स्थानीय से वैश्विक उपहार है 'ब्रेसलेट'
ज्ञान विज्ञान संस्कृतिकर्मी, शिक्षाविद् एवं लेखक एस॰पी॰ सेमवाल का पहला कहानी संग्रह ‘ब्रेसलेट’
-मनोहर चमोली ‘मनु’
हाल ही में ज्ञान विज्ञान संस्कृतिकर्मी, शिक्षाविद् एवं लेखक एस॰पी॰ सेमवाल का पहला कहानी संग्रह ‘ब्रेसलेट’ प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह की सभी कहानियां पढ़ते समय अलग-अलग देशकाल की यात्रा पाठक आसानी से कर लेता है। ब्रेसलेट सहित अन्य पांचों कहानियां का आस्वाद अलग आनंद देता है। कुछ कहानियां बार-बार पढ़ने की मांग करती है।
ब्रेसलेट की सभी कहानियों में कमोबेश संवाद कम हैं। विवरणात्मक और व्याख्यात्मक शैली का कथाकार ने अधिकाधिक प्रयोग किया है। यही कारण है कि कुछ कहानियां में कथाकार का निजी अनुभव झलकने लगता है। कथाकार ने हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी, उर्दू, देशज शब्दों के साथ आंचलिक शब्दों का भी प्रयोग किया गया है।
ब्रेसलेट में अधिकतर वर्णनात्मक शैली का उपयोग किया गया है। संवाद कम ही हैं। बेहद लंबे वाक्य हैं। अनुच्छेद भी बहुत लंबे-लंबे हैं। सत्रह, इक्कीस, सत्ताइस और इकतीस लाइनों का एक-एक अनुच्छेद भी कहानियों में हैं। चार, पांच, छह, सात और आठ-आठ लाइनों के एक-एक वाक्य भी है। संभव है कि पाठक इतने लंबे अनुच्छेदों और लंबी-लंबी लाइनों के वाक्यों को तन्मयता के साथ पढ़ने में असहज हो सकते हैं। वैसे चुटीले संवाद भी हैं तो विचारात्मक भाव भी कहानियों में अनायास ही आ जाते हैं। एक कहानी में छोटी-छोटी और कहानियों की कथावस्तु भी देखने को मिलती है। दो-तीन अवसरों पर अंग्रेजी के शब्द नहीं पूरे वाक्य शामिल कर लिए गए हैं। वहीं उसी के साथ उसका हिंदी अनुवाद कोष्ठक में दिया गया है। यह गैर जरूरी लगता है।
स्वयं कथाकार एक गंभीर पाठक हैं। स्थानीय से लेकर विश्व साहित्य के वे अध्येता हैं। लेकिन वे कहानियों में अति साहित्यिकता के मोह को नहीं छोड़ सके हैं। हर कहानी में एक-दो नहीं बीस से अधिक ऐसे शब्दों का इस्तेमाल वे करते हैं जिनके विकल्प में सरल और आम बोलचाल के शब्द उनके निजी शब्दकोश का हिस्सा हैं।
’ब्रेसलेट’ में उन्होंने निस्तब्धता, स्वर्गिक, अधिवासी, प्रवृत्त्यिां, प्रत्युत्तर, अद्र्धांश, विन्यास, द्विविमीय, अनावृत, अग्रभाग, त्रिवीमीय, रोमांटिसिज़्म, अविच्छिन्न, सर्वसमावेशी, फासिज्म, निर्लिप्त, अवलम्बन, क्रन्दन, संक्षिप्त, निष्प्राण जैसे शब्दों का प्रयोग किया है।
‘युद्धमशीन‘ में उन्होंने वितृष्णा, अद्वितीय, एडवाइज़्ड, मनश्चिकित्सिक, उपहासपूर्ण दृष्टि, परिस्थितिजन्य, सन्देहास्पद, इन्टैरोगेशन, निरुद्ध, केन्द्रित जैसे कई शब्दों का प्रयोग किया है। ‘कथावाचक‘ में मंदस्मिति, दुखान्तयुक्त, अन्तर्गुम्फित, सौन्दर्यशास्त्र, विसर्जित, सरफैसियल इम्पैक्ट, एक्सटेम्पोर, प्रागैतिहासिक, पुर्नजन्म शब्द आए हैं।
‘एक वर्जित शोक गीत‘ में आत्माभिमानी, सम्मोहक, उत्पत्ति, रक्ताभ, प्रतिध्वनियां, मिश्रित, प्रदूषणमापक, लिपिबद्ध, उच्छवास आदि शब्द हैं।
‘पुस्तकालयाध्यक्ष का एक दिन‘ में प्रतिष्ठित, दुःस्वप्न, स्मृतिलोप, चेतनाशून्य, अपरिभाषित, स्पंदनहीन, यन्त्रवत्, अभीष्ट,सप्ताहान्त,गन्धमिश्रित, आर्तनाद जैसे शब्द हैं। ’शुक्रिया’ में नित्यकर्म, रूपान्तिरित, भ्रमित, प्रविष्ट, विद्रुप, भग्नावशेष, रक्तरंजित, अवसन्न, दुष्प्रचार, रक्तस्राव, पुनस्र्थापित, पुनर्नवा आदि शब्द हैं।
कथाकार एस॰पी॰ सेमवाल हर कहानी में एक ऐसे पात्र का रेखाचित्र खींचने में सफल हुए हैं जिसे पाठक पढ़ते हुए अपनी आंखों से अपने आस-पास महसूस करता है। प्रत्येक कहानी अपने देशकाल, वातावरण और परिस्थितियांे के चलते यथार्थ की कहानियां बन पड़ी हैं।
ब्रेसलेट को आज की भी कहानी कहा जा सकता है। काॅलेज का माहौल और समाज में बनती-बिगड़ती अमन-चैन और सांप्रदायिकता की स्थिति पुरानी बात नहीं लगती।
युद्धमशीन भले ही कई देशों के मध्य हुए युद्ध के आलोक में ध्यान खींचती है। लेकिन यह कहानी हमेशा समसामयिक रहेगी। मनुष्यों के साथ-साथ राज्य भी अपने को शक्तिशाली, दूसरे को कमजोर बनाने के साथ पड़ोसी और शक्तिशाली बन रहे देशों में जासूसी उनके नागरिकों के साथ की जाती रहीं बदसलूकियों से आए दिन अखबार भरे पड़े रहते हैं। कहीं न कहीं ये कथा युद्ध के मारक असर पर उसी राज्य के देशवासियों के दृष्टिकोण को समझने की ओर इशारा भी करती है।
कथावाचक को हर पाठक अपने समय के सन्दर्भ में देख सकता है। हिंदुस्तान में तो भीड़तंत्र को कहीं भी बरगलाया जा सकता है। धर्मान्धता और आस्तिकता वोट बैंक के साथ बहुत बड़ा व्यवसाय भी है। आदित्य ने यह कर दिखाया। एक वर्जित शोक विशुद्ध रूप से उत्तराखण्ड के लोकजीवन और यहां के हालातों पर कसता व्यंग्य भी है। कैसे और क्यों हम आज भी ठाकुर का कुआं ढो रहे हैं। यह अस्सी फीसदी पढ़ी-लिखी जनता के होने के बाद भी कायम क्यों हैं। कथाकार की यह कहानी बेहद विचलित कर देती है।
पुस्तकालयाध्यक्ष का एक दिन एक अजीब तरह की कहानी है जो कहीं न कहीं एक साथ कल, आज और कल के मनकों की पिरोई गई माला है। इसे विज्ञान गल्प के आस-पास देखा जा सकता है। इस बहाने पीढ़ीयों और समाज के अंतर को बेहद काल्पनिकता के साथ कहानी हमें 2021 के दर्शन कराती है।
शुक्रिया कहानी नए पुराने ठेकेदारों के साथ सुक्खी और तेरह साल का समझदार बच्चा जो बाद में बाल सुधारगृह की तीन साल की जीवन यात्रा के बाद कुछ ओर ही बन गया। आज के से ही हालातों पर यह कहानी हमारे आस-पास ऐसे अपराधी बन चुके बालकों की ही कहानी लगती है।
ब्रेसलेट 17 पेज की कहानी है। पात्रों में जतिन एक प्रगतिशील नौजवान है। कला, साहित्य और संस्कृति में गहरी नज़र रखता है। सामाजिक सरोकारों से उसका गहन रिश्ता है। वहीं माधव एक कट्टरपंथी विचारधारा का का पोषक है। संजय समृद्ध परिवार का सदस्य है। मध्यस्थ भाव रखता है। हर विचारधारा के फौरी तौर पर गुण-दोष देखने वाला, हर ओर सामंजस्य बिठाने वाला है। ज़ेबा हसन को दिया गया बे्रसलेट कहानी में तीव्र अन्त पैदा करने में सफल हुआ है। नियाज़ हसन एक तरक्क़ी पसंद इंसान हैं। कहानी युवावस्था, काॅलेज-हाॅस्टल के दिनों के आस-पास केन्द्रित है। सामाजिक समरसता के प्रयास कहानी के माध्यम से हुए हैं। धार्मिक, जातीय, नस्लीय भावों पर भी कथाकार ने इस कहानी के माध्यम से इशारा किया है। इसी कहानी में लंबे-लंबे वाक्य हैं।
एक वाक्य पढ़िए -
अपनी विशिष्ट वास्तुकला के साथ, जो शहर ही नहीं राज्य के इस प्रतिष्ठिता काॅलेज की अन्य पुरानी इमारतों में भी प्रतिबिंबित होती थी, के साथ सामने इस छोर से उस छोर तक फैले हरे-भरे सुप्रबंधित लाॅन, उसके आगे पंक्तिबद्ध अशोक वृक्ष और छात्रावास की चहारदीवारी के बाहर शहर की ओर जाती सड़क से दो हिस्सों में बंटा बर्च वृक्षों का जंगल, जिसे इसी काॅलेज के एक वृक्षमित्र प्रोफेसर के एकदशकीय वृक्षारोपण अभियान के तहत यत्पूर्वक रोपा और विकसित किया गया था, पतझड़ के मौसम में कोलतार पुती सड़क और जंगल के बीच गिरे और गिरने को प्रतीक्षारत इस वृक्ष के पत्ते दोपहर की धूप में अपनी पीली रंगत के साथ इस तरह चमकते मानो किसी ने इस धरती पर सोना बिखेर दिया हो।(पेज 17 दूसरा अनुच्छेद: ‘ब्रेसलेट’)
दूसरी कहानी युद्ध मशीन है। यह कहानी 10 पेज की है। स्मिथ युवा तुर्क है। छात्रों का अगुवा। एमआईटी का परास्नातक। ओजस्वी वैचारिक भाषण देने वाला अमेरिका में एक महीने से बंद है। विकसित और विकासशील देशों के मध्य जो गैरबराबरी है। युद्ध ताकत के लिए या बेहतरी के लिए? यह सवाल कहानी में शिद्दत से आया है। कहीं न कहीं यह कहानी इस ओर भी इशारा करती है कि कैसे युद्ध को आगे कर कोई देश दूसरे देश को बरबाद कर सकता है।
इस कहानी में भी एक लंबे वाक्य का उदाहरण पढ़िए-
इस्पात के उस मज़बूत दरवाज़े की बग़ल में एक फीट लंबी और पांच इंच चैड़ी एक स्लिट बनी हुइ्र्र थी, पूरी जेल में सबसे खतरनाक हमलावर या मानिसिक असंतुलन से ग्रस्त कैदियों को बाहर ले जाने के लिए यह तरीका सबसे कारगर माना जता था कि कैदी दरवाज़ा खुलने से पहले अपने हाथ उस स्लिट से बाहर रखे जिनमें हथकड़ी पहना कर फिर दरवाजा खोलकर कैदी को बाहर निकाला जो और इस तरह सुरक्षाकर्मियो पर हमले की संभावना कम की जा सके। (पेज 34 पहला अनुच्छेद: युद्ध मशीन)
तीसरी कहानी कथावाचक है। यह 13 पेज की कहानी है। आदित्य जो कथावाचक बनता है और फिर एक भरी सभा में संत आदित्य महाराज का चोला उतारकर फेंक देता है। ये कहानी भी युवाओं के भीतर अपार उर्जा, क्षमता को प्रदर्शित करती है। आदित्य बहुमुखी प्रतिभा का धनी है। साहित्य, कला, संस्कृति और रंगमंच का जीवन में कितना महत्व है, यह इस कहानी में अच्छे से आया है। एक पात्र जो यहां मुख्यमंत्री का निजी सचिव है, उसकी गतिविधियां पाठक में गुस्सा पैदा करने में सफल हुई हैं।
इस कहानी में भी एक लंबे वाक्य का उदाहरण पढ़िए-
मसलन सती का अपने पिता दक्ष के यज्ञ में अपमानित होकर अग्निकुंड में देह विसर्जित करना, शिव का दक्ष के खण्डित सिर की जगह बकरे का सिर प्रत्यारोपित करना और सती के शव को लेकर शोक संतप्त होकर ब्रहमाण्ड का चक्कर लगाना फिर समाधिस्थ हो जाना, इस नसबके बाद कामदेव का उनके त्रिनेत्र से भस्म हो जाना और शिव का वरदान कि द्वापर युग में कामदेव श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध के रूप में और रति बाणासुर की पुत्री उषा के रूप में जन्म लेंगे और उनका पुनः मिलन होगा। (पेज 46-47 तीसरा अनुच्छेद: कथावाचक)
संग्रह की चैथी कहानी एक वर्जित शोकगीत है। यह कहानी 21 पेज की है। पहाड़, पहाड़ का परिवेश, यहां का लोक जीवन, यहां की विषमता अच्छे से आई है। एक प्रेम कथा जिसमें जात-बिरादरी हावी हो गई और दोनों को मार दिया गया। आज भी ठाकुर के कुएं की याद दिलाता है। यह कहानी कहीं सारी कहानियों के साथ पूरे प्रवाह में पाठकों को बांधे रखने में सहायक हुई है।
इस कहानी में एक लंबा वाक्य वाक्य पढ़िए-
दिन भर इस इलाके के सौन्दर्य, नीचे गांव के खेतों को छूकर बहती पहाड़ी नदी की हवा के साथ जुगलबंदी करती कल्लोल पीले माल्टो और सन्तरो के बोझ से दबे-दबे पेड़ों वाले घरों के आंगन केलोे के वृक्षों की हरियाली से ढके पनघट तक जाने वाले रास्ते और ऊपर बुरांश की लाली से दहकते जंगल और खेतों के पुश्तो पर इस छोर से उस छोर तक पीले फंयूली के फूलों के इस मंत्रमुग्ध कर देने वाले नज़ारे के बाद रात के लज़ीज खाने ने हमें ऐसे स्वर्गिक अनुभव से साक्षात्कार करवा दिया था जिसकी हम शहर में कभी सपने में भी उममीद नहीं कर सकते थे। (पेज 60 पहला अनुच्छेद: एक वर्जित शोकगीत)
संग्रह की पांचवी कहानी पुस्तकालयाध्यक्ष का एक दिन है। यह कहानी 16 पेज की है। भौतिकी का पूरा प्रभाव। विज्ञान फंतासी का-सा प्रभाव दिखता है। विष्णु पंढारकर का पात्र उभरकर सामने आता है। यह कहानी बाप-बेटे के संबंधों और दस साल के काल्पनिक अंतराल में आए बदलाव का भी चित्रण करता है। यह लीक से हटकर कहानी है। चमक-दमक, बड़ापन दिखाने की ठसक इस कहानी में दिखाई गई है।
इस कहानी में भी एक लंबा वाक्य पढ़िए-
उसने फिर आंखें बंद कर जंग लगा लोहे का गेट थाम लिया और अपने भीतर एक गहरी गले को सूखी लकड़ी की तरह सुखा देने वाली प्यास महसूस की, उस पेय के विज्ञापन को देखने के बाद या एक अनजाने दौर तक की निश्चेतना की स्वाभाविक परिणति के तौर पर। (पेज 78 दूसरा अनुच्छेद: पुस्तकालयाध्यक्ष का एक दिन )
संग्रह की छठी कहानी शुक्रिया है। 20 पेज की यह कहानी बाल अपराधी और समाज के कथित ठेकेदारों का बखूबी चित्रण करती है। कैसे यह समाज किसी को भी अपराध की दुनिया में धकेलता है। एक अलग सा वर्णन करती यह कहानी विचारणीय प्रश्न उठाने में सफल हुई है। इस कहानी में भी कुछ लंबे वाक्य हैं।
एक उदाहरण पढ़िए-
उसके अतीत से अनजान तमाम बस्ती के लोग इसी बात पर सुकून कर लेते कि उसी की बदौलत उनके बेबस मायूस बच्चे उसकी दी हुइ्र चाॅकलेट या चाबी वाली कार या ढोलक बजाते जोकर के सााथ घर भर में खुषियों के मारे किलकिला रहे हैं और यह भी कि किसी बीमारी या लाचारी के मारे मर्द या औरत के हाथ में बिना गिने रुपये धर दे इस उममीद के बिना कि वे रुपये उसे वापस भी मिल पाएंगे या नहीं। (पेज 94 दूसरा अनुच्छेद: शुक्रिया)
लंबे वाक्यों से गुजरता हुआ पाठक पीछे के सन्दर्भ को जोड़ते हुए आसानी से आगे नहीं बढ़ पाता। फिर भी इन छह कहानियों में बहुत कुछ ऐसा है, जिसे बार-बार पढ़ने से बार-बार अलग सा स्वाद मिलता है।
आप भी पढ़िए -
‘ब्रेसलेट’ कहानी से
एक-‘ताज़ा हवा को झोंका गर्मियों भर चादर तान कर सोते उस कमरे की आंखों से मानो नींद के जाले बहाकर ले गया।’
-दो- ‘बच्चों की वास्तविक ज़रूरते पूरी करने की बजाय उनकी अनाप-शनाप फरमाइशें पूरी की जाती हैं, जिससे समाज में अपनी समृद्धि और ठसक का सिक्का जमाया जा सके।’
-तीन-जो चीज़ आप बना नहीं सकते, उसे नष्ट करना आपका अधिकार भी नहीं।’
-चार-‘वह जतिन और माधव के द्विध्रुव के बीच एक निरन्तर संक्रमणशील न्यूट्रिनों की तरह डोलता रहता।’
-पांच-धुरविपरीत वैचारिक आधार के बावजूद दोनों एक ही कमरे में साथ-साथ रह रहे थे तो लगता है कि इनकी स्थिति नाभिक में अवस्थित प्रोटोनों के बीच इलैक्ट्रोनों का स्थानांतरण जिस तरह उन्हें बांधे रखता है, संजय इसी भूमिका के तहत इन दोनों को जो शायद उसकी अनुपस्थिति में छिटक कर दूर जा सकते थे, उन्हें साथ रखने की वजह बन गया था।’
छह-उसे लगता वह खुद से ही उकता गया है, वह हवा में, पेड़ों के जुदा रंगों में फूलों में और बादलों में बनने, बिगड़ने वाली असंख्य आकृतियों में नयापन ढूंढने की कोशिश करता लेकिन अगले ही पल वे उसे बासी और नीरस लगते लगते।’
सात-ऐसा कुछ करना होगा तो पहले हमें खुद के भीतर ही संबल और सहारा तलाश करना पड़ेगा संजय, ये लड़ाई है जो खुद की ताकत और हौसले से जीती जाती है।
आठ- लेकिन चीज़ें हमेशा हमारी आकांक्षा और मंशा के अनुरूप घटित होतीं तो शायद दुनिया सभी इंसानों के लिए या तो बेहद खुबसूरत जगह होती या एकरस, उबाऊ होती, कौन जाने?
नौ-गलियों में बस कुछ अवारा कुत्ते घूम रहे थे जो इसलिए बच गए कि उनका कोई नाम-पता और जात नहीं थी।
‘युद्ध मशीन’ कहानी से-
एक-किसी बात पर हंसते हुए उसके शरीर का ऊपरी हिस्सा भी एक बार दोलन करने लगता था।
दो-किन्तु अदालत स्मिथ एवंत माम सामाजिक कार्यकर्ताओं को सुझाव देती है कि वे युद्ध एवं शांति को एक निरपेक्ष परिघटना के तौर पर देखने के बजाय यह गौर करें कि किन्ही परिस्थितियों में जब जनतंत्र को, राज्य की जिनता के हितों को और जीवन को ख़तरा हो तो युद्ध एक अप्रिय अनिवार्यता के तौर पर सामने आता है।
कथावाचक कहानी से-
एक-जसविन्दर का ख़्याल दर्द के समन्दर में डूबी याद की एक लहर की तरह उसके ह्दय में उभर आया।
दो-उसके गालों के हल्के क्यूपिड सुनहरी धूप में कत्थई हो उठे।
तीन- वह हैरान होता कि यह कथा कितने युगों तक फैली हुई है और साथ ही यह भी सोचता कि भले ही इसकी रचना में विलक्षण कल्पनाशीलता झलकती है लेकिन ये तर्क और वैज्ञानिक मेधा को भी कुंठित करती है। मसलन सती का अपने पिता दक्ष के यज्ञ में अपमानित होकर अग्निकुण्ड में देह विसर्जित करना, शिव का दक्ष के खण्डित सिर की जगह बकरे का सिर प्रत्यारोपित करना........।
चार-हां और जरूरत के इस हिसाब किताब को तू प्यार समझता है? जिसे तुम प्यार समझते हो बहुत मामलों में वह अधिकार की भावना को व्यक्त करता है। वह मेरा है या मेरी है इस अहं की भावना को तुष्ट करता है। जिस पर दुनिया की नज़र है वो मेरे पहलू में है इस पागलपन में है।
‘एक वर्जित शोक गीत‘ कहानी से-
एक-यह गोधूलि की बेला ही थी जिसने मुझे जैसे शहर में रहने, शहर को समझने का दावा करने वाले शख़्स को कुछ ही लमहों में महसूस करा दिया कि शानदार चमचमाती टैªफिक लाइट की लाल,हरी और पीली लाइटों,शाॅपिंग माॅल्स, एलीट काॅलोनी, पांच सितारा होटल, पांच सितारा ख्याति के निजी स्कूल जहां शिक्षा के सिवा सब कुछ दर्शनीय होता है के बाहर भी एक दुनिया है, जीवन है।
दो-उनके बछड़ों ने अपनी ज़रूरत भर अपनी मांओं के थन से दूध पा लिया था और अब ग्वालिनें अपने घर के लिए अपने घुटनों के बीच दबाए घड़ों में उनका दूध उतार रही थीं। हर बकरी और भेड़ अपने भरे पेट के साथ चरागाह से लौटी थी।
‘पुस्तकालयाध्यक्ष का एक दिन’ कहानी से-
एक- उसने फिर आंखें बंद कर जंग लगा लोहे का गेट थाम लिया और अपने भीतर एक गहरी गले की सूखी लकड़ी की तरह सुखा देने वाली प्यास महसूस की, उस पेय के विज्ञापन को देखने के बाद या एक अनजाने दौर तक की निश्चेतना की स्वाभाविक परिणति के तौर पर।
दो- यह शहर भी उन्हीं पात्रों की मानिंद अपना होते हुए भी उसे बेगाना, दूसरे ग्रह का सा महसूस हुआ।
तीन- इसका दूसरा अभिप्राय था कि इस नश्वर जीवन की सच्चाई के बरअक्स वह अपने पति से पहले दुनिया से कूच कर जाए, मुझे यह क़तई बेतुका लगता है कि स्त्रियां अपने पति के दीर्घ जीवन की कामना करें, इसलिए इस देश में महिलाओं की औसत उम्र पुरुषों से कम है। भई अगर दुनिया से जाना ही है तो मैं पहले जाना चाहूंगा या हद से हद तुम्हारे साथ।
चार-अब उसके ह्दय से भावना के सभी स्थूल और सूक्ष्म तत्व अतीत की मधुर, कटु या तिक्त स्मृतियां, उसके जीवन की सार्थकता का बोध, निराशा और उत्साह सब कुछ जैसे भाप बन कर उड़ रहे थे।
‘शुक्रिया‘ कहानी से-
एक-काम से घर लौटते लोगों से अटी-सिटी बसों, रिक्शों, कारों और दुपहिए वाहनों ने सड़क का जैसे दम घोंट दिया हो।
दो-यहां से गुज़रने पर नाली पर बैठकर नित्यकर्म निपटाते नंग-धडंग बच्चे इस कैनवास पर चित्रित पेन्टिंग का अभिन्न हिस्सा थे।
तीन-इसी स्कूल में अपने बालों में दो चोटियों पर सुखऱ् रिबन के गुलाब लगाए कन्धे पर बस्ता रखे स्कूल जाती वो लड़की, जिसे देखकर उसकी ज़ुबान तालू से चिपक जाती। वो अम्बियां और नीम की दातुन इकट्ठा करना और क़स्बे में उन्हें बेचकर पांचेक रुपए के साथ अपनी आंखों में चमक लिए घर लौटना।
चार-इस व्यवस्था की अमानवीय विशालकाया मशीन में यह किशोर गृह तो एक कूड़ाघर की तरह था, जहां वो अपने इस्तेमाल की गई चीज़ों और अपनी ग़लतियों से बिगड़ गई चीज़ों को फेंककर सुकून से रह सकती थी। अनवरत्-याथवत्। लेकिन ये बेजान चीज़ों का कूड़ाघर नहीं था, वो व्यवस्था के शिखर पर बैठै सत्तासीनों को तब एहसास होता जब इसी कूड़ाघर से हाथों में वो हथियार लेकर बाग़ी बन इन्हीं की नीव हिलाने लगते।
पांच-नये निज़ाम ने पूरी दुनिया में मुनाफा़ख़ोर पूंजी के बड़ै प्रचारतंत्र के हुंआ-हुआं से प्रभावित होकर एलान कर दिया कि पुराने तरीक़े अब काम नहीं वाले।
छह-लहूलुहान होकर फर्श पर गिरे दिलीप की हैरत भरी आंखें उसकी ओर टंगी हैं। मृत्यु से एक क्षण पहले उन आंखों में ख़ामोशी के साथ हज़ारों सवाल तैर रहे हैं।
कुछ कहानियों में कथाकार ने कहानी के मध्य ही कोष्ठक में शब्दों और वाक्यों का तर्जुमा हिन्दी में दिया है। इसी तरह कुछ आंचलिक शब्दों का उपयोग कर वहीं उसका हिन्दी में अर्थ दिया गया है। इसे इस तरह कहानी के बीचोंबीच नहीं दिया जाना चाहिए। यह पाठक के कहानी के स्वाद में बाधा पहुंचाता है। इसे आखिरी पन्ने पर दिया जा सकता था, या नीचे बाॅटम पर अलग से रेखांकित किया जा सकता था। या नहीं भी देने से काम चल जाता।
मुझे लगता है कि कहानी भी एक गीत की मानिंद होती है। कहानी अपना अर्थ देने में सक्षम होती है। जैसे-जैसे गीत की एक-एक पंक्ति आगे बढ़ती है, वह अपने आगे-आगे उसके मायने को साथ लेकर चलता है। उदाहरण के लिए किसी भी आंचलिक गीतों को ले लीजिए। भोजपुरी हो या गढ़वाली। गीतकार ने ठेठ आंचलिक शब्दों का उपयोग गीतों में किया है। सुनने वाला और गाने वाला भी उन गीतों में आए उन वाक्यों, शब्दों-अपरिचित शब्दों के अर्थ स्वयं खोजता है। तलाशता है। पता करता है। साहित्य खोजबीन की यात्रा भी है। गढ़वाल और कुमाऊं के कई गीतकारों ने गीतों में आंचलिक शब्दों को उपयोग किया है। उनकी व्याख्या नहीं की है। व्याख्या पाठक करता रहे। पूछे। इससे दो फायदे होते हैं। लोक धर्म भी बचा रहता है और शब्द मरते नहीं।
शब्दों को सन्दर्भ के साथ जोड़कर देखने,परखने और बरतने की आदत बनी रहती है।
मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं है कि कथाकार का उद्देश्य साफ है। वह अपनी कथाओं के माध्यम से पाठक को झकझोरना चाहते हैं। वे समस्या रखते हैं। हालातों का बखूबी चित्रण करते हैं। समाधान नहीं जुटाते। समाधान की ओर प्रेरित करते हैं। उत्प्रेरक का काम करते हैं। वे सवाल-दर-सवाल खड़ा करते हैं। वे पाठक को तनाव देते हैं। बेचैन करते हैं। हर कहानी इस बात की ओर इशारा करती है कि जिस समाज में हम रह रहे हैं उसमें मानवता भी हो। नैतिकता भी हो। इंसानियत भी हो। हम इंसान को तरजीह दें न कि किसी के पद और उसकी मिल्क़ीयत को। इन कहानियों के पात्रों में अलग-सी छटपटाहट दिखाई देती है। आक्रोश दिखाई देता है। तनाव दिखाई देता है। पात्रों के माध्यम से समाज में जो नहीं होना चाहिए, उसका भी उल्लेख किया गया है। पात्रों के सहारे रचनाकार एक समतामूलक समाज चाहते हैं। पात्रों के सहारे गैर बराबरी से उपजा असंतोष भी बेहतरीन ढंग से रेखांकित हुआ है।
समय साक्ष्य प्रकाशन के क्षेत्र में तेजी से उभरता हुआ उत्तराखण्ड का अग्रणी प्रकाशक बन रहा है। लेकिन इस पुस्तक के प्रकाशन में कुछ लापरवाहियां दिखाईं देती हैं। स्वयं प्रकाशक को अपनी ओर से पुस्तक के ले आउट पर ध्यान देना चाहिए था। पेज संख्या 02, 06, 10, 16 और 112 खाली छोड़ दिए गए हैं। खाली पेज अखरते हैं। आवरण चित्र किसका है? इसका उल्लेख नहीं है। कागज बेहतरीन है। फोन्ट भी अच्छा है। आंखों का कष्ट नहीं देता। चंद्रबिन्दु को बरतने में लापरवाही खूब दिखाई देती है। कुछ जगह अंग्रेजी के शब्द फोंट बदलने से गड़बड़ा गए हैं।
आशा की जाती है कि इस संग्रह को पाठक बहुत पसंद करेंगे।
॰॰॰ -मनोहर चमोली ‘मनु’
Mobil-0941218688
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पुस्तक: ब्रेसलेट
पेज संख्या: 112
मूल्य: 120
आकार: डिमाई (अजिल्द)
प्रकाशक: समय साक्ष्य, 15 फालतू लाइन, देहरादून
मेल: mailssdun@gmail.com
फोन: 0135-2658894
लेखक: एस॰पी॰ सेमवाल
सम्पर्क: 11 मन्दाकिनी एन्कलेव,डिफेंस काॅलोनी,देहरादून
मोबाइल: 9758502569
मेल:spsemwalgvs@gmail.com
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BRACELET : SP SEMWAL
by- Manohar hamoli 'manu'
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