याय ने जन सरोकारों के साथ-साथ साहित्य के नामचीन नामों को याद किया तो इक्कीसवीं सदी के खतरों की ओर इशारा भी किया। प्रखर वक्ता एवं आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल ने कहा कि भारत की औसत आयु पर गौर करें तो नौजवानों की दुनिया ही सामने आती है। लेकिन नौजवानों के लिए सबक और समझ बनाने वाला साहित्य हम रच पा रहे हैं? उन्होनें कहा कि आज सारा खेल भावनाओं का और झूठ का है। यह समय आहत हो रही भावनाओं का समय है। हम साहित्यकारों के साथ-साथ पाठकों और श्रोताओं को भी समझना होगा कि हम जिस समय में जी रहे हैं उस समय को समझने की भी आवश्यकता है।

उन्होंने कहा कि प्रतिक्रियावादी की निम्नतर सोच देखिए वह दूसरे की कही गई बात पर कुछ नहीं कहते वह बात कहने वाली की पहचान पर उतर जाते हैं। फिर चल पड़ता है जात, धर्म पर छंीटाकशी। उन्होने जोर देकर कहा कि चुनी हुई चुप्पियां, चुनी हुई चीखें और चुनौती के स्तर पर हमें समझना होगा कि हम सामथ्र्य के साथ मानवीय विवेक का प्रतिनिधित्व करें। उन्होंने कहा कि साहित्यकार किसी की उपेक्षा नहीं कर सकता। हमें जनपक्ष पर अपनी बात रखने का अधिकार है।

उन्होंने पूछा कि क्या बुद्धिजीवी होना अपराध हो गया है? शब्द ही है जो मनुष्य को मनुष्य बनाने की क्षमता रखता है। हम लेखक शब्दों के प्रयोग से ही शिक्षा समानता और शांति की बात करते हैं। बौद्धिक कर्म से जुड़ा होना आज की तारीख में अपराध हो गया है। लेकिन इस अपराध को करते रहने में ही हमारी सार्थकता है। हम और कर ही क्या सकते हैं। उन्होंने दण्डी का उल्लेख करते हुए कहा कि उन्होंने कहा था कि यदि शब्द और नाम न होते तो इस संसार में अंधेरा ही रहता।

 पुरुषोत्तम अग्रवाल जी ने कहा कि शब्द, संवेदना और ज्ञान को कलमकार ही बचाए और बनाए रख सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि एक ही वस्तु को देखने के लिए अलग अलग दृष्टियां हो सकती हैं। मेरी ही दृष्टि सही है। इस बात पर अड़ना गलत है। उन्होंने चेताया कि जानबूझकर ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि हम सूचनाओं के विस्फोट में उलझे रहें। हमारे पास सोचने का समय ही न रहे। स्मरण शक्ति को खत्म किया जा रहा है। समाज अब संक्षिप्त स्मृति में जीने की ओर बढ़ चला हैं। यह समय खतरनाक है। स्मृतिविहीन हो रहा जन। बुद्धि और तर्क से परे होती जा रही संवेदनाएं, सत्यातीत की ओर बढ़ता समाज। बस साहित्य ही है जो अपने भीतर सत्य को रखता है। भाषा ही है जो हमें बोध कराती है। साहित्य ही है जो सच दिखा सकता है। श्री अग्रवाल ने कहा कि अब वह इस बात की चिन्ता नहीं करते कि उनके लिखे को कौन पसंद करेगा और कौन नहीं। मेरे लिए कौन रोएगा, मैं नहीं जानता। बस मुझे अपना ध्येय पता होना चाहिए।

 इसी सत्र में बटरोही ने कहा कि हम पहाड़वासियों ने हिमालय की गोद में पहली सांस ली है। हमारे भाव और रचना प्रकृति की ही देन है। उन्होंने कहा कि साहित्य, कला और संस्कृति अपनी जड़ों से जुड़ने की यात्रा है। यह यात्रा जन सरोकारों की यात्रा हो। उन्होंने सवाल उठाया कि रचनाकार की सफलता क्या है? हमारी रचना किसी क्षेत्र की सरहद के भीतर रहती है या फैलती है। रचना लोकोन्मुखी होगी तो पंख पसारेगी। उन्होंने विदेशी धरती के कई उदाहरणों का संदर्भ भी दिया। क्षेत्रीयता और मातृभाषा की उन्होंने पुरजोर वकालत की।

 भूमण्डलीकरण और हिन्दी कहानी सत्र का संचालन अनिल कार्की ने किया। सुभाष पंत ने कहा कि हर युग में कहानी बदलती है। बदलना उसका स्वभाव है। प्रतिबद्ध लेखकों का दायित्व है कि वह देशकाल और परिस्थिति का सच कहानी के माध्यम से परोसे। हर एक अभिव्यक्ति कहानी ही है। उन्होंने कहा कि जिस तेजी से समाज बदल रहा है। बाजार बदल रहा है। दुनिया बदल रही है। यह सब हमारी कहानी का हिस्सा होना चाहिए।

उन्होंने कहा कि आज यह समय है कि यदि कोई मध्यमवर्ग का इंसान कारपोरेट जगत के किसी अस्पताल में भर्ती हो जाए तो बीस दिनों में ही गरीबी रेखा के नीचे आ जाएगा। एक तो बाजार था कि जो आपको चाहिए वह बाजार में उपलब्ध है। आप अपने मुताबिक सामान ले लें। आज बाजार तय कर रहा है कि आप इसे लो। ले ही लो। मनुष्य आज चीज़ के रूप में परोसा जा रहा है। उन्होंने जोर देकर कहा कि यह शुभ संकेत है कि पाठकों में साठ फीसदी पाठक महिलाएं हैं। हम सब जानते हैं कि आधी दुनिया पर काम, जिम्मेदारी की दोहरी भूमिका भी है। उन्होंने यह भी कहा कि रचनाकार को आत्ममुग्धता आगे नहीं बढ़ने देती। कहानियों की चमक में कहानीकार आगे नहीं बढ़ पाता। अपने बारे में और अपनी रचना के बारे में मिलने वाली प्रसन्नता कई बार कहानीकार को आगे नहीं बढ़ने देती। उन्होंने कहा कि संवेदनशील रचनाकार ही जीवन बचा सकता है। बचाता आया है। जीवन को बचाने का कारगर उपाय रचनाएं ही हैं।

संवेदना को बचाए और बनाए रखने के लिए कहानियां ही हैं जो हमें दर्पण दिखाने की ताकत रखती है। उन्होंने एक सवाल के जवाब में कहा कि लिखना हमारी संवेदनशीलता है। छपना हमारा कौशल है। कहानियों का प्रचार हमारा मैनेजमेंट है। आज प्रचार अधिक है।

 जितेन ठाकुर ने कहा कि लेखक ही हैं जो हमारी दृष्टि विकसित करते हैं। परिवेश को समझते हैं। हालातों को करीब से देखते हैं। समाज के सामने लाते हैं। उन्होंने कहा कि भूख, बेकारी, लाचारी और भावपूर्ण कहानियां हर काल में अलग से रेखांकित होती रही है। आज सूचना तकनीक में कई बार अच्छी कहानियों की चर्चा पीछे रह जाती है और साधारण रचना प्रचार पा जाती है। इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है। इस सत्र को कान्ता राॅय, मनीषा कुलश्रेष्ठ, दिव्य प्रकाश दुबे ने भी संबोधित किया।

 हिन्दी कविता चेतना और पक्षधरता का संचालन अरुण देव ने किया। लीलाधर जगूड़ी ने कहा कि कविता का जन्म कथा कहने के लिए ही हुआ है। उन्होंने कहा कि कलमकार की भूमिका को हलके में नहीं लिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि कविता में तुक मिलाना भी कविता मान लिया गया। तुक मिलाने के चलते कई बार बेतुकी बातें भी हुईं। उन्होंने कहा कि कविता एक से दूसरे की ओर नहीं ले जाती बल्कि दूसरे से दूसरे में जाने की परंपरा कविता है। यह गुणित अनुपात वृहद है। उन्होंने अपने विशाल अनुभवों के आलोक में भाषा, सौन्दर्य, लिपि, कविता के उद्देश्य पर भी दृष्टि डाली।

 राजेश सकलानी ने कहा कि चेतना हर समाज में प्रगतिशील ही होती है। हम अपने समय के सच को उजागर करते हुए समाज की भी चेतना जगाते हैं। शैलेय ने कहा कि हम सभी को वर्तमान समय के सच को सामने लाना चाहिए। अपनी चेतना और पक्षधरता को समाज के हित से ही देखना चाहिए। आशीष मिश्र ने कहा कि लोक जीवन का उभार ही हमारी चेतना का विषय नहीं हो पा रहे हैं। हमारा लोक हमसे दूर होता जा रहा है। गांव की तस्वीर धूमिल होती जा रही है। प्रतिभा कटियार ने कहा कि सवालों से लड़ना ही कवि का धर्म है। रचना हमें सोने नहीं देती। यह समाज के प्रति हमारी पक्षधरता है। इस सत्र में कविता के कई पक्षों पर विहंगम रूप से चर्चा हुई। अधिकतर वक्ताओं ने आज के समय को जटिल बताया और सतर्क रहना चेताया।

 स्त्री और आधुनिकता का संयोजन गीता गैरोला ने किया। शीबा असलम ने कहा कि नारीवादी आधुनिकता आयातित है। हम हमेशा से तर्क देते आए हैं कि प्रकृति ने ही महिला को दुर्बल बनाया है। जबकि यह सच नहीं है। औरतों की समस्याएं हर ओर एक जैसी नहीं है। उन्होंने कहा कि कमजोर उत्पादन हर जगह हारता है। आज भी महिला को प्रोडक्ट के तौर पर आगे रखा जाता है। हमारी अधिकतर परंपराएं महिला को कम करके आंकती रही हैं। आज महिला आंदोलन फैशन की तरह इकट्ठा होने के तौर पर देखे जाते रहे हैं।

 सुजाता तेवतिया ने कहा कि स्त्री पर बात करना कोई फनी नहीं है। रोमांटिक नहीं है। यह कहना कि आज की स्त्री कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है। आधा सच ही है। आज भी अमूमन हर घर में एक सामन्तवादी सोच कायम है। उन्होंने कहा कि हर ओर ऐसा माहौल बना दिया जाता है कि स्त्री को घर और घर के काम में निपुण होना प्राथमिक काम के तौर पर देखने की आदत बने। उसे रसोई और घर के काम को जीतने के लिए अप्रत्यक्ष तौर पर दौड़ाया जाता है। उन्होंने कहा कि एक महिला कांस्टेबल को ही लें। वह संघर्ष करती है। जनाना तो कभी मर्दाना बनती है। ऐसा पुरुष के साथ नहीं होता। उन्होंने कहा कि अधिकतर मामलों में घर के पुरुष ऐसा आवरण बना लेते है कि महिलाओं को यह लगे कि उसे क्या जरूरत धारा के विपरीत बहे। ज्यादा कष्ट उठाने की जरूरत नहीं है। यह सब योजनाबद्ध तरीके से चलता है।

उन्होंने कहा कि पहाड़ की महिलाओं के मुद्दे अलग हैं। दिल्ली की महिलाओं के मुद्दे अलग हैं। स्थानीय आवाज़ें मुद्दों के तौर पर सामने आनी चाहिए।

 गीता गैरोला ने कहा कि समानता के लिए सोचना और स्त्री हक के बारें में सोचना पूरे समाज की आवश्यकता है। पूरे समाज को सोचना होगा। महिला आंदोलन की अगुवा कमला पंत ने कहा कि कई सारे आंदोलन गवाह है कि वह बिना स्त्री के कभी सफल नहीं हो सकते थे। महिला से दूरी समाज से दूरी है। महिला को अलग खांचे में देखना गलत है। घर, गांव और परिवार से दूरी घातक है। आज भी महिला ही हर कुछ बचाए और बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध है। संघर्षरत है। उन्होंने कहा कि पूरे समाज का दायित्व है कि बातों को, विचारों को बांटे, तभी स्वस्थ समाज की स्थापना होगी।

 कवि और कविता की अध्यक्षता अतुल शर्मा ने की। स्वाति मेलकानी, रेखा चमोली, माया गोला, अंबर खरबंदा, मुनीश चन्द्र, राजेश आनन्द असीर, नदीम बर्नी, शादाब अली, प्रतिभा कटियार, सुभाष सहित बीस अन्य कवियों ने कविता पाठ किया।

 लोकसाहित्य अतीत वर्तमान और भविष्य का संयोजन उमेश चमोला ने किया। प्रभा पंत ने कहा कि हम सब लोक का हिस्सा हैं। जहां रचनाकार अनाम हो जाता है वहां वह रचना लोक की हो जाती है।

 प्रभात उप्रेती ने कहा कि लोक वह है जो हमें आनंद से भर दे। हमारे भीतर लोक बचा रहना चाहिए। प्रीतम अपच्छयाण ने कहा कि लोक में सामूहिकता ही लोक की ताकत है। नंद किशोर हटवाल ने लोक विमर्श को आज के सन्दर्भ में जोड़कर कहा कि साठ फीसदी लोक समय के साथ मौखिक परंपरा में होने के कारण लुप्त होने के कगार पर है। इसे कैसे बचाया जाए यह चिन्ता की बात है।

महावीर रंवाल्टा ने कहा कि साहित्य का प्राण तो लोक में है। हमें उसे सामने लाना चाहिए।

 बाल साहित्य चुनौतियां और संभावनाएं का संयोजन मनोहर चमोली मनु ने किया। राजेश उत्साही ने बाल साहित्य के विविध पक्षों पर विस्तार से बात की। राजेश उत्साही ने बाल साहित्य के विविध पक्षों पर विस्तार से बात की। 
उन्होंने जोर देकर कहा कि बाल साहित्य को अलग से खांचे में देखने के वे पक्षधर नहीं है। अच्छा हो कि हम ऐसा साहित्य रचें जो बच्चों को भी पसंद आए और बड़ों को भी। उन्होंने बच्चों के बालमन और बच्चों को पसंद आने साहित्य की भी विस्तार से चर्चा की। उन्होंने फेसबुक के साथ-साथ अन्य सूचना तकनीक के बढ़िया इस्तेमाल की बात भी कही। उन्होंने बच्चों के साहित्य को संवेदना के स्तर पर और मनोरंजन के स्तर पर पहली शर्त माना। 

दिनेश चमोला ने कहा कि यह पाठकों पर छोड़ देना चाहिए कि उन्हें क्या पसंद आ रहा है और क्या नहीं।

मुकेश नौटियाल ने कहा कि कल्पना के साथ-साथ हमें अब यर्थाथवादी साहित्य भी बच्चों के लिए लिखना होगा। उन्होंने कहा कि आज आवश्यकता इस बात की है कि हम बच्चों के लिए रेखांकित साहित्य का सृजन करें।

शीशपाल ने कहा कि दुख इस बात का है कि आज भी बच्चों को अपनी बात कहने का अवसर नहीं मिलता। हम बड़े उन बच्चों की बात तक नहीं सुनते। घर हो या स्कूल, सब जगह यही हाल है। उन्होंने कहा कि बच्चों की अस्मिता की ओर ध्यान जाना अभी-अभी शुरू हुआ है।

उमेश चन्द्र सिरसवारी ने कहा कि माता-पिता भी बच्चों को पढ़ने लायक सामग्री देने से इतर अधिक खाने-पीने में खर्च करने की मानसिकता से नहीं उभर पाए हैं।


 मनोहर चमोली मनु ने कहा कि आनंद के साथ-साथ बच्चों में कल्पनाशक्ति का विस्तार करतीं और उन्हें संवेदनशील बनाती रचनाएं हर काल में पसंद की जाती रही हैं। उन्होंने कहा कि आदेश, निर्देश और उन्हें आदर्श नागरिक बनाने की तीव्र इच्छा को साहित्यकारों को छोड़ना होगा। उन्होंने कहा कि पूरी आबादी में बच्चों की संख्या के हिसाब से जो बाल साहित्य प्रकाशित हो रहा है वह बेहद कम है। विज्ञापन और टीवी ने बच्चों की अहमियत समझी है। पूरा बाजार बच्चों को भुना रहा है। लेकिन साहित्य ने पाठक के तौर पर बच्चों की उपेक्षा ही की है। हम यह कब समझेंगे कि यदि बच्चों में ही पढ़ने की ललक पैदा नहीं की जाएगी तो साहित्य के पाठक कहां से आएंगे। 

इस सत्र की अध्यक्षता उदय किरौला ने की। उन्होंने सबसे पहले वक्ताओं के विशेष कथनों को पुनः परिभाषित किया। उन्होंने जोर देकर कहा कि बच्चों को स्पेस दिया जाना आज की सबसे बड़ी मांग है। बच्चों को खुश होता देख खिलखिलाता देख कौन प्रसन्न नहीं होगा। उन्होंने इस आयोजन पर बाल साहित्य को विमर्श का हिस्सा बताते हुए प्रसन्नता व्यक्त की। उन्होंने कहा कि ऐसे आयोजन बाल साहित्य की महिमा को भी रेखांकित करेंगे। 


बाल साहित्य से पूर्व लोक पर फोकस बाखली का लोकार्पण भी हुआ। इस अवसर पर संपादक गिरीश पाण्डेय 'प्रतीक' ने बाखली से जुड़ने का अनुरोध भी किया।

 बाजार मीडिया और लोकतंत्र का संयोजन भूपेन सिंह ने किया। कुशल कोठियाल ने कहा कि आज मीडिया को नकारात्मक ढंग से अधिक देखा जा रहा है। सुन्दर चन्द्र ठाकुर ने कहा कि मीडिया हर काल में सदैव सकारात्मक ही रहे, ऐसा नहीं कहा जा सकता लेकिन जनपक्षधर धर्म तो मीडिया का होना ही चाहिए।

सुशील उपाध्याय ने कहा कि चाहे कुछ भी हो लोकतंत्र को बचाए और बनाए रखने में मीडिया की भूमिका रही है और रहेगी। इस सत्र में त्रेपन सिंह ने भी अपने विचार रखे।

 कथेतर साहित्य समय और समाज सत्र को संबोधित करते हुए शेखर पाठक ने कहा कि विभिन्न विधाओं से इतर भी कई पुस्तकें और वर्णन जीवंत बन पड़े हैं। उन्हें पढ़ना रस घोलना जैसा होता है। उन्हें पढ़कर एक अलग तरह की अनुभूति होती ही है। देवेन मेवाड़ी ने कहा कि हम जो कुछ भी पढते है यदि वह सरल है सहज है। उसमें हमारे आस-पास की दुनिया समाहित है तो वह आनंद देता ही है।

उन्होंने वैज्ञानिक नज़रिए को भी सामने रखा। इस सत्र को एसपी सेमवाल ने भी संबोधित किया।  तापस ने भी अपने विचार रखे।

आंचलिक साहित्य चुनौतियां एवं संभावनाएं पर बोलते हुए रमाकांत बैंजवाल ने कहा कि हर भाषा का अपना महत्व है। कोई भी भाषा किसी दूसरी भाषा को कैसे मार सकती है। यह समझ से परे है। हर भाषा का अपना सौन्दर्य है। इसे बनाए और बचाए रखने का दायित्व उस समाज का भी है और साहित्यकारों का भी है।

 इस सत्र को अचलानंद जखमोला, देव सिंह पोखरिया, हयात सिंह, मदन मोहन डुकलाण, गिरीश सुन्द्रियाल और भारती पाण्डे ने संबोधित किया। दिलचस्प बात यह रही कि हर सत्र में श्रोताओं ने प्रश्न भी पूछे।

 दो दिन हुए सत्रवार विमर्शों में उपस्थित पाठकों, श्रोताओं और साहित्यकारों ने भी अपनी बात रखनी चाही लेकिन सधे हुए समय के चलते ऐसा संभव नहीं हो सका।

यह कहना जरूरी होगा कि सोचना आसान होता है। सोच को ज़मीन पर उतारना बेहद कठिन होता है। रानू बिष्ट, प्रवीन भट्ट, बी॰के॰ जोशी, एस॰ फारूख, सुमित्रा, भारती पांडे, योगेश भट्ट, अरुण कुकसाल, शेख अमीर अहमद, नन्द किशोर हटवाल, सुरेन्द्र पुण्डीर, संजय कोठियाल, कान्ता, बृज मोहन, सत्यानन्द बडोनी, मनोज इष्टवाल, गीता गैरोला सहित मसीही ध्यान केन्द्र के साथीगण सहित बीस से अधिक चेहरे ऐसे थे जो नेपथ्य में रहकर इस आयोजन को सफल बनाने में दिन-रात एक किए हुए थे। आयोजन से ठीक एक दिन पहले सोचा जा रहा था कि दून से बहुत दूर अस्सी के आस-पास श्रोता जुटेंगे। लेकिन यह क्या, अस्सी, सौ, दो सौ से लेकर दूसरे दिन यह संख्या एक हजार के आस-पास जा पहुुंची। पंजीकरण पंजिका को एक ओर रख दे ंतो सत्रों के हिसाब से आने वाले पाठक, अभिभावक, साहित्यकार, श्रोता, छात्रों की यह संख्या अनुमान के मुताबिक नहीं ही है।
च्लते-चलते उत्साही साथी इसे हर साल के दिसंबर में करने का मन बना रहे हैं। हालांकि यह कहना और लिखना जितना आसान है उस पर काम करना बेहद कठिन। लेकिन कठिनतम को सरलतम कराना और करना ही तो चुनौती है।

 चूंकि इस तरह की सामूहिक भागीदारी से हुआ आयोजन पहली बार हुआ। इस बार हुए आयोजन की खामियों से सबक़ लेकर फिर से ऐसा आयोजन और ठोस व व्यापक उद्देश्यों को पूरा कर सकेगा। यह आशा तो की ही जानी चाहिए। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि एक बेहतरीन आरंभ इस आयोजन ने किया। यह आयोजन यह भी संकेत देता है कि पढ़ने-लिखने की संस्कृति को कोई खतरा नहीं है।

अलबत्ता इसकी समाजोन्मुखी दिशा पर चर्चा आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। यह भी कि इस पूरे आयोजन में तीन साल से सोलह साल के बच्चों की प्रतिभागिता भी देखने को मिली। यह सुखद संकेत तो कहा ही जा सकता है।
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 -मनोहर चमोली ‘मनु’
मोबाइल-09412158688

1 टिप्पणी:

यहाँ तक आएँ हैं तो दो शब्द लिख भी दीजिएगा। क्या पता आपके दो शब्द मेरे लिए प्रकाश पुंज बने। क्या पता आपकी सलाह मुझे सही राह दिखाए. मेरा लिखना और आप से जुड़ना सार्थक हो जाए। आभार! मित्रों धन्यवाद।