बाल साहित्य बनाम बचकाना साहित्य
-मनोहर चमोली ‘मनु’
आज भी साहित्यकारों में अधिकतर वे हैं जो यह मानते हैं कि बच्चों को सच्चा सामाजिक बनाने वाला साहित्य ही उत्तम साहित्य कहा जा सकता है। जो उन्हें सद्मार्ग की ओर ले जाए, वही बाल साहित्य सार्थक है, श्रेष्ठ है।
बतौर पाठक बच्चे ही क्यों, बड़े भी जब साहित्य का आस्वाद ले रहे हों, तो पढ़ने से पहले और पढ़ लेने के बाद खुद में बदलाव महसूस नहीं करते हैं तो वह साहित्य बेदम है। साहित्य में आनंद की अनुभूति पहला तत्व है। जब आनंद ही नहीं आएगा तो कोई पढ़ेगा ही कैसे। जब पढ़ेगा ही नहीं तो खुद में बदलाव क्या लाएगा, सोचेगा तक नहीं।
बाल साहित्य में बच्चे को सशर्त, सीधे, तीव्र उपेदश और सीख के जरिए सामाजिक बनाने वाला साहित्य पढ़ा भी जाता होगा, मुझे संदेह है। किसी तरह पढ़वा भी लिया जाता होगा तो बाल पाठक खुद में बदलाव लाते होंगे, असंभव सा प्रतीत होता है।
मेरी समझ तो फिलवक़्त यही बनी है कि कि मनोरंजन के कई साधन आज बच्चों के आस-पास पसरे हुए हैं। ऐसे में बाल साहित्य का मात्र मकसद मनोरंजन करना हो, यह भी अजीब सा लगता है।
एक तो बाल साहित्य में बच्चों का नज़रिया हो। बच्चों की दुनिया हो। बच्चों की आवाज़ें गूंजती हों। अक्सर कहा जाता रहा है कि बाल साहित्य बच्चों के स्तर का हो। ये स्तर क्या बला है? दो साल से लेकर बारह साल के बच्चों के स्तर पर तो पल-प्रति-पल बदलाव आता रहता है! क्या हर वय वर्ग के बच्चे के लिए एक पत्रिका हो? या एक पत्रिका में हर स्तर के बच्चे के लिए पठन सामग्री हो? यह संभव है? या कई वय वर्ग को ध्यान में रखते हुए कई तरह की भिन्न-भिन्न बाल पत्रिकाएं हो?
बाल साहित्य अलग से होना ही नहीं चाहिए। यह भी अक्सर कहा जाता है। इसका अर्थ क्या यह हुआ कि बच्चे हंस, वागर्थ, नया ज्ञानोदय, विज्ञान प्रगति (यहां इनका उल्लेख मात्र साहित्य सामग्री छपने से है ) समकालीन भारतीय साहित्य आदि से ही साहित्य का आस्वाद लें?
बहरहाल बच्चों के लिए लिखा जाने वाला साहित्य उन्हें बालमन से आगे भी ले जाए। जो दुनिया उसके आस-पास है, उससे भी परिचय कराए। उस दुनिया से भी, जो आने वाले समय में उसकी दुनिया होने वाली है। बच्चों को साहित्य के नाम पर सामान्य ज्ञान परोसने से काम नहीं चलेगा। सूचनात्मक जानकारी देने से भी काम नहीं चलेगा। कपोल कल्पनाओं से भरा साहित्य पहले बहुत लिखा जा चुका है। पीसे हुए आटे को पीसना भी बंद करना होगा।
आदर्शवाद से भरी रचनाएं बहुत हुईं। बच्चों को सच्चा नागरिक बनने, सामाजिक बनने, आज्ञाकारी बनने की सीधी अपील करती दर्जनों किताबें पुस्तकालयों और स्कूलों की शोभा बढ़ा रही हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि पिछले सत्तर सालों से बच्चों को जो साहित्य परोसा गया, उसमें उन्हें राष्ट्रभक्त बनने के जोर और प्रयासों से ही कई जाने-माने साहित्यकार बाल साहित्य को बचकाना साहित्य कहते हैं? ...
-मनोहर चमोली ‘मनु’, भितांई, पोस्ट-23, पौड़ी 246001 उत्तराखण्ड।
मोबाइल-09412158688 और 7579111144
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