18 अक्तू॰ 2019

क्या पिता की लम्बी उम्र के लिए, माँजी की लम्बी उम्र के लिए, ..

क्या पिता की लम्बी उम्र के लिए, माँजी की लम्बी उम्र के लिए, सास-ससुर (पत्नी के माता-पिता भी) की उम्र के लिए, अविवाहित बड़े भाई-बहिन की लम्बी उम्र के लिए भी कोई व्रत-त्योहार रखते हैं हम? उसका इसी तरह से प्रदर्शन क्यों न शुरू हो जाए? 

ठीक करवाचैथ आते ही महिला केन्द्रित ख़ासकर पत्नी आधारित काॅटून,हंसोड़ पर भद्दी भावना से ग्रसित चुटकूलों की बाढ़-सी आ गई है। उस पर आलम यह कि हम उन्हें ख़ूब प्रचारित और प्रसारित कर रहे हैं। सारा समाज दो खेमों में बंट गया है। व्रत को मानने-मनवाने वालों का और व्रत को न मानने और मनवाने वालो का। एक पक्ष इसकी पैरवी कर रहा है तो दूसरा खिल्ली उड़ा रहा है। तर्क से परे तथ्यों को जाने-समझे बिना फ़िकरे कसने में कोई बाज़ नहीं आ रहा है।

व्यक्तिगत तौर पर मैं स्वयं महिलाओं को लक्ष्य बनाकर सुनने-सुनाने जा रहे चुटकूलों के सख़्त खि़लाफ हूँ। अपना एतराज़ संबंधित को जताने में एक पल की देरी भी नहीं करता। लेकिन यह हमारे आचरण में भी होना चाहिए। हम हर उस बात से परे हों जो किसी के आत्मसम्मान को चोट पहुँचाती हो। हाँ, हमें त्योहारों के बाज़ारीकरण को समझना चाहिए। हमें मंशा समझनी चाहिए। उसके महिमामंडन के जाल में नहीं फंसना चाहिए। 

क्या पिता की लम्बी उम्र के लिए, माँजी की लम्बी उम्र के लिए, सास-ससुर (पत्नी के माता-पिता भी) की उम्र के लिए, अविवाहित बड़े भाई-बहिन की लम्बी उम्र के लिए भी कोई व्रत-त्योहार रखते हैं हम? उसका इसी तरह से प्रदर्शन क्यों न शुरू हो जाए?


किसी भी धर्म का कोई भी पर्व-त्योहार है। है तो है। वह आपके-मेरे विरोध करने से बन्द नहीं होने वाला। उस समाज और वर्ग की चेतना जब जगेगी तब कुप्रचलित त्योहार,प्रथा और उत्सव आदि बन्द होंगे। हमारे पास तमाम उदाहरण हैं। जिन्हें तत्कालीन समाज मनाता था, धीरे-धीरे वे काल के गाल में समा गए। फिर भी किसी एक दिन का स्यापा जिसे न करना हो न करे। जो कर रहे हैं, करने दें। आपकी जेब थोड़े न ढीली हो रही है। उधार लेकर घी पीना तो आज की रवायत भी है। 

अब अपनी कहूँ। हम तथ्यविहीन पर्व, त्योहार और भोंडे प्रचलन नहीं करता। जैसे मैं नहीं करता, न करवाता हूँ। प्रदर्शन भी नहीं करता। लेकिन किसी का मजाक उड़ाने का मुझे कोई हक नहीं। हमने अपने दोनों बच्चों को कभी कोई काला टीका नहीं लगाया। गंडा-ताबीज़ भी नहीं पहनाया। लेकिन मेरा साफ मत है कि ऐसे कोई व्रत रखने से दूसरा कोई दीर्घजीवी नहीं हो जाता। लेकिन कोई कूप में पड़ा है तो यह उसका निजी मामला है। आपकी तरह मैं भी किसी भी उत्सव के भौंडे प्रदर्शन पर हंसता हूँ। लेकिन दोनों हाथ हवा में लहराकर दांत फाड़कर ठठाता नहीं। 

अब दीपावली आने वाली है। लाख कहिए, लेकिन हजार दो हजार रुपए (रुपए शायद मैं ज्यादा तो नहीं लिख गया?) के पटाखे हम हवा में स्वाहा कर देंगे। लेकिन अपने आस-पास लाचार-भूखे को तीस रुपए का भोजन नहीं कराएंगे। किसे संस्कृति कहें या परम्परा या रीति रिवाज? परम्पराए तो विधवा के बाल मूंड देने की भी थी। सती हो जाने की थी। देवी के नाम पर बलि देने की थी। पर यह हम सभी को सोचना होगा। आप प्रगतिशील बनिए और पड़ोसी सत्रहवीं सदी में जिए, इससे क्या होने वाला है? गाय के नाम पर आवारा पशुओं का सड़कों पर घूमना क्या हमें रोज-रोज नहीं दिखाई देता? लेकिन दबंगई के लिए हमें दूसरी कमजोर जात ख़ूब दिखाई देती है। 

मुझे नहीं लगता कि ऐसा कोई परिवार होगा, जिस घर में कोई विधवा न हो, अधेड़ पर अविवाहित या अविवाहिता न हो, विधुर न हो,परित्यकता न हो, बुजुर्ग न हो? इनकी लंबी आयु के लिए कोई व्रत-त्योहार रखने की परम्परा हमारी भारतीय संस्कृति में नहीं है!  क्या यह भी हम तब शुरू करेंगे, जब ये भी अन्य की तरह आयातित होंगे? गैजेट्स, बरतन, कमोड, कंडोम, शराब, अधोवस्त्र और खान-पान तो आयातित हैं! अब तीज-त्योहार आयातित हैं भी तो मरोड़ काहे? 

हम नकलची हैं तो हैं ! अरे यार ! हर किसी के पास जीवन जीने के, खराब जीवन जीने के, तथ्यरहित जीवन के, तर्कसहित जीवन जीने के क़ायदे हैं। हर बार हर कोई लाल कपड़े में धूल फाँक रही किताब खोल के थोड़ न देखेगा? जब अपने को अभाव में रखते हुए उसके मरने के बाद सात-सात दिन का अखण्ड पाठ जिसमें पाँच-सात लाख (रुपए ज़्यादा तो नहीं लिख गया ) हवा हो जाते हैं तब आप एक-दो दिन के त्योहारों पर हंगामा काट रहे हो?

शर्म करो। टुच्चे कहीं के? 

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